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श्रावक के बारह व्रत
अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य अपरिग्रह
व्रत
व्रत
व्रत
व्रत
त
दिशा
परिमाण व्रत
उपभोग परिभोग परिमाण व्रत
सामायिक देशावगाशिक पौषध
व्रत
व्रत
त
Jenter
प्रचारक
अनर्थदण्ड विरमण व्रत
अतिथि संविभाग व्रत
जयपु
प्रकाशक :
सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल (संरक्षक : अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ)
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श्रावक के बारह व्रत
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
संकलन: मंगला चोरडिया, जलगाँव
गा
সুকাকু सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल (संरक्षक : अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ)
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पुस्तक : श्रावक के बारह व्रत
प्रकाशक : सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल दुकान नं. 182 के ऊपर बापू बाजार, जयपुर-3 (राज.) फोन : 0141-2575997, 2571163 फैक्स : 0141-2570753 Email : sgpmandal@yahoo.in
अन्य प्राप्ति स्थल : ० श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ
घोड़ों का चौक, जोधपुर-342001 (राजस्थान) फोन : 0291-2624891
O
Shri Navratanmal ji Bhansali C/o. Mahesh Electricals, 14/5, B.V.K. Ayangar Road, BANGALURU-560053 (Karnataka) Ph. : 080-22265957 Mob. : 09844158943
संकलनः मंगला चोरडिया, जलगाँव
नवम् संस्करण : 2009 दसवाँ संस्करण : 2010 ग्यारहवाँ संस्करण : 2012 बारहवाँ संस्करण : 2015
Shri B. Budhmal ji Bohra 211, Akashganga Apartment, 19 Flowers Road, Kilpauk, CHENNAI-600010 (TND) Mob. : 09444235065
मुद्रित प्रतियाँ : 2100
0 श्रीमती विजयानन्दिनी जी मल्हारा
"रत्नसागर", कलेक्टर बंगला रोड़, चर्च के सामने, 491-ए, प्लॉट नं. 4, जलगाँव-425001 (महा.) फोन : 0257-2223223
मूल्य : 10.00/- (दस रुपये)
लेज़र टाइपसैटिंग सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल
। श्री दिनेश जी जैन
1296, कटरा धुलिया, चाँदनी चौक, दिल्ली-110006 फोन : 011-23919370 मो. 09953723403
मुद्रक : दी डॉमण्ड प्रिटिग प्रेस, जयपुर
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Kle
प्रकाशकीय
ठाणांग सूत्र के दूसरे ठाणे में दो प्रकार के धर्म का कथन है"दुविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा-सुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव" कथित चारित्र धर्म दो प्रकार का कहा है-"चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाअगारचरित्तधम्मे चेव, अणगारचरित्तधम्मे चेव।" जो साधक पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्त्यादि रूप चारित्र को तीन करण, तीन योग से जीवन पर्यन्त के लिए धारण करते हैं तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना में लीन रहते हैं वे अणगार कहलाते हैं। अणगार विषयवासना आदि से रहित होते हैं तथा शान्ति और आनन्द में निमग्न रहते
हैं।
अगारधर्मी अपनी कामनाओं व वृत्तियों को पूर्णतः रोकने में समर्थ नहीं होता लेकिन उन्हें सीमित अवश्यमेव करता है। अनियन्त्रित वृत्तियों को नियन्त्रित कर त्याग व मर्यादा में अवस्थित होना 'व्रत' कहलाता है। व्रतों से अव्रत की क्रिया रूक जाती है और अनेक पापों से जीव बच जाता है। यदि व्रत अंगीकार न करे तो सभी सांसारिक प्रवृत्तियों के पाप का भागी बनकर जीव दुर्गति प्राप्त करता है।
तीर्थंकर प्रभु ने प्राणी मात्र पर असीम कृपा करके दुर्गति से बचने का मार्ग प्रशस्त किया है। उपासकदशांग सूत्र में श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन है, जिनको धारण करके आनन्द, कामदेव आदि श्रेष्ठियों ने अपने जीवन को मर्यादित बनाकर एकाभवतारी बना लिया।
अवसर्पिणी काल के इस पाँचवें आरे में हमें आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और वीतराग भगवन्तों की वाणी सुनने व समझने का सुनहरा अवसर प्राप्त है, निश्चय ही हम भाग्यशाली हैं। यदि वीतराग वाणी को
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सुनकर हम पंचमहाव्रत धारी साधु बन सकें तो सर्वश्रेष्ठ है, अन्यथा कम 4 से कम बारह व्रतधारी श्रावक तो बनें ही। यह अनमोल जीवन, व्रत धारण किये बिना चला गया तो पुन: मिलना कठिन है।
प्रस्तुत पुस्तक 'श्रावक के बारह' में व्रत की प्रतिज्ञा, अतिचार, आगार, नियम तथा शिक्षाएँ, इस क्रम से प्रत्येक व्रत का स्वरूप समझाया गया है। वर्तमान में जो नियम आवश्यक प्रतीत होते हैं उन्हें भी व्रतों के स्वरूप में समाहित करने का प्रयास किया गया है। हम व्रतों की महत्ता को समझेंगे और उन्हें जीवन में धारण करेंगे। इसी भावना से पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।
पुस्तक की सामग्री एकत्रित करने के लिए सौ.कां. मंगला जी चोरडिया, जलगाँव (महाराष्ट्र) ने समय-समय पर गुरुभगवन्तों की सेवा में जाकर आवश्यक मार्गदर्शन प्राप्त किया, जिससे पुस्तक के कलेवर में विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है। हम उनके हृदय से आभारी हैं। पुस्तक के प्रूफ संशोधन में श्री सौभाग्यमल जी जैन, अलीगढ़-रामपुरा एवं श्री नवरतनजी भंसाली, बेंगलोर का सहयोग प्राप्त हुआ, एतदर्थ मण्डल परिवार आपका भी आभारी है।
आचार्यश्री हीराचन्द्रजी म.सा. की सदैव यह प्रेरणा रहती है कि हम अविरति से विरति की ओर कदम बढ़ायें। हम आचार्यप्रवर की प्रेरणा को साकार कर बारह व्रतधारी श्रावक बनकर अपने जीवन को कृतार्थ करेंगे। इसी मंगल मनीषा के साथ...
: निवेदक :
कैलाशमल दुग्गड़
अध्यक्ष
सम्पतराज चौधरी
कार्याध्यक्ष
विनयचन्द डागा
मंत्री
सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल
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सम्यक्त्व ग्रहण का पाठ सम्यक्त्व का स्वरूप
"अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो।" __ जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ।।"
अरिहंत भगवान ही मेरे देव हैं, सुसाधु मेरे गुरु हैं और जिनेश्वर प्रणीत तत्त्व ही मेरा धर्म है। यह सम्यक्त्व मैंने जीवन पर्यन्त के लिए ग्रहण किया है। आज से पहले अज्ञानता के कारण मैंने मिथ्या धर्म पाला, वह मेरा पाप निष्फल होवे। प्रतिज्ञा 1. मैं देवगत मिथ्यात्व का त्याग करने के उद्देश्य से वीतराग देव
(जिनेश्वर भगवन्त) के अतिरिक्त किसी भी सरागी देव को देवबुद्धि
से वन्दना नमस्कार नहीं करूँगा/करूँगी। 2. मैं गुरुगत मिथ्यात्व का त्याग कर रहा हूँ, इसलिए पंच महाव्रतधारी
निर्ग्रन्थ गुरु के अतिरिक्त किसी को भी गुरु बुद्धि से वंदन नमस्कार
नहीं करूँगा/करूँगी। 3. मैं केवली भाषित दयामय धर्म को ही धर्म मानूंगा/मानूंगी। 4. मैं अरिहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु, दयामय धर्म और 32 शास्त्र रूप
जिनवाणी पर दृढ़ आस्था रखूगा/रलूँगी। 5. तीर्थंकर भगवान की वाणी को दृढ़ श्रद्धा के साथ जीवन में उतारूँगा/
उतारूँगी। 6. हिंसा धर्म, अहिंसा धर्म, जड़ पूजा, गुण पूजा, शिथिलाचारी,
शुद्धाचारी, सरागी देव, वीतरागी देव आदि गलत सही सभी को
समान नहीं समझूगा/समझूगी। | 7. सप्त कुव्यसन-नशा, जुआ, चोरी, मांसाहार, शिकार, परस्त्री गमन,
वैश्या गमन का त्याग र गा/रलूँगी।
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18. प्रतिमा, फोटो आदि स्थापना निक्षेप की पूजा पाठ, धूप दीप नहीं
करूँगा/करूँगी। 9. यावज्जीवन कोई भी देवी-देवता व लौकिक त्यौहार, होली,
रंगपंचमी, दीपावली पूजन, मेला, शीतला आदि में प्रतिमा नहीं
पूनँगा/पूनँगी। 10. देवी-देवाताओं की अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए या अन्य कारणवश
सेवा भक्ति मान्यतादि नहीं करूँगा/करूँगी। 11. सुख शांति समाधि में नित्य नवकार मंत्र की माला या आनुपूर्वी
( ) गिगूंगा/गिनूँगी। 12. प्रतिदिन ( ) वंदना करूँगा/करूँगी। 13. अपने क्षेत्र में विराजमान साधु-साध्वियों के नियमित दर्शन करूँगा/
करूँगी। 14. मैं प्रतिदिन ( ) मिनट शास्त्र वचन सुनूँगा या धार्मिक पुस्तक
का वाचन करूँगा/करूँगी। 15. आत्मचिन्तन ( )मिनट करूँगा/करूँगी। अतिचार संका
वीतराग कथित गहन गंभीर वचन सुनकर, यह
सत्य है या असत्य इस प्रकार संदेह करना। कंखा- मिथ्या मार्ग का आडम्बर, चमत्कार देखकर
वीतराग कथित धर्म-मार्ग को छोड़कर दूसरे
मिथ्या-मार्ग की आकांक्षा करना। वितिगिच्छा- धर्म, तप, जप के फल में संदेह करना कि
इतना करता हूँ लेकिन मुझे इसका फल मिलेगा या नहीं।
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परपासंड पसंसा- मिथ्या दृष्टि की प्रभावना देखकर उसको।
प्रशंसा करना। परपासंड संथवो- मिथ्या दृष्टियों का संसर्ग-परिचय अधिक
रखना। आगार
लौकिक व्यवहार से, कुलाचार से, परम्परा से, राजाज्ञा के कारण से, जाति आदि के कारण से, बलशाली द्वारा विवश किए जाने पर मातापितादि पूज्य पुरुषों के आग्रह से, अटवी के कारण से, काल दुष्काल के कारण से, मिथ्यात्वी को मान सम्मान देना पड़े अथवा अन्य किसी दुःखी की अनुकम्पा से, धर्म दिपाने के कार्य में तथा संघ का कष्ट मिटाने में दान मान देना पड़े तो मुझे इसका आगार है। सम्यक्त्व का फल
सम्यक्त्व भाव में रहते हुए आत्मा नरक, तिर्यंच, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी देव की आयुष्य तथा स्त्रीवेद व नपुंसकवेद इन सात बोलों का बंध नहीं करता। बारह व्रतधारी श्रावक कम से कम पहले देवलोक और अधिक से अधिक बारह वें देवलोक तक जाता है। यदि श्रावकपने में आयुष्य का बंध हो तो यह आराधक अधिक से अधिक 15 भव में अवश्य मोक्ष जाता है।
आराधक के 22 दंडक पर ताला लग जाता है। मनुष्य गति व वैमानिक देव के अतिरिक्त वह कहीं भी नहीं जाता। भवसागर के किनारे लग जाता है।
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पहला स्थूल
प्राणातिपात विरमण व्रत अहिंसा अणुव्रत की प्रतिज्ञा पहला स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावर काय के आरंभ समारंभ की मर्यादा करता हूँ| करती हूँ तथा बेइन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जितने भी निरपराधी जीव हैं, उनको संकल्प पूर्वक मारने की भावना से मारने का जीवन पर्यन्त दो करण तीन योग से पच्चक्खाण करता हूँ/करती हूँ। नोट :- दो करण तीन योग से हिंसा के त्याग का खुलासा 1. मारूँ नहीं मन से, वचन से, काया से। 2. मरवाऊँ नहीं मन से, वचन से, काया से।
अहिंसा अणुव्रत के अतिचार (दोष) : (जानने योग्य हैं, किन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं) 1. बंधे- किसी जीव को गुस्से में आकर द्वेष बुद्धि से निर्दयता
पूर्वक गाढ़े बंधन से बाँधना। 2. वहे- ___ गुस्से में आकर निर्दयता पूर्वक प्राणी की मारपीट करना
या प्राण हरण करना। 3. छविच्छेए- प्राणी की चमड़ी आदि का छेदन करना या अन्य अंगों
का भेदन करना। 4. अइभारे- अपने आश्रित प्राणी-नौकर, चाकर अथवा घर के किसी
सदस्य पर द्वेष बुद्धि से अधिक भार लादना। 5. भत्तपाण विच्छेए-द्वेष बुद्धि से अपने आश्रित प्राणियों के अन्न, पानी
में अन्तराय (विघ्न) डालना। किसी की आजीविका में बाधा पहुँचाना।
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विशेष नियम :
1. चूहे, खटमल मक्खी, मच्छर आदि मारने की दवा नहीं छिड़कूँगा/
छिड़कूँगी।
2. किसी हिंसाजनक कार्यों का अभ्यास नहीं करूँगा /करूँगी।
3.
मैं मद्य, मांस का सेवन नहीं करूँगा/करूँगी।
4.
