Book Title: Upmiti Bhav Prapancha Katha
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ මැකලමුල්ම මෙම මැලලම उपमितिभव प्रपञ्च कथा : कितना सार्थक है सिद्धर्षि का रचना उपक्रम ? || D साध्वी दिव्यप्रभा एम. ए. पी-एच. डी. (सुशिष्या महासती श्री कुसुमवती जी म. सा.) 0000000000000000000000015 मानव-मन के विचार जब तक अव्यक्त रहते शैली में किसी विस्तृत या बहद् आकार वाले ग्रन्थ । हैं, तब तक वे इन्द्रियग्राह्य नहीं बन पाते । किन्तु रचना करने का साहस, सिद्धर्षि से पहले का कोई ये ही उदगार जब उपमा/रूपकाप्रतीक-आदि को कवि/साहित्यकार नहीं कर पाया। श्रीमद्भागवत माध्यम बनाकर व्यक्त हो जाते हैं, तब, वे, न सिर्फ के चतुर्थ स्कन्ध में पुरञ्जन का आख्यान है, इन्द्रियग्राह्य ही बन जाते हैं, वरन्, उनमें एक ऐसी विषयासक्ति के कारण पुरञ्जन को जो भव-भ्रमण सामर्थ्य समाहित हो जाती है, जो ग्रहीता पर करना पड़ा, उसी का विस्तृत विवेचन इसमें है। अपनी अमिट छाप बना देते हैं। काव्य/ग्रन्थ प्रण- परञ्जन के इस भव-भ्रमण-विवेचन का कलेवर यन के क्षेत्र में प्रतीक-साहित्य की सर्जना-शैली के चार अध्यायों के १८१ श्लोकों में वर्णित है। बु मूल में इसी प्रकार का कोई मुख्य कारण रहा ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण, वृत्ति, सुषुप्ति, स्वप्न, होगा। यद्यपि, इस शैली में लिखे गये संस्कृत- शरीर आदि के रोचक-रूपक इस वर्णन में दिये माहित्य का परिशीलन करने से यह तथ्य स्पष्ट गये हैं । यह वृत्तान्त, यद्यपि पर्याप्त-विस्तार वाला होता है कि उपमेय-उपमान-शैली को माध्यम नहीं है, तथापि, जो रूपक, जिस रूप में बनाने की परम्परा पर्याप्त-प्राचीन है। और, इस हए हैं, वे सार्थक, सटीक, और मनोहारी अवश्य। सृजन-शिल्प के बीज-बिन्दु बृहदारण्यकोपनिषद् से हैं। फिर भी, इस वर्णन को उस-श्रेणी में नहीं सम्बद्ध 'उद्गीथ ब्राह्मण' में 'छान्दोग्योपनिषद्' में रखा जा सकता, जिस श्रेणी में सिद्धर्षि की 'उपभी उपलब्ध होते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें मितिभवप्रपञ्चकथा' को मान्यता प्राप्त है।। अध्याय में पाप-पुण्य-वत्तियों का देवी-आसुरी सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् डॉ० हर्मन जैकोबी ने | सम्पत्तियों के रूप में उल्लेख है । 'जातक निदान इस महाकथा की प्रस्तावना में लिखा है- "I didog कथा' (बौद्ध ग्रन्थ) के 'अविदूरे-निदान' और not find something still more important : the 'सन्तिके निदान' में भी इसी शिल्प-शैली का great literacy of the U. Katha and the fact दर्शन होता है। जैन साहित्य में 'उत्तराध्ययन that is the first allegorical work in Indian 'सूत्रकृतांग' और 'समराइच्च कहा' के कुछ Literature." इस कथन को लक्ष्य करके, यह कहा। आख्यानों में यही शिल्प विद्यमान है। किन्तु, इस जाने में कतई संकोच नहीं होता कि प्रतीक शैली। १ उद्गीथ ब्राह्मण १/३ ३ श्रीमद् भगवद्गीता १६ २ छान्दोग्योपनिपद १/२ ४ उत्तगध्ययन-अध्ययन ६,१०, २७ C ५५४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट G0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E rion International FSP Gate & Personal Use Only www.jainelibrary Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अनुपम