Book Title: Tantrasadhna aur Jain Jivan Drushti
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७५ ६५. धवला, पुस्तक १३ पृ० ७० ६७. योगसार, योगीन्दु देव, प्रका०- परमश्रुत प्रमावक मंडल बम्बई, १९३७ ९८ ६८. ज्ञानसार, पद्मसिंह, टीका० त्रिलोकचन्द्र, मू० कि० कापडिया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी०सं० २४२०; १८-२८ ६९. द्रव्यसंग्रह (नेमीचन्द्र) ४८-५४ टीका ब्रह्मदेव गाथा ४८ की टीका ७०. पदस्थ मंत्रवाक्यस्थ वही गाथा ४८ की टीका ७१. श्रावकाचार (अमितगति) परिच्छेद १५ ७२. ज्ञानार्णव (शुभचन्द्र) संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर, १९७७ सर्ग ३२-४० ७३. स्थानांगसूत्र संपा० मधुकर मुनि प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१४/६०-४० ७४. वही, ४/६२ ७५. वही, ४/६३ ७६. वही, ४ / ६४ ७७. वही, ४/६५ ७८. वही, ४/६६ ७९. वही, ४ / ६७ ८०. वही, ४/६८ तन्त्र साधना और जैन जीवन दृष्टि - ८१. ध्यानशतक जिनभद्र क्षमाश्रमण प्रका०- विनय सुन्दर चरण ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७६३ ४८१ ८२. योगशास्त्र संपा० मुनि समदर्शी, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६३७/२-६ स्थानांग सूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका- श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर १९८१ ४/६९ 'तन्त्र' शब्द का अर्थ जैन धर्म-दर्शन और साधना पद्धति में तांत्रिक साधना के कौनकौन से तत्त्व किस-किस रूप में उपस्थिति हैं, यह समझने के लिए सर्वप्रथम तंत्र शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। विद्वानों ने तंत्र शब्द की व्याख्याएँ और परिभाषाएँ अनेक प्रकार से की हैं। उनमें से कुछ परिभाषाएँ व्युत्पत्तिपरक हैं और कुछ रूढ़ार्थक । व्युत्पत्ति की दृष्टि से तन्त्र शब्द 'तन्' 'त्र' से बना है। 'तन्' धातु विस्तृत होने या व्यापक होने की सूचक है और 'त्र' त्राण देने या संरक्षण करने का सूचक है। इस प्रकार जो आत्मा को व्यापकता प्रदान करता है और उसकी रक्षा करता है उसे तन्त्र कहा जाता है। तान्त्रिक ग्रन्थों में 'तन्त्र' शब्द की निम्न व्याख्या उपलब्ध हैतनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान् । त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥ + अर्थात् जो तत्त्व और मन्त्र से समन्वित विभिन्न विषयों के विपुल ज्ञान को प्रदान करता है और उस ज्ञान के द्वारा स्वयं एवं दूसरों की रक्षा करता है, उसे तंत्र कहा जाता है। वस्तुतः तंत्र एक व्यवस्था का सूचक है। जब हम तंत्र शब्द का प्रयोग राजतंत्र, प्रजातंत्र, कुलीनतंत्र आदि के रूप में ८३. ८४. वही, ४/७० ८५. वही, ४/७१ ८६. वही, ४/७२ ८७. तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६९ / ३६-४० ८८. आचारांग सूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर १९८० १/९/१/६, १/९/२/४, १/९/२/ १२ ८९. वही, १/२/१/५ ९०. उत्तराध्ययन सूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन आगरा, १९७२२६ / १८ ९१. आवश्यकचूर्णि भाग २ पृ० १८८७ ९२. वही भाग १ पृ० ४१० , ९३. आचारांग (आचार्य तुलसी) जैन विश्वभारती, लाडनूं १/२/५/१२५ ९४. वही, १/२/३/७३, १/२/६/१८५ ९६. देखें- Prakrit Proper Names Ed. Pt. Dalsukha Malvania, Pub.-L.D. Institute, Ahamadabad, 1972 Vol II Page 626. तन्त्र - साधना और जैन जीवन दृष्टि करते हैं, तब वह किसी प्रशासनिक व्यवस्था का सूचक होता है। मात्र यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक विशुद्धि और आत्म-विशुद्धि के लिए जो विशिष्ट साधना विधियों प्रस्तुत की जाती है, उन्हें 'तंत्र' कहा जाता है। इस दृष्टि से 'तंत्र' शब्द एक व्यापक अर्थ का सूचक है और इस आधार पर प्रत्येक साधना विधि 'तंत्र' कही जा सकती है। वस्तुतः जब हम शैवतंत्र, शाक्ततंत्र, वैष्णवतंत्र, जैनतंत्र या बौद्धतंत्र की बात करते हैं, तो यहाँ तंत्र का अभिप्राय आत्म विशुद्धि या चित्तविशुद्धि की एक विशिष्ट पद्धति से ही होता है । मेरी जानकारी के अनुसार इस दृष्टि से जैन परम्परा में 'तन्त्र' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों-पञ्चाशक और ललितविस्तरा ( आठवीं शती) में किया है। उन्होंने पञ्चाशक में जिन आगम को और ललितविस्तरा में जैन धर्म के ही एक सम्प्रदाय को 'तंत्र' के नाम से अभिहित किया है। इससे फलित होता है कि लगभग आठवीं शती से जैन परम्परा में 'तंत्र' अभिधान प्रचलित हुआ । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत प्रसंग में आगम को ही तंत्र कहा गया है। आगे चलकर आगम का वाचक तन्त्र शब्द किसी साधनाविधि दार्शनिकविधा का वाचक बन गया । वस्तुतः तंत्र एक दार्शनिक विधा भी है और साधनामार्ग भी । . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दार्शनिक विधा के रूप में उसका ज्ञानमीमांसीय एवं तत्त्वमीमांसीय पक्ष तो हुए। चाहे बुद्ध की मूलभूत जीवनदृष्टि निवृत्तिमार्गी रही हो, किन्तु उनके है ही, किन्तु इसके साथ ही उसकी अपनी एक जीवन दृष्टि भी होती है मध्यममार्ग के आधार पर ही परवर्ती बौद्ध आचार्यों ने वज्रयान या सहजयान जिसके आधार पर उसकी साधना के लक्ष्य एवं साधना-विधि का निर्धारण का विकास कर भोगमूलक जीवनदृष्टि को समर्थन देना प्रारम्भ कर दिया। होता है। वस्तुत: किसी भी दर्शन की जीवनदृष्टि ही एक ऐसा तत्त्व है, जो गुह्यसमाज तन्त्र में कहा गया है। उसकी ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा एवं साधना विधि को निर्धारित करता है सर्वकामोपभोगैश्च सेव्यमानैर्यथेच्छतः । और इन्हीं सबसे मिलकर उसका दर्शन एवं साधनातंत्र बनता है। ___ अनेन खलु योगेन लघु बुद्धत्वमाप्नुयात् ॥ व्यावहारिक रूप में वे साधना पद्धतियाँ जो दीक्षा, मंत्र, यंत्र, दुष्करैर्नियमैस्तीत्रैः सेव्यमानो न सिद्धयति । मुद्रा, ध्यान, कुण्डलिनी शक्ति जागरण आदि के माध्यम से व्यक्ति के सर्वकामोपभोगैस्तु सेवयंश्चाशु सिद्धयति । पाशविक या वासनात्मक पक्ष का निवारण कर उसका आध्यात्मिक विकास भोगमूलक जीवनदृष्टि के समर्थकों का तर्क यह है कि कामोपभोगों करती है या उसे देवत्व के मार्गपर आगे ले जाती है, तंत्र कही जाती है। से विरत जीवन बिताने वाले साधकों में मानसिक क्षोभ उत्पन्न होते होंगे, किन्तु यह तंत्र का प्रशस्त अर्थ है और अपने इस प्रशस्त अर्थ में जैन धर्म- कामभोगों की ओर उनकी इच्छा दौड़ती होगी और विनय के अनुसार वे उसे दर्शन को भी तंत्र कहा जा सकता है, क्योंकि उसकी अपनी एक सुव्यवस्थित, दबाते होंगे, परन्तु क्या दमनमात्र से चित्तविक्षोभ सर्वथा चला जाता होगा, सुनियोजित साधना-विधि है, जिसके माध्यम से व्यक्ति वासनाओं और दबायी हुई वृत्तियाँ जाग्रतावस्था में न सही, स्वप्नावस्था में तो अवश्य ही कषायों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक विकास के मार्ग में यात्रा करता है। चित्त को मथ डालती होंगी। इन प्रमथनशील वृत्तियों को दमन करने से भी किन्तु तंत्र के इस प्रशस्त व्युत्पत्तिपरक अर्थ के साथ ही 'तंत्र' शब्द का एक दबते न देख, अवश्य ही साधकों ने उन्हें समूल नष्ट करने के लिए संयम प्रचलित रूढार्थ भी है, जिसमें सांसारिक आकांक्षाओं और विषय-वासनाओं की जागरूक अवस्था में थोड़ा अवसर दिया कि वे भोग का भी रस ले लें, की पूर्ति के लिए मद्य, मांस, मैथुन आदि पंच मकारों का सेवन करते हुए ताकि उनका सर्वथा शमन हो जाये और वासनारूप से वे हृदय के भीतर यन्त्र, मंत्र, पूजा, जप, होम, बलि अदि के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, न रह सकें। अनंगवज्र ने कहा है कि चित्तक्षुब्ध होने से कभी भी सिद्धि नहीं उच्चाटन, स्तम्भन, विद्वेषण आदि षट्कर्मों की सिद्धि के लिए देवी- हो सकती, अत: इस तरह बरतना चाहिए जिसमें मानसिक क्षोभ उत्पन्न ही देवताओं की उपासना की जाती है और उन्हें प्रसन्न करके अपने अधीन न हो - किया जाता है। वस्तुत: इस प्रकार की साधना का लक्ष्य व्यक्ति की लौकिक तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते मनः। वासनाओं और वैयक्तिक स्वार्थों की सिद्धि ही होता है। अपने इस प्रचलित संक्षुब्धे चित्तरत्ने तु सिद्धिर्नैव कदाचन । रूढार्थ में तंत्र को एक निकृष्ट कोटि की साधना- पद्धति समझा जाता है। जब तक चित्त में कामभोगोपलिप्सा है, तब तक चित्त में क्षोभ का इस कोटि की तान्त्रिक साधना बहुप्रचलित रही है, जिससे हिन्दू, बौद्ध और उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल हिन्दू जैन-तीनों ही साधना-विधियों पर उसका प्रभाव भी पड़ा है। फिर भी तांत्रिक साधनाओं में अपितु बौद्ध तांत्रिक साधना में भी किसी न किसी रूप सिद्धान्तत: ऐसी तान्त्रिक साधना जैनों को कभी मान्य नहीं रही, क्योंकि वह में भोगवादी जीवनदृष्टि का समर्थन हुआ है। यद्यपि परवर्तीकाल में विकसित उसकी निवृत्तिप्रधान जीवन दृष्टि और अहिंसा के सिद्धान्त के प्रतिकूल थी। बौद्धों की यह भोगमूलक जीवनदृष्टि भारत में उनके अस्तित्व को ही समाप्त यद्यपि ये निकृष्ट साधनाएं तन्त्र के सम्बन्ध में एक भ्रान्त अवधारणा ही है, कर देने का कारण बनी, क्योंकि इस भोगमूलक जीवनदृष्टि को अपना लेने फिर भी सामान्यजन तन्त्र के सम्बन्ध में इसी धारणा का शिकार रहा हैं। पर बौद्ध और हिन्दू परम्परा का अन्तर समाप्त हो गया। दूसरे इसके परिणाम सामान्यतया जनसाधारण में प्राचीन काल से ही तान्त्रिक साधनाओं का यही स्वरूप बौद्ध भिक्षुओं में भी एक चारित्रिक पतन आया। फलत: उनके प्रति रूप अधिक प्रचलित रहा है। ऐतिहासिक एवं साहित्यिक साक्ष्य भी तन्त्र के जन-साधारण की आस्था समाप्त हो गयी और बौद्ध धर्म की अपनी कोई इसी स्वरूप का समर्थन करते हैं। विशिष्टता नहीं बची, फलतः वह अपनी जन्मभूमि से समाप्त हो गया। भोगमूलक जीवनदृष्टि और वासनोन्मुख तन्त्र की इस जीवनदृष्टि के समर्थन में भी बहुत कुछ कहा गया है। कुलार्णव में कहा गया है कि जैन धर्म में तन्त्र की भोगमूलक जीवनदृष्टि का निषेध सामान्यतया जिन वस्तुओं के उपयोग को पतन का कारण माना जाता है तन्त्र की इस भोगवादी जीवनदृष्टि के प्रति जैन आचार्यों का उन्हें कौलतन्त्र में महात्मा भैरव ने सिद्धि का साधन बताया है। इसी प्रकार दृष्टिकोण सदैव निषेधपरक ही रहा है। वैयक्तिक भौतिक हितों एवं वासनाओं न केवल हिन्दू तांत्रिक साधना में अपितु बौद्ध परम्परा में भी प्रारम्भ से ही की पूर्ति के निमित्त धन, सम्पत्ति, सन्तान आदि की प्राप्ति हेतु अथवा कठोर साधनाओं के द्वारा आत्मपीड़न की प्रवृत्तियों को उचित नहीं माना कामवासना की पूर्ति हेतु अथवा शत्रु के विनाश के लिए की जाने वाली गया। भगवान् बुद्ध ने मध्यममार्ग के रूप में जैविक मूल्यों की पूर्ति हेतु साधनाओं के निर्देश तो जैन आगमों में उपलब्ध हो जाते हैं, जिससे यह भोगमय जीवन का भी जो आंशिक समर्थन किया था, वही आगे चलकर सिद्ध होता है कि इस प्रकार की तांत्रिक साधनाएं प्राचीन काल में भी बौद्ध धर्म में वज्रयान के रूप में तांत्रिक भोगमूलक जीवनदृष्टि के विकास का प्रचलित थीं, किन्तु प्राचीन जैन आचार्यों ने इसे सदैव हेय दृष्टि से देखा था कारण बना और उसमें भी निवृत्तिमय जीवन के प्रति विरोध के स्वर मुखरित और साधक के लिए ऐसी तांत्रिक साधनाओं का सर्वथा निषेध किया था। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि ४८३ मनुष्य सूत्रकृताङ्गसूत्र में चौंसठ प्रकार की विद्याओं के अध्ययन या साधना करने निरसन आवश्यक है। यहाँ इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करने के पूर्व यह वालों के निर्देश तो हैं, किन्तु उसमें इन विद्याओं को पापाश्रुत-अध्ययन विचार कर लेना आवश्यक है कि सामान्यत: भारतीय धर्मों में और कहा गया है। मात्र यह नहीं उसमें स्पष्ट रूप से यही भी कहा गया है कि विशेषरूप से जैन धर्म में तान्त्रिक साधना का विकास क्यों हुआ और किस जो इन विद्याओं की साधना करता है वह अनार्य है, विप्रतिपन्न है और क्रम में हुआ? समय आने पर मृत्यु को प्राप्त करके आसुरी और किल्विषिक योनियों को प्राप्त होता है। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का विकास पुन: उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो छिद्रविद्या, यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मानव प्रकृति में वासना और स्वरविद्या, स्वप्नलक्षण, अंगविद्या आदि के द्वारा जीवन जीता है वह भिक्षु विवेक के तत्त्व उसके अस्तित्त्व काल से ही रहे हैं, पुन: यह भी एक नहीं है। इसी प्रकार दशवैकालिकसूत्र में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया सर्वमान्य तथ्य है कि पाशविक वासनाओं, अर्थात् पशु तत्त्व से ऊपर है कि मुनि नक्षत्रविद्या, स्वप्नविद्या, निमित्तविद्या, मन्त्रविद्या और भैषज्यशास्त्र उठकर देवत्व की ओर अभिगमन करना ही मनुष्य के जीवन का मूलभूत का उपदेश गृहस्थों को न करे। इनसे स्पष्टरूप से यह फलित होता है कि लक्ष्य है। मानव प्रकृति में निहित इन दोनों तत्त्वों के आधार पर दो प्रकार की वैयक्तिक वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की साधना पद्धतियों का विकास कैसे हुआ इसे निम्न सारिणी द्वारा समझा जा विद्याओं की साधना को जैन आचार्यों ने सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है। सकता है यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सांसारिक विषय-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त पशुबलि देना, मद्य, मांस, मत्स्य, मैथुन और मुद्राओं का सेवन करना एवं मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की साधना करके अपने क्षुद्र लौकिक स्वार्थों और वासनाओं की पूर्ति करना जैन आचार्यों को मान्य चेतना नहीं हो सका, क्योंकि यह उनकी निवृत्तिप्रधान अहिंसक जीवनदृष्टि के विरुद्ध था। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि जैन धर्म ऐसी तान्त्रिक साधनाओं से पूर्णत: असंपृक्त रहा है। प्रथमतः विषय-वासनाओं के प्रहाण के वासना विवेक लिए अर्थात् अपने में निहित पाशविक वृत्तियों के निराकरण के लिए मंत्र, जाप, पूजा, ध्यान आदि की साधना-विधियाँ जैन धर्म में ईस्वी सन् के पूर्व त्याग से ही विकसित हो चुकी थीं। मात्र यही नहीं परवर्ती जैनग्रन्थों में तो ऐसे भी अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ धर्म और संघ की रक्षा के लिए जैन आचार्यों को तांत्रिक और मान्त्रिक प्रयोगों की अनुमति भी दी गई है। किन्तु उनका अभ्युदय (प्रेय) निःश्रेयस् उद्देश्य लोककल्याण ही रहा है। मात्र यही नहीं, जहाँ आचारांगसूत्र (ई०पू० पांचवी शती) में मोक्ष (निर्वाण) शरीर को धुन डालने या सुखा देने की बात कही गई थी, वहीं परवर्ती आगमों और आगमिक व्याख्याओं में शरीर और जैविक मूल्यों के संरक्षण की बात कही गई। स्थानांगसूत्र में अध्ययन एवं संयम के पालन के लिए कर्मसंन्यास आहार के द्वारा शरीर के संरक्षण की बात कही गई। मरणसमाधि' में कहा गया है कि उपवास आदि तप उसी सीमा तक करणीय हैं- जब तक मन में प्रवृत्ति निवृत्ति किसी प्रकार के अमंगल का चिन्तन न हो, इन्द्रियों की हानि न हो और मन, वचन तथा शरीर की प्रवृत्ति शिथिल न हो। मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपने गुणस्थान सिद्धान्त में कषायों एवं वासनाओं के दमन को भी अनुचित प्रवर्तक धर्म निवर्तक धर्म मानते हुए यहाँ तक कह दिया कि उपशम श्रेणी अर्थात् वासनाओं के दमन की प्रक्रिया से आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने वाला साधक आत्मोपलब्धि अनन्त: वहाँ से पतित हो जाता है। फिर भी जैनाचार्यों ने वासनाओं की पूर्ति का कोई मार्ग नहीं खोला। हिन्दू तांत्रिकों एवं वज्रयानी बौद्धों के विरुद्ध वे यही कहते रहे कि वासनाओं की पूर्ति से वासनाएँ शान्त नहीं होती हैं, समर्पणमूलक यज्ञमूलक चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक अपितु वे घृत सिञ्चित अग्नि की तरह अधिक बढ़ती ही हैं। उनकी दृष्टि में वासनाओं का दमन तो अनुचित है, किन्तु उनका विवेकपूर्वक संयमन और भक्तिमार्ग कर्ममार्ग ज्ञानमार्ग तपमार्ग भोग ------ स्वर्ग कर्म Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय तनावों का निराकरण कर चैतसिक शांति या समाधि को प्राप्त करने का प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का विकास भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक प्रयास किया। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा वहीं प्रारम्भिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं श्रमण परम्पराएं निवृत्तिप्रधान रही। किन्तु एक ओर वासनाओं की सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों के इन सन्तुष्टि के प्रयास में चित्तशांति या समाधि सम्भव नहीं हो सकी, प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न क्योंकि नई-नई इच्छाएँ आकांक्षाएँ और वासनाएँ जन्म लेती रहीं; तो दूसरी ओर वासनाओं के दमन के भी चित्तशांति सम्भव न हो सकी, सारिणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है क्योंकि दमित वासनाएँ अपनी पूर्ति के लिए चित्त की समाधि भंग प्रवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) निवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) करती रहीं। इसका विपरीत परिणाम यह हुआ कि एक ओर प्रवृत्तिमार्गी 1. जैविक मूल्यों की प्रधानता 1. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता परम्परा में व्यक्ति ने अपनी भौतिक और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के 2. विधायक जीवनदृष्टि 2. निषेधक जीवनदृष्टि 3. समष्टिवादी लिए दैविक शक्तियों की सहायता पाने हेतु कर्मकाण्ड का एक जंजाल 3. व्यष्टिवादी 4. व्यवहार में कर्म पर बल व्यवहार में नैष्कर्म्यता का समर्थन खड़ा कर लिया तो दूसरी ओर वासनाओं के दमन के लिए देहदण्डनरूपी फिर भी दैवीय कृपा के फिर भी तपस्या पर बल देने से तप साधनाओं का वर्तुल खड़ा हो गया। एक के लिए येन-केन प्रकारेण आकांक्षी होने से भाग्यवाद दृष्टि पुरुषार्थवादी वैयक्तिक हितों की पूर्ति या वासनाओं की संतुष्टि ही वरेण्य हो गई तो एवं नियतिवाद का समर्थन अनीश्वरवादी 5. इश्वरवादी 6. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, दूसरे के लिए जीवन का निषेध अर्थात् देहदण्डन ही साधना का लक्ष्य 6. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास कर्मसिद्धान्त का समर्थन बन गया। वस्तुतः इन दोनों अतिवादों के समन्वय के प्रयास में ही एक 7 साधना के बाह्य साधनों पर बल 7. आन्तरिक विशुद्धता पर बल 8. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग एवं ईश्वर 8. जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं निर्वाण ओर जैन, बौद्ध आदि विकसित श्रमणिक साधना विधियों का जन्म के सान्निध्य की प्राप्ति। की प्राप्ति हुआ तो दूसरी ओर औपनिषदिक् चिन्तन से लेकर सहजभक्तिमार्ग और ..(सांस्कृतिक प्रदेय) (सांस्कृतिक प्रदेय) तंत्र साधना तक का विकास भी इसी के निमित्त से हुआ। 'तेन त्यक्तेन 9. वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का | 9. जातिवाद का विरोध, वर्णव्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन भुञ्जीथा' का जो समन्वयात्मक स्वर औपनिषदिक ऋषियों ने दिया था, 10. गृहस्थ जीवन की प्रधानता 10. संन्यास की प्रधानता परवर्ती समस्त हिन्दू साधना और उसकी तांत्रिक विधियाँ उसी के 11. सामाजिक जीवन-शैली 11. एकाकी जीवन-शैली परिणाम हैं। फिर भी प्रवृत्ति और निवृत्ति के पक्षों का समुचित सन्तुलन 12. राजतन्त्र का समर्थन 12. जनतन्त्र का समर्थन स्थिर नहीं रह सका। इनमें किसे प्रमुखता दी जाय, इसे लेकर उनकी प्रवर्तक धर्मों में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, साधना-विधियों में अन्तर भी आया। वेदों में जैविक आवश्यकतओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर जैनों ने यद्यपि निवृत्तिप्रधान जीवनदृष्टि का अनुसरण तो अधिक मुखरित हुए हैं। उदाहरणार्थ- हम सौ वर्ष जीवें, हमारी सन्तान किया, किन्तु परवर्ती काल में उसमें प्रवृत्तिमार्ग के तत्त्व समाविष्ट होते बलिष्ठ होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पतियाँ प्रचुर मात्रा में गए। न केवल साधना के लिए जीवन रक्षण के प्रयत्नों का औचित्य हों आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक स्वीकार किया गया, अपितु ऐहिक-भौतिक कल्याण के लिए भी निषेधात्मक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का तांत्रिक साधना की जाने लगी। राग अलापा। उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर। उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को क्या जैन धर्म जीवन का निषेध सिखाता है? जीवन-लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, सामान्यतया यह माना जाता है कि तंत्र की जीवनदृष्टि ऐहिक अनासक्ति, विराग और आत्मसन्तोष ही सर्वोच्च जीवन मूल्य हैं। जीवन को सर्वथा वरेण्य मानती है, जबकि जैनों का जीवनदर्शन एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ निषेधमूलक है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जैन धर्मकि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ दर्शन तंत्र का विरोधी है, किन्तु जैन दर्शन के सम्बन्ध में यह एक भ्रान्त तथा जीवन को सर्वतोभावेन वाञ्छनीय और रक्षणीय माना गया; तो धारणा ही होगी। जैनों ने मानव जीवन को जीने के योग्य एवं सर्वथा दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी वरेण्य माना है। उनके अनुसार मनुष्य जीवन ही तो एक ऐसा जीवन है निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना जिसके माध्यम से व्यक्ति विमुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो सकता है। ही जीवन लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिक विकास की यात्रा का प्रारम्भ और उसकी पूर्णता मनुष्य अध्यात्म के प्रतीक बन गये। यद्यपि इन दोनों साधना- पद्धतियों का जीवन से ही संभव है। अत: जीवन सर्वतोभावेन रक्षणीय है। उसमें मूलभूत लक्ष्य तो चैतसिक और सामाजिक स्तर पर शांति ही स्थापना 'शरीर' को संसार समुद्र में तैरने की नौका कहा गया है और नौका की की रहा है किन्तु उसके लिए उनकी व्यवस्था या साधना-विधि भिन्न- रक्षा करना पार जाने के इच्छुक व्यक्ति का अनिवार्य कर्तव्य है। इसी भिन्न रही