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________________ प्रस्तावना ७१. शरीर-सम्बन्धको छोड़कर अन्य सब प्रकारसे मुक्त होता है और इसीसे उसे 'जीवन्मुक्त' या 'सदेहमुक्त' कहते हैं-'सकल परमात्मा' भी उसका नाम इसी शारीरिक दृष्टिको लेकर है। उसके उसी भावसे मोक्ष प्राप्त करना. विदेहमुक्त होना और निष्कल परमात्मा बनना असन्दिग्ध तथा अनिवार्य हो जाता है-उसकी इस सिद्ध पद-प्राप्तिको फिर कोई रोक नहीं सकता । ऐसी स्थितिमें यह स्पष्ट है कि घाति-कर्ममलको आत्मासे सदाके लिये पृथक कर देना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है और इस लिये । कर्मयोगमें सबसे अधिक महत्त्व इसीको प्राप्त है । इसके बाद जिस अन्तिम समाधि अथवा शुक्लध्यानके द्वारा अवशिष्ट अघातिया कर्मप्रकृतियोंका मूलतः विनाश किया जाता है और सकलकर्मसे विमुक्तिरूप मोक्षपदको प्राप्त किया जाता है उसके साथ ही कर्मयोगकी समाप्ति हो जाती है और इसलिए उक्त अन्तिम समाधि ही कर्मयोगका अन्त है, जिसका प्रारम्भ 'ममुक्षु' बननेके साथ साथ होता है । __ अब कर्मयोगके 'मध्य' पर विचार करना है, जिसके श्राश्रयविना कर्मयोगकी अन्तिम तथा अन्तसे पूर्वकी अवस्थाको कोई अवसर ही नहीं मिल सकता और न आत्माका उक्त विकास ही सध सकता है। ___मोक्ष-प्राप्तिकी सदिच्छाको लेकर जब कोई सच्चा मुमुक्षु बनता है तब उसमें बन्धके कारणोंके प्रति अरुचिका होना स्वाभाविक हो जाता है। मोक्षप्राप्तिकी इच्छा जितनी तीव्र होगी बन्ध तथा बन्ध-कारणोंके प्रति अरुचि भी उसकी उतनी ही बढ़ती जायगी और वह बन्धनोंको तोडने, कम करने, घटाने एवं बन्ध कारणोंको मिटानेके समुचित प्रयत्नमें लग जायगा, यह भी स्वाभाविक है। सब से बड़ा बत्धन और दूसर बन्धनोंका प्रधान कारण 'मोह'
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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