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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
आचार्य हरिभद्र जैनधर्म के प्रखर प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा विपुल एवं बहुआयामी साहित्य का सृजन किया है। उन्होंने दर्शन, धर्म, योग, आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित काव्य आदि विविध विधाओं के अन्थों की रचना की है। मौलिक साहित्य के साथ-साथ उनका टीकासाहित्य भी विपुल है। जैन धर्म में योग सम्बन्धी साहित्य के तो वे आदि प्रणेता है। इसी प्रकार आगमिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में टीका करने वाले जैन परम्परा में वे प्रथम टीकाकार भी है। उनके पूर्व तक आगमों पर जो नियुक्ति और भाष्य लिखे गये थे वे मूलतः प्राकृत भाषा में ही थे । भाष्यों पर आगमिक व्यवस्था के रूप में जो चूर्णियाँ लिखी गयी थीं वे भी संस्कृत प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखी गयीं विशुद्ध संस्कृत भाषा में आगमिक ग्रन्थों की टीका लेखन का सूत्रपात तो हरिभद्र ने ही किया। भाषा की दृष्टि से उनके ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में मिलते हैं। अनुश्रुति तो यह है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी किन्तु वर्तमान में हमें उनके नाम चढ़े पर हुए लगभग ७५ ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । यद्यपि विद्वानों की यह मान्यता है कि इनमें से कुछ ग्रन्थ वस्तुतः याकिनीसूनु हरिभद्र की कृति न होकर किन्हीं दूसरे हरिभद्र नामक आचार्यों की कृतियाँ हैं। पंडित सुखलालजी ने इनमें से लगभग ४५ ग्रन्थों को तो निर्विवाद रूप से उनकी कृति स्वीकार किया है क्योंकि इनमें 'भव विरह' ऐसे उपनाम का प्रयोग उपलब्ध है। इनमें भी यदि हम अटक प्रकरण के प्रत्येक अटक को षोडशकत्रकरण के प्रत्येक षोडशक को, विंशिकाओं में प्रत्येक विंशिका को तथा पञ्चाशक में प्रत्येक पाशक को स्वतन्त्र ग्रन्थ मान लें तो यह संख्या लगभग २०० के समीप पहुँच जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य हरिभद्र एक प्रखर प्रतिभा के धनी आचार्य थे और साहित्य की प्रत्येक विधा को उन्होंने अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था।
प्रतिभाशाली और विद्वान् होना वस्तुतः तभी सार्थक होता है जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो। आचार्य हरिभद्र उस युग के विचारक हैं जब भारतीय चिन्तन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में वाक्-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गयी थी । प्रत्येक दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना बुद्धिकौशल मान रहा था। मात्र यही नहीं, दर्शन के साथ-साथ धर्म के क्षेत्र में भी पारस्परिक विद्वेष और घृणा अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी । स्वयं आचार्य हरिभद्र को भी इस विद्वेष भावना के कारण अपने दो शिष्यों की बलि देनी पड़ी थी। हरिभद्र की महानता और धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है। आचार्य हरिभद्र की महानता तो इसी में निहित है कि उन्होंने शुष्क वाग्जाल तथा
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घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया । यहाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के गुण उन्हें जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के रूप में विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने अपने जीवन व्यवहार और साहित्य सृजन में इन गुणों को जिस शालीनता के साथ आत्मसात् किया था वैसे उदाहरण स्वयं जैन- परम्परा में भी विरल ही हैं।
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आचार्य हरिभद्र का अवदान धर्म-दर्शन, साहित्य और समाज के क्षेत्र में कितना महत्त्वपूर्ण है इसकी चर्चा करने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम उनके जीवनवृत्त और युगीन परिवेश के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से चर्चा कर लें।
जीवनवृत्त
यद्यपि आचार्य हरिभद्र ने उदार दृष्टि से विपुल साहित्य का सृजन किया, किन्तु अपने सम्बन्ध में जानकारी देने के सम्बन्ध में वे अनुदार या संकोची ही रहे। प्राचीन काल के अन्य आचार्यों के समान ही उन्होंने भी अपने सम्बन्ध में स्वयं कहीं कुछ नहीं लिखा। उन्होंने ग्रन्थप्रशस्तियों में जो कुछ संकेत दिए हैं उनसे मात्र इतना ही ज्ञात होता है कि वे जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के 'विद्याधर कुल' से सम्बन्धित थे । इन्हें महत्तरा याकिनी नामक साध्वी की प्रेरणा से जैनधर्म का बोध प्राप्त हुआ था, अतः उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में अपने आपको 'याकिनीसूनु' के रूप में प्रस्तुत किया है, साथ ही अपने ग्रन्थों में अपने उपनाम 'भवविरह' का संकेत किया है। कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने भी इनका इसी उपनाम के साथ स्मरण किया है। जिन ग्रन्थों में इन्होंने अपने इस 'भवविरह' उपनाम का संकेत किया है वे ग्रन्थ निम्न हैंअष्टक, षोडशक, पञ्चाशक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, शास्त्रवार्तासमुच्चय, पञ्चवस्तुटोका, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, संसारदावानलस्तुति, उपदेशपद, धर्मसंग्रहणी और सम्बोध- प्रकरण । हरिभद्र के सम्बन्ध में उनके इन ग्रन्थों से इससे अधिक या विशेष सूचना उपलब्ध नहीं होती ।
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आचार्य हरिभद्र के जीवन के विषय में उल्लेख करने वाला सबसे प्राचीन ग्रन्थ भद्रेश्वर की कहावली है। इस ग्रन्थ में उनके जन्मस्थान का नाम बंभपुनी उल्लिखित है किन्तु अन्य ग्रन्थों में उनका जन्मस्थान चित्तौड़ (चित्रकूट) माना गया है । सम्भावना है कि ब्रह्मपुरी चित्तौड़ का कोई उपनगर या कस्बा रहा होगा। कहावली के अनुसार इनके पिता का नाम शंकर भट्ट और माता का नाम गंगा था। पं० सुखलाल जी का कथन है कि पिता के नाम के साथ भट्ट शब्द सूचित करता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे। ब्रह्मपुरी में उनका निवास भी उनके
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ब्राह्मण होने के अनुमान की पुष्टि करता है । गणधरसार्धशतक और अन्य भवविरह का इच्छुक कहते हों । यह भी सम्भव है कि अपने प्रिय शिष्यों ग्रन्थों में उन्हें स्पष्टरूप से ब्राह्मण कहा गया है । धर्म और दर्शन की अन्य के विरह की स्मृति में उन्होंने यह उपनाम धारण किया हो। पं० परम्पराओं के सन्दर्भ में उनके ज्ञान-गाम्भीर्य से भी इस बात की पष्टि होती सुखलालजी ने इस सम्बन्ध में निम्न तीन घटनाओं का संकेत किया हैहै कि उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा ब्राह्मण कुल में ही हुई होगी।
(१) धर्मस्वीकार का प्रसंग (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग कहा यह जाता है कि उन्हें अपने पाण्डित्य पर गर्व था और और (३) याचकों को दिये जाने वाले आशीर्वाद का प्रसंग तथा उनके अपनी विद्वत्ता के इस अभिमान में आकर ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर ली द्वारा भवविरहसूरि चिरंजीवी हो कहे जाने का प्रसंग । इस तीसरे प्रसंग थी कि जिसका कहा हुआ समझ नही पाऊँगा उसी का शिष्य हो जाऊँगा। का निर्देश कहावली में है । जैन अनुश्रुतियों में यह माना जाता है कि एक बार वे जब रात्रि में अपने घर लौट रहे थे तब उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख से प्राकृत की निम्न हरिभद्र का समय गाथा सुनी जिसका अर्थ वे नहीं समझ सके
हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित चक्कीदुर्ग हरिपणगं पणगं चक्की केसवो चक्की । हैं। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने 'विचार- श्रेणी' में हरिभद्र के केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ ।। स्वर्गवास के सन्दर्भ में निम्न प्राचीन गाथा को उद्धृत किया है -
