Book Title: Saraswatollas Kavya Vishe
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सारस्वतोल्लासकाव्य" विशे - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि मात्र १५३ पद्य-प्रमाण आ लघुकाव्य, मध्यकालीन संस्कृत काव्यसाहित्यमां एक अनोखी भात पाडे तेवं मजानुं काव्य छे. आना कर्ताए पोतानुं नाम अज्ञात राख्यं छे, अने पोताना गुरुनु नाम (पद्य १५३) निर्देश्युं छे. पोताना गच्छ के गुरुपरंपरानो पण तेमणे क्यांय उल्लेख कर्यो नथी. आ काव्यनी मने मळेली एक मात्र प्रतिना आधारे आ संपादन थयुं छे, अने तेथी आमां केटलीक शुद्धिओ थवी आवश्यक लागे छे, जे बीजी प्रति मळे तो ज संभवित थाय. पांच पत्रोनी आ प्रति, अनुमानतः १६मा शतकमां लखायेली जणाय छे. काव्यनो विषय : श्रीनन्दिरत्न नामना साधुवरना अनामी शिष्यसाधुवर्ये, पोतानी जडताने दूर करवा माटे करेली सारस्वत-साधनानुं हृद्य अने व्यमय वर्णन-ए आ काव्यनो विषय छे. कर्ता पोते ज काव्यना जाणे के नायक छे, अने ते पोताना अनुभवतुं बयान आपतां आपतां केटलांक मस्त वर्णन पण आपे छे; आ ज आ काव्यनी खूबी पण छे. कर्ता पोताने 'कश्चित् जनः' तरीके (पद्य १) निर्देशे छे अने पछी ज्यारे ज्यारे पोताने रजू करवानो प्रसंग आव्यो त्यारे त्यारे 'सः' पदथी पोताने ओळखावे छे. प्रथम पद्यमां ज कर्ता जणावे छे के-"पोतानी जडताथी लज्जित हैये, एक मनुष्य, श्रीगुरुनी शुश्रूषा करवापूर्वक, सारभूत एवा सारस्वत मंत्रने प्राप्त करीने, रात-दिन तेना जापमां मची पड्यो हतो." . आ पछीनां नवेक पद्योमा जापविषयक स्थिति-पद्धतिनुं मोघम वर्णन छ, जेमां पद्मासने बेसवानी, शौच करवानी, श्वेत वस्त्र-परिधाननी, स्फटिकनी माला वडे जापनी नोंध मळे छे. जापनो पंदरमो दिन दीपावली दिन (११) होवानुं जणावीने, पोतानो आ जाप संभवतः १५ दिननो होवानुं कर्ताए आडकतरुं सूचन आप्युं छे. ए पछीनां पद्योमा दीपोत्सवी पर्व- अने तेमां थता लोकोना व्यवहारोनुं अत्यंत रोचक-रसप्रद वर्णन थयुं छे. आ वर्णन कर्ताने नि:शंक सुसज्ज कविनो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५.2 दरज्जो बक्षे तेवू थयुं छे. कविने शृंगार-रसनो लगार पण छोछ नथी, पद्य ५७-५८मां कर्ता बहु महत्त्वनी वात नोंधे छे. दीवालीनी रात्रिना अंत्य प्रहर दरम्यान, पोताने सारस्वत मंत्रनो एक लाख संख्यानो जाप परिपूर्ण थयो ते क्षणे, पोते क्षणभर माटे तन्द्रामा खोवाई गया हता; अने ते ज क्षणे तेमने माता शारदानां साक्षात् दर्शन सांपड्यां. कवि-साधके आ साक्षात्कार केटली बधी सूक्ष्मेक्षिकाथी को हशे तेनो ख्याल तो ते पछीना ५९ थी १०६ पद्योमा तेमणे करेलां देवी-विग्रह-वर्णन उपरथी मळी शके छे. आ वर्णनमां पण स्तन-वर्णन करतां कविए शृंगाररस अने कल्पनाशक्तिनो भारी ठाठ बनाव्यो छे. परंतु प्रथम दृष्टिए स्थूल कक्षानुं लागतुं आ वर्णन, सूक्ष्म तंत्र-दृष्टि धरावता अभ्यासी माटे एवं ज रहस्यवादी अने तात्त्विक होवू जोईए, एवं सतत लाग्या करे छे. तज्ज्ञो आ वर्णनना मर्म उघाडी आपे तेवी लालच अवश्य व्यक्त करूं. आ दृष्टिए पद्य ७८, ८७, ८९ ध्यानाई जणायां छे. १०३-४-५-६मा क्रमशः देवीना हाथोमांनां पुस्तक, माला, कमंडलु अने वाहन एवा हंसनुं वर्णन छे. १०७मां तन्द्राधीन साधके करेल देवीना पूजननुं वर्णन छे. १०८ थी ११३मां देवी, साधक द्वारा साक्षात्कार-क्षणे थयेलुं स्तवन छे, जेमां देवीने कारकल्प-रूपे (१०८) वर्णवीने ऎकारने पण (११२) स्मरण करेल छे. ११४ थी ११७ वळी महत्त्वपूर्ण पद्यो छे. तेमां, साधकने देवीनो आदेश मळे छे के "ऊठ, तारुं मों खोल", अने साधके ते प्रमाणे करतां ज, पोताना वैडूर्यमय कमण्डलुमाथी तेना मोमां अमृतनी धारा वहावी, अने तेनां बिंदु साधकनी जीभ पर लागतां ज पांच-छ वार बीजमंत्रनो उच्चार करावीने (के करीने ?) देवी अंतर्धान थई गयां एवं वर्णन छे. पोतानी गूढ अने गोपनीय विरल अनुभूतिनुं आवं विशद वर्णन करनार साधक कविने आपणे साधुवादना कया शब्द वडे नवाजीशुं ? ___ पद्य ११८मां साधकनी स्थूल चेतनानुं जागरण अने मातानां दर्शन पछीना वियोगनी खिन्नतानु वर्णन छे. ११९ थी प्रातः काल-सूर्योदय- वर्णन शरु थाय छे, जेमां दहीनां वलोणां (१२३)नुं तथा कुकडानी बांग (१२४)नुं पण वर्णन छे. १२६भां श्रीवीरनिर्वाणपर्वरात्रिनो उल्लेख, कर्ता जैन साधु होवानुं सूचवी जाय छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ • 3 १३० मां कविए नवोदित सूर्यनी साथे नूतन वर्षनी लोक-स्थितिने उत्प्रेक्षात्मक रीते सरखावीने सरस अर्थान्तरन्यास (लोकोक्ति) प्रस्तुत कर्यो छे : यातानुयाते कुशलो हि लोकः - अर्थात् लोको तो अनुकरण करवामां निष्णात ज होय ! तो १३१मां वळी, नूतन वर्षारंभे मोंमां तांबूल (पानबीडां )नाखीने वर्तता लोकोने नोंधीने कहूं के आ दिवसे जो मों लाल-लालीवाळु होय, तो एर्नु आखू वरस खुशहाल जाय ! कवि वास्तवदर्शन अद्भुत छे. पछीनां पद्योमां पण नूतनवर्षनी लोक-स्थिति ज निरूपाई छे. १३९मां कवि, पोते उन्निद्र अने हृदयमां बीजमंत्र ज अनुभवी रह्या होवानी पोतानी ते दिवसनी स्थिति निरूपे छे. १४०मां पण, निद्रा बीजजापने कारणे रूसणे गई होवा विधान काव्यमय रीते थयुं छे. १४५ थी १४९मां मंत्र- रहस्यमढ्युं वर्णन थयुं छे. १५१-५२मां सारस्वत जाप, तेना प्रभावे थयेल स्वप्न साक्षात्कार, अने तेना प्रतापे ज पोते आ काव्य रची शक्या होवानी केफियत आपणने संभळाय छे. १५२मां पोताना गुरु 'नन्दिरत्न'नो नामनिर्देश कर्ताए कर्यो छे. ___काव्यमा प्रयुक्त केटलाक तळपदा लागता शब्दो पण नोंधपात्र छ : लम्बा (लांबी) (१४); सरयः (सर-सरवाणी ?)(१४); करर्दिकुला (१५) (हाथना ठोसा?); टंकावली (चांदलां ?)(४१); मेराज्यक (मेरायां) (४५) इत्यादि. कविओ अने साधको-बन्नेने रस पडे तेवू आ काव्य यथामति शोधीने अत्रे पेश करतां आनंद थाय छे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीभारत्यै नमः ॥ ॥ सारस्वतोल्लास-काव्यम् ॥ कश्चिज्जनो लज्जितहज्जडिम्ना शुश्रूषित श्रीगुरुपारिजात: । सारस्वतं सारमवाप्य मन्त्रं नक्तंदिवाऽजायत जञ्जपूकः पद्मासनं पूरयति स्म जापं कुर्वन्नपापं यदसौ सशौचः । मेनेऽखिलैरस्खलितप्रसर्प ज्जाड्यारिबन्धाय स नागपाश: गोक्षीरधाराधवलं वसानः स (सु) कोमलं वस्त्रयुगं बभासे । जापादुपागत्वरशारदायाः पुरस्सराङ्गप्रभयेव लिप्त: तस्याऽतिलोलावपि लोचनाली नालीकतुल्यं कविमातृवक्त्रम् । उद्दामसौन्दर्यमरन्दलोभा ज्जाने जहीतः स्म न जातु जापे भाति स्म तस्य स्फटिकाक्षमाला माला नु कल्पद्रुमकुड्मलानाम् । त्रपामि साक्षाद्यदि जातु देवीं तत्पूजयामीति करे गृहीता तेनाऽङ्गुली पत्रलपाणिरक्ताशोकेऽक्षसूत्रस्य मिषेण बद्धा । श्रीशारदा तुष्टिवशागमिष्यद्विद्याङ्गनान्दोलनकेलिदोला ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ 11411 ॥६॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||७|| ॥८॥ ॥९॥ अनुसंधान-१५.5 वाग्वादिनी सन्निधिवत्तितत्तद्विद्याव्रजादेकतरां दिधीर्षुः ।। मन्येऽक्षमालाकमनीयपाणिः पाशं गताशङ्कमुपाददे सः गम्भीरनाभीनिभकूपकूले तस्य व्यलोकि स्रवदुस्रवारिः । अङ्गष्टपुष्टाङ्गवृषादवाप्तभ्रान्तिर्घटीयन्त्र इवाऽक्षसूत्रम् मेरु त्रिरत्नोज्ज्वलमेखलं नाऽस्खलज्जपन्नप्युदलङ्घताऽसौ । विद्याधरेशा अपि यं न शक्ताः स्युलघितुं किं तमनासविद्यः हृत्पद्मतोऽतिप्रणिधानमुद्राबन्धेन निर्यातुमपारयन्त्या । तस्य प्रसर्पज्जपहुङ्कृतीनां दम्भादरावि श्रुतदेव्यलिन्या प्राप्तोऽथ सारस्वतमन्त्रजापारम्भाद्दिनः पञ्चदशोऽपशोकः । प्रामुमुदन् तत्र मनांसि नृणां दीपालिकावर्षतटाकपालिः सम्पूर्णचूर्णद्रवसान्द्ररेखा - प्रसाधिता यत्र विभान्ति सौधाः । गोक्षीरधारोज्ज्वललो[ल]लक्ष्मीलीलाकटाक्षावलिशालिनः किम् आशङ्क्यते यत्र विलोक्य लोकैलिप्ताऽऽलयप्राङ्गणचूर्णरेखाः । अर्केण कोपात्करकर्त्तरीभिः ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५.6 ||१४|| कृताच्युतेयं किमु कौमुदीति ||१३|| धन्यात्मनां घ(धा)मसु चूर्णरेखाः शुभ्रा न बाभ्राजति यत्र लम्बाः । सोत्कण्ठसत्कर्मजपुण्यसक्ताः प्रत्यक्षलक्ष्याः सरयो वहन्ति पद्मावतां सद्मसु यत्र जाता: खण्डाज्यवल्लड्डुकचण्डगोलाः । बाढं कुलस्त्रीकरढिंकुलातः प्रातः पतन्तः क्षुदर क्षिपन्ति ॥१५॥ सन्त्येव गौराः करलालनीयाः स्थूला अशैथिल्यकथास्तथापि । यल्लड्डुकेभ्यः सुदृशां कुतश्चिद्धीनाः कुचाः कालमुखास्ततः किम् ।।१६।। स्याद्यत्रजानां सुकुमारिकाणां स्निग्धात्मनामद्भुतमाधुरीणाम् । तुल्यः परं वाडवतप्तसर्पिः - सिन्धोः सुधांशोस्तलितः सबिम्बः ॥१७॥ सूक्ष्मोज्ज्वलस्वादुससौकुमार्याः केषां न हर्षाय यदीयसेवाः । कि सोमभासोऽन्यमहो सहिष्णुद्यो: रत्नरुत्कर्तरिकाविलूनाः (?) ॥१८॥ दधिस्थिरस्थूलदलास्तनीयः सेवा समन्तो हु(??)त तन्तुपूगाः । सारस्ययुग्मोदकपुष्पगुच्छाः श्रीवल्लयो यत्र जयन्ति शुक्लाः यत्रेश्वराणां तपनीयपाशाः प्रेडन्ति वर्णोत्तमखेलनीषु । किञ्जल्कपिङ्गानि किमप्रफुल्ल ॥१९॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ .7 ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ प्रसूनबुद्ध्या मिथुनान्यलीनाम् द्यूतेन दन्ता अपि भूपतीनांये पातितास्तैश्चिरसगृहीतैः । कपर्दिकानां कपटेन यस्यां कुन्दावदातैः कितवा रमन्ते वाल्लभ्यतो हिङ्गुल-यूषयन्त्रन्यासच्छलाद्यत्र न मन्त्रविक्त:(त्कः ?) । कुर्यात् कुहूकुंभकुचाकपोलश्रीकारिणी: कुङ्कुमपत्रभङ्गीः तस्याऽभवद्वासरवासवस्याऽवसानसन्ध्यावसरः सुमेध्यः । ध्यानादमुं क्षोभयितुं नु रागैरुत्पादितव्यापकदावशङ्कः ॥२३॥ तत्राऽरुणीभूतसमस्तभावे हारोऽपि गुञ्जाफलगुम्फकल्पः । काली मुखालीमविलोक्य कालक्षेपादुपालक्षि चलेक्षणाभिः ॥२४॥ व्योम व्यरोचिष्ट विचित्रचञ्चदीधित्यदभ्रस्फुरदभ्रसालम् । वाग्देवताविर्भवनोत्सवाय प्रत्यग्रपट्टांशुकमण्डपः किम् ? ॥२५।। दीपादिषु स्वं क्षिपताऽऽतपस्वं पलायितुं वेद्मि दिनेन मुक्तः । राज्ञो दलं वीक्षितुमायदाभादस्ताचले शैखरिकः खरांशुः ॥२६॥ विष्णुं जगुः पर्वतमस्तकेऽज्ञास्तेनाऽस्तभूमीभृतिभानुदम्भात् । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५.8 दैत्यादृतध्वान्तचमूदयेऽचिश्चकारुणं चक्रमभूतदीयम् ॥२७॥ रेजेऽर्कबिम्बि(म्बं ?) वरुणेभकुम्भः सिन्दूरपूरच्छुरणारुणः किम् ? ।. किं तद्वधूकुङ्कुमितास्यपद्मच्छायारुणः स्फाटिकदर्पणो वा ॥२८॥ श्रीकण्ठकान्तामगमं न गङ्गामित्यात्मशुद्ध्यै पुरतः सुराणाम् । उत्तुङ्गकल्लोलकरेऽर्कगोलं दधे क्रमादम्बुधिरग्निवर्णम् ॥२९॥ पत्युः प्रतीच्यास्तुरगेभग:रत्नैर्भूतं मन्दिरमम्बुराशिः ।। तस्योपरिष्टादहिमांशुबिम्बं (?) शिश्राय शोणोपलकुम्भशोभाम् अम्भोल्पमग्नार्कमिषेण लक्ष्म्याः प्रमीलितायाः प्रियसिन्धुतल्पे । तुङ्गः स्तनः पीडनपाटल: कि जातोऽनिलोद्भूतदुकूलदृश्यः ॥३१॥ मन्ये तमोभिः कृतरथ्यरङ्गतुरङ्गरूपै रविरात्मवैरी । नीत्वोपकण्ठं धिगपाति पापैः पाथोधिमध्ये तदनु प्रसस्ने ॥३२॥ काली तमःकञ्चलिकां सतारा-- मुक्तामदृश्येन्दु-तरण्युरोजाम् । सन्ध्यानुरागोरगवल्लिरङ्गाच्चङ्गा मुखे(s?) वस्त कुहूकुलस्त्रीः॥३३॥ ॥