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वाचक मुक्तिसौभाग्यगणि कृत स्तवनचोवीसी :
डो. अभय दोशी एक संक्षिप्त परिचय आ चोवीसीनी एकमात्र हस्तप्रत श्री ला.द.प्राच्यविद्यामंदिरमाथी प्राप्त थई छे. १० पत्र धरावती आ हस्तप्रत व्यवस्थित स्वच्छ अक्षरो धरावे छे, परंतु केटलेक स्थळे अक्षरो एकसरखा होवाथी भ्रम उपजावे छे. अंते पुष्पिकामां लिपिकार आदिनुं नाम आदि आपवामां आव्युं नथी. परंतु लखावटनी दृष्टिले प्रत विक्रमना १९मा शतकनी होय एवं संभवित जणाय छे.
वाचक मुक्तिसौभाग्य गणिनो पण कोई परिचय प्राप्त थतो नथी. परंतु तेमनुं 'सौभाग्य' एवं अंतिम नाम तेमना गच्छ तरीके तपागच्छनी 'सौभाग्य' शाखानो निर्देश करे छे. तेमज कृतिमां व्यापकपणे प्रयोजायेली १८मा शतकना स्तवनोनी देशीओने कारणे तेमनो काळ १८मा शतकनो उत्तरार्ध के १९मा शतकनो होवानुं निश्चित करी शकाय छे.
आ चोवीशी भक्तिप्रधान-भक्तिहदयना भावोल्लासथी सभर एवी मनहर कृति छे. कवि पर यशोविजयजी, मानविजयजी आदि कविओनो प्रभाव जोई शकाय, एम छतां कवि हृदयनी सच्चाई तेम ज केटलीक मनोहर नाविन्यसभर अलंकाररचनाओ, काव्यात्मक उक्तिओने कारणे आ चोवीशी एक नोंधपात्र चोवीशी तरीके स्थान पामे एवी बनी छे. आ उपरांत कवि तेरमा स्तवनमां करेलो चारणी शैलीनो कमलबंधनो प्रयोग पण नोंधपात्र छे.
___कविले अभिनंदनस्वामी स्तवनमां परमात्माना प्रभावने वर्णवतां मनहर कल्पना करी छे. कवि कहे छे के, ज्यारथी मारा हृदयमां परमात्मा वस्या छे, त्यारथी चिंतामणिरत्न, कामकुंभ अने कल्पवृक्ष- मूल्य मारे मन क्रमशः पथ्थर, माटी अने काष्ट समान ज थई गयुं छे. तो सुमतिनाथ स्तवनमां चातक-मेघ, भ्रमर-मालती आदि परंपरागत उपमाओनी साथे ज छात्रने मन विद्या अने समदर्शीने मन शांति, नयवादीने मन नय जेवी नाविन्यसभर उपमाओ, आलेखन जोवा मळे छे. छट्स पद्मप्रभस्वामी स्तवनमां परमात्मा साथेनी दृढप्रीति अंगे प्रयोजेलुं दृष्टांत नोंधपात्र छे. कवि कहे छे, कोई शुभ
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दिवसे, शुभ मुहूर्ते मारा हृदयमां सज्जन पुरुषनी जेम आपनो वास थयो छे, ते कायम माटे अंकित थयो छे. जेम चित्रमा हाथी पर एकवार महावत दोरवामां आवे, तेने ऊतारवानो गमे तेटलो प्रयत्न करवामां आवे, छतां ते जेम ऊतरतो नथी एम, तमे मारा हदयमांथी पळभर पण दूर थता नथी.
चौदमा श्री अनंतनाथ स्तवनमा परमात्मानी उपस्थितिने कारणे कर्मोनी केवी दशा थई छे. तेनुं अलंकार-लययुक्त आलेखन कर्यु छे;
"तुं हि ज मुझ शिर राजीउ, कर्म अहितस्युं जोर,
ते वनि पन्नग गत विरहें, जिहां विचरे हरखे मोर.'
हे प्रभु ! जो आप मारा शिर पर बिराजमान हो, तो कर्म-अहित शुं करी शके ? जेम जे वनमां हर्षपूर्वक मोर क्रीडा करता होय, त्यां साप केवी रीते रही शखे !
श्री कुंथुनाथ स्तवनमा ‘अर्क' शब्द परनो श्लेष्ट नोंधपात्र छे;
'अरक नामें तरु छे जेह, अरकसमान दीपे स्युं तेह.'
अर्क वृक्ष (आकडो) शु अर्क (सूर्य) समान दीप्तिमान थई शके ! ए भले वृक्ष तरीके अर्क नाम धरावे छे, पण ते वास्तविक सूर्य जेवो प्रकाश धरावी शकतो नथी.
ए ज रीते श्री नेमिनाथ स्तवनमा पोतानी प्रीतिनी दृढताने वर्णवता कहे छे
"थाइं जूनी देहडी, प्रीत न जूनी होइं रे... वागो विणसें जरकसी, पिण सोनुं श्याम न होई रे."