- आवश्यकनियुक्ति, ४२१ पंचसए पणसीए विक्कम कालाउ झत्ति अस्थिमओ । अपनी जिज्ञासुवृत्ति के कारण वे उस गाथा का अर्थ जानने के हरिभद्रसूरी भवियाणं दिसउ कल्लाणं ।। लिए साध्वीजी के पास गये । साध्वीजी ने उन्हें अपने गुरु आचार्य उक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० ५८५ जिनदत्तसूरि के पास भेज दिया । आचार्य जिनदत्तसूरि ने उन्हें धर्म के दो में हुआ। इसी गाथा के आधार पर प्रद्युम्नसूरि ने अपने विचारसारप्रकरण' भेद बताए - (१) सकामधर्म और (२) निष्कामधर्म । साथ ही यह भी एवं समयसुन्दरगणि ने स्वसंगृहीत 'गाथासहस्री' में हरिभद्र का स्वर्गवास बताया कि निष्काम या निस्पृह धर्म का पालन करने वाला ही 'भवविरह' वि० सं० ५८५ में माना है । इसी आधार पर मुनि श्रीकल्याणविजयजी अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसा लगता है कि प्राकृत भाषा और ने 'धर्म-संग्रहणी' की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का सत्ता-समय उसकी विपुल साहित्य-सम्पदा ने आचार्य हरिभद्र को जैन धर्म के प्रति वि० सं० की छठी शताब्दी स्थापित किया है। आकर्षित किया हो और आचार्य द्वारा यह बताए जाने पर कि जैन-साहित्य कुलमण्डनसूरि ने 'विचारअमृतसंग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय के तलस्पर्शी अध्ययन के लिये जैन मुनि की दीक्षा अपेक्षित है, अतः ने तपागच्छगुर्वावली में वीर-निर्वाण-संवत् १०५५ में हरिभद्र का समय वे उसमें दीक्षित हो गए। वस्तुत: एक राजपुरोहित के घर में जन्म लेने निरूपित किया है - के कारण वे संस्कृत व्याकरण, साहित्य, वेद, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, पणपन्नदससएहिं हरिसूरि आसि तत्थ पुवकई । दर्शन और ज्योतिष के ज्ञाता तो थे ही, जैन-परम्परा से जुड़ने पर उन्होंने परम्परागत धारणा के अनुसार वी० नि० के ४७० वर्ष पश्चात् जैन-साहित्य का भी गम्भीर अध्ययन किया । भात्र यही नहीं, उन्होंने अपने वि० सं० का प्रारम्भ मानने से (४७०+५८५ = १०५५) यह तिथि इस अध्ययन को पूर्व अध्ययन से परिपुष्ट और समन्वित भी किया। उनके पूर्वोक्त गाथा के अनुरूप ही वि० सं० ५८५ में हरिभद्र का स्वर्गवास ग्रन्थ योगसमुच्चय, योगदृष्टि, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि इस बात का निरूपित करती है । स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त ज्ञान और
आचार्य हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० की छठी शताब्दी के जैन-परम्परा में दीक्षित होकर अर्जित किए ज्ञान को एक दूसरे का पुरक उत्तरार्ध में हुआ, इसका समर्थन निम्न दो प्रमाण करते हैं - बनाकर ही इन ग्रन्थों की रचना की है। हरिभद्र को जैनधर्म की ओर (१) तपागच्छ-गुर्वावली में मुनिसुन्दरसूरि ने हरिभद्रसूरि को
आकर्षित करने वाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी, अत: अपना धर्म- मानदेवसूरि द्वितीय का मित्र बताया है जिनका समय विक्रम की छठी • ऋण चुकाने के लिये उन्होंने अपने को महत्तरा याकिनीसन अर्थात शताब्दी माना जाता है । अत: यह उल्लेख पूर्व गाथोक्त समय से अपनी याकिनी का धर्मपुत्र घोषित किया । उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेकशः संगति रखता है। अपने साथ इस विशेषण का उल्लेख किया है । हरिभद्र के उपनाम के (२) इस गाथोक्त समय के पक्ष में दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण रूप में दूसरा विशेषण ‘भवविरह' है। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं साक्ष्य हरिभद्र का 'धूर्ताख्यान' है जिसकी चर्चा मुनि जिनविजयजी ने में इस उपनाम का निर्देश किया है । विवेच्य ग्रन्थ पञ्चाशक के अन्त में 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९८८) हमें 'भवविरह' शब्द मिलता है । अपने नाम के साथ यह भवविरह में नहीं की थी । सम्भवत: उन्हें निशीथचूर्णि में धूर्ताख्यान का उल्लेख विशेषण लगाने का क्या कारण रहा होगा, यह कहना तो कठिन है, फिर सम्बन्धी यह तथ्य ज्ञात नहीं था । यह तथ्य मुझे 'धूर्ताख्यान' में मूलभी इस विशेषण का सम्बन्ध उनके जीवन की तीन घटनाओं से जोड़ा स्रोत की खोज करते समय उपलब्ध हुआ है । धूर्ताख्यान के समीक्षात्मक जाता है । सर्वप्रथम आचार्य जिनदत्त ने उन्हें भवविरह अर्थात् मोक्ष प्राप्त अध्ययन में प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये ने हरिभद्र के प्राकृत धूर्ताख्यान करने की प्रेरणा दी, अत: सम्भव है उनकी स्मति में वे अपने को का संघतिलक के संस्कृत धूर्ताख्यान पर और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में
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निबद्ध धूर्ताख्यान पर प्रभाव की चर्चा की है। इस प्रकार उन्होंने (महाभारत) और रामायण का उल्लेख करते हैं । हरिभद्र ने तो एक स्थान धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक रचना माना है । यदि धूर्ताख्यान की पर विष्णुपुराण, महाभारत के अरण्यपर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख कथा का निबन्धन हरिभद्र ने स्वयं अपनी स्वप्रसूत कल्पना से किया है किया है, अत: निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा तो वे निश्चित ही निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि के लेखन-काल से गया होगा । उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार महाभारत और रामायण पूर्ववर्ती हैं। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में यह कथा उपलब्ध है । भाष्य में का उल्लेख करता है । अनुयोगद्वार की विषयवस्तु के अवलोकन से इस कथा का सन्दर्भ निम्न रूप में उपलब्ध होता है -
ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग पाँचवीं शती ससएलासाढ- मूलदेव, खण्डा य जुण्णउज्जाणे । की रचना है । धूर्ताख्यान में 'भारत' नाम आता है, 'महाभारत' नहीं। सामत्यणे को भत्तं, अक्खात जो ण सद्दहति ।। अतः इतना निश्चित है कि धूर्ताख्यान के कथानक के आद्यस्रोत की चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । पूर्व सीमा ईसा की चौथी या पाँचवीं शती से आगे नहीं जा सकती। तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ।। पुनः निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी में उल्लेख होने से धूर्ताख्यान वणगयपाटण कुंडिय, छम्मास हत्थिलग्गणं पुच्छे । के आद्यस्रोत की अपर-अन्तिम सीमा छठी-सातवीं शती के पश्चात् रायरयग मो वादे, जहि पेच्छइ ते इमे वत्था ।। नहीं हो सकती । इन ग्रन्थों का रचनाकाल ईसा की सातवीं शती का
भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्तरार्ध हो सकता है । अत: धूर्ताख्यान का आद्यस्रोत ईसा की पाँचवीं भाष्यकार को सम्पूर्ण कथानक जो कि चूर्णि और हरिभद्र के धूर्ताख्यान से सातवीं शती के बीच का है। में है, पूरी तरह ज्ञात है, वे मृषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तुत करते यद्यपि प्रमाणाभाव में निश्चितरूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु हैं । अत: यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ उस आख्यान का एक कल्पना यह भी की जा सकती है कि हरिभद्र की गुरु-परम्परा जिनभद्र आद्यस्रोत नहीं हो सकता । भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक अन्य आख्यान और जिनदास की हो, आगे कहीं भ्रान्तिवश जिनभद्र का जिनभट और सन्दर्भ रूप में आये हैं, उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है । अत: यह जिनदास का जिनदत्त हो गया हो, क्योंकि '६' और 'ट्ट' के लेखन में और निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है। चूर्णि तो स्वयं भाष्य पर 'त' और 'स' के लेखन में हस्तप्रतों में बहुत ही कम अन्तर रहता है। पुनः टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में लगभग तीन हरिभद्र जैसे प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु भी प्रतिभाशाली होना चाहिए, जब पृष्ठों में यह आख्यान आया है, अत: यह भी निश्चित है कि चूर्णि भी इस कि हरिभद्र के पूर्व जिनभट्ट और जिनदत्त के होने के अन्यत्र कोई संकेत नहीं आख्यान का मूलस्रोत नहीं है। पुन: चूर्णि के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट मिलते हैं। हो सकता है कि धूर्ताख्यान हरिभद्र की युवावस्था की रचना हो लिखा है- “सेसं धुत्तवखाणगाहाणुसारेण" (पृ०१०५) । अत: निशीथभाष्य और उसका उपयोग उनके गुरुबन्धु सिद्धसेन क्षमाश्रमण (छठी शती) ने
और चूर्णि इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते । किन्तु हमें अपने निशीथभाष्य में तथा उनके गुरु जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई में किया हो । धूर्ताख्यान को देखने से स्पष्ट रूप से यह लगता है कि यह जानकारी नहीं है जिसमें यह आख्यान आया हो ।
