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________________ समर्पण त्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन्! तुभ्यमेव समर्पितम् । हे आराध्य गुरुदेव स्वामी समन्तभद्र ! आपकी यह अनुपमकृति 'स्वयम्भू स्तोत्र' मुझे आजसे कोई ५० वर्ष पहले प्राप्त हुई थी । उस वक्त से बराबर यह मेरी पाठ्यवस्तु बनी हुई है और मैं इसके अध्ययन-मनन तथा मर्मको समझने के यत्न- द्वारा इसका विशेष परिचय प्राप्त करनेमें लगा रहा हूँ । मुझे वह परिचय कहाँ तक प्राप्त हो सका है और मैं कितने अंशोंमें इस ग्रन्थके गूढ तथा गम्भीर पद-वाक्योंकी गहराई में स्थित अर्थको मालूम करने में समर्थ हो सका हूँ, यह सब संक्षेपमें ग्रन्थके अनुवाद तथा परिचयात्मक प्रस्तावना से आना जा सकता है और उसे पूरे तौरपर तो आप ही जान सकते हैं। मैं तो इतना ही समझता हूँ कि आपका आराधन करते हुए आपके ग्रन्थोंसे, जिनका मैं बहुत ऋणी हूँ, मुझे जो दृष्टि-शक्ति प्राप्त हुई है और उस दृष्टि-शक्ति के द्वारा मैंने जो कुछ अर्थका अवलोकन किया है, ये दोनों कृतियां उसीका प्रतिफल हैं। इनमें आपके ही विचारोंका प्रतिबिम्ब होनेसे वास्तव में ये आपकी ही चीज़ हैं और इसलिये आपको ही सादर समर्पित हैं । आप लोक-हितकी मूर्ति हैं, आपके प्रसाद से इन कृतियों द्वारा यदि कुछ भी लोक-हितका साधन हो सका तो मैं अपने आपके भारी ऋणसे कुछ उऋण हुआ समझू गा । विनम्र जुगल किशोर
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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