काव्य-परम्परा का सूत्रपात करने का विद्वानों, साहित्यकारों में प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा का श्रेय, सिद्धर्षि की 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' को प्रश्न, इन दो में से एक भाषा के चयन, निश्चय पर ३ जाता है। पश्चात्, 'प्रबोधचिन्तामणि' (जयशेखर निर्भर करने लगा था। भाषा के चयन का लक्ष्य सूरि) से लेकर अब तक के समस्त रूपक-ग्रन्थों को 'पाण्डित्य-प्रदर्शन' और 'लोकमानस के अनुरूप सिद्धर्षि की इसी कृति की परम्परा के ग्रन्थों में ग्रन्थों का प्रणयन' बन गया था। सिद्धर्षि भी इस गिना जा सकता है। युगीन स्थिति से पूर्णतः परिचित थे। उन्होंने स्वयं जैन वाङमय का कलेवर पर्याप्त-विस्तार स्वीकार किया है कि उनके ग्रंथरचना काल में वाला है । इसकी सर्जना में 'संस्कृत' और 'प्राकृत' संस्कृत और प्राकृत, दोनों ही भाषाओं को प्रधादोनों ही भाषाओं का व्यापक-प्रयोग मौलिक रूप नता प्राप्त थी। प्राकृत-भाषा यद्यपि जन साधारण में किया गया है। महावीर के समय तक, प्राकृत- के लिये बोधगम्य अवश्य थी, पर, यह विद्वानों को भाषा जनसाधारण के बोलचाल और सामान्य- अच्छी नहीं लगती थी । पण्डित वर्ग में संस्कृतभाषा व्यवहार में भी पर्याप्त-प्रतिष्ठा प्राप्त कर चकी को ही विशेष समादर प्राप्त था। वे प्राकृत-भाषा थी । सम्भवतः इसीलिए, उन्होंने अपने द्वारा अन- में बोलचाल तक करना पसन्द नहीं करते थे। भूत सत्य/तत्व का प्रतिपादन प्राकृत भाषा में सूर्य का 'प्रकाश' और 'प्रताप' जिस तरह एक किया था। उनके प्रधान-शिष्यों ने भी उक्त तत्व- साथ संयक्त रहते हैं, उसी तरह 'समाज' और ज्ञान को प्राकृत-भाषा में ही संकलित करके जन- 'संस्कृति' भी साथ-साथ संपृक्त रहते हैं। समाज साधारण की भावनाओं को महत्त्व प्रदान किया। मानव-समुदाय का बाह्य-परिवेष है तो संस्कृति महावीर और उनके शिष्यों के इस प्रयास का उसका अन्तःस्वरूप है। जिस समाज का अन्तः और परिणाम यह हुआ कि लगभग ५०० वर्षों तक बाह्य-परिवेष, भौतिकता पर आधारित होता है, निरन्तर जैन धर्म और साहित्य के क्षेत्र में प्राकृत- उसका साहित्य, आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत नहीं भाषा का व्यवहार होता रहा। हो सकता । किन्तु जिस समाज का अन्तःस्वरूप ___ महावीर के इस भाषा-प्रस्थान में, संस्कृत के आध्यात्मिक हो, उसका बाह्य स्वरूप यदि भौतिप्रति किसी प्रकार का कोई विद्वष भाव नहीं था। कता में लिप्त हो जाये, तो भी उस समाज का बल्कि, तत्त्वज्ञान की प्रभावशालिता और उपयोः साहित्य, आध्यात्मिकता से अनुप्राणित हुए बिना गिता, जनसाधारण की समझ में आने वाली भाषा नहीं रह सकता। इसलिए संस्कृत साहित्य का लक्ष्य में ही निहित है, यह विचार ही प्राकृत को प्राथ- जनसाधारण तक आध्यात्मिकता का सन्देश ४ मिकता देने का मुख्य निमित्त बना। वस्तुतः यह पहुँचाना और उनमें नव-जागरण का भाव भरते वह युग था, जिसमें संस्कृत और प्राकृत की संघर्ष- रहना, हमेशा रहा है। । मयी प्रतिद्वन्द्विता, अपने उत्कर्ष पर पहुंच रही थी। सुख-दुःख, राग-विराग, मित्रता-शत्रुता के -प्रद्युम्नसूरि रचित 'समरादित्य संक्षेप' १ सिद्धि व्याख्यातुराख्यातु महिमानं हि तस्य कः । समस्त्युपमिति म यस्यानुपमिति कथा | संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद् विदग्धहदिस्थिता ।। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभाषते । -उपमितिभवप्रपंचकथा कुसम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५५५ 000 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 पारस्परिक संघर्ष से भिन्न-भिन्न प्रकार की जो परि तरह की मनोवृत्तियाँ, भावनाएं उसे सम्बल प्रदान || स्थितियाँ बनती हैं, उन्हीं की संज्ञा है-'जीवन'। करती हैं। जीवन की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति न तो दुःख को सर्वथा इस विशाल कथा-गन्थ को सिद्धर्षि ने आठ | त्याग देने पर सम्भव है, न ही सुख की सर्वतोमुखी प्रस्तावों, अध्यायों में विभाजित किया है । स्वीकृति से उसकी तात्विक व्याख्या की जा सकती पूरी की प्री कथा की प्रतीक-योजना दुहरे अभिहै। इसलिए संस्कृत का कोई कवि, साहित्यकार प्रायों को एक साथ संयोजित करते हुए लिखी गई और दार्शनिक किसी एक पक्ष का चित्रण नहीं है। जगत के सामान्य व्यवहार में दृश्यमान स्थानों, M करता । क्योंकि वह जानता है-'यह संसार द्वन्द्वों, पात्रों और घटनाक्रमों से युक्त कथानक की ही I संघर्षों का ही एक विशाल क्रीडांगन है।' किन्तु भाँति इस कथा में वर्णित स्थान-पात्र-घटनाक्रमों में 'निराशा' में से 'आशा' का, विपत्ति' में से 'संपत्ति' कथाकृति का एक आशय स्पष्ट हो जाता है। का और 'दुःख' में से 'सूख का स्रोत अवश्य फूटता किन्तु दसरा आशय, अदृश्य/भावात्मक जगत है । इसीलिए उक्त मान्यता, भारतीय चिन्तन की के दार्शनिक/आध्यात्मिक विचारों/अनुभव-व्यापार | आधारभूमि बनकर रह गई । संस्कृत साहित्य में में से उद्भूत होता हआ, कथाक्रम को अग्रसारित !! यही दार्शनिकता, अनुसरणीय और अनुकरणीय करता चलता है। वस्तुतः यह दूसरा आशय ही॥ वनकर चरितार्थ होती आ रही है। 'उपमिति भवप्रपञ्चकथा' का, और इसके लेखक सिद्धषि इन तथ्यों से भी भलीभाँति परिचित का प्रथम प्रमुख लक्ष्य है। इस आधार पर इस कथाकृति के दो रूप हो जाते हैं, जिन्हें 'बाह्यकथा थे। यद्यपि, उनके पूर्व उल्लिखित विचारों से यह शरीर' और 'अन्तरंग कथा शरीर' संज्ञायें दी जा प्रतीत होता है कि वे अपनी, इस विशाल कथाकृति को प्राकृत भाषा में लिखना तो चाहते थे, किन्तु सकती हैं। इन दोनों शरीरों के मध्य 'प्राणों' की इससे उन्हें विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो तरह, एक हो कथा अनुस्यूत है। कथा के दोनों स्वरूपों को समझाने के लिए, प्रथम-प्रस्ताव के रूप पायेगी, यह भय उन्हें था । इसलिए उन्होंने सरल में समायोजित 'पीठबन्ध' में सिद्धर्षि ने अपने स्वयं संस्कृत में कथाकृति की रचना का एक ऐसा मध्यम के जीवन-चरित को एक छोटी-सी कथा के रूप में मार्ग चुना, जिससे तत्कालीन जनसाधारण को भी इस कथा को समझने में कोई कठिनाई न हो. और उन्ही दुहरे आशयों के साथ संजोया है, जो कथा। उन्हें स्वयं पण्डित वर्ग के उपेक्षा-भाव का शिकार के पाठकों को दूसरे प्रस्ताव से प्रारम्भ होने वाली न होना पड़े । अन्ततः सोलह हजार श्लोक परिमाण मूल कथा की रहस्यात्मकता को समझने का पूर्वकलेवर वाले रूपकमय इस परे कथा ग्रन्थ में एक अभ्यास कराने के लिए, उपयुक्त मानी जा सकती ।। ही नायक के विभिन्न जन्म-जन्मान्तरों का भारतीय है। भवप्रपञ्च क्या है ? और, भवप्रपञ्च