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जैनदर्शन में आत्माएँ अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी स्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक जीवात्मा अपने रूप में रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त पर्यायों का ग्रहण कर सकती है ।
स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं । जीव के सहज गुण अपने मूल रूप में स्थित रहते हैं । पुरुषार्थं के परिणामस्वरूप शुद्धि - अशुद्धि की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है ।
आत्म-तुल्यता तथा सामाजिक समता - भगवान् ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखने एवं समस्त संसार को समभाव में देखने का निर्देश दिया । ‘श्रमण' की व्याख्या करते हुए उसकी सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में बतलायी । समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण बनाती है ।
भगवान् ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं, जाति और कुल से त्राण नहीं होता । प्राणी मात्र आत्मतुल्य है । से इस कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव रखो, आत्मतुल्य समझो, सबके प्रति मैत्रीभाव रखो, समस्त संसार को समभाव से देखो । समभाव के महत्व का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि आर्य महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा है ।
अहिंसा : जीवन का विधानात्मक मूल्य एवं भाव दृष्टि - भगवान् महावीर ने अहिंसा शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया - मन, वचन, कर्म से किसी को पीड़ा न देना । यहाँ आकर अहिंसा जीवन का विधानात्मक मूल्य बन गया ।
महावीर ने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया । उन्होंने संसार में प्राणियों के प्रति आत्मतुल्यता-भाव की जागृति का उपदेश दिया, शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया ।
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जब व्यक्ति सभी जीवों को समभाव से देखता है तो राग-द्वेष का विनाश हो जाता है । उसका चित्त धार्मिक बनता है । रागद्वेष-हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है ।
समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर व्यक्ति अहिंसक अपने आप हो जाता है । इसका कारण यह है कि प्राणी मात्र जीवित रहने की कामना करने वाले हैं। सबको अपना जीवन प्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । जब सभी प्राणियों को है तो किसी भी प्राणी को दुःख न पहुँचाना ही दुःख अप्रिय अहिंसा है | अहिंसा केवल निवृत्तिपरक साधना नहीं है, यह व्यक्ति को सही रूप में सामाजिक बनाने का अमोघ मन्त्र है ।
अहिंसा के साथ व्यक्ति की मानसिकता का सम्बन्ध है । इस कारण महावीर ने कहा कि अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है । एक कृषक अपनी क्रिया करते हुए यदि अनजाने जीवहिंसा कर भी देता है तो भी हिंसा की भावना उसके साथ जुड़ती नहीं है । भले ही हम किसी का वध न करें, किन्तु किसी के वध करने के विचार का सम्बन्ध मानसिकता से सम्पृक्त हो जाता है ।
इसी कारण कहा गया है कि रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा एवं उसका प्रादुर्भाव हिंसा है ।
हिंसा से पाशविकता का जन्म होता है, अहिंसा से मानवीयता एवं सामाजिकता का । दूसरों का अनिष्ट करने की नहीं, अपने कल्याण के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य को सामाजिक एवं मानवीय बनाया है। प्रकृति से वह आदमी है, नैतिकताबोध के संस्कारों ने उसमें मानवीय भावना का विकास कर उसके जीवन को सार्थकता प्रदान की है।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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