है। प्रवृत्तिमार्गी परम्परा का मूलभूत लक्ष्य यही रहा है कि स्वयं प्रकार उसका अहिंसा का सिद्धान्त भी जीवन की रक्षणीयता पर के प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से अथवा उनके असफल होने पर दैवीय सर्वाधिक बल देता है। शक्तियों के सहयोग से जैविक आवश्यकताओं एवं वासनाओं की पूर्ति वह न केवल दूसरों के जीवन के रक्षण की बात करता है करके चैतसिक शांति का अनुभव किया जाय। दूसरी ओर निवृत्तिमार्गी अपितु वह स्वयं के जीवन के रक्षण की भी बात करता है। उसके परम्पराओं ने वासनाओं की सन्तुष्टि को विवेक की उपलब्धि के मार्ग अनुसार स्व की हिंसा दूसरों की हिंसा से भी निकृष्ट है। अत: जीवन में बाधक समझा और वासनाओं के दमन के माध्यम से वासनाजन्य चाहे अपना हो या दूसरों का वह सर्वतोभावेन रक्षणीय है। यद्यपि इतना मूलभता है किन्तु उसके सिम्परा का मूलभूत असफल होने Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि 485 अवश्य है कि जैनों की दृष्टि में पाशविक शुद्ध स्वार्थों से परिपूर्ण, मात्र दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं, अपितु जैविक एषणाओं की पूर्ति में संलग्न जीवन न तो रक्षणीय है, न उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि वरेण्य; किन्तु यह दृष्टि तो तंत्र की भी है, क्योंकि वह भी पशु अर्थात् इन्द्रियों के मनोज्ञ का अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष पाशविक पक्ष का संहार कर पाश से मुक्त होने की बात करता है। जैनों (मानसिक विक्षोभो) का कारण बनते हैं, अनासक्त का वीतराग के लिए के अनुसार जीवन उस समीप तक वरेण्य और रक्षणीय है जिस सीमा नहीं। अत: जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के तक वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है और अपने निषेध की नहीं। आध्यात्मिक विकास के माध्यम से लोकमंगल का सृजन करता है। प्रशस्त तांत्रिक साधना और जैन साधना दोनों में ही इस सम्बन्ध में जैन तांत्रिक साधना और लोक कल्याण का प्रश्न सहमति देखी जाती है। वस्तुत: जीवन की एकान्त रूप से वरेण्यता तांत्रिक साधना का लक्ष्य आत्मविशुद्धि के साथ लोक कल्याण और एकान्त रूप से जीवन का निषेध दोनों ही अवधारणाएँ उचित नहीं भी है। यह सत्य है कि जैन धर्म मूलतः संन्यासमार्गी धर्म है। उसकी है। यही जैनों की जीवनदृष्टि है। वासनात्मक जीवन के निराकरण द्वारा साधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर ही अधिक जोर दिया आध्यात्मिक जीवन का विकास-यही तंत्र और जैन दर्शन दोनों की गया है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोकमंगल या जीवनदृष्टि है और इस अर्थ में वे दोनों विरोधी नहीं हैं, सहगामी हैं। लोककल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैन धर्म यह तो अवश्य फिर भी सामान्य अवधारणा यह है कि तन्त्र दर्शन में ऐहिक मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से समाज निरपेक्ष, एकांकी जीवन को सर्वथा वरेण्य माना गया है। उसकी मान्यता है कि जीवन जीवन अधिक ही उपयुक्त है किन्तु इसके साथ ही साथ वह यह भी आनन्दपूर्वक जीने के लिए है। जैन धर्म में तप-त्याग की जो महिमा मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक गायी गई है उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैन धर्म कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात जीवन का निषेध सिखाता है। अत: यहां इस भ्रान्ति का निराकरण कर का साक्षी है कि 12 वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन धर्म के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की तक्त जीवन भर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की जैन धर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक पूर्णतया उपेक्षा की जाय। जैन धर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के चारित्रिक उन्नयन से ही सामाजिक के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथभाष्य 12 में कहा है कि मोक्ष का कल्याण की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की मूलभूत इकाई साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। है, जब तक व्यक्ति का चारित्रिक विकास नहीं होगा, तब तक उसके शरीर शाश्वत आनन्द के कूल में ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से द्वारा सामाजिक कल्याण नहीं हो सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सार-संभाल भी करना है। में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होनी चाहिए, क्योंकि सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की सकती। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर पूर्ति की एक साधना के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता, क्योंकि समाज जब भी विद्या का हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है जो आध्यात्मवाद और खड़ा होता है वह त्याग और समर्पण के मूल्यों पर ही होता है। भौतिकवाद में अन्तर करती है। भौतिकवाद में उपलब्धियाँ या जैविक लोकसेवक और जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च रहें-यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है। चरित्रहीन मूल्यों के साधन हैं। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होगें। व्यक्तिगत वस्तुओं का त्याग और ग्रहण, दोनों ही साधना के लिए हैं। स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो तांत्रिक साधनाएँ की जाती हैं, वे जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य और एक ऐसे सामाजिक जीवन के लिए घातक ही होती हैं। क्या चोर, डाकू और निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्त है जो शोषकों का संगठन समाज कहलाने का अधिकारी है? क्या चोर, डाकू वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को और लुटेरे अपने उद्देश्य मे सफल होने के लिए देवी-देवताओं को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की प्रसन्न करने हेतु जो तांत्रिक साधना करते या करवाते हैं, उसे सही अर्थ स्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति में साधना कहा जा सकता है? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि की संस्थापना है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति सामाजिक कल्याण का आधार बन सकती उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और है। प्रश्नव्याकरणसूत्र१५ में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित जहाँ तक उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान महावीर ने प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन आचारांगसूत्र 13 एवं उत्तराध्ययनसूत्र 14 में इस बात को बहुत ही साधना में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये जो पाँच स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने व्रत माने गये हैं, वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है। विषयों से सम्पर्क होता है, तब उसे सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद- जैन तन्त्र के दार्शनिक आधार दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि जैन तत्त्व दर्शन के अनुसार जीव कर्मों के आवरण के कारण इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या बन्धन में है। बन्धन से मुक्ति के लिए एक ओर कर्म आवरण का Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ क्षयोपशम आवश्यक है तो दूसरी ओर उस क्षयोपशम के लिए विशिष्ट साधनाएँ की जाती हैं, उनमें आराध्यदेव महावीर न होकर मुख्यत: साधना भी आवश्यक है किन्तु इस साधना के लिए बन्धन और बन्धन पार्श्वनाथ अथवा उनकी शासनदेवी पद्मावती ही होती। जैन तांत्रिक के कारणों का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान दार्शनिक अध्ययन से ही साधनाओं में पार्श्व और पद्मावती की प्रधानता स्वतः ही इस तथ्य का प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व के ज्ञान के बिना साधना अधूरी रहती है। प्रमाण है कि पार्श्व की परम्परा में तांत्रिक साधना की प्रवृत्ति रही होगी। अत: जैन तन्त्र में भी तान्त्रिक साधना के पूर्व तत्त्वमीमांसा और यह माना जाता है कि पार्श्व की परम्परा के ग्रन्थों, जिन्हें 'पूर्व' के नाम ज्ञानमीमांसा का सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है। इस प्रकार जैन तत्त्व से जाना जाता है, में एक विद्यानुप्रवाद पूर्व भी था। यद्यपि वर्तमान में साधना में दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह ग्रन्थ अप्राप्त है, किन्तु इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो निर्देश अब हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि जैन परम्परा में उपलब्ध हैं उनसे इतना तो सिद्ध अवश्य होता है कि इसकी विषयवस्तु तांत्रिक साधना के कौन से तत्त्व किन-किन रूपों में उपस्थित हैं? और में विविध विद्याओं की साधना से सम्बन्धित विशिष्ट प्रक्रियाएँ निहित उनका उद्भव एवं विकास कैसे हुआ? रही होंगी। न केवल पार्श्व की परम्परा के पूर्व साहित्य में, अपित महावीर की परम्परा के आगम साहित्य में भी, विशेष रूप से जैनधर्म में तान्त्रिक साधना का उद्भव एवं विकास प्रश्नव्याकरणसूत्र में विविध-विद्याओं की साधना सम्बन्धी सामग्री थी, यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना-मुक्ति और आत्मविशुद्धि है तो वह ऐसी टीकाकार अभयदेव आदि की मान्यता है। यही कारण था कि जैन धर्म में उसके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई है। किन्तु यदि तन्त्र का योग्य अधिकारियों के अभाव में उस विद्या को पढ़ने से कोई साधक तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के चरित्र से भ्रष्ट न हो, इसलिए लगभग सातवीं शताब्दी में उसकी लिए किसी देवता-विशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक विषयवस्तु को ही बदल दिया गया। यह सत्य है कि महावीर की शक्ति को प्राप्त कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और परम्परा में प्रारम्भ में तन्त्र-मन्त्र और विद्याओं की साधनाओं को न आकांक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैन धर्म में इसका कोई केवल वर्जित माना गया था, अपितु इस प्रकार की साधना में लगे हए स्थान नहीं था। इसे हम प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके हैं। यद्यपि जैन आगमों लोगों की आसुरी योनियों में उत्पन्न होने वाला भी कहा गया। किन्तु में ऐसे अनेकों सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जिनके अनुसार उस युग में अपनी जब पार्श्व की परम्परा का विलय महावीर की परम्परा में हुआ तो पार्श्व लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या यक्ष-यक्षी की की परम्परा के प्रभाव से महावीर की परम्परा के श्रमण भी तांत्रिक उपासना की जाती थी। अंतगडदसा आदि आगमों में नैगमेषदेव के द्वारा परम्पराओं से जुड़े। महावीर के संघ में तान्त्रिक साधनाओं की स्वीकृति सुलसा और देवकी के छः सन्तानों के