३०॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६|| अनुसंधान-१५.9 सर्वप्रकाशप्रवणार्कदीपोत्सर्पच्छविच्छद्मशिखान्तसूतैः । नभःशरावक्षरितैरभारि क्षोणीतमः कज्जलचूर्णपुजैः ध्वान्तावलिश्यामलितां विचित्राकाराञ्चितोद्रुप्रकराभिरामाम् । दीपोत्सवे रात्रिवधूरपि यां चक्रे विलिप्योज्ज्वलमण्डनां नुः कोपेन जञ्चाल तरङ्गिरागा नूनं वनस्था ततिरौषधीनाम् । प्राणेश्वरः शीतकरोऽकरोद्यना(न्न)मां करस्पर्शनतोऽपि तोषं स्मेरं मरन्दामृतमिन्दिरायाः सद्माल्परोलम्बकलङ्कपङ्कम् । अन्तः सरस्तारकपत्यपत्यव्रातोपमां कौमुदमाप वृन्दम् उच्चस्तरादम्बरतोऽस्तशैले पातेन तेजो यदभाजि भानोः । दीपालयस्तच्छकलायमानाः प्रत्यालयं दिद्युतिरे तदानीम् लोकेन हेमन्तसमन्तशीतावपीतसीतङ्कतया हुताशः । दा(दी)पावलीदीपकदम्बदम्भादूपे तमःसन्ततिकृष्णभूमौ मा संविगृह्येन्दुरहोदुरन्तैस्तत्राऽह्नि जिग्ये तिमिरैस्ततोऽसौ । नष्टो गृहीतोडुदलोऽथ दीप ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०॥ ॥४२॥ ॥४३॥ अनुसंधान-१५ • 10 व्याजादभूच्चम्पकपुष्पवृष्टिः नारीनिरीक्ष्याभरणाद्भुताङ्गीः शृङ्गज्वलद्दीपकपक्तिभङ्ग्या । टङ्कावलीस्तत्र महे महेभ्यगेहश्रियोऽप्याऽऽमुमुचुः स्वभाले . ॥४१॥ दीपोत्सवे नूनमगादलक्ष्मीलक्ष्मीश्च वेश्मस्वकृतप्रवेशम् तस्मादलम्भ्यन्त मिथोऽबलाभि-- द्दीपच्छलात्काञ्चनकन्दलानि अग्रे निजस्वामिजहासहर्षादावासलक्ष्मीरिति वीक्ष्यते स्म । तद्द्वारवक्त्रे गृहरत्नराजी ताम्बूलरङ्गारुणदन्तपङ्क्तिः ध्वान्तद्विषा च्छिन्नरुचोऽरयो नश्चण्डांशवोऽमी इति शङ्कया किम् । रोषारुणास्तेष्वधिरुह्य तारास्तस्थुः पृथुस्थालगदोपदम्भात् ॥४४|| स्वस्वालयेभ्यो निरयुः कुमारा मेराज्यकै राजितपाणिपद्माः । कर्तुं नु चामीकरकेतकैस्तज्जापाय दर्भासनजा सपर्याम् (?) ॥४५॥ निर्माप्य में रात्रिकदीपिकाः स श्रीपर्वराट् पुम्भिरलभ्यमानम् । अशूशुधद्धेश्मसु शोकशत्रु शङ्के सपत्राकरणाय रात्रौ ॥४६॥ आह्लादलक्ष्मी बहुलामवाप्य केऽप्यग(ग्रोधामान्तर तिहमांतीम् (?) ||४४|| Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४८॥ अनुसंधान-१५ • 11 धीरा निधीकर्तुमिवौषधीच्छाधीनाः खनन्ति स्म वनावनीषु ॥४७॥ दीपावलीपावनरात्रिकाएँ निर्माय मंगल्यमथो नृनार्यः । दीपद्युतादर्पकदोःप्रतापाद(?) दान्तोदरं तल्पनिकेतमापुः दीपस्तदीयामलदीप्तिदीव्यच्चीरावृताङ्ग्यास्तिलकं किलैकम् । देहल्यनुल्लङ्घनलालसायाः सत्याः श्रियोः दर्शि(श्रियोऽदर्शि) गृहोदरेऽपि ॥४९।। सद्वर्णपादं गुणगुम्फयोग्यं सज्जं कलावज्जनितं युवानः । भेक्षुस्तथा तल्पममा वधूभिः (?) काव्यं यथाऽलंकृतिभिः सहार्थाः ॥५०॥ गाढोपगूढस्तनपीडनादिक्रीडाः प्रदीपोऽत्र वधू-धवानाम् । पश्यन्मरुल्लोलशिखोऽन्तरन्तः शङ्के शिरोऽन्दोलयति स्म रागी ॥५१॥ पुष्पायुधायुःपरिवर्द्धकं यद्यद्यौवनद्रोः कुसुमायमानम् । यद्रागवार्धरमृतोपमं तत् किं नो युवानो विदधुर्वधूषु क्रमेण जांता यदि घूर्णनेभ्यो निर्णीतनिद्रागतयः प्रदीपाः । किं तर्हि वाच्यं रतकेलिखिन्नोऽन्तरङ्गतारुण्यवधूवराणाम् ॥५३॥ संभोगयुद्धेऽङ्गुलिकुन्तकोटि ॥५२॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १५ • 12 भ्रूचाप दृक्तोमरघोरघातैः । प्राप्ता निरैक्षुः किमु सान्द्रनिद्रादम्भादनुत्थां मिथुनानि मूर्च्छाम् जालाध्वना चक्षुरगोचराङ्गः प्रविश्य सौधेषु समीरचौरः । जरीहरीति स्म शयालुदम्पत्यङ्गश्रमाम्भःकणमौक्तिकानि उत्थाय रात्रौ बहुधान्यशुद्धिसिद्धयोः श्रयन्तादपि ( ? ) हेतुभावम् । स्वस्वौकसः सूर्यकदारुहस्तौ नार्योऽचकर्षन्नहितागुणज्ञाः तस्यां निशायामथ बालिशानां धुर्यः स तुर्यप्रहरान्त्यभागे । सञ्जातसारस्वतलक्षजाय: प्राप क्षणं स्वापमिवाऽपपापः उद्धर्वन्दमां तावदभङ्गभाग्यः सौभाग्यशोभालटभाङ्गभङ्गी । श्रीशारदां कोविदकल्पवल्लीमग्रे समग्रे हितदां ददर्श नाऽबोधि कामाधिकदां स्वपुत्रीमादावतोऽपत्यमहत्त्वमिच्छुः । यत्पादयोः पूजयदिष्टपूत्यैवेधा न्यधान्नाकिमणीन्नखान्नु यत्पादयोरुल्लसदंशुदीप्रां कामाङ्कुशा: किं सुरकेलिवाप्यः । नित्याऽनमद्विम्बनदम्भमज्जाद्देव्यङ्गरागाविलरक्तनीराः 114811 ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ • 13 नाऽमी नखा यत्पदयोः सुवृत्ताः किं तर्हि सा मन्त्रठकारमाला । तां लोहितां चिन्तयतां सतां यद्वश्या: कवित्वादिकलामहेलाः ॥