ए ज रीते महावीरस्वामी स्तवनमां परमात्माना शासन पाम्यानो आनंद मनहर वर्णानुप्रास अलंकार. द्वारा आलेखायो छे.
'मेरु थकी मरुभूमिका रे, रुडी रुडी रीति रे.'
आवी अनेक मनोहर-काव्यसौंदर्य भावसौंदर्यमय अभिव्यक्तिने लीधे आ चोवीस मध्यकालीन स्तवन साहित्यनी एक महत्त्वनी कृति तरीके स्थान पामे तेवी छे.
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अनुसंधान-२५
अथ चोवीसी लिख्यते
(देशी रसीयानी) प्रथम जिणेसर माहरि प्रीतिने, निरखो धणुं करी प्रेम. सनेही पूरण कलाई जिम दीपतो, चंद चकोर ती तेम. स० १ प्र० माहरें तमस्युं प्रीति अनादिनी, जिम जलसफरीनी रीती. सेवकने उवेखी मुंकस्यो, साहिब एह न नीति. स० २ प्र० पोते सेव्यु काष्टने जाणीने, तारें नावने नीर. तस संगे लोह तरें तिम जाणीइं, मुझ अवगुणनैं धीर स० ३ प्र० नीरागी थइने जो छूटस्यो, तो नही फावो रे दाय, भगति करि अम्हे मनमां लावस्युं, तव ही स्यो साहिब सरवाये.स० ४ प्र० अथवा भगति जो अमनें आपस्यो, तोरी कि बुद्धिन काम. वीरुइ मजइ मज जो तुम्ह तणूं, तो बोहिदयाणं स्युं नाम. स० ५ प्र० पिण हुं सेवक स्वामी तुं माहरो, प्रभु छो गरिबनिवाज. महेर कर्यानी हवे वात तो, न रह्यो अजर समाज, पूरव पुण्य पसाई पामिउ, दरिसण ताहरें आज, हुं इम मानुं जिनजी मुगतिनां, सहजें सरियां हो काज स० ७ प्र०
इति श्री ऋषभजिन स्तवनं
स०६ प्र०
(थारा मोहलां उपरि मेह झरुखे वीजली हो लाल-ए देशी) अजित जिणेसर साहिब सांभलो जगधणी हो. सां० आणि वउं शिर माहरे नित नित तुम तणी हो. नित० तुम सम बीजो जगतमां पेख को नही हो पे० सुख अनंतनुं मूल छे माहरे तुं सही हो लाल. मा० १ तुमस्युं बांध्यो प्रेम जे साचा चित्तथी हो ला सा० ते किम थाइं फोक के माहरा हेतथी[हो] मा०
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भमरे बांधी प्रीति तें कमलस्युं जिम खरी हो क० गोत्र सूता पिण प्रीति करीनें शिव वरी हो क० २
दिनकरनें कमलनी, जिम वली कुमुदिनी हो जि० चंदनें इ छें जिम शचि मुरति इंद्रनी हो मू० जिम वली कमला माधव प्रीति जिम कामने हो प्री० तिम हुं चाहुं देव तुमारा नामनें हो तु० ३
तुमस्युं बांधी प्रीति जे जालिम जोरस्युं हो जा० ते मिथ्या किम थाई अपजन सोरस्युं हो अ० काक कुशब्दथी कोकिल रूत किंम मुंकस्यें हो रू० देखी आंबा मोहरने, दूरिजन झूरस्यें हो. दु० ४
पिण ए वातनी लाज तो ताहरे हाथे छे हो ता० मीन मोटुं पिण जीवनु कारण पाथ छे हो. जे जननु परि रा वस्यो प्रीतिने तोरय रे हो. निरमल आतम करीनें, मुगतिनें ते वरें हो मु० ५
इति श्रीअजितजिनस्तवनं ॥२॥
(वाटडी विलोकुं रे वाहला वीरनी रे-ए देशी ) वंदना मानो रे संभव माहरी रे, तुमचो वंद्य स्वभाव. वंदक भावें रे हुं वरतुं सदा रे, जिम स्वामि सेवक भाव. आगम रीतिं रे वांदी नवि सकुं रे, पिण वांदवा घणुं हेत. जिम कोइ वामन उंचा फल प्रति रे, यत्न करीस्युं नही लेत. २ वं. वंदक निंदक मान अपमानने रे, वली कंचन पाषाण.
मुगति संसारनें मणि तृण सम गणो, वली जाण नैं अजाण.
इणि रीते रे समदरशी पर्णे रे, वरतो छो महाराज. तारों मुझनें ते माटे प्रभु रे, बांहि ग्रह्यानी छें लाज.
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१ वं.
३ वं.
४ वं.
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अनुसंधान-२५ मोडं वहेलुं जो प्रभु आपज्योरे, तो शी अरजनी वात. कोकिल चाहे कंठ सुशब्दनें रे, अंब छै मांजरि दात. मोटो दानी तुम सम को नही रे, हुं इम मार्नु निरधार. चंद चकोरनें दानी जेहवो रे, तेहवो स्युं दूजो संसारि. ते कारणथी हुं तुमन्हें कउं रे, तुमे छो देवना देव. वाचक मुगति इम विनवें, आपो भवोभव सेव.
