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________________ 86 अनुसंधान-२५ किंस्युं अनुभवरूप, स्युं शुक्लध्यान अनुप आज हो अथवा रे समकित शितरुचि हल्योजी. कि अम सित पुण्य अंकुर, स्युं समता नइखें पूर. आज हो मुझनें रे, शातनो कांदो मल्योजी. दरिसणि अहने आज सिधां वंछित काज. आज हो माहरो रे दुखनो पुंज सवि टल्योजी. थयो मुझ आतम शुद्ध, नाणदशाइं प्रबुद्ध, आज हो मानु रे, मुगतिना सुखने हुं रल्योजी. इति श्रीसुविधिजिनस्तवनं ॥९॥ प्र०१ शी० प्र० २ शी० प्र० ३ शी० (संभवर्जिन अवधारीइं-ए देशी) शीतल जिनवर सांभलो सेवकनी अरदास प्रभुजी. माहरे तुमस्युं प्रीतिनो भाव बन्यो अति खास. तुं छे निरागी साहिबो, हुं छु रागी एकांत अहो निरागी रागीने, किम मले प्रीतिनो तंत प्रिण उपसर्गथी रहितने, किम नीरागी भाव. जुओ विचारी चित्तमां, रागी निरागी दाव. रागीने रागी जो मिलई, प्रगटें प्रीति, मूल प्र० दीवें दीवो जिम मिले, तेज होइं अनुकूल. जगतमा सघलुं सहेल छे, दोहिलो प्रीतिनिभाव. प्र० दुराराध्य छई लोकनो, जे जेहनो सहाव. पिण तुम साथे जे प्रीतिनो, जेहवो चोलनो रंग । फाटे पण फीटें नही, तेम छे माहरे अंग. जगनायक जगतारणो, भगतवच्छल भगवान. तुमस्युं बांधी जे प्रीतडी, ते मुगतिनुं निदान. इति श्रीशीतलजिनस्तवनं ॥ १० ॥ प्र० ४ शी० प्र० ५ शी० प्र० ६ शी० प्र० ७ शी० प्र० ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229637
Book TitleVachak Mukti Saubhagya gani Krut Stavan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhay Doshi
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size398 KB
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