हरिभद्र के युवाकाल की रचना है क्योंकि उसमें उनकी जो व्यंग्यात्मक शैली जब तक अन्य किसी आदिस्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी है, वह उनके परवर्ती ग्रन्थों में नहीं पायी जाती। हरिभद्र जिनभद्र एवं नहीं है, तब तक हरिभद्र के धूर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत जिनदास की परम्परा में हुए हो, यह मात्र मेरी कल्पना नहीं है। डॉ. हर्मन मौलिक रचना क्यों नहीं माना जाये ! किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार जैकोबी और अन्य कुछ विद्वानों ने भी हरिभद्र के गुरु का नाम जिनभद्र माना और चूर्णिकार, इन दोनों से ही हरिभद्र को पूर्ववर्ती मानना होगा और इस है । यद्यपि मुनि श्री जिनविजयी ने इसे उनकी भ्रान्ति ही माना है । सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हुई है वह खण्डित वास्तविकता जो भी हो, किन्तु यदि हम धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक हो जायेगी। यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा उनके ग्रन्थ लघुक्षेत्रसमास रचना मानते हैं तो उन्हें जिनभद्र (लगभग शक संवत् ५३०) और सिद्धसेन की वृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर-निर्वाण संवत् १०५५ या विक्रम क्षमाश्रमण (लगभग शक संवत् ५५०) तथा उनके शिष्य जिनदासगणि संवत् ५८५ तथा तदनुरूप ईसवी सन् ५२९ में माना जाता है। किन्तु महत्तर (शक संवत् ५९८ या वि० सं०७३३) के पूर्ववर्ती या कम से कम पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास समकालिक तो मानना ही होगा। का पूर्ववर्ती भी माना गया है । अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या
यदि हम हरिभद्र को सिद्धसेन क्षमाश्रमण एवं जिनदासगणि महत्तर तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व का पूर्ववर्ती मानते हैं तब तो उनका समय विक्रम संवत् ५८५ माना जा मानकर उनकी कृतियों पर विशेषरूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का सकता है । मुनि जयसुन्दर विजयजी शास्त्रवार्तासमुच्चय की भूमिका में उक्त प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूलस्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती तिथि का समर्थन करते हुए लिखते हैं - प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने श्री रचना या लोक-परम्परा में खोजें । यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे हरिभद्रसूरि को ५८५ वि० सं० में होना बताया है। इतना ही नहीं, किन्तु वह निशीथचूर्णि का हो या हरिभद्र का, स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व श्री हरिभद्रसूरि ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत् तिथि-वार-मास की रचना नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रुति, पुराण, भारत और नक्षत्र के साथ लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति में किया है, जिस वृत्ति की
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ताड़पत्रीय जैसलमेर की प्रति का परिचय मुनि श्री पुण्यविजय-सम्पादित हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं । इनमें सबसे पूर्ववर्ती जिनभद्र का सत्ता'जैसलमेर कलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है : “क्रमांक १९६, समय भी शक संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६६५ के लगभग जम्बू द्वीपक्षेत्रसमासवृत्ति, पत्र २६, भाषा, प्राकृत-संस्कृत, कर्ता : हरिभद्र है। अत: हरिभद्र के स्वर्गवास का समय विक्रम संवत् ५८५ किसी आचार्य, प्रतिलिपि ले० सं० अनुमानत: १४वीं शताब्दी ।" भी स्थिति में प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता। इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है -
हरिभद्र को जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि और जिनदासमहत्तर इति क्षेत्रसमासवृत्तिः समाप्ता ।
का समकालिक मानने पर पूर्वोक्त गाथा के वि० सं० ५८५ को शक विरचिता श्री हरिभद्राचार्यैः ।।छ।।
संवत् मानना होगा और इस आधार पर हरिभद्र का समय ईसा की सातवीं लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः ।
शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है । हरिभद्र की कृति दशवैकालिकवृत्ति रचिताबुधबोधार्थ श्री हरिभद्रसूरिभिः ।।१।।
में विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाओं का उल्लेख यही स्पष्ट करता पञ्चाशितिकवर्षे विक्रमतो बज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।२।।
भाष्य का रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है । अत: ___ ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहमदाबाद, संवेगी उपाश्रय के यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों हस्तलिखित भण्डार की सम्भवतः पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी हुई क्षेत्र में संगति बैठ सकती है । पुन: हरिभद्र की कृतियों में नन्दीचूर्णि से भी समास की कागज की एक प्रति में उपलब्ध होता है ।
कुछ पाठ अवतरित हुए हैं । नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणिमहत्तर ने दूसरी गाथा में स्पष्ट शब्दों में श्री हरिभद्रसूरि ने लघुक्षेत्रमास- उसका रचना-काल शक संवत् ५९८ बताया है । अत: हरिभद्र का सत्ता वृत्ति का रचनाकाल वि० सं० (५) ८५, पुष्यनक्षत्र शुक्र (ज्येष्ठ) मास, समय शक संवत् ५९८ तदनुसार ई. सन् ६७६ के बाद ही हो सकता शुक्रवार-शुक्लपञ्चमी बताया है । यद्यपि यहाँ वि० सं० ८५ का उल्लेख है। यदि हम हरिभद्र के काल सम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के विक्रम संवत् है । तथापि जिन वार-तिथि-मास-नक्षत्र का यह उल्लेख है उनसे वि० को शक संवत् मानकर उनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सं० ५८५ का ही मेल बैठता है । अहमदाबाद वेधशाला के प्राचीन एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माने तो नन्दीचूर्णि के अवतरणों की ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित संगति बैठाने में मात्र २०-२५ वर्ष का ही अन्तर रह जाता है । अत: के आधार पर जाँच करके यह बताया है कि उपर्युक्त गाथा में जिन वार- इतना निश्चित है कि हरिभद्र का काल विक्रम की सातवीं/आठवीं अथवा तिथि इत्यादि का उल्लेख है, बड़ वि० सं० ५८५ के अनुसार बिलकुल ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी ही सिद्ध होगा। ठीक है, ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है।
___ इससे हरिभद्र की कृतियों में उल्लिखित कुमारिल, भर्तृहरि, इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की धर्मकीर्ति, वृद्धधर्मोत्तर आदि से उनकी समकालिकता मानने में भी कोई अत्यन्त प्रामाणिक सूचना दे रखी है, तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण बाधा नहीं आती । हरिभद्र ने जिनभद्र और जिनदास के जो उल्लेख किये हो सकता है जो उनके इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ? शंका हैं और हरिभद्र की कृतियों में इनके जो अवतरण मिलते हैं उनमें भी इस हो सकती है कि 'यह गाथा किसी अन्य ने प्रक्षिप्त की होगी' किन्तु वह तिथि को मानने पर कोई बाधा नहीं आती। अत: विद्वानों को जिनविजयजी ठीक नहीं, क्योंकि प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर के निर्णय को मान्य करना होगा। सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं पुनः यदि हम यह मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में उल्लिखित कर सकता । हाँ, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा प्राकृत धूर्ताख्यान किसी पूर्वाचार्य की कृति थी और उसके आधार पर ही उत्पन्न कर रहा हो तो धर्मकीर्ति आदि के समयोल्लेख के आधार पर श्री हरिभद्र ने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान की रचना की तो ऐसी स्थिति में हरिभद्रसूरि को विक्रम की छठी शताब्दी से खींचकर आठवीं शताब्दी के हरिभद्र के समय को निशीथचूर्णि के रचनाकाल ईसवी सन् ६७६ से आगे उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरि के इस लाया जा सकता है । मुनि श्री जिनविजयजी ने अनेक आन्तर और बाह्य अत्यन्त प्रामाणिक समय-उल्लेख के बल से धर्मकीर्ति आदि को ही छठी साक्ष्यों के आधार पर अपने ग्रन्थ 'हरिभद्रसूरि का समय-निर्णय' में हरिभद्र शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में ले जाया जाय ।
के समय को ई० सन् ७००-७७० स्थापित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा किन्तु मुनि श्रीजयसुन्दरविजयजी की उपर्युक्त सूचना के के अनुसार हरिभद्र का समय विक्रम सं० ५८५ मानते हैं तो जिनविजयजी अनुसार जम्बूद्वीप क्षेत्र समासवृत्ति का रचनाकाल है । पुनः इसमें मात्र द्वारा निर्धारित समय और गाथोक्त समय में लगभग २०० वर्षों का अन्तर ८५ का उल्लेख है, ५८५ का नहीं । इत्सिंग आदि का समय तो रह जाता है। जो उचित नहीं लगता है । अत: इसे शक संवत् मानना सुनिश्चित है । पुनः समस्या न केवल धर्मकीर्ति आदि के समय की है, उचित होगा। इसी क्रम में मुनि जिनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार' अपितु जैन-परम्परा के सुनिश्चित समयवाले जिनभद्र, सिद्धसेनक्षमाश्रमण में 'रत्नसंचयप्रकरण' को निम्न गाथा का उल्लेख किया है - एवं जिनदासगणि महत्तर की भी है- इनमें से कोई भी विक्रम संवत् पणपण्णबारससए हरिभद्दोसूरि आसि पुव्वकाए । ५८५ से पूर्ववर्ती नहीं है जबकि इनके नामोल्लेख सहित ग्रन्थावतरण इस गाथा के आधार पर हरिभद्र का समय वीर-निर्वाण संवत
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
१२५५ अर्थात् वि० सं० ७८५ या ईसवी सन् ७२८ आता है । इस हरिभद्र, अकलंक और सिद्धर्षि से पूर्ववर्ती हैं । अकलंक का समय गाथा में उनके स्वर्गवास का उल्लेख नहीं है, अत: इसे उनका सत्ता- विद्वानों ने ई० सन् ७२०-७८० स्थापित किया है । अत: हरिभद्र या समय माना जा सकता है । यद्यपि उक्त गाथा की पुष्टि हेतु हमें अन्य कोई तो अकलंक के पूर्ववर्ती या वरिष्ठ समकालीन ही सिद्ध होते है । उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। यदि हम इसी प्रसंग में वीर-निर्वाण संवत् के सम्बन्ध में चली आ रही ६० वर्ष की भूल को संशोधित कर वीर-निर्वाण हरिभद्र का व्यक्तित्व को वि० पू० ४१० या ई० पू० ४६७ मानते हैं जैसा कि मैंने अपने एक हरिभद्र का व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों की पूँजीभूत भास्वर प्रतिभा निबन्ध (देखें : सागर जैन-विद्या भारती, भाग १) में सिद्ध किया है, तो ऐसी है। उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता ऐसे सद्गुण हैं जो उनके व्यक्तित्व को स्थिति में हरिभद्र का स्वर्गवास काल १२५५-४६७= ७८८ ई० सिद्ध हो महनीयता प्रदान करते हैं । उनका जीवन समभाव की साधना को समर्पित जाता है और यह काल जिनविजयजी द्वारा निर्धारित हरिभद्र के सत्ता- है। यही कारण है कि विद्या के बल पर उन्होंने धर्म और दर्शन के क्षेत्र समय ईसवी सन् ७०० से ७७० के अधिक निकट है।
में नए विवाद खड़े करने के स्थान पर उनके मध्य समन्वय साधने का हरिभद्र के उपर्युक्त समय-निर्णय के सम्बन्ध में एक अन्य पुरुषार्थ किया है। उनके लिए 'विद्या विवादाय' न होकर पक्ष-व्यामोह महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी होती है सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंचकथा के से ऊपर उठकर सत्यान्वेषण करने हेतु है । हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर उस उल्लेख से जिसमें सिद्धर्षि ने हरिभद्र को अपना धर्मबोधकर गुरु कहा सत्याग्रही हैं, अत: उन्होंने मधुसंचयी भ्रमर की तरह विविध धार्मिक और है। उन्होंने यह कथा वि० सं० ९६२ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, गुरुवार दार्शनिक परम्पराओं से बहुत कुछ लिया है और उसे जैन-परम्परा की के दिन पूर्ण की थी। सिद्धर्षि के द्वारा लिखे गये इस तिथि के अनुसार अनेकान्त दृष्टि से समन्वित भी किया है । यदि उनके व्यक्तित्व की यह काल ९०६ ई० सिद्ध होता है तथा उसमें बताए गए वार, नक्षत्र महानता को समझना है तो विविध क्षेत्रों में उनके अवदानों का मूल्यांकन आदि भी ज्योतिष की गणना से सिद्ध होते हैं । सिद्धर्षि उपमितिभवप्रपंचकथा करना होगा और उनके अवदान का वह मूल्यांकन ही उनके व्यक्तित्व में हरिभद्र के विषय में लिखते हैं कि उन्होंने (हरिभद्र ने) अनागत अर्थात् का मूल्याकंन होगा । भविष्य में होने वाले मुझको जानकर ही मेरे लिये चैत्यवंदनसूत्र का आश्रय लेकर 'ललितविस्तरा-वृत्ति' की रचना की। यद्यपि कुछ जैन- धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान कथानकों में सिद्धर्षि और हरिभद्र के पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध किया धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान क्या है ? यह गया है और यह बताया गया है कि सिद्धर्षि हरिभद्र के हस्तदीक्षित शिष्य समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कर रहे हैंथे, किन्तु सिद्धर्षि का यह कथन कि 'भविष्य में होने वाले मुझको (१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण। जानकर ............' यही सिद्ध करता है कि आचार्य हरिभद्र उनके (२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा परम्परा-गुरु थे, साक्षात् गुरु नहीं।
अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति । स्वयं सिद्धर्षि ने भी हरिभद्र को कालव्यवहित अर्थात् पूर्वकाल (३) शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं में होने वाले तथा अपने को अनागत अर्थात् भविष्य में होने वाला कहा के सार-तत्त्व और मूल उदेश्यों को समझने का प्रयत्न । है । अत: दोनों के बीच काल का पर्याप्त अन्तर होना चाहिए । यद्यपि (४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं यह सत्य है कि सिद्धर्षि को उनके ग्रन्थ ललितविस्तरा के अध्ययन से इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन-दृष्टि के साथ उनके समन्वय जिन-धर्म में स्थिरता हुई थी, इसलिए उन्होंने हरिभद्र को धर्मबोध प्रदाता का प्रयत्न । गुरु कहा, साक्षात् गुरु नहीं कहा । मुनि जिनविजयजी ने भी हरिभद्र को (५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु नहीं माना है।
करके उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन करना । कुवलयमाला' के कर्ता उद्योतनसूरि ने अपने इस ग्रन्थ में जो (६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए पौराणिक शक संवत् ६९९ अर्थात् ई० सन् ७७७ में निर्मित है, हरिभद्र एवं अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन करना । उनकी कृति 'समराइच्चकहा' तथा उनके भवविरह नाम का उल्लेख (७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा किया है । अत: हरिभद्र ई० सन् ७७७ के पूर्व हुए हैं, इसमें कोई विवाद तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल; किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति नहीं रह जाता है।
का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज हरिभद्र, सिद्धर्षि और अकलंक के पूर्ववर्ती हैं, इस सम्बन्ध में के लिए हो । एक अन्य प्रमाण यह है कि सिद्धर्षि ने न्यायावतार की टीका में अकलंक (८) धर्म-साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की द्वारा मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क- इन तीन प्रमाणों की चर्चा की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न । है। अकलंक के पूर्व जैनदर्शन में इन तीन प्रमाणों की चर्चा अनुपस्थित (९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण । है । हरिभद्र ने भी कहीं इन तीन प्रमाणों की चर्चा नहीं की है । अत: (१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों
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वस्थ
पर बल ।
दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक
उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या
जैन-परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं दर्शन हैं जबकि जैन-दर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन धर्मोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाई हैं। वस्तुत: वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस लगभग ई० पू० ३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्तकों, यथा-नारद, असितदेवल, जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि
और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । निश्चय ही अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादर भाव का यह अति किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती प्राचीन काल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है। अन्य है। उदारहण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेव-स्तोत्र (४४) में निम्न परम्पराओं के प्रति ऐसा समादर भाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन श्लोक प्रस्तुत करते हैं - साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । स्वयं जैन-परम्परा में भी यह भव-बीजांकुरजनना रागाद्याक्षयमुपागता यस्य । उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी । परिणामस्वरूप यह ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। महान् ग्रन्थ जो कभी अंग-साहित्य का एक भाग था, वहाँ से अलगकर वस्तुत: २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन-इतिहास में ऐसा कोई भी परिपार्श्व में डाल दिया गया । यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम-ग्रन्थों समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें अन्य जा सके । यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों ने जैनदर्शनों और परम्पराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या कहकर उनकी आलोचना भी करता है । भगवती में विशेष रूप में मंखलि- श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं गोशालक के प्रसंग में तो जैन-परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर जिन्होंने समन्वयात्मक और उदार दृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, देती है । ऋषिभाषित में जिस मखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन सम्बोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया किया हो । गया है। यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल दो दृष्टियों से किया जाता है - एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने जैन-परम्परा में, अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य