औषधि को छोड़कर अफीम, गाँजा, भांग, चरस आदि नहीं पीऊँगा /
पीऊँगी।
अण्डा, मांस जहाँ पकता हो, ऐसी होटलों में, जीमणवार में भोजन नहीं करूँगा/करूँगी।
खेती बाड़ी में जीवों को मारने वाली दवाएं नहीं बनाऊँगा / बनाऊँगी, नहीं बेचूँगा / बेचूँगी तथा ऐसी कंपनियों के शेयर्स भी नहीं खरीदूँगा / खरीदूँगी।
सड़ा गला धान्य (अनाज) जिसमें जीवाणु उत्पन्न हो गए हों, ऐसा अनाज नहीं बेचूँगा और ऐसे आटे या मैदे को काम में नहीं लूँगा / लूँगी जिसमें इल्लियाँ या लटें उत्पन्न हो गई हो, उस आटे और मैदे को छानकर काम में लूँगा / लूँगी।
अनाज पीसने की चक्की का धन्धा नहीं करूँगा / करूँगी।
अनाज को बिना देखे न पीयूँगा / पीयूँगी और न पिसवाऊँगा / पिसवाऊँगी।
10. गोबर नहीं सड़ाऊँगा /सड़ाऊँगी।
11. शहद, मक्खन महाविकृत हैं, अतः बिना कारण प्रयोग नहीं करूँगा/
करूँगी।
12. मधुमक्खी का छत्ता नहीं तोडूंगा/तोडूंगी।
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13. चमड़े का व चमड़े से बनी हुई वस्तुओं का व्यापार नहीं करूँगा/
करूँगी। 14. चमड़े या कुर्म के चमड़े से बने बूट, चप्पल, सेण्डल, पर्स, बैग
आदि नहीं वापरूँगा/वापरूँगी। 15. लिपस्टिक, परफ्यूम, नेलपॉलिस, स्नो क्रीम, पाउडर, मेंहदी आदि
सौन्दर्य प्रसाधनों की संख्या ( ) के उपरान्त त्याग। 16. आत्महत्या व भ्रूणहत्या न करूँगा/करूँगी और न ही करवाऊँगा/
करवाऊँगी। 17. घर, दुकान आदि के हिस्से में भाई के साथ कोर्ट-कचहरी में नही
जाऊँगा/जाऊँगी। 18. मैं पत्नी/पति पर हाथ नहीं उठाऊँगा/उठाऊँगी और असभ्य
वचन नहीं बोलूंगा/बोलूँगी। 19. मैं बहू के साथ बेटी जैसा व्यवहार करूँगा/करूँगी। 20. मैं नौकर-चाकर आदि के साथ अपने कुटुम्बी जन-जैसा व्यवहार
करूँगी/करूँगी। 21. मैं त्रस जीवों की हिंसा हो, ऐसी सलाह नहीं दूंगा/दूंगी। 22. बिना छना पानी काम में नहीं लूंगा/लूँगी और नहीं पीऊँगा/
पीऊँगी। 23. रात्रि भोजन नहीं करूँगा/करूँगी। 24. कपड़े धोते और धुलवाते समय देखकर दूंगा/दूंगी। 25. पड़ोसियों के साथ सद्भावपूर्ण व्यवहार करूँगा/करूँगी। 26. संघ में फूट नही डलाऊँगा/डलाऊँगी। 27. मैं अपने व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूँगा/रहूँगी। 28. कसाई, कोली, शिकारी के काम नहीं करूँगा/करूँगी। ! 29. सूक्ष्म जीव-हिंसा का विवेकपूर्वक त्याग।
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30. कुत्ते, पशु, बालक आदि पर निर्दयता से मारपीट नहीं करूँगा/
करूँगी। 31. पक्षी आदि को पिंजरे में नहीं डालूँगा/डालूँगी। 32. गरम पेय पदार्थ को फूंक देकर नहीं पीऊँगा/पीऊँगी। 1. मैं बेइन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त निरपराधी त्रसजीवों की जान बूझकर
यावज्जीवन हिंसा नहीं करूँगा। पाँच स्थावर काय की मर्यादा :- (इसमें जीवन पर्यन्त की प्रतिदिन की मर्यादा निर्धारित कर ली जाती है, जिसे चौदह नियम में और संक्षिप्त कर सकते हैं।)
1. पृथ्वीकाय:- जीवन पर्यन्त नये मकान बनाना पड़े संख्या ( ) पुराने मकान की मरम्मत ( ) कुआँ बावड़ी ( ) बाग-बगीचा ( ) तालाब, बोरिंग नल ( ) सुरंग, तहखाना, भौंरा ( ) कोयला, पत्थर, धातु आदि की खान ( ) सड़क, नहर, पुल, ( ) प्रतिवर्ष पापड़खार ( ) नमक ( ) हींग ( ) हरताल ( ) सोनागेरु ( ) फिटकरी ( ) सेंधा नमक ( ) ओखली-मूसल, खरल ( ) खेती बाड़ी के संबंध में भूमि जोतनी या जुतानी पड़े, जमीन खोदनी या खुदवानी पड़े इत्यादि। ___ ( इसमें प्रतिवर्ष अथवा जीवनपर्यन्त के लिए पच्चक्खाण । गज, मीटर बीघा, एकड़, फल्ग, मील, नग, किलोग्राम आदि प्रचलित तोल के माप के अनुसार परिमाण कर सकते हैं)
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2. अप्काय :- (पानी) हमेशा प्रतिदिन पीने के लिए पानी लीटर ( ) स्नान व गृह कार्य के लिए लीटर ( ) विवाह शादी या किसी जीमण वार का काम पड़े तो ( ) खेती-बाड़ी, मकान निर्माण या उसकी मरम्मत करवाने के लिए पानी ( ) घर में पानी के टेंक ( ) बाथ टब ( ) जलाशय ( ) ओले खाने का त्याग ( ) बरसात के पानी में नहाने के त्याग ( ) समुद्र, नदी, तालाब, बावड़ी आदि में नहाने का त्याग ( )(ये मर्यादाएँ घड़े, गाड़ी, टेंक, गेलन लीटर आदि प्रमाण के अनुसार करें)
___ आगार :-1. आग लगने पर, कुएँ में वस्तु पड़ जाने पर, जान माल की रक्षा के निमित्त अधिक जल का प्रयोग हो तो मेरे आगार हैं। 2. स्नान-सूतक निमित्त अधिक जल का प्रयोग हो तो मेरे आगार हैं। 3. बरसात में चलते समय, नदी नाला पार करते समय, पशुओं को पानी पिलाते समय, घर में भरे पानी को उलीचते समय अधिक जल काम में लेना पड़े हों तो मेरे आगार हैं।
3. तेऊकाय- (अग्नि) मेरे और मेरे परिवार के उपयोग में आने वाली अग्नि, इलेक्ट्रिक व सेल से संचालित होने वाले गैस, स्टोव, सिगड़ी ( ) टी.वी., रेडियो ( ) टेपरिकार्ड, पंखा, फ्रिज, मिक्सर, एयरकूलर, माईक, टेलिफोन, मोबाइल, दीपक, लालटेन, इस्त्री, हीटर, भट्टी, गैसबत्ती, अगरबत्ती, प्रकाश के ट्यूब, बल्ब आदि बिजली से चलित यंत्र संख्या ( ) के उपरान्त नहीं वापरूँगा। नित्य की रसोई भोजन बनाने के निमित्त सिगड़ी, चूल्हा ( ) दीपावली तथा अन्य उत्सवों पर दीपक नग ( ) किसी कारणवश धूनी या धूप करना पड़े तो दियासलाई नग ( ) मोमबत्ती ( ) इत्यादि की मर्यादा।
होली, रावण, कचरा व खेत में आग जलाने व जलवाने का त्याग ( ) द्वेषवश कहीं भी आग नहीं जलाना ( ) पटाखे चलाने का त्याग (
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आगार- निम्न कारणों से-आग इधर-उधर रखने पर, लगी आग बुझाने पर, बन्दूक कारणवश चलाने पर, डाम आदि देने पर, संघ, जाति एवं अन्य प्रसंग पर अग्नि का आरंभ करना पड़े तो मेरे आगार हैं।
4. वायुकाय-(हवा) प्रतिदिन छोटे बड़े पंखे ( ) ए.सी. ( ) पालखी, पालना, झूला, लिफ्ट, हारमोनियम, पियानो, फोनोग्राम, सारंगी, तबला, वाजिंत्र, ऊखल, मूसल, सूप, इमामदस्ता, झाड़ आदि की संख्या ( ) के उपरान्त त्याग। डोलर झूला, चक्कर झूला, बिजली का झूला आदि नग ( ) रेडिओ, टेलिफोन आदि नग ( ) चरखा, रस निकालने का साँचा ( )
5. वनस्पतिकाय- जमीकंद का संपूर्ण त्याग, अथवा संख्या ( ) हरी सब्जी संख्या ( ) के उपरान्त त्याग । फल संख्या ( ), फूल संख्या ( ) हरी घास का भारा या गाड़ी नग ( ) खेत कटाई और नींदवाई निमित्त बीघा ( ) शाक सुखाने के निमित्त मण ( ) प्रतिवर्ष । बगीचा, वनस्पति काटने, कटवाने का त्याग। अचार के निमित्त किलो प्रतिवर्ष ( ) पीसना-पीसाना, दलनदलाना, भिगोना-भिगवाना पड़े तो वजन ( ) के उपरान्त त्याग।
आगार-अन्य स्थावरों के कारण हिलते चलते, मेहनत करते, वस्तु उठाते, दुष्काल में शरीर निर्वाह आदि कारणों से अनिवार्य वनस्पति आरंभ करना पड़े तो उसका मेरे आगार हैं।
पाँच स्थावर संबंधी आगार
1. इन पाँच स्थावरों की जो मर्यादा की है उसमें व्यापार, कारखाना, कॉन्ट्रेक्ट, नौकरी, अधिकारी की आज्ञा, कामकाज निमित्त, अनुकम्पा आदि के कारणों से पाँच स्थावरों की हिंसा होती हो तो आगार है।
2. जाति, पंचायत, संस्था की व्यवस्था, क्षेत्र के ट्रस्टी बनना कंपनी में साझेदारी, शेयर की खरीदी, आदि कारणों से स्थावर जीवों की हिंसा होती हो तो मेरे आगार हैं।
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3. विवाह, उत्सव, प्रीतिभोज, संघजीमण आदि के कारण स्थावर जीवों की हिंसा होती हो तो मेरे आगार हैं।
4. भूल चूक, वृद्धावस्था या परवशता के कारण व्रत न पल सके तो मेरे आगार हैं।
असिकर्म-सुई चाकू, कैंची, छुरी, ब्लेड, घंटी, बन्दूक, पिस्तौल, तलवार, कटारी, कुदाल, लकड़ी, खीला, खुरपा, ऊखल-मूसल, घट्टी इत्यादि अनेक प्रकार के शस्त्र हैं, उनकी गिनती से मर्यादा करें।
मसिकर्म-कलम, कागज, दवात, पेन्सिल, स्याही आदि पेन, डायरी, नोटबुक, पत्र-पत्रिका, फाईल, प्रिण्टिंग प्रेस, टाईपराईटर आदि की संख्या ( )
कृषिकर्म- हल, फावड़ा, कुदाली, खेती करने, जमीन खोदने, बाग-बगीचा बनाने आदि का त्याग या मर्यादा करें। ( ) अहिंसा अणुव्रत के आगार (छूट) 1. अपने शरीर संबंधी, सगे (मनुष्य तिर्यंच) संबंधी, अनुकंपा निमित्त
चोर शत्रु वगैरह से अपना रक्षण करते प्रमाद अथवा बिना उपयोग के
जीवों को आघात पहुंचे तो उनका मेरे आगार हैं। 2. जीवोत्पत्ति न हो या अधिक न बढ़े इस दृष्टिकोण से सफाई करने में
या दवा इत्यादि छिड़कने का आगार। 3. स्वयं के अधीनस्थ खेती और व्यापार से हिंसा का भाव न होते हुए
भी छः काय जीवों की विराधना हो जाय तो आगार। 4. अपने निजी स्वार्थ के लिए मकान-दुकान आदि निर्माण करने में, रसोई आदि के लिए अग्नि का आरम्भ करते, मार्ग में चलते, गाड़ी आदि चलाते समारंभ करने में, नहीं चाहते हुए भी स्थावर जीवों के आश्रय से यदि त्रस जीवों की विराधना हो जाय तो उनका मेरे आगार हैं।
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15. हितबुद्धि से डराने, धमकाने तथा ताड़ना देने का आगार। 6. यदि कोई पशु या मनुष्य बिगाड़ करता है तो बाँधने, भगाने का
आगार। 7. लौकिक व्यवहार में नाक-कान के छेद करने-कराने का आगार। 8. विषयादि सेवन करने से अथवा मोरी, पाखाना आदि में लघु शंका
(मल मूत्र) आदि करने से सम्मूर्छिम जीवों की विराधना होती है, किन्तु इनका मेरे आगार हैं। अहिंसा व्रत की शिक्षाएँ 1. परिवार तथा व्यापार के निमित्त इतने धान्य का संचय नहीं करना
चाहिए, जिसमें जीवों की उत्पत्ति हो, क्योंकि उससे रोग उत्पन्न
होते हैं और त्रस जीवों की हिंसा भी होती है। 2. ईंधन (लकड़ी गैस के चूल्हे, सिगड़ी आदि) बिना देखे नहीं जलाना
चाहिए। 3. घी, तेल, दूध, दही, जल, जूठन आदि के बर्तनों को उघाड़ा नहीं ___रखना चाहिए। 4. रात्रि में भोजन बनाना व खाना दोष का कारण है, अतः जितना बन
सके उतना त्याग रखना चाहिए। 5. खटमल, मक्खी, मच्छर, नँ, लीख,चूहे आदि उत्पन्न नहीं होने ____ पाए, ऐसा पहले से विवेक रखे। 6. जूठन आम रास्ते, मोरी या गट्टर में न डालकर उसको एक साथ
इकट्ठा करके पशुओं को खिला देना चाहिए। 7. खाने-पीने की वस्तुएँ रसचलित हो गयी हों, गन्ध, वर्ण बदल गया
हो, वस्तु में लार पड़ गयी हो, लाल सफेद अथवा नीलन-फूलन ।
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आ गई हो इत्यादि विकृत चीजों को खाने पीने के काम में नहीं लाना
चाहिए, क्योंकि वे सभी अभक्ष्य हैं। 8. मृतक की राख और हड्डियाँ (फूल) नदी, तालाब आदि में नहीं
डालना चाहिए, क्योंकि राख और हड्डी के खार से पानी के त्रस
जीव भी मर जाते हैं। 9. वृद्ध पशुओं को आवारा नहीं फिरने देना चाहिए। पशुओं को कसाई
के हाथों नहीं बेचना चाहिए एवं जानवरों के अंग-उपांग बिना कारण
निर्दयी बुद्धि से छेदन नहीं करना चाहिए। 10. प्राणी वध से निर्मित वस्तुओं का फैशन एवं विलास में उपयोग नहीं
करना चाहिए। जैसे पंखोंवाली पोशाकें, हाथी दाँत की वस्तुओं का
और सभी प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनों आदि का, क्योंकि इनसे हिंसा में उत्तेजना मिलती है। 11. बिरादरी आदि में अथवा अन्य किसी भी जीमनवार में जूठा नहीं
डालना चाहिए। 12. अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पक्खी पर्व आदि के दिनों में हरी
सब्जी या फल (फूट) आदि खाने का त्याग रखना चाहिए। पर्युषण के आठ दिनों में सभी प्रकार की लीलोतरी (हरी) खाने का त्याग
करना चाहिए। 13. मृत शरीर में एक घड़ी (24 मिनिट) पश्चात् असंख्य सम्मूर्छिम
जीव उत्पन्न हो सकते हैं, अतः मृत शरीर को अधिक समय तक
नहीं रखना चाहिए। 14. वैर-विरोध व विराधना से बचते रहना चाहिए।
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दूसरा स्थूल
मृषावाद
विरमण व्रत
सत्य अणुव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से- मैं क्रोध, लोभ, हास्य और भय वश ऐसा असत्य वचन नहीं बोलूँगा, जिससे लोक में निंदा हो, पंचों में अप्रतीति हो, कुलजाति-देश और धर्म में अशांति फैले, कलंकित होना पड़े, ऐसा मोटा झूठ नहीं बोलूँगा/बोलूँगी। क्षेत्र से मर्यादित क्षेत्र में स्थूल असत्य बोलने का तथा उसके बाहर सर्वथा असत्य का त्याग करता हूँ/करती हूँ। काल से- जीवन पर्यन्त उक्त प्रकार से असत्य बोलने का त्याग करता हूँ/ करती हूँ। भाव से - शुद्ध स्वरूप में स्थिर बनने के लिए विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं करूँगा/करूँगी। दो करण तीन योग से।
सत्य अणुव्रत के अतिचार (दोष)
1. सहस्सब्भक्खाणे- बिना विचारे किसी को आघात पहुँचे ऐसा वचन
बोलना ।
2. रहस्सब्भक्खाणे- किसी की गुप्त बात प्रकट करना।
3. सदार मंत भेए-स्त्री / पुरुष का मर्म प्रकाशित करना। 4. मोसोवएसे - जानबूझकर झूठा उपदेश, खोटी सलाह देना । 5. कूडलेहकरणे- झूठा लेख, दस्तावेज, खतपत्रादि लिखना । मृषावाद विरमण व्रत का विषय