कथा धर्म-दर्शन में वर्णित प्रमख जीव-योनियों का स्वरूप कहने/लिखने का उददेश्य क्या है ? यह स्पष्ट करने विवेचन संस्कृत' भाषा के माध्यम से करते हुए, के लिए भी पीठबंध की कथा-संयोजन-योजना को, यह भी निर्देशित किया है कि किन कर्मों के कारण सिद्धर्षि का रचना-कौशल माना जा सकता है। किस योनि में जीवात्मा को भटकना पड़ता है, और 'उपमितिभवप्रपञ्च कथा' के विशाल कलेवर जन्म-जन्मान्तर रूप भव-भ्रमण से उबारने में किस में गुम्फित कथा का मूलस्वरूप निम्नलिखित संक्षेप । % 3EN १ उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ।। -उपमितिभवप्रपंचकथा । ५५६ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private PersonalUse Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार से अनुमानित किया जा सकता है। मेरुपर्वत का 'महाविदेह-बाजार' कैसे हो भया ? यहाँ के से पूर्व में, महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत 'सुकच्छ- महाराज 'श्रीगर्भ' हैं न कि कर्मपरिणाम ।' आचार्य विजय' नामक एक देश है। इसका राजा था- श्री क्या कह रहे हैं यह सब ?' आचार्यश्री ने उत्तर 'अनुसुन्दर' चक्रवर्ती । इसकी राजधानी थी-'क्षेम दिया-'धर्मशीले सुललिते ! तुम 'अगृहीत संकेता' पुर' । वृद्धावस्था के अन्तिम समय, वह अपना देश हो । मेरी बात का अर्थ तुम नहीं समझ पायीं ।' देखने की इच्छा से भ्रमण पर निकलता है। और सुललिता सोचती है-आचार्यश्री ने तो मेरा नाम किसी दिन 'शंखपुर' नगर के बाहर बने 'चित्तरम' भी बदल दिया। तभी, आचार्यश्री के कथन का नामक उद्यान के पास से गुजरता है। आशय समझकर महाभद्रा निवेदन करती है भगवन् । यह चोर, मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता है इस समय, चित्तरम उद्यान में बने 'मनोनन्दन' क्या?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया-'जब उसे तेरे नामक चैत्य भवन में समन्तभद्राचार्य ठहरे हुए थे। दर्शन होंगे, और वह हमारे समक्ष उपस्थित होगा, प्रवर्तिनी-साध्वी 'महाभद्रा'उनके सामने बैठा थीं। उसकी मुक्ति हो जायेगी ।' महाभद्र ने पूछा-'तो 'सुललिता' नाम की राजकुमारी और 'पुण्डरीक' राक क्या मैं उसके सम्मुख जाऊँ ?' आचार्यश्री ने कहा नाम का राजकुमार भी, इस सन्त-सभा में बैठे थे। __-'जाओ। इसमें दुविधा कहाँ है ?' _ अचानक ही रथों की गड़गड़ाहट और सेना का महाभद्रा उद्यान से निकलकर बाहर राजपथ कोलाहल सुनकर सभी का ध्यान शोर की ओर पर आई और अनुसून्दर चक्रवर्ती के निकट आने आकृष्ट हो जाता है । उत्सुकता और जिज्ञासावश पर उससे बोली- भद्र ! सदागम की शरण स्वीराजकुमारी, महाभद्रा से पूछती है-'भगवती! कार करो।' यह कैसा कोलाहल है ?' महाभद्रा ने आचायश्री साध्वी के दर्शन से अनुसून्दर को 'स्वगोचर' की ओर देखकर कहा-'मुझे नहीं मालूम ।' किंतु, (जाति/पूर्वजन्म-स्मरण) ज्ञान हो जाता है ।। आचार्यश्री ने इस अवसर को राजकुमार और उसने आचार्यश्री द्वारा कही गई बात उनसे सुनी, राजकुमारी को प्रबोध देने के लिए उपयुक्त समझते और उनके साथ, आचार्यश्री के समक्ष आकर उप- YES हुए, महाभद्रा से कहा---'अरे महाभद्र ! तुम्हें नहीं स्थित हो जाता है। वह आचार्यश्री को देखकर, मालूम है कि हम सब इस समय 'मनुजगति' नामक सुख के अतिरेक से भर उठता है। और अतिप्रदेश के महाविदेह बाजार में बैठे हैं । आज एक प्रसन्नता में मूच्छित होकर वहीं गिर पड़ता है। चोर, चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया है। आचार्यश्री द्वारा प्रबोध देने पर वह सचेत होता 112 जिसे 'कर्म-परिणाम' महाराज ने अपनी प्रधान है। राजकमारी सुललिता, उससे चोरी के विषय महारानी 'कालपरिणति' से परामर्श करके उसे में पछती है। आचार्यश्री भी उसे अपना सारा मृत्युदण्ड की सजा सुनाई है। 