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________________ जब, दो स्थितियों/विचारों में से किसी एक को के समक्ष, उपस्थित करके, उसे यह ज्ञात करा दिया म चुनना हो। 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' में इसी जाये कि सुख और दुःख का सर्जन, अन्तःकरणों की आशय से द्विविधा-पूर्ण, भिन्न-भिन्न कथानकों को शुभ-अशुभमयी भावनाओं से होता है। यदि उसके साथ-साथ समायोजित किया है सिद्धर्षि ने / इन चित्त की वृत्तियाँ उत्कृष्ट-शुभराग से परिप्लुत हों, ई कथाओं से, इनके पात्रों, परिस्थितियों और घटना- तो उच्चतम स्थान, स्वर्ग तक ही मिल पायेगा; क्रमों को पुनः-पुनः पढ़ने से, पाठक को अपने विवेक और उत्कृष्ट-अशुभराग का समावेश चित्तवत्तियों का प्रयोग, आत्मरक्षा/आत्मोन्नति के लिए कब में होगा, तो अपकृष्टतम-नरक में उसे जाना पड़ करना है ? यह अभ्यास, भली-भाँति हो जायेगा। सकता है। इस लिये, वह इन दोनों-शुभ-अशुभवस्तुतः जैनधर्म/दर्शन का यही अभिप्रेत है। इसी राग से अपने चित्त/अन्तःकरणों को प्रभावित न को सिद्धर्षि ने भी, अपनी कथा का अभिप्रेत बनाये / ताकि उसे स्वर्ग/नरक से सम्बन्धित किसी निश्चित करना उपयुक्त समझा। भी भवप्रपञ्च में उलझना नहीं पड़ेगा / बल्कि, उस निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि 'उपमिति के लिये श्रेयस्कर यही होगा कि उक्त दोनों प्रकार भवप्रपञ्च कथा' की सम्पूर्ण कथा 'सांसारिकता' की वृत्तियों/परिस्थितियों के प्रति, एक ऐसा माध्यऔर 'आध्यात्मिकता' के दो समानान्तर धरातलों स्थ्य/तटस्थ भाव अपने अन्तःकरण में जागृत करे पर से समुद्भूत हुई है / भौतिक धरातल पर चलने जो उसे सभी प्रकार के भव-विस्तार से बचाये ! वाली कथा से सिर्फ यही स्पष्ट हो पाता है कि अनु- उसकी यही तटस्थता, उसमें उस विशुद्ध भाव की है सुन्दर चक्रवर्ती का जीवात्मा, किन-किन परिस्थि- सर्जिका बन जायेगी, जिसके एक बार उत्पन्न हो तियों में से होता हआ मोक्ष के द्वार पर, कथा के जाने पर, हमेशा हमेशा के लिये, किसी भी योनि/ अन्त में पहुँचता है। इन परिस्थितियों में उसके भव में जाने का प्रसंग समाप्त हो जाता है / 'उपवैभव, समृद्धि, विलासिता आदि से जुड़े भौतिक मिति भवप्रपञ्च कथा' अपने इस उद्देश्य तक पहुँ सुखों का रसास्वादन भर पाठक कर पाता है। जब चाने में, जिन-जिन पाठकों को समर्थ बना देती है, * कि दीनता-दरिद्रता भरी विषम-परिस्थितियों के वस्तुतः उतने ही सन्दर्भो में सिद्धर्षि का विशाल-३ (ER) चित्रण में उसके दःख-दों के प्रति. सहदय पाठक महाकथा लिखने का श्रम, सार्थक बनता है तथापि, के मन में बसी दयालुता द्रवित भर हो उठती है। युगीन सामाजिक परिवेष को देखते हुए, इसमें रह ये दोनों ही भावदशाएँ, न तो पाठक के लिये श्रेय- रहा कोई पाठक इस महाकथा के अध्ययन/पठन स्कर मानी जा सकती हैं, न ही सिद्धषि के कथा- श्रवण से, उक्त लक्ष्य की ओर चिन्तन मनन का लेखन का लक्ष्य / बल्कि, सिद्धर्षि का आशय, स्प- भाव बना लेता है, तो भी मेरी दृष्टि से, सिद्धर्षि ष्टतः यही जान पडता है कि जीवात्मा को जिन का ग्रन्थ-रचना का उपक्रम, सार्थक माना जा कारणों से दीन-पतित अवस्थाओं में जाना पडता सकेगा। इत्यलम् / / है, उनका भावात्मक-दृश्य, कथाओं के द्वारा पाठक 560 कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट न साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E ation International RO Poate & Personal use only www.jainelibran
SR No.210297
Book TitleUpmiti Bhav Prapancha Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Story
File Size935 KB
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