को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गए जैन-दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है । उन्होंने बत्तीस साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य आलोचना करना होता है, तो द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दशवीं में योगविद्या, वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है । उदाहरण के रूप में पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों ने कभी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। वे करने का प्रयत्न नहीं किया है । यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों अनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रति चुटीले व्यंग्य भी कसते हैं। में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है। अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान में वस्तुत: दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के का निराकरण करना ही था । सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बन्ध में अशिष्ट ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों भाषा का प्रयोग ही करते हैं । में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है। यद्यपि सिद्धसेन दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना और उसमें हरिभद्र का स्थान दिवाकर, समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख
महान् है।
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दर्शनों के सिद्धान्त को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों की मूलभूत शैली निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय खण्डनपरक ही है । अत: इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के की कोटि का और उससे प्राचीन दर्शन संग्राहक कोई अन्य ग्रन्थ हमें प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती, जो प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता।
हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्पराओं इसके पश्चात् वैदिक परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का क्रम आता है । मधुसूदन की दृष्टि से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रन्थों में अपने सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है। है । नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वे छ: प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। . जैन-परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने इसमें बौद्ध-दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं किन्तु उनकी दृष्टि भी हुआ है । आस्तिक-वैदिक दर्शनों में-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, खण्डनपरक ही है । विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं० दलसुखभाई उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए मालवणिया के अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अनेकान्तवाद की स्थापना करना है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनशब्दों में नयचक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई संग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है, वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ दलीलों से हो सकता है । स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता थे। चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रवष्टि रहता है । अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं । नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष मुनियों ने दर्शन-प्रस्थानों के भेद किये हैं। इस प्रकार प्रस्थान-भेद में अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है । इस यत्किञ्चित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है किन्तु यह उदारता केवल प्रकार जैन-परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ नहीं लिखा गया ।
निराकरण करना तो सर्वदर्शनकौमुदीकार को भी इष्ट ही है । इस प्रकार जैनेतर परम्पराओं के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है । यद्यपि सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में सन्देह अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने है। इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए इष्ट दर्शन को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अत: किसी सीमा हरिभद्र के पश्चात् जैन-परम्परा में लिखे गए दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों तक इसकी शैली को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है में अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है किन्तु इतना निश्चित किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिम मत का भी प्रथम मत से खण्डन है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ में 'सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं' ऐसा उल्लेख है । पं० सुखलाल 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय करता है । अत: यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का ही अनुसरण करती है। अन्तर मात्र यह है कि जहाँ हरिभद्र का ग्रन्थ का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है। साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है।
षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तुत भी है। जैनतर परम्पराओं में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जैन-परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि माधवाचार्य (ई० १३५०?) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किन्तु के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम १२६५) के 'विवेकविलास' का 'सर्वदर्शनसंग्रह की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण सम्यग्दर्शन है । ‘सर्वसिद्धान्तसंग्रह' और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की है, जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक- इन छ:
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दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है । पं० दलसुखभाई मालवणिया समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोग और अन्य धर्मप्रवर्तकों के प्रति के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्याय- बहुमान वशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है। मेरी दृष्टि में इसका दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही रहे हैं। प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिये अन्य दार्शनिक उल्लेख किया गया है -
मतों की समालोचना करता है । स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का __ 'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः' ।।१३।। खण्डन-यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है । हरिभद्र भी इसके
यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल अपवाद नहीं हैं । फिर भी उनकी यह विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र की समीक्षा में वे सदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विरोधी ६६ श्लोकप्रमाण हैं।