६१॥ यत्पन्नखाः प्रेङ्खिमयूखलेखाशिखामुखा मूर्खमतल्लिकानाम् । कुर्वन्ति दीपा इव हृनिकेतालोकं तमस्काण्डविखण्डनेन ॥६२॥ भवार्णवान्तः सततभ्रमो यत् पादाङ्गलीविद्रुमकन्दलानाम् । लाभेन भो यस्य भवत्यवन्ध्यः सुधीवराणां धुरि वर्णनीयः ॥६३।। पादौ यदीयौ जलदुर्गवृत्तेरुज्जाग्रतः षट्पदरक्षकस्य । पाथोरुहोऽप्याहरतः श्रियं चेत्तव्याति(तयाऽपि) यातव्यमवश्यमेव ॥६४|| द्योभूरुहामीहितमात्रदानां हीनोपमानात् कविदीयमानात् । यस्याः प्रकोपं किमधारयन्तौ पादौ जपादौ स्पदशोणवर्णो वाचालतामञ्चति नूपुरं चेदवेतनं यच्चरणे निविष्टम् । तद्युग्मधारी हृदि तर्हि विज्ञः स्याद्वक्त्रनिर्यद्वरनव्यकाव्यः ॥६६॥ वर्णोऽस्ति शोणस्तरबादिवाच्यस्तेनाऽस्य विश्राम्यति तारतम्यम् । यस्याः पदाब्जद्वय एव यत्त ॥६५॥ onal Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १५ • 14 द्विश्रान्तविश्वत्रयभक्तिरागम् ऊर्वातताया यदनर्घ्यजङ्घा वल्ले: सकाञ्चीमणिकौसुमायाः । मञ्जीरदम्भादकृत स्वयंभूभम्भोभृतं मेरुभृदालवालम् रक्तारविन्दं कुरुविन्दमग्निः सिंदूरमित्याद्यरुणार्थवृन्दे । मुख्यौ यदंही तदम् दधेते मूर्ध्नि स्फुस्नूपुरहेमपट्टम् पादा यदीयाः कृतपूजनानां जाड्यं जवान्नाशयितुं जनानाम् । मञ्जीरमाणिक्यमयूखलक्षा: संतन्वते कोपकटाक्षलक्षाः ऊरुश्रियाऽऽ खण्डलकुम्भिशुण्डादण्डाभिमानोद्दलनेऽद्भुतं नः । यस्याः सदा नम्रशिरस्करम्भास्तम्भाभिभूतौ पुनरस्ति खेदः युक्त्या भुजायामवती यदीयश्रोणीतटे काऽप्यमरी न काञ्चीम् । शक्नोति बन्धुं न भवत्यमुष्या दिव्या यदि व्याससमासशक्तिः सम्भाव्यते स्यूतमदे भुवां चेतदर्कतूलातुलतन्तुलक्षैः । चेद्देवलोके तदतन्द्रचन्द्रज्योति:कलापैः किल यद्दुकूलम् जैनेन्द्र वाग्या (कृपा) लनपात्रसंविद्दानोत्तमाचार्यपरीष्टितुष्टैः । ॥६७॥ ||६८|| ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४|| ॥७५।। |७५॥ ॥७६।। अनुसंधान-१५ • 15 पुण्यैः परीतां नु तनूलतां या धत्तेऽवदातद्युतिदेवदूष्याम् आश्रोणि यस्यास्तनुरस्ति पुण्यक्षेत्रं नु गौरोद्गतरुग्(क)प्ररोहम् । यत्रान्तरीयानतरङ्गभङ्ग्या भान्त्यद्भुताः सीरविलेखलेखाः यस्याः पुरे गर्भगनाभिकूपो यो मेखलामध्यमदीप्रवप्रः । रत्नोत्थितास्तत्र मिथो मिलन्त्यः कुर्वन्त्यलम्भाः कपिशीर्षशोभाम् काले कलौ गत्वरतत्त्वविद्ये या मेखला हाटकपट्टिकायाम् । रत्नानि धत्तेऽक्षरपङ्क्तिरूपांनीवीमवैम्युत्तमवाङ्मयानाम् मध्यो न किं वा न मयैक्षि यस्याः प्राच्यो न तस्य प्रतिमासुवृष्टेः । अन्यस्तु पक्षोऽभिमतो यतोऽहं स्थूलार्थदर्शी स च गाढसूक्ष्मः जानीत यन्मूलतनूलतामप्युन्मीलितां तूलिकया कलातः । नो चेत् कथं मध्यशलाकिकायां तिष्ठत्यपारः स्तनशैलभारः सर्वेश्वरी या वरमीश्वरादेः पादेन कस्याऽपि ततिं करोति । नो चेद्वपुर्वालनयावलग्नो भग्नोऽभविष्यद्विसखण्डबन्धुः यस्याः प्रभावेन विनाशवन्ध्या ॥७७॥ 11७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८ ॥ ॥८२॥ अनुसंधान-१५ • 16 सन्ध्यातिमेध्या मुखपूर्णिमेन्दोः । जाघट्टि शोणोपलकुट्टिमं वा वक्षोङ्गणे कञ्चकचक्रवर्ती आकल्पकीर्ति कलितप्रतापां । वक्षोवनीमुल्लसितप्रवालाम् । चर्कति चोलः कुचशैलभूमी यस्याः समीरोद्भुतधातुधूलीम् वैराग्यभङ्ग्या हृदयाद् यदीयाद् यः पुस्तकान्तर्गतकान्तसूक्तैः । कृष्टो बहिस्तिष्ठति रागराशिः शङ्के स लोकेऽजनि कञ्जुकाख्यः ॥