Book Title: Vishwa Dharm ke Rup me jain Dharm Ki Prasangikta
Author(s): Mahaveer Saran Jain
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211936/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-धर्म के रूप में ल जैनधर्म दर्शन की प्रासंगिकता SE आज के विश्व को एक ऐसे धर्म दर्शन की आवश्यकता है जो उसकी वर्तमान समस्याओं का समाधान कर सके । ____ आज भौतिक विज्ञानों ने बहुत विकास किया है। उनकी उपलब्धियों एवं अनुसन्धानों ने मनुष्य को चमत्कृत कर दिया है । ज्ञान का विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि प्रबुद्ध पाठक भी सम्पूर्ण ज्ञान से परिचय प्राप्त करने में असमर्थ एवं विवश है। ज्ञान की शाखा-प्रशाखा में विशेषज्ञता का दायरा बढ़ता जा रहा है। एक विषय का विद्वान् दूसरे विषय की तथ्यात्मकता एवं अध्ययन-पद्धति से अपने को अनभिज्ञ पा रहा है। हर जगह, हर दिशा में नई खोज, नया 1 अन्वेषण हो रहा है। प्रतिक्षण अनुसन्धान हो रहे हैं। जो आज तक नहीं खोजा जा सका, उसकी खोज में व्यक्ति संलग्न है, जो आज तक नहीं सोचा गया उसे सोचने में व्यक्ति व्यस्त है। जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें 'परात्पर परब्रह्म' के धरातल पर अगम्यरहस्य मानकर, उन पर चिन्तन करना बन्द कर दिया गया था वे आज अनुसंधेय हो गई हैं। सृष्टि की बहुत सी गुत्थियों की व्याख्या हमारे दार्शनिकों ने परमात्मा एवं माया के आधार पर की थी। उन व्याख्याओं कारण वे 'परलोक' की बातें हो गई थीं। आज उनके बारे में भी व्यक्ति जानना चाहता है । अन्वेषण की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है । आविष्कार का धरातल अब भौतिक पदार्थों तक ही सीमित होकर नहीं रह गया है । अन्तर्मुखी चेतना का अध्ययन एवं पहचान भी उसकी सीमा में आ रही है। पहले के व्यक्ति ने इस 70 संसार में कष्ट अधिक भोगे थे। भौतिक उपकरणों का अभाव था। उसने स्वर्ग की कल्पना की थी । भौतिक इच्छाओं की सहज तृप्ति की कल्पना ही उस लोक की परिकल्पना का आधार थी। आज का युग दिव्यताओं को धरती के अधिक निकट लाने के प्रयास में रत है। पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है। __ इतना होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं है । यह अशान्ति क्यों ? वह सुख की तलाश में भटक रहा है। धन बटोर रहा है, भौतिक उपकरण जोड़ रहा है । वह अपना मकान बनाता है। आलीशान इमा-मा रत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है। फिर मकान को सजाता , है । सोफासेट, कालीन, वातानुकूलित व्यवस्था, मँहगे पर्दे, प्रकाशध्वनि के आधुनिकतम उपकरण एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव । सब कुछ अच्छा लगता है। मगर परिवार के सदस्यों के बीच जो प्यार, विश्वास पनपना चाहिए उसकी कमी होती जा रही है । -डॉ. महावीर सरन जैन एम. ए., डी. फिल्., डी. लिट. २१३ - तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन C . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले पति-पत्नी भावना की डोरी से आजीवन इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है बँधने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे । दोनों को विश्वास जो मानव हृदय की असीम कामनाओं को सीमित रहता था कि वे इसी घर में आजीवन साथ-साथ करने की क्षमता रखता है, उसकी दृष्टि को रहेंगे । दोनों का सुख-दुख एक होता था। उनकी व्यापक बनाता है, मन में उदारता, सहिष्णुता एवं इच्छाओं की धुरी 'स्व' न होकर 'परिवार' थी। प्रेम की भावना का विकास करता है। वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के कोई भी समाज धर्महीन होकर स्थिर स्थित बदले. अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों नहीं