Book Title: Swayambhu Stotram
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवामन्दिर - ग्रन्थमाला श्रीमत्स्वामि-समन्तभद्राचार्य- विरचित चतुर्विंशति- जिन-स्तवनात्मक स्वयम्भू-स्तोत्र ( स्तुतिपरक जैनागम ) [समन्तभद्र भारतीका एक प्रमुख अङ्ग ] प्रथम संस्करण १००० -++++ जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अधिष्ठाता 'वीर - सेवा - मन्दिर' } अनुवादक और परिचायक -++++ प्रकाशक वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा जिला सहारनपुर आषाढ, वीर नि० संवत् २४७७ वि० सं० २००८, जुलाई १६५१ { मूल्य दो रुपये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १ समर्पण २ सुफल ३ प्रकाशकीय वक्तव्य ४ शुद्धि-विधान ५ प्रस्तावना १-८२ ग्रन्थ-नाम " 12529. ८३-१०६ ग्रन्थका सामान्य परिचय और महत्व स्तुत तीर्थङ्करोंका परिचय अर्हद्विशेषण-पद भक्तियोग और स्तुति-प्रार्थनादि-रहस्य ... ज्ञान-योग कर्म-योग कर्मयोगका आदि-मध्य और अन्त '... ६ समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय'.. ७ स्वयम्भू-स्तवन-सूची ८ मङ्गला-चरण ९ स्वयम्भूस्तोत्र सानुवाद १० परिशिष्ट १ स्वयम्भू-स्तवन-छन्द-सूची ... २ अर्हत्सम्बोधन-पदावली ... ३ स्वयम्भूस्तोत्र-पद्यानुक्रमणी कुल पृष्ठसंख्या-२१६ १८७ १०८ १-८८ ... ८९-९९ रामा प्रिण्टिंग वर्क्स, चावड़ी बाजार, देहली Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण त्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन्! तुभ्यमेव समर्पितम् । हे आराध्य गुरुदेव स्वामी समन्तभद्र ! आपकी यह अनुपमकृति 'स्वयम्भू स्तोत्र' मुझे आजसे कोई ५० वर्ष पहले प्राप्त हुई थी । उस वक्त से बराबर यह मेरी पाठ्यवस्तु बनी हुई है और मैं इसके अध्ययन-मनन तथा मर्मको समझने के यत्न- द्वारा इसका विशेष परिचय प्राप्त करनेमें लगा रहा हूँ । मुझे वह परिचय कहाँ तक प्राप्त हो सका है और मैं कितने अंशोंमें इस ग्रन्थके गूढ तथा गम्भीर पद-वाक्योंकी गहराई में स्थित अर्थको मालूम करने में समर्थ हो सका हूँ, यह सब संक्षेपमें ग्रन्थके अनुवाद तथा परिचयात्मक प्रस्तावना से आना जा सकता है और उसे पूरे तौरपर तो आप ही जान सकते हैं। मैं तो इतना ही समझता हूँ कि आपका आराधन करते हुए आपके ग्रन्थोंसे, जिनका मैं बहुत ऋणी हूँ, मुझे जो दृष्टि-शक्ति प्राप्त हुई है और उस दृष्टि-शक्ति के द्वारा मैंने जो कुछ अर्थका अवलोकन किया है, ये दोनों कृतियां उसीका प्रतिफल हैं। इनमें आपके ही विचारोंका प्रतिबिम्ब होनेसे वास्तव में ये आपकी ही चीज़ हैं और इसलिये आपको ही सादर समर्पित हैं । आप लोक-हितकी मूर्ति हैं, आपके प्रसाद से इन कृतियों द्वारा यदि कुछ भी लोक-हितका साधन हो सका तो मैं अपने आपके भारी ऋणसे कुछ उऋण हुआ समझू गा । विनम्र जुगल किशोर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - --- - - - सुफल सन् १९३९ में श्रीमान् बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता-10 | का भतीजा चि० चिरञ्जीलाल सख्त बीमार पड़ा था, कलकत्ताके सुप्रसिद्ध वैद्यों स्था डाक्टरोंने जवाब दे दिया था और उसे घंटे दो घंटेका मेहमान बतलाया था। इस निराशाके वातावरणमय है | कठिन अवसरपर बाबू साहबने शुद्ध हृदयसे भ० स्वामी समन्त भद्रका स्मरण करके रोगीके आरोग्यकी कामना की और अपनी | ओरसे ५००) रु. के दानका संकल्प किया। उसी समयसे रोगी के रोगने पलटा खाया और वह वैद्यों-डाक्टरोंको आश्चर्यमें डालता हुअा शीघ्र ही नीरोग हो गया। अतः बाबू साहबने तभी पांचसौ रुपयेकी उक्त रकम अपने संकल्पानुसार वीरसेवामन्दिर सरसावाको ग्रन्थ-प्रकाशन-जैसे पुण्य-कार्यकी सहायतार्थ दानमें ! भेज दी थी। स्वामी समन्तभद्रके प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्नका यह प्रकाशन उसी दानका एक सुन्दर सुमधुर फल है। आशा है बाबू छोटेलालजी इस सुफलको पाकर और इसके दर्शन, स्पर्शन, सुगन्ध-सेवन एवं रसास्वादन-द्वारा दूसरोंको भी लाभान्वित होता हुआ देखकर प्रसन्न होंगे। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य यह 'स्वयम्भूस्तोत्र' अपने अनुवादके साथ बहुत अर्सा हुआ छपचुका था, देहली प्रेसमें ही रक्खा हुआ था और प्रकाशनके लिये 'प्रस्तावना' की वाट जोह रहा था । ग्रन्थके मर्सका उद्घाटन करते हुए इसकी प्रस्तावनाको मैं जिस रूपमें लिखना चाहता था उसके अनुरूप मुझे यथेष्ट अवसरके साथ चित्तकी स्थिरता और निराकुलता नहीं मिल रही थी--में निरन्तर ही कुछ ऐसी परिस्थितियों एवं अनवकाशोंसे घिरा रहा हूँ जिनके कारण ह्रदय तथा कागज पर कुछ नोटोंके अंकित रहते हुए भी अभीष्ट प्रस्तावनाके लिखने में मेरी प्रवृत्ति नहीं हो सकी। सचमुचमें किसी विशिष्ट साहित्यका सृजन अथवा सरस्वती देवीकी मूर्तिके अङ्गविशेषका निर्माण अपने लिये बहुत कुछ अनुकुलताओंकी आवश्यकता रखता है, वे जब तक नहीं मिलती तब तक इच्छा रहते भी यथेष्ट कार्य नहीं हो पाता। यही वजह है कि इस ग्रन्थके प्रकाशनमें आशातीत विलम्ब हो गया है और उसके कारण कितने ही पाठकोंको बहुत कुछ प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाना पड़ा है, जिसका मुझे भारी खेद है। परन्तु मैं अपनी परिस्थितियोंके कारण मजबूर था । यदि प्रकाशनका अधिकारी कोई दूसरा होता तो यह ग्रन्थ कभीका बिना प्रस्तावनाके ही प्रकाशित हो जाता । परन्तु प्रस्तावना-लेखक और प्रकाशनका अधिकारी दोनों में ही ठहरा, और मैंने इस सानुवाद ग्रन्थको अपनी प्रस्तावनाके विना प्रकाशित करना उचित नहीं समझा, इसीसे प्रकाशनको इतने विलम्बका मुंह देखना पड़ा है। अस्तु; जब विलम्ब असह्य हो उठा तब जैसे तैसे कुछ समय निकालकर और अपनी शक्तिको इधर-उधरसे बटोरकर मैं प्रस्तावनाके लिखने Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्रं में प्रवृत्त हो सका हूँ। प्रस्तावना कैसी लिखी गई और वह ग्रन्थका ठीक परिचय कराने तथा उसकी उपयोगिताको स्पष्ट करने में कहाँ तक समर्थ है, इस तो विज्ञ पाठक ही जान सकेंगे, मैं तो यहाँ पर सिर्फ इतना ही निवेदन कर देना चाहता हूँ कि इस प्रस्तावनाके पीछे शक्तिका जितना व्यय हुआ है और उसके द्वारा जितना वस्तुतत्त्व अथवा प्रमेय पाठकोंके सामने लाया गया है उसे देखते हुए यदि प्रेमी पाठकजन प्रतीक्षाजन्य कष्टको भुलादेंगे और ग्रन्थके महत्वका अनुभव करते हुए यह महसूस करेंगे कि हमने ग्रन्थको परखनेकी कसौटी तथा उसके अन्तःप्रवेशकी कला आदिके रूपमें कोई नई चीज प्राप्त की है तो मैं अपनेको सफलपरिश्रम और कृतकार्य हुआ समझूगा और तब मुझे भी इस ग्रन्थके विलम्बसे प्रकाशित होनेका कोई खेद नहीं रहेगा। आशा है प्रेमी पाठकजन इस अनमोल ग्रन्थरत्नसे स्वयं लाभ उठाते हुए, लोकहितकी दृष्टिसे इसके प्रचार और प्रसारमें अपना पूर्णसहयोग प्रदान करेंगे और इस तरह दूसरोंको भी इससे यथेष्ट लाभ उठानेका पूरा अवसर देनेमें समर्थ होंगे। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'चीरसेवामन्दिर' Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथोंसे शुद्धि-विधान (१) छपनेमें कुछ अशुद्धियां हो गई हैं, जिनका संशोधन निम्न प्रकार है, पाठक पहले ही सुधार लेनेकी कृपा करें :पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध अपने अपनी किरणोंसे देश, (देश, जानकर, जानकर) वर्गश्चकार वर्गनामा श्वकार नामा ज्येष्ठ x जनाः ज्येष्ठं जनाः शतहदोन्मेष शतह्रदोन्मेष द्वयेन नग्रंन्थ्य द्वयन नैर्ग्रन्थ्यप्रणयनके द्वारा प्रणयनको लेकर बिजहर्ष विजहर्ष अङ्गगमं अजङ्गम तद् त्वद् - नित्यात्वादि नित्यत्वादि मातृका मातृका क्षीणकादि क्षणिकादि xxn 660000 6 am xxxee देव-चक्र विकारोंके देव-चक्र विकारोंको Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ". स्वयम्भूस्तोत्र 4% विपय चरस्व विपम चरस्त्वं ८८ नृणा बेचारे ५ ५ ५ ५HM स्त्वयिजलद-जल योग्यसे मएडपेन नृणां बेचारे नपस्वी स्त्वयि जलज-दल योगसे मण्डपेन यं चिन्त्य x स्तुवन्ति A ५ १६ चित्य सभाऽसितया सभाऽऽसितया " १५ चैनं स्तुवन्ति चैनं सद्वितय द्वितय (२) निम्न पद-वाक्य ब्लैक टाइपमें छपने चाहिये थे, जब कि सादा सफेद टाइपमें छप गये हैं। अतः इनके नीचे ब्लैक टाइपकी सूचक रेखा (लाइन ) निम्न प्रकारसे लगा लेनी चाहिये जो एकन्त तत्त्व है २२. १ हे प्रभो ! प्रातःकालीन सूर्य-किरणोंकी छविके समान ४२ ६-७ क्योंकि आपके आत्मासे वैरभाव द्वेषांश-बिल्कुल निकल गया है बाह्य वस्तुकी अपेक्षा न रखता हुआ केवल आभ्यन्तर कारण भी २०-२१ गुण-दोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ग्रन्थ-नाम इस ग्रन्थका सुप्रसिद्ध नाम 'स्वयम्भू स्तोत्र' है। 'स्वयम्भू'शब्दसे यह प्रारम्भ होता है, जिसका तृतीयान्तपद स्वयम्भुवा' आदिमें प्रयुक्त हुआ है । प्रारम्भिक शब्दानुसार स्तोत्रोंका नाम रखनेकी परिपाटी बहुत कुछ रूढ है। देशगम, सिद्धिप्रिय, भक्तामर, कल्याणमन्दिर और एकीभाव जैसे स्तोत्र-नाम इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं-ये सब अपने अपने नामके शब्दोंसे ही प्रारम्भ होते हैं। इस तरह प्रारंभिक शब्दकी दृष्टि से 'स्वयम्भूस्तोत्र' यह नाम जहाँ सुघटित है वहाँ स्तुति-पात्रकी दृष्टि से भी वह सुघटित है; क्योंकि इसमें स्वयम्भुवोंकी-स्वयम्भू-पदको प्राप्त चतुर्विशति जैनतीर्थङ्करोंकी-स्तुति की गई है । दूसरोंके उपदेश-विना ही जो स्वयं मोक्षमार्गको जानकर और उसका अनुष्ठान करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप आत्मविकासको प्राप्त होता है उसे 'स्वयम्भू' कहते हैं । वृषभादिवीरपर्यन्त चौवीस जैनतीर्थङ्कर ऐसे ही अनन्तचतुष्टयादिरूप आत्मविकासको प्राप्त हुए हैं, स्वयम्भू-पदके स्वामी हैं और इसलिये १ "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुद्धय अनुष्ठाय वाऽनन्तचतुष्टयतया भवतीति स्वयम्भूः ।" प्रभाचन्द्राचार्यः Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्वयम्भूस्तोत्र उन स्तुत्योंका यह स्तोत्र 'स्वयम्भूस्तोत्र' इस सार्थक संज्ञाको भी प्राप्त है । इसी दृष्टिसे चतुर्विंशति-जिनकी स्तुतिरूप एक दूसरा स्तोत्र भी जो 'स्वयम्भू' शब्दसे प्रारम्भ न होकर 'येन स्वयं बोधमयेन' जैसे शब्दोंसे प्रारंभ होता है 'स्वयम्भूस्तोत्र' कहलाता है। • ग्रन्थकी अनेक प्रतियोंमें इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'समन्तभद्रस्तोत्र' भी पाया जाता है। अकेले जैन-सिद्धान्त-भवन आगमें ऐसी कई प्रतियाँ हैं. दूसर भी शास्त्रभंडारोंमें ऐसी प्रतियाँ पाई जाती हैं । जिस समय सूचियों परसे 'समन्तभद्रस्तोत्र' यह नाम मेरे सामने आया तो मुझे उसी वक्त यह खयाल उत्पन्न हुआ कि यह गालबन समन्तभद्रकी स्तुतिमें लिखा गया कोई ग्रन्थ है और इसलिये उसे देखनेकी इच्छा तीव्र हो उठी। मँगानेके लिये लिखा पढी करने पर मालूम हुआ कि यह समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र ही है-दूसरा कोई-ग्रन्थ नहीं. और इसलिये 'समन्तभद्रस्तोत्र' को समन्तभद्र-कृत स्तोत्र माननेके लिये बाध्य होना पड़ा। ऐसा माननेमें स्तोत्रका कोई मूल विशेषण नहीं रहता। परन्तु समन्तभद्रकृत स्तोत्र तो और भी हैं उनमेंसे किसीको 'समन्तभद्रस्तोत्र' क्यों नहीं लिखा और इसीको क्यों लिखा ? इसमें लेखकोंकी गलती है या अन्य कुछ, यह बात विचारणीय है। इस सम्बन्धमें यहाँ एक बात प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि स्वामी समन्तभद्रके ग्रन्थ प्रायः दो नामोंको लिये हुए हैं। जैसे देवागमका दूसरा नाम 'आप्तमीमांसा', स्तुतिविद्याका दूसरा नाम 'जिनशतक' और समीचीनधर्मशास्त्रका दूसरा नाम 'रत्नकरण्ड' है। इनमेंसे पहला पहला नाम ग्रन्थके प्रारम्भमें और दूसरा . दूसरा नाम ग्रन्थके अन्तिम भागमें सूचित किया गया है । युक्त्यनुशासन ग्रन्थके भी दो नाम हैं-दूसरा नाम 'वीरजिनस्तोत्र' है, जिसकी सूचना आदि और अन्तके दोनों पद्योंमें की गई है। ऐसी. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना' स्थिति में बहुत संभव है कि स्वयम्भू स्तोत्र के अन्तिम पद्य में जो 'समन्तभद्रं ' पद प्रयुक्त हुआ है उसके द्वारा स्वयम्भू स्तोत्रका दूसरा नाम 'समन्तभद्रस्तोत्र' सूचित किया गया हो । 'समन्तभद्रं 'पद् वहाँ वीरजिनेन्द्र के मन- शासन के विशेपणरूपमें स्थित है और उसका अर्थ है 'सब ओर से भद्ररूप - यथार्थता, निबोधता और परहित - प्रतिपादनतादिगुणोंकी शोभासे सम्पन्न एवं जगत के लिये कल्याणकारी | यह स्तोत्र वीरके शासनका प्रतिनिधित्वकरता है - उसके स्वरूपका निदर्शक है - और सब ओरसे भद्ररूप है अतः इसका 'समन्तभद्रस्तोत्र' यह नाम भी सार्थक जान पड़ता है, जो समन्तात् भद्र' इस पदच्छेदकी दृष्टिको लिये हुए है और उसमें लेषालङ्कारसे ग्रन्थकारका नाम भी उसी तरह समाविष्ट हो जाता है जिस तरह कि वह उक्त 'समन्तभद्र' पदमें संनिहित है । और इसलिये इस द्वितीय नामोल्लेखन में लेखकोंकी कोई कर्तृति या गलती प्रतीत नहीं होती । यह नाम भी प्रायः पहले से ही इस ग्रन्थको दिया हुआ जान पड़ता है । ग्रन्थका सामान्य परिचय और महत्व स्वामी समन्तभद्रकी यह 'स्वयम्भूस्तोत्र' कृति समन्तभद्रभारतीका एक प्रमुख अंग है और बड़ी ही हृदय-हारिणी एवं पूर्वरचना है। कहने के लिये यह एक स्तोत्रग्रन्थ है - स्तोत्रकी पद्धतिको लिये हुए है और इसमें वृषभादि चौबीस जिनदेवोंकी स्तुति की गई है; परन्तु यह कोरा स्तोत्र नहीं. इसमें स्तुतिके बहाने जैनागमका सार एवं तत्त्वज्ञान कूट कूट कर भरा हुआ है । इसीसे टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने इसे 'निःशेष- जिनोक्तधर्म-विषयः' ऐसा विशेषण दिया है और 'स्तवोऽयमसमः' पदों के द्वारा इसे अपना सानी ( जोडा) न रखनेवाला अद्वितीय स्तवन प्रकट किया है। साथ ही इसके पदोंको सूक्तार्थं', 'अमल', 'स्वल्प' Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्क्यम्भूस्तोत्र और 'प्रसन्न' विशेषण देकर यह बतलाया है कि वे सूक्तरूपमें ठीक अर्थका प्रतिपादन करने वाले हैं, निर्दोष है, अल्पाक्षर हैं और प्रसादगुण-विशिष्ट है । सचमुच इस स्तोत्रका एक एक पद प्रायः बीजपद-जैसा सूत्रवाक्य है, और इसलिये इसे 'जनमार्गप्रदीप' ही नहीं किन्तु एक प्रकारसे 'जैनागम' कहना चाहिये । आंगम (श्र ति) रूपसे इसके वाक्योंका उल्लेख मिलता भी है । इतना ही नहीं, स्वयं ग्रन्थकारमहोदयने ' त्वयि वरदाऽऽगमदृष्टिरूपतः गुणकृशमपि किञ्चनोदितं' (१०५) इस वाक्यके द्वारा ग्रन्थके कथनको आगमदृष्टिके अनुरूप बतलाया है । इसके सिवाय, अपने दूसरे ग्रन्थ युक्त्यनुशासनमें 'दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते' इस वाक्यके द्वारा युक्त्यनुशासन (युक्तिवचन) का लक्षण व्यक्त करते हुए यह बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष और आगमसे अक्रोिधरूप-अबाधित-विषयस्वरूप-अर्थका जो अर्थसे प्ररूपण है-अन्यथानुपपत्येकलक्षण १ "सूक्तार्थैरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः” । २ जैसा कि कवि वाग्भटके काव्यानुशासनमें और जटासिंहनन्दी आचार्यके वरांगचरितमें पाये जानेवाले निम्न उल्लेखोंसे प्रकट है (क) आगम आप्तवचनं यथा'प्रजापतिर्यः प्रति(थ)मं जिजीविषूः शशास कृष्यादिसु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विवदे विदांवरः॥" [स्व० २] -काव्यानुशासन (ख) अनेकान्तोऽपि चैकान्तः स्यादित्येवं वदेत्परः। "अनेका-तोऽप्यनेकान्त" [स्व० १०३]इति जैनी श्रुतिः स्मृता ।। -वरांगचरित इस पद्यमें स्वयम्भूस्तोत्रके "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः” इस वाक्यको उद्धत करते हुए उसे 'जैनी अतिः' अर्थात् जैनागमका वाक्य बतलाया है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना .५ साधनरूप अर्थ से साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है— उसे 'युक्त्य - नुशासन' कहते हैं और वही ( हे वीरभगवन् ! ) आपको अभिमत है '। इससे साफ जाना जाता हैं कि स्वयम्भूस्तोत्रमें जो कुछ युक्तिवाद है और उसके द्वारा अर्थका जो प्ररूपण किया गया है वह सब प्रत्यक्षाऽविरोध के साथ साथ आगमके भी अविरोधको लिए हुए है अर्थात् जैनागमके अनुकूल है। जैनागम 'अनुकूल होनेसे आगमकी प्रतिष्ठाको प्राप्त है । और इस तरह यह ग्रन्थ आगमके-आप्तवचनके—तुल्य मान्यताकी कोटि में स्थित है । वस्तुतः समन्तभद्र महान के वचनोंका ऐसा ही महत्व है । इसीसे उनके 'जीवसिद्धि' और 'युक्त्यनुशासन' जैसे कुछ ग्रन्थोंका नामोउल्लेख साथमें करते हुए विक्रमकी हवीं शताब्दीके आचार्य जिनसेनने, अपने हरिवंशपुराणमें, समन्तभद्रके वचनको श्रीवीर - भगवान के वचन ( आगम) के समान प्रकाशमान एवं प्रभावादिकसे युक्त बतलाया है'। और ७ वीं शताब्दीके अकलंकदेव - जैसे महान् विद्वान् आचार्यने, देवागमका भाष्य लिखते समय, यह स्पष्ट घोषित किया है कि समन्तभद्रके वचनोंसे उस स्याद्वादरूपी पुण्योदधितीर्थका प्रभाव कलिकालमें भी भव्यजीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिए सर्वत्र व्याप्त हुआ है, जो सर्व पदार्थों और तत्वोंको अपना विषय किये हुए हैं । इसके सिवाय, १ जीवसिद्धि- विधायीह कृत- युक्त्यनुशासनं । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥ - हरिवंशपुराण २ तीर्थं सर्वपदार्थ तत्व विषय स्याद्वाद-पुण्योदधे-' व्यानामकलंकभावकृतये प्रभावि काले कलौ । येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः सन्ततं कृत्वा वित्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ॥ - अष्टशती Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र समन्तभद्रभारतीके स्तोता कवि नागराजने सारी ही समन्तभद्रवाणीके लिए 'वर्द्धमानदेव-बोध-बुद्ध-चिद्विलासिनी' और 'इन्द्रभूति-भाषित-प्रमेयजाल-गोचरा' जैसे विशेषणोंका प्रयोग करके यह सूचित किया है कि समन्तभद्रकी वाणी श्रीवर्द्धमानदेवके बोधसे प्रवुद्ध हुए चैतन्यके विलासको लिए हुए है और उसका विषय वह सारा पदार्थसमूह है जो इन्द्रभूति ( गौतम ) गणधरके द्वारा प्रभाषित हुआ है-द्वादशांगश्रुतके रूपमें गूथा गया हैं। अस्तु । - इस ग्रन्थमें भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोगकी जो निर्मल गंगा अथवा त्रिवेणी बहाई है उसमें अवगाहन-स्नान किए ही बनता है और उस अवगाहनसे जो शान्ति-सुख मिलता अथवा ज्ञानानन्दका लाभ होता है उसका कुछ पार नहीं-वह प्रायः अनिर्वचनीय है । इन तीनों योगोंका अलग अलग विशेष परिचय आगे कराया जायगा। "इस स्तोत्रमें २४ स्तवन हैं और वे भरतक्षेत्र-सम्बन्धी वर्तमान अवसर्पिणीकालमें अवतीर्ण हुए २४ जैन तीर्थङ्करोंकी अलग अलग स्तुतिको लिये हुए हैं । स्तुति-पद्योंकी संख्या सब स्तवनोंमें समान नहीं है । १८वें स्तवनकी पद्य-संख्या २०, २२वें की १० और २४वेंकी आठ है, जब कि शेष २१ स्तवनोंमेंसे प्रत्येक की पद्यसंख्या पांच पांचके रूपमें समान है । और इस तरह ग्रन्थके पद्योंकी कुल संख्या १४३ है । ये सब पद्य अथवा स्तवन एक ही छन्दमें नहीं किन्तु भिन्न भिन्न रूपसे तेरह प्रकारके छन्दोंमें निर्मित हुए हैं, जिनके नाम हैं-वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, रथोद्धता, वसन्ततिलका, पथ्यावक्त्र अनुष्टुप, सुभद्रा- - मालती-मिश्र-यमक, वानवासिका, वैतालीय, शिखरणी, उद्गता, आर्यागीति (स्कन्धक)। कहीं कहीं एक स्तवनमें एकसे अधिक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना छन्दोंका भी प्रयोग किया गया है। किस स्तवनका कौनसा पद्य किस छन्दमें रचा गया है और उस छन्दका क्या लक्षण है, इसकी सूचना 'स्तवन-छन्द सूची' नामके एक परिशिष्टमें कर दी गई है, जिससे पाठकोंको इस ग्रन्थके छन्द-विषयका ठीक परिज्ञान हो सके। ___ स्तवनोंमें स्तुतिगोचर-तीर्थङ्करोंके जो नाम दिये हैं ले क्रमशः इस प्रकार है : १ वृषभ, २ अजित, ३ शम्भव, ४ अभिनन्दन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपावं, ८ चन्द्रप्रभ, ह सुविधि, १० शीतल, ११ श्रेयांस, १२ वासुपूज्य, १३ विमल, १४ अनन्तजित् , १५ धर्म, १६ शान्ति; १७ कुन्थु, १८ अर, १६ मल्लि, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि, २२ अरिष्टनेमि, २३ पार्श्व, २४ वीर । [ इनमें से वृषभको इक्ष्वाकु-कुलका आदिपुरुष, अरिष्टनेमिको हरिवंशकेतु और पार्श्वको उग्रकुलाम्बरचन्द्र बतलाया है। शेष तीर्थङ्करोंके कुलका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। उक्त सब नाम अन्वर्थ-संज्ञक हैं-नामानुकूल अर्थविशेषको लिये हुए हैं। इनमेंसे जिनकी अन्वर्थसंज्ञकता अथवा सार्थकताको स्तोत्रमें किसी-न-किसी तरह प्रकट किया गया है वे क्रमशः नं० २, ४, ५, ६, ८, १०, ११, १४, १५, १६, १७, २० पर स्थित हैं। शेषमेंसे कितने ही नामोंकी अन्वर्थताको अनुवादमें व्यक्त किया गया है। स्तुत तीर्थङ्करोंका परिचय ___ इन तीर्थङ्करोंके स्तवनोंमें गुणकीर्तनादिके साथ कुछ ऐसी बातों अथवा घटनाओंका भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास तथा पुराणसे सम्बन्ध रखती हैं और स्वामी समन्तभद्रकी लेखनीसे उल्लेखित होनेके कारण जिनका अपना विशेष महत्व है और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nirmannmammmmmmmmmm स्वयम्भूस्तोत्र wwamwww.rrrrrrrnwww.nxnx इसलिए उनकी प्रधानताको लिये हुए यहां इन स्तवनोंमेंसे स्तुत तीर्थङ्करोंका परिचय क्रमसे दिया जाता है :___ (१) वृषभजिन नाभिनन्दन (नाभिरायके पुत्र) थे, इक्ष्वाकुकुलके आदिपुरुष थे और प्रथम प्रजापति थे। उन्हींने सबसे पहले प्रजाजनोंको कृष्यादि-कर्मों में सुशिक्षित किया था (उनसे पहले यहां भोगभूमिको प्रवृत्ति होनेसे लोग खेती-व्यापारादि करना अथवा असि, मसि, कृषि, विद्यावाणिज्य और शिल्प इन जीवनोपायरूप षट् कर्मोंको नहीं जानते थे), मुमुक्षु होकर और ममता छोड़कर वधू तथा वसुधाका त्याग करते हुए दीक्षा धारण की थी, अपने दोषोंके मूलकारण (घातिकर्मचतुष्क) को अपने ही समाधितेज-द्वारा भस्म किया था (फलतः विश्वचक्षुता एवं सर्वज्ञताको प्राप्त किया था) और जगतको तत्त्वका उपदेश दिया था । वे सत्पुरुषोंसे पूजित होकर अन्तको ब्रह्मपदम्प अमृतके स्वामी बने थे और निरंजन पदको प्राप्त हुए थे। __-(२) अजितजिन देवलोकसे अवतरित हुए थे, अवतारके समयसे उनका बंधुवर्ग पृथ्वीपर अजेयशक्ति बना था और उस बन्धुवर्गने उनका नाम 'अजित' रक्खा था। आज भी (लाखों वर्ष बीत जानेपर) उनका नाम स्वसिद्धिकी कामना रखनेवालोंके द्वारा मंगलके लिये लिया जाता है। वे महामुनि बनकर तथा घनोपदेहसे (घातिया कोंके आवरणादिरूप दृढ उपलेपसे) मुक्त होकर भव्यजीवोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलंकों (अज्ञानादिदोषों तथा उनके कारणों) की शांतिके लिये अपनी समर्थ-वचनादि-शक्तिकी सम्पत्तिके साथ उसी प्रकार उदयको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि मेघोंके आवरणसे मुक्त हुआ सूर्य कमलोंके अभ्यु- . दयके लिये उनके अन्तः अन्धकारको दूर कर उन्हें विकसित करनेके लिये अपनी प्रकाशमय समर्थशक्ति-सम्पनिके साथ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रकट होता है । और उन्होंने उस महान् एवं ज्येष्ट धर्मतीर्थका प्रणयन किया था जिसे प्राप्त होकर लौकिक जन दुःखपर विजय प्राप्त करते हैं। _ (३) शम्भव-जिन इस लोकमें तृष्णा रोगोंसे संतप्त जनसमूहके लिये एक आकस्मिक वैद्यके रूप में अवतीर्ण हुए थे और उन्होंने दोष-दूषित एवं प्रपीड़ित जगतको अपने उपदेशों-द्वारा निरंजना शांतिकी प्राप्ति कराई थी। आपके उपदेशका कुछ नमूना दो एक पद्योंमें दिया है और फिर लिखा है कि 'उन पुण्यकीर्तिकी स्तुति करनेमें शक्र (इन्द्र) भी असमर्थ रहा है। ___ (४) अभिनन्दन-जिनने (लौकिक वधूका त्याग कर) उस दयावधूको अपने आनयमें लिया था जिसकी सखी क्षमा थी और समाधिकी सिद्धिके लिए बाह्याऽभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग कर निर्ग्रन्थताको धारण किया था। साथ ही, मिथ्याभिनिवेशके वशसे नष्ट होते हुए जमातको हितका उपदेश देकर तत्त्वका ग्रहण कराया था। हितका जो उपदेश दिया गया था उसका कुछ नमूना ३-४ पद्योंमें व्यक्त किया गया है। (५) सुमति-जिनने जिस सुयुक्ति-नीत तत्त्वका प्रणयन किया है उसीका सुन्दर सार इस स्तवनमें दिया गया है। (६) पद्मप्रभ--जिन पद्मपत्रके समान रक्तवर्णाभ शरीरके धारक थे। उनके शरीरकी किरणोंके प्रसारने नरों और अमरोंसे पूर्ण सभाको व्याप्त किया था-सारी समवसरणसभामें उनके शरीरकी आभा फैली हुई थी । प्रजाजनोंकी विभूतिके लिये-उनमें हेयोपादेयके विवेकको जागृत करनेके लिये उन्होंने भूतलपर विहार किया था और विहारके समय (इन्द्रादिरचित) सहस्रदल"कमलोंके मध्यभागपर चलते हुए अपने चरण-कमलों-द्वारा नभस्तलको पल्लवमय बना दिया था। उनकी स्तुतिमें इन्द्र असमर्थ रहा है। . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. स्वयम्भूस्तोत्र (७) सुपार्श्व-जिन सर्वतत्त्वके प्रमाता (ज्ञाता) और माता की तरह लोकहित के अनुशास्ताथे। उन्होंने हितकी जो बातें कही हैं उन्हींका सार इस स्तवनमें दिया गया है। (८) चन्द्रप्रभ-जिन चन्द्रकिरण-सम-गौरवर्ण थे, द्वितीय चन्द्रमाकी समान दीप्तिमान थे । उनके शरीरके दिव्य प्रभामण्डलसें बाह्य अन्धकार और ध्यान-प्रदीपके अतिशयसे मानस अन्धकार दूर हुआ था। उनके प्रवचनरूप सिंहनादोंको सुनकर अपने पक्षकी सुस्थितिका घमण्ड रखने वाले प्रवादिजन निर्मद हो जाते थे । और वे लोकमें परमेष्ठिके पदको प्राप्त हुए हैं। (E) सुविधि-जिन जगदीश्वरों (इन्द्रचक्रवादिकों ) के द्वारा अभिवन्द्य थे। उन्होंने जिस अनेकान्तशासनका प्रणयन किया है उसका सार पांचों पद्योंमें दिया है। (१०) शीतल-जिनने अपने सुखाभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूर्छित हुए मनको कैसे मूर्खा रहित किया और कैसे वे दिन-रात आत्मविशुद्धिके मार्गमें जागृत रहते थे, इन बातोंको बतलानेके बाद उनके तपस्याके उद्देश्य और व्यक्तित्वकी दूसरे तपस्त्रियों आदिसे तुलना करते हुए लिखा है कि 'इसीसे वे बुधजनश्रेष्ठ आपकी उपासना करते हैं जो अपने आत्मकल्याणकी भावनामें तत्पर हैं। (११) श्रेयो जिनने प्रजाजनोंको श्रेयोमार्गमें अनुशासित किया था। उनके अनेकान्त-शासनकी कुछ बातोंका उल्लेख करनेके बाद लिखाहै कि वे केवल्य-विभूतिके सम्राट् हुए हैं। (१२) वासुपूज्य-जिन अभ्युदय क्रियाओंके समय पूजाको प्राप्त हुए थे, त्रिदशेन्द्र-पूज्य थे और किसीकी पूजा या निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं रखते थे । उनके शासनकी कुछ बातोंका Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११ उल्लेख करके उनके बुधजन-अभिवन्द्य होनेकी सार्थकताका द्योतन किया गया है। . (१३) विमल-जिनका शासन किस प्रकारसे नयोंकी विशेषताको लिये हुए था उसका कुछ दिग्दर्शन कराते हुए लिखाहै कि 'इसीसे वे अपना हित चाहने वालोंके द्वारा वन्दित थे' । - (१४) अनन्तजित्-जिनने अपने अनन्तदोषाशय-विग्रहरूप 'मोह' को, कपाय नामके पीडनशील-शत्रुओंको, विशोषक कामदेवके दुरभिमानरूप आतंकको कैसे जीता और अपनी तृष्णानदीको कैसे सुखाया, इत्यादि बातोंका इस स्तवनमें उल्लेख है । (१५) धर्म-जिन अनवद्य-धर्मतीर्थका प्रवर्तन करते हुए सत्पुरुषोंके द्वारा 'धर्म' इस सार्थक संज्ञाको लिये हुए माने गए हैं। उन्होंने तपरूप अग्नियोंसे अपने कर्मवनको दहन करके शाश्वत सुख प्राप्त किया है और इसलिये वे 'शङ्कर' हैं। वे देवों तथा मनुष्योंके उत्तम समूहोंसे परिवेष्ठित तथा गणधरादि बुधजनोंसे परिचारित ( सेवित ) हुए ( समवसरण-सभामें ) उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि आकाशमें तारकाओंसे परिवृत निर्मल चन्द्रमा। प्रातिहार्यों और विभवोंसे विभूषित होते हुए भी वे उन्हींसे नहीं, किन्तु देहसे भी विरक्त रहे है। उन्होंने मनुष्यों तथा देवोंको मोक्षमार्ग सिखलाया, परन्तु शासनफलकी एषणासे वे कभी आतुर नहीं हुए। उनके मन-वचनकायकी प्रवृत्तियां इच्छाके विना होते हुए भी असमीक्ष्य नहीं होती थीं। वे मानुपी प्रकृतिका उल्लंघन कर गये थे. देवताओंके भी देवता थे और इसीसे 'परमदेवता के पदको प्राप्त थे। (१६) शान्ति-जिन शत्रुओंसे मजाकी रक्षा करके अप्रतिम प्रतापके धारी राजा हुए थे और भयंकर चक्रसे सर्वनरेन्द्र-समूहको जीतकर चक्रवर्ती राजा बने थे। उन्होंने समाधिचक्रसे दुर्जय Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. NNNNY स्वयम्भूस्तोत्र मोहचक्रको-मोहनीय कर्मके मूलोत्तर-प्रकृति-प्रपंचको-जीता था और उसे जीतकर वे सहान् उदयको प्राप्त हुए थे, आहन्त्यलक्ष्मीसे युक्त होकर देवों तथा असुरोंकी महती ( समवरण) सभामें सुशोभित हुए थे। उनके चक्रवर्ती राजा होनेपर राजचक्र, मुनि होनेपर दया-दीधिति-धर्मचक्र, पूज्य ( तीर्थ-प्रवर्तक ) होने पर देवचक्र प्राञ्जलि हुआ-हाथ जोड़े खड़ा रहा अथवा स्वाधीन बना-और ध्यानोन्मुख होनेपर कृतान्तचक्र-कर्मीका अवशिष्टसमूह-नाशको प्राप्त हुआ था। (१७) कुन्थु-जिन कुन्थ्वादि सकल प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हुए थे। उन्होंने पहले चक्रवर्ती राजा होकर पश्चात् धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, जिसका लक्ष्य लौकिकजनोंके ज्वर-जरा-मरणकी उपशान्ति और उन्हें आत्मविभूतिकी प्राप्ति कराना था। वे विषय-सौख्यसे परराङमुख कैसे हुए, परमदुश्वर बाह्यतपका आचरण उन्होंने किस लिये किया, कौनसे ध्यानोंको अपनाया और कौनसी सातिशय अग्निमें अपने (घातिया) काँकी चार प्रकृतियोंको भस्म करके वे शक्तिसम्पन्न हुए और सकल-वेद-विधिके प्रणेता बने, इन सब बातोंको इस स्तवनमें बतलाया गया है। साथ ही, यह भी बतलाया गया है कि लोकके जो पितामहादिक प्रसिद्ध हैं वे आपकी विद्या और विभूतिकी एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं हुए हैं, और इसलिए आत्महितकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ सुधीजन (गणधरादिक) उन अद्वितीय स्तुत्यकी स्तुति करते हैं। (१८) अर-जिन चक्रवर्ती थे, मुमुक्षु होनेपर चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य उनके लिए जीर्ण तृणके समान हो गया और इसलिये उन्होंने निःसार समझकर उसे त्याग दिया। उनके रूप-सौन्दर्यको देखकर द्विनेत्र इन्द्र तृप्त न हो सका और इसलिए ( विक्रिया Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३ ऋद्धिसे ) सहस्रनेत्र बनकर देखने लगा और बहुत ही विस्मयको प्राप्त हुआ। उन्होंने कषाय-भटोंकी सेनासे सम्पन्न पापी मोहशत्रुको दृष्टि, संविद् और उपेक्षा रूप अस्त्रोंसे पराजित किया था और अपनी तृष्णानदीको विद्या नौकासे पार किया था। उनके सामने कामदेव लज्जित तथा हतप्रभ हुआ था और जगतको रुलानेवाले अन्तकको अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा था और इस तरह वह भी पराजित हुआ था। उनका रूप आभूषणों, वेषों तथा आयुधोंका त्यागी और विद्या, कषायेन्द्रियजय तथा दया की उत्कृष्टताको लिये हुए था। उनके शरीरके वृहत् प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार और ध्यानतेजसे आध्यात्मिक अन्धकार दूर हुआ था । समवरणसभामें व्याप्त होनेवाला उनका वचनामृत सर्वभाषाओंमें परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए था तथा प्राणियोंको तृप्ति प्रदान करनेवाला था। उनकी दृष्टि अनेकान्तात्मक थी। उस सती दृष्टिके महत्वादिका ख्यापन तथा उनके स्याद्वादशासनादिका कुछ विशेष कथन सात कारिकाओंमें किया गया है। ___ (१६) मल्लि-जिनको जब सकल पदार्थोंका साक्षात् प्रत्यवबोध ( केवलज्ञान ) हुआ था तब देवों तथा मर्यंजनोंके साथ सारे ही जगत्ने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया था। उनकी शरीराकृति सुवर्ण-निर्मित-जैसी थी और स्फुरित आभासे परिमण्डल किये हुए थी। वाणी भी यथार्थ वस्तुतत्त्वका कथन करनेवाली और साधुजनोंको रमानेवाली थी। जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीर्थजन (एकान्तवादमतानुयायी) पृथ्वीपर कहीं विवाद नहीं करते थे और पृथ्वी भी ( उनके विहारके समय) पद-पदपर विकसित कमलोंसे मृदु-हासको लिये हुए रमणीय हुई थी। उन्हें सब ओर से (प्रचुरपरिमाणमें ) शिष्य साधुओं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. स्वयम्भूस्तोत्र का विभव ( ऐश्वर्य ) प्राप्त हुआ था और उनका तीर्थ ( शासन) भी संसार-समुद्र से भयभीत प्राणियोंको पार उतारनेके लिए प्रधान मार्ग बना था। (२०) मुनिसुव्रत-जिन मुनियोंकी परिषद् -गणधरादिक ज्ञानियोंकी महती सभा (समवरण) में-उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि नक्षत्रोंके समूहसे परिवेष्टित चन्द्रमा शोभाको प्राप्त होता है। उनका शरीर तपसे उत्पन्न हुई तरुण मोरके कण्ठवर्ण-जैसी आभासे उसी प्रकार शोभित था जिस प्रकार कि चन्द्रमाके परिमण्डलकी दीप्ति शोभती है। साथ ही, वह चन्द्रमाकी दीप्तिके समान निर्मल शुक्ल रुधिरसे युक्त, अति सुगंधित, रजरहित, शिवस्वरूप (स्व-पर कल्याणमय ) तथा अति आश्चर्यको लिये हुए था। उनका यह वचन कि 'चर और अचर जगत् प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणको लिये हुए है'-प्रत्येक समयमें ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश )स्वरूप है-सर्वज्ञताका द्योतक है। वे अनुपम योगबलसे पापमलरूप आठों कलंकोंको (ज्ञानावरणादि कर्मोको ) भस्मीभूत करके संसारमें न पाये जानेवाले सौख्यको-परम अतीन्द्रिय मोक्ष-सौख्यको-प्राप्त हुए थे। (२१) नमि-जिनमें विभवकिरणोंके साथ केवलज्ञान-ज्योतिके प्रकाशित होनेपर अन्यमती-एकन्तवादी-जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए थे जिस प्रकार कि निर्मल सूर्यके सामने खद्योत (जुगनू) होते हैं । उनके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तात्मक तत्त्व का गंभीर रूप एक ही कारिका विधेयं वार्य इत्यादिमें . इतने अच्छे ढंगसे सूत्ररूपमें दिया है कि उसपर हजारोंलाखों श्लोंकों की व्याख्या लिखी जा सकती है। उन्होंने परम करूणाभावसे सम्पन्न होकर अहिंसा-परमब्रह्मकी सिद्धि के लिये Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रस्तावना १५ बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका परित्याग कर उस आश्रमविधिको ग्रहण किया था जिसमें अणुमात्र भी आरम्भ नहीं है, क्योंकि जहां अणुमात्र भी आरम्भ होता है वहां अहिंसाका वास नहीं अथवा पूर्णतः वास नहीं बनता। जो साधु यथाजातलिङ्ग के विरोधी विकृत वेषों और उपाधियोंमें रत है. उन्होंने वस्तुतः बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा है-और इसलिये ऐसोंसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकती। उनका आभूषण वेष, तथा व्यवधान ( वस्त्र-आवरणादि) से रहित और इन्द्रियोंकी शान्तताको लिये हुए ( नग्न दिगम्बर ) शरीर काम, क्रोध और मोह पर विजय का सूचक था। (२२) अरिष्टनेमि-जिनने , परमयोगाग्निसे कल्मपेन्धनको-- ज्ञाना-वरणादिरूप कर्मकाष्ठको-भस्म किया था और सकल पदार्थो को जाना था । वे हरिवंशकेतु थे, विकसित कमलदलके समान दीर्घनेत्रके धारक थे, और निर्दोष विनय तथा दमतीर्थके नायक हुए हैं । उनके चरणयुगल त्रिदशेन्द्र-वन्दित थे। उनके चरणयगलको दोनों लोकनायकों गरुड़ध्वज ( नारायण ) और हलधर (बलभद्र) ने, जो स्वजनभक्ति से मुदितहृदय थे और धर्म तथा विनयके रसिक थे, बन्धुजनों के साथ बार-बार प्रणाम किया है । गरुडध्वजका दीप्तिमण्डल द्यतिमद्रथांग (सुदर्शनचक्र) रूप रविबिम्बकी किरणोंसे जटिल था और शरीर नीले कमलदलोंकी राशिके अथवा सजलमेघके समान श्यामवर्ण था। इन्द्र-द्वारा लिखे गये नेमिजिनके लक्षणों (चिन्हों) को वह लोकप्रसिद्ध ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार पर्वत ) धारण करता है जो पृथ्वीका ककुद है, विद्याधरोंकी स्त्रियोंसे सेवित-शिखरोंसे अलंकृत है, मेघपटलोंसे व्याप्त तटोंको लिये हुए है, तीर्थस्थानहै और आज भी भक्तिसे उल्लसितचित्त-ऋषियोंके द्वारा सब ओरसे निरन्तर Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 स्वयम्भूस्तोत्र अतिसेवितहै। उन्होंने इस अखिल विश्वको सदा करतलस्थित स्फटिकमणिके समान युगपत् जाना था और उनके इस जाननेमें बाह्यकरण-चक्षुरादिक और अन्तःकरण-मन ये अलग-अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते थे और न किसी प्रकारका उचकार ही सम्पन्न करते थे। (२३) पार्श्व-जिन महामना थे, वे वैरीके वशवर्ती--कमठशत्रुके इशारे पर नाचने वाले--उन भयङ्कर मेघोंसे उपद्रवित होनेपर भी अपने योगसे (शुक्लध्यानसे ) चलायमान नहीं हुए थे, जो नीले-श्यामवर्णके धारक, इन्द्रधनुष तथा विद्युद्-गुणोंसे युक्त और भयङ्कर वज्र, वायु तथा वर्षाको चारों तरफ बखेरनेवाले थे। इस उपसर्गके समय धरण नागने उन्हें अपने बृहत्फणाओंके मण्डलरूप मण्डपसे वेष्ठित किया था और वे अपने योगरूप खड्गकी तीक्ष्ण धारसे दुर्जय मोहशत्रको जीतकर उस आर्हन्त्यपदको प्राप्त हुए थे जो अचिन्त्य है, अद्भ त है और त्रिलोककी सातिशय-पूजाका स्थान है । उन्हें विधूतकल्मष (घातिकर्मचतुष्टयरूप पापमलसेरहित ), शमोपदेशक (मोक्षमार्गके उपदेष्टा) और ईश्वर (सकल-लोकप्रभु ) के रूपमें देख कर वे वनवासी तपस्वी भी शरणमें प्राप्त हुए थे जो अपने श्रमको-पंचाग्नि साधनादिरूप प्रयासको-विफल समझ गए थे और भगवान पार्श्व-जैसे विधूतकल्मष ईश्वर होनेकी इच्छा रखते थे। पाचप्रभु समग्रबुद्धि थे, सच्ची विद्याओं तथा तपस्याओंके प्रणेता थे, उग्रकुलरूप आकाशके चन्द्रमा थे और उन्होंने मिथ्यामार्गों की दृष्टियोंसे उत्पन्न होने वाले विभ्रमोंको विनष्ट किया था। __(२४) वीर-जिन अपनी गुणसमुत्थ-निर्मलकीर्ति अथवा दिव्यवाणीसे पृथ्वी ( समवसरणभूमि ) पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि चन्द्रमा आकाशमें नक्षत्र-सभास्थित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H प्रस्तावना उस प्रभासे शोभताहै जो सब ओरसे धवल है। उनका शासनविभव कलिकाल में भी जयको प्राप्त है और उसकी वे निर्दोष साधु (गणधरादिकदेव ) भी स्तुति करते हैं जिन्होंने अपने ज्ञानादि-तेजसे आसन-विभुओंको-लोकके प्रसिद्धनायकोंकोनिस्तेज किया है। उनका स्याहादरूप प्रवचन दृष्ट और इष्टके साथ विरोध न रखनेके कारण निर्दोष है, जब कि दूसरोंकाअस्याद्वादियोंका-प्रवचन उभय विरोधको लिये हुए होनेसे वैसा नहीं है । वे सुरा-सुरोंसे पूजित होते हुए भी ग्रन्थिक सत्वोंकेमिथ्यात्वादि परिग्रहसे युक्त प्राणियोंके-(अभक्त) हृदयसे प्राप्त होनेवाले प्रणामोंसे पूजित नहीं है। और अनावरणज्योति होकर उस धामको-मुक्तिस्थान अथवा सिद्धशिलाको-प्राप्त हुए हैं जो अनावरण-ज्योतियोंसे प्रकाशमान है। वे उस गुणभूषणको-सर्वज्ञ-वीतरागतादि गुणरूप आभूषण-समूहकोधारण किए हुए थे जो सभ्यजनों अथवा समवसरण-सभास्थित भव्यजनोंको रुचिकर था और श्रीसे-अष्टप्रातिहार्यादिरूपविभूतिसे-ऐसे रूपमें पुष्ट था जिससे उसकी शोभा और भी बढ़ गई थी । साथही, उनके शरीरका सौन्दर्य और आकर्षण पूर्णचन्द्रमासे-भी बढ़ा चढ़ा था। उन्होंने निष्कपट यम और दमका-महाव्रतादिके अनुष्ठान और कषायों तथा इन्द्रियोंके जयका-उपदेश दिया है । उनका उदार विहार उस महाशक्तिसम्पन्न गजराजके समान हुआ है जो झरते हुए मदका दान देते हुए और मार्गमें बाधक गिरिभित्तियोंका विदारण करते हुए ( फलतः जो बाधक नहीं उन्हें स्थिर रखते हुए ) स्वाधीन चला - जाता है । वीरजिनेन्द्रने अपने विहारके समय सबको अहिंसाका अभयका-दान दिया है, शमवादोंकी-रागादिक दोषोंकी उपशांतिके प्रतिपादक आगमोंकी-रक्षा की है और वैषम्यस्थापक, हिंसाविधायक एवं सर्वथा एकान्त-प्रतिपादक उन सभी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ...mor..... स्वयम्भूस्तोत्र वादों-मतोंका खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे। उनका शासन नयोंके भङ्ग अथवा भक्तिरूप अलङ्कारोंसे अलंकृत है-अनेकान्तवादका आश्रय लेकर नयोंके सापेक्ष व्यवहारकी सुन्दर शिक्षा देता है और इस तरह यथार्थ वस्तुतत्त्वके निरूपण और परहित-प्रतिपादनादिमें समर्थ होता हुआ बहुगुण-सम्पत्तिसे युक्त है. पूर्ण है और समन्तभद्र है-सब ओरसे भद्ररूप, निर्बाधतादि-विशिष्ट शोभासे सम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी है; जब कि दूसरोंका-एकान्तवादियोंका-शासन मधुर वचनोंके विन्याससे मनोज्ञ होता हुआ भी बहुगुणोंकी सम्पत्तिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थवादिता, और परहित-प्रतिपादनादिरूप बहुतसे गुण हैं उनकी शोभासे रहित है। ___ स्तवनोंके इस परिचय-समुच्चय-परसे यह साफ जाना जाता हैं कि सभी जैन तीर्थङ्कर स्वावलम्बी हुए हैं । उन्होंने अपने आत्मदोषों और उनके कारणोंको स्वयं समझा है और समझ कर अपने ही पुरुषार्थसे-अपने ही ज्ञानबल और योग बलसेउन्हें दूर एवं निमूल कियाहै। अपने आत्मदोषोंको स्वयं दूर तथा निमूल करके और इस तरह अपना आत्म-विकास स्वयं सिद्ध करके वे मोह, माया, ममता और तृष्णादिसे रहित 'स्वयम्भू' बने हैं--पूर्ण दर्शन-ज्ञान एवं सुख-शक्तिको लिये हुए 'अर्हत्पदको' प्राप्त हुए हैं। और इस पदको प्राप्त करनेके वाद ही वे दूसरोंको उपदेश देने में प्रवृत्त हुए हैं। उपदेशके लिये परमकरुणा-भावसे प्रेरित होकर उन्होंने जगह-जगह विहार कियाहै और उस विहारके अवसर पर उनके उपदेशके लिए बड़ी बड़ी सभाएँ जुडी हैं, जिन्हें समवसरण' कहा जाता है । उन सबका उपदेश, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना . १६. शासन अथवा प्रवचन अनेकान्त और अहिंसाके आधार पर प्रतिष्ठित था और इसलिये यथार्थ वस्तुतत्त्वके अनुकूल और सबके लिये हितरूप होता था। उन उपदेशोस्ने विश्वमें तत्त्वज्ञानकी जो धारा प्रवाहित हुई है उसके ठीक सम्पर्क में आनेवाले असंख्य प्राणियोंके अज्ञान तथा पापमल धुल गए हैं और उनकी भूल-भ्रांतियां मिट कर तथा असत्यवत्तियां दूर हो कर उन्हें यथेष्ट सुख-शातिकी प्राप्ति हुई है। उन प्रवचनोंसे ही उसउस समय सत्तीर्थकी स्थापना हुई है और वे संसारसमुद्र अथवा दु:खसागरसे पार उतारनेके साधन बने हैं। उन्हींके कारण उनके उपदेष्टा तीर्थङ्कर कहलाते हैं और वे लोकमें सातिशय पूजाको प्राप्त हुए हैं तथा आज भी उन गुणज्ञों और अपना हित चाहनेवालोंके द्वारा पूजे जाते हैं जिन्हें उनका यथेष्ट परिचय प्राप्त है। अर्हद्विशेषण-पद स्वामी समन्तभद्रने, अपने इस स्तोत्रमें. तीर्थङ्कर अर्हन्तोंके लिये जिन विशेषणपदोका प्रयोग किया है उनसे अहँत्स्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वह नय-विवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते हुए उनका पाठ करने पर सहजमें ही अवगत हो जाता है। अतः यहां पर उन विशेषणपदोंका स्तवनक्रमसे एकत्र संग्रह किया जाता है। जिनपदोंका मूलप्रयोग सम्बोधन तथा द्वितीयादि विभक्तियों और बहुवचनादिके रूपमें हुआ है उन्हें अर्थावबोधकी सुविधा एवं एकरूपताकी दृष्टिसे यहां प्रथमाके एक वचनमें ही रक्खा गया है, साथमें स्थान-सूचक्र पद्याङ्क भी ‘पद्य सम्बन्धी विशेषणोंके अन्तमें दे दिये गये हैं। और जो एक विशेषण अनेक स्तवनोंमें प्रयुक्त हुआ है उसे एक ही जगहप्रथम प्रयोगकै स्थानपर-ग्रहण किया गया है, अन्यत्र प्रयोगकी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्नोत्र -ra.au सूचना उसके आगे ब्रेकटके भीतर पद्याङ्क देकर कर दी गई . . . .. .. .. . .. .. .. .. - ~ - - - - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ - ~ . . . ___ (१) स्वयम्भूः, भूतहितः, समञ्जस-ज्ञान-विभूति-चक्षुः, तमो विधुन्वन् १; प्रबुद्धतत्त्वः. अद्भुतोदयः, विदांवरः २; मुमुक्षुः (८८), आत्मवान् (८२), प्रभुः (२०, २८, ६६), सहिष्णुः , अच्युतः ३; 'ब्रह्मपदामृतेश्वरः ४, विश्वचक्षुः, वृषभः, सतामचिंतः, समग्र विद्या• त्मवपुः, निरञ्जनः, जिनः (३६, ४५. ५०. ५१. ५७, ८०, ८१, ११२, ११४, १३०, १३७, १४१ ), अजित-तुल्लक-वादिशासनः ५। (२) अजितशासनः, प्रणेता ७; महामुनिः (७०), मुक्तघनोपदेहः ८; पृथुज्येष्ठ-धर्मतीर्थ-प्रणेता ६; ब्रह्मनिष्ठः, सम-मित्र-शत्रुः, विद्या-विनिर्वान्त-कषाय-दोषः. लब्धात्म-लक्ष्मीः, अजितः, अजितात्मा, भगवान् ( १८, ३१. ४०.