८३॥ काश्मीरदेशस्य ददात्यदोऽत्युत्कर्षं ततः प्रीतिवशात्तदीशा । केदारमेकं हृदि कुङ्कमस्याऽऽदत्ते स्म या वै मितकञ्चुकं नु ॥८४॥ काठिन्यमुद्धृत्य हृदो बहिर्या वर्यावकार्षीत्] कुचरूपकूटौ । तेनाऽजिजीवज्जनतां यदल्पादप्याश्रितानां करुणां विधाता लावण्यपुण्याम्बुघटौ मनोभूमत्तेभकुम्भौ रतिकेलिगोलौ। मुक्तालतापक्वफले तदुत्थज्योतिर्जले पाटलपद्मकोशौ तेजस्विवाग्बीजमणी समुद्रौ. हृद्धामसद्धर्मविवेकमौली । ज्ञानामरद्रुस्तबकाविति स्याद्यस्याः कुचद्वय्युपमानिघण्टुः ॥८७॥ युग्मम् ।। ॥८५॥ ॥८६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ . 17 श्लिष्यन्नुरोहिङ्गुलरङ्गचोलं यस्याः स्तनास्फालजकोपशंसी । शुक्लोऽपि लौहित्यमुपैति हारो वीक्ष्याऽपि को वा सुकुचां न रागी ।।८८।। कम्बुः किमु स्याद्यदकुण्ठकण्ठस्पर्द्धाय पूर्णोऽप्ययमुज्ज्वलात्मा । यधुच्चरत्योमिति वाद्यमानः पापापहं नो परमेष्ठिबीजम् ॥८९|| देदीव्य(प्योते देव्यधरारुणास्यासिन्दूरपादा कुमुदावदाता । या मानसे सौमनसे न सेवालस्याऽऽलये दिव्यसितच्छदीव ॥९॥ वाद्धि विना विद्रुममुद्बभूवाऽशोकं विनाऽस्योदलसत् प्रवालम् । बिम्बी विना बिम्बमलालगी(लीलग ?)द्वा किं धूतबन्धूकमदो यदोष्ठः ॥९॥ पद्मेन्दनाद्यद्वदनं समासभ्रूश्रीकरी ध(धा)रयते पुरापि । राज्ञो जयाल्लोहितशुण्डदडं (दण्ड-) भालातपत्रं त्वधुना तदूर्वम् . ॥१२॥ आच्छिद्य पुष्पेषुभटाद्दयालुः शङ्के स्वनासामिषतो निषङ्गम् । या न्यग्मुखीकृत्य. करोति रिक्तं न्यध्याय्यधस्तद्विजपुष्पपङ्क्तिः ॥९३।। स्वत्यागधत्तूरकृतार्चशम्भोः खेदाय तद्वन्द्यपदामुपास्ते । सूक्ष्मान्तपक्ष्माङ्करकण्टकोद्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९४|| ॥९५॥ अनुसंधान-१५ • 18 त्तारालियुग्दृग्दलकेतकीयाम् दोलाविलासोचितकर्णफाली व्यालीढताडङ्कनिभेन बद्ध्वा । या मुख्यरूपे वहते स्वतेजः कीर्तिद्विषयोमणि-पूर्णिमेन्द्वोः ॥९५|| यदोर्मयद्योतरवः सपर्यापर्याकुला विज्ञकुलार्पितेष्टाः । शोणालीपल्लवलब्धशोभा:(भा-) संभारमाबिभ्रति भूषणानाम् ॥९६॥ कोटीरहाराङ्गदकङ्कणाद्यप्रमाणमाणिक्यवतीं विलोक्य । जानामि यां रत्नकरेण रत्नाकरेण वाऽऽरोहितसर्वकोशाम् ॥९७॥ प्रालेयमूर्तेस्तरलार्कबालोन्मीलन्मरीचिप्रचयेन यस्याः । उत्तीर्णवासोग्रतरङ्गधारं जागल्यतेऽङ्गं तनुते न जाने आदावभूतां जनकानुरूपे श्रीर्या च दुग्धाब्धिविधिप्रसूते । आचिच्छिदाते नु मिथोऽनुपातश्वेतौ गुणौ क्वाऽपि कलिप्रवृत्तौ ॥१९॥ या वक्त्रपङ्केरुहपातुकानां मालामिव स्तम्भितषट्पदानाम् । वीणां कलक्वाणवितीर्णकर्णप्रीति करे मारकतीं बिभर्ति ॥१०॥ य(या ?) दानगत्याद्यखिलप्रकारैः किं नो करेणो: करणिं करोति ? | ॥९८॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ • 19 पार्थक्यमेकाक्षरतः करस्था चेद्वल्लकी नाऽञ्चति सलकीतः ॥१०१।। द्विः सप्तविद्योपनिषन्मणीनां या पुस्तिकायाः कपटेन पेटाम् । न्यस्तस्वदृग(क) चित्रकवल्लिमाराल्लाति स्म पादानतदीनहेतोः ॥१०२॥ या पुस्तकं वाचयतां जनो यद्भक्तस्तु यद्वाचयिता कुतोऽस्तु ? । येनाऽस्य यादस्पतिसर्वविद्यास्तद्दः पुनः कोऽप्यपरो न यस्याः ॥१०३॥ कण्ठेसु मुञ्चश्चिबुकानचुम्बिस्थूलस्तनस्पर्शजकोपभीरुः । यस्याः करे कश्चिदमुञ्चदक्षस्रग्माल्यमर्चार्थमुरः पुरःस्थे पाणिस्थवैडूर्यकमण्डलुर्यासौवास्यदास्यप्रणयीन्दुपुर्याः । उच्चाटहेतुं कटके तुलौजाः कि राहुमानीय वहत्युपान्ते ॥१०५॥ नव्यप्रसूता सुरसौरभेयी या भेक्षुषां दोग्धि मनीषितानि । तेनान्तिकं वत्सकवत् स कश्चिद्यस्या न मुञ्चत्युचितं मरालः ॥१०६॥ तां मानसोत्थैरथ रूपभङ्गीचङ्गीकृताङ्गीमिह गीरधीशाम् । व्याकोशकाव्याम्बुरुहै: सुवर्णश्रीवर्णनीयैर्महितुं स लग्नः ॥१०७॥ भुकारकल्पां सकलामराणा ॥१०४॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १५ • 20 मग्रेरस (सर) त्वेन सरस्वति ! त्वाम् जाड्येन चण्डेन विडम्बितः त्वाम् गोस्वामिनी विज्ञपयाभ्य (म्य) विरः ॥ १०८ ॥ जाड्यन पीड्ये जनयित्रि ! चित्रं वेविद्यमानावरणव्रजोऽहम् ! तेनेदमुच्छिन्द्धि निजांहिनिष्ठाङ्गुष्ठोल्बणाग्निष्टनिषेवणान्मे ॥ १०९ ॥ स्वभावस्वत्त्व(सत्तत्त्व ? ) वती सती मे दभ्रं हृदभ्रं श्रितवत्यपि त्वम् । हत्वा तम: प्रातिभसुप्रभातं नातन्तनीषीदमयौक्तिकं ते ॥११०॥ भाग्योदये कामगवी पुरोगा संपादयन्ती हितमाश्रितानाम् । तस्मादभाग्येऽपि मदिष्टमेकं तेभ्योऽधिकायास्तव दातुमर्हम् ॥ १११ ॥ प्रेङ्खोलनामौलिगचामराली दण्डाः किरीटाग्रनिविष्टरत्नाः । जाड्यं हरन्ते तव कर्मकर्यो ऽप्यैङ्कारवर्योपमया स्मृताङ्ग्यः ॥ ११२ ॥ तेनैतदल्पार्थकृतेऽर्थना ते नाऽर्हा फलायेव मरुल्लतायाः । मातर्ममाऽतः करुणाकटाक्षं मुञ्चोपरिष्टाद् घटितेष्टलक्षम् स्तवनम् ॥ विज्ञप्तिमेवं कृतवन्तमाख्यतं मूर्खमुख्यं विधुजिन्मुखी सा । उत्तिष्ठ पात्रीकुरु वक्त्रमित्थं ॥११३॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १५ • 21 चक्रे च वक्रेतरकर्मकोऽसौ देवी तदा तस्य दिनोदयाब्जस्पर्द्धांकरस्तोकविकासिवक्त्रे । दत्ते स्म वैडूर्यकमण्डलूद्यनीलाब्जनालीममृतस्य धाराम् याsनर्गले निर्गमितेऽद्य मान्द्ये वागीशया गौरद्गौषधेन रेजेऽस्य किं पथ्यपरायणायाः शास्त्रेषु बुद्धेः स्फुरणाय यष्टि: तस्यां च किञ्चित्कृपणाज्यधारान्यायेन जिह्वोपरि लग्नवत्याम् । सा पञ्चषोच्चारितबीजवर्णा विद्युद्वदान्य (न्या) व्यवधत्त देवी यस्याः प्रसादेन मुखादवापे स्वप्नोऽयमीदृग्घनपुण्यलभ्यः । साऽपि प्रमीलाऽस्य जगाम दूरे धिग् वेधसोऽभीष्टवियोगदत्वम् तावद्वियत्तालतरौ विशाले पिङ्गाङ्गभाः पश्चिमभागरागः । प्राचीकटद्वासरमर्कटेश: म्लानोडुपुष्पाद्विपुलाभ्रतल्पादुत्थाय यान्त्यां रजनिप्रियायाम् । ॥११४॥ ॥११५॥ ॥११६॥ ॥११७॥ प्राचीशिखायां शिखिशोणमास्यम् ॥ ११९॥ पूर्वायुवत्या निदधेऽस्य जापावसानमङ्गल्यकृते स्वमौलौ । बालार्करुग्घट्टपटपटीयःपाटल्यनिर्धादि (टि?) तधातुरागा ॥११८॥ ॥१२०॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२३॥ अनुसंधान-१५ • 22 भ्रष्टांशुकः श्राग् विललाग भूयो रागाविलः शीतकरोऽम्बरान्ते ॥१२१॥ जहार हारावलिहेतवेऽहः - श्रीस्तारमुक्तौधमभूत्तदा किम् ? । भूयस्तरां स्तात्पुनराप्स्यतीयंश्यामा समुद्रप्रियपुत्रपत्नी ॥१२॥ पाथोधरध्वानमपार्थयन्तो ये स्म प्रथन्ते दधिमन्थनादाः । मन्येऽपविघ्नाग्र(ग्रि)मवत्सराप्तिप्रौढोत्सवे ते पटहप्रणादाः उद्योगिनां जागरणाय साधा रण्येन दीर्घाः कुकवाकुघोषाः । पुण्यार्थमद्रव्यविभातभेरीभाङ्कारशोभां बिभराम्बभूवुः ॥१२४॥ शोणौ धुनीधन्यवधूमिपाणिप्रेडोलिनौ प्रेमगुणेन बद्धौ । भूयो भवद्योग-वियोगवर्यावासञ्जतां कोकविलासगौलौ (?) ॥१२५।। वर्धापयन्ति स्म सुपर्ववध्वः श्रीवीरनिर्वाणदपर्वरात्रिम् । पेतुः समन्तादिति शाड्वलेषु प्रालेयलेशव्यपदेशमुक्ताः ॥१२६॥ दुग्धाज्ययोर्धामनि चेदियन्तः स्युर्मोदकाः पर्व तदेति मन्ये । स्मराजहस्ताभिनयालिगुञ्जा - गीर्भिर्न कस्को जहसेऽब्जिनीभिः ॥१२७॥ दीपालिकापोषितपूर्जनाना Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ • 23 मर्को मनोभिः किमु पारणोत्कैः । आकृष्य- - त्तमरोषरक्तो-(?) ऽध्यारोह्यत प्रागचलाग्रभागम् ॥१२८॥ कोवेदभानाउ(मु?)दिते विभाना-(?) मीशे तमः स्थास्यति दृश्यमुाम् । छायामयस्तु प्रतिवस्तुपुञ्जस्तस्य स्थितः पश्यत दुर्जयस्य ॥