'दुष्टाशय' आदि वृत्तान्त सुनाने का आदेश देते हैं, तब अनुसुन्दर ने दण्डपाशिक उसे पीटते हुए वध-स्थल की ओर ले साध्वी के दर्शन से उत्पन्न पूर्वजन्म-स्मरण का जा रहे हैं। आचार्यश्री की बात सुनकर, सुललिता सहारा लेकर, अपनी भवप्रपञ्चकथा, तमाम उपआश्चर्य में पड़ जाती है । और पुनः महाभद्रा से माओं के साथ सुनानी आरम्भ कर दी। पूछती है-'भगवती ! हम लोग तो शंखपुर के अनुसन्दर की कथा सुनते-सुनते राजकुमार 'चित्तरम' उद्यान में बैठे हैं । यह 'मनुजगति' नगर पुण्डरीक प्रतिबुद्ध हो जाता है । किन्तु, राजकुमारी १ उमितिभव प्रपंच कथा---पीठबन्ध-श्लोक ६३ ३ वही -पीठबन्ध, श्लोक ६६ A२ उपमितिभव प्रपंच कथा पृष्ठ-७३६ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५५७ 860 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 603800 For Drivate Personalillse Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुललिता बार-बार कथा सुनकर भी प्रतिबुद्ध न हुई, तब विशेष प्रेरणा के द्वारा उसे बड़ी मुश्किल - बोध ही पाता है । " प्रतिबुद्ध हो जाने से दोनों को आत्मबोध हो जाता है । और वे दोनों संसारावस्था को छोड़कर आर्हती-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । 2 कालान्तर में, उत्कृष्ट तपश्चरण के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस सार-संक्षेप में आचार्यश्री महाभद्रा और सुललिता के कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकथा में रहस्यात्मकता का गुम्फन कितना सहज और दुर्बोध है । इसी तरह के रहस्यात्मक प्रतीककथाचित्रों की भरमार उपमितिभव प्रपञ्चकथा में है । जो आठों प्रस्तावों में समाविष्ट, अनेकों अलग अलग कथाओं को पढ़ने पर और अधिक गहरा बन जाता है । हिंसा, असत्य, चौर्य / अस्तेय, और अपरिग्रह के साथ क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह का आवेग जुड जाने पर स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियों की अधीनता स्वीकार कर लेने से जो प्रतिकूल परिणाम जीवात्मा को भोगने पड़ते हैं, प्रायः उन समस्त परिणामों से जुड़ी अनेक कथाएं, इस महाकथा में अन्तर्भूत हैं । इन कथाओं का घटनाक्रम भिन्न-भिन्न स्थानों पर मैथुन भिन्न-भिन्न पारिवारिक परिवेषों में भिन्न-भिन्न पात्रों के द्वारा घटित / वर्णित किया है सिद्धर्षि ने । इस विभिन्नता को देखकर, सामान्य पाठक को यह निश्चय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इन अनेकों कथानायकों में से मुख्यकथा का नायक कौन हो सकता है ? वस्तुतः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के माध्यम से संसार को, जीवात्मा न सिर्फ देखता है, बल्कि उनसे अपना रागात्मक सम्बन्ध जोड़कर उसकी पुनः पुनः आवृत्ति करता रहता है । फलतः, सांसारिक पदार्थों के विकारों की छाप, उस पर १ वही - पीठबन्ध - श्लोक ६७-६८ वही - श्लोक ६५८-६६१ ३ ५५८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट इतनी प्रबल हो जाती है कि वह जन्म-जन्मान्तरों तक उनसे अपना सम्बन्ध तोड़ नहीं पाता । इससे जीवात्माओं को जो यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, वे अकल्पनीय ही होती हैं । इसी तरह की जीवा - त्माओं के जन्म-जन्मान्तरों की कथाएँ, हर प्रस्ताव में संयोजित हैं । जिनके साथ, छाया की तरह, कुछ ऐसे जीवन-चरित भी संयोजित हुए हैं, जिन्हें न तो इन्द्रियों की शक्ति अपने अधीन बना पायी है, न ही हिंसा, चोरी-आदि दुराचारों के वशंवद वे बन सके हैं । क्रोध, मान, माया जैसे प्रबल मानata - विकारों का प्रभुत्व भी उन्हें पराजित नहीं कर पाया । स्पष्ट है कि सिद्धर्षि ने इन कथाओं में 'अशुभ' और 'शुभ' परिणामी जीवों के कथानक, चरितों की यह संयोजना, सिद्धर्षि की कल्पना से साथ-साथ संजोये हैं इस महाकथा में । द्विविध प्रसूत नहीं मानी जा सकती, क्योंकि, इस सबके संयोजन में उनका गहन दार्शनिक अभिज्ञान, चिन्तन और अनुभव, आधारभूत कारक रहा है । जिसे उनके रचना - कौशल में देखकर, यह माना जा सकता है कि सिद्धर्षि ने उन शाश्वत स्थितियों की विवेचना की है, जो जीवात्मा के अस्तित्व के साथ-साथ ही समुदभूत होती हैं। इसी द्विविधता बिन्दुओं के रूप में देख सकते हैं, जिनसे महाकथा को, हम इस महाकथा के प्रारम्भ में उन दो ध्रुवसिद्धर्षि ने 'कर्मपरिणाम' के अधीनस्थ दो सेनाका सूत्रपात होता है । इन बिन्दुओं की ओर, पतियों - 'पुण्योदय' और 'पापोदय' - के कार्यक्ष ेत्रों का निर्धारण करके, इन दोनों की प्रवृत्तियों का परिचय दे करके, पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहा है । इन दोनों की क्रियापद्धति और अधिकारों में मात्र यह अन्तर है कि 'पुण्योदय' के कार्यक्षेत्र में जो जीवात्माएँ आ जाती हैं, उन्हें वह उन्नति की ओर अग्रसर करने के लिए प्रयासरत रहता है; जबकि, 'पापोदय' अपने अधिकार क्षेत्र २ वही - पृष्ठ ७५२-५३ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आई जीवात्माओं को पतित से पतिततम अव- ७४ तेरहवीं पंक्ति) इत्यादि पृष्ठों पर 'अस्मत्' शब्द स्थाओं में पहुंचाने की योजनाएँ बनाने में लगा का प्रयोग हुआ है। यह 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग, रहता है। _____ अनुसुन्दर चक्रवर्ती के द्वारा किया गया है। जिससे आशय यह है कि उपमितिभव प्रपञ्चकथा की यह निश्चय होता है कि इस महाकथा का मुख्य कथाओं में द्वविध्य का समावेश, इस तरह हुआ नायक, वही है। जिन स्थलों पर 'एतत्' 'इदं' या है, कि कर्मबन्ध का 'आस्रव' जिन क्रिया कलापों से 'जीव' शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहाँ पर, उसका होता है, उनका, और 'संवर' की प्रक्रिया में सह- अर्थ सामान्य-जीवविषयक ही ग्रहण किया जाना योगी क्रियाकलापों का निर्देश, पाठक को साथ- चाहिए। जैसा कि 'एवमेष जीवो राजपुत्राद्यवसाथ उपलब्ध होता जाये। जिससे उन्हें यह अनु- स्थायां वर्तमानो बहुशो निष्प्रयोजनविकल्पं परम्परभव करने में कठिनाई न हो कि 'असद्-प्रवृत्ति' से याऽऽत्मानमाकुलयति' (पृष्ठ-३७ तृतीय पंक्ति), 'यदा जीवात्मा, कर्म-बन्धन में किस तरह जकड़ता है, खल्वेष जीवो नरपतिसुताद्यवस्थायामतिविशाल और कर्म-बन्ध की इस स्थिति को, किस तरह की चित्ततया' (पृष्ठ वही पञ्चम पंक्ति), तथा 'ततोऽयमेव प्रवृत्तियों से बचाया जा सकता है। यह स्पष्ट जीवोऽनवाप्तकर्त्तव्यनिर्णयः' 'यदायं जीवो विदितज्ञात हो जाने पर ही जीवात्मा यह समझ पाता है प्रथम सुखास्वादो भवति' (पृष्ठ-६७, पंक्ति क्रमश: माल कि भवप्रपञ्च के विस्तार का यह मुख्य कारण प्रथम एवं सातवीं) आदि प्रसंगों में हुए शब्द प्रयोगों Ke 'कर्मबन्ध' है। 