इति श्रीसंभवजिनस्तवनं ॥ ३ ॥
(कुंथु जिणेसर जाणज्यो रे-ए देशी) अभिनंदन जिन सेवना रे, करो भवि अक मनरे एह सम बीजो को नही हो लाल, मानु ए अनुभववन्त रे. वा०१ आतम आधार ए अछे हो लाल टेक. एहनी साथें प्रीतिने रे, पामी ए पुण्यनो योग रे वा० जिहां तिहां एहवी नवि होइं हो, भवि भवि जिम सुर भोग रे. वा०२ आ० हुं तो पाम्यो पुण्यथी रे, एह प्रभुपद कज केलि रे तस आगें तरj थइ हो, 'मोहन चित्रावेलि रे वा० ३. सुरमणि सुरघट सुरतरु रे, उपल माटि काष्ट रे थइनें अगोचर ते गयां हो ला. मुझ मन जव ए प्रतिष्ट रे. वा०४ सु० ए अभिनव सुरगवी रे ला. स्यु मंत्रादि सिधि रे माहरे एहथी होइ छे हो, मुगतिसुखनी रिधि रे. वा० ५ आ०
इतिश्रीअभिनंदनजिनस्तवनं ॥४॥ चातुक मति जिम मेह, मधुकर जिम मालती री. जिम पोयणी चिति चंद, छात्रनें जिम भारती री. १ गज मनि जिम नदी रेव, पद्मस्युं जिम कमला री. पंथी मन जिम गेह, शूक जिम धूप फला री. १. मोहनवेलि तथा चित्रावेली तृणतुल्य छै.
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मानससरने हंसा, जिम चाहें एक मने री. सीता हृदें जिम राम, धनि मनि जेम धने री. ३ समदरशि मनि शांतिरसस्युं जिम नेह छे री. धरमी मन जिम धर्म, जननीनुं जिम वछे री. नंदनवनने इंद, जिम चाहें चित्त खरें री. वली भूख्यानुं मन्न, लालचु जिम घेबरे री. ५ कामिनी मनि जिम कंत, मुनि मनि जिम दया री. नयवादिने मन्नि, वसिया जेम नया री. ६ तिम मुझ मन जिनराज, सुमतिनाथ वश्या री. वाचक मुगति सौभाग, कहें शिवसुख उल्लस्यां री. ७
इति श्रीसुमतिनाथस्तवनं ॥ ५ ॥
२ पा०
पद्मप्रभ जिन सांभलोजी, सेवक विनती एक. माहरा मनमां तुं वस्योजी, विद्यामां जिम विवेक
पारंगत प्रभुजी धरिइ धर्मनो राग. आंकणी. कोईक सुदिन सुमुहूरतीजी, सज्जन चित्त चढ्या जेम. उतार्या पिण ते न उतरेजी, चित्र गज महाक्त जेम. ते माणस किम वीसरेजी, जेहस्युं घणो स्नेह. रातिदिवस अति सांभरेजी, जिम बप्पीया मेह. प्रीति जड जडी जे सद्मनेंजी, टंकण नेहस्यु सार. ते जड किमें नहीं नीसरेजी, जो मिले लक्ष लोहार. अचल अभंगई माहरेजी, तुंमस्युं अविहड राग. सुरगवी घृत जे पामिउंजी, तेजस्युं तस नही लाग. कोयल काली पिण अति भलीजी, हृदयें जास विवेक. अंब विना सा अन्यस्युंजी, बोलइ बोलत एक
३ पा०
४ पा०
५ पा०
६ पा०
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अनुसंधान-२५ माहरें मनि प्रभु तुंही तुहीजी, पंकज मनि जिम अर्क. वाचक मुगति कहे तुं मिल्येंजी, सवि गया चित्त वितर्क. ७ पा०
इति श्रीपाप्रभस्तवनं ॥ ६ ॥
(कपूर होइं अति उजखें रे-ए देशी) श्री सुपास जिन साहिबारे, तुमे छो चतुर सुजाण. सेवक विनती सांभलोरे, मन धरी अतिहित आणि रे.
सोभागी जिन महाराज सारो मुझ वंछित काज सो० तुमे छो सुर शिरताज. सो० टेक. तुम चरणे हुँ आवीयो रे, लोकनगर भमी आज. दायक तुंम नें पेखीने रे, हरखे मुझ आतमराज.
२ सो० गण असा तुम तणा रे, छाना ते न छीपाय. तेहमांथी एक आपतां रे, स्युं तुझनुं ओछु थाय.
३ सो० रयणायर एक रयणनें रे, याचकने दिई आप. तो तस थोडां नवि होवे रे, तस जाई दुख संताप. ४ सो० नही हाणी पंकजवनें रे, देतां परिमल रेख. पिण परिमलने पामीनेंरे, अलि होइं सुखविशेष. चंद्रने स्युं ओछनु रे, दीषे अमीयनो अंश. पामी अमीयने पिण होइं रे, हरखित चकोर हंस केवलनाण गुण आपवा रे, स्युं करो ताणाताणि. वर समयादि दाखतां रे, दातपणुं किम इंम जाणि केवलनाण गुण आपवा रे, स्युं करो ताणाताणि. वर समयादि दाखतां रे, दातपणुं किम इजा जाणिसो० बालकनें समझाववा रे, कहेस्यो भोली वात. पिण हठवाद मुंकु नही रे, विण आप्ये जगतात. ८ सो०
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जो चित आप्यानुं अछेरे, तो सी ढील जिणंद खोजवी चातुक जल दीधे रे, श्याम थया जलदंद. चाकर हुं जिन ताहरो रे कहिवाणो जगमाहि. हवे कुण मुझ गांजी सके रे, बलियानी भली बांहि. जिम जाणो तिम कीजीओ रें, स्युं कहुं वारोवार. मुगतिसोभाग उवज्झायने, तारो भवपार रे.
इति श्रीसुपार्श्वजिनस्तवनं ॥ ७ ॥
१ चं०
२ चं०
चंद्रप्रभ जिन भेटीने करूं निरमल चित्त रे.. जेहने तन मन सुंपियां, तेहथी छानु स्युं वीत्तरे. देव अनेक छे जगतमां, एह सम अवर न कोय. ग्रहगण गगनि छे गाजतो, गुणिस्युं चंद्र सम होय रे. एहथी जे सुख संपजे, अन्यथी ते किम थात रे. देवमणि जिम होय छे, तिम स्युं काच अवदात. तारक बिरुद छे अहनें, अवरथी कहो किम थाय रे. धोरीनो भार तरेलथी, वह्यो किणि परि जाय रे. माहरें अहना संगथी, उल्लसे आतम अंश रे. मान सरोवर देखीने, मुदित जिम होइ हंस रे. अष्ट महासिधि सुखनु, कारण ए जिनराज रे. मानुं हुं तनमनि सेवंता, सिझस्य मुगतिनां काज रे.
इति श्रीचंद्रप्रभजिनस्तवनं ॥ ८ ॥
६ चं०
(देशी-आज होनी) पुष्पदंत जिनराज, दीठा नयणें आज आज हो माहरे रे स्युं अपूरव सुरतरु फल्योजी.
१
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अनुसंधान-२५
किंस्युं अनुभवरूप, स्युं शुक्लध्यान अनुप आज हो अथवा रे समकित शितरुचि हल्योजी. कि अम सित पुण्य अंकुर, स्युं समता नइखें पूर. आज हो मुझनें रे, शातनो कांदो मल्योजी. दरिसणि अहने आज सिधां वंछित काज. आज हो माहरो रे दुखनो पुंज सवि टल्योजी. थयो मुझ आतम शुद्ध, नाणदशाइं प्रबुद्ध, आज हो मानु रे, मुगतिना सुखने हुं रल्योजी.
इति श्रीसुविधिजिनस्तवनं ॥९॥
प्र०१ शी०
प्र० २ शी०
प्र० ३ शी०
(संभवर्जिन अवधारीइं-ए देशी) शीतल जिनवर सांभलो सेवकनी अरदास प्रभुजी. माहरे तुमस्युं प्रीतिनो भाव बन्यो अति खास. तुं छे निरागी साहिबो, हुं छु रागी एकांत अहो निरागी रागीने, किम मले प्रीतिनो तंत प्रिण उपसर्गथी रहितने, किम नीरागी भाव. जुओ विचारी चित्तमां, रागी निरागी दाव. रागीने रागी जो मिलई, प्रगटें प्रीति, मूल प्र० दीवें दीवो जिम मिले, तेज होइं अनुकूल. जगतमा सघलुं सहेल छे, दोहिलो प्रीतिनिभाव. प्र० दुराराध्य छई लोकनो, जे जेहनो सहाव. पिण तुम साथे जे प्रीतिनो, जेहवो चोलनो रंग । फाटे पण फीटें नही, तेम छे माहरे अंग. जगनायक जगतारणो, भगतवच्छल भगवान. तुमस्युं बांधी जे प्रीतडी, ते मुगतिनुं निदान.
इति श्रीशीतलजिनस्तवनं ॥ १० ॥
प्र० ४ शी०
प्र० ५ शी०
प्र० ६ शी०
प्र० ७ शी०
प्र० ७
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( प्राणी वाणी जिन तणी - ए देशी)
श्री श्रेयांस तुझ निरखतां, मुझ लोचन हरखित थाय रे. मन आणंद वधें घणो, चकोर जिम चंदनें पायरे. च० १ त्रिभुवन तुं भलो जगतात रे, जगतात विष्णुसुत सुजात श्री जिन सांभलो सुवात रे आंकणी.
मोटा जनस्युं प्रीतडी, ते तो आंबे भरवी बाथ रे. पिण चित्तलगन जो मिलें, तो मोटा लघु श्याना नाथ रे.