हस्तांतरण की घटना, कृष्ण के द्वारा इस अर्थ में हुई कि उनके माध्यम से या तो आत्मविशुद्धि की दिशा में अपने छोटे भाई की प्राप्ति के लिए तीन दिवसीय उपवास के द्वारा नैगमेष आगे बढ़ा जाय अथवा उन्हें सिद्ध करके उनका उपयोग जैन धर्म की देव की उपासना करना अथवा बहुपुत्रिका देवी की उपासना के द्वारा सन्तान प्रभावना या उसके प्रसार के लिए किया जाय। प्राप्त करना आदि अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, किन्तु इस प्रकार की उपासनाओं इस प्रकार महावीर के धर्मसंघ में तन्त्र साधना का प्रवेश को जैन धर्म की स्वीकृति प्राप्त थी, यह कहना उचित नहीं होगा। प्रारम्भिक जिनशासन की प्रभावना के निमित्त हुआ और परवर्ती अनेक जैनाचार्यों जैन धर्म, विशेषरूप से महावीर की परम्परा में तन्त्र-मन्त्र की साधना मुनि ने जैन धर्म के प्रभावना के लिए तांत्रिक-साधनाओं से प्राप्त शक्ति का के लिए सर्वथा वर्जित ही मानी गई थी। प्राचीन जैन आगमों में इसको न प्रयोग भी किया, जैन साहित्य में ऐसे संदर्भ विपुलता से उपलब्ध होते केवल हेय दृष्टि से देखा गया, अपितु इस प्रकार की साधना करने वाले हैं। आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में किसी मुनि को आचार्य पद को पापश्रमण या पार्श्वस्थ तक कहा गया है। इस सम्बन्ध में सूत्रकृताङ्गसूत्र, पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व सूरिमंत्र और वर्द्धमान विद्या की साधना करनी उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र के सन्दर्भ पूर्व में दिये जा चुके हैं। होती है। मात्र यही नहीं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमण और श्रमणियाँ आगमों में पार्श्वस्थ का तात्पर्य शिथिलाचारी साधु माना जाता है। यद्यपि मन्त्रसिद्ध सुगन्धित वस्तुओं का एक चूर्ण जिसे वासक्षेप कहा जाता है, महावीर की परम्परा ने प्रारम्भ में तन्त्र साधना को कोई स्थान नहीं दिया, अपने पास रखते हैं और उपासकों को आशीर्वाद के रूप में प्रदान किन्तु उनके पूर्ववर्ती पार्श्व (जिनका जन्म इसी वाराणसी नगरी में हुआ था) करते हैं। यह जैन धर्म में तन्त्र के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है। इसी प्रकार की परम्परा के साधु अष्टांगनिमित्त शास्त्र का अध्ययन और विद्याओं की मंत्रसिद्ध रक्षाकवच भी उपासकों को प्रदान किये जाते हैं। न केवल साधना करते थे, ऐसे संकेत जैनागमों में मिलते हैं। यही कारण था कि श्वेताम्बर और दिगम्बर भट्टारक परम्परा में अपितु वर्तमान दिगम्बर महावीर की परम्परा में पार्श्व की परम्परा के साधुओं को पार्श्वस्थ अर्थात् परम्परा में भी अनेक आचार्य और मुनि विशेषरूप से आचार्य विमलसागर शिथिलाचारी कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। प्राकृत में 'पासत्थ' शब्द जी की परम्परा के मुनिगण तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। के तीन अर्थ होते हैं- 1. पाशस्थ अर्थात् पाश में बँधा हुआ 2. पार्श्वस्थ लगभग सातवीं शती के अनेक अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्य भी अर्थात् पार्श्व के संघ में स्थित या 3. पार्श्वस्थ अर्थात् पार्श्व में स्थित संयमी उपलब्ध होते हैं जिनमें जैन-मुनियों द्वारा तन्त्र-मन्त्र के प्रयोग के प्रसंग जीवन के समीप रहने वाला। उपलब्ध हैं। वस्तुत: चैत्यवास के परिणामस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय में ज्ञाताधर्मकथासूत्र जैसे अंग- आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के विकसित भट्टारक परम्परा और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विकसित यति प्रथम वर्ग में और आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि आदि आगमिक परम्परा स्पष्टतया इन तान्त्रिक साधनाओं से सम्बन्धित रही है, यद्यपि व्याख्या ग्रन्थों में ऐसे अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जिनमें पाश्र्थापत्य आध्यात्मवादी मुनिवर्ग ने इन्हें सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है और श्रमणों और श्रमणियों द्वारा अष्टाङ्गनिमित्त एवं मन्त्र-तन्त्र आदि की समय-समय पर इन प्रवृत्तियों की आलोचना भी की है। साधना करने के उल्लेख हैं। आज भी जैन परम्परा में जो तान्त्रिक वस्तुत: जैन परम्परा में तान्त्रिक साधनाओं का विकास चौथी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्त्र-साधना और जैन जीवन दृष्टि 487 पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही प्रारम्भ हो गया था। कल्पसूत्र पट्टावली में आकर्षित होने का भय था। जैन श्रमणों की जो प्राचीन आचार्य परम्परा वर्णित है उसमें विद्याधरकुल अध्यात्म के आदर्श की बात करना तो सुखद लगता है का उल्लेख मिलता है। सम्भवत: विद्याधर कुल जैन श्रमणों का वह वर्ग किन्तु उन आदर्शों को जीवन में जीना सहज नहीं है। जैन धर्म का रहा होगा जो विविध विद्याओं की साधना करता होगा। यहाँ विद्या का उपासक भी वही व्यक्ति है जिसे अपने लौकिक और भौतिक मंगल की तात्पर्य बुद्धि नहीं, अपितु देव अधिष्ठित अलौकिक शक्ति की प्राप्ति ही आकांक्षा रहती है। जैन धर्म को विशुद्ध रूप से मात्र आध्यात्मिक और है। प्राचीन जैन साहित्य में हमें जंघाचारी और विद्याचारी, ऐसे दो प्रकार निवृत्तिमार्गी बनाए रखने पर भक्तों या उपासकों के एक बड़े भाग से के श्रमणों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। यह माना जाता है कि ये मुनि जैन धर्म के विमुख हो जाने की समभावनाएँ थीं। इन परिस्थितियों में अपनी विशिष्ट साधना द्वारा ऐसी अलौकिक शक्ति प्राप्त