दर्शनों के प्रवर्तकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करते हैं । दार्शनिक जैन-परम्परा में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर समीक्षाओं के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है जिसमें अन्य दार्शनिक (विक्रम १४०५) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है। इस ग्रन्थ में जैन, परम्पराओं को न केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था, अपितु उनके सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छ: दर्शनों का प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था । जैन और जैनेतर दोनों ही उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी परम्पराएँ इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त नहीं रख सकी । जैन-परम्परा के को आस्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक-दर्शन सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य का परिचय दिया गया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर दार्शनिक परम्पराओं की समीक्षा करते हैं तो न केवल उन परम्पराओं की के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि मान्यताओं के प्रति, अपितु उनके प्रवर्तकों के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कस दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं देते हैं । हरिभद्र स्वयं भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं । पं० सुखलाल संघवी के अपवाद नहीं रहे हैं । जैन-आगमों की टीका में और धूर्ताख्यान जैसे के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर ग्रन्थों की रचना में वे स्वयं भी इस प्रकार के चुटीले व्यंग्य कसते हैं, अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर किन्तु हम देखते हैं कि विद्वत्ता की प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धीरे-धीरे नहीं रख सके ।
यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है और अपने परवर्ती ग्रन्थों में वे अन्य पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग के काल का ही एक अन्य दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ आचार्य मेरुतुंगकृत करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं । इसके कुछ उदाहरण 'षड्दर्शननिर्णय' है । इस ग्रन्थ में मेरुतुंग ने जैन, बौद्ध, मीमांसा, हमें उनके ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखने को मिल जाते हैं । अपने सांख्य, न्याय और वैशेषिक - इन छ: दर्शनों की मीमांसा की है किन्तु ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है । यह मुख्यतया जैनमत की करते हुए वे लिखते हैं - स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिये लिखा गया है । इसकी यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । एकमात्र विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।। आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है।
___ अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष-बुद्धि पं० दलसुखभाई मालवणिया ने षड्दर्शनसमुच्चय की समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है । इस ग्रन्थ में वे कपिल को प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं -कपिलो दिव्यो हि 'षड्दर्शनसमुच्चय' की वृत्ति के अन्त में अज्ञातकृत एक कृति मुद्रित स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय, २३७) । इसी प्रकार वे बुद्ध को भी है । इसमें भी जैन, न्याय, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और अर्हत् , महामुनिः सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं -यतो बुद्धो चार्वाक- ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है किन्तु महामुनिः सुवैद्यवत् (वही, ४६५-४६६)। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैनदर्शन को उच्च एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास श्रेणी में रखा गया है । इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को करते हैं - न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या साम्प्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका ।
बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने निष्पक्ष प्रयोग करते हैं। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थ में अन्य दर्शनों का की स्पष्ट समालोचना है किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं विवरण दिया है । इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं।
मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो । इस
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव हैं। वे लिखते हैं कि “सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म-प्रकृति ही का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती।
दिव्य-पुरुष और महामुनि हैं ।१६ ।। हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, सारतत्व स सत्य को समझने का जो प्रयास किया, वह भी अत्यन्त ही विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है। में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते करते । उन्होंने क्षणिकवाद का उपेदश पदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के हैं। किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप-द्रव्यकर्म और भावकर्म माने निवारण के लिये ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील गए हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति आसक्ति गहरी नहीं होती। इसी कारण जहाँ वे चार्वाक-दर्शन की समीक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूत स्वभाववाद करने के लिए ही है । यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी। इसी प्रकार कुछ का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है ।१५ प० सुखलालजी संघवी लिखते साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की निस्सारता का बोध हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है । इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के में बौद्ध-दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद-इन तीनों सिद्धान्तों अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति की जगत् के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा परस्परपूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और का प्रहाण हो। मीमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का सुमेल हुआ है ।१२।
अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह इसी प्रकार 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र यद्यपि न्याय- बताते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणओं है। इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहाँ चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी ने इन अवधारणाओं का खण्डन किया है, वहाँ हरिभद्र इनकी भी आवश्यक है। अद्वैत परायेपन की भावना का निषेध करता है, इस सार्थकता को स्वीकार करते हैं । हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में प्रकार द्वेष का उपशमन करता है । अतः वह भी असत्य नहीं कहा भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है । प्रथम तो यह जा सकता । इसी प्रकार अद्वैत- वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति समीचीन ही स्वीकार करते हैं । श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है जिसके द्वारा वह अपने में उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक आत्मविश्वास जागृत कर सके । पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिये न होकर उन मानव-मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो दार्शनिक परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिये ही है। स्वयं नहीं कही जा सकती । उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुँचे तथा तर्क उन्होंने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से और सत्य का बोध करना है । उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है ।१३ हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे आलोचक के स्थान पर को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं । है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है। इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्येता एवं निष्पक्ष व्याख्याकार हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वत: अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भारतीय दार्शनिकों में अपने से इतर परम्पराओं के गम्भीर भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' अध्ययन की प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है। बादरायण, भी है और ‘कर्ता भी है । इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववाद भी समीचीन ही जैमिनि आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं तो सिद्ध होता है । हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं, ऐसा लगता है कि वे दूसरे दर्शनों को अपने सतही ज्ञान के आधार पर किन्तु वे प्रकृति को जैन-परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं । यह सत्य है कि