इति श्री श्रेयांसजिनस्तवनं ॥ ११ ॥ (देशी - एहज)
३ वं० त्रि० श्री०
४ सुं० त्रि० श्री०
जे करस्यें ते जाणस्यें, चित्त लगननी जे वात रे. प्रसववतीनी वेदना, वंध्यानें ते किम थात रे. तालेवरस्युं प्रेम जे, ते तो भरमें मुंघो होय रे . भाग्यें भरमें तें सही, सुंघो पिण पामें कोय रे. साचा संग न उलखी, जे वलग्या ते किम छोडि रे. मुगताफल पाणी चढ्यां, कहो स्वामी कुंण विछोडी रे. ५ क० त्रि० श्री० मन मान्यास्युं प्रीतडी, छै जगमां श्री जिनराय रे. ते विना स्युं अन्यथी, तस चित्त हरखित थाय रे. माहरे तुमस्युं प्रेम छें, जिम चोल मजीठें रंग रे. वाचक मुगतिना साहिबा, जो निभवो तो ते अभंग रे. ७ जो० त्रि० श्री०
६ त० त्रि० श्री०
वासुपूज्यप्रभु सांभलो, चाकरनी अरदास रे.
माहरा मनमां तुं वस्यो, जिम अलि मनि पंकज वास रे. १ जि० श्री जिन तुं जयो जयवंत रे. जयवंत महंत अनंतज्ञानी तुं थयो जसवंत रे आंकणी. जो पिण देव अनेक छे, पिण माहरे तुं जिनराय रे. दूध सवादी छासस्युं किम चित्त हरखित थाय रे.
२ कि० श्री०
18:3
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२ तो० त्रि० श्री०
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अनुसंधान-२५ स्युं करीई बउ देवनें, जेहथी होइं कर्मनो संच रे. लेहणुं ते स्या काम, होइं उलटुं देणुं धंच रे. ३ हो० श्री. सोनुं ते स्यां कामनु, जे तोडे वेहलो कान रे. जे राग वागें स्युं भलुं, जेहमां तुटें मुख्य तान रे. ४ जे० श्री०झा० ते यशि स्युं होय छे, जेहथी अपयश थाइ निदान रे. ते माने नवि राचिइं, जेहथी होई बहु अपमान रे. ५ जे० श्री झा० ते वाहलो कश्या कामनो, जे आपदकालें दूर रे. ते राजा स्युं मानीओ, जेहथी पामें दुखपूररे. ६ जे० श्री० झा० इंम ते सवि अवगणी, एक कीधो तुमस्युं नेहरे. सर आदि जल मुंकीने, जिम बप्पीया मन मेहरे. ७ जि० श्री॰झा० सोनुं ने सुगंध छइ माहरें, दरिसण ताहरें आज रे. वाचक मगतिने तारीइं, एक बांहि ग्रह्यानी लाज रे. ८ श्री०झा०
इति श्रीवासुपूज्यजिनस्तवनं ॥१२॥
हेत धरी अमंदरे, श्री विमल जिणंद रे. विनमें सुरइंदरे, मनना टाले दंद रे. लहें सुखना वृंद रे, जिम मुख निशींद रे. नमतें वारे दंदरे, वश इंद्रिय गयंद रे. रस भवना मंदरे, मांन हस्ती मृगेंद रे. तान गाई आनंद रे, रदन रश्मि चंद रे. यति वर्गनो इंद रे, ताम सारवु फणींद रे. रस शांतनो कंदरे, यशि जिम दिणंद रे. तिम अनुभव रंगे रे, प्रणमु उमंगे रे. आणि उलट अंगे रे, मुगति अंभगे आपो मुझ साहिबा रे.
इति श्रीकमलबंधेन श्रीविमलजिनस्तवनं. १-२. शांतरसनुं सुंदर घर छै भगवान, मानरूप हस्तिने हणवाने सिंह सरखा भगवान छे.
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हे ! श्रीविमलजिनवर मां तारय तारय इति भावः सूचितः पदस्य आद्याक्षरेण इति १३॥
(देशी-ललनांनी) अनंत जिणेसर विनती, सांभलो माहरी आप, ललनां. माहरा मनमां तुं वस्यो, जिम चातुक मेह जाप. ल० १ अ० तह अयोगी केसरी थकी, नाठा कर्म गयंद. ल. अगम अगोचर तिहां जयी, सेवें तेह दिगंत. ल० २ अ० तुं हि ज मुझ शिर राजीउ, कर्म अहितस्युं जोर. ते वनि पन्नग गत विरहें, जिहाँ विचरें हरखे मोर. ल. ३ अ० जो पिण अवगुण हुं भर्यो, तो पिण माहरो तुं जाणि वडवानल जल ज्वालते, न तजे सिंधु बहुमान, ल० ४ अ० कलंकी करे पिणि शशकनें, शशी न मुंके हजी सुधि. ल. अंगीकृतने नवि मुंको, उत्तम नर मनि बुद्धि. ल० ५ अ० दुख नासे तुम नामथी, तैम(तम) जिम उंगते भाण ल० वाचक मुगतिने तुं सही, आपें परम निधान. ल० ६ अ०
इति श्रीअनंतजिनस्तवन ॥१४॥
(देशी-जी होनी) जो हो धर्मजिणेसर सांभलो, जी हो हुँ छु दासनो दास. जी हो तुझ पद कमल सेवनी, जी हो मुझ मन अलिने आस. जिणेसर तुं मुझ प्राण आधार, जी हो तुम विण दुजो को नही. जी हो मुझने करवा सार. जि०. जी हो कहिवू जे जाणने आगलें, जी हो ते सवि हासन काम. जी हो सुरगुरुने भणाव, जी हो भाषाने अख्यर ठाम. २
१. अंधकार सूर्य उगें त्यारे क्षय जाय.
