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________________ 85 पारस्परिक संघर्ष से भिन्न-भिन्न प्रकार की जो परि तरह की मनोवृत्तियाँ, भावनाएं उसे सम्बल प्रदान || स्थितियाँ बनती हैं, उन्हीं की संज्ञा है-'जीवन'। करती हैं। जीवन की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति न तो दुःख को सर्वथा इस विशाल कथा-गन्थ को सिद्धर्षि ने आठ | त्याग देने पर सम्भव है, न ही सुख की सर्वतोमुखी प्रस्तावों, अध्यायों में विभाजित किया है । स्वीकृति से उसकी तात्विक व्याख्या की जा सकती पूरी की प्री कथा की प्रतीक-योजना दुहरे अभिहै। इसलिए संस्कृत का कोई कवि, साहित्यकार प्रायों को एक साथ संयोजित करते हुए लिखी गई और दार्शनिक किसी एक पक्ष का चित्रण नहीं है। जगत के सामान्य व्यवहार में दृश्यमान स्थानों, M करता । क्योंकि वह जानता है-'यह संसार द्वन्द्वों, पात्रों और घटनाक्रमों से युक्त कथानक की ही I संघर्षों का ही एक विशाल क्रीडांगन है।' किन्तु भाँति इस कथा में वर्णित स्थान-पात्र-घटनाक्रमों में 'निराशा' में से 'आशा' का, विपत्ति' में से 'संपत्ति' कथाकृति का एक आशय स्पष्ट हो जाता है। का और 'दुःख' में से 'सूख का स्रोत अवश्य फूटता किन्तु दसरा आशय, अदृश्य/भावात्मक जगत है । इसीलिए उक्त मान्यता, भारतीय चिन्तन की के दार्शनिक/आध्यात्मिक विचारों/अनुभव-व्यापार | आधारभूमि बनकर रह गई । संस्कृत साहित्य में में से उद्भूत होता हआ, कथाक्रम को अग्रसारित !! यही दार्शनिकता, अनुसरणीय और अनुकरणीय करता चलता है। वस्तुतः यह दूसरा आशय ही॥ वनकर चरितार्थ होती आ रही है। 'उपमिति भवप्रपञ्चकथा' का, और इसके लेखक सिद्धषि इन तथ्यों से भी भलीभाँति परिचित का प्रथम प्रमुख लक्ष्य है। इस आधार पर इस कथाकृति के दो रूप हो जाते हैं, जिन्हें 'बाह्यकथा थे। यद्यपि, उनके पूर्व उल्लिखित विचारों से यह शरीर' और 'अन्तरंग कथा शरीर' संज्ञायें दी जा प्रतीत होता है कि वे अपनी, इस विशाल कथाकृति को प्राकृत भाषा में लिखना तो चाहते थे, किन्तु सकती हैं। इन दोनों शरीरों के मध्य 'प्राणों' की इससे उन्हें विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो तरह, एक हो कथा अनुस्यूत है। कथा के दोनों स्वरूपों को समझाने के लिए, प्रथम-प्रस्ताव के रूप पायेगी, यह भय उन्हें था । इसलिए उन्होंने सरल में समायोजित 'पीठबन्ध' में सिद्धर्षि ने अपने स्वयं संस्कृत में कथाकृति की रचना का एक ऐसा मध्यम के जीवन-चरित को एक छोटी-सी कथा के रूप में मार्ग चुना, जिससे तत्कालीन जनसाधारण को भी इस कथा को समझने में कोई कठिनाई न हो. और उन्ही दुहरे आशयों के साथ संजोया है, जो कथा। उन्हें स्वयं पण्डित वर्ग के उपेक्षा-भाव का शिकार के पाठकों को दूसरे प्रस्ताव से प्रारम्भ होने वाली न होना पड़े । अन्ततः सोलह हजार श्लोक परिमाण मूल कथा की रहस्यात्मकता को समझने का पूर्वकलेवर वाले रूपकमय इस परे कथा ग्रन्थ में एक अभ्यास कराने के लिए, उपयुक्त मानी जा सकती ।। ही नायक के विभिन्न जन्म-जन्मान्तरों का भारतीय है। भवप्रपञ्च क्या है ? और, भवप्रपञ्च कथा धर्म-दर्शन में वर्णित प्रमख जीव-योनियों का स्वरूप कहने/लिखने का उददेश्य क्या है ? यह स्पष्ट करने विवेचन संस्कृत' भाषा के माध्यम से करते हुए, के लिए भी पीठबंध की कथा-संयोजन-योजना को, यह भी निर्देशित किया है कि किन कर्मों के कारण सिद्धर्षि का रचना-कौशल माना जा सकता है। किस योनि में जीवात्मा को भटकना पड़ता है, और 'उपमितिभवप्रपञ्च कथा' के विशाल कलेवर जन्म-जन्मान्तर रूप भव-भ्रमण से उबारने में किस में गुम्फित कथा का मूलस्वरूप निम्नलिखित संक्षेप । % 3EN १ उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ।। -उपमितिभवप्रपंचकथा । ५५६ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private PersonalUse Only www.jainelibrary.org
SR No.210297
Book TitleUpmiti Bhav Prapancha Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Story
File Size935 KB
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