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ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७५
६५. धवला, पुस्तक १३ पृ० ७० ६७. योगसार, योगीन्दु देव, प्रका०- परमश्रुत प्रमावक मंडल बम्बई, १९३७ ९८
६८. ज्ञानसार, पद्मसिंह, टीका० त्रिलोकचन्द्र, मू० कि० कापडिया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी०सं० २४२०; १८-२८ ६९. द्रव्यसंग्रह (नेमीचन्द्र) ४८-५४ टीका ब्रह्मदेव गाथा ४८ की टीका
७०. पदस्थ मंत्रवाक्यस्थ वही गाथा ४८ की टीका
७१. श्रावकाचार (अमितगति) परिच्छेद १५
७२. ज्ञानार्णव (शुभचन्द्र) संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर, १९७७ सर्ग ३२-४०
७३. स्थानांगसूत्र संपा० मधुकर मुनि प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१४/६०-४०
७४. वही, ४/६२
७५. वही, ४/६३
७६. वही, ४ / ६४
७७. वही, ४/६५
७८. वही, ४/६६
७९. वही, ४ / ६७
८०. वही, ४/६८
तन्त्र साधना और जैन जीवन दृष्टि
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८१. ध्यानशतक जिनभद्र क्षमाश्रमण प्रका०- विनय सुन्दर चरण ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७६३
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४८१
८२. योगशास्त्र संपा० मुनि समदर्शी, प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा,
१९६३७/२-६
स्थानांग सूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका- श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर १९८१ ४/६९
'तन्त्र' शब्द का अर्थ
जैन धर्म-दर्शन और साधना पद्धति में तांत्रिक साधना के कौनकौन से तत्त्व किस-किस रूप में उपस्थिति हैं, यह समझने के लिए सर्वप्रथम तंत्र शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। विद्वानों ने तंत्र शब्द की व्याख्याएँ और परिभाषाएँ अनेक प्रकार से की हैं। उनमें से कुछ परिभाषाएँ व्युत्पत्तिपरक हैं और कुछ रूढ़ार्थक । व्युत्पत्ति की दृष्टि से तन्त्र शब्द 'तन्' 'त्र' से बना है। 'तन्' धातु विस्तृत होने या व्यापक होने की सूचक है और 'त्र' त्राण देने या संरक्षण करने का सूचक है। इस प्रकार जो आत्मा को व्यापकता प्रदान करता है और उसकी रक्षा करता है उसे तन्त्र कहा जाता है। तान्त्रिक ग्रन्थों में 'तन्त्र' शब्द की निम्न व्याख्या उपलब्ध हैतनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान् । त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥
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अर्थात् जो तत्त्व और मन्त्र से समन्वित विभिन्न विषयों के विपुल ज्ञान को प्रदान करता है और उस ज्ञान के द्वारा स्वयं एवं दूसरों की रक्षा करता है, उसे तंत्र कहा जाता है। वस्तुतः तंत्र एक व्यवस्था का सूचक है। जब हम तंत्र शब्द का प्रयोग राजतंत्र, प्रजातंत्र, कुलीनतंत्र आदि के रूप में
८३.
८४.
वही, ४/७०
८५.
वही, ४/७१
८६. वही, ४/७२
८७. तत्त्वार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका० पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६९ / ३६-४०
८८.
आचारांग सूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर १९८० १/९/१/६, १/९/२/४, १/९/२/
१२
८९. वही, १/२/१/५
९०. उत्तराध्ययन सूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन आगरा, १९७२२६ / १८
९१. आवश्यकचूर्णि भाग २ पृ० १८८७
९२. वही भाग १ पृ० ४१०
,
९३. आचारांग (आचार्य तुलसी) जैन विश्वभारती, लाडनूं
१/२/५/१२५
९४. वही, १/२/३/७३, १/२/६/१८५
९६.
देखें- Prakrit Proper Names Ed. Pt. Dalsukha Malvania, Pub.-L.D. Institute, Ahamadabad, 1972 Vol II Page 626.
तन्त्र - साधना और जैन जीवन दृष्टि
करते हैं, तब वह किसी प्रशासनिक व्यवस्था का सूचक होता है।
मात्र यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक विशुद्धि और आत्म-विशुद्धि के लिए जो विशिष्ट साधना विधियों प्रस्तुत की जाती है, उन्हें 'तंत्र' कहा जाता है। इस दृष्टि से 'तंत्र' शब्द एक व्यापक अर्थ का सूचक है और इस आधार पर प्रत्येक साधना विधि 'तंत्र' कही जा सकती है। वस्तुतः जब हम शैवतंत्र, शाक्ततंत्र, वैष्णवतंत्र, जैनतंत्र या बौद्धतंत्र की बात करते हैं, तो यहाँ तंत्र का अभिप्राय आत्म विशुद्धि या चित्तविशुद्धि की एक विशिष्ट पद्धति से ही होता है । मेरी जानकारी के अनुसार इस दृष्टि से जैन परम्परा में 'तन्त्र' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों-पञ्चाशक और ललितविस्तरा ( आठवीं शती) में किया है। उन्होंने पञ्चाशक में जिन आगम को और ललितविस्तरा में जैन धर्म के ही एक सम्प्रदाय को 'तंत्र' के नाम से अभिहित किया है। इससे फलित होता है कि लगभग आठवीं शती से जैन परम्परा में 'तंत्र' अभिधान प्रचलित हुआ । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत प्रसंग में आगम को ही तंत्र कहा गया है। आगे चलकर आगम का वाचक तन्त्र शब्द किसी साधनाविधि दार्शनिकविधा का वाचक बन गया । वस्तुतः तंत्र एक दार्शनिक विधा भी है और साधनामार्ग भी ।
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