1. कन्नालीए - वर वधु के संबंध में अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा यानी उनके गुण अवगुण, उम्र इत्यादि के संबंध में झूठ नहीं बोलना और न ही बुलवाना।
2. गोवालीए - गाय, बैल आदि पशुओं के गुणदोष आदि के संबंध में झूठ नहीं बोलना और न बुलवाना ।
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13. भोमालीए-जमीन, खेत, मकान, दुकान आदि के संबंध में असत्य
भाषण नहीं करना। 4. णासावहारो-किसी की धरोहर को नहीं दबाना ओर मायाजाल नही
फैलाना। 5. कूडसक्खिज्जे-खोटी साक्षी तथा कोर्ट में झूठी गवाही नहीं देना। विशेष नियम 1. कठोर शब्दों से किसी का अपमान या तिरस्कार नहीं करूँगा/
करूँगी। 2. जाति, समाज व देश में फूट पड़े अथवा कषाय बढ़े, ऐसा कार्य नहीं
करूँगा/करूँगी। 3. किसी की धरोहर (अमानत) मेरे पास रखी हुई हो तो उसे नहीं
दबाऊँगा/दबाऊँगी। 4. पुष्ट प्रमाणों के बिना, मात्र अनुमान से किसी पर कलंक और झूठा
आरोप नहीं लगाऊँगा/लगाऊँगी। 5. किसी को खोटी सलाह नहीं दूंगा/दूंगी। 6. किसी भी व्यक्ति की लज्जास्पद गुप्त बात रहस्य, जिससे किसी का ___मर्म प्रकाशित हो, ऐसी बात प्रगट नहीं करूँगा/करूँगी। 7. किसी के साथ धोखा हो, ऐसा झूठा दस्तावेज नहीं लिखूगा/
लिलूँगी। 8. बनावटी (जाली) नोट, सिक्का नहीं बनवाऊँगा/बनवाऊँगी। 9. व्यापार में वस्तु का मूल्य अपनी इच्छानुसार मागूंगा/मागूंगी, मगर
कोई खरीदी भाव पूछेगा सो सत्य कहूँगा/कहूँगी। 10. किसी भी व्यक्ति के ऊपर गलत मुकदमा नहीं करूँगा/करूँगी। 11. किसी की उन्नति में बाधक नहीं बनूंगा/बनूँगी।
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12. अश्लील शब्द नहीं बोलूँगा / बोलूँगी ।
13. किसी से ईर्ष्या नहीं करूँगा/करूँगी।
14. किसी को जाति से ऊँच-नीच समझकर छुआछूत नहीं रखूँगा /
रखूँगी।
15.‘“यदि बोलना चाँदी है तो मौन रहना सोना है' अतः दिन में ( ) घंटा मौन रखूँगा / रखूँगी।
16. मैं अश्लील गायन नहीं गाऊँगा /गाऊँगी।
17. प्रमाणित होने पर भी सामने वाले को नीचा दिखाने की दृष्टि से निंदा नहीं करूँगा/करूँगी।
18. वीतरागी अरिहंत देव, निर्ग्रन्थ सच्चे साधु-साध्वी दयामय धर्म और बत्तीस शास्त्रों की अश्रद्धा निन्दा नहीं करूँगा/करूँगी। छः काय के जीवों की हिंसा और आडम्बर रूप धर्म के विकारों की प्रशंसा नहीं करूँगा/करूंगी। धर्म कार्य में हिंसा को प्रोत्साहन नहीं दूँगा/दूँगी। सामायिक में पंखा, लाइट, माइक, बाथरूम आदि के निमित्त आडंबर में कोई दोष नहीं, ऐसा बोलने से बड़ा झूठ लगता है व तीर्थंकर की आज्ञा भंग होती है। अतः ऐसा नहीं बोलूँगा / बोलूँगी । 19. किसी की मौत का कारण बने, दुनिया, देश, गाँव, समाज में झगड़ा होवे ऐसा कार्य नहीं करूँगा / करूँगी।
20. नारद लीलावत, नुकसानकारी, द्वेषवश (सरकार व व्यापार के सिवाय) बड़ा झूठ बोलने का त्याग ( ) बड़े रूप से कलंक, विश्वासघात झूठी सलाह, झूठी साक्षी का त्याग। 21.सन्त-सती के सामने झूठ का त्याग। 22.ज्यादा हँसी मजाक से बचूँगा / बचूँगी।
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23. झूठे दस्तखत नहीं करूँगा / करूँगी, झूठे पट्टे, दस्तावेज, लाइसेंस, झूठे पेंपलेट, अफवाहें आदि नहीं फैलाऊँगा / फैलाऊँगी।
24. छः काय जीवों की हिंसा और आडम्बर रूप धर्म के विकारों की प्रशंसा नही करूँगा/करूँगी ।
सत्य अणुव्रत के आगार (छूट)
1. भूल-चूक व किसी जीव की प्राण रक्षा के लिए, अथवा किसी अधर्मी, क्रूर मनुष्य को शिक्षा देने के लिए, छोटे बच्चों को समझाने के लिए एवं हँसी मजाक में झूठ बोला जाय तो आगार ।
2. घर संबंधी कार्य में यदि कोई अति आवश्यक बात छिपानी पड़े, उस समय उपयोग शून्य भाषा बोलनी पड़े तो आगार।
3. हास्य, भय, क्रोध आदि परिणामों से अचानक बिना विचारे बोला जाय तथा बेहोशी में असत्य बोला जाय तो आगार ।
4. अपनी-ज
-जान-माल बचाने या आजीविका आदि विशेष कारण से या जीव रक्षार्थ असत्य बोलने में आ जाय तो छूट।
5. सरकारी कायदा नहीं पलने से कोई झूठ बोलना पड़े उसका आगार। सत्य अणुव्रत की शिक्षाएँ
1. सूत्र सिद्धान्त के विपरीत नहीं बोलना चाहिए। अपनी बेकार बड़ाई नहीं करना चाहिए। निरर्थक बोलने से लोगों का विश्वास नहीं रहता है।
2. किसी को नुकसान पहुँचे, फजीहत हो, विरोध बढ़े ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए।
3. भले बुरे का विचार किये बिना दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मृदुभाषी नहीं बनना चाहिए।
4. किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए।
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5. धर्म स्थान में या धर्म क्रिया करते समय विकथा नहीं करनी चाहिए। 6. धार्मिक कार्यों में छल कपट सहित नहीं बोलना चाहिए। 7. जहाँ तक हो सके हित, मित, सत्य और प्रिय वचन बोलने का
अभ्यास करना चाहिए। 8. जिस बात का पक्का प्रमाण न हो ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिए। निम्नोक्त मुख्य 14 कारणों से झूठ बोला जाता है
1. क्रोध 2. मान 3. माया 4. लोभ 5. राग 6. द्वेष 7. हास्य 8. भय 9. लज्जा 10. क्रीड़ा 11. हर्ष 12. शोक 13. चतुराई और 14. बहुत बोलना। अतः बोलते समय विवेक रखना चाहिए। एक झूठ से सब सद्गुण ढ़क जाते हैं। इस भव में झूठे को लोग गप्पी, लबाड़, लुच्चा, ठग धूर्त आदि नामों से पुकारते हैं। पर भव में गूंगा, बावला, कटुभाषी, तोतला, दुर्गन्धित मुखवाला होता है। ऐसा
समझकर झूठ का त्याग करना चाहिए। तीसरा स्थूल
अदत्तादान विरमण व्रत अचौर्य अणुव्रत की प्रतिज्ञा ___ द्रव्य से-मैं ऐसी चोरी नहीं करूंगा/करूँगी और न करवाऊँगा/ करवाऊँगी जिससे राजदण्ड मिले या पंचों में अपमान हो। क्षेत्र सेमर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तुओं को नहीं अपनाऊँगा/अपनाऊँगी। काल से-जीवन पर्यन्त इस प्रकार की चोरी का त्याग करता हूँ/करती हूँ। भाव से-मैं मन वचन काया से उक्त प्रकार की चोरी न करूँगा/ करूँगी और न करवाऊँगा/करवाऊँगी।
अदत्तादान विरमणव्रत के अतिचार (दोष) 21. तेनाहडे-चोर की चुराई वस्तु को लोभवश अल्प मूल्य से खरीदना।
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2. तक्करप्पओगे - चोर को चोरी करने में सहायता देना ।
3. विरुद्धरज्जाइक्कमे - राज्य विरूद्ध बड़ा कार्य व अपराध करना। 4. कूडतुल्लकूडमाणे- तोलने के बाट और मापने के गज मीटर वगेरह हीनाधिक रखना।
5. तप्पडिरुवगववहारे- बहुमूल्य बढ़िया वस्तु में अल्प मूल्य वाली घटिया वस्तु मिलाकर बेचना अथवा असली वस्तु दिखकर नकली वस्तु देना या नकली को ही असली के नाम से बेचना। विशेष नियम
1. जानबूझकर चोरी का माल नहीं खरीदूँगा / खरीदूँगी ।
2. चोर को चोरी करने में मदद नहीं दूँगा / दूँगी ।
3. राज्य विरुद्ध कार्य (करचोरी, कानून तोड़ना) नहीं करूँगा /करुँगी।
4. अच्छी, वस्तु दिखाकर खराब वस्तु नहीं बेचूँगा / बेचूँगी ।
5. नकली वस्तु को असली बताकर नहीं बेचूँगा / बेचूँगी ।
6. मैं डण्डी मारकर कम नहीं तोलूँगा / तोलूँगी और गज आदि को खिसकाकर कम नहीं नापूँगा / नापूँगी । व्यापार में छलपूर्वक क्रियाएँ नहीं करूँगा/करुँगी।
7. मैं रेल का टिकट और माल का किराया नहीं छिपाऊँगा/छिपाऊँगी। 8. अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिलाकर नहीं बेचूँगा/
बेचूँगी ।
9. धर्मस्थानक में किसी भी वस्तु की चोरी नहीं करूँगा /करूँगी। 10. हिसाब करते वक्त भूल से अगर ज्यादा आ जाए तो रकम या वस्तु वापस करूँगा/करूँगी ।
11. तस्करी, स्मगलिंग का त्याग ।
12. धर्मस्थानक में रही हुई वस्तु (पुस्तक, आसन, मुहपत्ती आदि) का
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दुरुपयोग नहीं करूँगा/करूँगी। राज्य विरुद्ध वस्तुओं का तथा बिना
लाइसेंस व्यापार नहीं करूँगा/करूँगी। अदत्तादान विरमणव्रत के आगार (छूट) 1. किसी संबंधी या मित्र या अपने पर विश्वास रखने वाले का घर,
उसके पीछे खोलकर कोई चीज लेनी पड़े तो आगार है, किन्तु
उसकी सूचना उसे तत्काल दूंगा। 2. अल्प मूल्य वाली ऐसी वस्तुएँ जिनका लेना व्यवहार में चोरी नहीं
समझा जाता, लेनी पड़े तो आगार। 3. मार्ग में गिरी हुई वस्तु, भूली भटकी वस्तु जिसके मालिक का पता
लगाना संभव न हो तो ऐसी वस्तु रखने का आगार। 4. भूमि में गड़ा हुआ धन यदि हाथ में लगे और उसका मालिक नहीं
मिले तो उसका कुछ भाग धर्मार्थ में लगाकर शेष रखने का आगार। 5. आयकर, बिक्रीकर, संपदाकर, उपहार कर आदि की पूर्ण पालना ____ अपरिहार्य स्थितियों में नहीं कर पाऊँ तो उसका आगार। अचौर्य अणुव्रत की शिक्षाएँ 1. चोरी दो तरह की होती है। एक तो चोर की भाँति मालिक की
अनुपस्थिति में रात्रि आदि के समय सेंध लगाकर या ताला तोड़कर चोरी की जाती है दूसरी साहूकारी ढंग से चोरी। जो दिन दहाड़े लूटता है। भोले लोगों की आँखों में धूल झोंकता है। रिश्वत लेना, सरहद दबाना भी चोरी है। श्रावक को दोनों प्रकार की चोरी से
बचना चाहिए। 2. धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिए सदा अचौर्य और प्रामाणिकता का
व्यवहार करना चाहिए। 3. हे आत्मन्! दुश्मन के दूत के समान अन्याय और अनीति से प्राप्त ।
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धन तिजोरी में जाते ही तेरे सर्वस्व को लूटने लग जाता है। कहा भी है
अनीति से धन होत है, वर्ष पाँच और सात । तुलसी द्वादश वर्ष में, जड़ामूल से जात ॥
अर्थात् अन्याय और अनीति से उपार्जित धन बारह वर्ष तक ही टिकता है तेरहवें वर्ष में प्रवेश करते ही समूल नष्ट हो जाता है। अतः श्रावक को अन्याय से धनोपार्जन कभी नहीं करना चाहिए ।
चौथा स्थूल
मैथुन विरमण व्रत
ब्रह्मचर्य अणुव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से-पंचेन्द्रिय जन्य काम भोग से निवृत्त होकर आत्मस्वरूप में रमण करना मेरा लक्ष्य है। उसकी पूर्ति के लिए स्वयं की विवाहित स्त्री/पति का आगार रखकर शेष सभी स्त्रियों / पुरुषों को माता/पिता, बहन/भाई के समान समझँगा / समझँगी । क्षेत्र से मेरे मर्यादित क्षेत्र में, जहाँ भी मैं निवास करूँ । काल से- जीवन पर्यन्त मैथुन सेवन का उक्त प्रकार से त्याग करता/करती हूँ । भाव से मनुष्य तिर्यंच संबंधी एक करण एक योग से एवं देव - देवी संबंधी दो करण तीन योग से काम भोग का त्याग करता/करती हूँ ।
मैथुन विरमणव्रत के अतिचार (दोष)
1. इत्तरियपरिग्गहियागमणे-अल्पवय वाली पाणिगृहिता स्वस्त्री/स्वपति के साथ गमन नही करूँगा/करूँगी।
2. अपरिग्गहियागमणे - जिसके साथ अभी तक विवाह नहीं हुआ है, केवल सगाई हुई है। ऐसी स्त्री अथवा पति के साथ गमन नहीं करूँगा /करूँगी।
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3. अनंग कीड़ा-अनंग काम क्रीड़ा नहीं करूँगा/करूँगी। 4. कामभोगातिव्वाभिलासे-काम भोग की तीव्र अभिलाषा न रखूगा/
रलूँगी एवं कामोत्पादक गरिष्ठ पदार्थों का सेवन भी नहीं करूँगा/
करूँगी। मैथुन विरमण व्रत के आगार (छूट)
व्रत पच्चक्खाण के दिन तिथि एवं तारीख का पता नहीं लगने पर
अगर भूल हो जाय तो दूसरे दिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना। विशेष नियम 1. भारत वर्ष के सिवाय अन्य किसी भी देश की स्त्री के साथ विवाह
नहीं करूँगा तथा भारत वर्ष में भी समान कुल समान जाति की
कन्या से ही विवाह करूँगा। 2. परस्त्री, वेश्यागमन नहीं करूँगा। 3. कामेच्छा की वृद्धि करने हेतु पुष्टि कारक औषध का सेवन नहीं ____ करूँगा/करूँगी। 4. किसी अन्य स्त्री/पुरुष के साथ एकान्त में नहीं रहूँगा/रहूँगी। 5. मैं इतने ( ) वर्ष की अवस्था के पहले विवाह नहीं करूँगा/
करूँगी। 6. मैं इतने ( ) वर्ष के ऊपर अपनी स्त्री/पति का वियोग होने ___पर एक या...' से अधिक विवाह नहीं करूँगा/करूँगी। 7. मैं वेश्या का नृत्य न कराऊँगा/कराऊँगी और न देलूंगा/देलूंगी। 8. मैं दिन में मैथुन सेवन नहीं करूँगा/करूँगी। सृष्टि विरुद्ध कार्य नहीं
करूँगा/करूँगी। 9. मैं अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या.."तिथि में ब्रह्मचर्य पालूँगा/
पालूँगी।
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10.मैं पत्नी/पति के रहते दूसरी शादी नहीं करूँगा /करूँगी।
11.मैं गंदे साहित्य का वाचन नहीं करूँगा / करूँगी ।
13. प्राकृतिक अंगों के सिवा सब अनंग हैं, उनसे काम क्रीड़ा नहीं
करूँगा/करूँगी।
14. देव, तिर्यंच, वेश्या, परस्त्री, विधवा, कुँवारी का पूर्ण त्याग (विकारी दृष्टि छोड़ पवित्र भाव रखे। माँ, बहन, बेटी, सती, साध्वी समझे) 15. अनंग क्रीड़ा का त्याग।
16. इतनी उम्र ( ) तक व इतने उम्र ( ) के बाद शील पालूँगा । 17. बाल व वृद्ध विवाह नहीं कराऊँगा ।
उपदेश-भगवान महावीर ने 'तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं' कहा है। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना सर्वश्रेष्ठ है।