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अकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर के समर्थक हैं किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यताओं के वे कठोर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने ही किया समीक्षक भी । है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारीपूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न तो उन दर्शनों में तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को सकते थे और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। तर्क-विरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्करहित श्रद्धा उपादेय नहीं है। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों पर तटस्थ भाव से टीकाएँ भी लिखीं। दिङ्नाग और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है - के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टौका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । पतञ्जलि के पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है क्योंकि युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। उन्होंने उसी के आधार पर एवं नवीन दृष्टिकोण से योगदृष्टिसमुच्चय,
- लोकतत्त्वनिर्णय, ३८ योगबिन्दु, योगविंशिका आदि ग्रन्थों की रचना की थी। इस प्रकार हरिभद्र उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और जैन और जैनेतर परम्पराओं के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की भी हैं । जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्ति संगत लगे उसे स्वीकार तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भाव रखा, करना चाहिए । यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपने वाले दोषों उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ के प्रति भी सचेष्ट हैं । वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क भाव रखा है।
का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया
जाना चाहिये, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिएअन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन
आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा । यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के प्रति निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ।। एक उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं, किन्तु इसका ___ आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वहीं करता तात्पर्य यह नहीं है कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते है जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है, जबकि अनाग्रही या हैं । एक ओर वे अन्य परम्पराओं के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है, उसे स्वीकार करता है । इस निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं । इस दृष्टि से उनकी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की पुष्टि दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- (१) धूर्ताख्यान और या अपने विरोधी मान्यताओं के खण्डन के लिये न करके सत्य की (२) द्विजवदनचपेटिका । 'धूर्ताख्यान' में उन्होंने पौराणिक परम्पराओं में गवेषणा के लिये करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे पल रहे अन्धविश्वासों का सचोट निरसन किया है । हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख तार्किक हैं। से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा-शंकर के द्वारा अपनी जटाओं कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल में गंगा को समा लेना, वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म साधना को से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना, गणेश का पार्वती साथ जोड़ने का प्रयास किया है। यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पार्वती का हिमालय की पुत्री होना आदि के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र (शील) को स्वीकार किया अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। गया है। हरिभद्र भी धर्म-साधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हरिभद्र धूर्ताख्यान की कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न हैं और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपर्युक्त बातें सत्य हैं ज्ञान को कुतर्क-आश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकतीं। इस प्रकार धूर्ताख्यान में वे व्यंग्यात्मक तक सीमित रखना चाहिए । वे कहते हैं कि 'जिन' पर मेरी श्रद्धा का कारण किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या-विश्वासों की समीक्षा करते हैं। इसी राग-भाव नहीं है, अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। इस प्रकार वे प्रकार द्विजवदनचपेटिका में भी उन्होंने ब्राह्मण परम्परा में पल रही मिथ्या- श्रद्धा के साथ बुद्धि को जोड़ते हैं, किन्तु निरा तर्क भी उन्हें इष्ट नहीं है। धारणाओं एवं वर्ण-व्यवस्था का सचोट खण्डन किया है । हरिभद्र सत्य वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुत: एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा
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एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाला है। वह ज्ञान का अभिमान उत्पन्न करने के कारण भाव शत्रु है इसलिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क के वाग्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए । २१ वस्तुतः वे सम्यग्ज्ञान और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का सृजन करता है, अतः उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता आध्यात्मिक विकास में बाधक ही है। 'शाख वार्तासमुच्चय में उन्होंने धर्म के दो विभाग किये हैं- एक संज्ञान योग और दूसरा पुण्य लक्षण । २२ ज्ञानयोग वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक ज्ञान से भिन्न है। हरिभद्र के अनुसार अन्धश्रद्धा से मुक्त होने के लिए तर्क एवं युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए, न कि खण्डनमण्डनात्मक । खण्डन- मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय में की है। इसी प्रकार धार्मिक आचार को भी वे शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक रखना चाहते हैं। यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्डपरक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह व्यक्त किया है। हरिभद्र के समस्त मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर ही अधिक बल देते है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और कषायों के उपशमन के निमित्त ही हैं। जीवन में कषायें उपशान्त हों, समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के नाम पर पनपने वाले चोथे कर्मकाण्ड एवं छदम जीवन की उन्होंने खुलकर निन्दा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े हाथों लिया है, उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है
अध्यात्मं भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। • योगबिन्दु, ३१