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अनुसंधान-२५ जी हो वात करतां ईष्टस्युं, जी हो सासोसास जे जाय. जी हो ते लेखे मार्नु घj, जी हो अवर अकों थाय. ३ जि० जी हो एकपखी जे प्रीतडी, जी हो ते श्या कामनी होय. जी हो जेहनें मनि पिण जे वस्यो, जी हो ते विण बीजानें जोय.४ जि० जी हो मालिम तुझनें ताहरी, जी हो मुझने माहरी देव ते स्वरूपिण मूंको रखे, जी हो बांहि ग्रह्यानी टेव. ५ जि० जी हो जिम वाहे चकोर चंदने, जी हो तिम हुं तव मुख कंज. जी हो ए भावें मुझ संपजे, जी हो मुगतिसुखनो पुंज.६ जि०.
। इति श्रीधर्मजिनस्तवनं ॥१५॥
भ० १ जि०
भ० रजि०
भ० ३ जि०
(सूरिजन-ए देशी०) जिनवर शांतिनी प्रीतिनें, करवा वांछे मन्न. भविजन. प्रभुजीनी मूरति जोइनें, उलसें माहरी तन्न. वाहलानी साथें प्रेमने, देखी किम खमें दुष्ट भ० तो पिण मनमां नवि धरूं, दिन दिन थाउं पुष्ट भुंडो भुंडाश न मुंको, करीइं कोडि उपाय. भ० काजल दूधे पखालीओ, तो हि न उजल थाय. जे गुणे नवि माचे छ, अवगुणें राचै जेम. भ० मुगताफल तजी भीलडी, गुंजा उपरि प्रेम. मुह मीठे बोलावीइं, दुरजन सुजन न थाय. भ० करि इं सिंह स्वाननें, भश्या विना न रहिवाय. परघरभंजक खल घणा, जेहनी मति विपरीत. भ० हुँ पिण तेहनें नवि गणुं, पुरुषनी एह छे रीति. रांक अंधारूं स्युं करें, सूरय आगलि दीस भ० पुंण वीसी तिहां नवि रहे, जिहां छे वीसवावीस.
भ० ४ जि०
भ० ५ जि०
भ० ६ जि०
भ० ७ जि०
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भ० ८ जि०
धरमथी जय जाणज्यो, पापथी किम होई तेहु. भ० जे जेहवो तेहवो फल भोगवे छे देह. दशा विभावनी दुष्ट छे, शिष्ट दशा स्वभाव. ---गुणै जोर हैं, मुगति सहजें भाव.
इति श्रीशांतिजिनस्तवनं ॥१६॥
भ० ९ जि०
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(देशी-मोतीडानी) भाहरे तुमस्युं अपूरव प्रीति, जिम चलचंचु सुधाकर रीति. साहिबा कुंथुनाथ जिनेशा, मोहना कुंथुनाथ. अवर नी नावें मोरें मंनयामे, किम हंसा माचे परिखा ठामें. १ सा० कमलमधुमां जे अलि माचे, करीर तरुमां ते किम राचें. सा० सूरभाषाई जे जन लीना, अपजन भाषाई ते स्युं लीना. २ सा० जलधर में जे चातुक इछे, सरोवरजलने ते स्युं प्रीछइं सा० समकित मित्रस्युं प्रेम छे जेहनें, मिथ्या अहितस्युं रुचि तेहने ३ सा० इंम ते प्रीतडी तुमस्युं बांधी, नरभव उत्तम कुल तक सांधी. गुणवंतास्युं जिम जिम प्रीति, तिम तिम प्रगटें अनुभव रीति. ४ सा० रागद्वेषनें जीते ते जिनराय, सुगत हरि जिन न कहाय. अरक नामें तरु छे जेह, अरकसमान दीपे स्युं तेह. सा० ५ निरागीस्युं किम प्रीति स(स)च, पिण प्रीति भावे मो मन अंच. भगति दूतिनुं जो छे तान, मुगतिस्वामी, तो प्रीतिमान सा० ६
इति श्रीकुंथुनाथस्तवनं ॥१७॥
(कुंअर गभारो नजरे देखतांजी-ए देशी) श्री अरजिनवर तुमस्युं बन्योजी, माहरे धर्मनो नेहरे. करुणानिधि करुणा करिजी, निभवो आप गुणगेहरे,
१ श्री०