रह सकता। समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा की इच्छाओं की पूति में सहायक बनना अधिक समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम एवं विश्वास का अच्छा समझते थे। आज की चेतना क्षणिक, भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक है संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होकर रह धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। धर्म का अर्थ हैगई है। इस कारण व्यक्ति अपने में ही सिमटता 'धन धारणे'=धारण करना । जिन्दगी में जो जा रहा है। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला धारण करना चाहिए-वही धर्म है। हमें जिन भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए वही अनुभव कर रहा है। धर्म है। भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल मन की कामनाओं को नियन्त्रित किये बिना चेतना को हमें आस्था प्रदान करनी है। निराश समाज रचना सम्भव नहीं है । जिन्दगी में संयम एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की की लगाम आवश्यक है । मशाल थमानी है। परम्परागत मूल्यों को तोड़ कामनाओं के नियन्त्रण की शक्ति या तो धर्म दिया गया है। उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया में है या शासन की कठोर व्यवस्या में । धर्म का जा सकता क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक अनुशासन 'आत्मानुशासन' होता है । व्यक्ति अपने हो गये हैं। परम्परागत मूल्यों की विकृतियों को पर स्वयं शासन करता है। शासन का अनुशासन नष्ट कर देना ही इच्छा है। हमें नये युग को नये हमारे ऊपर 'पर' का नियन्त्रण होता है । दूसरों के जीवन मूल्य प्रदान करने हैं। इस युग में बौद्धिक द्वारा अनुशासित होने में हम विवशता का अनुभव संकट एवं उलझनें पैदा हुई हैं । हमें समाधान का करते हैं, परतन्त्रता का बोध करते हैं, घुटन की रास्ता ढूढ़ना है। प्रतीति करते हैं। __ आज विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है। मार्स ने धर्म की अवहेलना की है । वास्तव में लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं । लक्ष्य- मार्क्स ने मध्ययुगीन धर्म के बाह्य आडम्बरों का विहीन होकर दौड़ने से जिन्दगी की मंजिल नहीं विरोध किया है। जिस समय मार्क्स ने धर्म के मिलती। बारे में चिन्तन किया उस समय उसके चारों ओर _ वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति धर्म का पाखण्ड भरा रूप था। मार्क्स ने इसी को का हमने संग्रह किया है उसका उपयोग किस धर्म का पर्याय मान लिया। प्रकार हो, गति का नियोजन किस प्रकार हो- वास्तव में धर्म तो वह पवित्र अनुष्ठान है यह आज के युग की जटिल समस्या है। इसके जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर तत्त्व है जिससे व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ देखना होगा। कर पाता है। धर्म दिखावा नहीं, प्रदर्शन नहीं, २१४ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन ( 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ , Rd. For private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ रूढ़ियाँ नहीं, किसी के प्रति घृणा नहीं, मनुष्य धर्म की उपर्युक्त धारणायें आज टूट चुकी हैं। मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं अपितु मनुष्य में मनु- विज्ञान ने हमें दुनियाँ को समझने और जानने का ष्यता के गुणों के विकास की शक्ति है; सार्वभौम तर्कवादी रास्ता बताया है । विज्ञान ने यह स्पष्ट चेतना का सत्-संकल्प है। किया कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम आज के विश्व के लिए किस प्रकार का धर्म नहीं है । विश्व तथा सभी पदार्थ कारण कार्य भाव एवं दर्शन सार्थक हो