मर्यादा में पुत्र सुन्दर, सशक्त, तेजस्वी, सद्गुणी, ओजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, शरीर स्वस्थ, कंचनवर्ण, दृढ़ मन, छाती, हृदय, देवों का वंदनीय बने ।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत की शिक्षाएँ
1. ब्रह्मचर्य व्रत, वीर्यरक्षा, शरीरबल, मनोबल और आत्मबल की वृद्धि करने वाली अमोघ, अमूल्य औषधि है।
2. मर्यादित दिनों में भी शरीर की सुरक्षा की दृष्टि से एक रात्रि में एक बार से अधिक कामसेवन नहीं करना चाहिए ।
3. अपनी संतान का विवाह बाल्यावस्था में नहीं करना चाहिए।
4. अश्लील गाली और असभ्य वचन नहीं बोलना चाहिए ।
5. विशेष कारण बिना अविश्वासी पुरुष/स्त्री के घर नहीं जाना चाहिए। 6. व्यभिचारी और विषयलोलुपी पुरुष/स्त्री की संगति नहीं करनी चाहिए।
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17. विकार दृष्टि से 'स्त्री' को परपुरुष के और 'पुरुष' को परस्त्री के
अंगोपांग नहीं देखना चाहिए। 8. बिना काम रात्रि में या असमय में जहाँ-तहाँ नहीं भटकना चाहिए। 9. पुरुष को स्त्री समूह में और स्त्रियों को पुरुष समूह में विशेष कारण
बिना नहीं बैठना चाहिए। 10. जहाँ स्त्री पुरुषों का संघर्षण (शरीर स्पर्श ) होता हो, ऐसे मेलों में
नहीं जाना चाहिए। 11. विषय लालसा बढ़ाने वाले नाटक आदि नहीं देखना चाहिए। 12. विकार को उत्पन्न करने वाले वस्त्र आभूषण नहीं पहनने चाहिए। 13. शृङ्गार रस के गायन नहीं गाने चाहिए। 14. कामविकार उत्पन्न करने वाले स्त्री/पुरुष के चित्र अपने मकान में
नहीं रखने चाहिए। 15. स्त्रियों/पुरुषों में राग बढ़ाने वाली कथा वार्ता नहीं करनी चाहिए। 16. शीलव्रत के नियम वाले को अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या आदि
दिनों में अपनी सोने की शय्या दूर रखना चाहिए क्योंकि निमित्त मिलने पर व्रत भंग का पूरा भय रहता है तथा नियम वाले दिनों में
विषय वर्द्धक भोजन नहीं करना चाहिए। 17. एक बार मैथुन सेवन करने से समूर्छिम जीवों के साथ नौ लाख
संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यों तक की भी घात हो सकती है। अतः जितना
त्याग किया जाय, वही श्रेष्ठ है। 18. गेम्स-रिसोर्टस, स्वीमिंग क्लब आदि जहाँ स्त्री पुरुष के एक साथ
खेल, स्नानादि होते हैं, वहाँ नहीं जाना चाहिए। 19. टेलिफोन पर अश्लील चर्चा नहीं करनी चाहिए। 20. विवाह से पूर्व विशेष परिचय, साथ घूमना, टेलीफोन आदि से बचना
चाहिए।
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पाँचवाँ स्थूल
परिग्रह विरमण व्रत
अपरिग्रह अणुव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह की निम्न प्रकार से मर्यादा करता/करती हूँ। क्षेत्र से - समस्त लोक के द्रव्यों की निम्न प्रकार से मर्यादा करता/करती हूँ और मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में सब परिग्रह का त्याग करता/करती हूँ। काल से जीवन पर्यन्त । भाव से चार कषाय, नौ नोकषाय तथा मिथ्यात्व इस प्रकार चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्त होने का मुख्य लक्ष्य रखते हुए एक करण तीन योग से त्याग करता/करती हूँ ।
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परिग्रह विरमण व्रत के अतिचार
1. खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्कमे - उघाड़ी या ढँकी जमीन की जितनी मर्यादा की है, उसके उपरांत रखना ।
2. हिरण्ण सुवण्णप्पमाणाइक्कमे - सोना, चाँदी आदि की जितनी मर्यादा की है, उसके उपरांत रखना या दूसरों के नाम चढ़ाना।
3. धणधण्णप्पमाणाइक्कमे - धन-धान्य के परिमाण के उपरान्त रखना तथा दूसरों के नाम रखना
4. दुप्पयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे - दुपद - नौकर-चाकर (दास-दासी), चउप्पद-गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट आदि जानवर परिमाण के उपरान्त रखना ।
5. कुवियप्पमाणाइक्कमे-कपड़ा, ताम्बा, पीतल, फर्नीचर, वाहन आदि कुविय धातु वस्तु मर्यादा उपरान्त रखना।
पाँचवाँ परिग्रह विरमण व्रत के नियम
नोट-जितने नियमों का पालन करना हो, उनके आगे के कोष्ठक ) में परिमाण लिखें।
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11. क्षेत्र-खेतीबाड़ी की जमीन, खाली प्लॉट, बाग-बगीचे, कुए, बावड़ी है
आदि यदि रखना पड़े तो बीघा ( ) तक अथवा गिरवी रखना
पड़े तो बीघा ( ) तक की मर्यादा करता/करती हूँ।, 2. वास्तु-घर, दुकान, ऑफिस, गोदाम, बाड़ा, मिल, कारखाने नग
( ) से ज्यादा नहीं रसुंगा/रलूँगी। गिरवी रखना हो तो ( )
से ज्यादा नहीं रखूगा/रलूँगी। 3. धन-सोना, चाँदी आदि तथा रुपये, पैसे आदि रोकड़ मेरे नाम पर
कुल सम्पत्ति रु. ( ) से ज्यादा नहीं रखूगा/रलूँगी। 4. धान्य-चौबीस प्रकार का अनाज एक वर्ष के लिए ( ) से
ज्यादा नहीं रखूगा/रलूँगी और व्यापार के निमित्त एक वर्ष में
( ) से ज्यादा नहीं रलूंगा/रलूंगी। 5. दुपद-घर काम के लिए तथा व्यापार के लिए नौकर-नौकरानी, ___मुनीम वगैरह वर्ष में ( ) से ज्यादा नहीं रखूगा/रलूँगी।
6. चतुष्पद-गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट, बैल, बकरी आदि चार पाँव वाले ____ जानवर ( ) से ज्यादा नहीं रखूगा/रलूँगी। 7. हिरण्य-सुवर्ण-सोना ( ), चाँदी ( ), हीरा, पन्ना,
माणिक, मोती आदि जवाहरात ( ) से ज्यादा नहीं रसुंगा/ ___ रसूंगी। 8. कुविय धातु-ताम्बा, पीतल, स्टील, कांस्य, लोहा आदि ( )
से ज्यादा नहीं रगूंगा/रलूँगी। 9. वाहन-कार, जीप, ट्रक, स्कूटर, रिक्शा, साईकल आदि ( )
से ज्यादा नहीं रखूगा/रलूँगी। 10. वी.डी.ओ., टी.वी., फ्रीज, अलमारी इत्यादि आधुनिक घरेलू सामान
( ) का रखने, मील, जीन, प्रेस आदि रखना पड़े तो नग ( ) से ज्यादा नहीं रखूगा/रलूंगी।
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11. कपड़े और किराणा आदि का व्यापार करना पड़े तो नग दुकान ) से ज्यादा नहीं रखूँगा / रखूँगी।
(
12. मनिहारी सामान, काँच आदि का व्यापार करने पड़े तो (
से ज्यादा नहीं रखूँगा/रखूँगी ।
परिग्रह विरमण व्रत के आगार
1. उपहार की वस्तु या ऋण दी हुई वस्तु के बदले में कोई दूसरी वस्तु आ जाय तो आगार हैं।
)
2. दया दृष्टि से किसी द्विपद, चतुष्पद को सहारा देना पड़े तो आगार हैं ।
3. किसी सगे संबंधी की जायदाद आदि की व्यवस्था करनी पड़े तो आगार हैं।
4. किसी संस्था के ट्रस्टी या पंचायत के द्रव्यादि की रक्षा करनी पड़े तो आगार हैं।
5. किसी कंपनी का शेयर खरीदना पड़े, पार्टनरशिप रखनी पड़े, किसी योग्य व्यापार की दलाली करनी पड़े, व्यापारिक सलाह देनी पड़े तो आगार है।
6. चतुष्पद आदि परिवार बढ़े तो उसको रखने का आगार हैं। अपरिग्रह व्रत की शिक्षाएँ
1. इच्छा बढ़ाने से असंतोष और अशांति भी बढ़ती है, अतः शांति सुख के लिए इच्छा को घटाना चाहिए।
2. अपने कुटुम्ब के निर्वाह के साथ परमार्थ कार्य में द्रव्य लगाना चाहिए।
3. परमार्थ कार्य में द्रव्य खर्च करने की इच्छा से अनीति अन्याय पूर्वक द्रव्य पैदा नहीं करना चाहिए।
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4. नीतिपूर्वक उद्योग करना चाहिए। 5. न्याययुक्त छोटे धंधों की अपेक्षा अन्याययुक्त बड़े धन्धे महाभयंकर ____ तथा अधोगति में पहुँचाने वाले हैं। 6. दूसरे की संपत्ति देखकर मन में ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। 7. कसाई, खटीक आदि क्रूर हिंसक मनुष्यों को धन्धे के लिए रुपये
उधार नहीं देना चाहिए, अथवा उनके धन्धों को उत्तेजना मिले,
ऐसा काम नहीं करना चाहिए। 8. धर्म और आबरू की रक्षा न हो ऐसे धंधे व नौकरी नहीं करना
चाहिए। 9. किसी के उधार लिये हुये द्रव्य को वापस नहीं देने की इच्छा कभी
नहीं रखनी चाहिए। 10. शक्ति से अधिक खर्च नहीं करना चाहिए और न कंजूसी ही करनी
चाहिए, लेकिन उत्तम कामों में यथाशक्ति अवश्य सहायता करनी
चाहिए। 11. धर्मार्थ निकाला हुआ द्रव्य घर में नहीं रखना चाहिए, किन्तु उसको
धर्मार्थ नियत कर देना चाहिए या धर्म कार्य में खर्च कर देना चाहिए। यदि धर्मार्थ निकाले हुए द्रव्य का एक पैसा भी घर खर्च में
आ जाय तो बड़ी भारी पूँजी को धक्का पहुँचा देता है। 12.लक्ष्मी चंचल है, इसलिए इसका अभिमान नहीं करना चाहिए,
किन्तु विनीत, विवेकी बनकर लक्ष्मी का लाभ लेना चाहिए। 13. व्यापार अपनी पूँजी और हैसियत से अधिक नहीं करना चाहिए। ! 14. अतिसर्वत्र वर्जयेत्।
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छठा स्थूल
दिशा परिमाण व्रत दिशा परिमाण गुणव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से-सभी दिशाओं से आने वाले पापाश्रव को रोकने के लिए मर्यादित क्षेत्र से-अपने मर्यादित क्षेत्र के अनुसार । काल से-जीवन पर्यन्त। भाव से-एक करण तीन योग से अर्थात मन, वचन, काय से उक्त प्रकार की गई मर्यादा से अधिक न जाऊँगा/जाऊँगी। दिशा परिमाण व्रत के अतिचार (दोष) 1. उड़ढदिसिप्पमाणाइक्कमे-ऊँची दिशा के परिमाण से आगे जाना। 2. अहोदिसिप्पमाणाइक्कमे-नीची दिशा के परिमाण से आगे जाना। 3. तिरियदिसिप्पमाणइक्कमे-तिरछी दिशा की मर्यादा के उपरान्त
जाना। 4. खित्तवुड्ढी-एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा में जोड़ना
या सब दिशाओं का कि.मी. जोड़कर एक दिशा में जोड़ना। 5. सइअन्तरद्धा-की हुई मर्यादा में संदेह होने पर आगे जाना। दिशा परिमाण व्रत के नियम 1. ऊँची दिशा-आकाश मार्ग से जाना पड़े तो कि.मी. ( ) 2. नीची दिशा-खान, तहखाने, कुंआ, बावड़ी, तालाब, समुद्र आदि
में उतरना पड़े तो कि.मी. ( ) 3. तिरछी दिशा-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा में भारत वर्ष या देश
के बाहर जाना पड़े तो एक करण एक योग से जावज्जीव अथवा
( ) उपरान्त त्याग। 4. मर्यादित क्षेत्र के बाहर या भारत वर्ष के बाहर पत्र व्यवहार करना पड़े
( ) रखता हूँ। 5. दिशा की मर्यादा से बाहर जाने का सन्देह हो तो आगे नहीं जाऊँगा/
जाऊँगी।
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दिशा परिमाण व्रत के आगार 1. मैंने जिन दिशाओं की मर्यादा की है उसके बाहर तार या पत्र
व्यवहार करना पड़े, माल मँगाना पड़े या भेजना पड़े, मुनीम या
वकील को भेजना पड़े तो आगार है। 2. राजा आदि की आज्ञा से अथवा आकस्मिक दैवी घटना से की गई
मर्यादा का उल्लंघन हो जाय तो आगार है। 3. यदि धर्म कार्य निमित्त मर्यादा से बाहर जाना पड़े, बीमारी के कारण
तथा निद्राधीन या बेहोशी में मर्यादा का उल्लंघन हो जाय तो
आगार हैं। 4. पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चारों दिशाओं की जो मर्यादा बाँधी
है, उसके अन्दर ही कोई जमीन यदि स्वाभाविक ऊँची, नीची हो
और वहाँ जाना पड़े तो आगार हैं। दिशा परिमाण व्रत की शिक्षाएँ 1. हे आत्मन् ! इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मुझे अनंत कालचक्र
व्यतीत हो गये हैं और एक आकाशप्रदेश भी ऐसा नहीं बचा जिसका तूने स्पर्श नहीं किया हो, अतः अब शान्ति से स्थिरता के सिंहासन
पर बैठकर आत्मानंद का पान कर । 2. बाहर में सुख की खोज करना मूर्खता है, अतः अपने निज घर में
प्रवेश कर। 3. हे आत्मन् ! तूने दिशाओं की मर्यादा करली है, तो अब उसके बाहर
अपने मन को भी मत जाने दे। तार, टेलिफोन, चिट्ठी का भी जहाँ तक बन सके विवेक रख।
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सातवाँ स्थूल
उपभोग परिभोग परिमाण व्रत
उपभोग परिभोग गुणव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से-मैं निम्नानुसार छब्बीस बोलों की मर्यादा करता/करती हूँ एवं कर्मादान के व्यापारों का त्याग करता/करती हूँ। क्षेत्र से अपने मर्यादित क्षेत्र के अनुसार । काल से- यावज्जीवन । भाव से - जो मर्यादा की है उसके उपरान्त सबका एक करण तीन योग से त्याग करता / करती हूँ।
उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के अतिचार
सातवें व्रत के 20 अतिचार हैं । पाँच अतिचार भोजन संबंधी हैं और 15 अतिचार व्यापार संबंधी हैं।
भोजन संबंधी अतिचार
1. सचित्ताहारे-जिस सचित्त वस्तु का त्याग किया है, अचित्त न हुई हो तो उसका भक्षण करना तथा मर्यादा से अधिक सचित्त वस्तु का भोग करना ।
2. सचित्त पडिबद्धाहारे- सचित्त से मिली अचित्त वस्तु का आहार करना । 3. अप्पउलीओसहिभक्खणया - अधूरे पके हुए पदार्थ का आहार
करना।
4. दुप्पउलीओसहिभक्खणया-अविधि से पकाया हुआ आहार करना। 5. तुच्छोसहिभक्खणया - जिस वस्तु में खाने योग्य भाग थोड़ा हो और फैंकने योग्य भाग अधिक हो ऐसी वस्तु का आहार करना। उपभोग परिभोग परिमाण व्रत में 26 बोलों की मर्यादा1. उल्लणियाविहि-शरीर पोंछने के ट्वाल या टोवल, रुमाल, नेपकिन आदि। एक दिन में नग ( ) तक तथा इतनी ( ) कीमत तक के ।
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12. दंतण विहि-दतौन (दाँतुन) टूथपेस्ट, पावडर या किसी पेड़ का