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अनुसंधान-२५ नहि जस मो टालउं आंतरुजी, गिरुआ साहिब तेह रे. शशी जलधि कैरव प्रतिजी, हरख वधारे जूओ जे हरे. २ श्री. अंजली रह्यां जे फूलडां जी, वासें ते कर दोय रे. प्रायें सुमनस तणीजी, समवृत्ति वामावाम जोय रे. ३ श्री० तिम सहुनें नर सरखापणेजी, गणिई श्री जिनराय रे. जो होइं अंतर मुझ प्रतिजी, समदरशीपणुं किम थाय रे. ४ श्री. ठोर कुठोर नवि गणेजी, जो पिण जळधार मेह. वरसीने जगहित करेंजी, इम जाणी धारो मुझ नेह रे. ५ गुण देखाडि जे हेलव्याजी, ते किम मुंके मित्त रे. हवे आनाकानी नवि घटेंजी, जूउं विमासी चित्त रे. ६ मुझ मन तुम चरणे वस्युंजी, जिम पोयणी चित्त चंद रे. वाचक मुमतिनं तुम थकीजी, बरतें सुख आणंद रे. ७ श्री०
इति श्रीअरजिनस्तवनं ॥१८॥
(शीतलजिन सहजानंदी-ए देशी) मल्लि तुज दरिसण संगें, हरख हुउ मुझ अंगोअंगे. चकोर जिम चंदने पेखी, मार्नु फलिउ समकीत शाखि. १ सुरासुरपूज्य तुं प्रभु मोटो, तुमथी दूजो देव छै छोटो, सु०आं० गुण अनंता तुमचें प्रगट्या, पिण देवा वेलेस्युं जिन विघट्या. इम कीधे मोटानी माम, किम रहि कहो विचारी स्वामि. २ सु० आप कमाई आपे खाई, दातपणुं किम इम थायें आज लगें जे गुणने आप्यो, ते दाखी तथापणुं थाप्यों.
बहु आसंगे बेदबी होइं, इम बीहाव्यो नवि बीउं कांइ. आप पीयारु को नवि दीसें, ताहरे जाणुं वीसवावीसें वाचक मुगतिनें साहिब तारो, दासनां आतम कारय सारो.
इति श्रीमल्लिजिनस्तवनं ॥१९॥
५ सु०
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(भाविकानी-देशी) सज्जन मन सज्जनताई, रति मनि जिम रतीश.. पद्मा मनि जिम गोविंदस्वामी, जिम गिरिजा मनि इश रे. सुरिजन. तिम मुझ मनमां वसीयो, मुनिसुव्रत जिन रसीयो रे सु० पाप तिमीर सवि खसीयोरे सु० धर्मे आतम हसीयो सू०ति०७०। पायसमाहि जिम घृत वसीउं, वस्तुमाहि जिम अर्थ रे. २ सू० पारस उपलमां जिम कंचन, अ(स?)त्तामां आतम धर्म, चंदनमां जिम वांसनुं कारण, कारणे कारय मर्म रे. ३ सू० भूमिमां जिम उषधि सधली, जिम गुणमांहि गुणना धर्म. -------...-.-- जिम लोके षटकाय रे.
४ सू० जिम स्यादवादें नयना भेद, मृदमां घटनी व्यक्ति. अरणीमांहि जिम अग्नि दीपें, सुरतरमा सुखशक्तिरे.. द्रव्य भावनी पुष्टि करीनें, कीजे एहनी भक्ति. शाश्वत सुखने पांमो भविजन, जेहनुं नाम छे मुक्ति रे. सू० ६
इति श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तवनं ॥२०॥
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सू० ५
(क्रीडा करी घर आवीउं-ए देशी) स्वामी नमी जीन सांभलो, तुमस्युं अविचल नेहो रे. टाल्यो ते न टलें कदा, जिम पर्वतशिर रेहो रे. १ स्वा० तुं नथी मुझ वेगलो, छे मुझ चित्त हजूरो रे. सास पहिला जे सांभरे, ते किम थाई दूरो रे. २ स्वा० साकर सहित दूधनें, पीयूं जिणे हित राखी रे. मुंकी तेहने सर्वथा, स्युं ते अन्यनो चाखी रे. ३ स्वा० थाइं जूनी देहडी, प्रीत न जूनी होइं रे.
वागो विणसें जरकसी, पिण सोनुं श्याम न होई रे. ४ स्वा० १. (हस्तप्रतनोंध :, जरकसी वाघो फाटे पिण तेहमां सोनुं बिगड़ें नहि.)
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अनुसंधान-२५
५ स्वा०
६ स्वा०
तिम मुझ तुमस्युं प्रीतडी, प्रगटी अंगो अंगे रे. साहिब तुमे पण निभवो, जिम होइं अचल अभंग रे. मलयाचल शुभ वासथी, कंटक होई सुगंधो रे. सज्जन सउने आदरें, ए उत्तम अनुबंधो. रे. जिनवर तुमस्युं प्रीतिथी, होई गुण सुवासो रे. जिम तिलफूलें वासीया, स्नेह होइं अतिखासो रे. शाश्वतसुखने आपवा, तुमस्युं प्रीति बद्धकक्ष रे. मुगतिनायक मुझ प्रति, स्युं करें प्रतिपक्ष रे.
