________________ 486 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ क्षयोपशम आवश्यक है तो दूसरी ओर उस क्षयोपशम के लिए विशिष्ट साधनाएँ की जाती हैं, उनमें आराध्यदेव महावीर न होकर मुख्यत: साधना भी आवश्यक है किन्तु इस साधना के लिए बन्धन और बन्धन पार्श्वनाथ अथवा उनकी शासनदेवी पद्मावती ही होती। जैन तांत्रिक के कारणों का ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान दार्शनिक अध्ययन से ही साधनाओं में पार्श्व और पद्मावती की प्रधानता स्वतः ही इस तथ्य का प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व के ज्ञान के बिना साधना अधूरी रहती है। प्रमाण है कि पार्श्व की परम्परा में तांत्रिक साधना की प्रवृत्ति रही होगी। अत: जैन तन्त्र में भी तान्त्रिक साधना के पूर्व तत्त्वमीमांसा और यह माना जाता है कि पार्श्व की परम्परा के ग्रन्थों, जिन्हें 'पूर्व' के नाम ज्ञानमीमांसा का सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है। इस प्रकार जैन तत्त्व से जाना जाता है, में एक विद्यानुप्रवाद पूर्व भी था। यद्यपि वर्तमान में साधना में दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह ग्रन्थ अप्राप्त है, किन्तु इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो निर्देश अब हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि जैन परम्परा में उपलब्ध हैं उनसे इतना तो सिद्ध अवश्य होता है कि इसकी विषयवस्तु तांत्रिक साधना के कौन से तत्त्व किन-किन रूपों में उपस्थित हैं? और में विविध विद्याओं की साधना से सम्बन्धित विशिष्ट प्रक्रियाएँ निहित उनका उद्भव एवं विकास कैसे हुआ? रही होंगी। न केवल पार्श्व की परम्परा के पूर्व साहित्य में, अपित महावीर की परम्परा के आगम साहित्य में भी, विशेष रूप से जैनधर्म में तान्त्रिक साधना का उद्भव एवं विकास प्रश्नव्याकरणसूत्र में विविध-विद्याओं की साधना सम्बन्धी सामग्री थी, यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना-मुक्ति और आत्मविशुद्धि है तो वह ऐसी टीकाकार अभयदेव आदि की मान्यता है। यही कारण था कि जैन धर्म में उसके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई है। किन्तु यदि तन्त्र का योग्य अधिकारियों के अभाव में उस विद्या को पढ़ने से कोई साधक तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के चरित्र से भ्रष्ट न हो, इसलिए लगभग सातवीं शताब्दी में उसकी लिए किसी देवता-विशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक विषयवस्तु को ही बदल दिया गया। यह सत्य है कि महावीर की शक्ति को प्राप्त कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और परम्परा में प्रारम्भ में तन्त्र-मन्त्र और विद्याओं की साधनाओं को न आकांक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैन धर्म में इसका कोई केवल वर्जित माना गया था, अपितु इस प्रकार की साधना में लगे हए स्थान नहीं था। इसे हम प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके हैं। यद्यपि जैन आगमों लोगों की आसुरी योनियों में उत्पन्न होने वाला भी कहा गया। किन्तु में ऐसे अनेकों सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जिनके अनुसार उस युग में अपनी जब पार्श्व की परम्परा का विलय महावीर की परम्परा में हुआ तो पार्श्व लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या यक्ष-यक्षी की की परम्परा के प्रभाव से महावीर की परम्परा के श्रमण भी तांत्रिक उपासना की जाती थी। अंतगडदसा आदि आगमों में नैगमेषदेव के द्वारा परम्पराओं से जुड़े। महावीर के संघ में तान्त्रिक साधनाओं की स्वीकृति सुलसा और देवकी के छः सन्तानों के हस्तांतरण की घटना, कृष्ण के द्वारा इस अर्थ में हुई कि उनके माध्यम से या तो आत्मविशुद्धि की दिशा में अपने छोटे भाई की प्राप्ति के लिए तीन दिवसीय उपवास के द्वारा नैगमेष आगे बढ़ा जाय अथवा उन्हें सिद्ध करके उनका उपयोग जैन धर्म की देव की उपासना करना अथवा बहुपुत्रिका देवी की उपासना