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अस्तित्ववादी दर्शन में व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य पर होगा; दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित जोर है तो साम्यवादी दर्शन में सामाजिक समा- मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिये तत्पर नता पर। इन समान एवं विषम विचार-प्रत्ययों के होना होगा; भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की आधार पर क्या नये युग का धर्म एवं दर्शन निर्मित प्रतिष्ठा करनी होगी; उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोकिया जा सकता है ?
पयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा। धर्म एवं
दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो प्राणीमात्र हम देखते हैं कि विज्ञान ने शक्ति दी है । अस्तित्ववादी दर्शन ने स्वातन्त्र्य चेतना प्रदान की है।
को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के साम्यवाद ने विषमताओं को कम कराने पर बल बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। ऐसा दिया है। फिर भी. विश्व में संघर्ष की भावना है;
दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी आदमी के बीच अशांति है, शस्त्रों की स्पर्धा एवं होड़ है; जिन्दगी में
दीवारें खडी करके चले । धर्म और दर्शन को आधुof हैवानियत है। फिर यह सब क्यों है ?
निक लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था के आधारभूत
-स्वतंत्रता, समानता, विश्व बन्धुत्व __ इसका मूल कारण है कि इन तीनों ने 'संघर्ष'
तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों का अविरोधी को मूल मान लिया है। मार्क्सवाद वर्ग-संघर्ष पर आधारित है । विज्ञान में जगत, मनुष्य एवं यंत्र का
होना चाहिए। संघर्ष है । अस्तित्ववाद व्यक्ति एवं व्यक्ति के अस्ति- जैन : आत्मानुसन्धान का दर्शन–'जन' साम्प्रत्व-वृत्तों के मध्य संघर्ष, भय, घृणा आदि भावों की दायिक दृष्टि नहीं है । यह सम्प्रदायों से अतीत होने उद्भावना एवं प्रेरणा मानता है।
की प्रक्रिया है। सम्प्रदाय में बन्धन होता हैं। यह आज हमें मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रति
बन्धनों से मुक्त होने का मार्ग है। 'जैन' शाश्वत ष्ठित कर उसके पुरुषार्थ और विवेक को जागृत कर
जीवन-पद्धति तथा जड़ एवं चेतन के रहस्यों को उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों एवं पदार्थों के
जानकर 'आत्मानुसंधान' की प्रक्रिया है। प्रति अपनत्व का भाव जगाना है। मनुष्य एवं मनुष्य
जैनदर्शन : प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्रता की के बीच आत्म-तुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे उद्घोषणा-भगवान् महावीर ने कहा-'पुरिसा ! परस्पर समझदारी. प्रेम, विश्वास पैदा हो सके। तुममव तुम मिस । मनुष्य को मनुष्य के खतरे से बचाने के लिए हमें पुरुष तू अपना मित्र स्वयं है। जैन दर्शन में आधुनिक चेतना-सम्पन्न व्यक्ति को आस्था एवं आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया विश्वास का सन्देश प्रदान करना है।
है-'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य'
आत्मा ही दूख एवं सूख का कर्ता या विकता है। प्रश्न उठता है कि हमारे दर्शन एवं धर्म का
यानी कोई बाहरी शक्ति आपको नियंत्रित, संचास्वरूप क्या हो ?
लित, प्रेरित नहीं करती। आप स्वयं ही अपने हमारा दर्शन ऐसा होना चाहिए जो मानव जीवन के ज्ञान से, चरित्र से उच्चतम विकास कर मात्र को सन्तुष्ट कर सके, मनुष्य के विवेक एवं सकते हैं। यह एक अत्यधिक क्रान्तिकारी विचार पुरुषार्थ को जागृत कर उसको शान्ति एवं सौहार्द है। इसको यदि हम आधुनिक जीवन-सन्दर्भो के का अमोघ मंत्र दे सकने में सक्षम हो। इसके लिए अनरूप व्याख्यायित कर सकें तो निश्चित रूप से हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी; विश्व के ऐसे समस्त प्राणी जो धर्म और दर्शन से सामाजिक बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना निरन्तर दूर होते जा रहे हैं, इससे जुड़ सकते हैं।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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