कर लेते थे जैन आचार्यों की यह विवशता थी कि वे अपने अनुयायियों की श्रद्धा जिसकी सहायता से वे आकाश में गमन करने में समर्थ होते थे। जैन-धर्म में बनी रहे इसके लिए उन्हें यह आवश्वासन दें कि चाहे यह माना जाता है कि आर्य वज्रस्वामी (ईसा की प्रथमशती) तीर्थंकर उनके लौकिक-भौतिक कल्याण करने में असमर्थ हों किन्तु उन ने दुर्भिक्षकाल में पट्टविद्या की सहायता से सम्पूर्ण जैन संघ को सुरक्षित तीर्थंकरों के शासन रक्षक देव उनका लौकिक और भौतिक मगल करने स्थान पर पहुँचाया था। वज्रस्वामी द्वारा किया गया विद्या का यह प्रयोग में समर्थ हैं। जैन देवमण्डल में विभिन्न यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, परवर्ती आचार्यों और साधुओं के लिए एक उदाहरण बन गया। वज्रस्वामी क्षेत्रपालों आदि को जो स्थान मिला, उसका मुख्य लक्ष्य तो अपने के सन्दर्भ में आवश्यकनियुक्ति में स्पष्टरूप से कहा गया है कि उन्होंने अनुयायियों की श्रद्धा जैन-धर्म में बनए रखना ही था। अनेक विद्याओं का उद्धार किया था। लगभग दूसरी शताब्दी के मथुरा यही कारण था कि आठवीं-नौवीं शताब्दी में जैन आचार्यों ने के एक शिल्पांकन में आकाशमार्ग से गमन करते हुए एक जैन श्रमण अनेक तांत्रिक विधि-विधानों को जैन-साधना और पूजा-पद्धति का को प्रदर्शित भी किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ईसा की अंग बना दिया। यह सत्य है कि जैन साधना में तांत्रिक साधना की दूसरी-तीसरी शताब्दी से भी जैनों में अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति हेतु अनेक विधाएँ यथा मन्त्र, यन्त्र, जप, पूजा, ध्यान आदि क्रमिक रूप से तांत्रिक साधना के प्रति निष्ठा का विकास हो गया था। विकसित होती रही है, किन्तु यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के वस्तुत: जैन धर्मसंघ में ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी से प्रभाव का परिणाम थी, जिसे जैन धर्म के उपासकों की निष्ठा को जैन चैत्यवास का आरम्भ हुआ और उसी के परिणामस्वरूप तन्त्र-मन्त्र की धर्म के बनाए रखने के लिए स्वीकार किया गया था। साधना को जैन संघ में स्वीकृति भी मिली। संदर्भजैन परम्परा में आर्य खपुट, (प्रथम शती), आर्य रोहण 1. पञ्चाशक, प्रका०- ऋषभदेव श्री, केशरीमलजी श्वे० संस्था, 2/44 (द्वितीय शती), आचार्य नागार्जुन (चतुर्थ शती) यशोभद्रसूरि, मानदेवसूरि, 2. ललितविस्तरा, हरिभद्र, प्रका०- ऋषभदेव, केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, सिद्धसेनदिवाकर (चतुर्थशती), मल्लवादी (पंचमशती) मानतुङ्गसूरि (सातवीं वी०नि०सं० 2461, पृ० 57-58. शती), हरिभद्रसूरि (आठवीं शती), बप्पभट्टिसूरि (नवीं शती), सिद्धर्षि 3. गुह्यसमाजतन्त्र, संपा०- विनयतोष भट्टाचार्य, प्रका०- ओरिएण्टल (नवीं शती), सूराचार्य (ग्यारहवीं शती), जिनेश्वरसूरि (ग्यारहवीं शती), इंस्टिट्यूट, बरोदा, 1931, 5/40 अभयदेवसूरि (ग्यारहवीं शती) वीराचार्य (ग्यारहवीं शती), जिनदत्तसूरि 5. सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन (बारहवीं शती), वादिदेवसूरि (बारहवीं शती), हेमचन्द्र (बारहवीं शती), समिति, ब्यावर, 1982, 2/3/18 आचार्य मलयगिरि (बारहवीं शती), जिनचन्द्रसूरि (बारहवीं शती) 6. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन पार्श्वदेवगणि (बारहवीं शती), जिनकशल सूरि (तेरहवीं शती) आदि आगरा 1972, 15/7 अनेक आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने मन्त्र और विद्याओं की 7. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन साधना के द्वारा जैन धर्म की प्रभावना की। यद्यपि विविध ग्रंथों, प्रबन्धों समिति, ब्यावर, 1985, 8/50 और पट्टावलियों में वर्णित इनके कथानकों में कितनी सत्यता है, यह एक 8. आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन भिन्न विषय है, किन्तु जैन साहित्य में जो इनके जीवनवृत्त मिलते हैं वे समिति, ब्यावर, 1980, 12/6/163 इतना तो अवश्य सूचित करते हैं कि लगभग चौथी-पाँचवी शताब्दी से 9. स्थानांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन जैन आचार्यों का रुझान तांत्रिक साधनाओं की ओर बढ़ा था और वे जैन समिति, ब्यावर, 1980, 6/41. धर्म की प्रभावना के निमित्त उसका उपयोग भी करते थे। 10. मरणसमाधि, पइण्णय सुत्ताई, संपा०- पुण्यविजयजी, प्रका०- श्री मेरी दृष्टि से जैन परम्परा में तांत्रिक साधनाओं का जो उद्भव महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1984 और विकास हुआ है, वह मुख्यत: दो कारणों से हुआ है-प्रथम तो यह 11. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1922, 23/73 कि जब वैयक्तिक साधना की अपेक्षा संघीय जीवन को प्रधानता दी गई तो संघ की रक्षा और अपने श्रावक भक्तों के भौतिक कल्याण को भी 12. निशीथभाष्य, संपा०- मुनि अमरचंदजी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1982, 4157 साधना का आवश्यक अंग मान लिया गया। दूसरे तंत्र के बढ़ते हुए 13. आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन प्रभाव के कारण जैन आचार्यों के लिए यह अपरिहार्य हो गया था कि समिति, ब्यावर, 1980, 2/15/130-134 वे मूलत: निवृत्तिमार्गी और आत्मविशुद्धिपरक इस धर्म को जीवित 14. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, बनाए रखने के लिए तांत्रिक उपासना और साधना-पद्धति को किसी आगरा, 1972, 32/100 / सीमा तक स्वीकार करे, अन्यथा उपासको का इतर परम्पराओं की ओर 15. प्रश्नव्याकरणसत्र, संपा०- मनि हस्तिमलजी. प्रका०- हस्तीमल सराणा, पाली, 1950, 2/9/2