दाँतुन सचित्त ( ) अचित्त ( ) प्रतिदिन ( ) जाति।
(परिशिष्ट 'च' में देखें) 3. फल विहि-फल के प्रकार नहाने धोने के काम में आने वाले आँवला,
अरीठा आदि फल की जाति ( ) प्रतिदिन ( ) वजन तक। 4. अभंगण विहि-तेल, इत्र की जाति ( ) प्रतिदिन वजन
( ) तक। 5. उवट्टण विहि-पीठी, दही, साबुन, मिट्टी, शिकाकाई, साजीखार,
आदि शरीर पर लेप करने की वस्तुएँ प्रतिदिन वजन
( ) तक। 6. मज्जणविहि-स्नान करने की मर्यादा प्रतिदिन ( ) एक मास
में ( ) एक वर्ष में ( ) बार तक, एक बार के स्नान में पानी ( ) लीटर तक, नदी, तालाब आदि में स्नान का त्याग, अष्टमी, पक्खी को त्याग, स्पंज की छूट, बाहर गाँव और मरण
प्रसंग में स्नान करना पड़े तो आगार । 7. वत्थविहि-पहनने, ओढ़ने तथा काम में आने वाले वस्त्र सूती नग
( ) रेशमी नग ( ), ऊनी नग ( ) प्रतिदिन ( ) जोड़ी
से अधिक नहीं पहनूंगा/पहनूँगी। 8. विलेवण विहि-शरीर पर लेप करने के चन्दन, केशर, कपूर,
तेल, स्नो क्रीम, वेस्लीन, पावडर, लिपस्टिक, मेहन्दी, सेंट इत्र
आदि ( ) वजन ( ) तक प्रतिदिन। 9. पुप्फविहि-फूल (गुलाब, मोगरा, चंपा, चमेली आदि) प्रतिदिन
( ) बार से अधिक नहीं। वर्ष में ( ) बार उपरान्त त्याग । a (परिशिष्ट 'छ' देखें)
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10. आभरण विहि-पहनने के आभूषण-घड़ी, चैन, अँगूठी, बटन
आदि ( ) कीमत ( ) रु. शृंगार निमित्त पहनने का त्याग, लेन
देन बेचने की बात अलग। 11.धूव विहि-धूप करना पड़े तो वर्ष में ( ) अगरबत्ती, लोबान,
कपूर, घी, तेल वजन ( ) तक। 12. पेज्जविहि-पीने की वस्तु- दूध, चाय, कॉफी, शर्बत, ज्यूस,
कोल्ड्रिंक्स, आइस्क्रीम, छाछ, गुड़, शक्कर का पानी आदि की
जाति ( ) वजन ( ) तक प्रतिदिन। 13. भक्खण विहि-खाने के लिए मिठाई तथा नमकीन आदि पदार्थों
की जाति ( ) एक दिन में वजन ( ) तक। 14. ओदण विह-चौबीस प्रकार के धान्य की मर्यादा वर्षभर में वजन
( ) तक। राँधने की मर्यादा-चावल, खीचड़ी, थूली आदि की
एक दिन में वजन ( ) जाति ( ) तक। 15. सूप विहि- मूंग, मोठ, तुवर, उड़द, चना, मटर आदि दाल की
जाति ( ) एक दिन में वजन ( ) तक। 16. विगय विहि-दूध, दही, घी, तेल, मीठा पाँच प्रकार के विगय हैं
उसका प्रतिदिन ( ) तथा प्रतिदिन अमुक विगय ( ) का
त्याग। महाविगय मक्खन, शहद का दवा निमित्त आगार। 17. सागविहि-पूरी जिंदगी में हरे शाक ( ) सूखे शाक ( ) फल
( ) फूल ( ) पान ( ) अचार ( ) कंदमूल ( ) आदि की जाति ( ) वजन ( ) तक एवं दिन में जाति ( ) वजन
( ) तक त्याग। (परिशिष्ट क, ख, ग, घ में देखें) 18. महुरविहि-किशमिश (दाख), बादाम, पिश्ता, चारोली, छुहारे
खुरबानी, पिंडखजूर आदि मीठे फल की जाति ( )तक एक दिन में वजन ( ) तक।
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19. जीमण विहि-भोजन का परिमाण । सभी वस्तुएँ मिलाकर प्रतिदिन
भोजन में ( ) किलोग्राम उपरान्त त्याग। 20. पाणिय विहि-पीने के लिए पानी एक दिन में ( ) लीटर। 21. मुखवास विहि-पान, सुपारी, लौंग, इलायची, सौंफ, जायफल,
चूर्ण आदि मुख को सुगंधित करने वाली वस्तु की जाति ( )
एक दिन में ( ) किलोग्राम। 22. वाहण विहि-घोड़ा, ऊँट, बैल, हाथी की सवारी एक दिन में या
एक वर्ष में ( ) एक तक। ट्रेन, मोटर, कार, मेटाडोर, बस, लॉरी, रिक्शा, स्कूटर, साइकिल, घोड़ागाड़ी, रथ, आदि ट्रेवल्स एक दिन में ( ) बार। हवाई जहाज, हेलिकॉप्टर, बैलून आदि
एक वर्ष में ( ) बार। 23. उवाणह विहि-पाँव में पहनने के जूते-बूट, मोजे, चप्पल आदि
( ) तक। 24. सयण विहि-सोने, बैठने के आसन, पलंग, खाट, कुरसी, टेबल,
पट्टा, चौकी, सोफा, दिवान आदि एक दिन में ( ) तक। 25. सचित्त विहि-पानी, बर्फ, हरी वनस्पति, सचित्त फूट, मेवा आदि
सचित्त वस्तु की जाति ( ) एवं वजन ( )। 26. दव्व विहि-सचित्त, अचित्त इन दोनों जातियों के द्रव्य एक दिन में
( ) तक। उपरोक्त छब्बीस नियमों में जो मर्यादा की है, उसके उपरान्त मन, वचन काया से त्याग करता/करती हूँ। वस्तु की परीक्षा का आगार है एवं भूल चूक दवा का आगार है।
(
3)
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वनस्पति-मर्यादा पत्र
नोटः- 1. आपको आगार रखना हो उसके सामने (*) का निशान कर गिनती कर शेष का त्याग कर लेवें ।
2. चौबीस लाख कुल वनस्पति की क्रिया से बचने का सरल रास्ता अवश्य अपनाएँ ।
(परिशिष्ट 'क')
हरी सब्जियाँ
1. तोरु (तुरुई) 4. भिण्डी
7. हराधनिया
(कोतमली) कोथमीर 12. नींबू
15. काचरा - काचरी
18. मक्का (भूट्टा)
21. मूली का पत्ता 23. मोगरियाँ
26. पान
29. गेहूँ का होला 32. केरी
2. गिल्लकितुरई 5. पत्तागोभी
8. पोदीना
10. चन्दलिया
13. बथुवा
16. ग्वार की फली
19. टमाटर लाल 22. साँगरिया
24. हरा आँवला
27. परवल
17. मटर 20. हरे चणे
(बूटा, छोला, गेघरा)
25. प्याज की पत्ती
28. तुलसी पत्ता 31. हरा टमाटर 34. केर
37. नींबू के पत्ते
40. सरसों के पत्ते
42. मन तकाली किरे 43. लहसून के पत्ते
30. हरी कत्ती रिन्दा 33. शिमला मिर्च
36. अजवाइन के पत्ते
35. कटहल
38. मीठे नीम के पत्ते 39. सूवा
41. मेथी पत्ता
3. टिण्डसी (टिण्डे)
6. फूल गोभी
9. पालक
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11. हरीमिर्च
14. करेला
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44. खीरा काकडी 47. परवल की पत्ती
49. ढाक के पत्ते
52. मोठ की फली
55. मूँगफली
58. दक्षिण मटर
की फली
63. बलर-की फली ( वालोड की फली ) सेम
67. तर काकड़ी
69. कच्ची ऐरण्ड
काकड़ी (हरी पपीता) 74. गाँठ गोभी
77. टोन्डीला
80. गवार पाठा 83. बोर
86. काबूली चणा 89. कुभटीया 92. मेथी
95. सिन्दूरिया
98. गुलाब के फूल
101. गवार फली
104. फकोड़ा
106. पिलु जालिया
45. केले का पत्ता 48. अस्कीरे
50. पोई के पत्ते 53. मूँग की फली
56. परमल की फली 59. सोयाबीन
61. वरल की फली
64. बालोटा की फली
66. बैंगन,
(बेंगलूर कत्तीरिका) 70. चौलाई
72. कमल बीज फूल 75. लोभिया फली
78. बांवलिया
46. अफीम की पत्ती (फान्सी)
51. चवला की फली
(बबूल की पातड़ी)
81. बाजरी का सीट्टा
54. कट्टु (कोहला) 57. खेजड़े की फली
60. बींस फली
68. सहजना की फली
71. केरूदा (करौन्दा) 73. फरासवीन 76.कींकोड़ा (कंकेड़ा) 79. हरी ईमली (कटारा )
82. ज्वार का सीट्टा
84. पुरजन
85. लाल गून्दा
87. दोना पत्ता लहरा 88. चक्करी
90. लोनी
91. कुलफा
93. सरगवा की सींग 94. वेल पत्र (वील्व)
96. गून्दिया
97. नीमबोली
99. पोडलका
100. मुरंका
102. चने की भाजी
103. अफीम के डोडे
(पान्सी)
105. कुदरूं
107. चाऊ चाऊ ता 108. ढाल
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62. तुवर की फली 65. ऑल, लोकी (दुधि), घिया
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109. कुम्हड़ 112. चील
115. फोग
118. लालकत्तीरिका
1. आम
(सभी जाति के )
4. पक्का पपीता
(एरंड काकड़ी)
8. खरबूजा 11. मौसंबी
14. गन्ना
17. चीकू
20. (सूखी) खुरबानी
23. रस बेरी
26. टिकीड़ी बोर
29. रायणिया
32. बिल (रस) 35. मंगूस
38. कबीट
41. खींरनी सयन
44. कुरमदा
110. गुन्दा
113. हरी काली मिर्च
116. उड़द की फली
119. सिमेकत्तीरिका
(परिशिष्ट 'ख')
फल
2. केला
(सभी जाति के) 5. जामुन सफेद
7. नासपाती (वनास्पति)
9. तरबूज
12. अंगूर हरा
15. शहतूत
18. अन्ननास
21. सीताफल
24. बैर (बोर)
27. दिल्ली बोर
111. गोयली 114. खेत काकड़ी 117. हरि कत्तीरिका
39. राम फल
42. पील केट
45. रायना
36
3. जामफल
(अमरुद )
6. सेव (सफरचंद),
ऐपल
10. नारंगी
13. दाड़म (अनार)
16. कच्चा नारियल
19. आलू बुखारा
22. सिंघोड़ा
30. हरी बदाम
31. हरी अंजीर
33. लींगू (ताड़ फल) 34. आडू 36. पलापलम्(पणस)37. सुरती बोर
25. लीची
28. चेरी
40. फालसा
43. कसेक
46. कपित्थ
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47. मोरसिरो
50. कमल गट्टा
53. पिण्ड खजूर
56. बेलफल
59. सफेदा
62. माल्टा
65. हरी खुरबानी
68. झाड़ के बोर
71. पक्की निम्बोली
74. तिन्दु
77. गुलावाजाय
1. आलू 4. गाजर
7. लहसून
10. कमलजड़
13. करणाक लंग
16. गरमर
19. अरबी
48. कमरख
51. तींबर
54. जामुन काला
57. हरी सुपारी
60. स्ट्राबेरी
63. रानी मेवा
66. काला अंगूर
69. मीठी इमली
72. गुन्दी
75. किवी
78. ऊटी एपल
(परिशिष्ट 'ग')
जमीकन्द
2. प्याज
5. मूली
8. हरी हल्दी
11. चुकन्दर
14. सेवक लंग
17.
कुवार
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49. चकोतरा बिजोरा
52. जालवृक्ष की फल
55. लखवट
58. हरी सोंफ
61. सरदा
64. बाल्म काकड़ी
67. हरा काजू
70. कसेरू
73. टीम्बरू
76. किन्नु
3. अदरक
6. सकरकंद
9. रतालू
12. शलगम (बीटरूट)
15. सूरण
18. बीट
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(परिशिष्ट 'घ')
अचार 1. केरी का अचार 2. गुंदे का अचार 3. मिरची का अचार 4. नींबू का अचार 5. काचरे का अचार 6. केर का अचार 7. आँवले का अचार 8. धनिये की चटणी 9. आम का अचार
(परिशिष्ट 'च')
दतौन
1. बबूल की दतौन 2. नीम की दतौन 3. बोरड़ी की दतौन 4. कपास झाड़ की दतौन 5. बड़ की दतौन 6. जामुन की दतौन
(परिशिष्ट 'छ')
फूल 1. गुलाब 2. मोगरा 3. चमेली 4. चम्पा
5. केवड़ा 6. कमल 7. जूही
8. रातराणी 9. कनेर 10. गेंदा 11. निशिगंध 12. मरूवा 13. बेला 14. मरेठी 15. सूर्यमुखी भारत में रहते हुये मैं उपरोक्त (*) निशान किये हुए (लिलोती) वनस्पति को छोड़कर अन्य वनस्पति का जीवनभर के लिये अथवा 1 वर्ष के लिए देव, गुरु, धर्म की साक्षी से त्याग करता हूँ/करती हूँ। दिनांक..
हस्ताक्षर.
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कर्मादान
कर्मादान
1. इंगालकम्मे - कोयले बनाने, काँच बनाने चूना, ईंट बनाना आदि ।
2. वणकम्मे - (वनकर्म) वन के वृक्ष आदि काटने का व्यापार करना।
3. साडीकम्मे - ताँगा, मोटर इत्यादि बनाकर बेचने का व्यापार
4. भाड़ीकम्मे - ऊँट, घोड़ा तथा मोटरगाड़ी, कार, टैक्सी आदि को किराये पर देकर आजीविका कमाना ।
5. फोडीकम्मे-जमीन के पेट फोड़ने का व्यापार, खनिज पदार्थ निकालना, कुआ बावड़ी आदि खुदवाना, हैण्डपम्प, नलकूप आदि लगाने का व्यापार करना ।
6. दंतवाणिज्जे - हाथीदाँत, शंख, हड्डी, आदि का व्यापार ।
7. लक्खवाणिज्जे-लाख का व्यापार
करना ।
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त्याग/आगार सभी प्रकार की
भट्टियाँ बनाकर
आजीविका करने
का त्याग(शादी
ब्याह में आगार)
उक्त व्यापार का
त्याग। (घर के
घास काटने आदि
का आगार)
उक्त व्यापार
का त्याग।
इस व्यापार का त्याग (घर किराए पर देने का आगार)
इस व्यापार का त्याग
(खेत घर में अनुकंपावश
अन्य स्थान पर कुआ खुदवाने, बोरिंग
करवाने का आगार) ।
इस व्यापार
का पूर्ण त्याग।
इस व्यापार का
पूर्ण त्याग।
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18. रसवाणिज्जे-मद्य आदि नशीले पदार्थ, इस व्यापार ___ आदि का व्यापार।
का पूर्ण त्याग 9. विसवाणिज्जे-खार, अफीम इत्यादि पूर्णतया त्याग। __विषैले पदार्थों का व्यापार। 10. केसवाणिज्जे-चमड़ी, पशुओं के केश पूर्णतया त्याग।
आदि का व्यापार। 11. जन्तपीलणकम्मे-मिल, चरखा छापाखाना, दालमिल छापाखाना आदि का व्यापार। आदि व्यापार के अलावा
शेष व्यापार का त्याग 12. निलंछणकम्मे-पशुव मनुष्य के अवयव पूर्णतया त्याग।
छेद कर नपुंसक बनाने का व्यापार । 13. दवाग्गिदावणया-वन में आग लगाने
पूर्णतया त्याग। का व्यापार। 14. सरदहतलाय सोसणया- नदी, तालाब, पूर्णतया त्याग।
सरोवर,आदि को सुखाने का व्यापार । 15. असइजणपोसणया-आजीविका के लिए पूर्णतया त्याग।
दुराचारिणी स्त्रियों का पोषण करना तथा कुत्ते, बिल्ली, तीतर, बाज आदि हिंसक
प्राणियों का शिकार निमित्त पोषण करना। सातवें उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के नियम 1. मैं हरे शाक के व्यापार तथा अचार, मुरब्बा बनाकर व्यापार करने
का त्याग करता/करती हूँ। 2. मैं फूलों के शाक नहीं खाऊँगा/खाऊँगी, क्योंकि फूल में त्रस जीव
रहते हैं। ! 3. मैं बाजार का अचार नहीं खाऊँगा/खाऊँगी और घर का बना हुआ ,
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अचार भी अधिक काल का अर्थात् दिन ( का नहीं खाऊँगा/खाऊँगी ।
4. मैं कन्दमूल का भक्षण नहीं करूँगा / करूँगी, अनन्त जीव होते हैं ।
क्योंकि कन्दमूल में
5. लोहार, सोनार, ठठेरा, छीपा, नीलगर, रंगरेज, धोबी आदि का धन्धा नहीं करूँगा/करूँगी। यदि इनकी बनाई हुई वस्तुएँ बेचनी पड़े तो उसका आगार है ।
लखारा, भड़भूँजा, चूनीगर, भटियारा आदि का काम न करूँगा / करूँगी और न करवाऊँगा / करवाऊँगी । घर खर्च के लिए छूट । 7. मैं नाटक, सर्कस, नट और बाजीगर का खेल, ख्याल (रम्मत) भाँडचेष्टा, गायन आदि करके या दूसरों से करा के आजीविका नहीं करूँगा/करूँगी।
8. मैं कसाई, खटीक, चमार, कलाल, चाण्डाल आदि को ब्याज से रुपये उधार नहीं दूँगा/दूँगी और न इनके साथ व्यापार करूँगा / करूँगी।
6.