'कषाय' और 'इन्द्रियों की विषय से स्पष्ट है। प्रवृत्ति' ऐसे दुविकार हैं, जो भवप्रपञ्च रूपी वृक्ष इस महाकथा में वर्णित कथा-तथ्य, वस्तुतः र को हरा-भरा बनाये रखने में, मुख्य-जड़ों को जैन-धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित तत्त्व-विवेचना से भूमिका निभाते हैं। इस भवप्रपञ्च वृक्ष को ओत-प्रोत है। जीवधारियों का जन्म, उनके 5) उखाड़-फेंकने की शक्ति, पाठकों में आये, यही संस्कार और आचरण, जीवन, पद्धति, सोच-विचार का आशय, इस कथा का मुख्य लक्ष्य रहा है। की भावदशाएँ, साधना, और ध्यान आदि मोक्ष किन्तु, इस द्विविधापूर्ण कथानक के हर प्रस्ताव पर्यन्त तक का समग्र चिन्तन-मनन, जैन धार्मिक/ K में जो कथानक आये हैं, उन्हें, पढ़कर भी यह भ्रम दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित है। कर्म, कर्म बना ही रह जाता है कि मूलकथा का नायक कौन फल, कर्मफल-भोग और कर्मपरम्परा से मुक्ति, इन है ? यदि, पाठकवृन्द, थोड़ा सा भी सतर्क भाव से, समस्त प्रक्रियायों/दशाओं में जीव सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र इस विशाल कथा को पढ़ेंगे, तो वे देखेंगे कि मूल- है, जैनधर्म की यह मौलिक मान्यता है। जिस कथा नायक के संकेत पूरे ग्रन्थ में यत्र-तत्र मिलते तरह, कोई एक अस्त्र, व्यक्ति की जीवन-रक्षा में जाते हैं। कथा में बीच-बीच में कुछ शब्द/वाक्य, निमित्र बनता है, उसी तरह, उसके जीवन-विच्छेद इन संकेतों को स्पष्ट करते हैं। जैसे--'सराग- का भी कारण बन सकता है । अस्त्र के उपयोग की संयतानां भवत्येवायं जीवो हास्यस्थान' (पृष्ठ ३३ भूमिका, अस्त्रधारी के विवेक पर निर्भर होती है। प्रथम पंक्ति), 'तदेतदात्मीयजीवस्यात्यन्तविपरीत- ठीक इसी तरह जीवात्मा, अपने विवेक का प्रयों चारितामनुभवताऽभिहितं मया-योऽयं मदीयजीवो- भवप्रपञ्च के विस्तार के लिये करता है, या भकऽवधारित जात्यन्धभावोऽस्य' (पृष्ठ वही, पांचवी पंक्ति) प्रपञ्च को नष्ट करने में यह उसके विवेक पर 'मदीय जीवरोरोऽयं' (पृष्ठ-४३ दूसरी पंक्ति), 'परमे- निर्भर होता है। जैनधर्म/दर्शन के सारे के सारे श्वरावलोकनां मज्जीवे भवन्तों' (पृष्ठ-५३, अन्तिम सिद्धान्त 'विवेक-प्रयोग' पर ही निर्धारित किये गये पंक्ति), 'ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः' (पृष्ठ- हैं । यह, सर्वमान्य, सर्व-अनुभूत तथ्य है कि विवेक ५४, तीसरी पंक्ति), 'ततो यो जीवो मादृशः' (पृष्ठ- के प्रयोग की आवश्यकता तभी जान पड़ती है, कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ...शिष्ट ५५६ 0650 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ an Education International jainkosary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब, दो स्थितियों/विचारों में से किसी एक को के समक्ष, उपस्थित करके, उसे यह ज्ञात करा दिया म चुनना हो। 