के द्वारा सन्तान प्रभावना या उसके प्रसार के लिए किया जाय। प्राप्त करना आदि अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, किन्तु इस प्रकार की उपासनाओं इस प्रकार महावीर के धर्मसंघ में तन्त्र साधना का प्रवेश को जैन धर्म की स्वीकृति प्राप्त थी, यह कहना उचित नहीं होगा। प्रारम्भिक जिनशासन की प्रभावना के निमित्त हुआ और परवर्ती अनेक जैनाचार्यों जैन धर्म, विशेषरूप से महावीर की परम्परा में तन्त्र-मन्त्र की साधना मुनि ने जैन धर्म के प्रभावना के लिए तांत्रिक-साधनाओं से प्राप्त शक्ति का के लिए सर्वथा वर्जित ही मानी गई थी। प्राचीन जैन आगमों में इसको न प्रयोग भी किया, जैन साहित्य में ऐसे संदर्भ विपुलता से उपलब्ध होते केवल हेय दृष्टि से देखा गया, अपितु इस प्रकार की साधना करने वाले हैं। आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में किसी मुनि को आचार्य पद को पापश्रमण या पार्श्वस्थ तक कहा गया है। इस सम्बन्ध में सूत्रकृताङ्गसूत्र, पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व सूरिमंत्र और वर्द्धमान विद्या की साधना करनी उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र के सन्दर्भ पूर्व में दिये जा चुके हैं। होती है। मात्र यही नहीं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमण और श्रमणियाँ आगमों में पार्श्वस्थ का तात्पर्य शिथिलाचारी साधु माना जाता है। यद्यपि मन्त्रसिद्ध सुगन्धित वस्तुओं का एक चूर्ण जिसे वासक्षेप कहा जाता है, महावीर की परम्परा ने प्रारम्भ में तन्त्र साधना को कोई स्थान नहीं दिया, अपने पास रखते हैं और उपासकों को आशीर्वाद के रूप में प्रदान किन्तु उनके पूर्ववर्ती पार्श्व (जिनका जन्म इसी वाराणसी नगरी में हुआ था) करते हैं। यह जैन धर्म में तन्त्र के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है। इसी प्रकार की परम्परा के साधु अष्टांगनिमित्त शास्त्र का अध्ययन और विद्याओं की मंत्रसिद्ध रक्षाकवच भी उपासकों को प्रदान किये जाते हैं। न केवल साधना करते थे, ऐसे संकेत जैनागमों में मिलते हैं। यही कारण था कि श्वेताम्बर और दिगम्बर भट्टारक परम्परा में अपितु वर्तमान दिगम्बर महावीर की परम्परा में पार्श्व की परम्परा के साधुओं को पार्श्वस्थ अर्थात् परम्परा में भी अनेक आचार्य और मुनि विशेषरूप से आचार्य विमलसागर शिथिलाचारी कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। प्राकृत में 'पासत्थ' शब्द जी की परम्परा के मुनिगण तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। के तीन अर्थ होते हैं- 1. पाशस्थ अर्थात् पाश में बँधा हुआ 2. पार्श्वस्थ लगभग सातवीं शती के अनेक अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्य भी अर्थात् पार्श्व के संघ में स्थित या 3. पार्श्वस्थ अर्थात् पार्श्व में स्थित संयमी उपलब्ध होते हैं जिनमें जैन-मुनियों द्वारा तन्त्र-मन्त्र के प्रयोग के प्रसंग जीवन के समीप रहने वाला। उपलब्ध हैं। वस्तुत: चैत्यवास के परिणामस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय में ज्ञाताधर्मकथासूत्र जैसे अंग- आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के विकसित भट्टारक परम्परा और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विकसित यति प्रथम वर्ग में और आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि आदि आगमिक परम्परा स्पष्टतया इन तान्त्रिक साधनाओं से सम्बन्धित रही है, यद्यपि व्याख्या ग्रन्थों में ऐसे अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जिनमें पाश्र्थापत्य आध्यात्मवादी मुनिवर्ग ने इन्हें सदैव ही हेय दृष्टि से देखा है और श्रमणों और श्रमणियों द्वारा अष्टाङ्गनिमित्त एवं मन्त्र-तन्त्र आदि की समय-समय पर इन प्रवृत्तियों की आलोचना भी की है। साधना करने के उल्लेख हैं। आज भी जैन परम्परा में जो तान्त्रिक वस्तुत: जैन परम्परा में तान्त्रिक साधनाओं का विकास चौथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org