) से ज्यादा दिन
9. मैं मिट्टी के खिलौने बनाकर नहीं बेचूँगा / बेचूँगी ।
10. मैं हिंसक अस्त्र शस्त्र न बनाउँगा / बनाउँगी।
11. मैं नहर - नदी का पुल, नाव, स्टीमर, जहाज आदि नहीं बनाऊँगा / बनाऊँगी तथा इनको बनवाने का ठेका नहीं लूँगा / लूँगी और न इनसे भाड़ा कमाऊँगा / कमाऊँगी |
12. मैं शर्बत बनाने या वनस्पति, अर्क निकालने का अथवा तम्बाकू बनाने का धन्धा नहीं करूँगा /करूँगी।
13. मैं चूहे आदि जन्तुओं को पकड़ने के, तोते, मैना आदि प्राणियों को बन्द रखने के पींजरे बनाने और बेचने का धन्धा नहीं करूँगा / करूँगी।
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* सातवें उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के आगार (छूट) 1. अपने या किसी संबंधी के बाल बच्चे आदि का नाक, कान बिंधाना
पड़े तो आगार। 2. मैंने पहनने, ओढ़ने, बिछौने के कपड़ों की जो मर्यादा की है, उसके
उपरांत किसी कपड़े का शरीर से स्पर्श हो जाय तो आगार। 3. यद्यपि नशे की चीज शौक से नहीं पीऊँगा। तथापि रोगादि विशेष
कारण से यदि दवाई में पीना पड़े तो आगार। 4. जो मैंने हरे शाक, फल आदि का त्याग किया है, उसमें से भी यदि
औषधि आदि में जरुरत पड़े तो आगार। 5. यदि त्याग की हुई वस्तु का भूल से मिश्रण हो जावे, अनजान में या
उपयोग नहीं रहने से वह वस्तु काम में आ जावे, लग्न व मृत्यु के समय तथा किसी उत्सव पर या दुष्काल के समय आदि त्याग की
हुई वस्तु का इस्तेमाल करना पड़े तो आगार है। 6. सूखी लकड़ी या सूखे घास का व्यापार करना पड़े तो आगार है। 7. मिल, प्रेस आदि में काम आने वाले सामान का व्यापार करना पड़े
तो आगार है। 8. जो मैंने जूते की मर्यादा की है, उसमें यदि जूता खो जाने पर फिर
नया पहनना पड़े तो आगार है। 9. रोगादि तथा शारीरिक कारण से मर्यादा के बाहर की वस्तुएँ काम में
लाना पड़े तो आगार है। सातवें व्रत की शिक्षाएँ 1. रात्रि में या अँधेरे में भोजन नहीं बनाना चाहिए और न ही करना
चाहिए, क्योंकि रात्रि और अँधेरे में छोटे-छोटे जन्तु नहीं दिखाई देते हैं, इसलिए उनकी रक्षा होना असंभव है। इसके सिवाय किसी जहरीले जानवर के गिरने से शरीर को हानि पहुँचती है।
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हलवाई का धन्धा नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस धन्धे में चींटी,
मक्खी, चींटे, मच्छर आदि जीवों का घात होता है। 3. परिमाण से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए तथा बार-बार भोजन
नहीं करना चाहिए। अनियमित भोजन करने से शरीर बिगड़ता है,
आदत खराब होती है, तथा अजीर्ण आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। 4. अधिक समय का अचार, मुरब्बा और शर्बत काम में नहीं लाना
चाहिए, क्योंकि इनमें त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। 5. अनजाना फल या अज्ञात वस्तु नहीं खानी चाहिए। 6. जहाँ तक बन सके ऐसी विदेशी दवा नहीं खानी चाहिए जिसमें मद्य,
मांस की आशंका हो। 7. नियमित समय पर खाना-पीना चाहिए। ऐशआरामी (विलासी)
नहीं बनना चाहिए। 8. जिस वस्तु पर चींटियाँ चढ़ती हैं, मक्खियाँ बैठती हैं अथवा जिस त्रस
वस्तु से हवा बिगड़ती है उनको मार्ग में नहीं डालना चाहिए, किन्तु राख, धूल आदि में लपेटकर जन्तुरहित एकान्त स्थान पर डालना
चाहिए, जिससे किसी को हानि न हो। 9. फूलों को नहीं सूंघना, क्योंकि वनस्पति की विराधना के साथ इनके
सूक्ष्म जन्तु नाक द्वारा मस्तक में जाकर रोग उत्पन्न करते हैं। 10. जहाँ तक बन सके बाजार की मिठाई, पूड़ी आदि नहीं खाना चाहिए,
क्योंकि उन चीजों में घी आदि शुद्ध न होने से स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है, तथा हलवाई के यहाँ आटा, मैदा बहुत दिन का रहता है, जिसमें इल्ली आदि जानवर पड़ जाते हैं और बिना छना आटा, पानी
काम में लेते हैं इसलिए वे चीजें अपवित्र होती हैं। 11. लाख का व्यापार नहीं करना चाहिए, क्योंकि लाख में असंख्य त्रस
जीव रहते हैं।
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*
* 12. रेशम या रेशमी कपड़ों का व्यापार नहीं करना चाहिए और न ही
उनको काम में लाना चाहिए। क्योंकि आजकल कीड़ों को उबाल कर रेशम बनाया जाता है। ऐसे मोती नहीं पहनने चाहिए, जो
मछली आदि जीवों को मारने से प्राप्त होते हैं। 13. मधु (शहद) नहीं खाना चाहिए, क्योंकि इनमें छोटी-छोटी मक्खियाँ
और मक्खियों के अण्डे भी प्राय: आ जाते हैं। 14. अचार और मुरब्बे में बहुत जल्दी जीव पैदा हो जाते हैं, इसलिए
इसका ख्याल रखना चाहिए और बाजारू अचार और मुरब्बा नहीं
खाना चाहिए। 15. कई पत्तियों पर त्रस जीव रहते हैं, इसलिए इसकी सावधानी रखनी
चाहिए और सावन महिने में तो पत्ती का शाक नहीं खाना ही उचित है। 16. जिसको हरे शाक का त्याग हो, उसे सुखाने का भी त्याग करना
चाहिए। 17. फूल का शाक कदापि नहीं खाना चाहिए, क्योंकि फूल में त्रस जीव
रहते हैं। 10. सुगन्धित या दुर्गन्धित वस्तु का धुआँ नहीं करना चाहिए क्योंकि
धुएँ से मच्छर आदि त्रस जीव मर जाते हैं।
आठवाँ स्थूल
अनर्थदण्ड विरमण व्रत अनर्थदण्ड विरमण व्रत (गुणव्रत) की प्रतिज्ञा
द्रव्य से- निष्प्रयोजन अशुद्ध आचरण की निवृत्ति के लिए चारों प्रकार के अनर्थदण्ड का त्याग करता/करती हूँ । क्षेत्र से-सम्पूर्ण लोक प्रमाण । काल से- जीवन पर्यन्त। भाव से-प्रमाद एवं रागद्वेषादि
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कषाय भावों को मंद करने के लिए मैं आत्म हितार्थ सम्यक् प्रवृत्ति करूँगा/करूँगी। दो करण तीन योग से।
अनर्थदण्ड के चार प्रकार
1. अवज्झाणाचरिए - (क) क्रोध, भय, दुःख इत्यादि कारणों से मन में ही किसी को दण्डित करने का विचार करना ।
(ख) आर्त्तध्यान- इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, रोगादि के समय रोना, पीटना तथा काम भोगों को टिकाए रखने का चिंतन करना। (ग) रौद्रध्यान-किसी को मारने या हानि पहुँचाने का विचार करना, विष खाकर, जल में डूबकर, अग्नि में जलकर पर्वतादिक से गिर कर आत्महत्या करना, झूठ बोलने में आनन्द मानना, चोरी करने में आनन्द मानना, परिग्रह रखने में आनन्द मानना और परिग्रह बढ़ाने का विचार करना रौद्रध्यान है।
2. पमाया चरिए-प्रमाद के कारण रात्रि में बासी बरतन रखना, घी, तेल, दूध-दही आदि के बरतन खुला रखना तथा धर्म करणी स्वयं नहीं करना व दूसरों को अंतराय देना ।
3. हिंसप्पयाणे-हिंसाकारी शस्त्र, तलवार, भाला, बंदूक, कुदाल, फावड़ा, छुरी, मिक्सर आदि निरर्थक साधनों को बढ़ाना तथा दूसरों को देना ।
4. पावकम्मोवएसे - पापकारी उपदेश और खोटी सलाह देना साधुश्रावक व्रतों से भ्रष्ट हो जाय ऐसा उपदेश देना तथा मकान बनाना, कारखाना खोलना आदि हिंसाकारी सलाह देना ।
अनर्थदण्ड के अतिचार (दोष)
1. कंदप्पे-काम विकार को उत्पन्न करने वाली कथा करना ।
2. कुक्कुइए-भाँडों की तरह आँख, नाक, मुख आदि अपने अंगों को विकृत करके दूसरों को हँसाने की कुचेष्टा करना।
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13. मोहरिए-वाचालता से असत्य और ऊटपटाँग वचन बोलना। 4. संजुत्ताहिगरणे-हिंसाकारी औजारों को निष्प्रयोजन अथवा प्रयोजन
से अधिक संग्रह करना। 5. उवभोगपरिभोगाइरित्ते-उपभोग परिभोग में आने वाली वस्तुओं पर
अति आसक्ति भाव रखना एवं अधिक संग्रह करना। अनर्थदण्ड विरमण व्रत के नियम 1. मैं निष्प्रयोजन जमीन नहीं खोदूंगा/खोदूँगी, पानी नहीं गिराऊँगा/
गिराऊँगी। आग नहीं जलाऊँगा/जलाऊँगी, वनस्पति का छेदन
भेदन नहीं करूँगा/करूँगी। 2. मैं पर्व दिनों में और विवाहादि में आतिशबाजी न छोडूंगा/छोईंगी न
छुड़ाऊँगा/छुड़ाऊँगी। 3. मैं धर्म, तपस्या का निदान नहीं करूँगा/करूँगी। 4. मैं होली, नहीं खेलूंगा/खेलूँगी और न जलाऊँगा/जलाऊँगी। 5. दीक्षार्थी को अंतराय नहीं दूंगा/दूंगी। 6. मैं पक्षियों के घोंसले, चूहों व चीटियों आदि के बिल तथा मधुमक्खियों
के छत्ते आदि नहीं तुड़वाउँगा/तुड़वाउँगी। 7. मैं जुआँ, रेसा आदि नहीं खेलूंगा/खेलूँगी। 8. शौक के लिए ऊँट, घोड़े, हाथी आदि जानवरों की सवारी नहीं
करूँगा/करूँगी। 9. किसी को दुःख पहुँचे, ऐसी मजाक नहीं करूंगा/करूँगी। 10. पतंग नहीं उड़ाऊँगा/उड़ाऊँगी।। 11. देखे बिना कोई वस्तु काम में नहीं लाऊँगा/लाऊँगी। 12. भण्डोपकरण वस्त्रादि को इधर उधर खुले बिखेरकर नहीं रखूगा/
रखूगी।
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13. मैं फुटबाल, क्रिकेट, कबड्डी, तैरना, कुश्ती आदि अनेक खेल
नहीं खेलूंगा/खेलूँगी। 14. लग्न आदि प्रसंग पर लाईट, फूलों का डेकोरेशन नहीं कराऊँगा/
कराऊँगी। 15. मरण प्रसंग पर छाती माथा कूटकर जोर जोर से रुदन नहीं करूँगा/
करूँगी। 16. मोसर तथा स्वामी वात्सल्य में शोक मिलन में नहीं जीमूंगा/जीमूंगी। 17. सांसारिक आरंभ के कार्य प्रीतिभोज, मकान आदि बनवा कर
आसक्तिपूर्वक प्रसन्न नहीं होने का विवेक रतूंगा/रलूँगी। दूसरों
के आरंभ की प्रशंसा नहीं करने का विवेक रखूगा/रलूँगी। 18. सिनेमा थियेटर में जाकर पिक्चर देखने का त्याग या वर्ष में ( )
बार उपरान्त त्याग। 19. सर्कस, नाटक, जादू आदि टिकट लेकर देखने का त्याग या
प्रतिवर्ष ( ) बार उपरान्त त्याग। 20. टी.वी. विडियों आदि महिने में ( ) दिन देखने सुनने का त्याग ।
एक दिन में ( ) घंटे से ज्यादा नहीं देखना अपने हाथ में एक
दिन में ( ) बार से ज्यादा नहीं चलाना। 21. सात कुव्यसन का त्याग। (मांसभक्षण, मद्यपान, द्यूतक्रीड़ा, अथवा
जुआ खेलना, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, शिकार और चोरी) 22. सामूहिक रूप से गन्दे गीत गाने का त्याग। 23. विवाह आदि प्रसंगों में डान्स करने का त्याग। 24. पैसे घुमाकर मुफ्त में बाजे वाले को देने का त्याग। 25. पटाखे कभी भी भेंट में नहीं दूंगा/दूंगी। 26. जिन वस्तुओं में पंचेन्द्रिय जीव की घात होती है, ऐसी वस्तुएँ
उपयोग में नहीं लूंगा/लूँगी।
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27. जिन वस्तुओं में अंडा - मांस, चर्बी, जिलेटिन, मछली का पाउडर '
आदि मिक्स किया जाता है। जैसे- चिंगम, केडबरी, किटकेट, फाइवस्टार, चीज, कसाटा, वाडीलाल, क्वालिटी कंपनियों की आइस्क्रीम, पेस्ट्री, केक, कैप्टन कुक आटा, डालडा घी, टूथपेस्ट, बिस्किट आदि इन्हें काम में नहीं लूँगा / लूँगी।
28. सौन्दर्य प्रसाधन जानवरों को मारकर बनाये जाते हैं। उनका उपयोग नहीं करूँगा /करूँगी।
29. हिंसाकारी साधन गिफ्ट नहीं दूँगा / दूँगी । जैसे-मिक्सर, सेल की घड़ी, प्रेस, चाकू, हीटर, फैन, लैम्प आदि का त्याग ।
30. मोबाइल, टेलिफोन आदि पर आवश्यक कार्य होने पर ही बात करना तथा दिन में ( ) घंटे बात करने के उपरान्त का त्याग।
अनर्थदण्ड विरमण व्रत के आगार
1. लोक व्यवहार से किसी का वियोग होने पर रुदन आदि आर्त्तध्यान करना पड़े तो मेरे आगार है।
2. वियोग होने पर मन वश में न रहने से, कोमल स्वभाव होने से यदि आर्त्तरौद्रध्यान हो जाय तो छूट है।
3. उपयोग न रहने से तेल, घी आदि के बर्तन उघाड़े रह जाय तो छूट है। 4. चाकू, छुरी सरौता, बर्तन आदि वस्तुएँ किसी स्वजन, सगा सम्बन्धी को देनी पड़े तो आगार है।
5.