सकता है ? से बद्ध हैं । भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि जगत में किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल ___ मध्य युग में विकसित धर्म एवं दर्शन के पर रूपान्तर मात्र होता है। इस धारणा के कारण इस म्परागत स्वरूप एवं धारणाओं में आज के व्यक्ति जगत को पैदा करने वाली शक्ति का प्रश्न नहीं की आस्था समाप्त हो चुकी है । इसके कारण हैं। उठता । जीव को उत्पन्न करने वाली शक्ति का ___मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में 'ईश्वर' प्रतिष्ठित प्रश्न नहीं उठता। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के था। हमारा सारा धर्म एवं दर्शन इसी 'ईश्वर' के सिद्धान्त में विश्वास जगाया है। पदार्थ की अनश्वचारों ओर घूमता था। सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता, रता के सिद्धान्त की पुष्टि की है। समकालीन पालनकर्ता, संहारकर्ता के रूप में हमने 'परम पाश्चात्य अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का शक्ति' की कल्पना की थी। उसी शक्ति के अवतार निषेध किया है। उसने यह माना है कि मनुष्य का के रूप में, या उसके पुत्र के रूप में या उसके प्रति- सष्टा ईश्वर नहीं है। मनुष्य वह है जो अपने निधि के रूप में हमने ईश्वर, ईसा या अल्लाह को आपको बनाता है। माना तथा उन्हीं की भक्ति में अपनी मुक्ति का इस प्रकार जहाँ मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में मन्त्र मान लिया । स्वर्ग की कल्पना, देवताओं की ___ 'ईश्वर' प्रतिष्ठित था वहाँ आज की चेतना के केन्द्र ही कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, में मनष्य' प्रतिष्ठित है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का अपने देश एवं अपने काल की माया एवं प्रपची से मोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। आज परिपूर्ण अवधारणा आदि बातें हमारे मध्ययुगीन के मनुष्य के लिए ऐसा धर्म एवं दर्शन व्याख्यायित धर्म दर्शन के घटक थे । वर्तमान जीवन की मुसी- करना नोगा जो 'ईश्वरवादी' नहीं होगा, भ बतों का कारण हमने अपने विगत जीवन के कमा वादी नहीं होगा। उसके विधानात्मक घटक होंगे करना होगा जो 'ईश्वरवादी' नहीं होगा. भाग । कारण हमने अपने विगत जीवन को मान लिया । वर्तमान जीवन में अपने श्रेष्ठ (१) मनुष्य, (२) कर्मवाद की प्रेरणा, (३) सामाआचरण द्वारा अपनी मुसीबतों को कम करने की जिक समता। तरफ हमारा ध्यान कम गया, अपने आराध्य की। ____ आज के अस्तित्ववादी दर्शन में, विज्ञान के स्तुति एवं जयगान की ओर अधिक । द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं में तथा साम्यवादी ईश्वर और मनुष्य के बीच के बिचौ- शासन-व्यवस्था में कुछ विचार प्रत्यय समान हैं। लियों ने मनुष्य को सारी मुसीबतों, कष्टों, विपदाओं से मुक्त होकर स्वर्ग, बहिश्त में मौज की। (१) तीनों ईश्वरवादी नहीं हैं। ईश्वर के स्थान पर मनुष्य स्थापित है । जिन्दगो बिताने की राह दिखायी और बताया कि हमारे माध्यम से अपने आराध्यों के प्रति तन, मन, (२) तीनों भाग्यवादी नहीं हैं। कर्मवादी तथा धन से समपित हो जाओ-पूर्ण आस्था, पूर्ण पुरुषार्थवादी हैं। विश्वास, पूर्ण निष्ठा के साथ भक्ति करो । तर्क को (३) तीनों में मनुष्य की जिन्दगी को सुखी साधना पथ का सबसे बड़ा शत्रु मान लिया गया। बनाने का संकल्प है । तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 3 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Prvale a personal use ony Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCSTFORMECTIVE अस्तित्ववादी दर्शन में व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य पर होगा; दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित जोर है तो साम्यवादी दर्शन में सामाजिक समा- मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिये तत्पर नता पर। इन समान एवं विषम विचार-प्रत्ययों के होना होगा; भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की आधार पर क्या नये युग का धर्म एवं दर्शन निर्मित प्रतिष्ठा करनी होगी; उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोकिया जा सकता है ? पयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा। धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो प्राणीमात्र हम देखते हैं कि विज्ञान ने शक्ति दी है । अस्तित्ववादी दर्शन ने स्वातन्त्र्य चेतना प्रदान की है। को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के साम्यवाद ने विषमताओं को कम कराने पर बल बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। ऐसा दिया है। फिर भी. विश्व में संघर्ष की भावना है; दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच अशांति है, शस्त्रों की स्पर्धा एवं होड़ है; जिन्दगी में दीवारें खडी करके चले । धर्म और दर्शन को आधुof हैवानियत है। फिर यह सब क्यों है ? निक लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था के आधारभूत -स्वतंत्रता, समानता, विश्व बन्धुत्व __ इसका मूल कारण है कि इन तीनों ने 'संघर्ष' तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों का अविरोधी को मूल मान लिया है। मार्क्सवाद वर्ग-संघर्ष पर आधारित है । विज्ञान में जगत, मनुष्य एवं यंत्र का होना चाहिए। संघर्ष है । अस्तित्ववाद व्यक्ति एवं व्यक्ति के अस्ति- जैन : आत्मानुसन्धान का दर्शन–'जन' साम्प्रत्व-वृत्तों के मध्य संघर्ष, भय, घृणा आदि भावों की दायिक दृष्टि नहीं है । यह सम्प्रदायों से अतीत होने उद्भावना एवं प्रेरणा मानता है। की प्रक्रिया है। सम्प्रदाय में बन्धन होता हैं। यह आज हमें मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रति बन्धनों से मुक्त होने का मार्ग है। 'जैन' शाश्वत ष्ठित कर उसके पुरुषार्थ और विवेक को जागृत कर जीवन-पद्धति तथा जड़ एवं चेतन के रहस्यों को उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों एवं पदार्थों के जानकर 'आत्मानुसंधान' की प्रक्रिया है। प्रति अपनत्व का भाव जगाना है। मनुष्य एवं मनुष्य जैनदर्शन : प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्रता की के बीच आत्म-तुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे उद्घोषणा-भगवान् महावीर ने कहा-'पुरिसा ! परस्पर समझदारी. प्रेम, विश्वास पैदा हो सके। तुममव तुम मिस । मनुष्य को मनुष्य के खतरे से बचाने के लिए हमें पुरुष तू अपना मित्र स्वयं है। जैन दर्शन में आधुनिक चेतना-सम्पन्न व्यक्ति को आस्था एवं आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया विश्वास का सन्देश प्रदान करना है। है-'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' आत्मा ही दूख एवं सूख का कर्ता या विकता है। प्रश्न उठता है कि हमारे दर्शन एवं धर्म का यानी कोई बाहरी शक्ति आपको नियंत्रित, संचास्वरूप क्या हो ? लित, प्रेरित नहीं करती। आप स्वयं ही अपने हमारा दर्शन ऐसा होना चाहिए जो मानव जीवन के ज्ञान से, चरित्र से उच्चतम विकास कर मात्र को सन्तुष्ट कर सके, मनुष्य के विवेक एवं सकते हैं। यह एक अत्यधिक क्रान्तिकारी विचार पुरुषार्थ को जागृत कर उसको शान्ति एवं सौहार्द है। इसको यदि हम आधुनिक जीवन-सन्दर्भो के का अमोघ मंत्र दे सकने में सक्षम हो। इसके लिए अनरूप व्याख्यायित कर सकें तो निश्चित रूप से हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी; विश्व के ऐसे समस्त प्राणी जो धर्म और दर्शन से सामाजिक बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना निरन्तर दूर होते जा रहे हैं, इससे जुड़ सकते हैं। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Teravate. Dersonalise Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भगवान् महावीर का दूसरा क्रान्तिकारी एवं साधना कर सके, राग-द्वेष को छोड़ सके तो कोई वैज्ञानिक विचार यह है कि मनुष्य जन्म से नहीं ऐसा कारण नहीं है कि वह प्रगति न कर सके । जब अपितु आचरण से महान बनता है। इस सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है, अपने ज्ञान और के आधार पर उन्होंने मनुष्य समाज की समस्त साधना के बल पर उच्चतम विकास कर सकता है दीवारों को तोड़ फेंका। आज भी मनुष्य और और तत्त्वतः कोई किसी की प्रगति में न तो बाधक मनुष्य के बीच खडी की गई जितने प्रकार की दीवारें है और न साधक तो फिर संघर्ष का प्रश्न ही कहाँ हैं उन सारी दीवारों को तोड़ देने की आवश्यकता उठता है ? इस तरह उन्होंने एक सामाजिक दर्शन - है। यदि हम यह मान लेते हैं कि 'मनुष्य जन्म से दिया। नहीं, आचरण से महान बनता है' तो जो जातिगत प्रत्येक जीव में आत्मशक्ति-सामाजिक समता विष है, समाज की शान्ति में एक प्रकार का जो विष एवं एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम घुला हुआ है, उसको हम दूर कर सकते हैं । जो महत्व है। इस परम्परा में मानव को मानव के ४। पढ़ा हुआ वर्ग है उसे निश्चित रूप से इसको सैद्धा __ रूप में देखा गया है; वर्णो, सम्प्रदायों, जाति, उपन्तिक रूप से ही नहीं अपितु इसे अपने जीवन में जाति, वादों का लेबिल चिपकाकर मानव मानव आचरण की हाष्ट से भा उतारना चाहिए। को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं। मानव प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा बन सकता है-प्रत्येक महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैनदर्शन में व्यक्ति साधना के आधार पर इतना विकास कर हुआ है वह अप्रतिम है । भगवान महावीर ने आत्मा सकता है कि देवता लोग भी उसको नमस्कार करते को स्वतन्त्रता की प्रजातन्त्रात्मक उद्घोषणा की। हैं । 'देवा वि त्तं नमंसन्ति जस्स धम्म सया मणो !' उन्होंने कहा कि समस्त आत्माएँ स्वतन्त्र हैं । विव। महावीर ने ईश्वर की परिकल्पना नहीं की: देव- क्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों ताओं के आगे झुकने की बात नहीं की अपितु मान- का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ वीय महिमा का जोरदार समर्थन करते हुए कहा किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। व्यक्ति अपनी ही इसके साथ-साथ उन्होंने यह बात कही कि जीवन-साधना के द्वारा इतना उच्चस्तरीय विकास स्वरूप की दृष्टि से समरत आत्माएँ समान हैं । अस्तित्व की दृष्टि से समस्त आत्माएँ स्वतन्त्र हैं; कर सकता है कि आत्मा ही परमात्मा बन सकती है। भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्माएँ समान हैं। मनुष्य मात्र में आत्म-शक्ति जैन तीर्थकरों का इतिहास एवं उनका जीवन है । शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण आकाश से पृथ्वी पर उतरने का क्रम नहीं है अपितु, कर्मों का भेद है । 'जीव' अपने ही कारण से संसारी । पृथ्वी से ही आकाश की ओर जाने का उपक्रम बना है और अपने ही कारण से मुक्त होगा। व्यव है । नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है हार से बन्ध और मोक्ष के हेतु अन्य पदार्थ को । अपितु नर का ही नारायण बनना है । वे अवतार- जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव स्वयं वादी परम्परा के पोषक नहीं अपितु उत्तारवादा मोक्ष का हेतू है। आत्मा अपने स्वयं के उपाजित है। परम्परा के तीर्थंकर थे। उन्होंने अपने जीवन की कर्मों से ही बंधती है । आत्मा