६६, ८०, ११७, १२१) १० । (३) शम्भवः, आकस्मिकवैद्यः ११; स्याद्वादी, नाथः (२५, ५७, ७५, ६६, १२६), शास्ता १४; पुण्यकीर्तिः (८७), आर्यः (४८, ६८) १५। (४) अभिनन्दनः, समाधितन्त्रः १६; सतां गतिः २० । (५) सुमतिः, मुनिः (४६, ६१, ७४, ७६) २१ । (६) पद्मप्रभः, पद्मालयालिङ्गित-चारुमूर्तिः, भव्यपयोरहाणां पद्मबन्धुः २६; विमुक्तः २७; पातित-मार-दर्पः २६; गुणाम्बुधिः, अजः (५०, ८५), ऋषिः (६०, १२१) ३०।' (७) सुपार्श्वः ३१; सर्व-तत्त्व-प्रमाता, हितानुशास्ता, गुणावलोकस्य जनस्य नेता ३५। (८) चन्द्रप्रभः, चन्द्रमरीचि-गौरः, महतामभिवन्धः, ऋषीन्द्रः, जितस्वान्त-कषाय-बन्धः ३६; सर्वलोक-परमेष्ठी, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अद्भुत-कर्म-तेजाः, अनन्तधामाऽक्षर-विश्वचक्षुः, समन्त-दुःखक्षय-शासनः ३६; विपन्न-दोषाऽभ्र-कलङ्क-लेपः, व्याकोश-वाङन्याय-मयूख-मालः, पवित्रः ४० । (६) सुविधिः ४१, जगदीश्वराणामभिवन्द्यः, साधु: ४५ । (१०) अनघः (१११) ४६; नक्तंदिवमप्रमत्तवान् ४८; समधीः ४६; उत्तमज्योतिः, निवृतः, शीतल: ५। . (११) श्रेयान् , अजेय-वाक्यः ५१; कैवल्य-विभूति-सम्राट , अर्हन् , स्तवाहः ५५। (१२) शिवास्वभ्युदय-क्रियासु पूज्य:, त्रिदशेन्द्र-पूज्यः, मुनीन्द्रः (८५) ५६; वीतरागः, विवान्त-वैरः ५७; पूज्यः ५८; बुधानामभिवन्द्यः ६०। (१३) विमलः ६१; आर्य-प्रणत: ६५ । (१४) तत्त्वरुचौ प्रसीदन् , अनन्तजित् ६६; अशेषवित् ६७; उदासीनतमः ६६ । (१५) अनघ-धर्मतीर्थ-प्रवर्तयिता,धर्मः, शङ्करः ७१; देव-मानवनिकाय-सत्तमैः परिवृतः,बुधैवत:७ २; प्रातिहार्य-विभवैः परिष्कृतः, देहतोऽपि विरतः, शासन-फलेषणाऽनातुरः ७३; धीरः (६०, ६१, ६४) ७४; मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् , देवतास्वरूपि देवता, परमदेवता, जिनवृषः ७५ । ___(१६) दयामूर्ति: ७६; महोदयः ७७; आत्मतन्त्र: ५८; स्वदोषशान्त्या विहितात्म-शान्तिः, शरणं गतानां शान्तेर्विधाता, शान्तिः, शरण्य: ८०॥ (१७) कुन्थु-प्रभृत्यखिल-सत्त्व-दयकतानः, कुन्थुजिनः, धर्मचक्रवर्तयिता ८१; विषय-सौख्य-पराङ्मुखः ८२; रत्नत्रयाऽतिशय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र तेजसि जातवीर्यः, सकल-वेद-विधेर्विनेता ८४; अप्रतिमेयः, स्तुत्यः (११६) ८५। (१८) भूषा-वेषाऽऽयुध-त्यागी, विद्या-दम-दयापरः, दोष-विनिग्रहः ६४; सर्वज्ञज्योतिषोद्भूत-महिमोदयः ६६; अनेकान्तात्मदृष्टिः ९८; निरूपम-युक्त-शासन:, प्रियहित-योग-गुणाऽनुशासनः, अरजिनः, दम-तीर्थनायकः १०४; वरदः १०५। (१९) महर्षिः १.६, जिन-शिशिरांशुः १०९: जिनसिंहः, कृत'करणीयः, मल्लिः, अशल्य: ११० ।। (२०) अधिगत-मुनि-सुव्रत-स्थितिः, मुनिवृषभः, मुनिसुव्रत: १११; कृत-मद-निग्रह-विग्रह: ११२; शशि-रुचि-शुचि-शुक्ल-लोहितवपुः, सुरभितर-विरजवपुः, यति:. ११३; वदतांवरः ११४; अभवसौख्य-वान् ११५ । _(२१) सततमभिपूज्यः, नमि-जिनः ११६; धीमान् , ब्रह्म-प्रणिधिमनाः, विदुषां मोक्ष-पदवी ११७; सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरुः ११८; परमकरुणः ११६; भूषा-वेष-व्यवधि-रहित-वपुः, शान्तकरणः, निर्मोहः, शान्तिनिलयः १२० । (२२) परम-योग-दहन-हुत-कल्मषेन्धनः १२१; अनवद्य-विनयदम-तीर्थनायकः, शीलजलधिः, विभवः, अरिष्टनेमिः, जिनकुञ्जर:, अजरः १२२; बुधनुतः १३० । (२३) महामना १३१; ईश्वरः, विधूत-कल्मषः, शमोपदेशः १३४; सत्य-विद्या-तपसां प्रणायकः. समग्रधीः, पाजिनः विलीनमिथ्यापथ-दृष्टि-विभ्रम: १३५ । (२४) वीरः १३६; मुनीश्वरः १३८; सुराऽसुर-महितः, ग्रन्थिकसत्वाऽऽशयप्रणामाऽमहितः, लोक-त्रय-परम-हितः, अनावरणज्योतिः, उज्ज्वलधामहित: १३६ गत-मद-मायः, मुमुक्षु कामदः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २३ १४१, शम-वादानवन , अपगत-प्रमा-दानवान् १४२; देवः, समन्तभद्र-मतः १४३। इन विशेषण-पर्दोको आठ समूहों अथवा विभागोंमें विभाजित किया जा सकता है; जैसे १ कर्मकलंक और दोषों पर विजयके सूचक, २ ज्ञानादि-गुणोत्कर्ष-व्यंजक, ३ परहित-प्रतिपादनादिरूप लोकहितषितामूलक, ४ पूज्यताऽभिव्यञ्जक, ५ शासनकी महत्ताके प्रदर्शक, ६ शारीरिक स्थिति और अभ्युदयके निदर्शक, ७ साधनाकी प्रधानताके प्रकाशक, और ८ मिश्रित-गुणोंके वाचक । . ये सब विशेषणपद एक प्रकारसे अर्हन्तोंके नाम हैं जो उनके किसी किसी गुण अथवा गुणसमूहकी अपेक्षाको साथमें लिये हुए हैं। यद्यपि इन विशेषण-पदोंमें कितने ही विशेषण-पद-जैसे साधुः, मुनिः, यतिः आदिक-साधारण अथवा सामान्य जान पड़ते हैं। क्योंकि वे अर्हत्पदसे रहित दूसरोंके लिए भी प्रयुक्त होते हैं । परन्तु उन्हें यहां साधारण नहीं समझना चाहिये; क्योंकि असाधारण व्यक्तित्वको लिये हुए महान् पुरुषोंके लिए जब साधारण विशेषण प्रयुक्त होते हैं तब वे 'आश्रयाज्जायते लोके निःप्रभोऽपि महाद्युतिः' की उक्तिके अनुसार आश्रयके माहाम्यसे असाधारण अर्थके द्योतक होते हैं-उनका अर्थ अपनी चरमसीमाको पहुँचा हुआ ही नहीं होता बल्कि दुसरे अर्थोकी प्रभाको भी अपने साथमें लिये हुए होता है। जैनतीर्थङ्कर अहंद्गुणोंकी दृष्टि से प्रायः समान होते हैं, इसलिए व्यक्तित्व-विशेषकी कुछ बातोंको छोड़कर अहत्पदकी दृष्टि से एक तीर्थङ्करके जो गुण अथवा विशेषण हैं वे ही दूसरेके हैं-भले ही उनके साथमें उन विशेषणोंका प्रयोग न हुआ हो या प्रयोगको अवसर न मिला हो। और इस तरह अन्तिम तीर्थङ्कर श्रीवीरजिनेन्द्र में उन सभी गुणोंकी परिसमाप्ति एवं पूर्णता Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ स्वयम्भू स्तोत्र समझनी चाहिये जिनका अन्य वृषभादि तीर्थङ्करोंके स्तवनों में उल्लेख हुआ अथवा प्रदर्शन किया गया है। और उनका शासनतीर्थ उन सब गुणोंसे विशिष्ट है जो अन्य जैन तीर्थङ्करों के शासनमें निर्दिष्ट हुए हैं। तीर्थङ्कर नामों के सार्थक, अन्वयार्थक अथवा गुणार्थक होने से एक तीर्थङ्करका जो नाम है वह दूसरोंका विशेषण अथवा गुणार्थक पद हो जाता है और इसलिए उन्हें भी विशेषंरणपदोंमें संगृहीत किया गया है । भक्तियोग और स्तुति प्रार्थनादि - रहस्य १ १ जैनधर्म अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान हैं— कोई भेद नहींसबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है । प्रत्येक स्वभावसे ही इसी दृष्टिको लेकर द्विसंधानादि चतुर्विंशतिसंधान - जैसे काव्य रचे गए हैं । चतुर्विंशतिसंधानको पं० - जगन्नाथने एक ही पद्यमें रचा है, जिसमें २४ तीर्थङ्करोंके नाम आ गए हैं, और एक एक तीर्थङ्कर की अलग अलग स्तुति के रूपमें उसकी २४ व्याख्याएं की गई हैं और २५वीं व्याख्या समुच्चय स्तुति के रूपमें है ( देखो, वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित 'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह पृ० ७८ ) । हाल में 'पंचवटी' नामका एक ऐसा ही ग्रन्थ मुझे जयपुर से उपलब्ध हुआ है जिसके प्रथम स्तुतिपद्य में २४ तीर्थङ्करोंके नाम श्रा गए हैं और संस्कृत व्याख्यामें उन नामोंके अर्थको वृषभजिनके सम्बन्ध में स्पष्ट करते हुए जितादिशेष तीर्थ के सम्बन्ध में भी घटित कर लेने की बात कही गई है । वह पद्य इस प्रकार है १ श्रीधर्मोवृषभोऽभिनन्दन अरः पद्मप्रभः शीतल : शान्तिः संभव वासुपूज्य अजितश्चन्द्रप्रभः सुव्रतः । श्रेयान् कुन्थुरनंतवी र विमलः श्रीपुष्पदन्तो नमिः श्रीनेमिः सुमतिः सुपार्श्वजिनराट् पार्श्वे मलिः पातु वः ॥ १ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनंतवीर्यादि अनंतशक्तियोंका आधार है-पिण्ड है । परन्तु अनादिकालसे जीवोंके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियां आठ, उत्तर प्रकृतियां एकसौ अड़तालीस और उत्तरोत्तर प्रकृतियां असंख्य हैं। इस कर्म-मलके कारण जीवोंका असली स्वभाव आच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित हैं और वे परतंत्र हुए नाना प्रकारकी पर्याय धारण करते हुए नज़र आते हैं। अनेक अवस्थाओंको लिए हुए संसारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कर्म-मलका परिणाम है-उसीके भेदसे यह सब जीवजगत् भेदरूप है; और जीवकी इस अवस्थाको 'विभाव-परिणति' कहते हैं । जबतक किसी जीवकी यह विभावपरिणिति बनी रहती है तब तक वह 'संसारी' कहलाता है और तभी तक उसे संसारमें कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दु.ख उठाना होता है। जब योग्य साधनोंके बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती हैआत्मामें कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं रहता-और उसका निज स्वभाव सर्वाङ्गरूपसे अथवा पूर्णतया विकसित हो जाता है, तब वह जीवात्मा संसार-परिभ्रमणसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, जिसकी दो अवस्थाएँ हैं-एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त । इस प्रकार पर्याय दृष्टिसे जीवोंके 'संसारी' और 'सिद्ध' एसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं; अथवा अविकसित, अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्ण-विकसित ऐसे चार भागोंमें भी उन्हें बाँटा जा सकता है । और इस लिये जो अधिकाधिक विकसित हैं वे स्त्ररूपसे ही उनके पूज्य एवं श्राराध्य हैं जो अविकसित या अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्मगुणोंका विकास सबके लिये इष्ट है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - www.ww. स्वयम्भूस्तोत्र ऐसी स्थिति होते हुए यह स्पष्ट है कि संसारी जीवोंका हित इसीमें है कि वे अपनी विभाव-परिणति को छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने अर्थात् सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करें। इसके लिये आत्म-गुणोंका परिचय चाहए गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग चाहिये और विकास-मार्गको दृढ श्रद्धा चाहिये । बिना अनुसगके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अननुरागी अथवा अभक्त-हृदय गुण-ग्रहणका पात्र ही नहीं, विना परिचयके अनुराग बढ़ाया नहीं जा सकता और बिना विकास-मार्गकी दृढ श्रद्धाके गुणों के विकासकी और यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती। और इस लिये अपना हित एवं विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषों अथवा सिद्धात्माओंकी शरणमें जाना चाहिये-उनकी उपासना करनी चाहिये, उनके गुणोंमें अनुराग बढ़ाना चाहिए और उन्हें अपना मार्ग-प्रदर्शक मानकर उनके नकशे कदमपर-पदचिन्होंपर-चलना चाहिये अथवा उनकी शिक्षाओंपर अमल करना चाहिये, जिनमें आत्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें अथवा पूर्णरूपसे विकास हुआ हो; यही उनके लिये कल्याणका सुगम मार्ग है । वास्तवमें ऐसे महान् आत्माओंके विकसित आत्मस्वरूपका भजन और कीर्तन ही हम संसारी "जीवोंके लिए अपने प्रात्माका अनुभवन और मनन है; हम 'सोऽह' की भावना-द्वारा उसे अपने जीवनमें उतार सकते हैं और उन्हींके-अथवा परमात्मस्वरूपके-आदर्शको सामने रखकर अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने आत्मीय गुणोंका विकास सिद्ध करके तद्रप हो सकते हैं। इस सब अनुष्ठानमें उन सिद्धात्माओंकी कुछ भी गरज नहीं होती और न इसपर उनको कोई प्रसन्नता ही निर्भर है-यह सब साधना अपने ही उत्थानके लिए की जाती है। इसीसे सिद्धि (स्वात्मोपलब्धि) के साधनोंमें भक्ति-योग' को Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना एक मुख्य स्थान प्राप्त है, जिसे भक्ति-मार्ग' भी कहते हैं। सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्तिद्वारा आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा भक्ति-मार्ग' है और 'भक्ति' उनके गुणोंमें अनुरागको, तदनुकूल वर्तनको अथवा उनके प्रति गुणानुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको कहते है, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पत्ति एवं रक्षाका साधन है। स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, सेवा, श्रद्धा और अाराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामान्तर हैं । स्तुतिपूजा-वन्दनादिके रूपमें इस भक्तिक्रियाको 'सम्यक्त्ववर्द्धिनी क्रिया' बतलाया है, शुभोपयोगि चरित्र' लिखा है और साथ हो कृतिकर्म' भी लिखा है, जिसका अभिप्राय है पापकर्म-छेदनका अनुष्ठान' । सद्भक्तिके द्वारा औद्धत्य तथा अहंकारके त्यागपूर्वक गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त अध्यवसायकी-कुशल परिणामकी-उपलब्धि होती है और प्रशस्त अध्यवसाय अथवा परिणामोंको विशुद्धिसे संचित कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है, जिस तरह काष्ठके एक सिरमें अग्निक लगनेसे वह सारा ही काष्ठ भस्म हो जाता है । इधर संचित कर्मों के नाशसे अथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुणावरोधक कर्मोकी निर्जरा होती या उनका बल-क्षय होता है तो उधर उन अभिलपित गुणोंका उदय होता है, जिससे आत्माका विकास सधता है । इसीसे स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् आचार्योने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिको कुशल-परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है। और अपने तेजस्वी तथा सुकृती अदि होनेका कारण भी२. १. देखो, स्वयम्भूस्तोत्रकी कारिका नं० ११६ २. देखो, स्तुतिविद्याका पद्म नं० ११४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र इसीको निर्दिष्ट किया है और इसी लिए स्तुति-वन्दनादिके रूपमें यह भक्ति अनेक, नैमित्तिक क्रियाओंमें ही नहीं, किन्तु नित्यकी षट आवश्यक क्रियाओंमें भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक क्रियाएँ हैं और अन्तर्दृष्टिपुरुषों (मुनियोंतथा श्रावकों ) के द्वारा आत्मगुणोंके विकासको लक्ष्यमें रखकर ही नित्य की जाती हैं और तभी वे आत्मोत्कर्षकी साधक होती हैं । अन्यथा, लौकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि आदिके वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नहीं बन सकता और न प्रशस्त अध्यवसायके बिना संचित पापों अथवा कर्मो का नाश होकर आत्मीय गुणोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है । अतः इस विषयमें लक्ष्यशुद्धि एवं भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है। विना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नहीं होती, और न विना विवेककी भक्ति सद्भक्ति ही कहलाती है। स्वामी समन्तभद्र का यह स्वयम्भू ग्रन्थ 'स्तोत्र' होनेसे स्तुतिपरक है और इस लिये भक्तियोगकी प्रधानताको लिये हुए हैं, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। सच पूछिये तो जब तक किसी मनुष्यका अहंकार नहीं मरता तब तक उसके विकासकी भूमिका ही तय्यार नहीं होती । बल्कि पहलेसे यदि कुछ विकास हुआ भी होताहै तो वह भी किया कराया सब गया जब आया हुंकार' की लोकोक्तिके अनुसार जाता रहता अथवा दूषित हो जाता है। भक्तियोगसे अहंकार मरता है, इसीसे विकास-मार्गमें सबसे पहले भक्तियोगको अपनाया गया है और इसीसे स्तोत्रग्रन्थोंके रिचनेमें समन्तभद्र प्रायः प्रवृत्त हुए जान पड़ते हैं। आप्तपुरुषों अथवा विकासको प्राप्त शुद्धात्माओंके प्रति आचार्य समन्तभद्र कितने विनम्र थे और उनके Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २६ गुणोंमें कितने अनुरागी थे यह उनके स्तुति-ग्रन्थोंसे भले प्रकार जाना जाता है । उन्होंने स्वयं स्तुतिविद्यामें अपने विकासका प्रधान श्रेय भक्तियोगको दिया है ( पद्य ११४); भगवान जिनदेवके स्तवनको भव-वनको भस्म करने वाली अग्नि लिखा है; उनके स्मरणको क्लेश समुद्रसे पार करनेवाली नौका बतलाया है ( प० ११५) और उनके भजनका लोहसे पारसमणिके स्पर्श-सामन बतलाते हुए यह घोषित किया है कि उसके प्रभावसे मनुष्य विशदज्ञानी होता हुआ तेजको धारण करता है और उसका वचन भी सारभूत हो जाता है (६०)। अब देखना यह है कि प्रस्तुत स्वयम्भूग्रन्थमें भक्तियोगके अङ्गस्वरूप 'स्तुति' आदिके विषयमें क्या कुछ कहा गया है और उनका क्या उद्देश्य, लक्ष्य अथवा हेतु प्रकट किया है:_ लोकमें 'स्तुति' का जो ख्य प्रचलित है उसे बतलाते हुए और वैसी स्तुति करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए, स्वामीजी लिखते हैं - गुण-स्तोकं सदुल्लंघ्य तद्बहुत्व-कथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥८६॥ तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीते स्ततो बयाम किञ्चन ॥८७॥ अर्थात्-विद्यमान गुणोंकी अल्पताको उल्लङ्घन करके जो उनके बहुत्वकी कथा की जाती है-उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। वह स्तुति (हे जिन !) आपमें कैसे बन सकती है ?- नहीं बन सकती । क्योंकि आपके गुण अनन्त होनेसे पूरे तौर पर कहे ही नहीं जा सकते-बढ़ाचढ़ा कर कहनेकी तो बात ही दूर है । फिर भी आप पुण्यकीर्ति Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र मुनीन्द्रका चूँ कि नाम-कीर्तन भी-भक्ति-पूर्वक नामका उच्चारण भी हमें पवित्र करता है, इसलिए हम आपके गुणोंका कुछ-लेशमात्र--कथन ( यहां ) करते हैं। इससे प्रकट है कि समन्तभद्रकी जिन-स्तुति यथार्थताका उल्लंघन करके गुणोंको बढ़ा-चढ़ाकर कहनेवाली लोकप्रसिद्ध स्तुति-जैसी नहीं है, उसका रूप जिनेन्द्र के अनन्त गुणों से कुछ गुणोंका अपनी शक्ति के अनुसार अांशिक कीर्तन करना है। और उसका उद्देश्य अथवा लक्ष्य है आत्माको पवित्र करना। आत्माका पवित्रीकरण पापोंके नाशसे-मोह, कषाय तथा राग-द्वेषादिकके अभावसे होता है। जिनेन्द्रके पुण्य-गुणोंका स्मरण एवं कीर्तन आत्माकी पाप-परिणतिको छुड़ाकर उसे पवित्र करता है, इस बातको निम्न कारिकामें व्यक्त किया गया है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिनः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥५७।। इसी कारिकामें यह भी बतलाया गया है कि पूजा-स्तुतिसे जिनदेवका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि वे वीतराग हैं-रागका अंश भी उनके आत्मामें विद्यमान नहीं हैं, जिससे किसीकी १ इसी बाशयको ‘युक्त्यनुशासन' की निम्न दो कारिकायोंमें भी व्यक्त किया गया है :याथात्म्यमुलंध्य गुणोदयाख्या लोके स्तुतिभू रिगुणोदधेस्ते । अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥२॥ तथापि वैय्यात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोतास्मि ते शक्त्यनुरूप-वाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यूथास्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ॥३॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 प्रस्तावना पूजा, भक्ति या स्तुतिपर वे प्रसन्न होते। वे तो सच्चिदानन्दमय होनेसे सदा ही प्रसन्नस्वरूप हैं, किसीकी, पूजा आदिकसे उनमें नवीन प्रसन्नताका कोई संचार नहीं होता और इसलिये उनकी पूजा भक्ति या स्तुतिका लक्ष्य उन्हें प्रसन्न करना तथा उनकी प्रसन्नता-द्वारा अपना कोई कार्य सिद्ध करना नहीं है और न वे पूजादिकसे प्रसन्न होकर या स्वेच्छासे किसीके पापोंको दूर करके उसे पवित्र करने में प्रवृत्त होते हैं, बल्कि उनके पुण्य-गुणोंके स्मरणादिसे पाप स्वयं दूर भागते है और फलतः पूजक या स्तुतिकर्ताके आत्मामें पवित्रताका संचार होता है। इसी बातको और अच्छे शब्दोंमें निम्नकारिका-द्वारा स्पष्ट किया गया है स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥११६॥ इसमें बतलाया है कि-'स्तुतिके समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी (Direct ) उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु आत्मसाधनामें तत्पर साधुस्तोताकी-विवेक के साथ भक्तिभावपूर्वक स्तुति करनेवालेकी-स्तुति कुशल परिणामकी-पुण्यप्रसाधक या पवित्रता-विधायक शुभभावोंकी-कारण जरूर होती है; और वह कुशल परिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है। जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतासे श्रेयोमार्ग सुलभ हैस्वयं प्रस्तुत की गई अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्त है-तब हे सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐसा कौन विद्वान-परीक्षापूर्वकारी अथवा विवेकी जन है जो आपकी स्तुति न करे ? कर ही करे । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wirmw.... स्वयम्भूस्तोत्र , ___अनेक स्थानोंपर समन्तभद्रने जिनेन्द्रकी स्तुति करनेमें अपनी असमर्थता व्यः करते हुए अपनेको अज्ञ (१५), बालक (३०) तथा अल्पधौ (५६) के रूपमें उल्लिखित किया है; परन्तु एक स्थानपर तो उन्होंने अपनी भक्ति तथा विनम्रताकी पराकाष्ठा ही कर दी है, जब इतने महान ज्ञानी होते हुए और इतनी प्रौढ़ स्तुति रचते हुए भी वे लिखते हैं त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप - लेशोऽल्प- मतेमहामुने ! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधः ॥७०॥ (हे भगवन् ! ) आप ऐसे हैं. वैसे हैं आपके ये गुण हैं, वे गुण हैं इस प्रकार स्तुतिरूपनें मुझ अल्पमतिका-यथावत् गुणोंके परिज्ञानसे रहित स्तोताका-यह थोड़ासा प्रलाप है। (तब क्या यह निष्फल होगा ? नहीं। ) अमृतसमुद्र के अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है उसी प्रकार हे महामुने ! आपके अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी मेरा यह थोड़ासा प्रलाप आपके गुणोंके संस्पर्शरूप होनेसे कल्याणका ही हेतु है।' इससे जिनेन्द्र-गुणोंका स्पर्शमात्र थोड़ासा अधूरा कीर्तन भी कितना महत्व रखता है यह स्पष्ट जाना जाता है। जब स्तुत्य पवित्रात्मा, पुण्य-गुणोंकी मूर्ति और पुण्यकीर्ति हो तब उसका नाम भी, जो प्राय: गुण-प्रत्यय होता है, पवित्र होता है और इसीलिये ऊपर उद्धत ८७वीं कारिकामें जिनेन्द्रके नाम-कीर्तनको भी पवित्र करनेवाला लिखा है तथा नीचेकी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३३ -~~-~ في حي های با به مه بیه یه یه کی به ما فيه कारिकामें, अजित जिनकी स्तुति करते हुए, उनके नामको 'परमपवित्र' बतलाया है और लिखा है कि श्रीन भी अपनी सिद्धि चाहनेवाले लोग उनके परम पवित्र नामको मंगलके लिये-पापको गालने अथवा विघ्न-बाधाओंको टालनेके लिये-बड़े आदरके साथ लेते हैं अद्यापि यस्याऽजित-शासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम् । प्रगृह्यते नाम परम - पवित्रं स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके ।।७|| जिन अर्हन्तोंका नाम-कीर्तन तक पापोंको दूर करके आत्माको पवित्र करता है उनके शरण में पूर्ण-हृदयसे प्राप्त होनेका तो फिर कहना हो क्या है-वह तो पाप-तापको और भी अधिक शान्त करके आत्माको पूर्ण निर्दोष एवं सुख-शान्तिमय बनानेमें समर्थ है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने अनेक स्थानोंपर ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्ति-निलयः' (१२०) जैसे वाक्योंके साथ अपनेको अर्हन्तोंकी शरणमें अपण किया है। यहाँ इस विषयका एक खास वाक्य उद्धृत किया जाता है, जो शरणप्राप्तिमें कारणके भी स्पष्ट उल्लेखको लिये हुए हैं स्वदोष-शान्त्या.विहितात्म-शान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥८॥ इसमें बतलाया है कि वे भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं-मैं उनकी-शरण लेता हूँ-जिन्होंने अपने दोषोंकी-अज्ञान, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ स्वयम्भू स्तोत्र मोह तथा राग-द्वेष - काम-क्रोधादि विकारोंकी - शान्ति करके आत्मा में परमशान्ति स्थापित की है— पूर्ण सुखस्त्ररूपा स्वाभाविकी स्थिति प्राप्त की है - और इसलिये जो शरणागतोंको शान्तिके विधाता हैं - उनमें अपने आत्मप्रभाव से दोषोंकी शान्ति करके शान्ति सुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति सुखरूप परिणत करने में सहायक एवं निमित्तभूत हैं। अत: ( इस शरणागति के फलस्वरूप ) वे शान्ति - जिन मेरे संसार - परिभ्रमणका अन्त और सांसारिक क्लेशों तथा भयोंकी समाप्ति में कारणीभूत होंवें ।' यहां शान्तिजिनको शरणागतोंकी शान्तिका जो विधाता ( कर्ता ) कहा है उसके लिये, उनमें किसी इच्छा या तदनुकूल प्रयत्नके आरोपकी जरूरत नहीं है, वह कार्यं उनके 'विहितात्मशान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अग्निके पास जाने से गर्मीका और हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुँचने से सर्दीका संचार अथवा तद्रूप परिणमन स्वयं हुआ करता है और उसमें उस अनि यो हिममय पदार्थकी इच्छादिक - जैसा कोई कारण नहीं पड़ता । इच्छा तो स्वयं एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वयं स्वामीजीने इस ग्रन्थ में 'अनन्तदोषाशय - विग्रह' (६६) बतलाया है। दोषों की शान्ति हो जानेसे उसका अस्तित्व ही नहीं बनता। और इसलिए देव विना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है । इसी कर्तृत्वको लक्ष्य में रखकर उन्हें 'शान्तिके विधाता' कहा गया है - इच्छा तथा प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टिसे वे उसके विधाता नहीं हैं। और इस तरह कर्तृत्व- विषयमें अनेकान्त चलता है - सर्वथा एकान्तपक्ष जैनशासन में ग्राह्य ही नहीं है । 130 यहां प्रसंगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पड़ता है कि उक्त पद्य तृतीय चरण में सांसारिक क्लेशों तथा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना AAAA भयोंकी शांतिमें कारणीभूत होनेकी जो प्रार्थना की गई है वह जैनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी सष्ट दर्शन नित्यकी प्राथनामें प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथामें पाया जाता हैदुक्ख-खो कम्म-खो समाहि-मरणं च बोहि-लाहो य । मम होउ तिजगबंधव ! तव जिणवर चरण-सरणेण ॥ __इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि-'हे त्रिजगतके (निनिमित्त) बन्धु जिनदेव ! आपके चरण-शरणके प्रसादसे मेरे दुःखोंका क्षय, कमों का क्षय, समाधिपूर्वक मरण और बोधिका--सम्यग्दर्शनादिकका लाभ होवे ।' इससे यह प्रार्थना एक प्रकारसे आत्मोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूचित करती है कि जिनदेवकी शरण प्राप्त होनेसे--प्रसन्नतापूर्वक जिनदेवके चरणोंका आराधन करनेसे-दुःखोंका क्षय और कमों का क्षयादिक सुख-सायं होता है। यही भाव समन्त भद्रकी प्रार्थनाका है। इसो भावको लिए हुए ग्रंथमें दूसरी प्राथनाएँ इस प्रकार हैं "मति-प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ !" (२५) "मम भवताद् दुरितासनोदितम्” (१०५) "भवतु ममापि भवोपशान्तये" (११५) परन्तु ये ही प्राथनाएँ जब जिनेन्द्रदेवको साक्षात्रूप में कुछ करने-कराने के लिये प्रेरित करती हुई जान पड़ती तो हैं वे अलं कृतरूपको धारण किए हुए होती हैं। प्रार्थनाके इस अलंकृतरूपको लिए हुए जो वाक्य प्रस्तुत ग्रन्थमें पाये जाते हैं वे निम्न प्रकार १. पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (५) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र २. जिनः श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् (१०) ३. ममाय देयाः शिवतातिमुच्चैः (१५) ४. पूयात्पवित्रो भगवान् मनो मे (४०) ५. श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः (७५) ये सब प्रार्थनाएँ चित्तको पवित्र करने, जिनश्री तथा शिवसन्ततिको देने और कल्याण करनेकी याचनाको लिए हुए हैं, आत्मोत्कर्ष एवं आत्मविकासको लक्ष्य करके की गई हैं, इनमें असंगतता तथा असंभाव्य-जैसी कोई बात नहीं है सभी जिनेन्द्रदेवके सम्पर्क तथा शरणमें आनेसे स्वयं सफल होनेवाली अथवा भक्ति-उपासनाके द्वारा सहजसाध्य है-और इसलिए अलंकारकी भाषामें की गई एक प्रकारकी भावनाएँ ही हैं। इनके मर्मको अनुवादमें स्पष्ट किया गया है। वास्तवमें परम वीतरागदेवसे विवेकीजनकी प्रार्थनाका अर्थ देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है अर्थात् यह प्रकट करना है कि वह आपके चरण-शरण एवं प्रभावमें रहकर और कुछ पदार्थ पाठ लेकर आत्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छा, कामना या भावनाको पूरा करनेमें समर्थ होना चाहता है। उसका यह आशय कदापि नहीं होता कि वीतरागदेव भक्तकी प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशक्ति एवं प्रयनादिको काममें लाते हुए स्वयं उसका कोई काम कर देंगे अथवा । दूसरोंसे प्रेरणादिकके द्वारा करा देंगे। ऐसा आशय असम्भाव्यको संभाव्य बनाने-जैसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है। अस्तु, प्रार्थना-विषयक विशेष ऊहापोह स्तुतिविद्याकी प्रस्तावनामें 'वीतरागसे प्रार्थना क्यों ?' इस शीर्षकके नीचे किया गया है और इसलिये उसे वहींसे जानना चाहिये। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस तरह भक्तियोगमें, जिसके स्तुति, पूजा, वन्दना, आराधना, शरणागति, भजन-स्मरण और नामकीर्तनादिक अग हैं, आत्मविकासमें सहायक हैं। और इसलिये जो विवेकीजन अथवा बुद्धिमान पुरुष आत्मविकासके इच्छुक तथा अपना हितसाधनमें सावधान हैं वे भक्तियोगका आश्रय लेते हैं। इसी बातको प्रदर्शित करने वाले ग्रंथके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं: १. इति प्रभो ! लोक-हितं यतो मतं ___ ततो भवानेवगतिः सतां मतः (२०)। २. ततः स्वनिश्रेयस-भावना-पर बुधप्रवेकः जिन ! शीतलेड्यसे (५०)। ३. ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः (६५)। ४. तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः (८५) । ५. स्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः (१२४) । स्तुतिविद्यामें तो बुद्धि उसीको कहा है जो जिनेन्द्रका स्मरण करती है, मस्तक उसीको बतलाया है जो जिनेन्द्र के पदोंमें नत रहता है, सफलजन्म उसीको घोषित किया है जिसमें संसार-परिभ्रमणको नष्ट करने वाले जिनचरणोंका आश्रय लिया जाता है, वाणी उसीको माना है जो जिनेन्द्रका स्तवन (गुणकीर्तन) करती है, पवित्र उसीको स्वीकार किया है जो जिनेन्द्र के मस में Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र marrrrrrrrr.... रत है और पंडितजन उन्हींको अंगीकार किया है जो जिनेन्द्रके चरणोंमें सदा नम्रीभूत रहते हैं । (११३) इन्हीं सब बातोंको लेकर स्वामी समन्तभद्रने अपनेको अहज्जिनेन्द्रकी भक्तिके लिये अर्पण कर दिया था। उनकी इस भक्तिके ज्वलन्त रूपका दर्शन स्तुतिविद्याके निम्न पद्यमें होता है, जिसमें वे वीरजिनेन्द्रको लक्ष्य करके लिखते हैं-'हे भगवन् आपके मतमें अथवा आपके विषयमें मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं; मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए हैसदा आपका ही स्मरण किया करती है. मैं पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ आपको ही प्राणामांजलि करनेके निमित्त हैं मेरे कान आपकी ही गुण-कथाको सुनने में लीन रहते हैं, मेरी अांखें आपके ही सुन्दर रूपको देखा करती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी सुन्दर स्तुतियों के रचने का है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है। इस प्रकारकी • चूंकि मेरी सेवा है-मैं निरन्तर ही आपका इस तरह आराधन किया करता हूँ--इसीलिये .हे तेजःपते ! (केवलज्ञान स्वामिन् !) मैं तेजस्वी हूँ. सुजन हूँ और सुकृति (पुण्यिवान) हूँ : सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चाऽपि ते हस्तावञ्जलये कथा-श्रुति-रतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । १. प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे ।. मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव या त्वा स्तुते ते ज्ञा ये प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते ॥ ११३।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रस्तावना .................xnirrrrrrrr..... ..mmam सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपरं सेवेदृशी येन ते । तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४॥ ___ यहाँ सबसे पहले 'सुश्रद्धा' की जो बात कही गई है, वह बड़े महत्वकी है और अगली सब बातों अथवा प्रवृत्तियोंकी जान-प्राण जान पड़ती है। इससे जहाँ यह मालूम होता है कि समन्तभद्र जिनेन्द्रदेव तथा उनके शासन(मत)के विषयमें अन्धश्रद्धालु नहीं थे वहाँ यह भी जाना जाता है कि भक्तियोगमें अन्धश्रद्धाका ग्रहण • नहीं है-उसके लिये सुश्रद्धा चाहिये, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है। समन्तभद्र ऐसी ही विवेकवती सुश्रद्धासे सम्पन्न थे। अन्धीभक्ति वास्तवमें उस फलको फल ही नहीं सकती जो भक्तियोगका लक्ष्य और उद्देश्य है। ___ इसी भक्त्यर्पणाकी बातको प्रस्तुत ग्रन्थमें एक दूसरे ही ढंगसे व्यक्त किया गया है और वह इस प्रकार है : अतएव ते बुधनुतस्य चरित-गुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थितावयम् ॥ इस वाक्यमें स्वामी समन्तभद्र यह प्रकट करते हैं कि 'हे बुधजनस्तुतजिनेन्द्र ! आपके चरित-गुण और अद्भुत उदयको न्यायविहित-युक्तियुक्त-निश्चय करके ही हम बड़े प्रसन्नचित्तसे आपमें स्थित हुए हैं-आपके भक्त बने हैं और हमने आपका आश्रय लिया है।' इससे साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रने जिनेन्द्रके चरितगुणकी और केवलज्ञान तथा समवसरणादि-विभूतिके प्रादुर्भावको लिये हुए अद्भुत् उदयकी जाँच की है-परीक्षा की है और उन्हें Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘स्वयम्भूस्तोत्र न्यायकी कसौटीपर कसकर ठीक एवं युक्तियुक्त पाया है तथा अपने आत्मविकासके मार्गमें परम सहायक समझा है, इसी लिये वे पूर्ण हृदयसे जिनेन्द्र के भक्त बने हैं और उन्होंने अपनेको उनके चरण-शरणमें अर्पण कर दिया है। अतः उनकी भक्ति में कुलपरम्परा, रूढिपालन और कृत्रिमता (बनावट-दिखावट)-जैसी कोई बात नहीं थी-वह एक दम शुद्ध विवेकसे संचालित थी और ऐसा ही भक्तियोगमें होना वाहिये। . हाँ, समन्तभद्रका भक्तिमार्ग, जो उनके स्तुति-ग्रंथोंसे भले प्रकार जाना जाता है. भक्तिके सर्वथा एकान्तको लिये हुए नहीं है। स्वयं समन्तभद्र भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हुए थे-इनमेंसे किसी एक ही योगके वे एकान्त पक्षपाती नहीं थे। निरी या कोरी एकान्तता' तो उनके पास तक भी नहीं फटकती थी। वे सर्वथा एकान्तवाद के सख्त विरोधी थे और उसे वस्तुतत्त्व नहीं मानते थे। उन्होंने जिन खास कारणोंसे अहंजिनेन्द्रको अपनी स्तुतिके योग्य समझा और उन्हें अपनी स्तुतिका विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यायबाण भी एक कारण हैं। अहंन्तदेव अपने इन एकान्तदृष्टि-प्रतिषेधक अमोघ न्यायवाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक प्रहारोंसे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए ज्ञानावरणादिरूप शत्रु-समूहका नाश करके कैवल्य-विभूतिके- केवल १ जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिये हुए होती है उसे 'निरी' 'कोरी' अथवा 'मिथ्या' एकान्तता कहते हैं । समन्तभद्र इस मिथ्यैकान्ततासे रहित थे; इसीसे देवागममें, एक अापत्तिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है-"न मिथ्यकान्तताऽस्ति नः। निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४१० MAnmonwwwwwwwwwwwwwwww --AANAANAAWww ज्ञानके साथ साथ समवसरणादि-विभूतिके-सम्राट् हुए हैं. इसीलिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके प्रस्तुत ग्रन्थके निम्नवाक्यमें कहते हैं कि 'आप मेरी स्तुतिके योग्य हैं-पात्र हैं। एकान्तदृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धि-न्यायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य । असिस्म कैवल्य-विभूति-सम्राट् ततस्त्वमहन्नसि मे स्तवाहः॥ इससे समन्तभद्रकी परीक्षा-प्रधानंता, गुणज्ञता और परीक्षा करके सुश्रद्धाके साथ भक्तिमें प्रवृत्त होनेकी बात और भी स्पष्ट हो जाती है। साथ ही, यह भी मालूम हो जाता है कि जब तक एकान्तदृष्टि बनी रहती है तब तक मोह नहीं जीता जाता, जब तक मोह नहीं जीता जाता तब तक आत्म-विकास नहीं बनता और न पूज्यताकी ही प्राप्ति होती है। मोहको उन न्याय-बाणोंसे जीता जाता है जो एकान्तदृष्टिके प्रतिरोधको सिद्ध करनेवाले हैंसर्वथा एकान्तरूप दृष्टिदोषको मिटाकर अनेकान्त दृष्टिकी प्रतिष्ठारूप सम्यग्दृष्टित्वका आत्मामें संचार करनेवाले हैं। इससे तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धानका महत्व सामने आ जाता है, जो अनेकान्तदृष्टिके आश्रित है, और इसीसे समन्तभद्र भक्तियोगके एकान्तपक्षपाती नहीं थे। इसी तरह ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके भी वे एकान्त-पक्षपाती नहीं थे-एकका दृसरेके साथ अकाट्य सम्बन्ध मानते थे। ज्ञान-योग ___ जिस समीचीन ज्ञानाभ्यासके द्वारा इस संसारी जीवात्माको अपने शुद्धस्वरूपका, पररूपका, परके सम्बन्धका, सम्बन्धसे होनेवाले विकारका - दोषका अथवा विभावपरिणतिका -, विकारके विशिष्ट कारणोंका और उन्हें Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र दूर करने. निर्विकार (निर्दोष) बनने, बन्धनरहित (मुक्त ) होने तथा अपने निजरूपमें सुस्थित होनेके साधनोंका परिज्ञान कराया जाता है. और इस तरह हृदयान्धकारको दूर कर-भूल-भ्रान्तियोंको मिटाकर-आत्मविकास सिद्ध किया जाता है, उसे 'ज्ञानयोग' कहते हैं। इस ज्ञानयोगके विषयमें स्वामी ‘समन्तभद्र ने क्या कुछ कहा है उसका पूरा परिचय तो उनके देवागम, युक्त्यनुशासन आदि सभी ग्रन्थोंके गहरे अध्ययनसे प्राप्त किया जा सकता है। यहांपर प्रस्तुत ग्रन्थ में स्पष्टतया सूत्ररूपसे, सांकेतिक रूपमें अथवा सूचनाके रूपमें जो कुछ कहा गया है उसे, एक स्वतंत्र निबन्धमें संकलित न कर, स्तवन-क्रमसे नीचे दिया जाता है, जिससे पाठकोंको यह मालूम करनेमें सुविधा रहे कि किस स्तवनमें कितना और क्या कुछ तत्त्वज्ञान सूत्रादिरूपसे समाविष्ट किया गया है। विज्ञजन अपने बुद्धिबलसे उसके विशेष रूपको स्वयं समझ सकेंगे-व्याख्या करके यह बतलानेका यहां अवसर नहीं कि उसमें और क्या क्या तत्त्वज्ञान छिपा हुआ है अथवा उसके साथमें अविनाभावरूपसे सम्बद्ध है। उसे व्याख्या करके बतलानेसे प्रस्तावनाका विस्तार बहुत बढ़ जाता है, जो अपनेको इष्ट नहीं है। तत्त्वज्ञान-विषयक जो कथन जिस कारिकामें आया है उस कारिकाका नम्बर भी साथमें नोट कर दिया गया है। __ (१) पूर्ण विकासके लिये प्रबुद्धतत्त्व होकर ममत्वसे विरक्त होना, वधू-वित्तादि-परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा लेनामहाव्रतादिको ग्रहण करना, दीक्षा लेकर आए हुए उपसर्गपरिषहोंको समभावसे सहना और प्रतिज्ञात सव्रत-नियमोंसे चलायमान नहीं होना आवश्यक है (२,३)। अपने दोषोंके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना AAAMANA. मूल कारणको अपने ही समाधि-तेजसे भस्म किया जाता है और तभी ब्रह्मपदरूप अमृतका स्वामी बना जाता है (४)। (२) जो महामुनि धनोपदेहसे-घातिया कर्मोंके अावरणादिरूप उपलेपसे-रहित होते हैं वे भव्यजनोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलकोंकी-अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि कर्मोंकी-शान्तिके लिये उसी प्रकार निमित्तभूत होते हैं जिस प्रकार कि कमलोके अभ्युदयके लिये सूर्य (C)[ यह ज्ञान भक्तियोगमें सहायक होता है ] । उत्तम और महान धर्मतीर्थको पाकर भव्यजन दुःखोंपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं जिस प्रकार कि घामसे संतप्त हुए हाथी शीतल गंगाद्रहमें प्रवेश करके अपना सब अाताप मिटा डालते हैं (8)। जो ब्रह्मनिष्ठ (अहिंसातत्पर ), सम-मित्र-शत्रु और कषाय-दोषोंसे रहित होते हैं वे ही श्रात्मलक्ष्मीको-अनन्तज्ञानादिरूप जिनश्रीको-प्राप्त करनेमें समर्थ होते हैं (१०)। (३) यह जगत अनित्य है, अशरण है, अहंकार-ममकारकी क्रियाओंके द्वारा संलग्न हुए मिथ्याभिनिवेशके दोषसे दूषित है और जन्म-जरा-मरणसे पीड़ित है, उसे निरंजना शान्तिकी जरूरत है (१२) । इन्द्रिय-विषय-सुख विजलीकी चमकके समान चंचल है-क्षणभर भी स्थिर रहनेवाला नहीं है और तृष्णारूपी रोगकी वृद्धिका एकमात्र हेतु है-इन्द्रिय-विषयोंके अधिकाधिक सेवनसे तृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि ताप उत्पन्न करती है और वह ताप जगतको ( कृपिवाणिज्यादि क्लेशकों में प्रवृत्त कराकर ) अनेक दुःख-परम्परासे पीडित करता रहता है (१३)। बन्ध, मोक्ष, दोनोंके कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल, इन सबकी व्यवस्था स्याद्वादी-अने Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयमूर। स्वयम्भूस्तोत्र कान्तदृष्टिके मतमें ही ठीक बैठती है--एकान्तदृष्टियों अथवा सर्वथा एकान्तवादियोंके मतोंमें नहीं-और 'शास्ता' ( तत्त्वोपदेष्टा ) पदके योग्य स्याद्वादी 'अहंन्त-जिन ही होते हैं-उन्हींका उपदेश मानना चाहिये (१४)। (४) समाधिकी सिद्धि के लिये उभयप्रकारके नैन्थ्य-गुणसे- बाह्याभ्यान्तर दोनों प्रकारके परिग्रहके त्यागसे युक्त होना आवश्यक है-विना इसके समाधिकी सिद्धि नहीं होती; परन्तु क्षमा सखीवाली दयावधूका त्याग न करके दोनोंको अपने आश्रयमें रखना जरूरी है (१६)। अचेतन शरीरमें और शरीरसम्बन्धसे अथवा शरीरके साथ किया गया आत्माका जो कर्मवश बन्धन है उससे उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखादिक तथा स्त्रीपुत्रादिकमें 'यह मेरा है। इस प्रकारके अभिनिवेशको लिये हुए हानेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थों में स्थायित्वक निश्चय कर लेनेके कारण यह जगत नष्ट हो रहा है-आत्महित-साधनसे विमुख होकर अपना अकल्याण कर रहा है (१७)। क्षुधादि दु:खोंके प्रतिकारसे और इन्द्रिय-विषय-जनित स्वल्प सुखके अनुभवसे देह और देहधारीका सुखपूर्वक अवस्थान नहीं बनता। ऐसी हालतमें सुधादि-दुःखोंके इस क्षणस्थायी प्रतीकार (इलाज) और इन्द्रियविषय-जन्य स्वल्प सुखके सेवनसे न तो वास्तवमें इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी आत्माका ही कुछ भला होता है अतः इन प्रतीकारादिमें आसक्ति (अतीव रागकी प्रवृत्ति) व्यर्थ है (१८)। जो मनुष्य आसक्तिके इस लोक तथा परलोक-सम्बन्धी दोषोंको समझ लेता है वह इन्द्रिय-विषयसुखोंमें आसक्त नहीं होता; अतः आसक्तिके दोषको भले प्रकार समझ लेना चाहिये (१९)। आसक्तिसे तृष्णाकी अभिवृद्धि होती Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४५ . है और इस प्राणीकी स्थिति सुखपूर्वक नहीं बनती, इसीसे वह तापकारी है। (चौथे स्तवनमें वर्णित) ये सब लोक-हितकी बातें हैं (२०)। (५) अनेकान्त-मतसे भिन्न शेष सब मतोंमें सम्पूर्ण क्रियाओं तथा कतो, कर्म, करण आदि कारकोंके तत्त्वकी सिद्धि-उनके स्वरूपकी उत्पत्ति अथवा ज्ञप्ति के रूपमें प्रतिष्ठा-नहीं बनती, इसीसे अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व ही सुयुक्ति-नीत है (२१)। वह सुयुक्ति-नीत वस्तुतत्त्व भेदाऽभेद-ज्ञानका विषय है और अनेक तथा एकरूप है, और यह वस्तुको भेद-अभेदके रूपमें ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें से एकको ही सत्य मानकर दूसरेमें उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्योंकि परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध होनेसे दोनों से एकका अभाव हो जानेसे वस्तुतत्त्व. अनुपख्यि-नि:स्वभाव हो जाता है (२२)। जो सत् है उसके कथञ्चित् असत्व-शक्ति भी होती है; जैसे पुष्प वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिये हुए प्रसिद्ध है परन्तु आकाशपर उसका अस्तित्व नहीं है, आकाशकी अपेक्षा वह असत्रूप है। यदि वस्तुतत्त्वको सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय तो वह अप्रमाण ठहरता है। इसीसे सर्वजीवादितत्त्व कथञ्चित सत्-असत्रूप अनेकान्तात्मक है। इस मतसे भिन्न जो एकान्तमत है वह स्ववचन-विरुद्ध है (२३)। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय-अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारककी योजना ही बन सकती है। ( इसी तरह ) जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सर्वथा सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझ जानेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है (२४)। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र (वास्तव में ) विधि और निषेध दोनों कथञ्चित् इष्ट हैं। विवक्षासे उनमें मुख्य-गौण की व्यवस्था होती है (२५)। इस तत्त्वज्ञानकी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरसे जानने योग्य है। (६) जो केवलज्ञानादि लक्ष्मीसे आलिंगित चारुमूर्ति होता है वही भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करनेके लिये सूर्यका काम देता है (२६)। ___ (७) आत्यन्तिक स्वास्थ्य-विभावपरिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादि-स्वरूपमें अविनश्वरी स्थिति-ही जीवात्माओंका स्वार्थ है-क्षणभंगुर भोग स्वार्थ न होकर अस्वार्थ है। इन्द्रियविषय-सुखके सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगांक्षाकी-वृद्धि होती है और उससे तापकी-शारीरिक तथा मानसिक दुःखकी-शान्ति नहीं होने पाती (३१)। जीवके द्वारा धारण किया हुआ शरीर अजंगम, जंगम-नेय-यन्त्र, बीभत्सु, पूति, क्षयि और तापक है और इसलिये इसमें अनुराग व्यर्थ है, यह हितकी बात है (३२)। हेतुद्वयसे आविष्कृत-कार्य-लिङ्गा भवितव्यता अलंध्यशक्ति है, इस भवितव्यताकी अपेक्षा न रखनेवाला अहंकारसे पीड़ित हुआ संसारी प्राणी ( यंत्र-मंत्र-तंत्रादि) अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी सुखादिक कार्योंको वस्तुतः सम्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होता (३३)। यह संसारी प्राणी मृत्युसे डरता है परन्तु (अलंध्यशक्ति-भवितव्यता-वश) उस मृत्युसे छुटकारा नहीं; नित्य ही कल्याण चाहता है परन्तु (भावीकी उसी अलंध्यशक्ति वश) उसका लाभ नहीं होता, फिर भी यह मूढ प्राणी भय तथा इच्छाके वशीभूत हुआ स्वयं ही वृथा तप्तायमान होता है अथवा भवितव्यता-निरपेक्ष प्राणी वृथा ही भय और इच्छाके वश हुआ दुःख उठाता है (३४)। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४७ (c) जिन्होंने अपने अन्तःकरण के कषाय-बन्धनको जीता है - सम्पूर्ण - क्रोधादि - कषायों का नाश कर कषाय-पद प्राप्त किया है - वे 'जिन' होते हैं ( ३६ ) | ध्यान- प्रदीपके अतिशयसेपरमशुक्लध्यानके तेज द्वारा - प्रचुर मानस अन्धकार - ज्ञानावरणादि कर्मजन्य आत्म का समस्त अज्ञानान्धकार — दूर होता है (३७) । तथा (६) तत्त्व वह है जो सत्-असत् आदिरूप विवक्षिताऽविवा - क्षित स्वभावको लिये हुए है और एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है तथा प्रमाण-सिद्धि है(४१) । वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप और कथंचित् तद्रूप है; क्योंकि वैसी ही सत् असत् आदि रूपकी प्रतीति होती है । स्वरूपादि - चतुष्टयरूप विधि और पररूपादिचतुष्टयरूप निषेधके परस्पर में अत्यन्त ( सर्वथा ) भिन्नता अभिन्नता नहीं है; क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता माननेपर शून्य-दोष आता है - वस्तुके सर्वथा लोपका प्रसंग उपस्थित होता है (४२) । यह वही है, इस प्रकारकी प्रतीति होने से वस्तुतत्त्व नित्य है और यह वह नहींअन्य है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी सिद्धिसे वस्तुतत्त्व नित्य नहींअनित्य है । वस्तुतत्त्वका नित्य और अनित्य दोनों रूप होना • विरुद्ध नहीं है; क्योंकि वह बहिरंग निमित्त - सहकारी कारण - अन्तरंग निमित्त — उपादान कारण — और नैमित्तिक - निमित्तोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्य — के सम्बन्धको लिये हुए है (४३) । पदका वाच्य प्रकृति ( स्वभाव ) से एक और अनेक रूप है, 'वृक्षा:' इस पदज्ञानकी तरह | अनेकान्तात्मक वस्तुके 'अस्तित्वादि किसी एक धर्मका प्रतिपादन करनेपर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्म के प्रतिपादन में जिसकी आकांक्षा रहती है ऐसे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ स्वयम्भू स्तोत्र आकांक्षी - सापेक्षवादी अथवा स्याद्वादीका 'स्यात्' यह निपात-स्यात् शब्दका साथमें प्रयोग गौणकी अपेक्षा न रखनेवाले नियम में सर्वथा एकान्तमतमें बाधक होता है (४४) । 'स्यात् ' पदरूपसे प्रतीयमान वाक्य मुख्य और गौणकी व्यवस्थाको लिये हुए हैं और इसलिये अनेकान्तवादसे द्वेष रखनेवालोंको अपथ्य'रूपसे अनिष्ट है— उनकी सैद्धान्तिक प्रकृतिके विरुद्ध है (४५) । . इस स्तवनमें तत्त्वज्ञानकी भी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरसे जानने योग्य है । (१०) सांसारिक सुखोंकी अभिलाषारूप अग्नि दाहसे मूर्छित हुआ मन ज्ञानमय अमृतजलोंके सिञ्चनसे मूर्छा - रहित होता है (४७) आत्मविशुद्धिके मार्ग में दिन रात जागृत रहनेकीपूर्ण सावधान बने रहने की - जरूरत है, तभी वह विशुद्धि सम्पन्न हो सकती है (४८) | मन-वचन-कायको प्रवृत्तिको पूर्ण - तया रोकने से पुनर्जन्मका अभाव होता है और साथ ही जरा भी टल जाती है (४६) । (११) वह विधि - स्वरूपादि - चतुष्टय से अस्तित्वरूपप्रमाण है जो कथंचिन् तादात्म्य - सम्बन्धको लिए हुए प्रतिषेधरूप है -- पररूपादिचतुष्टयको अपेक्षा नास्तित्वरूप भी है। इन विधि- प्रतिषेध दोनोंमें से कोई एक प्रधान होता है (वक्ता के अभिप्रायानुसार, न कि स्वरूप से ) | मुख्यके नियामका - 'स्वरूपादि चतुष्टयसे विधि और पररूपादि चतुष्टयसे ही निषेध' इस नियमका -जो हेतु है वह नय है और वह नय दृष्टान्तसमर्थनदृष्टान्त समर्थित अथवा दृष्टान्तका समर्थक - होता है (५२) । . विवक्षित मुख्य होता है और अविवक्षित गौण । जो अविवक्षित होता है वह निरात्मक ( अभावरूप) नहीं होता । मुख्य- गौरकी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रस्तावना ४६ . व्यवस्थासे एक ही वस्तु, शत्र, मित्र तथा उभय अनुभय-शक्तिको लिये रहती है। वास्तवमें वस्तु दो अवधियों (मर्यादाओं)से ही कार्यकारी होती है-विधि-निषेध, सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्यायरूप दो दो धमों का आश्रय लेकर ही अर्थक्रिया करनेमें प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है (५३)। वादी-प्रतिवादी दोनोंके विवादमें दृष्टान्तकी सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होती है; परन्तु वैसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु है ही नहीं जो सर्वथा एकान्तकी नियामक दिखाई देती हो। अनेकान्तदृष्टि सबमें-साध्य, साधन और दृष्टान्तादिमें अपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अनेकान्तत्वसे व्य.प्त है। इसीसे सर्वथा एकान्तवादियोंके मतमें ऐसा कोई दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके सर्वथा एकान्तका नियामक हो और इसलिये उनके सर्वथा नित्यत्वादि साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती (५४)। एकान्त दृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्याय-बाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक प्रहारोंसे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए शत्रुसमूहका-नाश किया जाता है (५५)। (१२) जो राग और द्वेषसे रहित होते हैं उन्हें यद्यपि पूजा तथा निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं होता, फिर भी उनके पुण्यगुणोंका स्मरण चित्तको पाप-मलोंसे पवित्र करता है (५७)। पूज्यजिनकी पूजा करते हुए जो (सराग-परिणति अथवा आरम्भादिद्वारा) लेशमात्र पापका उपार्जन होता है वह (भावपूर्वक की हुई पूजासे उत्पन्न होनेवाली) · बहुपुण्यराशिमें उसी प्रकारसे .दोषका कारण नहीं बनता जिस प्रकार कि विषकी एक कणिका शीत-शिवाम्बुराशिको-ठंडे कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको-दूषित करनेमें समर्थ नहीं होती (५८)। जो बाह्य वस्तु Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र गुण-दोषकी उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरंगमें वर्तनेवाले गुण-दोषोंकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूलहेतुकी अंगभूत होती है। बाह्यवस्तुकी अपेक्षा न रखता हुआ केवल अभ्यन्तर कारण भी गुण-दोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं है (५६) । बाह्य और अभ्यन्तर दोनों कारणोंको यह पूर्णता ही द्रव्यगत स्वभाव है, अन्यथा पुरुषोंमें मोक्षकी विधि भी नहीं बन सकती (६०)। (१३) जो नित्य-क्षणिकादिक नय परस्परमें अनपेक्ष (स्वतंत्र) होनेसे स्व-पर-प्रणाशी (स्त्र-पर-वैरी) हैं (और इसलिये 'दुर्नय' हैं) वे ही नय परस्परापेक्ष (परस्परतंत्र) होनेसे स्व-परोपकारी हैं और इसलिये तत्त्वरूप सम्यक नय हैं (६१)। जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्यको अपना सहायक रूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है उसी प्रकार सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले (द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदिरूप) जो नय हैं वे मुख्य और गौणकी कल्पनासे इष्ट (अभिप्रेत) हैं (६२) । परस्परमें एक-दूसरेकी अपेक्षाको लिए हुए जो अभेद और भेदका अन्वय तथा व्यतिरेकका ज्ञान होता है उससे प्रसिद्ध होने वाले सामान्य और विशेषकी उसी तरह पूर्णता है जिस तरह कि ज्ञान-लक्षण-प्रमाण स्व-पर-प्रकाशक रूपमें पूर्ण है। सामान्यके विना विशेष और विशेषके विना सामान्य अपूर्ण है अथवा यों कहिये कि बनता ही नहीं (६३)। वाच्यभूत विशेष्य का-सामान्य अथवा विशेषका-वह वचन जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है 'विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और विशेष्य दोनोंके सामान्यरूपताका जो अतिप्रसंग आता है वह स्याद्वादमतमें नहीं बनता; क्योंकि विवक्षित विशेषण-विशेष्यसे अन्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना marrive ~ ~ ~ ~ - ~ ~ अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका 'स्यात्' शब्दसे परिहार हो जाता है जिसकी उक्त मतमें सर्वत्र प्रतिष्ठा रहती है (६४)। जो नय स्यात्पदरूप सत्यसे चिह्नित हैं वे रसोपविद्ध लोह-धातुओंकी तरह अभिप्रेत फलको फलते हैं यथास्थित वस्तुतत्त्वके प्ररूपणमें समर्थ होकर सन्मार्गपर ले जाते हैं (६५)। (१४) मोह पिशाच, जिसका शरीर अनन्त दोषोंका आधार है और जो चिरकालसे आत्माके साथ सम्बद्ध होकर उसपर अपना आतङ्क जमाए हुए है, तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण करनेसे . जीता जाता है (६४)। कषाय पीडनशील शत्र हैं, उनका नाम निःशेष करनेसे-आत्माके साथ उनका सम्बन्ध पूर्णतः विच्छेद कर देनेसे-मनुष्य अशेषवित् (सर्वज्ञ) होता है। कामदेव विशेष रूपसे शोषक-संतापक एक रोग है, जिसे समाधिरूप औषधके गुणोंसे विलीन किया जाता है (६७) । तृष्णा नदी परिश्रम-जलसे भरी है और उसमें भयरूप तरंग मालाएँ उठती हैं। वह नदी अपरिग्रहरूप ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणोंसे सुखाई जाती हैपरिग्रहके संयोगसे वह उत्तरोत्तर बढ़ा करती है (६८)। (१५) तपश्चरणरूप अग्नियोंसे कमवन जलाया जाता है और शाश्वत सुख प्राप्त किया जाता है (७१)। (१६) दयामूर्ति बननेसे पापकी शांति होती है ७६; समाधिचक्रसे दुर्जय मोहचक्र-मोहनीय कमका मूलोत्तर-प्रकृति-प्रपंचजीता जाता है ७७ ; कर्म-परतंत्र न रहकर आत्मतन्त्र बनने पर आईन्त्य-लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ७८ ; ध्यानोन्मुख होनेपर कृतान्त(कम)चक्र जीता जाता है ७६ ; अपने राग-द्वेष-कामक्रोधादि दोष-विकार ही आत्मामें अशान्तिके कारण हैं, जो अपने दोषोंको' शान्त कर आत्मामें शान्तिकी प्रतिष्ठा करनेवाला Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww स्वयम्भूस्तात्रे होता है वही शरणागतोंके लिये शान्तिका विधाता होता है और इसलिये जिसके आत्मामें स्वयं शान्ति नहीं वह शरणागतके लिये शान्तिका विधाता भी नहीं हो सकता ८० । (१७) जिनदेव कुन्थ्वादि सब प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हुए होते हैं और उनका धर्मचक्र ज्वर-जरामरणकी उपशान्तिके लिए प्रवर्तित होता है (८१)। तृष्णा (विषयाकांक्षा) रूप अग्नि-ज्वालाएँ स्वभावसे ही संतापित करती हैं। इनकी शान्ति अभिलषित इन्द्रि-विषयोंकी सम्पतिसे-प्रचुर परिमाणमें सम्प्राप्तिसे नहीं होती, उलटी वृद्धि ही होती है, ऐसी ही वस्तु-स्थिति है। सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय (मात्र कुछ समयके लिये) शरीरके संतापको मिटानेमें निमित्तमात्र हैंतृष्णारूप अग्निज्वालाओंको शान्त करने में समर्थ नहीं होते (८२)। बाह्य दुर्द्धर तप आध्यात्मिक (अन्तरंग) तपकी वृद्धिके लिये विधेय हैं। चार ध्यानोंमेंसे आदिके दो कलुषित ध्यान (आत्त-रौद्र) हेय (ताज्य) हैं और उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यान (धर्म्य, शुक्ल) उपादेय हैं (८३)। कर्मोंकी (आठ मूल प्रकृतियोंमेंसे) चार मूल प्रकृतियां (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय) कटुक (घातिया) हैं और वे सम्यग्दर्शनादिरूप सातिशय रत्नत्रयाग्निसे भस्म की जाती हैं, उनके भस्म होनेपर ही आत्मा जातवीर्य-शक्तिसम्पन्न अथवा विकसित होता है और सकल-वेद-विधिका विनेता बनता है (८४) । (१८)पुण्यकीति मुनीन्द्र(जिनेन्द्र)का नाम-कीर्तन भी पवित्र करता है (८७)। मुमुक्षु होनेपर चक्रवर्तीका सारा विभब और साम्राज्य भी जीणं तृणके समान निःसार जान पड़ता है (८८)। कषाय-भटोंकी सेनासे युक्त जो मोहरूप शत्रु है वह पापात्मक सम्पन्न , उनके भाप सातिशय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना है, उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा (परमौदासीन्यलक्षण सम्यक् चारित्र) रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे जीता जाता है ( ६० ) । जो धीर वीर मोहपर विजय प्राप्त किये होते हैं उनके सामने त्रिलोक-विजयी दुर्द्धर कामदेव भी हतप्रभ हो जाता है (ह? ) । तृष्णा नदी इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योनि है, उसे निदो षज्ञान-नौकासे पार किया जाता है (६२) । रोग और पुनजन्म जिसके साथी हैं वह अन्क (यम) मनुष्यों को रुलाने - . वाला है; परन्तु मोह - विजयीके सन्मुख उसकी एक भी नहीं चलती (३) । आभूषणों, वेषों तथा आयुधोंका त्यागी और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय तथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हुए जो रूप है वह दोषोंके विनिग्रहका सूचक है (६४) । ध्यान - तेजसे आध्यात्मिक (ज्ञानावरणादिरूप भीतरी) अन्धकार दूर होता है । (५) । सर्वज्ञज्योति से उत्पन्न हुआ महिमोदय सभी विवेकी प्राणियोंको नतमस्तक करता है (६६) । सर्वज्ञकी वाणी सर्वभाषाओं में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए होता है और अमृत के समान प्राणियोंको सन्तुष्ट करती है (६७) । अनेकान्तदृष्टि सती है— सत्स्वरूप सच्ची है—और उसके विपरीत एकान्तदृष्टि शून्यरूप असती है - सच्ची नहीं है । अतः जो कथन अनेकान्तदृष्टि से रहित है वह सब मिथ्या कथन है; क्योंकि वह अपना ही -- सत् या असत् आदिरूप एकान्तका ही -- घातक है - अनेकान्तके विना एकान्तकी स्वरूप प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती (EC) | जो आत्मघाती एकान्तवादी अपने स्ववाति -दोषको दूर करनेमें असमर्थ हैं, स्याद्वादसे द्वेष रखते हैं और यथावत् वस्तुस्वरूपसे अनभिज्ञ हैं उन्होंने तत्त्वकी अवक्तव्यताको आश्रित Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચૂંટ स्वयम्भू स्तोत्र किया है— वस्तुतत्त्व सर्वथा अवक्तव्य है ऐसा प्रतिपादन किया है (१००) । सत्, असत् . एक, अनेक, नित्य, अनित्य, वक्तव्य और अवक्तव्यरूप में जो नयपक्ष हैं वे सर्वथ रूपमें तो अतिंदूषित हैं - मिध्यानय है - स्वष्टमें बाधक हैं और स्यात् रूप में पुष्टिको प्राप्त होते हैं- सम्यकव्य हैं अर्थात् स्वकीय अर्थका निर्बाध - रूपसे प्रतिपादन करने में समर्थ हैं (१०१) । 'स्यात् ' शब्द सर्वथारूपसे प्रतिपादन के नियमका त्यागी और यथाहटको - जिस प्रकार सत असत आदि रूपमें वस्तु प्रमाणप्रतिपन्न है उसको अपेक्षामें रखनेवाला है। यह शब्द एकान्तवादियोंके न्यायमें नहीं है । एकान्तवादी अपने वैरी आप हैं (१०२) । स्याद्वादरूप आईत मत में सम्यक एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी प्रमाण और नय-साधनों (दृष्टियों ) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है, प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्तरूप और विवक्षित-नयकी दृष्टिसे अनेकान्त में एकान्तरूप - प्रतिनियतधर्मरूप - सिद्ध होता है (१०३) । (१) प्रतिपादित धर्मतीर्थ संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंके लिये पार उतरनेका प्रधान मार्ग है ( १०६ ) । शुक्लध्यानरूप परमतपोग्नि ( परम्परासे चले आनेवाले ) अनन्त - दुरितरूप कर्माष्टकको भस्म करने के लिए समर्थ है (११०) । (२०) 'चर और अचर जगत प्रत्येक क्षणमे 'ध्रौव्य उत्पाद और व्यय - लक्षणोंको लिए हुए हैं ' यह वचन जिनेन्द्रकी सर्वज्ञताका चिह्न है ( ११४) । आठों पापमलरूप कलङ्कोंको ( जिन्होंने . जीवात्मा के वास्तविक स्वरूपको आच्छादित कर रक्खा है ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनुपम योगबलसे-परमशुक्लध्यानाग्निके तेजसे-भस्म किया जाता है और एसा करके ही अभव-सौख्यको-संसारमें न पाए जाने वाले अतीन्द्रिय मोक्ष-सुखको प्राप्त किया जाता है (११५)। . (२१) साधु स्तोताकी स्तुति कुशल-परिणामकी कारण होती है और उसके द्वारा श्रेयोमार्ग सुलभ होता है (११६) । परमात्मस्वरूप अथवा शुद्धात्मस्वरूपमें चित्तको एकाग्र करनेसे जन्मनिगडको समूल नष्ट किया जाता है (११७) । वस्तुतत्त्व बहुत नयोंकी विवक्षाके वशसे विधेय, प्रतिपेध्य, उभय, अनुभय तथा मिश्रभंग-विधेयानुभय, प्रतिषेध्यानुभय और उभयाऽनुभय-रूप है उसके अपरिमित विशेषों (धर्मो') मेंसे प्रत्येक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिए रहता है और सप्तभङ्गके नियमको अपना विषय किये रहता है (११८)। अहिंसा परमब्रह्म है । जिस आश्रमविधिमें अणुमात्र भी आरम्भ न हो वहीं अहिंसाकी पूर्णप्रतिष्ठा होती है-अन्यन्त्र नहीं। अहिंसा परमब्रह्मकी सिद्धि के लिए उभय प्रकारके परिग्रहका त्याग आवश्यक है। जो स्वाभाविक वेषको छोड़कर विकृतवेष तथा उपाधिमें रत होते है उनसे परिग्रहका वह त्याग नहीं बनता (११६) । मनुष्यके शरीरका इन्द्रियोंकी शान्तताको लिए हुए आभूषण, वेष तथा ( वस्त्र प्रावरणादिरूप) व्यवधानसे रहित अपने प्राकृतिक (दिगम्बर) रूपमें होना और · फलतः काम-क्रोधका पासमें न फटकना निर्मोही होनेका सूचक है और जो निर्मोही होता है वही शान्ति-सुखका स्थान होता है (१२०) । (२२) परमयोगरूप शुक्लध्यानाग्निसे कल्मषेन्धनको-ज्ञानावरणादिरूप- कर्मकाष्ठको-भस्म किया जाता है, उसके भस्म Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५६ स्वयम्भूस्तोत्र होते ही ज्ञानकी विपुल किरणें प्रकट होती हैं, जिनसे सकल जगतको प्रतिबुद्ध किया जाता है (१२१)। और ऐसा करके ही अनवद्य (निर्दोष ) विनय और दमरूप तीर्थका नायकत्व प्राप्त होता है (१२२)। केवलज्ञान-द्वारा अखिल विश्वको युगपत् करतलामलकवत् जानने में बाह्यकरण चक्षुरादिक इन्द्रियां और अन्तःकरण मन ये अलग अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो · कोई बाधा उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते हैं (१३०) (२३) जो योगनिष्ठ महामना होते हैं वे घोर उपद्रव आनेपर भी पार्श्वजिनके समान अपने उस योगसे चलायमान नहीं होते (१३१) । अपने योग (शुक्लध्यान ) रूप खड्गकी तीक्ष्णधारसे दुर्जय मोहशत्रुका घात करके वह आर्हन्त्यपद प्राप्त किया जाता है जो अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी पूजातिशयका स्थान है (१३३) । जो समग्रधी (सर्वज्ञ ) सच्ची विद्याओं तथा तपस्याओंका प्रणायक और मिथ्या दर्शनादिरूप कुमार्गो की दृष्टियोंसे उप्तन्न होने वाले विभ्रमोंका विनाशक होता है वह सदा वन्दनीय होता है (१३.)। ___ (२४) गुण-समुत्थ-कीर्ति शोभाका कारण होती है (१३६)। जिनेन्द्र-गुणोंमें जो अनुशासन प्राप्त करते हैं उन्हें अपने आत्मामें विकसित करनेके लिये आत्मीय दोषोंको दूर करनेका पूर्ण प्रयत्न करते हैं वे विगत-भव होते हैं-संसार परिभ्रमणसे सदाके लिए छूट जाते हैं । दोष चाबुककी तरह पीडनशील हैं (१३७)। 'स्यात्' शब्द-पुरस्सर कथनको लिए हुए जो 'स्याद्वाद' हैअनेकान्ता-त्मक प्रवचन है वह निर्दोष है; क्योंकि दृष्ट Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm (प्रत्यक्ष ) और इष्ट (आगमादिक ) प्रमाणोंके साथ उसका कोई विरोध नहीं है। 'स्यात्' शब्द-पूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं है क्योंकि दृष्ट और इष्ट दोनोंके विरोधको लिए हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं किन्तु अपने इष्ट अभिमतको भी बाधा पहुँचाता है और उसे किसी तरह भी सिद्ध एवं प्रमाणित करने में समर्थ नहीं होता (१३८)। वीरजिनेन्द्रका स्याद्वदरूप शासन (प्रवचन-तीर्थ) श्री- . सम्पन्न है-हेयोपादेय-तत्त्व-परिज्ञान-लक्षण-लक्ष्मीसे विभूषित है-निष्कपट यम (अहिंसादि महाप्रतोंके अनुष्ठान ) और दम ( इन्द्रिय-जय तथा कषाय-निग्रह ) की शिक्षाको लिए हुए है, नयोंके भङ्गरूप अथवा भक्तिरूप अलङ्कारोंसे अलंकृत है, यथार्थवादिता एवं परहित प्रतिहादनतादिक बहुगुण-सम्पत्ति से युक्त है: पूर्ण है और सब ओरसे भद्ररूप है-कल्याणकारी है (१४१, . (१४३)। तत्त्वज्ञान-विषयक ज्ञानयोगकी इन सब बातोंके अलावा २४ स्तवनों में तीर्थङ्कर अर्हन्तोंके गुणोंका जो परिचय पाया जाता है और जिसे प्राय: अर्हद्विशेषण-पदोंमें समाविष्ट किया गया है वह सब भी ज्ञानयोगसे सन्बन्ध रखता है। उन अहँद्गुणोंका तात्त्विक परिचय प्राप्त करना, उन्हें आत्मगुण समझना और अपने आत्मामें उनके विकासको शक्य जानना यह सब ज्ञानाभ्यास भी ज्ञानयोगसे भिन्न नहीं है। भक्तियोग-द्वारा उन गुणोंमें अनुराग बढाया जाता है और उनकी सम्प्राप्तिकी रुचि एवं इच्छाको अपने आत्मामें एक पूर्ण आदर्शको सामने रखकर जागृत और पुष्ट किया जाता है । यही दोनोंमें भेद है। ज्ञान और Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इच्छाके बाद जब प्रयत्न चलता है और तदनुकूल आचरणादिके द्वारा उन गुणोंको आत्मामें विकसित किया जाता है तो वह कर्मयोगका विषय बन जाता है। - इस प्रकार ग्रन्थगत चौवीस स्तवनों में अलग-अलग रूपसे जो ज्ञानयोग-विषयक तत्त्वज्ञान भरा हुआ है वह सब अहंदगुणोंकी तरह वीरजिनेन्द्रका तत्त्वज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए। वीरवाणीमें ही वह प्रकट हुआ है और वीरका ही प्रवचनतीर्थ इस समय प्रवर्तित है। इससे वीर-शासन और वीरके तत्वज्ञानकी कितनी ही सार बातोंका परिचय सामने आजाता है, जिनसे उनकी महत्ताको भले प्रकार आँका जा सकता है, साथ ही आत्मविकासकी तय्यारीके लिए एक समुचित आधार भी मिलजाता है। ____ वस्तुतः ज्ञानयोग अक्तियोग और कर्मयोग दोनोंमें सहायक है और सामान्य-विशेषादिकी दृष्टिसे कभी उनका साधक होता है तो कभी उनके द्वारा साध्य भी बन जाता है। जैसे सामान्यज्ञानसे भक्तियोगादिक यदि प्रारम्भ होता है तो विशेषज्ञानका उनके द्वारा . उपार्जन भी किया जाता है। ऐसी ही स्थिति दूसरे योगोंकी है, और इसीसे एकको दूसरे योगके साथ सम्बन्धित बतलाया गया है-मुख्य-गौणकी व्यस्थासे ही उनका व्यवहार चलता है । एक योग जिस समय मुख्य होता है उस समय दूसरे योग गौण होते हैं-उन्हें सर्वथा छोड़ा नहीं जाता। तीनोंके पस्पर सहयोगसे ही आत्माका पूर्ण विकास सधता अथवा सिद्ध होता है। -कम-योग " मन-वचन-काय-सम्बन्धी जिस क्रियाकी प्रवृत्ति अथवा. निवृत्तिसे आत्म-विकास सधता है उसके लिये तदनुरूप जो भी पुरुषार्थ किया जाता है, उसे 'कर्मयोग' कहते हैं। और इसलिये Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५ - कर्मयोग दो प्रकारका है- - एक क्रियाकी निवृत्तिरूप पुरुषार्थको लिये हुए और दूसरा क्रियाकी प्रवृत्तिरूप पुरुषार्थको लिये हुए । 'निवृत्ति प्रधान कर्मयोग में मन-वचन-कायमेंसे किसी की भी क्रियाका, तीनोंकी क्रियाका अथवा अशुभ क्रियांका निरोध होता है । और प्रवृत्तिप्रधान कर्मयोग में शुभ कर्मों में त्रियोग - क्रियाकी प्रवृत्ति होती है - अशुभ नहीं; क्योंकि अशुभ कर्म विकास में साधक न होकर बाधक होते हैं । राग-द्वेषादिसे रहित शुद्धभावरूप प्रवृत्ति भी इसके अन्तर्गत है । सच पूछिये तो प्रवृत्ति विना निवृत्तिके और निवृत्तिविना प्रवृत्तिके होती ही नहीं - एकका दूसरेके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । दोनों मुख्य गौणकी व्यवस्थाको लिये हुए हैं । निवृत्तियोग में प्रवृत्तिकी और प्रवृत्तियोग में निवृत्तिकी गौरता है । सर्वथा प्रवृत्ति या सर्वथा निवृत्तिका एकान्त नहीं बनता । और इसलिये ज्ञानयोग में जो बातें किसी-न-किसी रूपसे विधेय ठहराई गई हैं, उचित तथा आवश्यक बतलाई गई. हैं अथवा जिनका किसी भी तीर्थङ्करके द्वारा स्व-विकास के लिये किया जाना विहित हुआ है उन सबका विधान एवं अनुष्ठान कर्मयोग में गर्भित है । इसी तरह जिन बातोंको दोषादिक के रूप में बतलाया गया है, अविधेय तथा अकरणीय सूचित किया गया है अथवा किसी भी तीर्थङ्कर के द्वारा जिनका छोड़ना-तजना या उनसे विरक्ति धारण करना आदि कहा गया है उन सबका त्याग एवं परिहार भी कर्मयोग में दाखिल ( शामिल ) है । और इसलिये कर्मयोग-सम्बन्धी उन सब बातोंको पूर्वोल्लिखित ज्ञानयोगसे ही जान लेना और समझ लेना चाहिये । उदाहरण के तौरपर प्रथम - जिन स्तवन के ज्ञानयोग में ममत्वसे विरक्त होना, वधू - वित्तादि परिग्रहका त्याग करके जिन दोक्षा लेना, उपसर्गपरीषहों का समभाव से सहना और सद्व्रत - नियमोंसे चलायमान Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६० स्वयम्भूस्तोत्र न होना-जैसी जिन बातोंको पूर्ण विकासके लिये आवश्यक बतलाया गया है उनका और उनकी इस आवश्यकताका परिज्ञान ज्ञानयोगसे सम्बन्ध रखता है; और उनपर अमल करना तथा उन्हें अपने जीवनमें उतारना यह कर्मयोगका विषय है। साथ ही, 'अपने दोषोंके मूलकारणको अपने ही समाधितेजसे भस्म . किया जाता है' यह जो विधिवाक्य दिया गया है इसके मर्मको समझना, इसमें उल्लिखिंत दोषों, उनके मूलकारणों, समाधितेज और उसकी प्रक्रियाको मालूम करके अनुभवमें लाना, यह सब ज्ञानयोगका विषय है और उन दोषों तथा उनके कारणोंको उस प्रकारसे भस्म करनेका जो प्रयत्न, अमल अथवा अनुष्ठान है वह सब कर्मयोग है। इसी तरह अन्य स्तवनोंके ज्ञानयोगमेंसे भी कर्मयोग-सम्बन्धी बातोंका विश्लेषण करके उन्हें अलगसे समझ लेना चाहिये, और यह बहुत कुछ सुख-साध्य है। इसीसे उन्हें फिरसे यहां देकर प्रस्तावनाको विस्तार देनेकी जरूरत नहीं समझी गई। हाँ, स्तवन-कर्मको छोड़कर, कर्मयोगका उसके आदि-मध्य और अन्तकी दृष्टिसे एक संक्षिप्त सार यहां दे देना उचित जान पड़ता है और वह पाठकोंके लिए विशेष हितकर तथा रुचिकर होगा। अतः सारे ग्रन्थका दोहन एवं मथन करके उसे देनेका आगे प्रयत्न किया जाता है। ग्रन्थके स्थलोंकी यथावश्यक सूचना ब्रेकटके भीतर पद्याङ्कोंमें रहेगी। कर्मयोगका आदि-मध्य और अन्त कर्मयोगका चरम लक्ष्य है आत्माका पूर्णतः विकास । आत्माके इस पूर्ण विकासको ग्रन्थमें-ब्रह्मपदप्राप्ति (४), ब्रह्म-. निष्टावस्था, आत्मलक्ष्मीको लब्धि, जिनश्री तथा आर्हन्त्यलक्ष्मी. की प्राप्ति (१०, ७८), आहन्त्य-पदावाप्ति (१३३), आत्यन्तिक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना स्वास्थ्य = स्वात्मस्थिति (३१), आत्म-विशुद्धि (४८), कैवल्योपलब्धि (५५), मुक्ति, विमुक्ति (२७), निवृति (५०.६८), मोक्ष (६०, ७३, ११७), श्रायस (११६), श्रेयस (५१, ७५), निःश्रेयस (५०), निरंजना शान्ति (१२), उच्च शिवताति (१५), शाश्वतशर्मावाप्ति (७१), भवक्लेश-भयोपशान्ति (८०) और भवोपशान्ति तथा अभव-सौख्य-संप्राप्ति (११५), जैसे पद-वाक्यों अथवा नामोंके द्वारा उल्लिखित किया है। इनमेंसे कुछ नाम तो शुद्धस्वरूपमें स्थितिपरक अथवा प्रवृत्तिपरक हैं, कुछ पररूपसे निवृत्तिके द्योतक हैं और कुछ उस विकासावस्थामें होनेवाले परम शान्ति-सुखके सूचक है। 'जिनश्री' पद उपमालंकारकी दृष्टिसे 'आत्मलक्ष्मी' का ही वाचक है; क्योंकि घातिकर्ममलसे रहित शुद्धात्माको अथवा आत्मलक्ष्मीके सातिशय विकासको प्राप्त आत्माको ही 'जिन' कहते हैं। जिनश्री' का ही दूसरा नाम 'निजश्री" है। 'जिन' और अर्हत् पद समानार्थक होनेसे आर्हन्त्यलक्ष्मीपद भी आत्मलक्ष्मीका ही वाचक है। इसी स्वात्मोपलब्धिको पूज्यपाद आचार्यने, सिद्धभक्तिमें, 'सिद्धि' के नामसे उल्लेखित किया है। अपने शुद्धस्वरूपमें स्थितिरूप यह आत्माका विकास ही मनुष्योंका स्वार्थ है-असली स्वप्रयोजन है-क्षणभंगुरभोगइन्द्रिय-विषयोंका सेवन-उनका स्वार्थ नहीं है; जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है १ स्तुतिविद्या के पार्श्वजिन-स्तवनमें 'पुरुनिजश्रियं' पदके द्वारा इसी नामका उल्लेख किया गया है। २ “सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादि-दोषापहारात्।" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र स्वास्थ्यं यदात्यान्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा तृषोऽनुषंगान्न च तापशान्ति रितीदमाख्यद्भगवान्सुपाश्वः ॥३१॥ और इसलिये इन्द्रिय विषयोंको भोगनेके लिये उनसे तृप्ति . प्राप्त करने के लिये-जो भी पुरुषार्थ किया जाता है वह इस ग्रन्थके कर्मयोगका विषय नहीं है। उक्त वाक्यमें ही इन भोगोंको उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगाकांक्षाकी-वृद्धिके कारण बतलाया है, जिससे शारीरिक तथा मानसिक तापकी शान्ति होने नहीं पाती। अन्यत्र भी ग्रन्थमें इन्हें तृष्णाकी अभिवृद्धि एवं दुःखसंतापके कारण बतलाया है तथा यह भी बतलाया है कि इन विषयोंमें आसक्ति होनेसे मनुष्योंकी सुखपूर्वक स्थिति नहीं बनती और न देह अथवा देही (आत्मा) का कोई उपकार ही बनता है (१३, १८, २०, ३१, ८२)। मनुष्य प्रायः विषय सुखकी तृष्णाके वश हुए दिनभर श्रमसे पीड़ित रहते हैं और रातको सो जाते हैं-उन्हें आत्महितकी कोई सुधि ही नहीं रहती (४८)। उनका मन विषय-सुखकी अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूर्छितजैसा हो जाता है (४७)। इस तरह इन्द्रिय-विषयको हेय बतलाकर उनमें आसक्तिका निषेध किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उस कर्मयोगके विषय ही नहीं जिसका चरम लक्ष्य है आत्माका । पूर्णतः विकास:। . . . . . पूर्णतः आत्मविकासके अभिव्यञ्जक 'जो नाम ऊपर दिये हैं . उनमें मुक्ति और मोक्ष में दो नाम अधिक लोकप्रसिद्ध हैं और दोनों बन्धनसे छूटनेके एक ही आशयको लिये हुए हैं। मुक्ति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ~~.......www.www.c......~~~~........... ............. अथवा मोक्षका जो इच्छुक है उसे 'मुमुक्षु' कहते हैं । मुमुक्षु होनेसे कर्मयोगका प्रारम्भ होता है-यही कर्मयोगकी आदि अथवा पहली सीढ़ी है। मुमुक्षु बननेसे पहले उस मोक्षका जिसे प्राप्त करनेकी इच्छा हृदयमें जागृत हुई है, उस बन्धनका जिससे छूटनेका नाम मोक्ष है, उस वस्तु या वस्तु-समूहका जिससे बन्धन बना है, बन्धन के कारणोंका, बन्धन जिसके साथ लगा है उस जीवात्माका, बन्धनसे छूटनेके उपायोंका और बन्धनसे छूटनेमें जो लाभ है उसका अर्थात् मोक्षफलका सामान्य ज्ञान होना अनिवार्य है-उस ज्ञान के बिना कोई मुमुक्षु बन ही नहींसकता। यह ज्ञान जितना यथार्थ विस्तृत एवं निर्मल होगा अथवा होता जायगा और उसके अनुसार बन्धनसे छूटने के समीचीन उपायोंको जितना अधिक तत्परता और सावधानीके साथ काममें लाया जायगा उतना ही अधिक कर्मयोग सफल होगा, इसमें विवादके लिये कोई स्थान नहीं है। बन्ध, मोक्ष तथा दोनों के कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल इन सब बातोंका ' कथन यद्यपि अनेक मतोंमें पाया जाता है परन्तु इनकी समुचित व्यवस्था स्याद्वादी अर्हन्तोंके मतमें ही ठीक बैठती है, जो अनेकान्तदृष्टिको लिये होता है। सर्वथा एकान्तदृष्टिको लिये हुए नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्वादि एकान्तपक्षोंके प्रतिपादक जो भी मत हैं.' उनमेंसे किसीमें भी इनकी समुचित व्यवस्था नहीं बनती। इसी बातको ग्रन्थकी निम्न कारिक में व्यक्त किया गया है बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्चहेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ६४ स्वयम्भूस्तोत्र स्याद्वादिनो नाथ ! तव व युक्तं नैकान्तदृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥१४॥ और यह बात बिल्कुल ठीक है। इसको विशेष रूपमें सुमति-जिन आदिके स्तवनों में पाये जानेवाले तत्त्वज्ञानसे, जिसे ऊपर ज्ञानयोगमें उद्धृत किया गया है, और स्वामी समन्तभद्रके देवागम तथा युक्त्यनुशासन-जैसे ग्रन्थोंके अध्ययनसे और दूसरे भी जैनागमोंके स्वाध्यायसे भले प्रकार अनुभूत किया जा सकता - है । अस्तु। प्रस्तुत ग्रन्थमें बन्धनको 'अचेतनकृत' (१७) बतलाया है और उस अचेतनको जिससे चेतन ( जीव ) बँधा है 'कर्म' (७१, ८४) कहा है, 'कृतान्त' (७६) नाम भी दिया है और दुरित ( १०५, ११०), दुरिताञ्जन (५७), दुरितमल (११५), कल्मष (१२१) तथा 'दोषमूल' (४) जैसे नामोंसे भी उल्लेखित किया है। वह कर्म अथवा दुरितमल आठ प्रकारका (११५) है-आठ उसको मूल प्रकृतियाँ हैं, जिनके नाम हैं-१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय ( मोह ), ४ अन्तराय, ५ वेदनीय, ६ नाम, ७ गोत्र, ८ आयु। इनमेंसे प्रथम चार प्रकृतियाँ कटुक (८४) हैं-बड़ी ही कड़वी हैं, आत्माके स्वरूपको घात करनेवाली हैं और इसलिये उन्हें घातिया' कहा जाता है, शेष चार प्रकृतियां 'अघातिया' कहलाती हैं। इन आठों जड़ कर्ममलोंके अनादि सम्बन्धसे यह जीवात्मा मलिन, अपवित्र, कलंकित, विकृत और स्वभावसे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है; अज्ञान, अहंकार, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभादिक , असंख्य-अनन्त दोषोंका क्रीडास्थल बना हुआ है, जो तरह तरहके नाच नचा रहे हैं; और इन दोषोंके नित्यके ताण्डव एवं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू स्तोत्र स्त्र- दोष- मूलं स्व-समाधि- तेजसा निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् (४) । कर्म-कक्षमदत्तपोऽग्निभिः (७१) । ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम् (७९) । यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निर्थ्यानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् (११० ) । परमयोग - दहन - हुत- कल्मषेन्धनः (१२१ ) यह योगाग्नि क्या वस्तु है ? इसका उत्तर ग्रन्थके निम्न वाक्यपरसे ही यह फलित होता है कि योग वह सातिशय अग्नि है जो त्नत्रयकी एकाग्रता के योगसे सम्पन्न होती है और जिसमें सबसे पहले कर्मों की कटुक प्रकृतियों की आहुति दी जाती है. " ૬૬ हुत्वा स्व-कम-कुटुक प्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयातिशय- तेजसि - जात - वीर्यः । ( ८४ ) 'रत्नत्रय' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको कहते हैं; जैसा कि स्वमी समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थसे प्रकट है । इस ग्रन्थ में भी उसके तीनों अङ्गका उल्लेख है और वह "समाधि चक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जय मोह - चक्रम (७७) । ” "स्त्र - योग - निस्त्रिंश - निशात धारया निशात्य यो दुर्जय मोह - विद्विषम् (१३३) " एक स्थानपर समाधिको कर्मरोग-निर्मूलन के लिये 'भैषज्य' (अमोघ - औषधि) की भी उपमा दी गई है'विशेषणं मन्मथ-दुर्मंदाऽऽमयं समाधि भैषज्य-गुणैर्व्यलीनयत् (६७)' Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६७. दृष्टि, संवित् एवं उपेक्षा-जैसे शब्दोंके द्वारा किया गया है (६०)', जिनका आशय सम्यग्दर्शनादिकसे ही है। इन तीनोंकी एकाग्रता जब आत्माकी ओर होती है-आत्माका ही दर्शन, आत्माका ही ज्ञान, आत्मामें ही रमण होने लगता है और परमें आसक्ति छूटकर उपेक्षाभाव आजाता है तब यह अग्नि सातिशयरूपमें प्रज्वलित हो उठती है और कर्म-प्रकृतियोंको सविशेषरूपसे भस्म, करने लगती हैं । यह भस्म-क्रिया इन त्रिरत्न किरणोंकी एकाग्रतासे उसी प्रकार सम्पन्न होती है जिस प्रकार कि सूर्यरश्मियोंको शीशे या काँच-विशेष में एकाग्र कर शरीरके किसी अङ्ग अथवा वस्त्रादिक पर डाला जाता है तो उनसे वह अङ्गादिक जलने लगता है । सचमुच एकाग्रतामें बड़ी शक्ति है । इधर-उधर बिखरी हुई तथा भिन्नाग्रमुख शक्तियां वह काम नहीं देतीं जा कि एकत्र और एकाग्र (एकमुख ) होकर देती हैं। चिन्ताके एकाग्रनिरोधका नाम ही ध्यान तथा समाधि है। आत्म-विषयमें यह चिन्ता जितनी एकाग्र होती जाती है सिद्धि अथवा स्वात्मोपलब्धि भी उतनी ही समोप आती जाती है। जिस समय इस एकाग्रतासे सम्पन्न एवं प्रज्वलित योगानलमें कर्मो की चारों मूल कटुक प्रकृतियाँ अपनी उत्तर और उत्तरोत्तर शाखा-प्रकृतियोंके साथ भस्म हो जाती हैं अथवा यों कहिए कि सारा घाति-कर्ममल जलकर आत्मासे अलग हो जाता है उस समय आत्मा जातवीर्य (परम-शक्तिसम्पन्न ) होता है-उसकी अनन्त दर्शन, अनन्त ५ 'दृष्टि-संविदुपेक्षाऽस्त्रैस्त्वया धीर पराजितः' इस वाक्यके द्वारा इन्हें 'अस्त्र' भी लिखा है, जो आग्नेयास्त्र हो सकते हैं अथवा कर्मछेदनकी शक्तिसे सम्पन्न होनेके कारण खड्गादि जैसे अायुध भी हो सकते हैं। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र ज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य नामकी चारों शक्तियां पूर्णतः विकसित हो जाती हैं और सबको देखने-जाननेके साथ साथ पूर्ण-सुख-शान्तिका अनुभव होने लगता है। ये शक्तियाँ ही आत्माकी श्री हैं, लक्ष्मी हैं, शोभा हैं। और यह विकास उसी प्रकारका होता है जिस प्रकारका कि सुवर्ण-पाषाणसे सुवर्णका होता है। पाषाण-स्थित सुवर्ण जिस तरह अग्नि-प्रयोगादिके योग्य साधनोंको पाकर किट-कालिमादि पाषाणमलसे अलग होता हुआ अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है - उसी तरह यह संसारी जीव उक्त कर्ममलके भस्म होकर पृथक होजानेपर अपने शुद्धात्मस्वरूपमें परिणत हो जाता है। घातिकर्ममलके अभावके साथ प्रादुर्भूत होनेवाले इस विकासका नाम ही 'आर्हन्त्यपद' है जो बड़ा ही अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी पूजाके अतिशय (परमप्रकर्ष ) का स्थान है (१३३) । इसीको जिनपद, कैवल्यपद तथा ब्रह्मपदादि नामोंसे उल्लेखित किया जाता है। ब्रह्मपद आत्माकी परम-विशुद्ध अवस्थाके मिवा दुसरी कोई चीज़ नहीं है। स्वामी समन्तभद्रने प्रस्तुत ग्रन्थमें 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं' (११६) इस वाक्यके द्वारा अहिंसाको 'परमब्रह्म' बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि अहिंसा आत्मामें राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकी निवृत्ति अथवा . १ सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुण-गुणगणोच्छादिदोषापहारात् । योग्योपादान-युक्त्या दृषद् इह यथा हेमभावोपलब्धिः ॥१॥ -पूज्यपाद-सिद्धभक्ति Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.४० अप्रादुभूतिको कहते हैं । जब आत्मामें रागादि-दोषोंका समूलनाश होकर उसकी विभाव-परिणति मिट जाती है और अपने शुद्धस्वरूपमें चर्या होने लगती है तभी उसमें अहिंसाकी पूर्णप्रतिष्ठा कही जाती है, और इसलिये शुद्धात्म-चर्यारूप अहिसा ही परमब्रह्म है-किसी व्यक्ति विशेषका नाम ब्रह्म तथा परमब्रह्म नहीं है । इसीसे जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह आत्मलक्ष्मीकी सम्प्राप्तिके साथ साथ 'सम-मित्र-शत्रु' होता तथा 'कषाय-दोषोंसे रहित होता है; जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है:सब्रह्मनिष्ठः सम-मित्र-शत्रु-विद्या-विनिर्वान्त-कपायदोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिनश्रियं मे भगवान्निधत्ताम्।। ___ यहाँ ब्रह्मनिष्ठ अजित भगवानसे 'जिनश्री'की जो प्रार्थना की गई है उससे स्पष्ट है कि 'ब्रह्म' और 'जिन' एक ही हैं, और इसलिये जो 'जिनश्री' है वही 'ब्रह्मश्री' है-दोनोंमें तात्त्विकदृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है। यदि अन्तर होता तो ब्रह्मनिष्ठसे ब्रह्मनीकी प्रार्थना की जाती, न कि जिनश्रीकी । अन्यत्र भी, वृषभतीर्थङ्करके स्तवन (४) में जहां 'ब्रह्मपद' का उल्लेख है वहां उसे 'जिनपद' के अभिप्रायसे सर्वथा भिन्न न समझना चाहिये । वहां अगले ही पद्य (५) में उन्हें स्पष्टतया 'जिन' रूपसे उल्लेखित भी किया है। दोनों पदोंमें थोड़ासा दृष्टिभेद है-'जिन' • पद कर्मके निषेधकी दृष्टिको लिये हुए है और 'ब्रह्म' पद स्वरूपमें अवस्थिति अथवा प्रवृत्तिकी दृष्टिको प्रधान किये हुए १. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिन्सेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४॥ पुरुषार्थसिद्धथ पाय, अमृतचन्द्रः। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तात्र है । कर्मके निषेधविना स्वरूपमें प्रवृत्ति नहीं बनती और स्वरूपमें प्रवृत्तिके विना कर्मका निषेध कोई अर्थ नहीं रखता। विधि और निषेध दोनोंमें परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है-एकके विना दुसरेका अस्तित्व ही नहीं बनता, यह बात प्रस्तुत ग्रन्थमें खूब स्पष्ट करके समझाई गई है । अतः संज्ञा अथवा शब्द-भेदके कारण सर्वथा भेदकी कल्पना करना न्याय-संगत नहीं है । अस्तु । जब घाति-कर्ममल जलकर अथवा शक्तिहीन होकर आत्मासे बिल्कुल अलग हो जाता है तब शेष रहे चारों अघातियाकर्म, जो पहले ही आत्माके स्वरूपको घातनेमें समर्थ नहीं थे, पृष्ठबलके न रहनेपर और भी अधिक आघातिया हो जाते एवं निर्बल पड़ जाते हैं और विकसित आत्माके सुखोपभोग एव ज्ञानादिककी प्रवृत्तिमें जरा भी अडचन नहीं डालते । उनके द्वारा निर्मित, स्थित और संचालित शरीर भी अपने बाह्यकरणस्पर्शनादिक इन्द्रियों और अन्तःकरण-मनके साथ उसमें कोई बाधा उपस्थिन नहीं करता और न अपने उभयकरणोंके द्वारा कोई उपकार ही सम्पन्न करता है। उन अघातिया प्रकृतियोंका नाश उसी पर्यायमें अवश्यंभावी होता है-आयुकर्मकी स्थिति पूरी होते होते अथवा पूरी होनेके साथ साथ ही वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मकी प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती हैं अथवा योग-निरोधादिके द्वारा सहजमें ही नष्ट कर दी जाती हैं। और इसलिये जो घातियाकर्म प्रकृतियोंका नाश कर आत्मलक्ष्मीको प्राप्त , होता है उसका आत्मविकास प्रायः पूरा ही हो जाता है, वह १. जैसाकि ग्रन्थगत स्वामीसमन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट हैबहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽथकृत । नाथ ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिथ ॥१२६। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७१. शरीर-सम्बन्धको छोड़कर अन्य सब प्रकारसे मुक्त होता है और इसीसे उसे 'जीवन्मुक्त' या 'सदेहमुक्त' कहते हैं-'सकल परमात्मा' भी उसका नाम इसी शारीरिक दृष्टिको लेकर है। उसके उसी भावसे मोक्ष प्राप्त करना. विदेहमुक्त होना और निष्कल परमात्मा बनना असन्दिग्ध तथा अनिवार्य हो जाता है-उसकी इस सिद्ध पद-प्राप्तिको फिर कोई रोक नहीं सकता । ऐसी स्थितिमें यह स्पष्ट है कि घाति-कर्ममलको आत्मासे सदाके लिये पृथक कर देना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है और इस लिये । कर्मयोगमें सबसे अधिक महत्त्व इसीको प्राप्त है । इसके बाद जिस अन्तिम समाधि अथवा शुक्लध्यानके द्वारा अवशिष्ट अघातिया कर्मप्रकृतियोंका मूलतः विनाश किया जाता है और सकलकर्मसे विमुक्तिरूप मोक्षपदको प्राप्त किया जाता है उसके साथ ही कर्मयोगकी समाप्ति हो जाती है और इसलिए उक्त अन्तिम समाधि ही कर्मयोगका अन्त है, जिसका प्रारम्भ 'ममुक्षु' बननेके साथ साथ होता है । __ अब कर्मयोगके 'मध्य' पर विचार करना है, जिसके श्राश्रयविना कर्मयोगकी अन्तिम तथा अन्तसे पूर्वकी अवस्थाको कोई अवसर ही नहीं मिल सकता और न आत्माका उक्त विकास ही सध सकता है। ___मोक्ष-प्राप्तिकी सदिच्छाको लेकर जब कोई सच्चा मुमुक्षु बनता है तब उसमें बन्धके कारणोंके प्रति अरुचिका होना स्वाभाविक हो जाता है। मोक्षप्राप्तिकी इच्छा जितनी तीव्र होगी बन्ध तथा बन्ध-कारणोंके प्रति अरुचि भी उसकी उतनी ही बढ़ती जायगी और वह बन्धनोंको तोडने, कम करने, घटाने एवं बन्ध कारणोंको मिटानेके समुचित प्रयत्नमें लग जायगा, यह भी स्वाभाविक है। सब से बड़ा बत्धन और दूसर बन्धनोंका प्रधान कारण 'मोह' Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ . स्वयम्भूस्तोत्र है। इस मोहका बहुत बड़ा परिवार है। दृष्टि-विकार (मिथ्यात्व), ममकार. अहंकार. राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, और घृणा (जुगुप्सा) ये सब उस परिवार के प्रमुख अंग है अथवा मोहके परिणाम-विशेष है, जिनके उत्तरोत्तर भेद तथा प्रकार असंख्य हैं । इन्हें अन्तरंग तथा आभ्यन्तर परिग्रह भी कहते हैं। इन्होंने भीतरसे जीवात्माको पकड़ तथा जकड़ रक्खा है । ये ग्रहकी तरह उसे चिपटे हुए हैं और अनन्त दोषों, विकारों एवं आपदाओंका कारण बने हुए हैं। इसीसे ग्रन्थमें मोहको अनन्त दोषोंका घर बतलाते हुए उस ग्राहकी उपमा दी गई हैं जो चिरकालसे आत्माके साथ संलग्न हैचिपटा हुआ है । साथ ही उसे वह पापी शत्रु बतलाया है जिसके क्रोधादि कषाय सुभट हैं (६५)। इस मोहसे पिण्ड छुडाने के लिये उसके अंगोंको जैसे तैसे भंग करना, उन्हें निर्बलकमजोर बनाना, उनकी आज्ञा न चलना अथवा उनके अनुकुल परिणमन न करना ज़रूरी है। सबसे पहले दृष्टिविकारको दूर करने की जरूरत है। यह महाबन्धन है, सर्वोपरि बन्धन है और इसके नीचे दूरे बन्धन छिपे रहते हैं । दृष्टिविकारकी मौजूदगीमें यथार्थ वस्तुतत्त्वका परिज्ञान ही नहीं हो पाता-बन्धन बन्धनरूपमें नज़र नहीं आता और न शत्र शत्रुके रूपमें दिखाई देता है। नतीजा यह होता है कि हम बन्धनको बन्धन न समझ कर उसे अपनाए रहते हैं, शत्रुको मित्र मानकर उसकी आज्ञामें चलते रहते हैं और हानिकरको हितकर समझनेकी भूल करके निरन्तर दुःखों तथा कष्टोंके चक्कर में पड़े रहते हैं-कभी निराकुल एवं सच्चे शान्तिसुखके उपभोक्ता नहीं हो पाते । इस दृष्टि-विकारको दूर १ अनन्त दोषाशय-विग्रहो ग्रहो विषंगवान्मोहमयश्चिरं हृदि (६६) । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. AAAM प्रस्तावना www...mor...nxxx. करनेके लिये 'अनेकान्त' का आश्रय लेना परम आवश्यक है। अनेकान्त ही इस महारोगकी अमोघ औषधि है। अनेकान्त ही इस दृष्टिविकारके जनक तिमिर-जालको छेदनेकी पैनी छैनी है। जब दृष्टिमें अनेकान्त समाता है-अनेकान्तमय अंजनादिक अपना काम करता है तब सब कुछ ठीक ठीक नज़र आने लगता है। दृष्टिमें अनेकान्तके संस्कार विना जो कुछ नज़र आता है वह सब प्रायः मिथ्या, भ्रमरूप तथा अवास्तविक होता है। इसीसे प्रस्तुत ग्रन्थमें दृष्टिविकारको मिटानेके लिये अनेकान्तकी खास तौरसे योजना की गई है-उसके स्वरूपादिकको स्पष्ट करके बतलाया गया है, जिससे उसके ग्रहण तथा उपयोगादिकमें सुविधा हो सके । साथ ही, यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिस दृष्टिका आत्मा अनेकान्त है-जो दृष्टि अनेकान्तसे संस्कारित अथवा युक्त है-बह सती संच्ची अथवा समीचीन दृष्टि है, उसीके द्वारा सत्यका दर्शन होता है, और जो दृष्टि अनेकन्तात्मक न हो कर सर्वथा एकान्तात्मक है वह असती झूठी अथवा मिथ्यादृष्टि है और इसलिये उसके द्वारा सत्यका दर्शन न होकर असत्यका ही दर्शन होता है। वस्तुतत्त्वके अनेकान्तात्मक होनेसे अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूपप्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती। अतः सबसे पहले दृष्टिविकारपर प्रहार कर उसका सुधार करना चाहिये और तदनन्तर मोहके दूसरे अंगोंपर, जिन्हें दृष्टि-विकारके कारण अभी तक अपना सगा समझकर अपना रक्खा था, प्रतिपक्ष भावनाओं के बलपर अधिकार करना चाहिये-उनसे शत्रु जैसा व्यवहार कर १ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व सृपोक्तं स्यान्तदयुक्तं स्वघाततः ।।८।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबहुत स्वयम्भूस्तोत्र उन्हें अपने आत्मनगरसे निकाल बाहर करना चाहिये अथवा यों कहिये कि क्रोधादिरूप न परिणमनेका दृढ संकल्प करके उनके बहिष्कारका प्रयत्न करना चाहिये । इसीको अन्तरंग परिग्रहका त्याग कहते हैं । अन्तरंग परिग्रहको जिसके द्वारा पोषण मिलता है वह बाह्य परिग्रह है और उसमें संसार की सभी कुछ सम्पत्ति और विभूति शामिल है। इस बाह्य सम्पत्ति एवं विभूतिके सम्पर्क अधिक रहने से रागादिक की उत्पत्ति होती है, ममत्व - परिणामको अवसर मिलता है, रक्षण वर्द्धन और विघटनादि-सम्बन्धी अनेक प्रकारकी चिन्ताएँ तथा आकुलताएँ घेरे रहती हैं. भय बना रहता है, जिन सबके प्रतिकार में काफी शक्ति लगानी पड़ती है तथा आरम्भ जैसे सावद्य कर्म करने पड़ते हैं और इस तरह उक्त सम्पत्ति एवं विभूतिका मोह बढ़ता रहता है । इसीसे इस सम्पत्ति एवं विभूतिको बाह्य परिग्रह कहा गया है । मोहके बढ़नेका निमित्त होनेसे इन बाह्य पदार्थोंके साथ अधिक सम्पर्क नहीं बढ़ाना चाहिये, आवश्यकता से अधिक इनका संचय नहीं करना चाहिये । आवश्यकताओं को भी बराबर घटाते रहना चाहिये। आवश्यकताओंकी वृद्धि बन्धनोंकी ही वृद्धि है ऐसा समझना चाहिये और वश्कतानुसार जिन बाह्य चेतन-अचेतन पदार्थोंके साथ सम्पर्क रखना पड़े उनमें भी आसक्तिका भाव तथा ममत्व-परिगाम नहीं रखना चाहिये । यही सब बाह्य परिग्रहका एकदेश और सर्वदेश त्याग है । एकदेश त्याग गृहस्थियोंके लिये और सर्वदेश त्याग मुनियोंके लिये होता है । इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंके पूर्ण त्याग विना वह समाधि नहीं बनती जिसमें चारों घातिया कर्मप्रकृतियों को भस्म किया C 2 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७५ जाता है और न उस अहिंसाकी सिद्धि ही होती है जिसे 'परमब्रह्म' बतलाया गया है। अतः समाधि और अहिंसा परमब्रह्म दोनोंकी मिद्धिक लिये-दोनों प्रकारके परिग्रहोंका. जिन्हें 'ग्रन्थ' नामसे उल्लेखित किया जाता है. त्याग करके नैर्ग्रन्थ्य-गुण अथवा अपरिग्रह-व्रतको अपनानेकी बड़ी जरूरत होती है। इसी भावको निम्न दो कारिकाओं में व्यक्त किया गया है- .. गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्दयावधूं क्षान्तिसखीमशिश्रियत्। . समाधितंत्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नैनन्थ्यगुणेन चाऽयुजत् ।।१६।। अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । १ इसी बातको लेकर विप्रवंशाग्रणी श्रीपात्रकेशरी स्वामीने, जो स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम'को प्राप्त करके जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे, अपने स्तोत्रके निम्न पद्यमें परिग्रही जीवोंकी दशाका कुछ दिग्दर्शन कगते हुए, लिखा है कि ऐसे परिग्रहवशवति कलुषात्माओंके परम शुक्लरूप सद्ध्यानता बनती कहां है' ? परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापद्यते. प्रकोप-परिहिंसने च परुषाऽनृत-व्याहृती । ममत्वमथ चोरतः स्वमनसश्च विभ्रान्तता. कुतो हि कलुषात्मनां परमशुक्लसद्ध्यानता ॥४२॥ २ उभय-परिग्रह-वर्जनमाचार्याः सूचयन्त्यहिंसेति द्विविध-परिग्रह-वहनं हिंसेति जिन-प्रवचनज्ञाः ॥११८।। -पुरुषार्थसिद्धय पाय, अमृतचन्द्रसूरिः Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ स्वयम्भू स्तोत्र ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं । भवानेवाsत्याक्षीन च विकृत-वेषोपधिरतः । ११९॥ यह परिग्रह त्याग उन साधुओं से नहीं बनता जो प्राकृतिकवेषके विरुद्ध विकृत वेष तथा उपाधिमें रत रहते हैं । और यह त्याग उस तृष्णा नदीको सुखानेके लिये ग्रैष्मकालीन सूर्य के समान हैं, जिसमें परिश्रमरूपी जल भरा रहता है और अनेक प्रकार के भयकी लहरें उठा करती है । earth मिटने पर जब बन्धनोंका ठीक भान हो जाता है, शत्रु-मित्र एवं हितकर हितकरका भेद साफ नजर आने लगता है और बन्धनोंके प्रति अरुचि बढ़ जाती है तथा मोक्ष - प्राप्तिकी इच्छा तीव्र से तीव्रतर हो उठती है तब उस मुमुक्षुके सामने चक्रवर्तीका साहा साम्राज्य भी जीर्ण तृणके समान हो जाता है, उसे उसमें कुछ भी रस अथवा सार मालूम नहीं होता, और इसलिये वह उससे उपेक्षा धारण कर - बधू वित्तादि सभी सुखरूप समझी जानेवाली सामग्री एवं विभूतिका परित्याग कर - जंगलका रास्ता लेता है और अपने ध्येयकी सिद्धि के लिये अपरिग्रहादि व्रतस्वरूप 'गम्बरी' जिनदीक्षाको अपनाता हैमोक्षकी साधना के लिये निर्ग्रन्थ साधु बनता है। परममुमुक्षुके इसी भाव एवं कर्तव्यको श्रीवृषभाजन और अरजिनकी स्तुतिके निम्न पद्योंमें समाविष्ट किया गया है : विहाय य: सागर - वारिवाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ||३|| Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लक्ष्मी - विभव - सर्वस्व मुमुक्षोचकलांबनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्त णमिवाऽभवत् ॥ ८८ ॥ ७७ समस्त बाह्य परिग्रह और ग्रहस्थ जीवनकी सारी सुख-सुविधाको त्यागकर साधु-मुनि बनना यह मोक्षके मार्ग में एक बहुत बड़ा कदम उठाना होता है । इस कदमको उठाने से पहले मुमुक्षु कर्मयोगी अपनी शक्ति और विचार-सम्पत्तिका खूब सन्तुलन करता है और जब यह देखता है कि वह सब प्रकार के कष्टों तथा उपसर्ग-परिषहोंको समभावसे सह लेगा तभी उक्त कदम उठाता है और कदम उठाने के बाद बराबर अपने लक्ष्य की ओर सावधान रहता एवं बढ़ता जाता है । ऐसा होनेपर ही वह तृतीय- कारिका. में उल्लेखित उन सहिष्णु' तथा 'अच्युत' पदोंको प्राप्त होता है. जिन्हें ऋषभदेवने प्राप्त किया था, जब कि दूसरे राजा, जो अपनी शक्ति एवं विचार-सम्पत्तिका कोई विचार न कर भावुकता के वश उनके साथ दीक्षित हो गये थे, कष्ट- परिषहोंके सहने में असमर्थ होकर लक्ष्य भ्रष्ट एवं व्रतच्युत हो गये थे । ऐसी हालत में इस बाह्य परिग्रह के त्याग से पहले और बादको भी मन - सहित पांचों इन्द्रियों तथा क्रोध-लोभादि-कपायोंके दमनकी - उन्हें जीतने अथवा स्वात्माधीन रखनेकी - बहुत बड़ी जफ़रत है । इनपर अपना (Control) होनेसे उपसर्ग-परिपहादि के अवसरों पर मुमुक्षु अडोल रहता है, इतना ही नहीं बल्कि उसका त्याग भी भले प्रकार बनता है । और उस त्यागका निर्वाह भी भले प्रकार सकता है। सच पूछिये तो इन्द्रियादिके दमन - विना — उनपर अपना काबू किये बगैर - सच्चा त्याग बनता ही नहीं. और यदि भावुकताके वश बन भी जाय तो उसका निर्वाह नहीं हो सकता। इसीसे ग्रन्थमें इस दमका महत्व Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •७८ स्वयम्भूस्तोत्र ख्यापित करते हुए उसे 'तीर्थ' बतलाया है-संसारसे पार उतरने का उपाय सुझाया है-और 'दम-तीर्थ-नायक:' तथा 'अनवद्यविनय-दमतीर्थ-नायकः' जैसे पदों-द्वारा जैनतीर्थंकगेको उस तीर्थका नायक बतला कर यह घोषित किया है कि जैनतीर्थंकरोंका शासन इन्द्रिय-कषाय-निग्रहपरक है (१०४,१२२)। साथ ही, यह भी निर्दिष्ट किया है कि वह दम (दमन) मायाचार रहित निष्कपट ‘एवं निर्दोष होना चाहिये-दम्भके रूपमें नहीं (१४१) । इस दम के साथी-सहयोगी एवं सखा (मित्र) है यम-नियम, विनय, तप और दया । अहिंसादि व्रतानुष्ठानका नाम 'यम' है। कोई व्रतानुष्ठान जब यावज्जीवके लिये न होकर परमितकालके लिये होता है तब वह 'नियम' कहलाता है' । यमको ग्रन्थमें 'सप्रयामदमायः' (१४१) पदके द्वारा 'याम' शब्दसे उल्लेखित किया है जो स्वार्थिक 'अण' प्रत्ययक्ने कारण यमका ही वाचक है और 'प्र' उपसर्गके साथमें रहनेसे महीयम (महाव्रतानुष्ठान) का सूचक हो जाता है। इस यम अथवा महायमको ग्रन्थमें 'अधिगतमुनि-सुव्रत-स्थितिः (१११)' पढ़के द्वारा 'सुवत' भी सूचित किया है और वे सुवत अहिंसादिक महावत ही है, जिन्हें कर्मयोगीको भले प्रकार अधिगत और अधिकृत करना होता है। ग्नियमें अहंकारका त्याग और दूसरा भी कितना ही सदाचार शामिल है । तपमें सांसारिक इच्छाओंके निरोधकी प्रमुखता है और वह बाह्य तथा अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। वाह्यतप अनशनादिक-रूप है और वह अन्तरंग तपकी वृद्धिके लिये १ नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते । -रत्नकरण्ड ८७ २ अनशनाऽवमोदर्य-व्रतपरिसंख्यान-रमपरित्याग-विविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यतमः।-तत्त्वार्थसूत्र ६-१६॥ .. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ . प्रस्तावाना *...... ही किया जाता है (८३)-वही उसका लक्ष्य और ध्येय है, मात्र शरीरको सुखाना, कृश करना अथवा कष्ट पहुँचाना उसका उद्देश्य नहीं है । अन्तरंग तप प्रायश्चित्तादिरूप' है. जिसमें ज्ञानाराधन और ध्यान-साधनकी प्रधानता है-प्रायश्चिन्नादिक प्रायः उन्हींकी वृद्धि और सिद्धिको लक्ष्यमें लेकर किये जाते हैं। ध्यान आर्त, रौद्र. धर्म्य और शुक्ल के भेदसे चार प्रकारका. होता है, जिनमें पहले दो भेद अप्रशस्त (कलुषित) और दूसरे दो प्रशस्त (सातिशय) ध्यान कहलाते हैं। दोनों अप्रशस्त ध्यानोंको छोड़कर प्रशस्त ध्यानोंमें प्रवृित्त करना ही इस कर्मयोगीके लिये विहित है (८३) । यह योगी तपःसाधनाकी प्राधानताके कारण 'तपस्वी' भी कहलाता है; परन्तु इसका तप दूसरे कुछ तपस्वियोंकी तरह सन्ततिकी. धनसम्पत्तिकी तथा परलाकमें इन्द्रासनादि-प्राप्तिकी आशा-तृष्णाको लेकर नहीं होता बल्कि * उसका शुद्धलक्ष्य स्वात्मोपलब्धि होता है-वह जन्म-जरा-मरणरूप संसार-परिभ्रमणसे छूटनेके लिये ही अपने मन-वचन और कायकी प्रवृत्तियोंको तपश्चरण-द्वारा स्वाधीन करता है ४८), इन्द्रिय-विषय-सौख्यसे पराङमुग्व रहता है (८१) और इतना निस्पृह हो जाता है कि अपने देहसे भी विरक्त रहता है (७३)-उसे धोना, मांजना, तेल लगाना, कोमल शय्यापर सुलाना, पौष्टिक भोजन कराना. शृङ्गारित करना और सर्दीगर्मी आदिकी परीषहोंसे अनावश्यकरूपमें बचाना जैसे कार्यों में वह कोई रुचि नहीं रखता। उसका शरीर आभूषणों वेषों, आयुधों और वस्त्र-प्रावरणादिरूप व्यवधानोंसे रहित होता है और इन्द्रयोंकी शान्तताको लिये रहता है (६४, १२०)। ऐसे १. प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम् । -तत्त्वार्थसूत्र ६.२०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মুলা ....................... तपस्वीका एक सुन्दर संक्षिप्तलक्षण ग्रन्थकार-महादयने अपने दूसरे ग्रन्थ 'समीचीनधर्मशास्त्र' ( रत्नकरण्ड ) में निम्न प्रकार दिया है : विषयाशा-वशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ - 'जो इन्ट्रिय-विषयोंकी आशातकके वशवर्ती नहीं है, प्रारम्भों से-कृषि-वाणिज्यादिरूप सावद्यकांस-रहित है, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त है और ज्ञान-ध्यानकी प्रधानताको लिये हुए तपस्यामें लीन रहता है वह तपस्वी प्रशंसनीय है।' अव रही दयाकी बात, वह तो सारे धर्मानुष्ठानका प्राण ही है। इसीसे 'मुनौ दया-दीधित-धर्मचक्र' वाक्यके द्वारा योगी माधुके सारे धर्म-समूहको दयाकी किरणोंवाला बतलाया है (७८) और सच्चे मुनिको दयामूर्तिके रूपमें पापोंकी शान्ति करनेवाला (७६) और अखिल प्राणियोंके प्रति अपनी दयाका विस्तार करनेवाला (८१) लिखा है। उसका रूप शरीरकी उक्त स्थितिके साथ विद्या, दम और दयाकी तत्परताको लिये हुए होता है (६४) । दयाके बिना न दम बनता है, न यम-नियमादिक और न परिग्रहका त्याग ही सुघटित होता है; फिर समाधि और उसके द्वारा कर्मबन्धनोंको काटने अथवा भस्म कर नेकी तो बात ही दूर है। इसीसे समाधिकी सिद्धि के लिये जहां उभय प्रकारके परिग्रह-त्यागको आवश्यक बतलाया , है वहां क्षमा-सखीवाली दया-वधूको अपने आश्रयमें रखनेकी बात भी कही गईहै (१६) और अहिंसा-परमब्रह्म की सिद्धिके लिये जहां उस आश्रमविधिको अपनानेकी बात करते हुए. जिसमें अणुमात्र भी आरम्भ न हो. द्विविध-परिग्रहके त्यागका विधान किया है वहां उस परिग्रह-त्यागीको 'परमकरुणः' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८१ पदके द्वारा परमकरुणाभावसे-असाधारण-दया-सम्पत्तिसेसम्पन्न भी सूचित किया है । इस तरह दम, त्याग और समाधि ( तथा उनसे सम्बन्धित यम-नियमादिक ) सबमें दयाकी प्रधानता है ! इसीसे मुमुक्षुके लिये कर्मयोगके अङ्गोंमें 'दया'को अलग हो रखा गया है और पहला स्थान दिया गया है। स्वामी समन्तभद्र ने अपने दूसरे महान ग्रन्थ 'युक्त्यनुशासन'. में कर्मयोगके इन चार अङ्गों दया. दम, त्याग और समाधिका इसी क्रमसे उल्लेख किया है और साथ ही यह निर्दिष्ट किया है कि वीरजिनेन्द्रका शासन (मत) नय-प्रमाणके द्वारा वस्तु-तत्त्वको स्पष्ट करनेके साथ साथ इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए है, ये सब उसकी खास विशेषताएं हैं और इन्हींके कारण वह अद्वितीय है तथा अखिल प्रवादियोंके द्वारा अधृष्य हैअजय्य है। जैसा कि उक्त ग्रन्थकी निम्न जारिकासे प्रकट है:दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवार्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६।। यह कारिका बड़े महत्वकी है। इसमें वीरजिनेन्द्र के शासनका बीज-पदोंमें सूत्ररूपसे सार संकलन करते हुए भक्तियोग और कर्मयोग तीनोंका सुन्दर समावेश किया गया है। इसका पहला चरण कर्मयोगकी, दूसरा चरण ज्ञानयोगकी और शेष तीनों चरण प्रायः भक्तियोगकी संसूच १ श्री विद्यानन्दाचार्य इस क्रमकी सार्थकता बतलाते हुए टीकामें लिखते हैं-निमित्त नैमित्तिक-भाव-निबन्धनः पूर्वोत्तर-वचन-क्रमः । दया हि निमित्तम् दमस्य, तस्यां सत्यां तदुत्पत्त: । दमश्च त्यागस्य (निमित्तं) तस्मिन्सति तद्घटनात् । त्यागश्च समाधेस्तस्मिन्सत्येव विक्षेपादिनिवृत्तिसिद्ध रेकाग्रस्य समाधिनिशेपस्योत्पत्तः. अन्यथा तदनुपपत्त: ।” Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm स्वयम्भूस्तोत्र नाको लिये हुए हैं । और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि दया, दम, त्याग और समाधि इन चारोंमें वीरशासनका सारा कर्मयोग समाविष्ट है। यम, नियम, संयम, व्रत, विनय, शील, तप. थ्यान, चारित्र, इन्द्रियजय. कषायजय, परीषहजय, मोह विजय, कविजय, गुप्ति समिति, अनुप्रेक्षा, त्रिदण्ड, हिंसादिविरति और क्षमादिकके रूपमें जो भी कर्मयोग अन्यत्र पाया जाता है वह सब इन चारोंमें अन्तर्भत है-इन्हींकी व्याख्यामें उसे प्रस्तुत किया जा सकता है। चुनांचे प्रस्तुत ग्रन्थमें भी इन चारोंका अपने कुछ अभिन्न संगी-साथियोंके साथ इधर इधर प्रसृत निर्देश है; जैसा कि ऊपरके संचयन और विवेचनसे स्पष्ट है। इस प्रकार यह ग्रन्थके सारे शरीरमें व्याप्त कर्मयोग-रसका निचोड़ है-सत है अथवा सार है, जो अपने कुछ उपयोग-प्रयोगको भी साथमें लिये हुए है। तीनों योगोंके इस भारी कथनको लिये हुए प्रस्तुत स्तोत्रपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि स्वामी समन्तभद्र कैसे और कितने उच्च कोटिके भक्तियोगी, ज्ञानयोगी और 'कर्मयोगी थे और इसलिये उनके पद-चिह्नोंपर चलनेके लिए हमारा आचार-विचार किस प्रकारका होना चाहिए और कैसे हमें उनके पथका पथिक बनना अथवा आत्महितकी साधनाक साथ साथ लोक-हितकी साधनामें तत्पर रहना चाहिये। वीरसेवामन्दिर, सरसावा । जुगलकिशोर मुख्तार. ता० १७ - १ - १६५१ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय इस ग्रन्थके सुप्रसिद्ध कर्ता स्वामी समन्तभद्र हैं, जिनका आसन जैनसमाजके प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानों तथा लेखकों और सुपूज्य महात्माओंमें बहुत ऊंचा है। आप जैनधर्मके मर्मज्ञ थे, चीरशासन के रहस्यको हृदयङ्गम किये हुए थे, जैन'धर्मकी साक्षात् जीती-जागती मूर्ति थे और वीरशासनका अद्वितीय प्रतिनिधित्व करते थे; इतना ही नहीं बल्कि आपने अपने समयके सारे दर्शनशास्त्रोंका गहरा अध्ययन कर उनका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और इसीसे आप सब दर्शनों, धर्मों अथवा मतोंका सन्तुलनपूर्वक परीक्षण कर यथार्थ वस्तुस्थितिरूप सत्यको ग्रहण करने में समर्थ हुए थे और उस असत्यका निर्मूलन करने में भी प्रवृत्त हुए थे जो सर्वथा एकान्तवादके सूत्रसे संचालित होता था। इसीसे महान् आचार्य श्रीविद्यानन्द स्वामीने युक्त्यनुशासन-टीकाके अन्त्रमें आपको 'परीक्षेक्षण-परीक्षानेत्रसे सबको देखनेवाले—लिखा है और अष्टसहस्रीमें आपके वचन-माहात्म्यका बहुत कुछ गौरव ख्यापित करते हुए एक स्थान'पर यह भी लिखा है कि-'स्वामी समन्तभद्रका वह निर्दोष प्रव चन जयवन्त हो-अपने प्रभावसे लोकहृदयोंको प्रभावित करे‘जो नित्यादि एकान्तगर्ता में वस्तु कूटस्थवत् सर्वथा नित्य ही है 'अथवा क्षण-क्षणमें निरन्वय-विनाशरूप सर्वथा क्षणिक (अनित्य) ही है, इस प्रकारकी मान्यतारूप एकान्त खड्डोंमें पड़नेके लिये विवश हुए प्राणियोंको अनर्थसमूहसे निकालकर मंगलमय उच्च पद प्राप्त करानेके लिए समर्थ है, स्याद्वादन्यायके मार्गको प्रख्यात करनेवाला है, सत्यार्थ है, अलंध्य है, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुआ है Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ Annnnnnnnnnnnnvr.xn स्वयम्भूस्तोत्र अथवा प्रेक्षावान्-समीक्ष्यकारी-आचार्य महोदयक द्वारा जिसकी प्रवृत्ति हुई है और जिसने सम्पूर्ण मिथ्याप्रवादको विघटित अथवा तितर बितर कर दिया है।' और दूसरे स्थानपर यह बतलाया है कि-'जिन्होंने परीक्षावानोंके लिये कुनीति और कुप्रवृत्तिरूप-नदियोंको सुखा दिया है, जिनके वचन निर्दोष नीति'स्याद्वादन्यायको लिये हुए होनेके कारण मनोहर हैं तथा तत्त्वाथसमूहके संद्योतक हैं वे योगियोंके नायक, स्याद्वादमार्गके अग्रणा नेता, शक्ति-सामर्थ्यसे सम्पन्न-विभु और सूर्यके समान देदीप्यमान-तेजस्वी श्रीस्वामी समन्तभद्र कलुषित-आशय-रहित प्राणियोंको-सज्जनों अथवा सुधीजनोंको-विद्या और आनन्द-घनके प्रदान करनेवाले होवें-उनके प्रसादसे (प्रसन्नतापूर्वक उन्हें चित्तमें धारण करनेसे ) सबोंके हृदयमें शुद्धज्ञान और आनन्दकी वर्षा होवे। साथ ही एक तीसरे स्थान पर यह प्रकट किया है कि"जिनके नय-प्रमाण-मूलक अलंध्य उपदेशसे-प्रवचनको सुनकर-महा उद्धतमति वे एकान्तवादी भी प्राय: शान्तताको प्राप्त हो जाते हैं जो कारणसे कार्यादिकका सर्वथा भेद ही नियत मानत हैं अथवा यह स्वीकार करते हैं कि कारण-कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही हैं-एक ही हैं-वे निर्मल तथा विशालकीर्तिसे युक्त अतिप्रसिद्ध योगिराज स्वामी समन्तभद्र सदा जयवन्त रहेंअपने प्रवचनप्रभावसे बराबर लोकहदयोंको प्रभावित करते रहें।' इसी तरह विक्रमकी ७वीं शताब्दीके सातिशय विद्वान् श्रीअकलंकदेव-जैसे महर्द्धिक आचार्यने, अपनी अष्टशती में. समन्तभद्रको 'भव्यैकलोकनयन' -भव्य जीवोंके हृदयान्धकारको दूर करके अन्तःप्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलानेवाला अद्वितीय सूर्य और 'स्याद्वादमार्गका पालक ( संरक्षक )' बतलाते हुए. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय यह भी लिखा है कि-'उन्होंने सम्पूर्ण पदार्थ-तत्त्वोंको अपना विषय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि-तीर्थको, इस कलिकालमें, भव्यजीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्रभावित किया है-उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है, और ऐसा लिखकर उन्हें बारबार नमस्कार किया है। __ स्वामी समन्तभद्र यद्यपि बहुतसे उत्तमोत्तम गुणोंके स्वामी थे. फिर भी कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण आपमें असाधारण कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे--ये चारों शक्तियाँ उनमें खास तौरसे विकासको प्राप्त हुई थीं-और इनके कारण उनका निमल यश दूर-दूर तक चारों ओर फैल गया था। उस समय जितने 'कवि' थे-नये नये सन्दर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेवाले समर्थ विद्वान थे,. 'गमक' थे-दूसरे विद्वानोंकी कृतियोंके मर्म एवं रहस्यको समझने तथा दूसरोंको समझानेमें प्रवीणबुद्धि थे, विजयकी ओर वचन-प्रवृत्ति रखनेवाले 'वादो' थे, और अपनी वाकपटुता तथा शब्दचातुरोसे दूसरोंको रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेनेमें निपुण ऐसे 'वाग्मी' थे, उन सबपर समन्तभद्रके यशकी छाया पड़ी हुई थी, वह चूड़ामणिके समान सर्वोपरि था और बादको भी बड़े-बड़े विद्वानों तथा महान् आचार्योंके द्वारा शिरो धार्य किया गया है। जैसा कि विक्रमकी हवीं शताब्दीके विद्वान् , भगवजिनसेनाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूनिचूडामणीयते ॥ (आदिपुराण) स्वामी समन्तभद्रके इन चारों गुणोंकी लोकमें कितनी धाक थी. विद्वानोंके हृदय पर इनका कितना सिक्का जमा हुआ था Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwvvvvvvvv ८६ स्वयम्भूस्तोत्र और वे वास्तवमें कितने अधिक महत्वको लिये हुए थे, इन सब बातोंका कुछ अनुभव करानेके लिये कितने ही प्रमाण-वाक्योंको 'स्वामी समन्तभद्र, नामके उस ऐतिहासिक निबन्धमें संकलित किया गया है जो माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें प्रकाशित हुए! रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी विस्तृत प्रस्तावनाके अनन्तर २५२. पृष्ठोंपर जुदा ही अङ्कित है और अलगसे भी विषयसूची तथा अनुक्रमणिकाके साथ प्रकाशित हुआ है । यहाँ संक्षेपमें कुछ थोडासा ही सार" दिया जाता है और वह इस प्रकार है: (१) भगवज्जिनसेनने, आदिपुराणमें, समन्तभद्रको 'महान् कविवेधा'-कवियोंको उत्पन्न करनेवाला महान् विधाता (ब्रह्मा) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी क्नपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गए थे । (२) वादिराजसूरिने, यशोधरचरितमें,समन्तभद्रको 'काव्यमाणिक्योंका रोहण' (पर्वत ) लिखा है और यह भावना की है कि 'वे. हमें सूक्तिरत्नोंके प्रदान करनेवाले होवें। (३) वादीभसिंह सूरिने, गद्यचिन्तामणिमें, समन्तभद्रमुनीश्वस्का जयघोष करते हुए उन्हें 'सरस्वतीकी स्वछन्द-विहारभूमि' बतलाया है और लिखा है कि 'उनके वचनरूपी वजके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्त-रूप पर्वतोंकी चोटियाँ खण्ड-खण्ड हो गई थीं-अर्थात् समन्तभद्रके आगे प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका. प्रायः कुछ भी मूल्य या गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुंह करके ही सामने खड़े हो सकते थे।' १. इस सारके अधिकांश मूल वाक्योंका परिचय 'सत्साधुस्मरणमंगलपाठ" के अन्तर्गत 'समन्तभद्र-स्मरण' नामक प्रकरणसे भी प्राप्ता किया जा सकता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय ६७ (४) वर्द्धमानसूरिने, वराङ्गचरितमें, समन्तभद्रको 'महाकवीश्वर' 'कुवादिविद्या-जय-लब्ध-कीर्ति, और 'सुतर्कशास्त्रामृतसारसागर' लिखा है और यह प्रार्थना की है कि वे मुझ कवित्वकांक्षी पर प्रसन्न होवें-उनकी विद्या मेरे अन्तःकरणमें स्फुरायमान होकर मुझे सफल-मनोरथ करे।' (५) श्री शुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानार्णवमें, यह प्रकट किया है कि 'समन्तभद्र जैसे कवीन्द्र-सूर्यों की जहां निर्मलसूक्तिरूप किरणें स्फुरायमान हो रही हैं वहां वे लोग खद्योत-जुगनू की तरह हँसीके ही पात्र होते हैं जो थोडेसे ज्ञानको पाकर उद्धत है-कविता (नृतन संदर्भकी रचना ) करके गर्व करने लगते हैं।' (६) भट्टारक सकलकीर्तिने, पार्श्वनाथचरितमें, लिखा है कि जिनकी वाणी (ग्रन्थादिरूप भारती ) संसारमें सब ओरसे मंगलमय है और सारी जनताका उपकार करनेवाली है उन कवियोंके ईश्वर समन्तभद्रको सादर वन्दन ( नमस्कार.) करता हूँ।' (७) ब्रह्मअजितने, हनुमच्चरितमें, समन्तभद्रको 'दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज-खुजलीको मिटानेके लिये अद्वितीय 'महौषधि' बतलाया है। (८) कवि दामोदरने, चन्द्रप्रभचरितमें, लिखा है कि 'जिनकी भारती के प्रतापसे-ज्ञानभण्डाररूप मौलिक कृतियोंके अभ्याससे-समस्त कविसमूह सम्यगज्ञानका कारगामी हो गया उन कविनायक-नई नई मौलिक रचनाएँ करने वालोंके शिरोमणियोगी समन्तभद्रकी मैं स्तुति करता हूँ।' (6) वसुनन्दी आचार्यने, स्तुतिविद्याकी टीकामें, समन्तभद्रको Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.vave स्वयम्भूस्तोत्र 'सद्बोधरूप'-सम्यग्ज्ञानकी-भूति-और 'वरगुणालय'-उत्तमगुणोंका आवास-बतलाते हुए यह लिखा है कि 'उनके निर्मलयशकी कान्तिसे ये तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनों प्रदेश कान्तिमान थे—उनका यशस्तेज सर्वत्र फैला हुआ था। • (१०) विजयवर्णी ने, शृङ्गारचन्द्रिकामें, समन्तभद्रको 'महाकवीश्वर' बतलाते हुए लिखा है कि उनके द्वारा रचे गये प्रबन्धसमूहरूप सरोवरमें, जो रसरूप जल तथा अलङ्काररूप कमलोंसे सुशोभित है और जहाँ भावरूप हँस विचरते हैं, सरस्वती-क्रीडा किया करती है'-सरस्वती देवीके क्रीडास्थल ( उपाश्रय ) होनेसे समन्तभद्रके सभी प्रबन्ध ( ग्रन्थ ) निर्दोष, पवित्र एवं महती शोभासे सम्पन्न हैं।' (११) अजितसेनाचार्यने, अलङ्कारचिन्तामणिमें, कई पुरातन पद्य ऐसे संकलित किये हैं जिनसे समन्तभद्रके वाद-माहाम्यका कितना ही पता चलता है। एक पद्यसे मालूम होता है कि 'समन्तभद्रकालमें कुवादीजन प्रायः अपनी स्त्रियों के सामने तो कठोर भाषण किया करते थे-उन्हें अपनी गर्वोक्तियां अथवा बहादुरीके गीत सुनाते थे-परन्तु जब योगी समन्तभद्रके सामने आते थे तो मधुरभाषी बनजाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि'रक्षा करो रक्षा करो अथवा आप ही हमारे रक्षक हैं-ऐसे सुन्दर मृदुल वचन ही कहते बनता था।' और यह सब समन्तभद्रके " असाधारण व्यक्तित्वका प्रभाव था। दूसरे पद्यसे यह जाना जाता है कि 'जब महावादी श्रीसमन्त- . भद्र (सभास्थान आदिमें) आते थे तो कुवादीजन नीचामुख करके अँगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे अर्थात् उन लोगों पर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय प्रतिवादियोंपर-समन्तभद्रका इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विषण्णवदन हो जाते और किंकर्तव्यविमूढ बन जाते थे। और एक तीसरे पद्य में यह बतलाया गया है कि-वादीसमन्तभद्रकी उपस्थितिमें, चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटिकी-तन्नामक महाप्रतिवादी विद्वान्कीजिह्वा ही जब शीघ्र अपने विलमें घुसजाती है-उसे कुछ बोल नहीं आता तो फिर दूसरे विद्वानोंकी तो कथा ( बात ) ही क्या है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्रके सामने कुछ भी महत्त्व नहीं रखता । वह पद्य, जो कविहस्तमल्लके 'विक्रान्तकौरव' नाटकमें भी पाया जाता है, इस प्रकार हैअवटु-तटमटति झटिति.