स्वजन के हितार्थ, अनुकम्पा के निमित्त किसी काम का उपदेश या सम्मति देनी पड़े तो मेरे आगार है।
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अनर्थदण्ड विरमण व्रत की शिक्षाएँ
1. अवकाश के समय गपशप नहीं करके सत्साहित्य का वाचन करना चाहिए। समाज धर्म और देश की उन्नति के उत्तम काम करने चाहिए। धर्म क्रिया करते समय दूसरे व्यक्ति के द्वारा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो जाय तो आर्त्तध्यान नहीं करना चाहिए। 2. किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिए किन्तु अपनी आत्मा को उन्नत करने वाले कार्य करते रहना चाहिए।
3. दूसरों के द्वारा आचरित पाप कार्यों में सहयोगी नहीं बनना चाहिए। 4. खाली दिमाग शैतान का घर होता है, अतः एक क्षण भी खाली नहीं बैठकर कुछ आत्मा को उन्नत बनाने वाले काम करते रहना चाहिए। 5. जासूसी उपन्यास, भड़कीले मेगजिन्स, श्रृंगार रस की कहानियाँ नहीं पढ़नी चाहिए।
6. होली जलाना, होली खेलना आदि अनेक आरंभ समारंभ की क्रीड़ाएँ नहीं करनी चाहिए।
नवम स्थूल
सामायिक व्रत
सामायिक शिक्षाव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से-जीवन में पूर्ण समभाव की प्राप्ति का लक्ष्य रखकर प्रतिदिन
कम से कम एक अथवा महिने में (
क्षेत्र से- अपने मर्यादित क्षेत्र में रहते हुए। काल से - (
) पर्यन्त कम से कम दो घड़ी (48 मिनट) । भाव से - राग, द्वेष, विषय व कषाय
से
युक्त सावद्य प्रवृत्ति का त्याग दो करण तीन योग से।
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) सामायिक करूँगा/करूँगी ।
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सामायिक व्रत के अतिचार
1.
मन से बुरा सोचना।
2. कठोर या पापजनक वचन बोलना।
3.
काया से दुष्प्रवृत्ति करना ।
4. सामायिक की आराधना अच्छी तरह से न करना ।
5.
समय पूरा न होने के पहले समाप्त करना।
सामायिक व्रत के नियम
1. संपूर्ण अशुभ और सावद्य क्रियाओं के त्याग रूप सामायिक हमेशा ( ) महिने में ( ) वर्ष में ( ) करूँगा/करूँगी।
2. सामायिक के बत्तीस दोषों का ज्ञान करके, टालने का विवेक
रखूँगा / रखूँगी ।
3. सामायिक में इधर उधर की सांसारिक, राजनैतिक बातें नहीं करूँगा/करूँगी, अखबार नहीं पहूँगा/पढूँगी।
4. सामायिक के लिए उतारे हुए कपड़े, हवा में खूँटी पर लटका कर नहीं रखूँगा / रखूँगी।
5. सामायिक में सैल की घड़ी का संघट्टा नहीं रखूँगा / रखूँगी । घड़ी में चाबी नहीं लगाऊँगा / लगाऊँगी।
लघु
6. सामायिक में खड़े खड़े भूँकना नहीं, कोई वस्तु फेंकना नहीं, शंका आदि खड़े-खड़े नहीं करूँगा ।
7. सामायिक में घर दुकान के कार्य, फोन आदि का संकेत व चाबी वगेरह नहीं दूँगा/दूँगी।
8. सामायिक में लाईट, पंखे, कूलर आदि का उपयोग नहीं करूँगा/ करूँगी।
9. अव्रती के साथ खुले मुँह बात एवं आदर-सम्मान नहीं करूँगा/ करूँगी।
10. सामायिक काल में प्रेस में छापने के लिए लेख तैयार नहीं करूँगा / करूँगी
T
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11. सामायिक में प्रभावना, इनाम आदि स्वीकार नहीं करूँगा/करूँगी। 12. सामायिक व्रत विधि से लूँगा/लूँगी, विधि से पालूँगा/पालूँगी, विकथा,
गप्पे, हँसी मजाक नहीं करूंगा/करूँगी। सामायिक व्रत के आगार
बीमारी, परदेशगमन, पराधीनता, वृद्धावस्था कोई सरकारी या लौकिक कार्य आ जाने पर आगार। किन्तु अन्य समय में पूरी कर
दूंगा/दूंगी। सामायिक व्रत की शिक्षाएँ 1. विषय विकार को उत्पन्न करने वाले उपकरण और वस्त्र नहीं
रखने चाहिए। स्त्री/पुरुष आदि के विषयोत्पादक चित्र हो, ऐसे
मकान में सामायिक नहीं करनी चाहिए। 2. सामायिक बत्तीस दोष टालकर करनी चाहिए। 3. सामायिक करने से श्रावक, श्रमण के समान हो जाता है, इसलिए
श्रावक को बारम्बार सामायिक करनी चाहिए। 4. दो घड़ी समभाव युक्त सामायिक करने वाला श्रावक बानवें करोड़
उनसठ लाख पच्चीस हजार नौ सौ पच्चीस पल्योपम और एक पल्योपम के आठ भाग के तीन भाग सहित देव का आयुष्य बाँधता है।
दसवाँ स्थूल
देशावकाशिक व्रत देशावकाशिक शिक्षाव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से-संवर धर्म की विशेष साधना करने हेतु भोगोपभोग वस्तुओं का एक दिन के लिए परिमाण करूँगा/करूँगी तथा प्रतिदिन चौदह । नियम चितारूँगा/चितारूँगी। क्षेत्र से-एक दिन के लिए निर्धारित क्षेत्र ।
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के अनुसार। काल से-जीवन पर्यन्त (प्रतिवर्ष या प्रतिमाह तक) भाव: से-राग-द्वेषादि कषाय भावों को मंदकर एक करण तीन योग से निरवद्य प्रवृत्ति करूँगा/करूँगी। देशावकाशिक व्रत के अतिचार 1. आणवणप्पओगे-मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मँगाना। 2. पेसवणप्पओगे-किसी अन्य के साथ वस्तु को बाहर भिजवाना। 3. सद्दाणुवाए-शब्द करके सचेत करना। 4. रुवाणुवाए-रूप दिखाकर अपने भाव प्रकट करना। 5. बहिया पुग्गल पक्खेवे-कंकर आदि फैंककर दूसरों को बुलाना।
व्रत का विषय-इस व्रत में दो प्रकार की मर्यादा की जाती है। (1) स्वेच्छा से अहोरात्रि तक छहों दिशाओं की मर्यादा करना। (2) दिशा मर्यादा के साथ द्रव्यादि (उपभोग-परिभोग) की मर्यादा करना। इस व्रत में छठे और सातवें व्रत का संकोच हो जाता है। देशावकाशिक व्रत के नियम | 1. दसवाँ व्रत वर्ष में ( ) करूँगा/करूँगी। 2. पर्व दिनों में यात्रा नहीं करूँगा/करूँगी। 3. चौमासे में विदेश गमन नहीं करूँगा/करूँगी। 4. नित्य चौदह नियम चितारूँगा/चितारूँगी। 5. दसवाँ व्रत लेने के बाद मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तु नहीं
मँगवाऊँगा /मँगवाऊँगी। 6. भोजन करते समय द्रव्यों की निन्दा प्रशंसा नहीं करूँगा/करूँगी। 7. जूठा नहीं छोडूंगा/छोडूंगी। 8. मैं आज दिनांक .................को दिशाओं में निम्न सीमा से
अधिक नहीं जाऊँगा/जाऊँगी। ऊँची ( ) नीची ( ) पूर्व ( ) पश्चिम ( ) उत्तर ( ) दक्षिण ( )।
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एक वर्ष में यथा सुख समाधि ( करूँगा/करूँगी।
10. रात्रि का 4 प्रहर का संवर ( 11. तीन मनोरथ का चिन्तन करूँगा / करूँगी ।
12. प्रतिदिन सागारी संथारा करूँगा /करूँगी ।
आगार
) संवर जीवन पर्यंत तक
) करूँगा/करूँगी।
असह्य बीमारी, वृद्धावस्था, यात्रा इसी प्रकार कोई लौकिक कार्य हो तो आगार है।
देशावकाशिक व्रत की शिक्षाएँ
1. संपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन
2. सर्वथा हरी का त्याग 3. सर्वथा कच्चे पानी का त्याग
4. चौविहार का पालन
5. सर्वथा सचित्त का त्याग
इन पाँचों का पालन कर सके तो बहुत उत्तम, नहीं तो इनमें से हर एक नियम का प्रतिदिन पालन करना चाहिए ।
अनादि काल से परवशता के कारण विविध पदार्थों का भोग उपभोग किया है। अब अपनी इच्छाओं को वश में कर सातवें व्रत में मर्यादा की है। हम संकल्प करें तो उससे भी कम हमारा काम चल सकता है। अतः एक अहोरात्र पर्यन्त द्रव्य क्षेत्र की मर्यादा करके आत्मिक सुख का अनुभव करें।
ग्यारहवाँ स्थूल
पौषध शिक्षाव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से - समकित सहित चारित्र गुण की विशेष पुष्टि करने तथा स्थिरता बढ़ाने के लिए मैं उपवास सहित प्रतिपूर्ण पौषध व्रत की
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प्रतिपूर्ण पौषधव्रत
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अहोरात्रि पर्यन्त साधना करूँगा/करूँगी। क्षेत्र से-अपनी मर्यादा अनुसार, जिस क्षेत्र में निवास करूँ। काल से-जीवन पर्यन्त तक धारणा प्रमाणे। भाव से-क्षयोपशम भावपूर्वक दो करण तीन योग से सावद्य परिणामों का त्याग करता/करती हूँ। पौषध व्रत के अतिचार 1. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय सेज्जासंथारए-शय्या संथारा का
प्रतिलेखन न किया हो या अच्छी तरह न किया हो। 2. अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय सेज्जा संथारए-शय्या संथारा पूँजा न
हो या अच्छी तरह से न पूँजा हो। 3. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि-लघुनीत और
बड़ी नीत परठने की जगह का प्रतिलेखन न किया हो या अच्छी
तरह न किया हो। 4. अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय उच्चार पासवण भूमि-परठने की भूमि
पूँजी न हो या अच्छी तरह न पूँजी हो। 5. पोसहस्स सम्म अणणुपालणया-पौषध व्रत का अच्छी तरह पालन
नहीं किया हो। पौषध व्रत के नियम 1. महिने में अष्टमी, चतुर्दशी, पक्खी एवं पर्व के दिनों में पौषध
( ) करूँगा/करूँगी। 2. चौमासी, महावीर जयंती, पर्युषण, संवत्सरी को पौषध (
करूँगा/करूँगी। 3. अष्ट प्रहर पौषध प्रतिवर्ष ( ) संख्या, प्रतिमास (
करूँगा/करूँगी। 4. चार/पाँच प्रहर पौषध प्रतिवर्ष ( ) प्रतिमास ( )
करूँगा/करूँगी।
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करूगा/
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15. उपवास प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी।
6. आयंबिल प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। 7. नीवी प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। 8. एकासन प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। 9. पोरसी प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। 10. एकलठाणा प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। 11. प्रतिक्रमण प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। 12. एक वर्ष में शक्ति के अनुसार प्रतिपूर्ण पौषध ( ) और दया
( ) करूँगा/करूँगी। किसी विशेष कारण से पौषध न बन ___ सके तो एक पौषध की 51 सामायिक करूँगा/करूँगी। 13. रात्रि संवर प्रतिमास ( ) प्रतिवर्ष ( ) करूँगा/करूँगी। पौषध व्रत के आगार ___ बीमारी, यात्रा, वृद्धावस्था, सरकारी या लौकिक कारणों से पौषध नहीं हो सका तो 51 सामायिक या 1 बेला अथवा आठ दिन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा/करूँगी। पौषध की शिक्षाएँ और फल 1. कृष्णपक्ष (बदी) में द्वितीय, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी
और अमावस्या ये छः दिन और इसी तरह शुक्ल पक्ष (सुदी) में पूर्णिमा तक छः दिन, इस तरह बारह तिथियों के दिन शक्ति अनुसार उपवास, आयंबिल, नीवी, एकाशन, पोरसी, नवकारसी या
अभिग्रहादि रूप कोई भी नियम का पालन करना चाहिए। 2. पौषध अवस्था में जैसे बने वैसे आत्मा को धर्मध्यान से पुष्ट करना
चाहिए। 3. वस्त्रादि ऐसे अल्पमूल्य के और सादे रहने चाहिये कि जिससे खुद को o ममत्व (मूच्छी) पैदा न हो और देखने वाले को भी राग पैदा न हो।
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14. मन, वचन, काय के शुभाशुभ सर्व व्यापारों से निवृत्ति को गुप्ति
कहते हैं और शुभ व्यापार में प्रवृत्ति को समिति कहते हैं, समिति पाँच और गुप्ति तीन-अष्ट प्रवचन माता की आराधना पौषध व्रत
में विशेष करनी चाहिए। 5. अष्ट प्रवचन माता की आराधना से संवर-आते हुए नये अशुभ
कर्मों का रुक जाना, और निर्जरा पुराने बँधे हुए कर्मों का निर्जरणजीर्ण होकर खिर जाना, ये दोनों प्रवचन माता की आराधना से होते हैं और उसकी पूर्ण आराधना पौषध अवस्था में होती है। क्योंकि उस वक्त पौषध अवस्था में होने से सर्वविरतिचारित्री के प्रायः तुल्य है, इसलिए जैसे बने वैसे आराधना करनी चाहिए। पौषध के विषय में बहुश्रुत ग्रन्थकारों ने फरमाया है कि एक प्रतिपूर्ण पौषध करने से करोड़ों वर्षों का नरक का अशुभ कर्म जो पहले बँधा
हुआ है, कट जाता है। 7. प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् प्रकार पालन करने से आते हुए नये
अशुभ कर्मों का संवर होता है, जिससे आत्मा भारी होकर अधोगति का भागी नहीं बनता और इसी पौषध व्रत के पालन से पुण्यानुबंधी पुण्य का आश्रव होता है। ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि पौषध से सत्ताईस सौ सतत्तर करोड़, सतत्तर लाख सतत्तर हजार सात सौ सतत्तर इतने पल्योपम और एक पल्य के नव भागों में से सात भाग परिमाण वाला शुभ देवगति का बंध पड़ता है। इसी तरह और भी कर्मों की शुभ प्रकृतियाँ बँधती हैं और उन कर्मों को देवगति में भोग
कर मनुष्यभव प्राप्त करके मोक्ष का भागी बनता है। 8. पर्व तिथि के दिन तो कषाय, विषय, आहार, विभूषादि का सर्वथा
त्याग कर चढ़ते परिणाम से दृढ़ता और एकाग्रता पूर्वक पौषध
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करना चाहिये, क्योंकि परभव के आयु का बंध प्राय: पर्व तिथि के रोज पड़ता है, जिस पर कि आगामी भव का आधार है। इसलिए जैसे बने वैसे पर्व के दिन सर्वविरति चारित्र तुल्य पौषध का पालन कर मनुष्य जन्म सुधारें, कृतार्थ करें।
बारहवाँ स्थूल
अतिथि संविभाग व्रत
अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत की प्रतिज्ञा