का दुःख स्वकृत है। । साधना के द्वारा, प्रत्येक व्यक्ति को यह प्रमाण प्रत्येक व्यक्ति ही प्रयास से उच्चतम विकास दिया; उसे यह विश्वास दिलाया कि यदि वह कर सकता है । तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For private a Personal use only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में आत्माएँ अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी स्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक जीवात्मा अपने रूप में रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त पर्यायों का ग्रहण कर सकती है । स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं । जीव के सहज गुण अपने मूल रूप में स्थित रहते हैं । पुरुषार्थं के परिणामस्वरूप शुद्धि - अशुद्धि की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है । आत्म-तुल्यता तथा सामाजिक समता - भगवान् ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखने एवं समस्त संसार को समभाव में देखने का निर्देश दिया । ‘श्रमण' की व्याख्या करते हुए उसकी सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में बतलायी । समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण बनाती है । भगवान् ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं, जाति और कुल से त्राण नहीं होता । प्राणी मात्र आत्मतुल्य है । से इस कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव रखो, आत्मतुल्य समझो, सबके प्रति मैत्रीभाव रखो, समस्त संसार को समभाव से देखो । समभाव के महत्व का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि आर्य महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा है । अहिंसा : जीवन का विधानात्मक मूल्य एवं भाव दृष्टि - भगवान् महावीर ने अहिंसा शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया - मन, वचन, कर्म से किसी को पीड़ा न देना । यहाँ आकर अहिंसा जीवन का विधानात्मक मूल्य बन गया । महावीर ने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया । उन्होंने संसार में प्राणियों के प्रति आत्मतुल्यता-भाव की जागृति का उपदेश दिया, शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया । २१८ जब व्यक्ति सभी जीवों को समभाव से देखता है तो राग-द्वेष का विनाश हो जाता है । उसका चित्त धार्मिक बनता है । रागद्वेष-हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है । समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर व्यक्ति अहिंसक अपने आप हो जाता है । इसका कारण यह है कि प्राणी मात्र जीवित रहने की कामना करने वाले हैं। सबको अपना जीवन प्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । जब सभी प्राणियों को है तो किसी भी प्राणी को दुःख न पहुँचाना ही दुःख अप्रिय अहिंसा है | अहिंसा केवल निवृत्तिपरक साधना नहीं है, यह व्यक्ति को सही रूप में सामाजिक बनाने का अमोघ मन्त्र है । अहिंसा के साथ व्यक्ति की मानसिकता का सम्बन्ध है । इस कारण महावीर ने कहा कि अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है । एक कृषक अपनी क्रिया करते हुए यदि अनजाने जीवहिंसा कर भी देता है तो भी हिंसा की भावना उसके साथ जुड़ती नहीं है । भले ही हम किसी का वध न करें, किन्तु किसी के वध करने के विचार का सम्बन्ध मानसिकता से सम्पृक्त हो जाता है । इसी कारण कहा गया है कि रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा एवं उसका प्रादुर्भाव हिंसा है । हिंसा से पाशविकता का जन्म होता है, अहिंसा से मानवीयता एवं सामाजिकता का । दूसरों का अनिष्ट करने की नहीं, अपने कल्याण के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य को सामाजिक एवं मानवीय बनाया है। प्रकृति से वह आदमी है, नैतिकताबोध के संस्कारों ने उसमें मानवीय भावना का विकास कर उसके जीवन को सार्थकता प्रदान की है। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BA ---- __ अहिंसा से अनुप्राणित अर्थ तन्त्र : अपरिग्रह- भगवान् महावीर ने पहचाना था। इसी कारण अहिंसा के साथ ही जुड़ी हुई भावनाएं हैं-अपरि- उन्होंने कहा कि जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा ग्रहवाद एवं अनेकांतवाद । परिग्रह से आसक्ति एव करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन ममता का जन्म होता है। अपरिग्रह वस्तुओं के का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता प्रति ममत्वहीनता का नाम है । जब व्यक्ति अहिंसक है। परिग्रह को घटाने से ही हिंसा, असत्य, अस्तेय होता है, रागद्वेष रहित होता है तो स्वयमेव अप- एवं कुशील इन चारों पर रोक लगाती है । रिग्रहवादी हो जाता है। उसकी जीवन-दृष्टि बदल जाती है। भौतिक-पदार्थों के प्रति आसक्ति समाप्त परिग्रह के परिमाण के लिए 'संयम' की साधना हो जाती है। अहिंसा की भावना से प्रेरित व्यक्ति आवश्यक है। 'संयम' पारलौकिक आनन्द के लिए अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाता ही नहीं, इस लोक के जीवन को सूखी बनाने के है, जिससे किसी अन्य प्राणी के हितों को आघात लिए भी आवश्यक है। आधुनिक युग में पाश्चात्य 710 न पहुँचे। जगत के विचारकों ने स्वच्छंद यौनाचार एवं निधि इच्छा-तप्ति की प्रवृत्ति को सहज मान लिया। इस बहुत अधिक उत्पादन मात्र करने से ही हमारी कारण पाश्चात्य जगत के व्यक्ति एवं समाज ने सामाजिक समस्याएँ नहीं सुलझ सकतीं। हमें व्यक्ति 'व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा अचेतन मन की संतुष्टि' के चित्त को अन्दर से बदलना होगा। उसकी आदि सिद्धान्तों के नाम पर जिस प्रकार का संयमकामनाओं, इच्छाओं को सीमित करना होगा तभी हीन आचरण किया उसका परिणाम क्या निकला हमारी बहुत सारी सामाजिक समस्याओं को सुल है ? जीवन की लक्ष्यहीन, सिद्धान्तहीन, मूल्यविहीन झाया जा सकेगा। स्थिति एवं निर्बाध भोगों में निरत समाज की ऐसा नहीं हो सकता कि कोई सामाजिक प्राणी स्थिति क्या है ? उनके पास पैसा है, धन-दौलत है, सम्पूर्ण पदार्थों को छोड़ दें। किन्तु हम अपने जीवन साधन हैं किन्त फिर भी जीवन में संत्रास. अविको इस प्रकार से ढाल सकते हैं कि पदाथ हमार श्वास. अतप्ति. वितष्णा एवं कठाएँ हैं। हिप्पी पास रहें किन्तु उनके प्रति हमारी आसक्ति न हो, सम्प्रदाय क्या इसी प्रकार की सामाजिक स्थिउनके प्रति हमारा ममत्व न हो। तियों का परिणाम नहीं है । समाज में इच्छाओं को संयमित करने की वैचारिक अहिंसा : अनेकान्तवाद -- अहिंसक भावना का विकास आवश्यक है। इसके बिना व्यक्ति आग्रही नहीं होता। उसका प्रयत्न होता है र मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। 'पर- नियों कि वह दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचावे कल्याण' की चेतना व्यक्ति की इच्छाओं को लगाम वह सत्य की तो खोज करता है, किन्तु उसकी म लगाती है तथा उसमें त्याग करने की प्रवृत्ति एवं कथन-शेली में अनाग्रह एवं प्रेम होता है। अनेअपरिग्रही भावना का विकास करती है। कान्तवाद व्यक्ति के अहंकार को झकझोरता है। परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को अनुदार बनाती है, उसकी आत्यन्तिक-दृष्टि के सामने प्रश्नवाचक चिह्न उसकी मानवीयता को नष्ट करती है। उसकी लगाता है । अनेकान्तवाद यह स्थापना करता है लालसा बढ़ती जाती है। धनलिप्सा एवं अर्थ- कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुण एवं धर्म होते हैं। लोलुपता ही उसका जीवन-लक्ष्य हो जाता है। सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार सामान्य व्यक्ति द्वारा उसकी जिन्दगी पाशविक शोषणता के रास्ते पर एकदम सम्भव नहीं हो पाता। अपनी सीमित दृष्टि बढ़ना आरम्भ कर देती है । इसके दुष्परिणामों को से देखने पर हमें वस्तु के एकांगी गुण-धर्म का ज्ञान तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal use only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. होता है / विभिन्न कोणों से देखने पर एक ही वस्तु से उन्मुक्त विचार करने की प्रेरणा प्रदान की जा KI हमें भिन्न प्रकार की लग सकती है तथा एक स्थान सकती है। से देखने पर भी विभिन्न दृष्टियों की प्रतीतियाँ यदि हम प्रजातन्त्रात्मक यूग में वैज्ञानिक पद्धति से सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो 16 फरवरी, 1980 को सूर्यग्रहण के अवसर 'अनेकांत' से दृष्टि लेकर 'स्याद्वाद प्रणाली' द्वारा पर काल के एक ही क्षण भारतवर्ष के विभिन्न कर सकते हैं। चिन्तन के धरातलों पर उन्मक्तता 15 स्थानों पर व्यक्तियों को सूर्यग्रहण के समान दृश्य / तथा अनाग्रह तथा संवेदना के धरातल पर प्रेम की प्रतीति नहीं हुई / कारवार, रायचूर एवं पुरी HER [ की भावना का विकास कर सकते कारण पूर्ण अँधेरा छा गया; वहीं बम्बई में सूर्य का 85 प्रतिशत भाग, दिल्ली में 58 प्रतिशत भाग इस प्रकार विश्व-धम इस प्रकार विश्व-धर्म के रूप में जैन धर्म एवं 18 तथा श्रीनगर में 48 प्रतिशत भाग दिखाई नहीं दर्शन की आधुनिक युग में प्रासंगिकता को व्याख्यादिया। यित करने की महती आवश्यकता है। यह मनुष्य | भारतवर्ष मे ही सूर्यग्रहण आरम्भ एवं समाप्ति एवं समाज दोनों की समस्याओं का अहिंसात्मक के समय में भी अन्तर रहा / कारवार में सूर्यग्रहण समाधान प्रस्तुत करता है / यह दर्शन आज की मध्याह्न 2.17 20 बजे आरम्भ हुआ तो भुवनेश्वर प्रजातन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था एवं वैज्ञानिक सापेक्षमें 2:42.15 पर तथा कारवार में 4.52.10 वादी चिन्तन के भी अनुरूप है। आदमी के भीतर समाप्त हुआ तो भुवनेश्वर में 4-56.35 पर। पूर्ण की अशांति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को यदि दूर करना है तथा अन्ततः मानव के अस्तित्व को रही तो भुवनेश्वर में यह अवधि केवल 46 सेकंड बनाये रखना है तो जैन दर्शन एवं धर्म में प्रतिपा दित मानव की प्रतिष्ठा, प्रत्येक आत्मा की स्वतकी ही रही। न्त्रता तथा प्रत्येक जीव में आत्म-शक्ति का अस्तित्व 'स्याद्वाद' अनेकांतवाद का समर्थक उपादान आदि स्थापनाओं एवं प्रत्ययों को विश्व के सामने है। तत्वो को व्यक्त कर सकने की प्रणाली है। सत्य रखना होगा। जैन धर्म एवं दर्शन मानव-मात्र के II कथन की वैज्ञानिक पद्धति है। लिए समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करता मिथ्या ज्ञान के वचनों को दूर करके स्याद्वाद है। सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था ने ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया, एकांतिक का चिन्तन प्रस्तुत करता है। पूर्वाग्रह रहित उदार चिन्तन की सीमा बतलाई / आग्रहों के दायरे में दृष्टि से एक दूसरे को समझाने और स्वयं को तलासिमटे हुए मानव की अंधेरी कोठरी को अनेकांत- शने-जानने के लिये अनेकांतवादी जीवन-दृष्टि | वाद के अनन्त लक्षणसम्पन्न सत्य-प्रकाश से आलो- प्रदान करता है। समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए कित किया जा सकता है। आग्रह एवं असहिष्णुता समान अधिकार की घोषणा करता प्रत्येक व्यक्ति CI के बन्द दरवाजों को स्याद्वाद के द्वारा खोलकर, को 'स्व-प्रयत्न' से विकास करने का मार्ग दिखाता अहिंसावादी रूप में विविध दृष्टियों एवं सन्दर्भो है। 220 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Formsrivated bersonalitice Only