स्फुट-पटु-वाचाट-धूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितिवति का कथाऽन्येषाम् ।। यह पद्य शकसंवत् १०५० में उत्कीर्ण हुए श्रवणबेलगोलक शिलालेख नं० ५४ (६७) में भी थोड़ेसे पाठभेदके साथ उपलब्ध होता है। वहां 'धूर्जटेजिह्वा' के स्थानपर 'धूर्जटेरपि जिह्वा' और 'सति का कथाऽन्येषां' की जगह 'तव सदसि भूप ! कास्थाऽन्येषां' पाठ दिया है, और इसे समन्तभद्रके वादारम्भ-समारम्भ-समयकी उक्तियों में शामिल किया है। पद्यके उसरूपमें धूर्जटिके निरुत्तर होनेपर अथवा धूर्जटिकी गुरुतर पराजयका उल्लेख करके राजासे पूछा गया है कि 'धूजटि-जैसे विद्वानकी ऐसी हालत होनेपर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानोंकी क्या आस्था है ? क्या उनमेंसे कोई वाद करनेकी हिम्मत रखता है ? (१२) श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० १०५ में समन्तभद्रका Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० स्वयम्भू स्तोत्र जयघोष करते हुए उनके सूक्तिसमुहको - सुन्दर प्रौढ युक्तियों को लिये हुए प्रवचनको - वादीरूपी हाथियोंको वशमें करनेके लिये 'वजांकुश' बतलाया है और साथ ही यह लिखा है कि 'उनके प्रभावसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक वार दुर्वादुकों की वार्तासे भी विहीन होगई थी— उनकी कोई बात भी नहीं करता था ।' (१३) श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०८ में भद्रमूर्ति - समन्तभद्रको जिनशासनका प्रणेता ( प्रधान नेता ) बतलाते हुए यह भी प्रकट किया है कि 'उनके वचनरूपी वजके कठोरपातसे प्रतिवादीरूप पर्वत चूर चूर हो गये थे— कोई भी प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठहरता था । ' (१४) तिरुमकूडलुनरसीपुरके शिलालेख नं० १०५ में समन्तभद्रके एक वादका उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'जिन्होंने वारासी (बनारस) के राजाके सामने विद्वेषियोंको—अनेकान्तशासन से द्वेष रखनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोंको-पराजित कर दिया था, वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके स्तुतिपात्र नहीं हैं ? - सभीके द्वारा भले प्रकार स्तुति किये जानेके योग्य हैं ।' (१५) समन्तभद्रके गमकत्व और वाग्मित्व- जैसे गुणों का विशेष परिचय उनके देवागमादि ग्रन्थोंका अवलोकन करनेसे भले प्रकार अनुभवमें लाया जा सकता है तथा उन उल्लेख - वाक्योंपर से भी कुछ जाना जा सकता है जो समन्तभद्र-वाणीका कीर्तन अथवा उसका महत्व ख्यापन करनेके लिये लिखे गये हैं । ऐसे उल्लेखवाक्य अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंमें बहुत पाये जाते हैं । कवि नागराजका 'समन्तभद्र-भारती-स्तोत्र' तो इसी विषयको लिये हुए है और वह 'सत्साधु-स्मरण - मंगलपाठ' में वीरसेवामन्दिरसे सानुवाद प्रकाशित हो चुका है। यहां दो तीन उल्लेखोंका और Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय सूचन किया जाता है, जिससे समन्तभद्रकी गमकत्वादि-शक्तियों और उनके वचनमाहात्म्यका और भी कुछ पता चल सके (क) श्रीवादिराजसूरिने, न्यायविनिश्चयालङ्कारमें. लिखा है कि 'सर्वत्र फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकारके कारण जिसका तत्त्व लोकमें दुर्बोध हो रहा है-ठीक समझमें नहीं आता-वह हितकारी वस्तु-प्रयोजनभूत जीवादि-पदार्थमाला-श्रीसमन्तभद्रके वचनरूप देदीप्यमान रत्नदीपकोंके द्वारा हमें सब ओरसे.. चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभासित होवे-अर्थात् स्वामी समन्तभद्रका प्रवचन उस महाजाज्वल्यमान रत्नसमूहके समान है जिसका प्रकाश अप्रतिहत होता है और जो संसारमें फैले हुए निरपेक्षनयरूपी महामिथ्यान्धकारको दूर करके वस्तुतत्त्वको स्पष्ट करनेमें समर्थ है, उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करें ।' (ख) श्रीवीरनन्दी प्राचार्यने, चन्द्रप्रभचरित्रमें, लिखा है कि 'गुणोंसे-सूतके धागोंसे-गूंथी हुई निर्मल गोल मोतियोंसे युक्त और उत्तम पुरुषोंके कण्ठका विभूषण बनी हुई हारयष्टिकोश्रेष्ठ मोतियोंकी मालाको प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि समन्तभद्रकी भारती (वाणी ) को पा लेनाउसे खूब समझकर हृदयङ्गम कर लेना है, जो कि सद्गुणोंको लिये हुए है, निर्मल वृत्त (वृत्तान्त, चरित्र, आचार. विधान तथा छन्द ) रूपी मुक्ताफलोंसे युक्त है और बड़े-बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने जिसे अपने कएठका आभूषण बनाया है-वे नित्य ही उसका उच्चारण तथा पाठ करने में अपना गौरव मानते और अहोभाग्य समझते रहे हैं। अर्थात् समन्तभद्रकी वाणी परम दुर्लभ है-उनके सातिशय वचनोंका लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रमसे होता है।' Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ स्वयम्भूस्तोत्र (ग) श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य, सिद्धान्तसारसंग्रहमें, यह प्रकट करते हैं कि 'श्रीसमन्तभद्रदेवका निर्दोष प्रवचन प्राणियोके लिये ऐसा ही दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्वका पाना-अर्थात् अनादिकालसे संसारमें परिभ्रमण करते हुए प्राणियोंको जिस प्रकार मनुष्यभवका मिलना दुर्लभ होता है उसी प्रकार समन्तभद्रदेवके प्रवचनका लाभ होना भी दुर्लभ है, जिन्हें उसकी प्राप्ति होती है वे निःसन्देह सौभाग्यशाली हैं।' ऊपरके इन सब उल्लेखोंपरसे समन्तभद्रकी कवित्वादि शक्तियोंके साथ उनकी वादशक्तिका जो परिचय प्राप्त होता है उससे सहज ही यह समझमें आ जाता है कि वह कितनी असाधारण कोटिकी तथा अप्रतिहत-वीर्य थी और दूसरे विद्वानोंपर उसका कितना अधिक सिक्का तथा प्रभाव था, जो अभी तक भी अक्षुण्णरूपसे चला जाता है. जो भी निष्पक्ष विद्वान आपके वादों अथवा तर्कोसे परिचित होता है वह उनके सामने नत-मस्तक हो जाता है। ___ यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि समन्तभद्रका वाद-क्षेत्र संकुचित नहीं था। उन्होंने उसी देशमें अपने वादकी विजयदुन्दुभि नहीं बजाई जिसमें वे उत्पन्न हुए थे, बल्कि उनकी वाद-प्रीति, लोगोंके अज्ञानभावको दूर करके उन्हें सन्मार्गकी ओर लगानेकी शुभभावना और जैन सिद्धान्तोंके महत्वको विद्वानोंके हृदय-पटलपर अंकित कर देनेकी सुरुचि . इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्होंने सारे भारतवर्षको अपने वादका लीला-स्थल बनाया था। वे कभी इस बातकी प्रतीक्षामें नहीं रहते थे कि कोई दूसरा उन्हें वादके लिए निमंत्रण दे और न उनकी मन:परिणति उन्हें इस बातमें सन्तोष करनेकी ही इजाजत देती थी कि जो लोग अज्ञानभावसे मिश्यात्वरूपी गों Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय amerammmmmmmmmmmmmmm (खड्डों) में गिरकर अपना आत्मपतन कर रहे हैं उन्हें वैसा करने दिया जाय । और इसलिये उन्हें जहां कहीं किसी महावादी अथवा किसी बड़ी वादशालाका पता चलता था तो वे वहीं पहुँच जाते थे और अपने वादका डंका बजाकर विद्वानोंको स्वतः वादके लिये आह्वान करते थे। डंकेको सुनकर वादीजन, यथा नियम, जनताके साथ वादस्थान पर एकत्र हो जाते थे और तब समन्तभद्र उनके सामने अपने सिद्धान्तोंका बड़ी ही खूबीके साथ विवेचन करते थे और साथ ही इस बातकी घोषणा कर देते थे कि उन सिद्धान्तोंमेंसे जिस किसी सिद्धान्तपर भी किसीको आपत्ति हो वह वादके लिये सामने आ जाय। कहते हैं कि समन्तभद्र के स्याद्वाद-न्यायकी तुलामें तुले हुए तत्त्वभाषणको सुनकर लोग मुग्ध हो जाते थे और उन्हें उसका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था। यदि कभी कोई भी मनुष्य अहंकारके वश होकर अथवा नासमझीके कारण कुछ विरोध खड़ा करता था तो उसे शीघ्र ही निरुत्तर हो जाना पड़ता था। इस तरह, समन्तभद्र भारत के पूर्व, पश्चिम. दक्षिण, उत्तर, प्रायः सभी देशों में, एक अप्रतिद्वंद्वी सिंह के समान क्रीडा करते हुए, निर्भयताके साथ वादके लिये घूमे हैं । एक वार आप घूमते १ उन दिनों-समन्तभद्रके समयमें-फाहियान ( ई० ४००) और ह्नत्सग (ई० ६३० ) के कथनानुसार, यह दस्तूर था कि नगर में किसी सार्वजनिक स्थानपर एक डंका (मेरी या नक्कारा ) रक्खा जाता था और जो कोई विद्वान् किसी मतका प्रचार करना चाहता था अथवा बादमें अपने पाण्डि य और नैपुण्यको सिद्ध करनेकी इच्छा रखता था तो वह वाद-घोषणाके रूपमें उस डंकेको बजाता था । -~-हिस्ट्री श्राफ् कनडीज़ लिटरेचर Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तान हुए 'करहाटक' नगर में भी पहुंचे थे, जो उस समय बहुतसे भटोंसे युक्त था, विद्याका उत्कट स्थान था और साथ ही अल्प विस्तारवाला अथवा जनाकीर्णं था । उस वक्त आपने वहाँके राजापर अपने चाद-प्रयोजनको प्रकट करते हुए, उन्हें अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्यमें दिया था वह श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं. ५४ में निम्न प्रकारसे संग्रहीत है पूर्वं पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटके बहुभटं विद्योत्कटं संकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शादुलविक्रीडितं ॥ इस पद्यमें दिये हुए"आत्मपरिचयसे यह मालूम होता है कि करहाटक पहुँचने से पहले समन्तभद्रने जिन देशों तथा नगरोंमें वादके लिये विहार किया था उनमें पाटलिपुत्रनगर, मालव (मालवा ) सिन्धु, ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर ( कांजीवरम् ) और वैदिश (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे जहाँ उन्होंने वादकी भेरी बजाई थी और जहाँ पर प्रायः किसी ने भी उनकी विरोध नहीं किया था।' . १ समन्तभद्रके इस देशाटनके सम्बन्धमें निस्टर एम० एस० रामस्वामी श्राय्यंगर अपनी 'स्टडीज़ इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' नामकी धुस्तक में लिखते हैं "यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुत बड़े जैनधर्मप्रचारक थे, जिन्होंने जैनसिद्धान्तों और जैन आचारोंको दूर दूर तक विस्तारके साथ 'फैलानेका उद्योग किया है, और वह कि जां कहीं वे गये हैं उन्हें दूसरे Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय १५ यहाँ तकके इस सब परिचय पर से स्वामी समन्तभन्द्रके आसाधारण गुणों, उनके अनुपम प्रभाव और लोकहितकी भावनाको लेकर धर्मप्रचारके लिये उनके सफल देशाटनादिका कितना ही हाल तो मालूम हो गया; परन्तु अभी तक यह मालूम नहीं हो सका कि समन्तभद्र के पास वह कौनसा माहनमंत्र था जिसके कारण वे सदा इस बातके लिये भाग्यशाली रहे हैं कि विद्वान लोग उनकी वाद-घोषणाओं और उनके तात्त्विक भाषणोंको चुपकेसे सुन लेते थे और उन्हें उनका प्रायः कोई विरोध करते नहीं बनता था । वादका तो नाम ही ऐसा है जिससे चाहे-अनचाहे विरोधकी आग भड़कती है. लोग अपनी मानरक्षाके लिये, अपने पक्षको निर्बल समझते हुए भी, उसका समर्थन करनेके लिये खड़े हो जाते हैं और दूसरेकी युक्तियुक्त बातको भी मानकर नहीं देते; फिर भी समन्तभद्रके साथमें यह सब प्रायः कुछ भी नहीं होता था, यह क्यों ?-अवश्य ही इसमें कोई खास रहस्य है, जिसके प्रकट होनेकी जरूरत है और जिसको जाननेके लिये पाठक भी उत्सुक होंगे। ___ जहाँ तक मैंने इस विषयकी जाँच की है-इस मामले पर गहरा विचार किया है और मुझे समन्तभद्रके साहित्यादिकपरसे उसका विशेष अनुभव हुआ है उसके आधारपर मुझे इस बातके कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि समन्तभद्र•की इस सारी सफलताका रहस्य उनके अन्त:करणकी शुद्धता, चरित्र का निर्मलता और उनकी वाणी के महत्व में संनिहित हैं, सम्प्रदायोंकी तरफसे किसी भी विरोधका सामना करना नहीं पड़ा (He met with no opposition from other sects wherever he went) ! Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ६ स्वयम्भूस्तात्र अथवा यों कहिये कि यह सब अन्तःकरणकी पवित्रता तथा चरित्र की शुद्धताको लिये हुए उनके वचनोंका ही महात्म्य है जो वे दूसरों पर अपना इस प्रकार सिक्का जमासके हैं । समन्तभद्रकी जो कुछ भी वचन प्रवृत्ति होती थी वह सब प्राय: दूसरोंकी हितकामनाको ही साथ में लिये हुए होती थी । उसमें उनके लौकिक स्वार्थी अथवा अपने अहंकारको पुष्ट करने और दूसरोंको नीचा दिखाने रूप कुत्सित भावनाकी गन्ध तक भी नहीं रहती थी। वे स्वयं सन्मार्ग पर आरूढ थे और चाहते थे कि दूसरे लोग भी सन्मार्गको पहिचानें और उसपर चलना आरम्भ करें । साथ ही, उन्हें दूसरोंको कुमार्ग में फँसा हुआ देखकर बड़ा ही खेद तथा कष्ट होता था । और इसलिये उनका वाकप्रयत्न सदा उनकी इच्छा के अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा ऐसे लोगों के उद्धारका अपनी शक्तिभर प्रयत्न किया करते थे । ऐसा मालूम होता है किं स्वात्म -हित-साधन के बाद दूसरोंका हित १ आपके इस खेद । दिको प्रकट करने वाले तीन पद्य, नमूने के तौर पर इस प्रकार है- मंद्याङ्गवद्भूतसमागमे ज्ञः शक्त्यन्तरव्यक्तिरदेवसृष्टिः । इत्यात्मशिश्नोदरपुष्टितुष्टै निहभयै हो ! मृदवः प्रलब्धाः ||३५|| दृष्टेऽविशिष्टे जननादितो विशिष्टता का प्रतिसत्वमेषाम् । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा ! प्रपातः || ३६ || स्वच्छन्दवृत्तेर्जगत: स्वभावादुच्चैरनाचारपथेष्वदोषम् । निघुष्य दीक्षासममक्तिमानास्त्वद्दष्टिबाह्या बत! विभ्रमन्ति । ३७ - युक्त्यनुशासन इन पद्यों का आशय उस अनुवादादिक परसे जानना चाहिये जो ग्रन्थ में आठ पृष्ठों पर दिया है । -~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-परिचय ७ । साधन करना ही उनके लिये एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी योग्यता के साथ उनका सम्पादन करते थे । उनकी वाकपरिणति सदा क्रोध से शून्य रहती थी, वे कभी किसीको अपशब्द नहीं कहते थे और न दूसरों के अपशब्दोंसे उनकी शान्ति भंग होती थी । उनकी आँखों में कभी सुख नहीं आती थी; वे हमेशा हँसमुख तथा प्रसन्नवदन रहते थे । बुरी भावना से प्रेरित होकर दूसरोंके व्यक्तित्वपर कटाक्ष करना उन्हें नहीं आता था और मधुर भाषण तो उनकी प्रकृति में ही दाखिल था । यहीं वजह थी कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके सामने आकर मृदुभाषी बन जाते थे; अपशब्द - मदान्धों को भी उनके आगे बोल तक नहीं आता था और उनके 'वज्रपात' तथा 'वजांकुश' की उपमाको लिये 'हुए वचन भी लोगोंको अप्रिय मालूम नहीं होते थे । समन्तभद्रके वचनोंमें एक खास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वाद - न्यायकी तुलामें तुले हुए होते थे और इसलिये उनपर पक्षपातका भूत कभी सवार होने नहीं पाता था । समन्तभद्र स्वयं परीक्षा-प्रधानी थे, वे कदाग्रह को बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे; उन्होंने सर्वज्ञवीतराग भगवान् महावीर तककी परीक्षा की है और तभी उन्हें 'आप्त' रूपमें स्वीकार किया है । वे दूसरोंको भी परीक्षाप्रधानी होनेका उपदेश देते थे - सदैव उनकी यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व अथवा सिद्धान्तको विना परीक्षा किये. केवल दूसरोंके कहनेपर ही न मान लेना चाहिये बल्कि समर्थ-युक्तियों द्वारा उसकी अच्छी तरहसे जाँच करनी चाहिये - उसके गुण-दोषोंका पता लगाना चाहिये - और तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिये। ऐसी हालत में वे अपने किसी भी सिद्धान्तको जबरदस्ती दूसरोंके गले उतारने reat उनके सिर मँढनेका कभी यत्न नहीं करते थे । वे विद्वानों Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र को, निष्पक्षदृष्टिसे, स्व-पर-सिद्धान्तोंपर खुला विचार करनेका पूरा अवसर देते थे। उनकी संदैव यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलूसे--एक ही ओरसे मत देखो, उसे सब ओरसे और सब पहलुओंसे' देखना चाहिये, तभी उसका यथार्थज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म अथवा अङ्ग होते हैं. इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी एक धर्म या अङ्गको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना 'एकान्त' है और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है। स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निषेध करता है-सर्वथा सत्-असत्-एक अनेक-नित्य-अनित्यादि संम्पूर्ण एकान्तोंसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्त्व ही उसका विषय' है। अपनी घोषणाके अनुसार, समन्तभद्र प्रत्येक विषयके गुण दोषोंको स्याद्वाद-न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानोंके सामने रखते थे, वे उन्हें बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमें अमुक अमुक एकान्तपक्षोंके माननेसे क्या क्या अनिवार्य दोष आते हैं और वे दोष स्याद्वाद न्यायको स्वीकर करनेपर अथवा अनेकान्तवादके प्रभावसे किस प्रकार दूर हो जाते हैं और किस तरह पर वस्तुतत्त्वका सामंजस्य ठीक बैठ जाता है । उनके समझानेमें दूसरोंके प्रति तिरस्कार का कोई भाव नहीं होता था। वे एक मार्ग भूले हुए को मार्ग दिखानेकी तरह प्रेमके साथ उन्हें उनकी त्रुटियोंका बोध १ सर्वथासदसदेकानेक-नित्यादि-सकलै कान : प्रत्यनीकाऽनेकान्त-तत्वविषयः स्याद्वादः । -देवागमबृत्तिः २ इस विषयका अच्छा अनुभव प्राप्त करनेके लिये समन्तभद्रका 'देवागम' ग्रन्थ देखना चाहिये, जिसे 'आत्ममीमांता' भी कहते हैं। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ بانو یو شمیر مهدی محمية في ه م یه समन्तभद्र-परिचय कराते थे, और इससे उनके भाषणादिकका दूसरोंपर अच्छा ही प्रभाव पड़ता था-उनके पास उसके विरोधका कुछ भी कारण नहीं रहता था। यही वजह थी और यही सब वह मोहन-मंत्र था जिससे समन्तभद्र को दूसरे सम्प्रदायोंकी ओरसे किसी खास विरोधका सामना प्रायः नहीं करना पड़ा और उन्हें अपने उदेश्यमें भारी सफलताकी प्राप्ति हुई। समन्तभद्रकी इस सफलताका एक समुच्चय उल्लेख श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं०५४ (६७) में, जिसे 'मल्लिषणप्रशस्ति' भी कहते हैं. और जो शक संवत् १०५० में उत्कीर्ण हुआ है उसमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है और उससे यह मालूम होता है कि 'मुनिसंघके नायक आचार्य समन्तभद्रके द्वारा सर्वहितकारी जैनमार्ग इस कलिकालमें पुनः सब ओरसे भद्ररूप हुआ हैउसका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त होनेसे वह सबका हितकरनेवाला और सबका प्रेमपात्र बना है : बन्यो भस्मक-भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद-स्वमन्त्र-वचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्र-गणभृद्येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्र मभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ इस पद्यक पूर्वाधमें समन्तभद्रके जीवनकी कुछ खास घटनाओंका उल्लेख है और वे हैं-१ बोर तपस्या करते समय शरीरमें 'भस्मक' व्याधिकी उत्पत्ति. २ उस व्याधिकी बडी बुद्धिमत्ताके साथ शान्ति, ३ पद्मावती नामकी दिव्यशक्तिके द्वारा समन्तभद्रको उदात्त (ॐ चे) पदकी प्राप्ति और ४ अपने मन्त्ररूप वचनबलसे अथवा योग-सामर्थ्यसे चन्द्रप्रभ-बिम्बकी आकृष्टि । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० स्वयम्भूस्तोत्र. ये सब घटनाएँ बड़ी ही हृदयद्रावक हैं, उनके प्रदर्शन और विवेचनका इस संक्षिप्त परिचयमें अवसर नहीं है और इसलिये उन्हें 'समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल' नामक उस निबन्धसे जानना चाहिये जो 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहासमें ४२ पृष्ठों पर इन पंक्तियोंके लेखक-द्वारा लिखा गया है। ___ समन्तभद्रकी सफलताका दूसरा समुच्चय उल्लख बेलूरतालुकेके कनड़ी शिलालेख नं० १७ (E.C V) में पाया जाता है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके एक पत्थरपर उत्कीर्ण है और जिसमें उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक संवत् १०५६ दिया है । इस शिलालेखमें ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि भूतकेवलियों तथा और भी कुछ आचार्यों के बाद समन्तभद्र स्वामी श्रीवर्द्धमान महावीरस्वामीके तीर्थकीजनमार्गकी-सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए हैं "श्रीवर्द्धमानस्वामिगल तीर्थदोलु केवलिगल ऋद्धिप्राप्तरं श्रुतकेव लिगलु पलर सिद्धसाध्यर् तत् (ती) स्थ्यमं सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्वामिगलु सन्दर।" वीरजिनेन्द्रके तीर्थकी अपने कलियुगी समयमें हजारगुणी वृद्धि करने में समर्थ होना यह कोई साधाण बात नहीं है। इससे समन्तभद्रकी असाधारण सफलता और उसके लिय उनकी अद्वितीय योग्यता, भारी विद्वत्ता एवं बेजोड़ क्षमताका पता चलता है। साथ ही, उनका महान व्यक्तित्व मूर्तिमान होकर सामने आजाता है। यही वजह है कि अकलंकदेव-जैसे महान प्रभावक आचार्यने 'तीर्थ प्राभावि काले कलौ'-जैसे शब्दों-द्वारा, कलिकालमें समन्तभद्रकी इस तीर्थ-प्रभावनाकी उल्लेख बड़े Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१० समन्तभद्र-परिचय गौरवके साथ किया है। यही कारण है कि श्रीजिनसेनाचार्य समन्तभद्रके वचनोंको वीरभगवानके वचनोंके समान प्रकाशमान (प्रभावादिसे युक्त) बतला रहे हैं । और शिवकोटि आचार्यन रत्नमालाम, 'जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः पदक द्वारा समंतभद्रका भगवान महावीरके ऊँच उठत हुए शासन-समुद्रको बढ़ाने वाला चन्द्रमा लिखा है अर्थात् यह प्रकट किया है कि समन्तभद्रके उदयका निमित्त पाकर वीरभगवानका तीर्थसमुद्र खूब वृद्धिको प्राप्त हुआ है और उसका प्रभाव सवत्र फैला है। इसके सेवाय, अकलङ्कदवसे भी पूर्ववर्ती महान विद्वानाचार्य श्रीसिद्धसेनने, 'स्वयम्भूस्तुति' नामकी प्रथम द्वत्रिशिकामें, 'अनन सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः'-जैसे वाक्यक द्वारा समन्तभद्रका 'सर्वज्ञपरिक्षणक्षम' (सर्वज्ञ आप्तकी परीक्षा करनेमें समर्थ पुरुष ) के रूपमें उल्लेख करते हुए और उन्हें बड़े प्रसन्नचित्तसे वीरभगवानमें स्थित हुआ बतलात हुए, अगले एक पद्यमें वीरके उस यशकी मात्राका बड़े ही गौरवक साथ उल्लेख किया है जो उन 'अलब्धनिष्ठ' और 'प्रसमिद्धचेता' विशेषणोंके पात्र समन्तभद्र जैसे प्रशिष्योंके द्वारा प्रथित किया गया है। अब मैं, संक्षपमें ही इतना और बतला देना चाहता हूँ कि १. 'वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ।'-हरिवंशपुराण २. अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः। न तावदप्पेकसमूह-संहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः ॥ १५ ॥ सिद्धसेन-द्वारा समन्तभद्रके इस उल्लेखका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये देखो, 'पुरातन-जैनवाक्य-सूची' की प्रस्तावनामें प्रकाशित 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामका वृहत् निबन्ध पृ० १५.४ । । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र स्वामी समन्तभद्र एक क्षत्रिय-वंशोद्भव राजपुत्र थे, उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत 'उरगपुर' के राजा थे । वे जहां क्षत्रियोचित तेजसे प्रदीप्त थे वहाँ आत्महित-साधना और लोकहितकी भावनासे भी ओत-प्रोत थे, और इसलिये घर-गृहस्थीमें अधिक समय तक अटके नहीं रहे थे। वे राज्य-वैभवके मोहमें न फंसकर घरसे निकल गये थे, और कांची (दक्षिणकाशी) में जाकर 'नग्नाटक' (नग्न ) दिगम्बर साधु बन गय थे । उन्होंने एक परिचयपद्यमें अपनेको काँचीका 'नग्नाटक' प्रकट किया है और साथ ही निर्ग्रन्थजैनवादी' भी लिखा है-भले ही कुछ परिस्थितियोंके वश वे कतिपय स्थानोंपर दो एक दूसरे साधु-वेष भी धारण करनेके लिये बाध्य हुए हैं. जिनका पद्यमें उल्लेख है, परन्तु व सब अस्थायी थे और उनसे उनक मूलरूपमें कर्दमाक्त-मणिक समान, कोई अन्तर नहीं पड़ा.था-वे अपनी श्रद्धा और संयमभावनामें बराबर अडोल रहे हैं । वह पद्य इस प्रकार हैकांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुण्ड्रोद्रे शाक्यभिक्षुः' दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिबाट । वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिग्रन्थवादी । १ 'जैसा कि उनकी 'प्राप्तमीमांसा' कृतिकी एक प्राचीन ताडपत्रीय . प्रतिके निम्न 'पुष्पिका-वाक्यसे जाना जाता है, जो श्रवण बेल्गोलके श्रीदौर्बलिजिनदास शास्त्रीके शास्त्रभण्डार में सुरक्षित है 'इति श्रीफणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्र- . मुनेः कृतौ प्राप्तमीमांसायाम् ।' २ यह पद अग्रोल्लेखित जीण गुट केके अनुसार 'शाकभक्षी' हैं । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ स्वयम्भूम्तोत्र मिलता है । चौथा ‘पण्डित' विशेषण आजकलके व्यवहार में 'कवि' विशेषणकी तरह भले ही कुछ साधारण समझा जाता हो परन्तु उस समय कविके मूल्य की तरह उसका भी बड़ा मूल्य था और वह प्रायः 'गमक' (शास्त्रोके मर्म एवं रहस्यको समझने और दूसरोंको समझानेमें निपुण ) जैसे विद्वानोंके लिये प्रयुक्त होता था। अतः यहां गमकत्व-जैसे गुणविशेषका ही वह द्योतक है। शेष सब विशेषण इस पद्यके द्वारा प्रायः नये ही प्रकाशमें आप हैं और उनसे ज्योतिष, वैद्यक. मन्त्र और तन्त्र जैसे विषयोंमें भी समन्तभद्रकी निपुणताका पता चलता है। रत्नकरण्डनावकाचारमें अङ्गहीन सम्यग्दर्शनको जन्मसन्ततिके छेदनमें असमर्थ बतलाते हुए, जो विषवेदनाके हरनेमें न्यूनाक्षरमंत्रकी असमर्थताका उदाहरण दिया है वह और शिलालेखों तथा ग्रन्थोंमें 'स्वमन्त्रवचन-व्याहत-चन्द्रप्रभः'-जैसे विशेषणोंका जो प्रयोग पाया जाता है वह सब भी आपके मन्त्र-विशेषज्ञ तथा मन्त्रवादी होनेका सूचक है। अथवा यों कहिये कि आपके 'मान्त्रिक' विशेषणसे अब उन सब कथनोंकी यथार्थताको अच्छा पोषण मिलता है। इधर हवीं शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचार्यने अपने 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थमें 'अष्टाङ्गमप्यखिलमत्र समन्तभद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैविशेषात्' इत्यादि पद्य(२०-८६) के द्वारा समन्तभद्रकी अष्टाङ्गवैद्यक-विषयपर विस्तृत रचनाका जो उल्लेख किया है उसको ठीक बतलानेमें 'भिषक' । विशेषण अच्छा सहायक जान पड़ता है। ___अन्तके दो विशेषण 'आज्ञासिद्ध' और 'सिद्धसारस्वत' तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और उनसे स्वामी समन्तभद्रका असाधारण व्यक्तित्व बहुत कुछ सामने आजाता है. । इन विशेषणोंको प्रस्तुत करते हुए स्वामीजी राजाको सम्बोधन करते. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र - परिचय १०५ हुए कहते हैं कि - 'हे राजन् ! मैं इस समुद्र - वलया पृथ्वी पर 'प्रज्ञासिद्ध' हूँ - जो आदेश दूँ वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय. मैं 'सिद्धसारस्वत' हूँ - सरस्वती मुझे सिद्ध है । इस सरस्वतीकी सिद्धि अथवा वचनसिद्धि में ही समन्तभद्रकी उस सफलताका सारा रहस्य संनिहित है जो स्थान स्थान पर वाघोषणाएँ करने पर उन्हें प्राप्त हुई थी और जिसका कुछ विवेचन ऊपर किया जा चुका है। समन्तभद्र की वह सरस्वती ( वाग्देवी ) जिनवाणी माता थी, जिसकी अनेकान्तदृष्टि-द्वारा अनन्य आराधना करके उन्होंने अपनी वाणी में वह अतिशय प्राप्त किया था जिसके आगे सभी नतमस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय - विद्वानोंको उनकी आकर्षित किये हुए है । a समन्तभद्र, श्रद्धा और गुणज्ञता दोनोंको साथमें लिये हुए, बहुत बड़े अद्भक्त थे. अर्हद्गुणोंकी प्रतिपादक सुन्दर सुन्दर स्तुतियां रचनेकी ओर उनकी बड़ी रुचि थी और उन्होंने स्तुतिविद्या में 'सुस्तुत्यां व्यसनं' वाक्यके द्वारा अपनेको वैसी स्तुतियां रचनेका व्यसन बतलाया है । उनके उपलब्ध ग्रन्थों ग्रन्थ स्तोत्रोंके ही रूपको लिये हुए हैं और उनसे उनकी द्वितीय अद्भक्ति प्रकट होती है । 'स्तुतिविद्या' को छोड़कर स्वयम्भू स्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन तो आपके खास स्तुतिग्रन्थ हैं। इनमें जिस स्तोत्र - प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिन से कठिन तात्त्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है. वह समन्तभद्र से पहले के ग्रन्थोंमें प्रायः नहीं पाई जाती । समन्तभद्र अपने स्तुतिग्रन्थों के द्वारा स्तुतिविद्याका खास तौर से उद्धार, iver or faire किया है, और इसी लिये वे 'स्तुतिकार' Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ स्वयम्भूस्तोत्र कहलाते थे। उन्हें 'आद्यस्तुतिकार' होनेका भी गौरव प्राप्त था। अपनी इस अद्भक्ति और लोकहितसाधनकी उत्कट भावनाओंके कारण वे आगेको इस भारतवर्षमें 'तीर्थङ्कर' होनेवाले हैं, ऐसे भी कितने ही उल्लेख अनेक ग्रन्थों में पाये जाते हैं। साथ ही ऐसे भी उल्लेख मिलते है जो उनके 'पदर्द्धिक' अथवा 'चारणऋद्धि' से सम्पन्न होनेके सूचक हैं। ___ श्रीसमन्तभद्र 'स्वामी' पदसे खास तौरपर अभिभूषित थे और यह पद उनके नामका एक अंग ही बन गया था। इसीसे विद्यानन्द और वादिराजसूरि जैसे कितने ही आचार्यों तथा पं० आशाधरजी जैसे विद्वानोंने अनेक स्थानोंपर केवल स्वामी' पदके प्रयोग-द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है। निःसन्देह यह पद उस समयकी दृष्टिसे आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है। आप सचमुच ही विद्वानोंके स्वामी थे, त्यागियोंके स्वामी थे,तपस्वियोंके स्वामी थे.योगियोंके स्वामी थे, ऋषि-मुनियोंके स्वामी थे. सद्गुणियोंके स्वामी थे. सत्कृतियोंके स्वामी थे और लोकहितैषियोंके स्वामी थे। आपने अपने अवतारसे इस भारतभूमिको विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीमें पवित्र किया है। आपके अवतारसे भारतका गौरव बढ़ा है और इसलिये श्री शुभचन्द्राचार्यने, पाण्डवपुराणमें, आपको जो ‘भारतभूषण' लिखा है वह सब तरह यथार्थ ही है। देहली जुगलकिशोर मुख्तार ता०४-७-१९५१ १.३ देखो, स्वामी समन्तभद्र पृ० ६६, ६२, ६१ (फुटनोट) ४ आजकल तो 'कवि' और 'पण्डित' पदोंकी तरह 'स्वामी' पदका भी दुरुपयोग होने लगा है। . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची. १ श्रीवृषभ-जिन-स्तवन २ श्रीअजित-जिन-स्तवन ... ३ श्रीशम्भव-जिन-स्तवन ... ४ श्रीअभिनन्दन-जिन-स्तवन ... ५ श्रीसुमति-जिन-स्तवन ... ६ श्रीपद्मप्रभ-जिन-स्तवन । ७ श्रीसुपार्श्व-जिन-स्तवन ८ श्रीचन्द्रप्रभ-जिन-स्तवन ... ६ श्रीसुविधि-जिन-स्तवन ... १० श्रीशीतल-जिन-स्तवन ११ श्रीश्रेयो-जिन-स्तवन १२ श्रीवासुपूज्य-जिन-स्तवन .:. १३ श्रीविमल-जिन-स्तवन ... १४ श्रीअनत्ज़ित-जिन-स्तवन... १५ श्रीधर्म-जिन-स्तवन १६ श्रीशान्ति-जिन-स्तवन १७ श्रीकुन्थु-जिन-स्तवन १८ श्रीअर-जिन-स्तवन १६ श्रीमल्लि-जिन-स्तवन २० श्रीमुनिसुव्रत-जिन-स्तवन ... २१ श्रीनमि-जिन-स्तवन २२ श्रीअरिष्टनेमि-जिन-स्तवन'.' .२३ श्रीपार्श्व-जिन-स्तवन ... २४ श्रीवीर-जिन-स्तवन - - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण तीथं सर्व-पदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधे-- भव्यानामकलंकभाव-कृतये प्रामावि काले कलौ । येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः सन्ततं कृत्वा तत्स्वधिनायकं जिनपतिं वीरं प्रणौमि स्फुटम्।। येनाऽशेष-कुनीति-वृत्ति-सरितः प्रेक्षावतां शोषिताः यद्वाचोऽप्यकलङ्क-नीति-रुचिरास्तत्त्वार्थ-सार्थ-द्युतः । स श्रीस्वामि-समन्तभद्र-यतिभृद्भूयाद्विभुर्भानुमान विद्यानन्द-धन-प्रदोऽनघधियां स्याद्वाद-मार्गाग्रणीः॥ श्रीवर्द्धमानमभिनम्य समन्तभद्र सद्धोध-चारु-चरिताऽनघ-वाक्स्वरूम् । तस्य स्वयम्भु-कृतिमप्रतिमां गुणाढ्यां व्याख्यामि लोक-हित-शान्ति-विवेक-वृद्धय ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमन्तभद्राय नमः . श्रीमत्स्वामि समन्तभद्राचार्य - विरचित चतुर्विंशति-जिन स्तवनात्मक स्वयम्भू स्तोत्र नुवादादि सहित ***** १ श्रीवृषभ-जिन स्तवन -****** स्वयम्भुवा भूत- हितेन भूतले मञ्जस-ज्ञान- विभृति चक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः ||१|| "जो स्वयम्भू थे— स्वयं ही, बिना किसी दूसरेके उपदेशक, मोक्षमार्गको जानकर तथा उसका अनुष्ठान करके आत्म-विकासको प्राप्त हुए. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समन्तभद्र भारती । थे--प्राणियोंके हितकी-संसारी जीवोंके आत्मकल्याणकी भावना एवं परिणतिसे युक्त साक्षात् .भूतहितकी मूर्ति थे, सम्यग्ज्ञान! की विभूतिरूप-सर्वज्ञतामय-(अद्वितीय ) नेत्रके धारक थे, और ! अपने गुणसमूहरूप-हाथोंसे अबाधितत्त्व और यथावस्थित अर्थप्रकाशकत्व आदि गुणों के समूहवाले वचनोंसे--अन्धकारको-जगतके भ्रान्ति एवं दुःख-मूलक अज्ञानको दूर करते हुए, पृथ्वीतलपर ऐसे शोभायमान होते थे जैसे कि अपनी अर्थ-प्रकाशकत्वादिगुणविशिष्ट किरणोंसे रात्रिके अन्धकारको दूर करता हुआ पूर्णचन्द्रमा सुशोभित होता है।' प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धृतोदयो ममत्वतो निर्विविदे. विदांवरः ।।२।। 'जिन्होंने, ( वर्तमान अवसर्पिणी कालके ) प्रथम प्रजापतिके रूपमें देश, काल और प्रजा-परिस्थितिके तत्त्वोंको अच्छी तरहसे जानकर, जीनेकी-जीवनोपायको जाननेकी-इच्छा रखनेवाले प्रजाजनोंको सबसे पहले कृषि आदि कर्मों में शिक्षित किया- उन्हें खेती करना, शस्त्र चलाना, लेखन-कार्य करना, विद्या शास्त्रोंको पढ़ना, दस्तकारी करना तथा बनज-व्यापार करना सिखलाया और फिर हेयो- । पादेय तत्त्वका विशेष ज्ञान प्राप्त करके आश्चर्यकारी उदय (उत्थान अथवा प्रकाश) को प्राप्त होते हुए जो ममत्वसे ही विरक्त होगयेप्रजाजनों, कुटुम्बीजनों, स्वशरीर तथा भोगोंसे ही जिन्होंने ममत्व-बुद्धि । (आसक्ति) को हटा लिया। और इस तरह जो तत्त्ववेत्ताओंमें ! श्रेष्ठ हुए।' Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र - विहाय यः सागर-वारि-वाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रववाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ 'जो मुमुक्षु थे-मोक्ष-प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले अथवा संसार| समुद्रसे पार उतरनेके अभिलाषी थे--, आत्मवान् थे-इन्द्रियोंको । स्वाधीन रखने वाले आत्मवशी थे--, और ( इसलिये) प्रभु थे-- स्वतंत्र थे। जिन (विरक्त हुए) इक्ष्वाकु-कुलके आदिपुरुषने, सती वधूको-अपने ऊपर एक निष्ठासे प्रेम रखनेवाली सुशीला महिलाको-- है और उसी तरह इस सागर-वारि-बसना वसुधावधूको-सागरका जल ही है वस्त्र जिसका ऐसी स्वभोग्या समुद्रान्त पृथ्वीकोभी, जो कि (युगकी आदिमें ) सती-सुशीला थी-अच्छे सुशील पुरुषोंसे श्राबाद ! थी--, त्याग करके दीक्षा धारण की। ( दीक्षा धारण करनेके ! अनन्तर ) जो सहिष्णु हुए-भूख-प्यास श्रादिकी परीषहोंसे अजेय रहकर उन्हें सहनेमें समर्थ हुए--, और ( इसीलिये ) अच्युत रहे अपने प्रतिज्ञात (प्रतिज्ञारूप परिणत ) व्रत-नियमोसे चलायमान नहीं। * हुए। ( जबकि दूसरे कितने ही मातहत राजा. जिन्होंने स्वामिभक्तिसे .. 1. प्रेरित होकर आपके देखादेखी दीक्षा ली थी, मुमुक्षु, आत्मवान् , प्रभु । तथा सहिष्णु न होनेके कारण, अपने प्रतिज्ञात व्रतोसे च्युत और भ्रष्ट होगये थे)।' स्व-दोष-मूलं स्व-समाधि-तेजसा निनाय यो निर्दय-भस्मसात्क्रियाम् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' समन्तभद्र-भारती जगाद तत्त्वं जगतेऽर्थिनेऽजसा बभूव च ब्रह्म-पदाऽमृतेश्वरः ॥४॥ ( तपश्चरण करते हुए) जिन्होंने अपने आत्मदोषोंके-आत्मसम्बन्धी राग-द्वेष-काम-क्रोधादिविकारोंके-मूलकारणको-घातिकर्मचतुष्टयको-अपने समाधि-तेजसे-शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड अग्निसे, निर्दयतापूर्वक पूर्णतया भस्मीभूत कर दिया। तथा ( ऐसा करनेके अनन्तर ) जिन्होंने तत्त्वाभिलाषी जगतको तत्त्वका सम्यक उपदेश दिया-जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप बतलाया । और (अन्तको) ! जो ब्रह्मपदरूपी अमृतके-स्वात्मस्थितिरूप मोक्ष-दशामें प्राम होनेवाले अविनाशी अनन्त सुखके-ईश्वर हुए-स्वामी बने ।' म विश्व-चचुषमोऽर्चितः सतां समग्र-विद्याऽऽत्म-वपुर्निरञ्जनः । पुनातु चेतो मम नाभि-नन्दनी जिनोऽजित-क्षुल्लक-वादि-शासनः ॥॥ (इस तरह ) जो सम्पूर्ण कर्म-शत्रुओंको जीतकर 'जिन' हुए, जिनका शासन क्षुल्लकवादियोंके-अनित्यादि सर्वथा एकान्त पक्षका ! प्रतिपादन करनेवाले प्रवादियोंके द्वारा अजेय था. और जो सर्वदर्शी हैं. सर्व विद्यात्मशरीरी हैं--- पुद्गलपिण्डमय शरीरके अभाव में जीवाटि , सम्पूर्ण पदार्थों को अपना मानात् विषय करनेवाली केवलज्ञानरूप पूर्ण- । विद्या ( सर्वज्ञता ) ही जिनका अान्मशरीर है--, जो सत्पुरुषोंसे पृजित हैं, और निरञ्जन पदको प्राप्त हैं-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि + 'जिन-क्षुल्लक-वादि-शासनः' इति पाठान्तरम् । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . | नोकर्म तथा राग-द्वेषादि भावकर्मरूपी त्रिविध कर्म-कालिमासे सर्वथा रहित । होकर आवागमनसे विमुक्त हो चुके हैं, वे ( उक्त गुण-विशिष्ट) नाभिनन्दन-चौदहवे कुलकर (मनु) श्रीनाभिरायके पुत्र--श्रीवृषभमें देव-धर्मतीर्थके आय-प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर श्रीआदिनाथ भगवान्--मेरे अन्तःकरणको पवित्र करें-उनके स्तवन एवं स्वरूप-चिन्तन के प्रसादसे. मेरे हृदयको कलुषित तथा मलिन करनेवाली कपाय-भावनाएँ शान्त होजायें। श्रीअजित-जिन-स्तवन यस्य प्रभावात् त्रिदेव-च्युतस्य क्रीडास्वपि क्षीवमुखाऽरविन्दः । अजेय-शक्ति वि बन्धु-वर्गश्चकार नामाऽजित इत्यवन्ध्यम् ॥ १॥ * जो देवलोकसे अवतरित हुए थे और इतने प्रभावशाली थे। कि उनकी क्रीडाओंमें-बाल-लीलाओं में भी उनका बन्धुवर्ग| कुटुम्बसमूह-हर्षोन्मत्त-मुखकमल होजाता था, तथा जिनके माहा त्म्यसे वह बन्धुवर्ग पृथ्वीपर अजेय-शक्तिका धारक हुआ-उसे । * कोई भी जीत नहीं सका और (इसलिये) उस बन्धुवर्गने जिनका ! 'अजित ऐसा सार्थक अथवा अन्वर्थक नाम रक्खा।' 'न केनचिजीयते (अन्तरंगैर्बाह्य श्च शत्रुभिर्न जीयते वा) इत्यजितः --प्रभाचन्द्रः 'अतएव अवन्थ्यमन्वयम् ।... Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती अद्यापि यस्याऽजितशासनस्य सतां प्रणेतुः प्रतिमङ्गलार्थम् । . प्रगृह्यते नाम परम-पवित्रं स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके ॥२॥ 'जिनका शासन-अनेकान्तमत-अजेय था-सर्वथा एकान्तमता। वलम्बी परवादीजन जिसे जीतनेमें असमर्थ थे और जो सत्पुरुषोंके भव्यजनोंके-प्रधान नेता थे-उन्हें आत्मकल्याणके समीचीन मार्गमें ! प्रवृत्त करानेवाले थे--उन अजित तीर्थङ्करका परमपवित्र-पाप- क्षयकारक और पुण्यवर्धक-नाम आज भी-असंख्यात काल बीत .. | जानेपर भी-लोकमें अपनी इष्टसिद्धिरूप विजयके इच्छुक जन- ! . समूहके द्वारा प्रत्येक मंगलके लिये अपनी किसी भी इष्टसिद्धि के निमित्त-सादर ग्रहण किया जाता है-भव्यजनोंकी दृष्टिमें वह बराबर महत्त्व पूर्ण बना हुआ है।' यः प्रादुरासीत्प्रभु-शक्ति-भूम्ना भव्याऽऽशयालीन-कलङ्क-शान्त्ये । महामुनिर्मुक्त-धनोपदेहो यथाऽरविन्दाऽभ्युदयाय भास्वान् ॥३॥ 'घातिया कर्मोके आवरणादिरूप उपलेपसे मुक्त जो महामुनि , (गणधरादि-मुनियोंके अधिपति) भव्यजनोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलङ्कोंकी-अज्ञानादि-दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि-कर्मों की-शान्तिके लिये उन्हें समूल नष्ट कर भव्यजनोंका आत्म-विकास | सिद्ध करनेके लिये-जगतका उपकार करने में समर्थ अपनी वचनादि । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र शक्तिकी सम्पत्ति के साथ उसी प्रकार प्रादूर्भूत हुए जिस प्रकार कि मेघोंके आवरणसे मुक्त हुआ सूर्य, कमलोंके अभ्युदय के लिये - उनके अन्तः अन्धकारको दूर कर उन्हें विकसित करनेके लिये - अपनी प्रकाशमय समर्थ शक्ति - सम्पत्ति के साथ प्रकट होता है ।' १ येन प्रणीतं पृथु धर्म-तीर्थं ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् । गाङ्ग हृदं चन्दन- पङ्क-शीतं गज-प्रवेका इव धर्म - तप्ताः ॥ ४ ॥ ' ( उक्त प्रकार से प्रादुर्भूत होकर ) जिन्होंने उस धर्म तीर्थकासम्यग्दर्शनादि -रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि- देशलक्षण और सामायिकादिपंच प्रकार चारित्र धर्मके प्रतिपादक श्रागमतीर्थका - प्रणयन कियाप्रकाशन किया— जो महान है - सम्पूर्ण पदार्थोंके स्वरूप- प्रतिपादनकी दृष्टिसे विशाल है, ज्येष्ठ है- -समस्त धर्मतीथों में प्रधान है - और जिसका आश्रय पाकर भव्यजन ( संसार - परिभ्रमण - जन्य ) दुःखसन्तापपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं - उससे छूट जाते हैंजिस प्रकार कि ग्रीष्मकालीन सूर्यके आतापसे सन्तप्त हुए बड़े बड़े हाथी चन्दनलेपके समान शीतल गङ्गाद्रहको प्राप्त होकर अथवा गंगाके अगाध जल में प्रवेश करके सूर्यके प्रतापजन्य दुःखको मिटा डालते हैं ।' स ब्रह्मनिष्ठः सम - मित्र - शत्रु विद्या - विनिर्वान्त-कषाय-दोषः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ समन्तभद्र - भारता ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ लब्धात्मलक्ष्मीर जितोऽजितात्मा जिन श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् ||५|| (१०) 'जो ब्रह्मनिष्ठ थे - अनन्य श्रद्धा के साथ श्रात्मामें हिंमाकी पूर्ण प्रतिष्ठा किये हुए थे, (इसीसे ) सम - मित्र शत्रु थे - मित्र और शत्रुमें कोई भेदभाव न करके उन्हें श्रात्मदृष्टिसे समान अवलोकन करते थे, आत्मीय कषाय-दोषोंको जिन्होंने सम्यग्ज्ञानाऽनुष्ठानरूप विद्याके द्वारा पूर्णतया नष्ट कर दिया था— श्रात्मापरसे उनके आधिपत्यको बिल्कुल हटा दिया था -: -, ( और इसीसे ) जो लब्धात्मलक्ष्मी हुए थेअनन्तज्ञानादि श्रात्मलक्ष्मीरूप जिनश्रीको जिन्होंने पूर्णतया स्वाधीन किया था - ; ( इस प्रकार के गुणोंसे विभूषित) वे जितात्मा - इन्द्रियोंके आधीन न होकर आत्मस्वरूप में स्थित - भगवान् अजित - जिन मेरे लिये जिन - श्रीका - शुद्धात्म लक्ष्मीकी प्राप्तिका - विधान करें । अर्थात् मैं, उनके आराधन-भजन- द्वारा उन्हींका आदर्श सामने रखकर, अपनी आत्माको कर्म-बन्धनसे छुड़ाता हुया पूर्णतया स्वाधीन करने में समर्थ होऊँ, और इस तरह जिन - श्रीको प्राप्त करनेमें वे मेरे सहायक बनें । ' . + 'जिनः श्रियं' इति पाठान्तरम् । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र, श्रीशम्भव-जिन-स्तवन न्वं शम्भवः । सम्भव-तर्ष-रोगैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके । आसीरिहाऽऽकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरुजां प्रशान्त्यै ॥१॥ ___(अन्वर्थ-संज्ञाके धारक १) हे शम्भव-जिन ! सांसारिक तृष्णा रोगोंसे प्र-पीडित जनसमूहके लिये आप इस लोकमें उसी प्रकार आकस्मिक वैद्य हुए हैं जिस प्रकार कि अनाथोंके द्रव्यादि-सहाय-विहीनोके रोगोंकी शान्तिके लिये कोई चतुर वैद्य में अचानक आ जाता है और अपने लिये चिकित्साके फलस्वरूप धनादिकी कोई अपेक्षा न रखकर उन गरीबोकी चिकित्सा करके उन्हें नीरोग बनानेका पूर्ण प्रयत्न करता है।' अनित्यमत्राणमहक्रियाभिः प्रसक्त-मिथ्याऽध्यवसाय-दोषम् । इदं जगजन्म-जराऽन्तकात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वम् ।।२।। संभवः' इति पाठान्तरम् । + शम्भव इत्यन्वर्थेयं संज्ञा । शं सुखं भवत्यस्माद्भव्यानां इति शम्भवः! (जिनसे भव्योंको सुख होवे वे 'शम्भव')।' -प्रभाचन्द्राचार्य । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀ . समन्तभद्र-भारती यह ( दृश्यमान ) जगत, जो कि अनित्य है, अशरण है, अहंकार - ममकार की क्रियाओं के द्वारा संलग्न मिथ्या अभिनिवेशके दोषसे दूषित है और जन्म- जरा मरणसे पीडित है, उसको ( हे शम्भवजिन ! ) आपने निरञ्जना - कर्म मलके उपद्रवसे रहित मुक्तिस्वरूपा - शान्तिकी प्राप्ति कराई है – उसे उस शान्तिके मार्गपर लगाया है जिसके फलस्वरूप कितनोंने ही चिर शान्तिकी प्राप्ति की है । ' शतह्रदोन्मेष - चलं हि सौख्यं तृष्णाऽऽमयाऽप्यायन - मात्र हेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजत्र तापस्तदायासयतीत्यवादीः || ३|| 'आपने पीडित जगतको उसके दुःखका यह निदान बतलाया है कि-- इन्द्रिय-विषय-सुख बिजली की चमक के समान चञ्चल हैक्षणभर भी स्थिर रहनेवाला नहीं है - और तृष्णारूपी रोगकी वृद्धिका एकमात्र हेतु है - इन्द्रिय-विषयोंके सेवन से तृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णा की अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है। और वह ताप जगतको ( कृषि-वाणिज्यादि - कर्मों में प्रवृत्त कराकर ) अनेक दुःख-परम्परासे पीडित करता रहता है ।' बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू * बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः । स्याद्वादिनो नाथ! तवैव युक्तं नैकान्तदृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता ||४|| * 'हेतुः' इति पाठन्तरम् । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र ( 'बन्ध, मोक्ष, बन्ध और मोक्षके कारण, बद्ध और मुक्त तथा मुक्तिका फल, इन सब बातों की व्यवस्था हे नाथ! आप स्याद्वादीअनेकान्तदृष्टि मत में ही ठीक बैठती है, एकान्तदृष्टियों केसर्वथा एकान्तवादियोंके मतों में नहीं । अतएव आप ही 'शास्ता' - तत्त्वोपदेष्टा-- हैं । दूसरे कुछ मतोंमें ये बातें जरूर पाई जाती हैं, परन्तु कथनमात्र हैं, एकान्त-सिद्धान्तको स्वीकृत करनेसे उनके यहाँ बन नहीं सकतीं; और इसलिये उनके उपदेष्टा ठीक अर्थ में 'शास्ता' नहीं कहे जा सकते ।' 7 शक्रोऽप्यशक्तस्तव पुण्यकीर्ते : स्तुत्यां प्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः । तथापि भक्त्या स्तुत-पाद-पद्मो ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः ||५|| (१५) ११ ! ' हे आर्य ! - गुणों तथा गुणवानोंके द्वारा सेव्य शम्भव जिन ! - आप पुण्यकीर्ति हैं -- आपकी कीर्ति ख्याति तथा जीवादि पदार्थों का कीर्तन - प्रतिपादन करनेवाली वाणी पुण्या - प्रशस्ता है --निर्मल है --, आपकी स्तुति में प्रवृत्त हुआ शक्र - अवधिज्ञानादिकी शक्तिसे सम्पन्न इन्द्र--भी अशक्त रहा है — पूर्णरूपसे स्तुति करने में समर्थ नहीं हो सका है, फिर मेरे जैसा अज्ञानी - अवधि आदि विशिष्टज्ञानरहित प्राणीतो कैसे समर्थ हो सकता है ? परन्तु असमर्थ होते हुए भी मेरे द्वारा आपके पदकमल भक्तिपूर्वक — पूर्णअनुरागके साथ ---- -स्तुति किये गये हैं । (ः) आप मुझे ऊँचे दर्जेकी शिवसन्तति प्रदान करें अर्थात् मेरे लिये ऊँचे दर्जेकी शिवसन्तति — कल्याणपरम्परा—देय - मैं उसको प्राप्त करनेका पात्र हूँ, अधिकारी हूँ ।' + 'देया शिवतातिरुच्चैः', यह पाठ अधिक संगत जान पड़ता है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारता श्रीअभिनन्दन-जिन-स्तवन गुणाऽभिनन्दादभिनन्दनो भवान् दया-वधूं क्षान्ति-सखीमशिश्रियत् । समाधि-तन्त्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नैग्रन्थ्य-गुणेन चाऽयुजत् ॥१॥ ___(हे अभिनन्दन जिन !) गुणोंकी अभिवृद्धिस-अापके जन्म लेने ही लोकमें सुख-सम्पत्यादिक गुणोंके बढ़ जानेसे-आप 'अभिनन्दन इस सार्थक संज्ञाको प्राप्त हुए हैं। आपने क्षमा-सखीवाली दयावधूको अपने आश्रयमें लिया है-दया और क्षमा दोनोंको अपनाया है और समाधिके-शुक्लध्यानके-लक्ष्यको लेकर उसकी सिद्धिक लिये आप उभय प्रकारके निर्ग्रन्थत्वके गुणसे युक्त हुए हैंआपने बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग किया है।' अचेतने तत्कृत-बन्धजेऽपि च ममेदमित्याभिनिवेशिक-ग्रहात् । प्रभंगुरे स्थावर-निश्चयेन च क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥२॥ 'अचेतन-शरीरमें और शरीर-सम्बन्धसे अथवा शरीरके । साथ किया गया आत्माका जो कर्मवश बन्ध है उससे उत्पन्न होने | वाले सुख-दुःखादिक तथा स्त्री-पुत्रादिकमें 'यह मेरा है-मैं इसका । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तान हूँ' इस प्रकारके अभिनिवेश ( मिथ्या अभिप्राय ) को लिये हुए होनेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थोंमें स्थायित्वका निश्चय कर लेनेके कारण जो जगत् नष्ट होरहा है — आत्महित-साधनसे विमुख होकर अपना कल्याण कर रहा है— उसे (हे अभिनन्दन जिन !) आपने तरका ग्रहण कराया है—जीवादि-तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको बतलाकर सन्मार्ग-पर लगाया है।' क्षुदादि-दुःख-प्रतिकारतः स्थितिर्न चेन्द्रियार्थ - प्रभवाऽल्प- सौख्यतः । ततो गुणो नास्ति च देह - देहिनो - रितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत् || ३ || 'धादि- दुखों के प्रतिकारसे - भूख-प्यास यादिकी वेदनाको मिके लिये भोजन - पानादिका सेवन करनेस — और इन्द्रियविषय-जनित स्वल्प सुखके अनुभव से देह और देहधारीका सुखपूर्वक सदा अवस्थान नहीं बनता - थोडी ही देरकी तृप्तिके बाद भूख-प्यासादिककी वेदना फिर उत्पन्न होजाती है और इन्द्रिय-विषयोंके सेवनकी लालसा अग्निमें ईंधन के समान तीव्रतर होकर पीडा उत्पन्न करने लगती है । ऐसी हालत में क्षुधादिः दुखों के इस क्षणस्थायी प्रतीकार और इन्द्रियविषय-जन्य स्वल्प-सुखके सेवन से न तो वास्तव में इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी आत्माका ही कुछ भला होता है: इस प्रकारकी विज्ञापना हे भगवन ! आपने इस (भ्रमके चक्कर में पड़े हुए) जगनको की है— उसे तत्त्वका ग्रहण कराते हुए रहम्यकी यह सब बात समझाई है, जिससे ग्रामक्ति छूट कर परम कल्याणकारी अनासक्त योगकी ओर प्रवृत्ति होमके ।' ܀܀܀܀܀܀܀ܪܟܝ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समन्तभद्र-भारती जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकार्येष्विह न प्रवर्तते । । इहाऽप्यमुत्राऽप्यनुबन्धदोषवित् कथं सुखे संसजतीति चाऽब्रवीत् ॥ ४ ॥ 'आपने जगत्को यह भी बतलाया है कि अनुबन्ध-दोषसेपरमासक्तिके वश-विषय-सेवनमें अति लोलुपी हुआ भी मनुष्य इस लोकमें राजदण्डादिका भय उपस्थित होनेपर अकार्यो मेंपरस्त्रीसेवनादि जैसे कुकर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, फिर जो मनुष्य इस । लोक तथा परलोकमें होनेवाले विषयासक्तिके दोषोंको-भयंकर परिणामोंको-भलेप्रकार जानता है वह कैसे विषय-सुखमें आसक्त ! । होसकता है ?-नहीं हो सकता। अत्यासक्तिके इस लोक और पर, लोक-सम्बन्धी भयंकर परिणामोंका स्पष्ट अनुभव न होना ही विषय सुखमें । श्रासक्तिका कारण है । अतः अनुबन्धके दोषको जानना चाहिये ।' स चानुवन्धोऽस्य जनस्य तापकृत् तुषोऽभिवृद्धिः सुखतो न च स्थितिः। इति प्रभो! लोक-हितं यतो मतं ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥शा (२०) वह अनुबन्ध-आसक्तपन और (विषयसेवनसे उत्पन्न होने! वाली) तृष्णाकी अभिवृद्धि-उत्तरोत्तर विषय-सेवनकी आकांक्षा-- ! | इस लोलुपी प्राणीके लिये तापकारी (कष्टप्रद) है--इच्छित वस्तुके हैं न मिलनेपर उसकी प्राप्ति के लिये और मिल जानेपर उसके संरक्षणादिके | अर्थ संतापकी परम्परा बराबर चालू रहती है-दुःखकी जननी चिन्ताएँ- । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्रं . | आकुलताएँ सदा घेरे रहती हैं । संताप-परम्पराके बराबर चालू रहनेसे । . प्राप्त हुए थोड़ेसे इन्द्रिय-विषय-सुखसे इस प्राणीकी स्थिति सुख पूर्वक नहीं बनती। इस प्रकार लोकहितके प्रतिपादनको लिए । हुए चूँकि आपका मत है-शासन है-इस लिये हे अभिनन्दन है प्रभु ! आप ही जगत्के शरणभूत हैं, ऐसा सत्पुरुषोंने मुक्तिकै ! अर्थी विवेकी जनोंने-माना है।' श्रीसुमति-जिन-स्तवन अन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मुनिस्त्वं स्वयं मतं येन सुयुक्ति-नीतम् । यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति सर्व-क्रिया कारक-तत्त्व-सिद्धिः ॥ १ ॥ 'हे सुमति मुनि ! आपकी 'सुमति' (श्रेष्ठ-सुशोभन मति ) यह संज्ञा अन्वर्थक है-आप यथा नाम तथा गुण है--; क्योंकि एक तो * आपने स्वयं ही-बिना किसीके उपदेशके सुयुक्तिनीत तत्त्वको ! माना है--उस अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वको अंगीकार किया है जो अकाटय , युक्तियों के द्वारा प्रणीत और प्रतिष्ठित है-- दूसरे आपके (अनेकान्त ) 1 मतसे भिन्न जो शेष एकान्त मत हैं उनमें सम्पूर्ण क्रियाओं तथा | कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंके तत्त्वकी सिद्धि-उनके स्वरूपकी । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .ममन्तभद्र-मारती । उत्पत्ति अथवा ज्ञप्ति नहीं बनती। ( कैसे नहीं बनती, यह बात ॐ 'सुयुक्तिनीत-तत्त्व' को स्पष्ट करते हुए अगली कारिकाओंमें बतलाई गई है)।' अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदाऽन्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥२२॥ ___वह सुयुक्तिनीत वस्तुतत्त्व भेदाऽभेद-ज्ञानका विषय है और अनेक तथा एकरूप है--भेदज्ञानकी-पर्यायकी-दृष्टिसे अनेकरूप हैं । तो वही अभेदज्ञानकी-द्रव्यकी-दृष्टिसे एकरूप है और यह वस्तुको भेद-अभेदरूपसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही सत्य है-प्रमाण है। जो लोग इनमेंसे एकको ही सत्य मानकर दूसरेमें उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्योंकि ( दोनोंका परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध होनेसे ) दोनोंमेंसे एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। दोनोंका अभाव हो जानेसे वस्तुतत्व अनुपाख्य-निःस्वभाव हो जाता है और तब वह न तो एकरूप रहता है और न अनेकरूप । स्वभावका अभाव होनेसे उसे किसी रूपमें कह नहीं सकते, और इससे सम्पूर्ण व्यवहारका ही लोप ठहरता है।' मतः कथञ्चित्तदमत्व-शक्तिः खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् । मर्व-स्वभाव-च्युतमप्रमाणं स्व-वाग्विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत् ॥ २३ ॥ . . जो सत है-वंद्रव्य-क्षेत्र काल-भावसे विद्यमान है-उसके । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . कथंचित् असत्वशक्ति भी होती है-परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी । 2 अपेक्षा वह असत् है--; जैसे पुष्प. वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिये ! हुए प्रसिद्ध है परन्तु आकाशपर उसका अस्तित्व नहीं है, आका शकी अपेक्षा वह असत्-रूप है-यदि पुष्प-वस्तु सर्वथा सत्रूप हो । * तो आकाशके भी पुष्प मानना होगा और यदि, सर्वथा असत्रूप हो तो ! वृक्षोंपर भी उसका अभाव कहना होगा। परन्तु यह मानना और कहना । दोनों ही प्रतीतिके विरुद्ध होनेसे ठीक नहीं हैं । इसपरसे यह फलित होता. है कि वस्तु-तत्त्व कथंचित् सत्रूप और कथंचित् असत्रूप है-स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा जहाँ सत्स्वरूप है वहाँ पर-द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा । * असतूरूप भी है। किसी भी वस्तुके स्वरूपकी प्रतिष्ठा उस वक्त तक नहीं बन सकती जब तक कि उसमेंसे पररूपका निषेध न किया जाय । आम्र- ! फलको अनार, सन्तरा या अंगूर क्यों नहीं कहते १ इसी लिये न कि उसमें अनारपन, सन्तरापन, तथा अंगूरपन नहीं है---वह अपने में उनके स्वरूप* का प्रतिषेधक है । जो अपनेमें पररूपका प्रतिषेधक नहीं वह स्व-स्वरूपका प्रस्थापक भी नहीं हो सकता । इसीसे प्रत्येक वस्तुमें अस्तित्व और नास्ति| तत्व दोनों धर्म होते हैं और वे परस्पर अविनाभावी होते हैं--एकके । बिना दूसरेका सद्भाव बन नहीं सकता। र यदि वस्तुतत्वको सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय-उसमें अस्ति। त्व, नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मोंका सर्वथा अभाव स्वीकार किया । * जाय-तो वह अप्रमाण ठहरता है-उस तत्त्वका तब कोई व्यवस्थापक ! नहीं रहता । इसीसे (हे सुमति जिन !) आपकी दृष्टिसे सर्व-जीचादि ! तत्त्व कथंचित् संत-असत्रूप अनेकान्नात्मक हैं । इस मत्तसे भिन्न• दूसरा सत्त्वाद्वैतलक्षण अथवा शून्यतैकान्तस्वभावरूप जो एकान्त तत्त्व हैमत है-वह स्ववचनविरुद्ध है-उसी प्रमाणता बतलानेमें प्रमाण- | Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समन्तभद्र-भारती की सत्ता स्वीकार करनेसे उस मतके प्रतिपादकोंके 'मेरी माँ बाँझ' की तरह- । र स्ववचन-विरोध आता है, अर्थात् मत्वाद्वैतवादियोंके द्वैतापत्ति होकर उन.. की अद्वैतता भंग हो जाती है और शून्यतैकान्तवादियोंके प्रमाणका अस्तित्व । | होकर सर्वशून्यता बनी नहीं रहती-~~-विघट जाती है। और प्रमाणका । अस्तित्व स्वीकार न करवेसे स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूपण बन नहीं सकता--वह निराधार ठहरता है।' न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रिया-कारकमत्र युक्तम् । नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तुमः पुद्गलभावतोऽस्ति ॥४॥ 'यदि वस्तु सर्वथा-द्रव्य और पर्याय दोनों रूपसे-नित्य हो तो । वह उदय-अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती-उसमें उत्तराकारके स्वीकार रूप उत्पाद और पूर्वाकार के परिहाररूप व्यय नहीं बन सकता। और न । * उसमें क्रिया-कारककी ही योजना बन सकती है-वह न तो चलने ठहरने जीर्ण होने यादि किसी भी क्रियारूप परिणमन कर सकती है और र न कर्ता-कर्मादिरूपसे किसीका कोई कारक ही बन सकती है-उसे सदा र सर्वथा अटल अपरिवर्तनीय एकरूप रहना होगा, जो असंभव है। (इसी | तरह) जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो । सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। (यदि यह कहा जाय कि विद्य! मान दीपकका-दीप-प्रकाशका-तो बुझनेपर अभाव हो जाता है, फिर । यह कैसे कहा जाय कि सत्का नाश नहीं होता ?' इसका उत्तर यह है कि) दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल-पर्यायको धारण किये हुए अपना ! Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र अस्तित्व रखता है- प्रकाश और अन्धकार दोनों पुद्गलकी पर्याय हैं, एक पर्यायके अभाव में दूसरी पर्यायकी स्थिति बनी रहती है, वस्तुका सर्वा प्रभाव नहीं होता ।' विधिर्निषेधश्च कथञ्चिदिष्टौ . विवक्षया मुख्य गुण - व्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मति - प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ! ||५|| (२५) ८ ( वास्तव में) विधि और निषेध - - अस्तित्व और नास्तित्व-- दोनों कथंचित् इष्ट हैं - सर्वथा रूपसे मान्य नहीं । विवक्षासे उनमें मुख्यitrat व्यवस्था होती है— उदाहरण के तौरपर द्रव्यदृष्टिसे जब नित्यत्व प्रधान होता है तो पर्यायदृष्टिका विषय ग्रनित्यत्व गौण होजाता है और पर्यायदृष्टि-मूलक ग्रनित्यत्व जत्र मुख्य होता है तब द्रव्यदृष्टिका विय नित्यत्व गौरा हो जाता है । इस प्रकार से हे सुमति जिन ! आपका यह तत्त्व - प्रणयन है । इस तत्व प्रणयन के द्वारा आपकी स्तुति करनेवाले मुझ स्तोता (उपासक) की मतिका उत्कर्ष होवे - उसका पूर्ण विकास होवे । भावार्थ-यहाँ स्वामी समन्तभद्रने सुमतिदेवका, उनके मति -प्रवेकको लक्ष्य में रखकर, स्तवन करके यह भावना की है कि उस प्रकारके मति'प्रवेकका -- ज्ञानोत्कर्षका - मेरे ग्रात्मामें भी ग्राविर्भाव होवे । सो ठीक ही है, जो जैसा बनना चाहता है वह तद्गुण - विशिष्टकी उपासना किया करता है, र उपासना में यह शक्ति है कि वह भव्य उपासकको तद्र । द्र ूप बनाती है; जैसे तेलसे भीगी हुई बत्ती जब दीपककी उपासना करती हैतप होनेके लिये जब पूर्ण तन्मयता के साथ दीपकका श्रालिङ्गन करती • १६ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ समन्तभद्र-भारती । है तो वह भिन्न होते हुए भी तद्रूप होजाती है-स्वयं वैसी ही दीप-शिखा बन जाती है। श्रीपद्मप्रभ-जिन-स्तवन -*:*:**पद्मप्रभः पद्म-पलाश-लेश्यः पद्मालयाऽऽलिङ्गितचारुमूर्तिः। वभो भवान् भव्य-पयोरुहाणां पद्माकराणामिव पद्मवन्धुः ॥१॥ 'पद्म-पत्रके समान द्रव्यलेश्याके-रक्तवर्णाभ-शरीरके-धारक । (और इसलिये अन्वर्थसंज्ञक) हे पद्मप्रभ जिन ! आपकी (आत्मस्वरूप तथा शरीररूप ) सुन्दरमूर्ति पद्मालया-लक्ष्मीसे आलिङ्गित रही हैआत्मस्वरूप मूर्तिका अनन्तज्ञानादि-लक्ष्मीने तथा शरीररूप मूर्तिका निःस्वेदतादि-लक्ष्मीने दृढ़ आलिंगन किया है, और इस तरह अापकी उभय प्रकारको मूर्ति उभय प्रकारकी लक्ष्मीके (शोभाके) साथ तन्मयताको प्राप्त हुई है । और आप भव्यरूप कमलोंको विकसित करने के लिये *इसी भावको श्रीपूज्यपाद आचार्यने. अपने. 'समाधितंत्र'की निम्न * कारिकामें व्यक्त किया है---- भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः वर्तिीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥१७॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =>1000 स्वयम्भू-स्तोत्र ܀܀܀܀܀ २१ उनका आत्मविकास करनेके लिये - उसी तरह भासमान हुए हैं जिस तरह कि पद्मबन्धु-सूर्य पद्मकारोंका — कमलसमूहों का विकास करता हुआ सुशोभित होता है ।" भार पद्मच सरस्वतीं च भवान् पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समग्र - शोभां सर्वज्ञ - लक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ||२|| 'आपने प्रतिमुक्ति-लक्ष्मीकी प्राप्तिके पूर्व - श्रर्हन्त-अवस्था से पहले - लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंको धारण किया है-उस समय गृहस्थावस्थामें आप यथेच्छ धन-सम्पत्तिके स्वामी थे, आपके यहाँ लक्ष्मीके अटूट भण्डार भरे थे, साथ ही अवधि ज्ञानादि-लक्ष्मीसे भी विभूषित और सरस्वती आपके कण्ठमें स्थित थी। बादको विमुक्त होनेपर -- जीवन्मुक्त (अर्हन्त) अवस्थाको प्राप्त करनेपर -- आपने उस पूर्ण शोभावाली सरस्वतीको - दिव्य वाणीको— ही धारण किया है जो सर्वज्ञलक्ष्मी से प्रदीप्त थी- - उस समय आपके पास दिव्यवाणीरूप सरस्वतीकी ही प्रधानता थी, जिसके द्वारा जगतके जीवोंकों उनके कल्याणका मार्ग सुझाया गया है।' शरीर-रश्मि- प्रसरः प्रभोस्ते बालार्क - रश्मिच्छविराऽऽलिलेप । नरामissकीर्ण-सभां प्रभा वा शैलस्य' पद्माभमणेः स्वसानुम् ||३|| *'लक्ष्मीं ज्वलितां' इति पाठान्तरम् । + 'प्रभावच्छैलस्य' इति पाठान्तराम् । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती । 'हे प्रभो ! प्रातःकालीन सूर्य-किरणोंकी छविके समान-रक्तवर्ण । , ग्राभाको लिये हुए-आपके शरीरकी किरणों के प्रसार ( फैलाव ) ने है मनुष्यों तथा देवताओं से भरी हुई समवसरण-सभाको इस तरह है आलिप्त ( व्याप्त ) किया है जिस तरह कि पद्माभमणि-पर्वतकी 2. प्रभा अपने पार्श्वभागको आलिप्त करती है।' नभस्तलें पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राऽम्बुज-गर्भचारैः। पादाऽम्बुजैः पातित-मार-दर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ?॥४॥ (हे पद्मप्रभ जिन ! ) आपने कामदेवके दर्प ( मद ) को चूर र चूर किया है और सहस्रदल-कमलोंके मध्यभागपर चलनेवाले । ! अपने चरण-कमलोंके द्वारा नभस्थलको पल्लवोंसे व्याप्त-जैसा * करते हुए, प्रजाकी विभूतिके लिये-उसमें हेयोपादेयके विवेकको : जागृत करनेके लिये--भूतलपर विहार किया है ।' गुणाम्बुधेर्विग्रुषमप्यजस्य नाऽऽखंडलः स्तोतुमलं तवर्षः । प्रागेव मादृकिमुताऽतिभक्ति माँ बालमालापयतीदमित्थम् ॥५॥ (३०) 'हे ऋषिवर! आप अज हैं-पुनर्जन्मसे रहित हैं--, आपके + मुद्रित प्रतियोंमें जो 'बिजहर्ष' पाठ है वह अशुद्ध है और लेखकोंकी । _ 'थ' को 'घ' पढ़ लेने जैसी भूलका परिणाम जान पड़ता है। . *'अजस्रं' इति पाठान्तरम् । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र । गुणसमुद्र के लवमात्रकी भी स्तुति करने के लिये जव इन्द्र पहले । से ही समर्थ नहीं हुआ है, तो फिर अब मेरे जैसा असमर्थ प्राणी ! कैसे समर्थ हो सकता है ?-नहीं हो सकता | यह आपके प्रति ! मेरी अति भक्ति ही है जो मुझ बालकसे-स्तुति-विश्यमें अनभिज्ञसेइस प्रकारका यह स्तवन कराती है।' श्री सुपार्श्व-जिन-स्तवन स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा। तृषोऽनुषंगान च तापशान्ति रितीदमारव्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥१॥ 'यह जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है-विभाव-परिणतिसे रहित अपने । अनन्तज्ञानादिमय-स्वात्म-स्वरूपमें अविनश्वरी स्थिति है--वही पुरुषों का-जीवात्माओंका-स्वार्थ है-निजी प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोग-! * इन्द्रय-विषय-सुखका अनुभव--स्वार्थ नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय-विषय सुखके सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगाकांक्षाकी-वृद्धि होती ! है और उससे तापकी-~-शारीरिक तथा मानसिक दुखकी-शान्ति ! नहीं होने पाती । यह स्वार्थ और अस्वार्थका स्वरूप शोभनपार्थों सुन्दर शरीरांगों के धारक (और इसलिये अन्वर्थ-संज्ञक) भगवान् | सुपार्श्व ने बतलाया है।' Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ समन्तभद्र-भारती अङ्गगम जङ्गम-नेय-यन्त्रं यथा तथा जीव-धृतं शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्वमाख्यः ॥२॥ । 'जिस प्रकार अजगम ( जड ) यंत्र स्वयं अपने कार्य में प्रवृत्त । न होकर जंगम पुरुषके द्वारा चलाया जाता है उसी प्रकार जीवके द्वारा धारण किया हुआ यह शरीर अजंगम है-बुद्धिपूर्वक परिस्पन्द| व्यापारसे रहित है--और चेतन-पुरुषके द्वारा स्वव्यापार में प्रवृत्त । किया जाता है। साथ ही, बीभत्सु है-घृणात्मक है--,पूति हैदुर्गन्धियुक्त है-,क्षयि है-नाशवान् है-और तापक है-अात्माके दुःखोंका कारण है । इस प्रकारके शरीर में स्नेह रखना-अतिअनुराग बढ़ाना-वृथा है-उससे कुछ भी आत्मकल्याण नहीं सध सकता। यह हितकी बात हे सुपार्श्व जिन ! आपने बतलाई है।' अलंध्यशक्तिभवितव्यतेयं हेतु-द्वयाऽऽविष्कृत-कार्य-लिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहक्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥३॥ : 'आपने यह भी ठीक कहा है कि हेतुद्वयके अन्तरंग और बाह्य अर्थात् उपादान ओर निमित्त दोनों कारणोंके--अनिवार्य संयोग-द्वारा ! उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता । (जो हितका समुचित एवं समर्थ उपदेश मिलनेपर भी किसीकी हितमें प्रवृत्ति नहीं होने देती) अलंध्यशक्ति है-किसी तरह भी टाली नहीं ! Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र , • २५ | टलती। और इस भवितव्यताकी अपेक्षा न रखनेवाला अहंकारसे पीडित । में हुआ संसारी प्राणी (यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रादि) अनेक सहकारी कारणोंको ! मिलाकर भी सुखादिक कार्योंके सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता।' ! विभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वांञ्छति नाऽस्य लाभः । तथाऽपि बालो भय-काम-वश्यो वथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥४॥ 'आपने यह भी बतलाया है कि यह संसारी प्राणी मृत्युसे । डरता है परन्तु (अलंघ्यशक्ति-भवितव्यता-वश ) उस मृत्युसे छुटकारा नहीं, नित्य ही कल्याण अथवा निर्वाण चाहता है परन्तु (भावीकी ! उसी अलंघ्यशक्ति-वश ) उसका लाभ नहीं होता। फिर भी यह मूढ प्राणी भय और इच्छाके वशीभूत हुआ स्वयं ही वृथा तप्तायमान होता है। लेकिन डरने तथा इच्छा करने मात्रसे कुछ भी नहीं बनता, उलटा दुःख-सन्ताप उठाना पड़ता है।' सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता मातेव बालस्य हिताऽनुशास्ता । गुणाऽवलोकस्य जनस्य नेता मयाऽपि भक्त्या परिणूयतेऽद्य* ॥५॥ (३५) (हे सुपाव जिन !) आप सम्पूर्ण तत्त्व-समूहके-जीवादिविश्व-तत्त्वोंके-प्रमाता हैं-संशयादि-रहित ज्ञाता हैं, माता जिस है. परिणूयसे' यह उपलब्ध प्रतियोंका पाठ 'भवान्' शब्दकी मौजूदगी। में कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ܀܀܀܀܀܀ समन्तभद्र-भारती प्रकार बालकको हितकी उसके भलेकी शिक्षा देती है उसी प्रकार आप हेयोपादेयके ज्ञानसे रहित बालक-तुल्य जनसमूहको हितका—-निःश्रेयस (मोक्ष) तथा उसके कारण सम्यग्दर्शनादिका — उपदेश देनेवाले हैं, और जो गुणावलोकी जन है-गुणांकी तलाश में रहनेवाला भव्यजीव है-उसके आप नेता हैं- बाधक कारणोंको हटाकर. आत्मीय ग्रनन्तदर्शनादि गुणोंको प्राप्त कर लेनेके कारण उसे उन गुणोंकी प्राप्तिका मार्ग दिखानेवाले हैं । इसीसे मैं भी इस समय भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति में प्रवृत्त हुआ हूँ - मेरे भी ग्राप नेता हैं, मुझे भी पके सत्-शासन के प्रतापसे श्रात्मीय-गुणांकी प्राप्तिका मार्ग सूभ पड़ा है।' : ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀ ܡܝ ܀ श्रीचन्द्रप्रभ - जिन-स्तवन 1-200520-1-1-1 चन्द्रप्रभं चन्द्र मरीचि-गौर चन्द्रं द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वन्देऽभिवन्द्यं महतामृषीन्द्रं जिनं जित-स्वान्त - कषाय-बन्धम् ||१|| 'मैं उन श्रीचन्द्रप्रभ - जिनकी वन्दना करता हूँ, जो चन्द्रकिरण - सम- गौरवर्ण से युक्त जगतमें द्वितीय चन्द्रमाकी समान दीप्तिमान् (और इसलिये 'चन्द्रप्रभ' इस सार्थक संज्ञाके धारक) हुए हैं, A ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र • २७ | जिन्होंने अपने अन्तःकरणके कषाय-बन्धनको जीता है--सम्पूर्ण । र क्रोधादिकपायोंका नाशकर अकपायपद एवं जिनपद प्राप्त किया है और (इसीलिये) जो ऋद्धिधारी मुनियोंके-गणधरादिकोंके स्वामी तथा ! महात्माओंके द्वारा वन्दनीय हुए हैं।' यस्याङ्ग-लक्ष्मी-परिवेश-भिन्न तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश वाह्यं बहु मानसं च ध्यान-प्रदीपाऽतिशयेन भिन्नम् ॥२॥ 'जिनके शरीरके दिव्य प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार और ध्यान-प्रदीपके अतिशयसे-परम शुक्लध्यानके तेज-द्वारामें प्रचुर मानस अन्धकार-ज्ञानावरणादि-कर्मजन्य आत्माका समस्त । * अज्ञानान्धकार-उसी प्रकार नाशको प्राप्त हुआ जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे (लोकमें फैला हुआ) अन्धकार भिन्न-विदीर्ण होकर नष्ट हो जाता है।' स्व-पक्ष-सोस्थित्य-मदाऽवलिप्ता वासिंह-नादैविमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मदागण्डा गजा यथा केसरिणो* निनादैः ॥३॥ __ 'जिनके प्रवचनरूप-सिंहनादोंको सुनकर अपने मत-पक्षकी । सुस्थितिका घमण्ड रखनेवाले-उसे ही निर्बाध एवं अकाट्य समझ! कर मदोन्मत्त हुए-प्रवादिजन ( परवादी) उसी प्रकारसे निर्मद हुए * 'केशरिणो' इति पाठान्तरम् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ . ___ समन्तभद्र-भारती । हैं जिस प्रकार कि मदभरते हुए मस्त हाथी केसरी-सिंहकी गर्जनाओंको सुनकर निर्मद हो जाते हैं।' यः सर्व-लोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाऽद्भुत-कर्मतेजाः। अनन्त-धामाऽक्षर-विश्वचनुः समन्तदुःख-क्षय-शासनश्च ॥ ४ ॥ 'जो अद्भुत कर्मतेज थे-अपने योगबलसे जिन्होंने पर्वत-समान कठोर कर्म-पटलोका छेदनकर सदाके लिए अपने प्रात्मासे उनका सम्बन्ध ! विच्छेद किया था अथवा शुक्लथ्याना निके द्वारा उन्हें भस्मीभूत किया था-, (ऐसा करके) जिन्होंने अनन्ततेजरूप अविनश्वर विश्वचक्षुको प्राप्त किया था-केवलज्ञान-केवलदर्शनके द्वारा जो विश्व- । तत्त्वोंके ज्ञाता-दृष्टा थे-और जो सब ओरसे दुःखोंके पूर्ण क्षयरूप मोक्षके शास्ता ( उपदेष्टा ) थे-जगत्को जिन्होंने मोक्षमार्गका यथार्थ । उपदेश दिया था-; और इस तरह ( इन्हीं गुणों के कारण ) जो सम्पूर्ण लोकमें-त्रिभुवनमें-परमेष्ठिताके-परम प्राप्तताके-पदको प्राप्त हुए थे। स चन्द्रमा भव्य-कुमुद्वतीनां विपन्न-दोषाऽभ्र-कलङ्क-लेपः। व्याकोश-चाङ्-न्याय-मयूख-मालः पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ॥॥ (४०) 'वे दोषा-रात्रि, अभ्र-मेघ और कलंक-मृगछालादिके .. लेपसे रहित अथवा रागादिक दोषरूप अभ्र-कलंकके आवरणसे । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू स्तोत्र • वर्जित और सुस्पष्ट वचनोंके प्रणयनरूप — स्याद्वादन्यायरूपकिरणमाला से युक्त, भव्य -कुमुदनियों के लिए (पूर्व) चन्द्रमा, ऐसे पवित्र भगवान् श्रीचन्द्रप्रभ - जिन मेरे मनको पवित्र करें - उनके वन्दन, कीर्तन, पूजन, भजन, स्मरण और अनुसरणरूप सम्यक् आराधनसे मेरा मन पवित्र होवे । ' ह श्री सुविधि-जिन-स्तवन ~****** २१ एकान्तदृष्टि-प्रतिषेधित्त्वं प्रमाण - सिद्धं तदतत्स्वभावम् । त्वया प्रणीतं सुविधे ! स्वधाना नैतत्समालीढपदं त्वदन्यैः ॥ १ ॥ " ' ( शोभन - विधि-विधान के प्रतिपादन द्वारा अन्वर्थ संज्ञाके धारक ) विधि (पुष्पदन्त ) जिन ! आपने अपने ज्ञान - तेजसे उस प्रमाणसिद्ध तत्वका प्रणयन किया है जो सत्-असत् आदिरूप farक्षिताऽविवक्षित स्वभावको लिये हुए है और एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक हे अनेकान्तात्मक होनेसे किसीकी भी इस एकान्त मान्यताको स्वीकार नहीं करता कि वस्तुतत्व सर्वथा (स्वरूप और पररूप दोनोंसे ही ) सत (विधि) आदि रूप है । यह समालीढपद् - - सम्यक् अनुभूत तत्वका प्रतिपादक 'तदतत्स्वभाव' जैसा पद - आपसे भिन्न मत रखनेवाले दूसरे मतप्रवर्तकों के द्वारा प्रणीत नहीं हुआ है । ' 200 ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܣ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • समन्तभद्र-भारती तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथाप्रतीतेस्तव तत्कथञ्चित् । । नाऽत्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेनिषेधस्य च शून्य-दोषात् ॥ २॥ ! (हे मुविधि जिन !) आपका वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप (सद्रूप) है और कथंचित् तद्रप नहीं (असद्रप) है; क्योंकि (स्वरूप-पररूपकी 1. अपेक्षा-उसके द्वारा) वैसी ही सत्-असतरूपकी प्रतीति होती है। | म्वरूपादि-चतुष्टयरूप विधि और पररूपादि-चतुष्टयरूप निषेधके परस्पर में अत्यन्त (सर्वथा) भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है, क्योंकि सर्वथा भिन्नता या भिन्नता माननेपर शून्य-दोष आता हैअविनाभाव-सम्बन्धके कारण विधि और निषेध दोनों से किसीका भी तब अस्तित्व बन नहीं सकता, संकर दोपके भी श्रा उपस्थित होनेसे पदाथोंकी कोई व्यवस्था नहीं रहती, और इसलिए वस्तुतत्वके लोपका प्रसङ्ग श्रा जाता है।' नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेनं नित्यमन्य-प्रतिपत्ति-सिद्धः। न तद्विरुद्धं बहिरन्तरङ्ग निमित्त-नैमित्तिक-योगतम्ते ॥३॥ . 'यह वही है, इस प्रकार की प्रतीति होनेसे वस्तुतत्त्व नित्य है और यह वह नहीं-अन्य है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी सिद्धिसे । वस्तुतत्त्व नित्य नहीं-अनित्य है । वस्तुतत्वका नित्य और अनित्य दोनोंरूप होना तुम्हारे मतमें विरुद्ध नहीं है; क्योंकि वह बहिरङ्ग । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्रं . | निमित्त-सहकारी कारण, अन्तरङ्ग निमित्त-उपादान कारण, और । , नैमित्तक-निमित्तोसे उत्पन्न होनेवाले कार्य के- सम्बन्धको लिये हुए है----द्रव्यस्वरूप ग्रंन्तरङ्ग कारण के सम्बन्धकी अपेक्षा नित्य है और क्षेत्रादिरूप बाह्य कारण तथा परिणाम-पर्यायरूप कार्यकी अपेक्षा अनित्य है।' अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो गुणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः ॥४॥ ‘पदका वाच्य-शब्दका अभिधेय-प्रकृतिसे--स्वभावसे-एक और अनेक दोनोंरूप है-सामान्य और विशेषमें अथवा द्रव्य और ! पर्यायमें अभेद-विवक्षाके होनेपर एकरूप है और भेद-विवक्षाके होनेपर अनेकरूप है--'वृक्षाः' इस पदज्ञानकी तरह । अर्थात् जिस प्रकार 'वृक्षाः' यह एक व्याकरण-सिद्ध बहुबचनान्त पद है, इसमें जहाँ वृक्षत्वसामान्यका बोध होता है वहाँ वृक्ष-विशेपोंका भी बोध होता है। वृक्षत्ववृक्षपना अर्थात् वृक्षजाति(वृक्षसामान्य)की अपेक्षा इसका वाच्य एक है और वृक्षविशेषकी-ग्राम, अनार, शीशम, जामुन आदिकी-अपेक्षा इसका वाच्य अनेक हैं; क्योंकि कोई भी वृक्ष हो उसमें सामान्य और विशेष दोनों धर्म रहते हैं, उनमेसे जिम समयं जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय । * वह धर्म मुख्य होता है और दूसरा (अविवक्षित) गौण; परन्तु जो धर्म गौण ! होता है वह उस विवक्षाके समय कहीं चला नहीं जाता-उसी वृक्ष-वस्तुमें में रहता है, कालान्तरमें वह भी मुरव्य हो सकता है। जैसे 'याम्राः' कहने पर । है जब 'अाम्रत्व' धर्म मुख्य होकर विवक्षित होता है तब 'वृक्षत्व' नामका । सामान्यधर्म उससे अलग नहीं हो जाता-वह भी उसीमें रहता है। और जब Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती | 'अाम्राः' पदमें आम्रत्व-सामान्यरूपसे विवक्षित होता है तब अाम्रके विशेष । * देशी, कलमी,लंगड़ा,माल्दा, फज़ली आदि धर्म गौण (अविवक्षित) हो जाते हैं हैं और उसी आम्रपदमें रहते हैं । यही बात द्रव्य और पर्यायकी विवक्षामें अविवक्षाकी होती है। एक ही वृक्ष द्रव्य-सामान्यकी अपेक्षा एकरूप है तो । वही अंकुरादि पर्यायोंकी अपेक्षा अनेक रूप है। दोनोंमें जिस समय जो स्विक्षित होता है वह मुख्य और दूसरा गौण कहलाता है। इस तरह , प्रत्येक पदका वाच्य एक और अनेक दोनों ही होते हैं । (यदि पद-शब्दका वाच्य एक और अनेक दोनों हों तो 'अस्ति' कहनेपर 'नास्तित्व के भी बोधका प्रसंग आनेसे दूसरे पद 'नास्ति' का प्रयोग । निरर्थक ठहरेगा, अथवा स्वरूपकी तरह पररूपसे भी अस्तित्व कहना होगा। ! इसी तरह 'नास्ति' कहनेपर 'अस्तित्व' के भी बोधका प्रसंग आएगा, दूसरे 'अस्ति' पदका प्रयोग निरर्थक ठहरेगा अथवा पररूपकी तरह स्वरूपसे भी नास्तित्त्व कहना होगा। इस प्रकारकी शंकाका समाधान यह है-) अनेकान्तात्मक वस्तु के अस्तित्वादि किसी एक धर्मका प्रतिपादन । करनेपर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्मके प्रतिपादन में जिसकी आकांक्षा रहती है ऐसे आकांक्षी-सापेक्षवादी अथवा * स्याद्वादीका 'स्यात्' यह निपात–'स्यात्' शब्दका साथमें प्रयोग गौणकी अपेक्षा न रखने वाले नियममें--सर्वथा एकान्त मतमेंनिश्चित रूपसे बाधक होता है-उस सर्वथाके नियमको चरितार्थ नहीं है होने देता जो स्वरूपकी तरह पररूपके भी अस्तित्वका और पररूपकी तरह स्वरूपके भी नास्तित्वका विधान करता है (और इस लिये यहाँ उक्त * प्रकारकी शंकाको कोई स्थान नहीं रहता)। गुण-प्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तद्विषतामपथ्यम् । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . ततोऽभिवन्द्यं जगदीश्वराणां ममाऽपि साधोस्तथ पादपमम् ॥ ५ ॥ (४५) । ___ 'हे सुविधि-जिन ! आपका यह 'स्यात्' पदरूपसे प्रतीयमान वाक्य मुख्य और गौणके आशयको लिये हुए है-विवक्षित और अविवक्षित दोनों ही धर्म इसके वाच्य हैं-अभिधेय हैं । आपसे-आपके , अनेकान्त-मतसे-द्वेष रखने वाले सर्वथा एकान्त-वादियोंके लिये यह वाक्य अपथ्यरूपसे अनिष्ट है-उनकी सैद्धान्तिक प्रकृतिके र विरुद्ध है; क्योंकि दोनों धर्मोंका एकान्त स्वीकार करनेसे उनके यहाँ विरोध ! आता है। चूँ कि आपने ऐसे सातिशय तत्त्वका प्रणयन किया है इसलिये हे साधो ! आपके चरण कमल जगदीश्वरों-इन्द्र-चक्रवर्त्यादिकोंके द्वारा वन्दनीय हैं, और मेरे भी द्वारा वन्दनीय हैं।' श्रीशीतल-जिन-स्तवन न शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनेस्तेऽनघ ! वाक्य-रश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम् ॥१॥ 'हे अनघ !-निरवद्य-निर्दोष श्रीशीतल-जिन !-आप प्रत्यक्ष'ऽनघ-वाक्य-रश्मयः' इति पाठान्तरम् । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..समन्तभद्र-भारती | ज्ञानी-मुनिकी प्रशम-जलसे भरी हुई वाक्य-रश्मियाँ-यथावत् - अर्थस्वरूपकी प्रकाशक वचन-किरणावलियाँ-जिस प्रकारसे--संसार तापको मिटाने रूपसे---विद्वानोंके लिये--हेयोपादेय-तत्त्वका विवेक रखनेवालोंके वास्ते-शीतल हैं-शान्तिप्रद हैं-उस प्रकार न तो चन्दन तथा चन्द्रमाकी किरणें शीतल हैं, न गंगाका जल शीतल है और न मोतियोंके हारकी लड़ियाँ ही शीतल हैं--कोई भी इनमें से भव-याताप-जन्य दुःखको मिटानेमें समर्थ नहीं है।' सुखाऽभिलाषाऽनल-दाह-मूच्छितं मनो निजं ज्ञानमयाऽमृताऽम्बुभिः । व्यदिध्यमस्त्वं विष-दाह-मोहितं यथा भिषग्मन्त्र-गुणैः स्व-विग्रहम् ॥२॥ " जिस प्रकार वैद्य विष-दाहसे मूच्छित हुए अपने शरीरको विषापहार मन्त्रके गुणोंसे-उसकी अमोघशक्तियांसे-निर्विष एवं मूर्छा-रहित कर देता है उसी प्रकार ( हे शीतल जिन ! ) आपने सांसारिक सुखोंकी अभिलाषा-रूप अग्निक दाहसे-चतुर्गति-सम्ब न्धी दुःखसंतापसे--मूर्छित हुए हेयोपादेयके विवेक से विमुख हुए| अपने भनको अात्माको-ज्ञानमय अमृत-जलोंके सिचनसे मूर्छा रहित शान्त किया है-पूर्ण विवेकको जाग्रत करके उसे उत्तरोत्तर संतापप्रद सांसारिक सुखोंकी यांभला पासे मुक्त किया है।' . स्व-जीविते काम-सुखे च तृष्णया दिवा श्रमात निशि शेरते प्रजाः । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . त्वमार्य ! नक्तं-दिवमप्रमत्तवा नजागरेवाऽऽत्म-विशुद्ध-वत्मनि ॥३॥ ____अपने जीनेकी तथा काम-सुखकी तृष्णाके वशीभूत हुए लौकिक जन दिनमें श्रमसे पीडित रहते हैं-सेवा-कृष्यादिजन्य ... क्लेश-खेदसे अभिभूत बने रहते हैं और रातमें सो जाते हैं अपने । अात्माके उद्धारकी और उनका प्रायः कोई लक्ष्य ही नहीं होता । परन्तु हे आर्य-शीतल-जिन ! आप रात-दिन प्रमादरहित हुए आत्माकी ! विशुद्धिके मार्गमें जागते ही रहे हैं-श्रात्मा जिससे विशुद्ध होता हैहै मोहादि कर्मोंसे रहित हुअा स्वरूपमें स्थित एवं पूर्ण विकसित होता है| उस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गके अनुष्ठानमें सदा सावधान अपत्य-वित्तोत्तर-लोक-तृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान्पुनर्जन्म-जरा-जिहासया त्रयी प्रवृत्ति समधीरवारुणत् ॥४॥ 