द्रव्य से-मोक्ष मार्ग की आराधना में सर्वोत्कृष्ट निमित्त रूप आचार्य श्री जी, उपाध्याय श्री जी एवं साधुजी / साध्वीजी को संयम निर्वाह हेतु चौदह प्रकार की निर्दोष वस्तुएँ भक्ति पूर्वक अर्पित करूँगा /करूँगी। क्षेत्र से-मर्यादित क्षेत्र में मैं जहाँ भी उपस्थिति रहूँ। काल से - जीवन पर्यन्त । भाव से - राग, द्वेष, पक्षपात, निदान एवं यशप्रतिष्ठा की कामना से रहित निस्वार्थ उल्लसित भावों से प्रतिलाभित होकर धन्य बनूँ । अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार
1. सचित्त निक्खेवणया - अचित्त वस्तु सचित्त पर रखना। 2. सचित्त पिहणया-अचित्त वस्तु सचित्त से ढँकना । 3. कालाइक्कमे - समय बीत जाने पर भावना भाई हो ।
4. परववएसे - स्वयं सूझता होते हुए दूसरों को बहराने को कहना । 5. मच्छरियाए-दान देकर अहंकार करना अथवा मत्सर ईर्ष्या भाव से दान देना
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अतिथि संविभाग व्रत के नियम
1. मैं साधु-साध्वी जी का योग मिलने पर चौदह प्रकार का आहार पानी भक्ति-भाव से, निष्काम - बुद्धि से, आत्म-कल्याण के लिए बहराऊँगा/बहराऊँगी।
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2. गुरु महाराज को अपने घर आते देखकर, सात-आठ कदम सामने
जाऊँगा/जाऊँगी तथा वापस पधारते समय सात-आठ कदम छोड़ने जाऊँगा/जाऊँगी एवं पुनः पधारने की भावना भाऊँगा / भाऊँगी 3. भोजन करते समय अतिथि सत्कार की भावना भाऊँगा / भाऊँगी। 4. कोई वस्तु बहराने के बाद कम हो गई हो तो पुनः नहीं बनाऊँगा / बनाऊँगी।
5. खरीदकर, लाकर नहीं बहराऊँगा / बहराऊँगी और सामने ले जाकर नहीं बहराऊँगा
6. दवाई खरीद कर लानी पड़े तो उसका आगार है, मगर बाद में उसका प्रायश्चित्त लेऊँगा / लेऊँगी ।
7. प्रासुक, निर्दोष आहारादि द्रव्य देने की ही भावना रखूँगा/रखूँगी। 8. यदि बहराते समय असूझता हो जावे तो उस रोज के लिए अपनी प्रिय वस्तु में से एक वस्तु के सेवन का त्याग कर दूँगा / दूँगी ।
9. सुपात्र दान की भावना भाऊँगा / भाऊँगी।
10. साधु-साध्वी को निर्दोष आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि बहराने की भावना भाऊँगा/भाऊँगी।
11. अवसर मिलने पर अपने हाथ से लाभ लूँगा / लूँगी ।
12. हमेशा भोजन के पहले भिक्षा के समय दरवाजा खुला रख कर, सूझता होकर सूझती वस्तु से भावना भायेंगे।
13. धर्म में शिथिलाचारियों की निन्दा, अपमान, ईर्ष्या द्वेष आदि नहीं करूँगा /करूँगी। शिथिलाचारी प्रवृत्तियों में सहयोग व प्रोत्साहन देकर भगवान महावीर का गुनाहगार नहीं बनूँगा / बनूँगी । 14. धर्म के नाम पर आडम्बर होता हो वहाँ चन्दा नहीं दूँगा / दूँगी ।
15. किसी की गलती से घर असूझता हो जाने पर कषाय नहीं करूँगा/ करूँगी, विवेक बढ़ाऊँगा / बढ़ाऊँगी ।
16. साधु-साध्वी को झूठ बोलकर नहीं बहराऊँगा / बहराऊँगी।
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फल
स्थानांग सूत्र के तीसरे स्थान में सूत्र नं. 7 में सदोष दान देने पर अगले जन्म में अल्प आयु का बंध होना बताया है। अर्थात् सदोष दान देने पर अल्प आयु का बंध होता है।
स्थानांग सूत्र के आठवें सूत्र में भक्तिपूर्वक, शुद्ध साधु को निर्दोष सुपात्र दान देने पर, शुभ दीर्घ आयु का बंध होता है तथा अन्य जगह कर्म निर्जरा व तीर्थंकर गोत्रबंध एवं सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण भी बताया है।
आगार
अनिवार्य कारण से, अनुपयोग से, पराधीनता से, नौकरी की वजह से, मालिक की आज्ञा से, दुष्काल, विषम परिस्थिति में एवं गलती से असूझता आहार, बहरा दिया जाय तो आगार, विशेष कारण से, दूसरों को बहराने के लिए कहना पड़े तो आगार ।
अतिथि संविभाग व्रत की शिक्षाएँ
1. श्रावकों को दो प्रहर दिन चढ़े तब तक अपने घर के दरवाजे खुले रखने चाहिए।
2. साधु-साध्वियों को कल्पनीय वस्तुओं को बड़े भक्ति-भाव से सामने उपस्थित करना चाहिए। तथा जो चीज उनके काम आये उसे बहुमान पूर्वक चढ़ते परिणामों से अर्पित करना चाहिए।
3. आहारादि प्रतिलाभते समय असूझता नहीं हो जाय इसका पूरा ख़याल रखना चाहिए ।
4. असूझता, आधाकर्मी, औद्देशिक आहारादि की भावना नहीं भानी चाहिए।
5. निस्वार्थ भाव से, उत्कृष्ट भावों से साधु-साध्वियों को प्रतिलाभ से श्रद्धा दृढ़ होती है, तथा उत्कृष्ट रसायन आने पर तीर्थंकर नाम-गोत्र भी उपार्जन होता है। शुभ दीर्घायुष्य का बंध होता है। बारह व्रत सम्पूर्ण
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चौदह नियम
इहलोक व परलोक दोनों को सुखमय बनाने का एक मात्र साधन ही त्याग व मर्यादा है। जितना त्याग उतनी ही शांति। व्रत-नियम धारण करने से बहुत कम पाप खुला रहता है। जिससे आत्मा के कर्म बंध के अनेक कारण रूक जाते हैं। यदि कल्पना से यह कह दिया जाय कि प्रतिदिन चौदह नियम धारण करने से मेरू जितना पाप टलकर राई जितना पाप खुला रहता है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। 1. सचित्त-खाने पीने में काम में आने वाले सचित्त (जीव सहित) वस्तुओं की जाति, संख्या और हो सके तो वजन का भी परिमाण करें। सचित्त वस्तु का परिचय जैसे-कच्ची हरी तरकारी, फल-फूल अर्थात् संपूर्ण वनस्पति अग्नि पर पूरी सीझे नहीं तब तक सचित्त गिनना। बीज निकाले बिना सभी फलों के पणे सचित्त में गिनना। आम के व गन्ने के रस के सिवाय प्रायः पके फलों का रस निकाल कर रखने व छानने को 15-20 मिनिट नहीं हुआ हो तो भी सचित्त गिनना। यूँगारी हुई वनस्पतियाँ सचित्त है। चावल के सिवाय प्रायः सभी अनाज सचित्त। काजू को छोड़कर सभी मेवे प्रायः सचित्त । काला नमक को छोड़कर सभी नमक सचित्त । पानी को धोवन पानी बनाये दो घड़ी (एक घड़ी=24 मिनट) नहीं हुई है तो सचित्त, जीरा, राई, मेथी, अजवाइन, सौंफ, इलायची के दाने, हरा पान, अखंड बादाम आदि सचित्त किसी भी चीज में नमक जीरा आदि ऊपर से डाले हों तो 24 मिनट तक सचित्त गिनना। सूखी चीज पर नमक, जीरा डाले तो सचित्त ही रहते हैं। (1) पृथ्वीकाय-मिट्टी, मुरड़, खड़ी, गेरू, हिंगलु आदि का अपने
हाथ से आरम्भ करने की मर्यादा। ऊपर से नमक लेने का
त्याग। a (2) अप्काय-पानी प्रतिदिन पीने के लिए ( ), स्नान व गृह कार्य
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के लिए लीटर ( ) अपने हाथ से वापरना, आरम्भ करना। उसकी मर्यादा। तेऊकाय-(अग्नि) प्रतिदिन मेरे और मेरे परिवार के उपयोग में आने वाले आग, इलेक्ट्रिक व सेल से संचालित होने वाले गैस, स्टोव, सिगड़ी, टी.वी., रेडियो, टेपरिकोर्ड, पंखा, फ्रिज, मिक्सी, एयरकूलर, माईक, फोन, दीपक, लालटेन, इस्त्री, हीटर, भट्टी, गैसबत्ती, प्रकाश के ट्यूब, बल्ब आदि बिजली से चलित यंत्र संख्या ( ) के उपरांत नहीं वापरूँगा। वायुकाय-प्रतिदिन छोटे-बड़े पंखे, लिफ्ट, झूला, टेलिफोन कूलर,
ए.सी. अपने हाथ से ( ) बार से अधिक चलाने का त्याग। (5) वनस्पतिकाय-1. कंदमूल खाने का सम्पूर्ण त्याग या महिने में
( ) दिन त्याग। 2. सब्जी संख्या ( ) 3. फल संख्या ( ) 4. फूल संख्या ( ) के उपरांत त्याग । स्पर्श करने व
खरीदने का आगार। 2. द्रव्य-जितने नाम तथा जितने स्वाद पलटे उतने ही अलग
अलग द्रव्य जानना। जैसे-रोटी, पूड़ी, खाखरे, पानी, गुड़ आदि जितनी वस्तु खाने-पीने में आवे उसकी गिनती तथा वजन का परिमाण करें। विगय-विकारक वस्तु जैसे घी, तेल, दूध, दही, शक्कर (गुड़) तथा तली हुई वस्तु में से कम से कम एक का त्याग करना। एक का भी त्याग न हो सके तो सबकी गिनती तथा वजन की मर्यादा (परिणाम) करें। महाविगय-मक्खन, शहद का त्याग करना। तथा मद्य एवं मांस इन दो महाविगयों का श्रावक को सर्वथा त्याग करना चाहिए।
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4. पन्नी-पाँव में पहनने के जूते, चप्पल, सेंडल, खड़ाऊ, स्लीपर,
बूट (जाति-चमड़े, रबर आदि), मौजे आदि की मर्यादा करें। गुम
हो जाने पर दूसरी जोड़ी पहननी पड़े तो आगार। 5. तम्बोल-मुखवास की चीजें जैसे सुपारी, इलायची, पान, सौंफ,
चूर्ण, खटाई, गोली इत्यादि जाति या वजन की मर्यादा करें। 6. वस्त्र-पहनने एवं ओढ़ने के वस्त्र और काम में लेने के वस्त्रों के
नग की गिनती करना। जैसे-शर्ट, पेण्ट, धोती, कोट आदि तथा बिछौना, ओढ़ने की चादर, शाल आदि। कुसुम-शौक से सूंघने के पदार्थों की मर्यादा करना। जैसे-इत्र, सेण्ट, तेल, फूल आदि। किसी चीज की परीक्षा हेतु सूंघे जाये जैसे-घी-तेल, फल आदि उसका आगार। भूल या दवा का
आगार। 8. वाहन-सभी प्रकार की सवारी की मर्यादा करना। जैसे-हाथी,
ऊँट, घोड़े मोटर, रेल, ऑटो, स्कूटर, कार, नाव, हवाई जहाज
आदि। 9. शयन-सोने के लिए पलंग, खाट, कुर्सी, टेबल, स्टूल, सोफा,
पाट, बाजोट आदि फर्नीचर एवं ओढ़ने के तथा बिछाने के गद्दी, तकिये आदि नग में मर्यादा करना। जिसकी गिनती सम्भव नहीं हो
ऐसे प्रसंगों का आगार। 10. विलेपन-जितनी भी लेप शृङ्गार की चीजें शरीर पर लगाई जावे
उनकी जाति की संख्या में मर्यादा करना। जैसे-तेल, साबून, चंदन, केशर, स्नो, क्रीम आदि। बिना उपयोग, भूल या दवा का
आगार। 11. ब्रह्मचर्य-मैथुन सेवन का त्याग यानी शीलव्रत का पालन करना।
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जैसे-जीवन पर्यन्त नववाड़ सहित अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना। दिन में मैथुन सेवन का त्याग करें। रात की मर्यादा करें। पाँचों तिथियों और पर्व के दिनों में मैथुन सेवन का सर्वथा त्याग करें ।
12. दिशि-अपने स्थान से चारों दिशाओं में स्वाभाविक कितने किलोमीटर से आगे आवागमन नहीं करना उसकी मर्यादा करें। ऊँची दिशा में पहाड़ पर अथवा तीन चार मंजिल के मकान पर जाना हो तो उसकी मर्यादा करे। नीची दिशा भोयरें आदि में जाना हो तो उसकी मर्यादा करे ।
विशेष परिस्थिती में पाँच नवकार मंत्र के आगार से मर्यादा करना । तार, पत्र, टेलिफोन, स्वयं करने की मर्यादा करें। भारत वर्ष या अमुक-अमुक देश।
13. स्नान-पूरे शरीर पर पानी डालकर स्नान करना ‘बड़ी स्नान ́ है। पूरे शरीर पर गीले कपड़े से पोंछना 'मध्यम' स्नान है और हाथ पाँव, मुँह धोना 'छोटी स्नान' है। इसकी मर्यादा करना तथा स्नान में कुल पानी की मर्यादा लीटर अथवा बाल्टी । तालाब, नल, वर्षा या बिना माप के पानी का त्याग करना। लोकाचार का आगार ।
14. भत्त-दिन में कुल कितनी बार खाना, उसकी मर्यादा करना, भोजन करने में जितनी वस्तु आवे उन सभी के वजन का समुच्चय परिमाण करें। पीने के पानी का भी परिमाण करें।
श्रावक के तीन मनोरथ
आरंभ परिग्रह तज करि, पंच महाव्रत धार ।
अंत समय आलोयणा, करूँ संथारो सार ।।
1. पहले मनोरथ में श्रावक जी यह भावना भावे कि - " कब वह शुभ समय प्राप्त होगा, जब मैं अल्प या अधिक परिग्रह का त्याग करूँगा ।
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छह काया का आरंभ और नौ प्रकार का बाह्य तथा चौदह प्रकार का आभ्यन्तर परिग्रह का सर्वथा प्रकार से त्याग करूँगा, वह दिन मेरा धन्य होगा ।"
2. दूसरे मनोरथ में श्रावक जी यह चिन्तन करे कि - "कब वह शुभ समय प्राप्त होगा, जब मैं गृहस्थावास को छोड़कर मुण्डित होकर प्रव्रज्या (संयम) अंगीकार करूँगा, अर्थात पांच महाव्रत, पाँच समिति तीन गुप्ति, दस यति धर्म और सत्रह प्रकार के संयम का पालन करूँगा, वह दिन मेरा धन्य होगा ।"
3. तीसरे मनोरथ में श्रावक जी यह चिन्तन करे कि - "कब वह शुभ समय प्राप्त होगा, जब मैं अन्त समय में संलेखना संथारा करके आहार पानी का त्याग कर पण्डित मरण अंगीकार कर जीवनमरण की इच्छा न करता हुआ अंतिम समय सम्पूर्ण पापों का त्याग कर, आजीवन अनशन स्वीकार कर आत्म-भाव में लीन बनूँगा । वह दिन मेरा धन्य होगा ।"
बीमा
1. घर, दुकान, संसार प्रपंच का त्याग (
(व्यापार बंद, संसार हेतु मर गया, धर्म हेतु जिंदा हूँ) 2. 4,3,2, या 1 खंध का पालन (
) उम्र के बाद। (1. हरी - लिलोती का त्याग 2. कच्चे पानी का त्याग 3. रात्रि में चौविहार त्याग 4. कुशील (मैथुन) सेवन का त्याग।) 3. दीक्षा लेंगे ( ) उम्र पश्चात । 60 साल की वय से पहले संयम उदय में न आवे वहाँ तक ( ) त्याग।
4. संयम की प्रेरणा करेंगे (स्वयं भी लेने की भावना रखेंगे) घर परिवार में दीक्षा लेने वाले को अंतराय नहीं देंगे। भाव आगे बढ़ायेंगे। परीक्षा ले सकते हैं। अपनी प्रेरणा से किसी को दीक्षा दिलवाने का प्रयत्न करेंगे अन्यथा खुद लेंगे ।
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) तत्पश्चात् निवृत्ति
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________________ सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के विविध सेवा सोपान जिनवाणी हिन्दी मासिक पत्रिका का प्रकाशन जैन इतिहास, आगम एवं अन्य सत्साहित्य का प्रकाशन आचार्य हस्ती आध्यात्मिक शिक्षण संस्थान अखिल भारतीय श्री जैन विद्वत् परिषद का संचालन वीतराग ध्यान साधना केन्द्र का संचालन उक्त प्रवृत्तियों में दानी एवं प्रबुद्ध चिन्तकों के रचनात्मक सक्रिय सहयोग की अपेक्षा है। सम्पर्क सूत्र मंत्री-सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल दुकान नं. 182 के ऊपर, बापू बाजार जयपुर-302003 (राजस्थान) दूरभाष : 0141-2575997, 2571163 फैक्स : 0141-2570753 ई-मेल : sgpmandal@yahoo.in