इति श्रीनमिजिनस्तवनं ॥२१॥
७ स्वा०
*(धणरा ढोला-ए देशी) गिणिणेसर मुझ प्रात र, तुमे स्यो काढ्यो वांका. पेसना नाणी. टालो माहरी प्रीतिने रे, इंम किम उत्तम लांका. पे० १ आवो आवो रे प्यारा नेम, स्युं जाउं छोरी सावी एम.
हित गोठे उपजे प्रेम. पे० टेक. चंद कलंकी जिणें करी रे, सीतने रामवियोग. पे० ते कुरंगना वाक्याथी रे, पति आवे कुंण भोग.
पे०२आ० सघलां दुख ते सुख होई रे, जो स्वामी सानुकूल पे० ते सवि सुख ते दुख परे रे, जो स्वामी प्रतिकुल सहि सरवे सोहिलं रे, दोहिलो एक वियोग. वेधकने मरवू नहि रे, जो नही इष्टवियोग. न मल्यानी शोच न तहिरे, जस प्रेमनुं नही नाम. मलीने प्रीति केलवी रे, तस वियोगे खेदे राम. छे सुखीयो अंध जातिनोरे, जस नही नयण स्वाद. पामी नयणना प्रेमनें, गये होइ दुखनो वाद.
पे०६आ०
पे० ३
४ पे०
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इम कहेती राजुल भली रे, जायें रैवत आप. नेम वांदी भक्तिस्युं रे, पामें मुगति ते थाप.
इति श्रीनेमिजिनस्तवनं ॥२२॥
प०७आ०
२ पा०
(वीरजिणंद जगत उपगारी-ए देशी) पास जिणेसर तुं जगनायक, तुझ सम अवर न कोयजी. संकटचूरण आशापूरण, नामें नवनिधि होयजी.
१ पा० कर्म पसाइं नरभव पाम्यो, कागताल न्याई हुं देवजी. जिम भूख्यो पंचामृतनें, तिम वांछु हुं ताहरी सेवजी. यथाप्रकारे सेव न जाणुं, जिम कहे प्राचीन शिष्ठजी. वांको चूको पिण घेउनो मांडो, सहुने लागें मन मिष्टजी. ३ पा० गुणी थइनें सेवाइं राजी, काहा कुण गाम ए नीतिजी. शुद्ध मणि उपरि नवि चालें, मणिकना यत्ननी रीतिजी. ४ पा० पिण जगतारक नाम छे ताहुरूं, मुज तारें तो प्रमाणजी. सम विषमें वरसें जगहेतें, मेध न मागे दाणजी. वेधक जाणने चित्तनी वातो, मुखथी कही न जायजी. अंगित आकारें विधक वेधे, अंतर दूरे थायजी.
६ पा० तुम समो जाण अवर न पेखुं, सी कउ काफी वातजी. कृपा करीने बोधी दीजें, वाचक मुगतिने महंतजी. ७ पा०
। इति श्रीपार्श्वजिनस्तवनं ॥२३॥
५ पा०
(इणि अवसर तिहां-ब- रे-ए देशी) वीर जिणेसर देवनी रे, सेवा करुं एक चित्त रे. वालेसर. अहवो एके को नहीं हो लाल, दुसमसमयनी कालमां रे, राखे जिम नीर रे वा० दास पोतानो जाणी करी हो लाल.
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________________ 96 अनुसंधान-२५ आ आरो पंचम नही रे, मानुं चोथो निरधार रे. जिहां जस शासननी रुचि हो लाल. मेरु थकी मरुभूमिकारे, रुडी रुडी रीति रे वा० जिहां छाया सूरतरुतणी हो० अगनि थकी अगर तणो रे, जिम प्रगटें सुवासरे वा० दह दिशि दीपें अति घणुं हो. जिम जावुनद पारस थकी रे, तिम कलिथी गुणहेत रे. वा० जो वीरशासन शुभ रीति हो लाल. जिम निशी दीपक, समुद्रमां रे द्वीप, जीम मरुमां रेव वा० जीम वनमां नगर भलु हो, भूखमां जिम भोजन वरु रे, जिम तममा उद्योत रे वा० तिम कलिमां वीरसेवना हो. हुं ईम मानु मुझ थकी रे, तालेवर नही कोय रे वा० पाम्यो वीर पद. पूजना हो लाल. कोय कोयनें कोयनो रे , उपगार विशेष रे वा० मुगतिसौभाग्य वाचक भणे हो लाल. इति श्रीवीरजिनस्तवनं // 24 // महोपाध्याय श्रीमुक्तिसौभाग्यगणिकृता चतुर्विंशतिका समाप्तः d. A-31, ग्लेडहर्स्ट, फिरोजशाह रोड, सांताक्रुज (वे.) मुंबई-५४