'कितने ही तपस्वीजन संतान, धन तथा उत्तरलोक (परलोक | या उत्कृष्ट लोक) की तृष्णाके वशीभूत हुए-पुत्रादिकी प्राप्तिके लिए, धनकी प्राप्ति के लिए अथवा स्वर्गादिकी प्राप्ति के लिये-(अग्निहोत्रादिक ! यज्ञ-) कर्म करते हैं; ( परन्तु हे शीतल-जिन ! ) आप समभावी हैं• सन्तान, धन तथा उत्तरलोकी तृष्णासे रहित हैं-आपने पुनर्जन्म, और जराको दूर करने की इच्छासे मन-वचन-काय तीनोंकी | प्रवृत्तिका रोका है-तीनाकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हटाकर उन्हें स्वात्मा- । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती धीन किया है और इस तरह अात्मविकासकी उच्च स्थितिपर पहुँचकर योग- । निरोध द्वारा न मनसे कोई कर्म होने दिया, न वचनसे और न शरीरसे। ! भावार्थ-मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं। इस योगसे अात्मा- ! * में कर्मका अास्रव तथा बन्ध होता है, जो पुनर्जन्मादिरूप-संसारपरिभ्रमण का हेतु है । अतः आपने तो इस योगरूप कर्मको रोककर अथवा स्वाधीन | बनाकर संसार-परिभ्रमणसे छूटनेका यत्न किया है, जबकि दूसरे तपस्वियोंने . सांसारिक इच्छाओंके वशीभूत होकर अग्निहोत्रादि कर्म करके संसार-परि भ्रमणका ही यत्न किया है । दोनोंकी इन प्रवृत्तियोंमें कितना बड़ा अन्तर है ! त्वमुत्तम-ज्योतिरजः क्व निवृतः क ते परे बुद्धि-लवोद्धव-क्षताः । ततः स्वनिःश्रेयस-भावनापरै बुध-प्रवेकैर्जिन ! शीतलेड्यसे ॥ ५ ॥ (५०)। 'हे शीतल जिन ! कहाँ तो आप उत्तमज्योति-परमातिशयको प्राप्त केवलज्ञानके धनी-, अजन्मा-पुनर्जन्मसे रहित-- और निवृत्त सांसारिक इच्छात्रोंसे रहित सुखीभूत ! और कहाँ वे दूसरे प्रसिद्ध अन्य देवता अथवा तपस्वी-जो लेशमात्र ज्ञानके मदसे नाशको प्राप्त हुए हैं-सांसारिक विषयोंमें अत्यासक्त होकर दुःखोंमें पड़े हैं और आत्म-. स्वरूपसे विमुख एवं पतित हुए हैं !! इसीलिये अपने कल्याणकी भावना तत्पर-उसे साधनेके लिए सम्यग्दर्शनादिकके अभ्यासमें पूर्ण । , सावधान-बुधश्रेष्ठों-गणधरादिक देवों के द्वारा आप पूजे जाते हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र '३७ -श्रीश्रेयो-जिन-स्तवन श्रेयान् जिनः श्रेयसि वर्मनीमाः श्रेयः प्रजाः शासदजेयवाक्यः । भवांश्चकाशे भुवनत्रयेऽस्मि न्नेको यथा वीत-घनो विवस्वान् ॥१॥ 'हे अजेयवाक्य-अबाधित वचन-श्रेयो जिन ! -सम्पूर्ण कषायों, इन्द्रियों अथवा कर्म शत्रुओंको जीतनेवाले श्रीश्रेयांस तीर्थंकर ! आप इन श्रेयप्रजाजनोंको-भव्यजीवोंको-श्रेयोमार्गमें अनुशासित करते हुए-मोक्षमार्गपर लगाते हुए विगत-घन-सूर्यके समान अकेले ही इस त्रिभुवनमें प्रकाशमान हुए हैं। अर्थात् जिस प्रकार मेघके पटलोंसे रहित सूर्य अपनी अप्रतिहत किरणों द्वारा अकेला ही में अन्धकारसमूहका विघातक बनकर, दृष्टि-शक्तिसे सम्पन्न नेत्रोंवाली प्रजाको | इष्ट स्थानकी प्राप्तिका निमित्तभूत सन्मार्ग दिखलाता हुआ, जगत्में शोभा* को प्राप्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि घातिकर्म-चतुष्टयसे रहित है. आप अकेले ही, अज्ञानान्धकारके प्रसारको विनष्ट करनेमें समर्थ बनकर अपने अबाधित वचनों द्वारा भव्य-जनोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हुए, इस त्रिलोकीमें शोभाको प्राप्त हुए हैं।' विधिर्विषक्त-प्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्राऽन्यतरत्प्रधानम्। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : 〃 : समन्तभद्र-भारती ܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ८ ' ( हे श्रेयास जिन ! ) आपके मतमें वह विधि -- स्वरूपादिचतुष्टयसे अस्तित्व-- प्रमाण है ( प्रमाणका विषय होनेसे) जो कथंचित् तादात्म्य सम्बन्धको लिये हुए प्रतिषेध रूप है -- पररूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्वरूप भी है तथा इन विधि- प्रतिषेध दोनोंमें से | कोई एक प्रधान (मुख्य) और दूसरा गौण होता है (वक्ता अभि: प्रायानुसार न कि स्वरूप से) । और मुख्य के -- प्रधानरूप विधि अथवा निषेधके - नियामका ' स्वरूपादिचतुष्टयसे ही विधि और पररूपादिचतुष्टयसे ही निषेध' इस नियमका -जो हेतु है वह नय है ( नयका : विषय होनेसे) और वह नय दृष्टान्त - समर्थन होता है -- दृष्टान्तसे समर्थित अथवा दृष्टान्तका समर्थक ( उसके असाधारण स्वरूपका निरूपक) होता है । गुणोऽपरो मुख्य नियामहेतुर्नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥ २ ॥ विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोsarat न निरात्मकस्ते । तथाऽरिमित्राऽनुभयादिशक्ति द्वयाऽवधेः कार्यकरं हि वस्तु ॥ ३ ॥ : C ' (हे श्रेयांस जिन ! ) आपके मतमें जो विवक्षित होता है-: कहने के लिये इष्ट होता है - वह 'मुख्य (प्रधान)' कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता है - जिसका कहना इष्ट नहीं होता - वह 'गौराण' * स्वरूपसे प्रधान अथवा गौण मानने पर उसके सदाकाल तद्रूप बने रहनेका प्रसंग आएगा, और यह बात बनती नहीं; क्योंकि प्रत्यक्षादिके साथ इसका विरोध है । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र कहलाता है, और जो अविवक्षित होता है वह निरात्मक (अभावरूप) । नहीं होता-उसकी सत्ता अवश्य होती है । इस प्रकार मुख्य-गौण की व्यवस्थासे एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और अनुभयादि शक्तियों1 को लिये रहती है--एक ही व्यक्ति एक का मित्र है (उपकार-करनेसे), दूसरेका शत्रु है (अपकार करनेसे), तीसरेका शत्रु-मित्र दोनों है (उपकार: | अपकार करनेसे) और चौथेका न शत्रु है न मित्र (उसकी ओर उपेन्ना ! में धारण करनेसे), और इस तरह उसमें शत्रु-मित्रादिके गुण युगवत् रहते हैं। वास्तवमें वस्तु दो अवधियों (मर्यादाओं) से कार्यकारी होती हैविधि-निषेधरूप, सामान्य-विशेषरूप अथवा द्रव्य-पर्यायरूप दो दो सापेक्ष धर्मोंका आश्रय लेकर ही अर्थक्रिया करनेमें प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है।' दृष्टान्त-सिद्धावुभयोविवादे साध्यं प्रसिद्ध्येन तु तागस्ति । यत्सर्वथैकान्त-नियामि दृष्टं त्वदीय-दृष्टिविभवत्यशेषे ॥४॥ 'वादी प्रतिवादी दोनोंके विवादमें दृष्टान्त (उदाहरण) की * सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है-जिसे सिद्ध करना चाहते हैं , उसकी भले प्रकार सिद्धि होजाती है, परन्तु वैसी कोई दृष्टान्तभूत | वस्तु है ही नहीं जो (उदाहरण बनकर) सर्वथा एकान्तकी नियामक । में दिखाई देती हो । क्योंकि आपकी अनेकान्त-दृष्टि सबमें-साध्य, ! साधन और दृष्टान्तादिमें अपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अने- ! में कान्तात्मकत्वसे व्याप्त है, इसीसे सर्वथा एकान्तवादियोंके मतमें ऐसा कोई । दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके सर्वथा एकान्तका नियामक हो और | इस लिए उनके सर्वथा नित्यात्वादिरूप साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती।' । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धिन्यायेषुभिश्मोहरिपुं निरस्य । . असि स्म कैवल्य-विभूति-सम्राट ततस्त्वमहनसि मे स्तवाहः॥५॥ (५५) । ''हे अर्हन्-श्रेयो जिन ! आप एकान्त दृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धि! रूप न्यायवाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक् प्रहारोंसे-मोह-शत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए ज्ञानावरणादिरूप शत्रु-समूहकाघातिकर्म-चतुष्टयका-नाश करके कैवल्य-विभूतिके-केवलज्ञानके साथ साथ समवसरणादि विभूतिके-सम्राट् हुए हैं। इसीसे आप मेरी : स्तुतिके योग्य हैं। मैं भी एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिका उपासक , हूँ और उसे पूर्णतया सिद्ध करके मोह शत्रुका नाश कर देना चाहता हूँ • तथा कैवल्यविभूतिका सम्राट बनना चाहता हूँ, अतः आप मेरे लिए , श्रादर्शरूपमें पूज्य हैं-स्तुत्य हैं ।' * 'सिद्धिायेषुभि' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका पाठ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . १२ श्रीवासुपूज्य-जिन-स्तवन शिवासु पूज्योऽभ्युदय-क्रियासु त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्र-पूज्यः । मयाऽपि पूज्योऽल्प-धिया मुनीन्द्र ! दीपार्चिषा किं तपनो न पूज्यः ॥ १॥ ___ 'हे ( वसुपूज्य-सुत ) श्रीवासुपूज्य मुनीन्द्र ! आप शिवस्वरूप अभ्युदयक्रियाओं में पूज्य हैं-मङ्गलमय स्वर्गावतरणादि कल्याणक* क्रियाओंके अवसरपर पूजाको प्राप्त हुए. हैं--, त्रिदशेन्द्रपूज्य हैं। देवेन्द्रोंके द्वारा पूजे गये हैं, पूजे जाते हैं-और मुझ अल्पबुद्धिके द्वारा * भी पूज्य हैं-मैं भी स्तुत्यादिके रूपमें आपकी पूजा किया करता हूँ। (अल्प बुद्धि के द्वारा पूजा जाना कोई असंगत बात भी नहीं है, क्योंकि) । दीप-शिखाके द्वारा क्या सूर्य पूजा नहीं जाता-पूजा ही जाता है। लोग दीपक जलाकर सूर्यकी आरती उतारते हैं, दीप-शिखासे उसकी पूजा करते हैं।' न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे। तथाऽपि ते पुण्य-गुण-स्मृतिनः पुनाति* चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥२॥ * 'पुनातु' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका पाठ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,समन्तभद्र-भारती . 'हे भगवन् । पूजा-वन्दनासे आपका कोई प्रयोजन नहीं है, । है क्योंकि आप वीतरागी हैं--रागूका अंश भी आपके आत्मामें विद्यहै. मान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-वन्दनासे आप प्रसन्न होते।। (इसी तरह) निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई . कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उसपर आपको ज़रा भी। होम नहीं अासकता; क्योंकि अापके आत्मासे वैरभाव-द्वषांश-बिल्कुल ! निकल गया है-वह उसमें विद्यमान ही नहीं हैं,जिससे क्षोभ तथा । अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता । ऐसी हालतमें निन्दा और स्तुति दोनों ही आपके लिए समान हैं-उनसे आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता। नहीं हैं। फिर भी आपके पुण्य-गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पाप-मलोंसे पवित्र करता है। और इस लिये हम जो आपकी पूजा- ! वन्दनादि करते हैं यह आपके लिए नहीं--अापको प्रसन्न करके आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वारा आपको लाभ पहुँचाना, यह सब उस- ! का ध्येय ही नहीं है । उसका ध्येय है आपके पुण्यगुणोंका स्मरण-भावपूर्वक अनुचिन्तन-,जो हमारे चित्तको-चिद्रूप आत्माको-पाप-मलांसे छुड़ा कर निर्मल एवं पवित्र बनाता है, और इस तरह हम उसके द्वारा अपने 2. अात्माके विकासकी साधना करते हैं । अतः वह अापकी पूजा-वन्दना हम अपने ही हितके लिये करते हैं।' पूज्यं जिनं त्वाऽचयतो जनस्य सावध-लेशो बहु-पुण्य-राशौ । दोषाय नाऽलं कणिका विषस्य न दूषिका शीत-शिवाऽम्बुराशौ ॥३॥ हे पूज्य जिन श्रीवासुपूज्य ! आपकी पूजा करते हुए प्राणी- । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . ४३ । के जो सावद्यलेश होता है--सरागपरिणति तथा प्रारम्भादिक-द्वारा । - लेशमात्र पापका उपाठन होता है वह (भावपूर्वक की हुई पूजासे उत्पन्न ! होने वाली) बहुपुण्य-राशिमें दोषका कारण नहीं बनता-प्रचुर पुण्य-पुञ्जसे हतवीर्य हुया वह पाप उस पुण्यको दूषित करने अथवा पाप* रूप परिणत करनेमें समर्थ नहीं होता। (सो ठीक ही है) विषकी एक कणिका शीतल तथा कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको में दूषित नहीं करती--उसे प्राणघातक विष-धर्मसे युक्त विषैला नहीं। बनाती। यद्वस्तु बाह्यं गुण-दोष-सूतेनिमित्तमभ्यन्तर-मूलहेतोः। अध्यात्म-वृत्तस्य तदङ्गभूत मभ्यन्तरं केवलमप्यलं न ॥४॥ 'जो बाह्य वस्तु गुण-दोषकी-पुण्य-पापादिरूप उपकार-अपकारकी-उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरङ्गमें वर्तनेवाले गुण-दोषोंकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूल हेतुकी-शुभाऽशुभादि-परि! णाम-लक्षण उपादानकारणकी-अंगभूत-सहकारी कारणभूत होती ! है (और इस कारण मूल कारण शुभाऽशुभादि-परिणामके अभावमें। सहकारीकारणरूप कोई भी बाह्य वस्तु पुण्य-पापादिरूप गुण-दोपकी जनक नहीं)। बाह्य वस्तुकी अपेक्षा न रखता हुअा केवल अभ्यन्तर कारण भी- । अकेला जीवादि किसी द्रव्यका परिणाम भी-गुण-दोषकी उत्पत्तिमें ! समर्थ नहीं है।' 'ते' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियों का पाठ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ . . समन्तभद्र-भारती बाह्येतरोपाधि-समग्रतेयं __कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। . नैवाऽन्यथा मोक्ष-विधिश्च पुंसां तेनाऽभिवन्धस्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥॥ (६०) । कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर-सहकारी और उपादानदोनों कारणोंकी जो यह पूर्णता है वह आपके मतमें द्रव्यगत स्वभाव है-जीवादि-पदार्थगत अर्थ-क्रिया-कारित्वस्वरूप है। अन्यथा-! । इस समग्रता अर्थात् द्रव्यगत स्वभावके बिना अन्य प्रकारसे-पुरुषोंके । : मोक्षकी विधि भी नहीं बनती-घटादिकका विधान ही नहीं किन्तु . मुक्तिका विधान भी नहीं बन सकता। इसीसे परमर्द्धि-सम्पन्न ऋषि-। वासु पूज्य ! आप बुधजनोंके अभिबन्ध हैं-गणधरादि विबुधजनोंके , द्वारा पूजा-वन्दना किये जानेके योग्य हैं।' श्रीविमल-जिन-स्तवन -+++ +++ य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्व-पर-प्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेताः स्व-परोपकारिणः ॥१॥ ' Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्रं. । 'जो ही नित्य-क्षणिकादिक नय परस्परमें अनपेक्ष (स्वतंत्र.) । होनेसे-एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर स्वतंत्रभावसे सर्वथा नित्य-क्षणि। कादिरूप वस्तुतत्वका कथन करनेके कारण-(परमतोंमें ) स्वपरप्रणाशी में हैं-निज और पर दोनोंका नाश करनेवाले स्व-पर-बैरी हैं, और इसलिए है दुर्नय हैं । वे ही नय, हे प्रत्यज्ञज्ञानी विमल जिन ! आपके मतमें ! परस्परेक्ष (परस्परतंत्र) होनेसे-एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेसे त्व पर-उपकारी हैं-अपना और परका दोनोंका भला करनेवाले दोनोंका अस्तित्व बनाये रखनेवाले स्व-पर-मित्र हैं, और इसलिए तत्त्वरूपसम्यक् नय हैं।' यथैकशः कारकमर्थ-सिद्धये समीक्ष्य शेषं स्व-सहाय-कारकम् । तथैव सामान्य-विशेष-मातृका नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य कल्पतः ॥२॥ 'जिस प्रकार एक एक कारक-उपादानकारण या निमित्तकारण अथवा कर्ता, कर्म आदि कारकोमेंसे प्रत्येक शेष-अन्यको अपना सहाय- ! करूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धि के लिये समर्थ होता, है, उसी प्रकार (हे विमलजिन !) आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय । करनेवाले (द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि रूप) जो नय हैं वे मुख्य . और गौणकी कल्पनासे इष्ट ( अभिप्रेत ) हैं। प्रयोजनके वश ! । सामान्यकी मुख्यरूपसे कल्पना (विवक्षा) होनेपर विशेषकी गौणरूपसे । और विशेषकी मुख्यरूपसे कल्पना होनेपर सामान्यकी गौणरूपसे कल्पना । होती है, एक दूसरेकी अपेक्षाको कोई छोड़ता नहीं; और इस तरह सभी । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती । नय सापेक्ष होकर अपने अर्थकी सिद्धिरूप विवक्षित अर्थके परिज्ञानमें समर्थ से होते हैं। . परस्परेक्षाऽन्वय-भेद-लिङ्गतः । प्रसिद्ध-सामान्य-विशेषयोस्तव । समग्रताऽस्ति स्व-पराऽवभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धि-लक्षणम् ॥३॥ 'परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए जो अन्वय (अभेद) और भेद ( व्यतिरेक ) का ज्ञान होता है उससे प्रसिद्ध होनेवाले सामान्य और विशेषकी ( हे विमल जिन !) आपके मतमें उसी तरह समग्रता (पूर्णता.) है जिस तरह कि भूतलपर बुद्धि(ज्ञान)लक्षण प्रमाण स्व-पर-प्रकाशक-रूपमें समग्र (पूर्ण-सकलादेशी) है-अर्थात जिस प्रकार सम्यग्ज्ञान-लक्षण प्रमाण लोकमें स्व-प्रकाशकत्व और पर-प्रकाशकत्वरूप दो धर्मोंसे युक्त हुया अपने विषयमें पूर्ण होता है और उसके ये दोनों धर्म परस्परमें विरुद्ध न होकर सापेक्ष होते हैं-स्वप्रकाशकल्वके विना पर-प्रकाशकत्व और पर-प्रकाशकत्वके विना स्व-प्रकाशकत्व बनता ही नहीं-उसी प्रकार एक वस्तुमें विशेषण-विशेष्य-भावसे प्रवर्तमान सामान्य और विशेष ये दो धर्म भी परस्पर में विरोध नहीं रखते, किन्तु अविरोधरूपसे सापेक्ष होते हैं--सामान्य के विना विशेष और विशेषके विना सामान्य अपूर्ण है अथवा यो कहिये कि बनता ही नहीं-और इसलिये दोनाके मलसे ही वस्तुमें पूर्णता पाती है।' विशेष्य-बाच्यस्य विशेषणं वचो ___ यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते विवक्षितात्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम् ॥४॥' 'वाच्यभूत विशेष्यका-सामान्य अथवा विशेषका-वह वचन ! जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है-विशेषणकी नियतरूपता- ! के साथ अवधारण किया जाता है—'विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और । विशेष्य दोनोंके सामान्यरूपताका जो अतिप्रसंग आता है वह । . (हे विमल जिन ! ) आपके मतमें नहीं बनता; क्योंकि विवक्षित, ! विशेषण-विशेष्यसे अन्य अविवक्षित विशेपण-विशेष्यका 'स्यात्' शब्दसे वर्जन ( परिहार ) होजाता है-'स्यात्' शब्दकी सर्वथा प्रतिष्ठा के रहनेसे अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका ग्रहण नहीं होता, और इसलिये अतिप्रसंग दोष नहीं पाता।' नयास्तव स्यात्पद-सत्य-लाञ्छिता रसोपविद्धा इव लोह-धातवः । भवन्त्यभिप्रेत-गुणा यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥५॥ (६५) '(हे विमल जिन !) आपके मतमें जो (नित्य-क्षीणकादि ) नय हैं वे सब स्यात्पदरूपी सत्यसे चिह्नित हैं कोई भी नय ‘स्यात्' 1 शब्दके अाशय ( कथञ्चित्के भाव ) से शुन्य नहीं है, भले ही 'स्यात्' । शब्द साथमें लगा हुअा हो या न हो-और रसोपविद्ध लोह-धातुओं ! के समान–पारेसे अनुविद्ध हुई लोहा-ताम्बा आदि धातुयोंकी तरह * 'प्रणुता' इति पाठान्तरम् । . - -- Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ . .समन्तभद्र-भारती । अभिमत फलको फलते हैं यथा स्थित वस्तुतत्त्वके प्ररूपणमें समर्थ । से होकर सन्मार्गपर ले जाते हैं । इसीसे अपना हित चाहनेवाले आर्य जनोंने आपको प्रणाम किया है-उत्तम पुरुष सदा ही आपके सामने नत-मस्तक हुए हैं।' श्रीअनन्तजित्-जिन-स्तवन अनन्त-दोषाऽऽशय-विग्रहो ग्रहो विषङ्गवाल्मोह-मयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तत्त्वाँचौ प्रसीदता त्वया ततोऽभूर्भगवाननन्तजित् ॥१॥ 'जिसका शरीर अनन्त दोषोंका-राग-द्वेष-कामक्रोधादिक | अगणित विकारोंका-आधारभूत है (और इसी लिये अनन्त-संसार- । परिभ्रमणका कारण है) ऐसा मोहमयी ग्रह-पिशाच, जो चिरकालसे हृदयमें चिपटा हुआ था-आत्माके साथ सम्बद्ध होकर उसपर अपना आतङ्क जमाए हुए था-वह चूँकि तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण करनेवाले आपके द्वारा पराजित-निर्मूलित-किया गया है, इस | लिये आप भगवान् 'अनन्तजित्' हुए हैं आपकी 'अनन्तजित्' यह - संज्ञा सार्थक है।' कषाय-नाम्नां द्विषतां प्रमाथिनामशेषयन्नाम भवानशेषवित् । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र ४० विशोषणं मन्मथ-दुर्मदाऽऽमयं समाधि-भैषज्य-गुणैर्यलीनयता ॥२॥ (हे भगवन् ) आप 'कषाय' नामके पीडनशील शत्रुओंका ! (हृदयमें) नाम निःशेष करते हुए उनका आत्मासे पूर्णतः सम्बन्ध ! ॐ विच्छेद करते हुए-अशेषवित्-सर्वज्ञ-हुए हैं । और आपने कामदेवके दुरभिमानरूप आतङ्कको, जो कि विशेषरूपसे शोषक | -संतापक है, समाधिरूप-प्रशस्त ध्यानात्मक-औषधके गुणोंसे । * विलीन किया है-विनाशित किया है।' परिश्रमाऽम्बुर्भय-वीचि-मालिनी त्वया स्वतृष्णा-सरिदाऽऽर्य ! शोपिता । असङ्ग-धर्मार्क-गभस्ति-तेजसा परं ततो निति-धाम तावकम् ॥ ३ ॥ 'जिसमें परिश्रमरूप जल भरा है और भयरूप तरंगमालाएँ उठती हैं उस अपनी तृष्णा-नदीको हे आर्य-अनन्तजित ! ! आपने अपरिग्रह-रूप ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंके तेजसे सुखा डाला है, इसलिये आपका निर्वृति-तेज उत्कृष्ट है।' (इसपरसे स्पष्ट है कि तृष्णाको जीतनेका अमोघ उपाय अपरिग्रहव्रतका भलेप्रकार पालन है। परिग्रहके रहते तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ा करती है, जिससे उसका जीतना प्रायः नहीं बनता ।) सुहृत्त्वयि श्री-सुभगत्वमश्नुते द्विषंस्त्वयि प्रत्ययवत् प्रलीयते । * 'विलीनयत्' इति पाठान्तरम् । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० . समन्तभद्र-भारती भवानुदासीनतमस्तयोरपि .प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ४ ॥ 'हे भगवन् ! जो आपमें अनुराग-भक्ति-भाव-रखता है। वह श्रीविशिष्ट सौभाग्यको-ज्ञानादि-लक्ष्मीके आधिपत्य अादिको। प्राप्त करता है, और नो आपमें द्वेषभाव रखता है वह प्रत्ययकी तरह-व्याकरण-शास्त्रमें प्रसिद्ध 'क्विप्' प्रत्ययके समान अथवा क्षणस्थायी इन्द्रियजन्य ज्ञानके समान-विलीन ( नष्ट) होजाता है-! नरकादिक दुर्गतियोंमें जा पड़ता है। परन्तु आप अनुरागी ( मित्र ) और द्वेषी (शत्रु ) दोनोंमें अत्यन्त उदासीन रहते हैं न किसीका नाश चाहते हैं और न किसीकी श्रीवृद्धि; फिर भी मित्र और शत्रु स्वयं । ही उक्त फलको प्राप्त हो जाते हैं, यह आपका ईहित--चरित्र| बड़ा ही विचित्र है-अद्भुत माहात्म्यको प्रकट करता अथवा गुप्त रहस्यका सूचक है।' त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप-लेशोऽल्प-मतेमहामुने! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि । शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधेः ॥शा (७०) (हे भगवन् !) आप ऐसे हैं-वैसे हैं-अापके ये गुण हैं-वे गुण ! हैं, इस प्रकार मुझ अल्पमतिका यथावत् गुणोंके परिज्ञानसे रहित ! स्तोताका--यह स्तुतिरूप थोड़ासा प्रलाप है । ( तब क्या यह निष्फल होगा ? नहीं) अमृत-समुद्र के अशेष-माहात्म्यको न जानते और । न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याण-कारक । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र होता है उसी प्रकार हे महामुने ! आपके अशेष- माहात्म्यको जानते और न कथन करते हुए भी मेरा यह थोड़ासा प्रलाप आपके गुणोंके संस्पर्शरूप होने से कल्याणका ही हेतु है । ܀܀ ܡܘܟܘܙ ܀܀ १५ श्रीधर्म-जिन स्तवन ܀܀܀܀ - ******* धर्म-तीर्थमनघं प्रवर्तयन् धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । कर्म-कक्षमदहत्तपोऽग्निभिः शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः ॥ १ ॥ ' ( हे धर्मजिन !) अनवद्य - धर्म तीर्थको -- सम्यग्दर्शनादिरूप धर्मतीर्थंको अथवा सम्यग्दर्शनाद्यात्मक-धर्म के प्रतिपादक आगम-तीर्थको - (लोक) प्रवर्तित करते हुए आप सत्पुरुषों द्वारा 'धर्म' इस सार्थक संज्ञाको लिये हुए माने गये हैं । आपने ( विविध ) तपरूप नियोंसे कर्म-वनको जलाया है, ( फलतः ) शाश्वत - अविनश्वर"सुख प्राप्त किया है । ( ओर इसलिये ) आप शंकर हैं - कर्मवनको दहन कर अपनेको और धर्मतीर्थको प्रवर्तित कर सकल प्राणियोंको सुखके करनेवाले हैं।" A ५.१ देव-मानव - निकाय - सत्तमै रेजि परिवृतो वृतो बुधैः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀ >=== Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ समन्तभद्र-भारती तारका-परिवृतोऽतिपुष्कलो व्योमनीव शश-लाञ्छनोऽमलः ॥ २॥ 'जिस प्रकार निर्मल-धन-पटलादि-मलसे रहित--पूर्णचन्द्रमा आकाशमें ताराओंसे परिवेष्ठित हुआ शोभता है उसी | प्रकार ( हे धर्मजिन !) आप देव और मनुष्योंके उत्तम समूहोंसे 2 परिवेष्ठित तथा गणधरादिबुधजनोंसे परिवारित (सेवित ) हुए ( समवसरण-सभामें ) शोभाको प्राप्त हुए हैं।' प्रातिहार्य-विभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोक्षमार्गमशिषनरामरान् नाऽपि शासन-फलेषणाऽऽतुरः ॥ ३ ॥ ___'प्रातिहार्यों और विभवोंसे-छत्र, चमर, सिंहासन, भामंडल, अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, देवदुन्दुभि और दिव्यध्वनिरूप अाट प्रकारके चमत्कारों तथा समवसरणादि-विभूतियांसे—विभूषित होते हुए भी आप ! उन्हींसे नहीं किन्तु देहसे भी विरक्त रहे हैं अपने शरीरसे भी आपको ममत्व एवं रागभाव नहीं रहा । (फिर भी तीर्थकर-प्रकृतिरूप पुण्यकर्मके उदयसे ) आपने मनुष्यों तथा देवोंको मोक्षमार्ग सिख-. लाया है-मुक्तिकी प्राप्तिके लिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अमोघ । उपाय बतलाया है । परन्तु आप शासन-फलकी एषणासे आतुर ! में नहीं हुए-कभी आपने यह इच्छा नहीं की कि मेरे उपदेशका फल । जनताकी भक्ति अथवा उसकी कार्यसिद्धि आदिके रूपमें शीघ्र प्रकट होवे। और यह सब परिणति अापकी वीतरागता, परिमुकता और उच्चताकी । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . | द्योतक है । जो शासन-फलके लिये आतुर रहते हैं वे ऐश्वर्यशाली होते । हुए भी क्षुद्र संसारी जीव होते हैं । इसीसे वे प्रायः दम्भके शिकार होते.. हैं और उनसे सच्चा शासन बन नहीं सकता।' काय-वाक्य-मनसां प्रवृत्तयो नाऽभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥५॥ _ 'आप प्रत्यक्षज्ञानी मुनिके मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियाँ प्रवृत्त करनेकी इच्छासे नहीं हुई; (तब क्या असमीक्ष्यकारित्त्वके रूपमें हुईं ?) यथावत् वस्तुस्वरूपको न जानकर असमीक्ष्यकारित्त्वके रूपमें ! भी वे नहीं हुई। इस तरह हे धीर-धर्मजिन ! अापका ईहित-चरितअचिन्त्य है-उसमें वे सब प्रवृत्तियाँ बिना आपकी इच्छा और असमीक्ष्यकारिताके तीर्थकर-नामकर्मोदय तथा भव्यजीवोंके अदृष्ट(भाग्य)-विशेषके वशसे होती है। मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः। . तेन नाथ ! परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥५॥ (७५) 'हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृतिको-मानव स्वभावकोअतिक्रान्त कर गये हैं और देवताओंमें भी देवता हैं-पूज्य र हैं-इस लिये आप परम-उत्कृष्ट देवता हैं-पूज्यतम हैं । अतः हे | धर्मजिन ! आप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें, हम प्रसन्नता Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • समन्तभद्र-भारती ! पूर्वक रसायन-सेवनकी तरह आपका अाराधन करके संसार-रोग मिटाते । 2. हुए अपना पूर्ण स्वास्थ्य (मोक्ष) सिद्ध करनेमें समर्थ होवें। भावार्थ-'श्रेयसे प्रसीद नः-याप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें, यह अलंकृत भापामें भक्तकी प्रार्थना है, जिसका शब्दाशय यद्यपि * इतना ही है कि आप हमपर प्रसन्न होवें और उस प्रसन्नताका फल हमें कल्या के रूपमें प्राप्त होवे; परन्तु वीतराग जिनेन्द्रदेव किसीपर प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं हुअा करते-वे तो सदा ही अात्मस्वरूपमें मग्न और प्रसन्न रहते हैं, फिर उनसे ऐसी प्रार्थनाका कोई प्रयोजन नहीं । वास्तवमें यह अलंकृतभाषामय प्रार्थना एक प्रकारकी भावना है और इसका फलितार्थ यह है । कि हम वीतरागदेव श्रीधर्मजिनका प्रसन्न-हृदयसे अाराधन करके उनके साथ तन्मयता प्राप्त करें और उस तन्मयताके फलस्वरूप अपना आत्म- ! * कल्याण सिद्ध करनेमें उसी प्रकारसे समर्थ होव जिस प्रकार कि रसायनके ! प्रसादसे-प्रसन्नतापूर्वक रसायनका सेवन करनेसे-रोगीजन आरोग्य-लाभ करनेमें समर्थ होते हैं। श्रीशान्ति-जिन-स्तवन विधाय रक्षां परतः प्रजानां राजा चिरं योऽप्रतिम-प्रतापः। . व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्ति मुनिया-मूर्तिरिवाऽघशान्तिम् ॥१॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र " | होती है; क्योंकि वस्तु-स्थिति ऐसी ही है-इन्द्रिय-विषयोंको जितना । 20 अधिक सेवन किया जाता है उतनी ही अधिक उनके और सेवनकी तृष्णा बढ़ती रहती है । सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय (मात्र कुछ समयके । लिये) शरीरके सन्तापको मिटानेमें निमित्तमात्र हैं-तृष्णारूप अग्निज्वालाओंको शान्त करनेमें समर्थ नहीं होते। यह सब जानकर हे आत्मवान् । इन्द्रियविजेता भगवन् !-आप बिषय-सौख्यसे परा । मुख हुए हैं-आपने चक्रवर्तित्वकी सम्पूर्ण विभूतिको हेय समझते हुए । उनसे मुख मोड़कर अपना पूर्ण आत्मविकास सिद्ध करनेके लिये स्वयं ही वैराग्य लिया है-जिनदीक्षा धारण की है।' बाह्यं तपः परम-दुश्वरमाऽऽचरस्त्वमाऽऽध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुष-द्वयमुत्तरस्मिन् । ध्यान-द्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥३॥ (वैराग्य लेकर) आपने आध्यात्मिक तपकी-अात्मध्यानकीपरिवृद्धिके लिये परमदुश्चर बाह्य नप-अनशादिरूप घोर-दुद्धर तपमें श्चरण किया है । और (इस बाह्यतपश्चरणको करते हुए) आप आत रौद्र-रूप दो कलुषित (खोटे) ध्यानोंका निराकरण करके उत्तरवर्ती-धर्म्य और शुक्ल नामक-दो सातिशय (प्रशस्त) ध्यानोंमें प्रवृत्त हुए हैं।' हुत्वा स्व-कर्म-कटुक-प्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयाऽतिशय-तेजसि जात-वीर्यः । । उत्तरेस्मिन्' इति पाठान्तरम् । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समन्तभद्र-भारती बभ्राजिषे सकल-वेद-विधेर्विनेता - . व्यभ्रे यथा विनति दीप्त-रुचिर्विवस्वान् ॥४॥ ___(सातिशय ध्यान करते हुए हे कुन्थुजिन !) आप अपने कर्मोकी र चार कटुक प्रकृतियोंको-ज्ञानवरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातिया कर्मोको-रत्नत्रयकी-सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान | और सम्यकचारित्रकी-सातिशय अग्निमें-परमशुक्लध्यानरूप-वह्निमें! भस्म करके जातवीर्य हुए हैं-शक्तिसम्पन्न बने हैं-और सकल वेद-विधिके--सम्पूर्ण लोकाऽलोक-विषयक-ज्ञान-विधायक आगमके2प्रणेता होकर ऐसे शोभायमान हुए हैं जैसे कि घनपटल-विहीन आकाशमें दीप्त किरणोंको लिये हुए सूर्य शोभता है।' यस्मान्मुनीद्र ! तव लोक-पितामहाद्या विद्या-विभूति-कणिकामपि नाप्नुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमाऽऽर्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्व-हितैकतानाः ॥शा(८८) 'हे मुनीन्द्र श्रीकुन्थुजिन! चूंकि लोकपितामहादिक ब्रह्माविष्णु-महेश-कपिल-सुगतादिक-आपकी विद्या (केवलज्ञान) की और विभतिकी-समवसरणादि लक्ष्मीकी-एक काणिकाको भी प्राप्त नहीं ! हैं, इस लिये आत्महित-साधनकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ सुधी जन-गणधरादिक-पुनर्जन्मसे रहित आप अद्वितीय स्तुत्य (स्तुति| पात्र) की स्तुति करते हैं।' - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र १८ श्रीअर-जिन-स्तवन गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य तद्वहुत्व-कथा स्तुतिः। आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥१॥ विद्यमान गुणोंकी अल्पताको उल्लंघन करके जो उनके बहुत्वकी कथा की जाती है उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाता है उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। वह स्तुति (हे अर-जिन ! ) आपमें ! कैसे बन सकती है ?-नहीं बन सकती । क्योंकि आपके गुण , अनन्त होनेसे पूरे तौरपर कहे ही नहीं जा सकते-बढ़ा-चढ़ा •! कर कहनेकी तो फिर बात ही दूर है।' तथाऽपि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् । पुनाति पुण्य-कीर्तेस्ततो याम किश्चन ॥२॥ ___(यद्यपि अापके गुणोंका कथन करना अशक्य है) फिर भी आप ! पुण्यकीर्ति* मुनीन्द्रका चूंकि नाम-कीर्तन भी-भक्तिपूर्वक नामका । 2 उच्चारण भी हमें पवित्र करता है। इसलिये हम आपके गुणोंका, कुछ-लेशमात्र कथन ( यहाँ ) करते हैं।' * 'कीर्ति' शब्द वाणी, ख्याति और स्तुति तीनों अर्थों में प्रयुक्त में होता है और 'पुण्य' शब्द पवित्रता तथा प्रशस्तताका द्योतक है । अतः जिनकी वाणी पवित्र-प्रशस्त है, ख्याति पवित्र-प्रशस्त है और स्तुति पुण्योत्पादक-पवित्रतासम्पादक है उन्हें 'पुण्य-कीति' कहते हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ समन्तभद्र-भारती - लक्ष्मी-विभव-सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्र-लाञ्छनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तणमिवाऽभवत् ॥३॥ ____ 'लक्ष्मीकी विभूतिके सर्वस्वको लिये हुए जो चक्रलाञ्छन -चक्रवर्तित्वका-सार्वभौम • साम्राज्य आपको सम्प्राप्त था, वह ! मुमुक्षु होनेपर-मोक्ष प्राप्तिको इच्छाको चरितार्थ करनेके लिये उद्यत होनेपर-आपके लिये जीर्ण तृणके समान हो गया-आपने उसे निःसार समझ कर त्याग दिया।' ___ तव रूपस्य सौन्दर्यं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । द्वयक्षः शक्रः सहस्राक्षो वभूव बहु-विस्मयः ॥४॥ 'आपके रूप-सौन्दर्यको देखकर दो नेत्रोंवाला इन्द्र तृप्तिको ! प्राप्त न हुआ-उसे आपको अधिकाधिकरूपसे देखनेकी लालसा बनी । ही रही-(और इसलिये विक्रिया-द्वारा) वह सहस्र-नेत्र बन कर देखने लगा, और बहुत ही आश्चर्यको प्राप्त हुआ।' मोहरूपो रिपुः पापः कषाय-भट-साधनः । दृष्टि-संविदुपेक्षाऽस्त्रस्त्वया धीर ! पराजितः ॥५॥ __ 'कषाय-भटोंकी-क्रोध-मान-माया-लोभादिककी-सैन्यसे युक्त जो मोहरूप-मोहनीय कर्मरूप-पापी शत्रु है-अात्माके गुणोंका ! प्रधानरूपसे घात करनेवाला है-उसे हे धीर अर-जिन । आमने १ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा-परमौदासीन्य-लक्षण सम्यक्i चारित्र-रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित कर दिया है।' * 'संप' सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका पाठ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र । कन्दर्पस्योद्धरो दर्पस्त्रैलोक्य-विजयार्जितः। हे पयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६॥ . 'तीन लोककी विजयसे उत्पन्न हुए कामदेवके उत्कट दर्पकोमहान् अहंकारको-आपने लज्जित किया है। आप धीरवीरअक्षुभितचित्त-मुनीन्द्र के सामने कामदेव हतोदय (प्रभावहीन ) हो गया-उसकी एक भी कला न चली ।' । आयत्यां च तदात्वे च दुःख-योनिर्दुरुत्तरा । तृष्णा नदी त्वयोत्तीर्णा विद्या-नावा विविक्तया ॥७॥ ___ 'आपने उस तृष्णा नदीको निर्दोष ज्ञान-नौकासे पार किया है जो इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योति है-कष्ट-परम्पराको । उत्पन्न करनेवाली है और जिसका पार करना आसान नहीं है1 बड़े कष्टसे जिसे तिरा ( पार किया ) जाता है ।' अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्म-ज्वर-सखः सदा । त्वामन्तकाऽन्तकं प्राप्य व्यावृत्तः काम-कारतः ।।८।। 'पुनर्जन्म और ज्वरादिक रोगोंका मित्र अन्तक-यम सदा ! मनुष्योंको रुलानेवाला है; परन्तु आप अन्तकका अन्त करनेवाले हैं, आपको प्राप्त होकर अन्तक-काल अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति1 से उपरत हुआ है-उसे अापके प्रति अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा है।' भूपा-वेपाऽऽयुध-न्यागि विद्या-दम-दया-परम् । रूपमेव तवाऽऽचष्टे धीर! दोष-विनिग्रहम् ॥६॥ । 'हे धीर अर-जिन ! आभूषणों, वेषों तथा आयुधोंका त्यागी । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समन्तभद्र-भारती और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय तथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हुए । आपका रूप ही इस बातको बतलाता है कि आपने दोषोंका पूर्ण! तया निग्रह ( विजय ) किया है क्योंकि राग तथा अहंकारका निग्रह में किये विना कटक-केयूरादि ग्राभूषणों तथा जटा-मुकुट-रक्ताम्बरादिरूप, . वेषोंके त्यागनेमें प्रवृत्ति नहीं होती, द्वेष तथा भयका निग्रह किये विना शस्त्रास्त्रोंका त्याग नहीं बनता, अज्ञानका नाश किये विना ज्ञानमें उत्कृष्टता | * नहीं पाती, मोहका क्षय किये विना कषायों और इन्द्रियोंका पूरा दमन नहीं । ! बन आता और हिंसावृत्ति, द्वेष तथा लौकिक स्वार्थको छोड़े विना दयामें तत्परता नहीं पाती।' समन्ततोऽङ्गभासां ते परिवेषेण भूयसा। ___ तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यान-तेजसा ॥१०॥ 'सब ओरसे निकलनेवाल आपके शरीर-तेजोंके बृहत परि-। मंडलसे-विशाल प्रभामंडलसे-आपका बाह्य अन्धकार दूर हुआ और ध्यान-तेजसे आध्यात्मिक-ज्ञानावरणादिरूप भीतरी-अन्ध- । कार नाशको प्राप्त हुआ है।' सर्वज्ञ-ज्योतिषोभ तस्तावको महिमोदयः । न कुर्यात्प्रणनं ते सत्त्वं नाथ ! सचेतनम् ॥११॥ 'हे नाथ अरजिन ! सर्वज्ञकी ज्योतिसे—ज्ञानोत्कपेसे-उत्पन्न हुआ आपके माहात्म्यका उदय किस सचेतन प्राणीको-गुण-दोषके विवेकमें चतुर जीवात्माको-प्रणम्रशील नहीं बनाता ? सभीको अापके आगे नत-मस्तक करता है।' तव वागमृतं श्रीमत्सर्व-भाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि ॥१२॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र ' सर्व - भाषाओं में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए और समवसरण सभा में व्याप्त हुआ आपका श्रीसम्पन्न - सकलार्थ के यथार्थ प्रतिपादनकी शक्तिसे युक्त – वचनामृत प्राणियोंको उसी प्रकार तृप्त संतुष्ट करता है जिस प्रकार कि अमृत पान | अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विनर्ययः । ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ||१३| .६५ ' ( हे अरजिन ! ) आपकी अनेकान्तदृष्टि ( अनेकान्तात्मक-मतप्रवृत्ति) मती - सच्ची है, विपरीत इसके जो एकान्त मत है वह शून्यरूप असत है* । अतः जो कथन अनेकान्त - दृष्टि से रहित - एकान्त दृष्टिको लिये हुए - है वह सब मिथ्या है; क्योंकि वह अपना ही -- सत्-सत् आदिरूप एकान्तमतका ही - घातक है— अनेकान्तके विना एकान्तकी स्वरूप प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती ।' ये पर स्वलितोनिद्राः स्व - दोषेभ - निमीलनाः । तपस्विनस्ते किं कुयु पात्रं त्वन्मत- श्रियः || १४ || " 'जो ( एकान्तवादी जन ) परमें— अनेकान्तमें-- विरोधादि दोप देखने के लिए उन्निद्र - जागृत-रहते हैं और अपने में - सत् यदि एकान्तमें- दोषोंके प्रति गज-निमीलनका व्यवहार करते हैं - उन्हें देखते हुए भी न देखनेका डौल बनाते हैं - वे बेचारे क्या करें ?उनसे स्वपत्नका साधन और परपक्षका दूषण बन नहीं सकता । ( क्योंकि ) पके अनेकान्त-मतकी ( यथार्थ वस्तुस्वरूप - विवेचकत्त्व - लक्षणा ) * यह सब कैसे है, इस विषयको विशेषरूपसे जानने के लिये इसी स्वयम्भू-स्त्रोत्र-गत सुमति-जिन और सुविधि - जिनके स्तवनोको अनुवाद - सहित देखना चाहिए। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती 1. श्रीके पात्र नहीं हैं-सर्वथा एकान्तपक्षको अपनानेसे वे उसके योग्य ही । नहीं रहे। ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वराः।। त्वद्विषः स्वहनो बालास्तत्त्वाऽवक्तव्यतां श्रिताः ॥१॥ -- . 'वे एकान्तवादी जन, जो उस (पूर्वोक्त ) स्वघाति-दोषको दूर । करनेके लिये असमर्थ हैं, आपसे-अापके अनेकान्तवादसे-द्वेष रखते हैं, आत्मघाती हैं-अपने सिद्धान्तका घात स्वयं अपने हाथों करते हैं-और यथावद्वस्तुस्वरूपसे अनभिज्ञ-बालक हैं,(इसीसे)उन्होंने तत्त्व की अवक्तव्यताको आश्रित किया है-वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है, ऐसा प्रतिपादन किया है।' सदेक-नित्य-वक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ॥१६॥ ___ सत्, एक, नित्य, वक्तव्य और इनके विपक्षरूप असत. अनेक, अनित्य, अवक्तव्य ये जो नय-पक्ष हैं वे यहाँ सर्वथा-रूपमें तो अति दूपित हैं और स्यात्-रूपमें पुष्टिको प्राप्त होते हैं।अर्थात् सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा एक (अद्वैत ), सर्वथा अनेक सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा वक्तव्य और सर्वथा अवक्तव्य ! रूपमें जो मत-पन हैं, वे सब दूषित (मिथ्या ) नव हैं-स्वेष्टमें बाधक हैं। और स्यात् सत्, स्यात असत, स्यात् एक, स्यात् अनेक, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् वक्तव्य और स्यात् अवक्तव्यरूपमें जो । नय-पक्ष हैं, वे सन्त्र पुष्ट ( सम्यक् ) नय हैं—स्वकीय अर्थका निर्बाधरूपसे प्रतिपादन करनेमें समर्थ हैं।' 'प्रदुष्यन्ते पुष्यन्ते' इति पाठान्तरम् । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र : सर्वथा - नियम- त्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तान के न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ||१७|| सर्वथारूपसे - सत् ही है, असत् ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है इत्यादि रूपसे - प्रतिपादनके नियमका त्यागी, और यथादृष्टको -. जिस प्रकार सत्-असत् श्रादि रूपसे वस्तु प्रमाण - प्रतिपन्न है उसको --- अपेक्षा रखनेवाला जो 'स्यात्' शब्द है वह आपके अनेकान्तवादी जिनदेवके-न्यायमें है, ( त्वन्मत- बाह्य ) दूसरोंके - एकान्तवा - दियोंके -न्यायमें नहीं है, जो कि अपने वैरी आप हैं ।' " ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀ ܀ ܀܀ अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः । अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ १८ ॥ ' आपके मत में अनेकान्त भी - सम्यक् एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी— प्रमाण और नयसाधनों (दृष्टियों ) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप -- कथञ्चित् अनेकान्त और कथञ्चित् एकान्तस्वरूप -- है । प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्तरूप सिद्ध होता है ( 'सकलादेशः प्रमाणाधीनः ' इस वाक्य के आशयानुसार ) और विवक्षित नयकी अपेक्षा अनेकान्तमें एकान्तरूप - प्रतिनियतधर्मरूप - सिद्ध होता है ( 'विकादेशः नयाधीनः ' इस वाक्य के श्राशयानुसार ) ।' * एकान्तवादी परके वैरी होनेके साथ साथ अपने वैरी व्याप कैसे हैं, इस बातको सविशेपरूपसे जाननेके लिये 'समन्तभद्र - विचार -माला' का प्रथम लेख 'स्व-पर-वैरी कौन ?' देखना चाहिये, जो कि 'अनेकान्त' के चतुर्थ वर्ष की प्रथम किरण ( नववर्षात ) में प्रकाशित हुआ है । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समन्तभद्र-भारती इति निरुपम-युक्त-शासनः प्रिय-हित-योग-गुणाऽनुशासनः । अर-जिन ! दम-तीर्थ-नायक स्त्वमिव सतां प्रतिबोधनाय कः ? ॥१॥ . 'इस प्रकार हे अरजिन ! आप निरूपम-युक्त-शासन हैंउपमा-रहित और प्रमाण-प्रसिद्ध शासन-मतके प्रवर्तक हैं---, प्रिय तथा हितकारी योगोंके--मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियों अथवा समाधिके-और गुणोंके-मम्यग्दर्शनादिकके--अनुशासक हैं, साथ ही दम-तीर्थके नायक हैं-कपाय तथा इन्द्रियोंकी जयके विधायक प्रवचन-तीर्थके स्वामी ! हैं। आपके समान फिर साधुजनोंको प्रतिबोध देनेके लिये और * कौन समर्थ है ?--कोई भी समर्थ नहीं है । आप ही समर्थ हैं।' मति-गुण-विभवानुरूपतस्त्वयि-वरदाऽऽगम-दृष्टिरूपतः। गुण-कृशमपि किञ्चनोदित . मम भवताद् दुरितामनोदितम् ॥२०॥ (१०५) हे वरद-अरजिन ! मैंने अपनी मत-शक्तिकी सम्पत्तिके अनुरूप--जैसी मुझे बुद्धि-शक्ति प्राप्त हुई है उसके अनुसार-तथा आगमकी दृष्टिक अनुमार-अागममें कथित गुणोंके आधारपरआपके विषयमें कुछ थोड़ेसे गुणोंका कीर्तन किया है, यह गुणकीर्तन मेरे पाप-कर्मोक विनाशम समर्थ होवे-इसके प्रसादस मंग मोहनीयादि पाप-कर्मप्रकृतियांका क्षय हो ।' । * 'युक्ति-शामनः' इति पाठान्तरम् ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र : १६ श्रीमल्लि-जिन-स्तवन यस्य महर्षेः सकल-पदार्थप्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । साऽमर-मत्यं जगदपि सर्व प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म ॥१॥ __'जिन महर्षिके सकल-पदार्थोंका प्रत्यवबोध-जीवादिसम्पूर्ण पदार्थोंको मब अोरस अशेष-विशेषको लिये हुए जाननेवाला परि ज्ञान (केवलज्ञान)-साक्षात् (इन्द्रिय-श्रुतादि-निरपेक्ष प्रत्यक्ष ) रूपसे र उत्पन्न हुआ, (और इसलिये ) जिन्हें देवों तथा मर्त्यजनोंके साथ सारे ही जगतने हाथ जोड़कर नमस्कार किया; ( उन मल्लिजिनकी मैंने शरण ली है।)' यस्य च मृतिः कनकमयीव ख-स्फुरदाभा-कृत-परिवेषा । वागपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यात्पद-पूर्वा रमयति साधून ॥२॥ जिनकी मूर्ति-शरीराकृति-सुवर्णनिर्मित-जैसी है और स्फुरायमान आभासे परिमण्डल किये हुए है-सम्पूर्ण शरीरको | व्याप्त करनेवाला भामण्डल बनाये हुए है-, वाणी भी जिनकी 'स्यात्' । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० . समन्तभद्र-भारती । पदपूर्वक यथावत् वस्तुतत्त्वका कथन करनेवाली है और साधु- । - जनोंको रमाती है आकर्षित करके अपनेमें अनुरक्त करती है; ( उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है । )' . यस्य पुरस्ताद्विगलित-माना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते । भूरपि रम्या प्रतिपदमासी जात-विकोशाम्बुज-मृदु-हासा ॥ ३ ॥ 'जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीर्थजन-एकान्तवाद-! मतानुयायो-पृथ्वीपर विवाद नहीं करते थे और पृथ्वी भी (जिनके । विहारके समय) पद-पदपर विकसित कमलोंसे मृदु-हास्यको लिये हुए रमणीक हुई था; ( उन मल्लि-जिनकी मैने शरण ली है।)' यस्य समन्ताज्जिन-शिशिरांशोः शिष्यक-साधु-ग्रह-विभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जनन-समुद्र त्रासित-सत्वोत्तरण-पथोऽग्रम् ॥ ४ ॥ ' (अपनी शीतल-वचन-किरणोंके प्रभावसे संसार-तापको शान्त करनेवाले) जिन जिनेन्द्र-चन्द्रका विभव (ऐश्वर्य) शिष्य-साधु-ग्रहोंके ! रूपमें हुआ था-प्रचुर परिमाणमें शिष्य-साधुश्रांके समूहसे जो व्याप्त ! * थे--, जिनका आत्मीय तीर्थ-शासन-भी संसार-समुद्रसे भयहै भीत प्राणियोंको पार उतरने के लिये प्रधान मार्ग बना है; (उन १ मल्लि-जिनेन्द्रकी मैंने शरण ली है।)' Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्नि ानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् । तं जिन-सिंह कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥५॥ (११०) और जिनकी शुक्लध्यानरूप परम तपोऽग्निने अनन्त दुरितको अन्तको प्राप्त न होनेवाले (परम्परासे चले आनेवाले) कर्माष्टककोभस्म किया था, उन (उक्त गुणविशिष्ट) कृतकृत्य और अशल्य-माया-मिथ्यानिदान-शल्यवर्जित-मल्लिजिनेन्द्रकी मैं शरण में प्राप्त हुआ हूँइस शरण-प्राप्ति-द्वारा उस अनन्त दुरितरूप कर्मशत्रुसे मेरी रक्षा होवे ।' श्रीमुनिसुव्रत-जिन-स्तवन अधिगत-मुनि-सुव्रत-स्थितिमुनि-वृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः। मुनि-परिषदि निर्बभौ भवा नुडु-परिषत्परिवीत-सोमवत् ॥१॥ _ 'मुनियोंके सुब्रतोंकी-मूलोत्तर-गुणोंकी स्थितिको अधिगत | करनेवाले उसे भले प्रकार जाननेवाले ही नहीं किन्तु स्वतः के प्राच Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. /समन्तभद्र-मारती रण द्वारा अधिकृत करनेवाले - ( और इसलिए ) 'मुनि - सुव्रत' इस वर्थसंज्ञाके धारक हे निष्प ( श्रातिकर्म-चतुष्टयरूप पापसे रहित ) मुनिराज ! आप मुनियोंकी परिषद्-गणधरादि ज्ञानियों की सभा ( समवसरण ) में - उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि नक्षत्रों के समूह से परिवेष्ठित चन्द्रमा शोभाको प्राप्त होता है ।' परिणत - शिखि-कण्ठ-रागया कृत-मद- निग्रह - विग्रहाऽऽभया । तत्र जिन ! तपसः प्रसूतया ग्रह-परिवेष- रूचेव शोभितम् ||२|| ܀܀܀܀܀܀܀܀ 6 'मद मदन अथवा अहंकार के निग्रहकारक —— निरोधसूचकशरीरके धारक हे मुनिसुव्रत जिन ! आपका शरीर तपसे उत्पन्न हुई तरुण मोर के कण्ठवर्ण-जैसी आभासे उसी प्रकार शोभित हुआ है जिस प्रकार कि परिवेषकी चन्द्रमा के परिमण्डलकीदीप्ति शोभती है ।' शशि-रुचि शुचि-शुक्ल- लोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते ! यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम् ||३|| 'हे यतिराज ! आपका अपना शरीर चन्द्रमाकी दीप्ति सम्मान निर्मल शुक्ल रुधिस्से युक्त, अतिसुगन्धित, रजरहित, शिवस्वरूप. ( स्व-पर-कल्याणमय ) तथा अति आश्चर्य को लिए हुए ܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र : | रहा है और आपके वचन तथा मनकी जो प्रवृत्ति हुई है वह भी शिव-स्वरूप तथा अति आश्चर्यको लिए हुए हुई है।' . ' स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । इति जिन! सकलज्ञ-लाञ्छनं वचनमिदं वदतांवरस्य ते ॥४॥ हे मुनिसुव्रत जिन ! आप वदतांवर हैं-प्रवक्ताओंमें श्रेष्ठ हैंआपका यह वचन कि 'चर और अचर ( जंगम-स्थावर ) जगत् , प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोधलक्षणको लिए हुए है'-प्रत्येक समय में ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश ) स्वरूप है-सर्वज्ञताका चिन्ह j है-संसारभरके जड-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल और मूर्त-अमूर्त सभी पदार्थामें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको एक साथ लक्षित करना सर्वज्ञताके बिना नहीं बन सकता, और इसलिए आपके इस परम अनुभूत वचनसे । स्पष्ट सूचित होता है कि श्राप सर्वज्ञ हैं।' दुरित-मल-कलङ्कमष्टकं निरुपम-योग-वलेन निर्दहन । अभवदभव-सोख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥५॥ (११५) । ( हे मुनिसुव्रत जिन !) आप अनुपम योगबलसे-परमशुक्लध्यानामिके तेजसे-आठों पाप-मलरूप कलंकोंको-जीवात्माके वास्तविक स्वरूपको आच्छादन करनेवाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु नामके आठों कर्ममलोंको- Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ स्वयम्भू-स्तोत्र : , ७५ । सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐसा कौन विद्वान्–प्रेक्षापूर्वकारी । * अथवा विवेकी जन है जो आपकी स्तुति न करे ? करे ही करे।। त्वया धीमन् ! ब्रह्म-प्रणिधि-मनसा जन्म-निगलं समूलं निभिन्न त्वमसि विदुषां मोक्ष-पदवी । त्वयि ज्ञान-ज्योतिर्विभव-किरण ति भगवनभूवन खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥२॥ 'हे बुद्धि-ऋद्धिसम्पन्न भगवन् ! आपने परमात्म(शुद्धात्म)स्वरूपमें चित्तको एकाग्र करके पुनर्जन्मके बन्धनको उसके मूलकारण-सहित नष्ट किया है, अतएव श्राप विद्वज्जनोंके लिए मोक्ष मार्ग अथवा मोक्षस्थान हैं-आपको प्राप्त होकर विवेकी जन अपना । 2 मोक्ष-साधन करनेमें समर्थ होते हैं । आपमें विभव (समर्थ) किरणोंके 2. साथ केवलज्ञानज्योतिके प्रकाशित होनेपर अन्यमती-एकान्त वादी-जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए हैं जिस प्रकार कि निर्मल सूर्यके सामने खद्योत ( जुगनू ) होते हैं।' विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषैः प्रत्येकं नियम-विषयेश्चापरिमितेः। सदाऽन्योन्यापेक्षैः सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहु-नय-विवक्षेतर-वशात् ॥३॥ ' हे सम्पूर्ण जगत्के महान् गुरु श्रीनमिजिन ! आपने वस्तुतत्त्वको बहुत नयोंकी विवक्षा-अविक्षाके वशसे विधेय, वार्य (प्रतिषेध्य) उभय, अनुभय तथा मिश्रभंग-विधेयाऽनुभय, प्रतिषेध्या| ऽनुभय और उभयाऽनुभय-(ऐसे सप्तभंग) रूप निर्दिष्ट किया है। साथ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. समन्तभद्र-भारती ही अपरिमित विशेपों (धर्मों) का कथन किया है, जिनमें से एक. एक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये रहता है, और सप्त! भंगके नियमको अपना विषय किये रहता है-कोई भी विशेष अथवा | में धर्म सर्वथा एक दूसरेकी अपेक्षासे रहित कभी नहीं होता और न सप्तभंग* के नियमसे बहिर्भूत ही होता है !' अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्राऽऽरम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राऽऽश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्धयर्थं परम-करुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृत-वेषोपधि-रतः॥४॥ 'प्राणियोंकी अहिंसा जगत में परमब्रह्म-अत्युच्चकोटिकी अात्म* चर्या-जानी गई है और वह अहिंसा उस आश्रमविधिमें नहीं ! बनती जिसआश्रमविधिमें अणमात्र-थोड़ा सा-भी आरम्भ. होता है । अतः उस अहिंसा-परमब्रह्मकी सिद्धिके लिये परम! करुणाभावसे सम्पन्न आपने ही बाह्याभ्यन्तररूपसे उभय-प्रकारके - परिग्रहको छोड़ा है-बाह्यमें वस्त्रालंकारादिक उपधियोंका और अन्त रंगमें रागादिक भावोंका त्याग किया है- और फलतः परमब्रह्मकी | सिद्धिको प्राप्त किया है। किन्तु जो विकृतवेष और उपधिमें रत | हैं-यथाजालिङ्गके विरोधी जटा-मुकट-धारण तथा भस्मोद्धूलनादि! रूप वेष और वस्त्र, आभूषण, अक्षमाला तथा मृगचर्मादिरूप उपधियोंमें में आसक्त हैं—उन्होंने उस बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा है। और इस लिए ऐसांसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकती हैं।' वपुषा-वेष-व्यवधि-रहितं शान्त-करणं - ‘यतस्ते संचष्टे स्मर-शर-विषाऽऽतङ्क-विजयम् । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀܀ܕ ܀܀ ***** ܀܀܀܀ स्वयम्भू-स्तोत्र ܀܀܀܀ ܀܀ विना भीमैः शस्त्रैरदय - हृदयाऽमर्ष - विलयं ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्ति-निलयः || ५ || (१२०) के ' (हे नमि - जिन !) आभूषण, वेष तथा व्यवधान (वस्त्र-प्रावरणादि) सेहत और इन्द्रियोंकी शान्तताको—अपने अपने विषयोंमें वांछाकी निवृत्तिको लिये हुए आपका नग्न दिगम्बर शरीर चूँकि यह बतलाता है कि आपने कामदेवके वाणोंके विषसे होनेवाली चित्त की पीडा अथवा अप्रतीकार व्याधिको जीता है और विना भयंकर शास्त्रोंके ही निर्दयहृदय क्रोधका विनाश किया है, इस लिये आप निर्मोह हैं और शान्ति सुखके स्थान हैं । अतः हमारे शरण्य हैं - हम भी निर्मोह होना और शान्ति सुखको प्राप्त करना चाहते हैं, इससे हमने आपकी शरण ली है ।' २२ श्रीश्ररिष्टनेमि जिन स्तवन ७७ ++++++-- भगवानृषिः परम-योगदहन - हुत- कल्मषेन्धनः । ज्ञान - विपुल - किरणैः सकलं प्रतिबुध्य बुद्ध-कमलायतेक्षणः || १ || हरिवंश - केतुरनवद्यविनय-दम-तीर्थ-नायकः । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܣ܀ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ - समन्तभद्र-भारती शील-जलधिरभवो विभव स्त्वमरिष्टनेमि-जिनकुञ्जरोऽजरः ॥२॥ __ 'विकसित-कमलदलके समान दीर्घ नेत्रोंके धारक और हरिवंशमें ध्वजरूप हे अरिष्टनेमि-जिनेन्द्र ! आप भगवान्–सातिशवज्ञानवान्-,ऋषि-ऋद्धिसम्पन्न-, और शीलसमुद्र-अठारह हज़ार । शीलोंके धारक-हुए हैं; आपने परमयोगरूप शुक्लध्यानाग्निसे कल्मषेन्धनको-ज्ञानावरणादिरूप कर्मकाष्ठको-भस्म किया है और ! ज्ञानकी विपुल ( निरवशेष-द्योतनसमर्थ विस्तीर्ण) किरणोंसे सम्पूर्ण । जगत अथवा लोकालोकको जानकर आप निर्दोष (मायादिरहित ) विनय तथा दमरूप तीर्थके नायक हुए हैं-अापने सम्यग्दर्शन-ज्ञान- । चारित्र-तप और उपचाररूप पंच प्रकारके विनय तथा पंचेन्द्रिय-जयरूप पंचप्रकार दमनके प्रतिपादक प्रवचन-तीर्थका प्रवर्तन किया है । (माथ ही) । आप जरासे रहित और भवसे विमुक्त हुए हैं।' त्रिदशेन्द्र-मौलि-मणि-रत्नकिरण-विसरोपचुम्बितम् । पाद-युगलममलं भवतो विकसत्कुशेशय-दलाऽरुणोदरम् ॥३॥ नख-चन्द्र-रश्मि-कवचाऽतिरुचिर-शिखराऽङ्गुलि-स्थलम् । म्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्र-मुखरा महर्षयः ॥४॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तात्र । ७६ 1 'आपके उस निर्मल चरण-युगलको, जो ( नत-मस्तक हुए) देवेन्द्रों के मुकटोंकी मणियों और वज़ादिरत्नोंकी किरणों के प्रसारसे उपचुम्बित है, जिसका उदर-पादतल-विकसित कमलदलके समान रक्तवर्ण है और जिसकी अंगुलियोंका उन्नत प्रदेश नखरूप-चन्द्रमाओंकी किरणोंके परिमण्डलसे अति सुन्दर मालूम होता है, वे सुधी महर्षिजन प्रणाम करते हैं जो अपना आत्महित- । साधनमें दत्तचित्त हैं और जिनके मुखपर सदा स्तुति-मन्त्र रहते हैं।' द्युतिमद्रथाङ्ग-रवि-बिम्बकिरण-जटिलांशुमण्डलः। नील-जलद-जल-राशि-वपुः सह बन्धुभिगेरुडकेतुरीश्वरः ॥शा हलभृच्च ते स्वजनभक्तिमुदित-हृदयौ जनेश्वरौं । धर्म-विनय-रसिको सुतरां चरणाऽरविन्द-युगलं प्रणेमतुः ॥६॥ 'जिनके शरीरका दीप्तिमण्डल द्युतिको लिए हुए सुदर्शनचक्ररूप रविमण्डलकी किरणोंसे जटिल है-संवलित है-और जिनका शरीर नीले कमल-दलोंकी राशिके समान श्यामवर्ण है उन गमडध्वज-नारायण-और हलधर-बलभद्र-दोनों लोकनायकोंने, जो स्वजनभक्तिसे प्रमुदितचित्त थे और धर्मरूप विनयाचारके। रसिक थे, आपके दोनों चरणकमलोंको बन्धु-जनोंके साथ बार ! बार प्रणाम किया है।' Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती ककुदं भुवः खचरयोषिदुषित-शिखरैरतकृतः । मेघ-पटल-परिवीत-तटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा ॥७॥ बहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च। प्रीति-वितत-हृदयैः परितो भृशमूर्जयन्त इति विश्रुतोऽचलः॥८॥ 'जो पृथ्वीका ककुद है-बैलके कन्धेके समीप स्थित ककुदनामक मर्वोपरिभाग जिस प्रकार शोभासम्पन्न होता है उसी प्रकार जो पृथ्वीके सब अवयवोंके ऊपर स्थित शोभा सम्पन्न उच्चस्थानकी गरिमाको प्राप्त है-विद्याधरोंको स्त्रियोंसे सेवित शिग्वरोंसे अलंकृत है और ! मेघपटलोंसें व्याप्त तटोंको लिये हुए है वह विश्रुत-लोकप्रसिद्ध-- ऊर्जयन्त (गिरनार ) नामका पर्वत ( हे नामजन ) इन्द्रद्वारा लिखे गये-उत्कीर्ण हुए-आपके चिन्होंको धारण करता है, इसलिए । तीर्थस्थान है और आज भी भक्तिस उल्लसितचित्त ऋपियोंद्वारा ! सब ओरसे निरन्तर अतिसवित है-भक्तिभरे ऋषिगण अपनी अात्मसिद्धि के लिये बड़े चावसे आपके उन्म पुण्यस्थानका प्राश्रय लेन रहते हैं।' वहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽर्थकृत । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तात्र नाथ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ ॥६॥ अते एव ते बुध-नुतस्य चरित-गुणमद्भुतोदयम् । न्याय-विहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्न-मनसः स्थिता वयम्॥१०॥(१३०) । ___'हे नाथ ! आपने इस अखिल विश्वको-चराचर जगतकोसदा कर-तल-स्थित स्फटिक मणिके समान युगपत् जाना है, और आपके इस जानने में बाह्य करण-चक्षुरादिक- और अन्तःकरणमन-ये अलग अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा ! उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते ! हैं । इसीसे हे बुधजन-स्तुत-अरिष्टनेमि जिन ! आपके न्याय विहित । और अद्भुत उदय-सहित-समवसरणादि-विभूति के प्रादुर्भावको लिये - हुए-चरित-माहात्म्यको भले प्रकार अवधारण करके हम बड़े । प्रसन्न-चित्तसे आपमें स्थित हुए हैं आपके भक्त बने हैं और हमने आपका आश्रय लिया है।' - २३ श्रीपार्श्व-जिन-स्तवन -*०::०*----- तमाल-नीलैः सधनुस्तडिद्गुणः प्रकीर्ण-भीमाऽशनि-वायु-वृष्टिभिः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. :समन्तभद्र - भारता ܀܀ बलाहकैर्वै रि-वशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः ॥ १॥ 'तमालवृक्ष के समान नील - श्यामवर्णके धारक, इन्द्रधनुषों तथा विद्युद्गुणोंसे युक्त और भयङ्कर वज्र, वायु तथा वर्षाको सब ओर वखेरनेवाले ऐसे वैरि-वशवर्तीकिमठ शत्रुके इशारे पर नाचने वाले - मेघों से उपद्रत होनेपर - पीडित किये जानेपर भी जो महामना योग्य से - शुक्लध्यान से चलायमान नहीं हुए ।' बृहत्फरणा- मण्डल - मण्डपेन Chess यं स्फुरतडित्पिङ्ग - रुचोपसर्गिणम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विराग-संध्या- तडिदम्बुदी यथा ॥२॥ 'जिन्हें उपसर्गप्राप्त होनेपर धरणेन्द्र नामके नागने चमकती हुई format पीत को लिये हुए बृहत्करणाओंके मण्डलरूप मण्डप उसी प्रकार वेष्ठित किया जिस प्रकार कृष्णसंध्या में विद्य तोपलक्षित मेघ अथवा विविधवर्णोंकी संध्यारूप विद्युतसे उपलक्षित मेघ पर्वतको वेष्ठित करता है । ' स्व-योग-निस्त्रिंश-निशात धारया निशान्य यो दुर्जय मोह - विद्विषम् । श्रवापदाऽऽर्हन्त्यमचित्यमद्भुतं त्रि-लोक-पूजाऽतिशयाऽऽस्पदं पदम् ||३|| 'जिन्होंने अपने योग- शुक्लध्यान रूप खड्गको तीक्ष्ण धारासे दुर्जय मोह - शत्रुका घात करके उस आर्हन्त्यपदको प्राप्त किया है जो कि अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी पूजा अतिशय ( परमंप्रकर्ष ) का स्थान है ।' Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तात्र यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत-कल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः। वनौकसः स्व-श्रम-वन्ध्य-बुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥४॥ 'जिन्हें विधूतकल्मष-घातिकर्मचतुष्टयरूप पापसे रहित--, शमोपदेशक-मोक्षमार्गके उपदेष्टा-और ईश्वरके-सकल-लोक-प्रभुकेरूपमें देखकर वे (अन्यमतानुयायी) वनवासी तपस्वी भी शरणमें प्राप्त हुए-मोक्षमार्गमें लगे-जो अपने श्रमको-पंचाग्निसाधनादि रूप प्रयासको-विफल समझ गये थे और वैसे ही (भगवान् पार्श्व! जैसे विधूतकल्मष ईश्वर ) होनेकी इच्छा रखते थे।' स सत्य-विद्या-तपसां प्रणायकः समग्रधीरुग्रकुलाऽम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते विलीन-मिथ्यापथ-दृष्टि-विभ्रमः ॥॥ (१३५) 'वे ( उक्त गुणविशिष्ट ) श्रीपार्श्वजिन मेरे द्वारा प्रणाम किये जाते हैं, जो कि सच्ची विद्यांत्रों तथा तपस्याओंके प्रणेता हैं, पूर्णबुद्धि-सर्वज्ञ हैं, उग्रवंशरूप आकाशके चंद्रमा हैं और ! जिन्होंने मिथ्यादर्शनादिरूप कुमार्गकी दृष्टियोंसे उत्पन्न होनेवाले ! विभ्रमोंको-सर्वथा नित्य-क्षणिकादिरूप बुद्धि-विकारोंको-विनष्ट किया है। है अथवा यों कहिए कि भव्यजन जिनके प्रसादसे सम्यग्दर्शनादिरूप । सन्मार्गके उपदेशको पाकर अनेकान्त-दृष्टि बने हैं और सर्वथा एकान्तॐ वादि-मतोंके विभ्रमसे मुक्त हुए हैं ।' - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ty. ममन्तभद्र-भारती २४ श्रीवीर-जिन-स्तवन -tw܀܀+--- कीर्त्या मुवि भासि तया वीर ! त्वं गुण-समुत्थया भासितया । भामोडुसभाऽसितया मोम इव व्योम्नि कुन्द-शोभाऽऽसितया ॥१॥ 'हे वीर जिन ! आप उस निर्मलकीर्तिसे-ख्याति अथवा दिव्यवाणीसे-जो (आत्म-शरीर-गत) गुणोंसे समुद्भत है, पृथ्वी पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि चन्द्रमा | आकाशमें नक्षत्र-सभा-स्थित उस प्रभा-दीप्तिसे शोभता है जो कि कुन्द-पुष्पोंकी शोभाके समान सब ओरसे धवल है।' तव जिन ! शासन-विभवो - ' जयति कलावपि गुणाऽनुशासन-विभवः । दोष-कशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा-कृशाऽऽसनविभवः ॥२॥ 'हे वीर जिन । आपका शासन-माहात्म्य-आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादन-स्वरूप गौरव-कलिकालमें भी जयको । प्राप्त है-मर्वोत्कृष्टरूपसे वर्त रहा है, उसके प्रभावसे गुणोंमें अनुशासन-प्राप्त शिष्यजनोंका भव विनष्ट हुआ है-संसारपरि भ्रमण सदाके लिए छूटा है-इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषरूप, , चाबुकों का निराकरण करने में समर्थ हैं-चाबुकोंकी तरह पीडाकारी । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀܀܀܀܀ स्वयम्भू-स्तोत्र : ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ८५ काम-क्रोधादि दोषों को अपने पास फटकने नहीं देते और अपने ज्ञानादि-तेजसे जिन्होंने आसन - विभुओं को - लोकके प्रसिद्ध नायकोंकों— निस्तेज किया है वे - गणधर देवादि महात्मा - भी आपके इस शासन- माहात्म्य की स्तुति करते हैं ।' अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाऽविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादशे सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वादः ॥ ३॥ ' हे मुनिनाथ ! 'स्यान' शब्द - पुरस्सर कथनको लिए हुए आपका जो स्याद्वाद है— अनेकान्तात्मक प्रवचन है-वह निर्दोष है; क्योंकि दृष्ट-प्रत्यक्ष — और इष्ट — श्रागमादिक - प्रमाणों के साथ उसका कोई विरोध नहीं है । दूसरा 'स्थान' शब्द - पूर्वक कथन से रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं है; क्योंकि दृष्ट और इष्ट दोनोंके विरोधको लिये हुए है - प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं, किन्तु अपने इष्ट अभिमतको भी बाधा पहुँचाता है और उसे किसी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता ।' त्वमसि सुरासुर - महितो ग्रन्थिकरुत्वाऽऽशय प्रणामाऽमहितः । लोक-त्रय-परमहितो Sनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धाम-हितः ॥ ४ ॥ ' ( हे वीर जिन ! ) आप सुरों तथा असुरोंसे पूजित हैं, किन्तु ग्रन्थिकसत्त्वोंके — मिथ्यात्वादि-परिग्रह से युक्त प्राणियोंके - ( भक्त ) हृदयसे प्राप्त होनेवाले प्रणामसे पूजित नहीं हैं—भले ही वे ऊपरी प्रणामादिसे पूजा करे, वास्तवमें तो सम्यग्दृष्टियोके ही आप पूजा-पात्र हैं । ( किसी किसीके द्वारा पूजित न होनेपर भी ) आप तीनों लोकके ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती . प्राणियों के लिए परम हितरूप हैं - राग-द्वेषादि - हिंसाभावों से पूर्णतया रहित होनेके कारण किसी के भी हितकारी नहीं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने आदर्शसे सभी भविकजनोंके ग्रात्म-विकासमें सहायक हैं- ,आवरणरहित ज्योतिको लिये हुए हैं - केवलज्ञान के धारक है - और उज्ज्वलधामको—मुक्तिस्थानको — प्राप्त हुए हैं अथवा अनावरण ज्योतियोंसे—केवलज्ञानके प्रकाशको लिए हुए मुक्तजीवोंसे—जो स्थान प्रकाशमान है उसको - सिद्धिशिलाको — प्राप्त हुए हैं ।' सभ्यानामभिरुचितं दधासि गुण-भूषणं श्रिया चारु - चितम् । मग्नं स्वस्यां रुचितं जयसि च मृग-लाञ्छनं स्व-कान्त्या रुचितम् ||५|| ' (हे वीर जिन ! ) आप उस गुणभूषण को - सर्वज्ञ - वीतरागतादिरूप गुणोंके आभूषणोंको — धारण किए हुए हैं जो सभ्यजनों अथवा समवसरण सभा - स्थित भव्यजनोंको रुचिकर है— इष्ट है — और श्रीसे—ष्ट प्रातिहार्यादिरूप विभूतिसे ऐसे रूपमें पुष्ट है जिससे उसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। और अपने शरीरकी कान्तिसे आप उस मृगलाञ्छन- चन्द्रमाको जीतते हैं जो अपनी तन है और सबको सुन्दर तथा प्यारा मालूम होता हैआपके शरीरका सौन्दर्य और आकर्षण पूर्ण चन्द्रमासे भी बढ़ा चढ़ा है । ' त्वं जिन ! गत-मद-माय स्तव भावानां मुमुक्षु- कामद ! मायः । श्रेयान् श्रीमदमाय स्त्वया समादेशि सप्रयाम - दमाऽयः ||६|| Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भू-स्तोत्र 'मुमुक्षुओं को इच्छित प्रदान करनेवाले -- उनकी मुक्ति-प्राप्ति में परमसहायक - ( वीर जिन !) आप मद और मायासे रहित हैंअकषायभावको प्राप्त होनेसे निर्दोष हैं, आपका जीवादि-पदार्थोंका परिज्ञान — केवलज्ञानरूप प्रमाण - ( सकल बाधाओं से रहित होनेके कारण) अतिशय प्रशंसनीय है, और आपने श्रीविशिष्ट - हेयोपादेय तत्त्वके परिज्ञान-लक्षणा लक्ष्मी से युक्त - तथा कपट-रहित यम और दसका -- महाव्रतोंके अनुष्ठान तथा परम इन्द्रियजयका -- उपदेश दिया है ।' गिरिभियवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः स्रवद्दानवतः । तव शम-वादानवतो गतमूर्जितमपगत- प्रमादानवतः ||७|| 'जिस प्रकार करते हुए मदके दानी और गिरि-भित्तियोंपर्वत - कटनियों का विदारण करनेवाले ( महासामर्थ्यवान् ) और श्रीमान् -- सर्वलक्षणसम्पन्न उत्तम जाति - विशिष्ट - - गजेन्द्रका स्वाधीन गमन होता है उसी प्रकार परम अहिंसा दान - - अभयदान के दानी हे वीर जिन ! शमवादोंकी - - रागादिक दोपांकी उपशान्तिके प्रतिपादक आगमोंकी —— रक्षा करते हुए आपका उदार बिहार हुआ है । - आपने अपने विहार द्वारा जगत्‌को रागादिक दोषोके शमनरूप परमब्रह्मअहिंसाका, सद्दृष्टि-विधायक अनेकान्तवादका और समता प्रस्थापक साम्यवादका उपदेश दिया है, जो सब ( अहिसा अनेकान्तवाद और साम्यवाद ) लोकमें मद—अहंकारका त्याग, वैर - विरोधका परिहार और परस्परमें अभयदानका विधान करके सर्वत्र शान्ति-मुखकी स्थापना करते हैं और इस लिये सन्मार्ग-स्वरूप हैं | साथ ही, वैपम्य-स्थापक, हिंसा - विधायक और सर्वथा एकान्त-प्रतिपादक उन सभी वादों-मतोंका खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे।' ܀܀܀܀ ८७ ܀ ܀ ܘܩܕܟܐ ܡܕܝܕ ܀ ܀ ܀ ܀ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र भारता बहुगुण-सम्पदसकलं परमतमपि मधुर-वचन-विन्यास-कलम् । नय-भक्तयवतंस-कलं तव देव ! मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ ८॥ (१४३) 'हे वीर जिनदेव ! जो.परमता है आपके अनेकान्त-शासनसे भिन्न दूसरोंका शासन है-वह मधुर वचनोंके विन्याससे-कानोंको प्रिय मालूम देनेवाले वाक्योंकी रचनासे-मनोज्ञ होता हुआ भी--प्रकट रूपमें मनोहर तथा रुचिकर जान पड़ता हुआ भी-बहुगुणोंकी सम्पत्तिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थवादिता और पर-हितप्रतिपादनादि-रूप बहुतसे गुण हैं उनकी शोभासे रहित है—सर्वथैकान्तवादका अाश्रय लेनेके कारण वे शोभन गुण उममें नहीं पाये जाते-और इस लिए वह यथार्थ वस्तुके निरूपणादिमें असमर्थ होता हुअा वास्तवमें अपूर्ण, सबाध तथा जगत् के लिए अकल्याणकारी है। किन्तु आपका मत-शासन-नयोंके भङ्ग-स्यादस्ति-नास्त्यादि-रूप अलंकारोंसे अलंकृत है अथवा नयोंकी भक्ति-उपासनारूप आभूषणको प्रदान ! करता है अनेकान्तवादका आश्रय लेकर नयोके सापेक्ष व्यवहारकी । सुन्दर शिक्षा देता है और इस तरह-यथार्थवस्तु-तत्त्वके निरूपण , और परहित-प्रतिपादनादिमें समर्थ होता हुआ-बहुगुण-सम्पत्तिसे युक्त है, ( इसीसे ) पूर्ण है और समन्तभद्र है-मब अोरसे भद्ररूप, ! निर्वाधतादि-विशिष्ट शोभासम्पन्न एवं जगतके लिए कल्याणकारी है।' इति श्रीनिरवद्यस्याद्वादविद्याधिपति-सकलतार्किकचक्रचूडामणि-श्रद्धागुणज्ञतादिसातिशयगुणगणविभूपित-सिद्धसारस्वत-स्वामिममन्तभद्राचार्य विरचितं चतुर्विंशतिजिनस्तवनात्मकं स्वयम्भूस्तोत्रं समाप्तम् । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट. १. स्वयम्भू-स्तवन-छन्द-सूची स्तवनाङ्क छन्दनाम छन्दलक्षण १ वंशस्थ प्रत्येक चरणमें जगण, तगण, जगण, रगणके क्रमको लिये हुए द्वादशाक्षर' (५,७) वृत्तका नाम 'वंशस्थ है। • उपजाति इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्राके चरणमिश्रणसे बना हुआ छन्द 'उपजाति' कहलाता है। १.४ इन्द्रवज्रा. __ प्रतिचरण तगण.तगण,जगण २ उपेन्द्रवत्रा, और अन्तमें दो गुरुके क्रमको ३-५उपजाति लिये हुए एकादशवणात्मक वृत्त को 'इन्द्रवज्रा' कहते हैं और चरणारम्भमें गुरुके स्थान पर लघु अक्षर (जगण) हो तो वही 'उपेन्द्रवज्रा' हो जाता है। ४ वंशस्थ उपर्युक्त (१) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ५१-४ ६-६ १० ११ १२ १३, १४ १५ १६ १७ १८ स्वयम्भू स्तोत्र उपजाति, ५ उपेन्द्रवज्रा उपजाति वंशस्थ १, ४, ५, उपजाति २,३ उपेन्द्रवज्रा १,३,४, उपजाति, २ उपेन्द्रवज्रा ५ इन्द्रवज्रा वंशस्थ रथोद्धता उपजाति वसन्ततिलका १-१८ पथ्यावक्त्र अनुष्टुप् १६.२० सुभद्रिका - मालती - मिश्र यमक उपर्युक्त (२ ,” (३) उपर्युक्त (२) उपर्युक्त (१) उपर्युक्त (२) (३) " उपर्युक्त (२) ११ (३) उपर्युक्त (१) रगरण, नगरण, रगण और लघु-गुरुके क्रमको लिये हुए एकादशवर्णात्मक चरण वृत्त का नाम 'रथोद्धता' है । उपर्युक्त (-) तगरण, भगण, जगण. जगण और अन्त में दो गुरुके क्रमको लिये हुए चतुर्दश - वर्णात्मक ( ८.६) 'वसन्ततिलका' है । चरणवृत्तका नाम अनुष्टुपके प्रत्येक चरण में आठ अक्षर होते हैं, जिनमें ५वां लघु, ६ठा गुरु और ७ वां अक्षर समचरणों ( २,४) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-छन्दसूची में लघु तथा विषमचरणों (१,३) में गुरु होता है। और जिसके समचरणों में चार अक्षरोंके बाद 'जगण' हो उसे पथ्यावक्त्र अनुष्टुप' कहते हैं। नगण, नगण. रगण और लघु-गुरुके क्रमको लिये हुए एकादशवणोत्मक चरणवृत्तको नाम 'सुभद्रिका' है और नगण, जगण,जगण, रगणके क्रमको लिए हुए द्वादशाक्षरात्मक चरणवृत्तका नाम 'मालती' है। इन दोनोंके चरण-मिश्रणसे बना हुआ छन्द 'सुभद्रिका-मालती-मिश्न - यमक' कहा जाता है। जिसके प्रत्येक चरणमें १६ मात्राएँ और उनमें हवीं तथा १२वीं मात्रा लघु हों उसे 'वानवासिका' छन्द कहते हैं। जिसके प्रथम, तृतीय (विषम) चरणोंमें १४ और द्वितीय, चतुर्थ (सम) चरणोंमें १६ मात्राएँ होती हैं तथा विषम चरणोंमें ६मात्राओंके और समचरणोंमें ८ मात्राओंके बाद क्रमश: 'रगण' तथा १६ वानवासिका वतालीय Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र लघु-गुरु होते हैं उसे 'वैतालीय वृत्त' कहते हैं। २१. . शिखरिणी प्रत्येक चरणमें यगण, मगण, तगण, सगण, भगण और लघुगुमके भ्रमको लिये हुए सप्तदश (६,११) वर्णात्मक वृत्तका नाम 'शिखरिणी' है। २२ उद्गता जिसके प्रथमचरणमें क्रमश: मगण, जगण सगण और लघु, द्वितीय चरणमें नगण, संगण, जगण और गुरु, तृतीय चरणमें भगण, नगण, जगण और लघुगुरु तथा चौथे चरणमें सगण, जगण, सगण, जगण और गुरु हों उसे 'उद्गता' वृत्त कहते हैं। वंशस्थ उपयुक्त (१) आऱ्यांगीति जिसके विषमचरणोंमें १२-१२ (स्कन्धक) और समचरणोंमें २०-२० मात्राएँ होती हैं उसे 'ाांगीति' अथवा 'स्कन्धक' वृत्त कहते हैं। गणलक्षण-आठगणोंमेंसे जिसके आदिमें गुरु वह भगण,' जिसके मध्यमें गुरु वह जगण', जिसके अन्त में गुरु वह 'मगण, जिसके आदिमें लघु वह यगण, जिसके मध्यमें लघु वह 'रगण', जिसके अन्तमें लघु वह 'तगण,' जिसके तीनों वर्ण गुरु वह 'मगण' और जिसके तीनों वर्ण लघु वह 'नगण' कहलाता है। लघु एकमात्रिक और गुरु द्विमात्रिक होता है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अर्हत्सम्बोधन-पदावली स्वामी समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें तीर्थङ्कर अर्हन्तोंके लिये जिन विशेषणपदोंका प्रयोग किया है उनका एक संग्रह स्तवन-क्रमसे प्रस्तावनामें दिया गया है और उसके देनेमें यह दृष्टि व्यक्त की गई है कि उससे अर्हत्स्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वह नयविवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते हुए उन (विशेषणपदों) का पाठ करनेपर सहजमें ही अवगत हो जाता है। यहाँपर उन सम्बोधन-पदोंका स्तोत्रक्रमसे एकत्र संग्रह दिया जाता है जिनसे स्वामीजी अपने इष्ट अर्हन्तदेवोंको पुकारते थे और जिन्हें स्वामीजीने अपने स्वयम्भू , देवागम, युक्त्यनुशासन और स्तुतिविद्या नामके चार उपलब्ध स्तोत्रोंमें प्रयुक्त किया है। इससे भी अर्हत्स्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वह नयविवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते हुए पाठ करनेपर और भी सामने आ जाता है। साथ ही, इससे पाठकोंको समन्तभद्रकी चित्तवृत्ति और रचना-चातुरीका कितना ही नया एवं विशेष अनुभव भी प्राप्त हो सकेगा। स्तुतिविद्याके अधिकांश सम्बोधनपद तो बड़े ही विचित्र, अनूठे, गम्भीर तथा अर्थगौरवको लिये हुए जान पड़ते हैं और वे सब संस्कृतभाषापर समन्तभद्र के एकाधिपत्यके सूचक है। उनके अर्थका कितना ही आभास स्तुतिविद्याके उस अनुवादपरसे हो सकेगा जो गत वर्ष वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित हुआ है। शेष सम्बोधनपदोंका अर्थ सहज ही बोधगम्य है। एक स्तोत्रमें जो सम्बोधनपद एकसे अधिक वार प्रयुक्त हुए हैं उन्हें उस स्तोत्रमें प्रथम प्रयोगके स्थानपर ही पद्याङ्कके सपथ ग्रहण किया गया है और अन्यत्र प्रयोगकी Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तोत्र सूचना ब्रेकटके भीतर पद्याङ्कोंको देकर की गई है। स्तुतिविद्याके सम्बोधनपदोंको स्तवनक्रमसे (स्तवनका नम्बर पैरेग्राफके शुरूमें ही देते हुए ) रक्खा गया है और उनके स्थानकी सूचना पद्यातोंद्वारा पद्यसम्बन्धी सम्बोधनपदोंके अन्तमें तथा ब्रेकटके भीतर उन्हें देकर की गई है। १ स्वयम्भूमें प्रयुक्त पद-नाथ १४ ( २५, ५७, ७५, ६६, १२६ ), आर्य १५ (४८, ६८). प्रभो २० (६६), सुविधे ४१, अनघ ४६, जिन ५० (११२, ११४, १३७, १४१ ), शीतल ५०, मुनीन्द्र ५६ (८५), महामुने ७०, धीर ७४ (६०, ६४), जिनवृष ७५, अरजिन १०४, वरद १०५. ( कृतमदनिग्रह ११२), यते ११३, धीमन् ११७, भगवन् ११७, वीर १३६, मुनीश्वर १३८, मुमुक्षुकामद १४१. देव १४३ । २ देवागममें प्रयुक्त पद-नाथ ८. मुनीन्द्र २० । ३ युक्त्यनुशासनमें प्रयुक्त पद-जिन २ (४, ६, ३०, ३४, ५२, ६४.), वीर ३३, जिननाग ४४, मुने ५८ । ४ स्तुतिविद्यामें प्रयुक्त सम्बोधनपद (१) नतपीलासन, अशोक, सुमनः, ऋषभ ५; आर्य ( २६, ४७, ५४, ८८,६२)८; स्तुत १०; ईड्य, महोरुगुरवे १२; अतातिततोतोते, ततोततः १३; येयायायाययेयाय, नानानूनाननानन, अमम (६३), अमिताततीतिततीतितः १४; महिमाय, पद्मायास.. हितायते १५। (२) सदक्षर, अजर (८३. ११२), अजित, प्रभो (२७) १६; सदक्षराजराजित, प्रभोदय, तान्तमोह १७।। - (३) वामेश (८६, ८८, ६८), एकार्य, शंभव १६; जिन (२३, ६१, ६२), अविभ्रम २० । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत्सम्बोधन-पदावली (४) अतमः, अभिनन्दन (२२ २३, २४) २१; नन्द्यनन्तद्धय नन्त, इन (२४. २५. ७५, ८६.८८. ६१, १०८. १११) २३: नन्दनस्वर २४। (५) सुमते, लातः (६६) २५; देव (२८,८३). अक्षयार्जव, वर्य (५४, १८, ११०), अमानोरुगौरव २६ । (६) अपापापदमेयश्रीपादपद्म, पद्मनभ. मतिप्रद २७; विभो (८६.८७), अजेय (७५, ६५), ततामित २८ । (८) एकस्वभाव ३५; शशिप्रभ ३६ । (6) अज (४४, ४६, ८६) ३७; नायक, सन्नजर ३८; अव्याधे, पुष्पदन्त, स्ववत्पते ३६; धीर (६३) ४०।। (१०) भूतनेत्र, पते ४१।। (११) तीर्थादे ४३; अपराग (४७), सहितावार्य ४६; श्रेयन् विदार्यसहित, समुत्सन्नजव ४७ । (१२) वासुपूज्य ४८। . (१३) अनेनः (१०८) ५२; नयमानक्षम. अमान (६३), आर्यातिनाशन, उरो, अरिमाय ५३ । (१४) वर्णभ, अतिनन्द्य, वन्द्य, अनन्त, सदारव, वरद, (११०), अतिनतार्याव, अतान्तसभागव ५४; नुन्नानृत (१.६), उन्नत. अनन्त ५५। (१५) अबाध, दमेनड़, मत, धर्मप्रभ, गोधन, अनागः, धर्म, शर्मतमप्रद ५ ; नतपाल, महाराज, गीत्यानुत, अक्षर (४,८६, ८९, ११२). मलपातन ५७; नाथ ६०; देवदेव ६२; स्थिर (८६), उदार ६३; ईडित, भगोः ६४। (१६) बलाढ्य ६६, अधिपते ७०, बुधदेव ७१; संगतोहीन ७२; स्वसमान, भासमान, अनघ ७६। (१७) अनिज़ ८१; नतयात, विदामीश, दावितयातन, रज- . Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयम्भूस्तान सामन्त, असन्तमस ३; - पागवारग्वार, क्षमाक्ष. वामानाममन, ऋद्ध (१०८)८४। (१८) वीरावार, अर, वरर, वीर ८५; चारुरुचानुत, अनशन (६१); उरुनम्र , विजरामय ८६; यमराज, विनम्रन, रुजोनाशन, चारुरुचामीश ८७; स्वयं, स्वयमाय. आर्यस्वमायन, दमराज, ऋतवाद, नदेवार्तजरामद ५८; रक्षार, अदर, शूर ८६ । (२०) हानिहीन, अनन्त (१११), ज्ञानस्थानस्थ, आनतनन्दन ६.१; पावन, अजितगोतेजः, वर, नानाव्रत. अक्षते, नानाश्चर्य, सुवीतागः, मुनिसुव्रत ६२। (२१) नमे, अनामनमनः, नामनमनः ६३; नः, दयाभ, ऋतवागोद्य, गोवार्तभयार्दन, अनुनुत, नतामित ६५; स्वय, मेध्य, प्रिया नुतयाश्रित, दान्तेश, शुद्धयाऽमेय, स्वभीत ६६ । (२२) सद्यशः अमेय, सगुरो, यमेश, उद्यतसतानुत । (२३) ममतातीत, उत्तममतामृत, ततामितमने, तातमत, अतीतमृते, अमित १००। (२४) वामदेव, क्षमाजेय, श्रीमते, वर्द्धमानाय, नमोन (१०४) १०३; नीम १८४; सुरानत १०७; वर्द्धमान, श्रेय १०८; नानानन्तनुतान्त, तान्तितनिनुत् , नुन्नान्त, नृतीनेन, नितान्ततानितनुते, नृतीनेननितान्ततानितनुते, निनूत, नुतानन १०६, वन्दारूप्रवलाजवंजवभयप्रध्वंसिगोप्राभव, वर्द्धिष्णो, विलसद्गुणार्णव, जगनिर्वाणहेतो, शिव, वन्दीभूतसमस्तदेव, प्रा कदक्षस्तव, एकवन्द्य, अभव ११०; नष्टाज्ञान, मलोन . शासनगुरो, नष्टग्लान , सुमान, पावन , भासन, नत्येकेन, रुजोन, सज्जनपते, अवन, सज्जिन १११; रम्य, अपारगुण, अरज:, सुरवरैरर्च्य, श्रीधर, रन्यून, अरतिदृर, भासुर, अर्य, उत्तरीश्वर, शरण्य, आधीर, सुधीर, विद्वर, गुरो ११२; तेजःपते ११४ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. स्वयम्भूस्तोत्र-पद्यानुक्रमणी पद्य पृष्ठ - पद्य अचेतने तत्कृतबन्धेजे पि च 12 कषायनाम्नां द्विषतां प्रमाथि- 48 अजंगमं जंगमनेययन्त्रं 24 काय-वाक्य-मनसां प्रवत्तयो 53 अत एव ते बुधनुतस्य 81 कीया भुवि भासितया 84 अद्यापि यस्याजितशासनस्य 6 कुन्थुप्रभत्यखिल-सत्वदय- 58 अधिगत-मुनिसुव्रतस्थितिर 71 क्षुदादिदुःखप्रतिकारत:स्थि- 13 अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो 48 गिरिभित्त्यवदानवतः 87 अनवद्यः स्याद्वादस 85 गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं 32 अनित्यमत्राणमहं क्रियाभिः 6 गुणस्तोकं सदुल्लंध्य 61 अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं 16 गुणाभिनन्दादभिनन्दनो- 12 अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं 31 गुणाम्बुधेर्विग्रुषमप्यजस्य 22 अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते 61 चक्रेण यः शत्रुभयंकरेण 55 अोकान्तोप्यनेकान्तः 67 चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीचिगौरं 26 अन्तकः क्रन्दकोन्नृणां 63 जनोतिलोलोप्यनुबंधदोषतो 14 अन्वर्थसंज्ञ: सुमतिमुनिस्त्वं 15 तथापि ते मुनीन्द्रस्य 61 अपत्यवित्तात्तरलोक तृष्णया 35 तदेव च स्यान्न तदेव च 30 अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं 24 तमाल नीलः सधनुस्तडिद्- 81 अहिंसा भूतानां जगति 76 तव जिन शासनविभवो 84 आयत्यां च तदात्वे च 63 तव रूपस्य सौन्दर्य 62 इति निरुपम-युक्त-शासनः 68 तव वागमृतं श्रीमत् 64 एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धि- 40 तृष्णार्चिष: परिदहन्नित 58 एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेधि तत्त्वं 26 ते तं स्वघातिनं दोषं ककुदं भुवः खचर-याषिद् 80 त्रिदशेन्द्रमौलिमणिरत्नकन्दपस्योद्धरो दर्पम् / 63 त्वमसि सुरसुर-महितो