१२९।। जातेऽथ तेजोऽरुणिते प्रभाते नाऽतेनिरे के सविशेषवेषम् । दृष्ट्वेव नव्यांशुकमर्कमादौ यातानुयाते कुशलो हि लोकः ॥१३०॥ ताम्बूलरक्ताधरदन्तजिह्वाः सर्वेऽभवंस्तच्छुभमेव तेषाम् । ये तद्दिने सन्मुखरागयुक्तास्तेऽशेषवर्षेऽपि विषादमुक्ताः ताम्बूलबाहुल्यविलोहितास्याः शुभ्रांशुकेन्दुधुतिदत्तदास्याः । सन्तो विलेमुः(सुः) किमिलावतीर्णाः सौदामिनीसुन्दरशारदाब्दाः ॥१३२।। भाग्यश्रियाऽऽलस्यगमायपुंसांभाले समुक्ताफलरक्तचोला । लाजाळ्यकालेयजपुण्ड्रदम्भादोर्वल्लिरुच्चै रचयाम्बभूवे ॥१३३॥ नासाग्रलग्ना क्षतपूर्णपुण्ड्रव्याजाद्धरक्तोज्ज्वलबिन्दुबाणम् । भ्रूयामलज्यालिकचापदण्डे जेतुं कलि(लिं) सन्दधिरे कुलीनाः॥१३४॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १५•24 परस्परेण प्रणयप्रवीणा: सन्तः प्रणामप्रवणोत्तमाङ्गाः । किं भालभूसम्भृतभाग्यभारा भुग्नीभवत्कन्धरतामधार्षुः सर्वादरः सुन्दरकूरसङ्गः संवत्सरस्याऽऽदिमवासरश्च । धान्येषु धनेष्वपि ( धनेषु धान्येष्वपि ? ) राजमाषै रेवाऽऽप्यते स्म त्रिकयोग एषः ॥१३६॥ ॥१३५॥ रक्तः प्रतापाद्भुतकूरकीर्त्तिः स्थालासन: श(स) स्यकुलस्य राजा । भुक्तिक्षणेऽन्दोलितपाणिपद्मो द्यच्चामरोऽराजत राजमाष: ढक्कादिगाढध्वनितैरकर्ण व्यापारिणः केन कृता वदान्याः । नो चेदनाकणितचाटुवाचरिछन्दन्ति दौस्थ्यं कथमर्थिपुंसाम् ॥१३८॥ चेत्तानि चित्तान्निरयुस्तदा किं जातं यदेकं हि हृदालयस्थम् । दातेदमेवाऽस्य समग्रमुर्वी ध्यातुः पुनस्तत्र दिनेऽस्य निद्रामुद्राविमुक्ताक्षिसरोरुहत्वम् । आसेदुषः स्वान्तसरस्वतिस्थे स्वप्नाम्बुजे बीजमतिष्ठदेकम् जानेऽस्य बीजान्यपराणि जापे दत्तापमाना वनितेव निद्रा । कोपादुपादाय चला पलायाचक्रे नरं कस्य मणिः स्थिरो वा ॥ १४० ॥ ॥१३७॥ ॥१३९॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४२॥ अनुसंधान-१५ . 25 दत्तप्रकाशो रविरग्रहोऽपि ॥१४१।। यच्चोत्तमानां चितपञ्चवर्णं विघ्नावलिव्यालविलोपितूर्णम् । कलाशिखाशालिशिरःशिखण्डिश्रीखण्डनं खेलति हृद्धनेषु पापापनोदे पटुवाद्यमानः सद्यो यदेवोच्चरतीति हेतोः । श्रीवासुदेवः सुतनिर्विशेष चुम्बत्यबङ्गिप्रबलास्थिकम्बुम् ॥१४३॥ नाऽलीकसूनोलपनः प्रतोलीरालोक्य रुद्धाः सकलान्यवर्णैः । पूतं परस्पर्शभयेन जाने यन्निर्ययौ भिन्नकपोलभित्ति ॥१४४॥ तिस्रोऽपि रेखास्त्रिजगन्ति गौरज्योति:कलासिद्धिशिलाविशाला । सिद्धः सबिन्दुस्तदुपर्यतो यल्लोकस्य किं रूपकमल्पमातम् ॥१४५।। पञ्चाईदादिप्रथमाक्षरोत्थं जैनाः समग्रागमसारमाहुः । षड्बिन्दुखण्डेन्दु-विरिञ्चिनामोपन्नं यदन्येऽप्यधिकं त्रयीतः ॥१४६।। योगिप्रधानप्रणिधानधारागोदावरीखेलिवितीर्णलक्ष्मि । हालक्षमापालति यत्पुरस्थै - वर्णद्विपञ्चा[श]दुदारवीरैः ॥१४७|| यद्वीजमेकेन्दुकलां दधानां जिह्वादलं यावदलंकरोति । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१५ . 26 स्यात्तावदास्याम्बुरुहस्य किञ्चिसङ्कोचिता साऽनुचिता न चिन्त्या // 148 // आमोक्षमेकोऽप्यरिहादिवर्णोरातीति विप्राणयितुं श्रितानाम् / तत्पञ्चकोत्थं यदवैमि पश्यत्युत्कन्धरं वस्त्वधिकं ततोऽपि // 149 / / वाग्देवताया वदनारविंदातद्वीजमासाद्यत यद्यनय॑म् / तत्पारिजातोऽजनि मंजरीमानिस्सीमसौरभ्यमभूत् सुवर्णम् 150 // आराद्धसिद्धान्तसुरीवरीयःप्रसादजस्वप्नमधोमहिम्ना। सौघाऽजनि प्रागकरीरसंज्ञा-(?) वीरुल्लगन्नद्य कवित्वपुष्पः // 15 // श्रीनन्दिरत्नाख्यगुरुप्रसादप्रासादवासाप्तसुखः स चेदम् / सारस्वतोल्लस इति प्रतीतं स्फीतं गुणैरातनुते स्म काव्यम् // 152 / / सन्तु स्तनन्धयधियोऽध्ययनाय बद्धमेतन्मुखाब्जमणिमण्डनतां नयन्तः / श्रीभारतीति थि(स्ति)मिताक्षरमन्त्रबीजप्रष्ठप्रसादमधिगम्य कविप्रकाण्डाः // 153 / / इति सारस्वतोल्लासकाव्यम् ।।श्रीः।।