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' में इसी जाये कि सुख और दुःख का सर्जन, अन्तःकरणों की आशय से द्विविधा-पूर्ण, भिन्न-भिन्न कथानकों को शुभ-अशुभमयी भावनाओं से होता है। यदि उसके साथ-साथ समायोजित किया है सिद्धर्षि ने / इन चित्त की वृत्तियाँ उत्कृष्ट-शुभराग से परिप्लुत हों, ई कथाओं से, इनके पात्रों, परिस्थितियों और घटना- तो उच्चतम स्थान, स्वर्ग तक ही मिल पायेगा; क्रमों को पुनः-पुनः पढ़ने से, पाठक को अपने विवेक और उत्कृष्ट-अशुभराग का समावेश चित्तवत्तियों का प्रयोग, आत्मरक्षा/आत्मोन्नति के लिए कब में होगा, तो अपकृष्टतम-नरक में उसे जाना पड़ करना है ? यह अभ्यास, भली-भाँति हो जायेगा। सकता है। इस लिये, वह इन दोनों-शुभ-अशुभवस्तुतः जैनधर्म/दर्शन का यही अभिप्रेत है। इसी राग से अपने चित्त/अन्तःकरणों को प्रभावित न को सिद्धर्षि ने भी, अपनी कथा का अभिप्रेत बनाये / ताकि उसे स्वर्ग/नरक से सम्बन्धित किसी निश्चित करना उपयुक्त समझा। भी भवप्रपञ्च में उलझना नहीं पड़ेगा / बल्कि, उस निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि 'उपमिति के लिये श्रेयस्कर यही होगा कि उक्त दोनों प्रकार भवप्रपञ्च कथा' की सम्पूर्ण कथा 'सांसारिकता' की वृत्तियों/परिस्थितियों के प्रति, एक ऐसा माध्यऔर 'आध्यात्मिकता' के दो समानान्तर धरातलों स्थ्य/तटस्थ भाव अपने अन्तःकरण में जागृत करे पर से समुद्भूत हुई है / भौतिक धरातल पर चलने जो उसे सभी प्रकार के भव-विस्तार से बचाये ! वाली कथा से सिर्फ यही स्पष्ट हो पाता है कि अनु- उसकी यही तटस्थता, उसमें उस विशुद्ध भाव की है सुन्दर चक्रवर्ती का जीवात्मा, किन-किन परिस्थि- सर्जिका बन जायेगी, जिसके एक बार उत्पन्न हो तियों में से होता हआ मोक्ष के द्वार पर, कथा के जाने पर, हमेशा हमेशा के लिये, किसी भी योनि/ अन्त में पहुँचता है। इन परिस्थितियों में उसके भव में जाने का प्रसंग समाप्त हो जाता है / 'उपवैभव, समृद्धि, विलासिता आदि से जुड़े भौतिक मिति भवप्रपञ्च कथा' अपने इस उद्देश्य तक पहुँ सुखों का रसास्वादन भर पाठक कर पाता है। जब चाने में, जिन-जिन पाठकों को समर्थ बना देती है, * कि दीनता-दरिद्रता भरी विषम-परिस्थितियों के वस्तुतः उतने ही सन्दर्भो में सिद्धर्षि का विशाल-३ (ER) चित्रण में उसके दःख-दों के प्रति. सहदय पाठक महाकथा लिखने का श्रम, सार्थक बनता है तथापि, के मन में बसी दयालुता द्रवित भर हो उठती है। युगीन सामाजिक परिवेष को देखते हुए, इसमें रह ये दोनों ही भावदशाएँ, न तो पाठक के लिये श्रेय- रहा कोई पाठक इस महाकथा के अध्ययन/पठन स्कर मानी जा सकती हैं, न ही सिद्धषि के कथा- श्रवण से, उक्त लक्ष्य की ओर चिन्तन मनन का लेखन का लक्ष्य / बल्कि, सिद्धर्षि का आशय, स्प- भाव बना लेता है, तो भी मेरी दृष्टि से, सिद्धर्षि ष्टतः यही जान पडता है कि जीवात्मा को जिन का ग्रन्थ-रचना का उपक्रम, सार्थक माना जा कारणों से दीन-पतित अवस्थाओं में जाना पडता सकेगा। इत्यलम् / / है, उनका भावात्मक-दृश्य, कथाओं के द्वारा पाठक 560 कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट न साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E ation International RO Poate & Personal use only www.jainelibran