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________________ මැකලමුල්ම මෙම මැලලම उपमितिभव प्रपञ्च कथा : कितना सार्थक है सिद्धर्षि का रचना उपक्रम ? || D साध्वी दिव्यप्रभा एम. ए. पी-एच. डी. (सुशिष्या महासती श्री कुसुमवती जी म. सा.) 0000000000000000000000015 मानव-मन के विचार जब तक अव्यक्त रहते शैली में किसी विस्तृत या बहद् आकार वाले ग्रन्थ । हैं, तब तक वे इन्द्रियग्राह्य नहीं बन पाते । किन्तु रचना करने का साहस, सिद्धर्षि से पहले का कोई ये ही उदगार जब उपमा/रूपकाप्रतीक-आदि को कवि/साहित्यकार नहीं कर पाया। श्रीमद्भागवत माध्यम बनाकर व्यक्त हो जाते हैं, तब, वे, न सिर्फ के चतुर्थ स्कन्ध में पुरञ्जन का आख्यान है, इन्द्रियग्राह्य ही बन जाते हैं, वरन्, उनमें एक ऐसी विषयासक्ति के कारण पुरञ्जन को जो भव-भ्रमण सामर्थ्य समाहित हो जाती है, जो ग्रहीता पर करना पड़ा, उसी का विस्तृत विवेचन इसमें है। अपनी अमिट छाप बना देते हैं। काव्य/ग्रन्थ प्रण- परञ्जन के इस भव-भ्रमण-विवेचन का कलेवर यन के क्षेत्र में प्रतीक-साहित्य की सर्जना-शैली के चार अध्यायों के १८१ श्लोकों में वर्णित है। बु मूल में इसी प्रकार का कोई मुख्य कारण रहा ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण, वृत्ति, सुषुप्ति, स्वप्न, होगा। यद्यपि, इस शैली में लिखे गये संस्कृत- शरीर आदि के रोचक-रूपक इस वर्णन में दिये माहित्य का परिशीलन करने से यह तथ्य स्पष्ट गये हैं । यह वृत्तान्त, यद्यपि पर्याप्त-विस्तार वाला होता है कि उपमेय-उपमान-शैली को माध्यम नहीं है, तथापि, जो रूपक, जिस रूप में बनाने की परम्परा पर्याप्त-प्राचीन है। और, इस हए हैं, वे सार्थक, सटीक, और मनोहारी अवश्य। सृजन-शिल्प के बीज-बिन्दु बृहदारण्यकोपनिषद् से हैं। फिर भी, इस वर्णन को उस-श्रेणी में नहीं सम्बद्ध 'उद्गीथ ब्राह्मण' में 'छान्दोग्योपनिषद्' में रखा जा सकता, जिस श्रेणी में सिद्धर्षि की 'उपभी उपलब्ध होते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें मितिभवप्रपञ्चकथा' को मान्यता प्राप्त है।। अध्याय में पाप-पुण्य-वत्तियों का देवी-आसुरी सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् डॉ० हर्मन जैकोबी ने | सम्पत्तियों के रूप में उल्लेख है । 'जातक निदान इस महाकथा की प्रस्तावना में लिखा है- "I didog कथा' (बौद्ध ग्रन्थ) के 'अविदूरे-निदान' और not find something still more important : the 'सन्तिके निदान' में भी इसी शिल्प-शैली का great literacy of the U. Katha and the fact दर्शन होता है। जैन साहित्य में 'उत्तराध्ययन that is the first allegorical work in Indian 'सूत्रकृतांग' और 'समराइच्च कहा' के कुछ Literature." इस कथन को लक्ष्य करके, यह कहा। आख्यानों में यही शिल्प विद्यमान है। किन्तु, इस जाने में कतई संकोच नहीं होता कि प्रतीक शैली। १ उद्गीथ ब्राह्मण १/३ ३ श्रीमद् भगवद्गीता १६ २ छान्दोग्योपनिपद १/२ ४ उत्तगध्ययन-अध्ययन ६,१०, २७ C ५५४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट G0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E rion International FSP Gate & Personal Use Only www.jainelibrary
SR No.210297
Book TitleUpmiti Bhav Prapancha Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Story
File Size935 KB
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