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योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की भिन्नता और रोग की भिन्नता के आधार पर अलगअलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्माजन भी संसाररूपी व्याधि-हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्नभिन्न विधियाँ बताते हैं । २५ वे पुनः कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों को प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भित्रता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है।२६ वस्तुतः विषय-वासनाओं से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार पर स्वयं धर्म-साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न लगाना अनुचित ही है। वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म-साधना के क्षेत्र में बाह्य आचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है।
हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है ऐसी अवधारणा ही प्रान्त है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि
नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव । ।
अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है, न दिगम्बर रहने से तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है । वे स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म, सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा नहीं है। वस्तुत: जो व्यक्ति समभाव की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वह मुक्त होगा। उनके शब्दों में
साधनागत विविधता में एकता का दर्शन धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंने सम्यक् समाधान खोजा है। जिस प्रकार 'गीता' में विविध देवों की उपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है, उसी प्रकार हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है। वे लिखते है कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं- उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार-पद्धतियाँ बाह्यतः भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वतः एक ही है। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वतः भेद नहीं होता है । २४
हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जो भिन्नता है। वह मुख्य रूप से दो आधारों पर है। एक साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की
सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभावभावि अप्पा लहड़ मुक्खं न संदेहो ।। अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा, फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो ।
साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम भेद महत्त्वपूर्ण नहीं
हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम-भेदों को लेकर धर्म के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है। लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैंयस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्यै ||
ब्रह्मा वा [१०]GG
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यतीन्द्रसूरि स्मारकमान्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
वस्तुतः जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी से चर्चा की थी, अब मैं उनकी क्रान्तिधर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा । गुण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय, उसमें भेद नहीं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या परमसत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है, किन्तु हमारी दृष्टि उस परमतत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जब कि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि
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सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च ।
शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एक एवैवमादिभिः ।। अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं कर पाते हैं । व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्ति की भूमिका का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों का यह विवाद निरर्थक हो जाता है। वस्तुतः आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं । जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह अनुभूति से वंचित हो जाता है। वे कहते हैं कि जो उस परमतत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिये यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और सत्यनिष्ठ आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज पाना कठिन है । अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं ।
क्रान्तदर्शी समालोचक : जैन परम्परा के सन्दर्भ में
हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक है - 'कुसुमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर ।' उनके चिन्तन में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है। दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का विषय बने बिना नहीं रहता है। वे उदार हैं, किन्तु सत्याग्रही भी । वे समन्वयशील हैं, किन्तु समालोचक भी । वस्तुतः एक सत्य- द्रष्टा में ये दोनों तत्त्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं। जब वह सत्य की खोज करता है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयतापूर्वक उसे स्वीकार करता है, किन्तु दूसरी ओर असत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या उसके प्रतिपक्षी में, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है। हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स है। पूर्व में मैने हरिभद्र के उदार और समन्वयशील पक्ष की विशेष रूप
क्रान्तदर्शी हरिभद्र
हरिभद्र के धर्म-दर्शन के क्रान्तिकारी तत्त्व वैसे तो उनके सभी ग्रन्थों में कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, धूर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेषरूप से परिलक्षित होते हैं । जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को उजागर करते हैं वहीं सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए उसकी कमियों का भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं।
हरिभद्र अपने युग के धर्म सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म मार्ग की बातें करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म मार्ग से रहित हैं २७ ।" मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है । धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म-तत्त्व की गवेषणा हो । दूसरे शब्दों में, जहाँ आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और पाने का प्रयास हो । जहाँ परमात्म-तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास नहीं है वहाँ धर्म मार्ग नहीं है। वे कहते हैं- जिसमें परमात्म-तत्त्व की मार्गणा है, परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग मुख्य मार्ग है " । आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- जहाँ विषय-वासनाओं का त्याग हो; क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों से निवृत्ति हो; वही धर्म मार्ग है। जिस धर्म मार्ग वा साधना पथ में इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है। वस्तुतः धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र की यह पीड़ा मर्मान्तक है। जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ घृणा द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे धर्म कहना धर्म की विडम्बना है। हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु धर्म का आवरण डाले हुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही है। विषय-वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधिकार की वस्तु मानकर यह कहते हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते हुए हरिभद्र यहाँ तक कह देते हैं कि धर्म मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है, जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, वह चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई " । वस्तुतः उस युग में जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भाँति ही अपने चरम सीमा पर थे, यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है, अपितु उनके एक क्रान्तदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है। उन्होंने जैनपरम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों में विभाजित कर दिया
(१) नामधर्म- धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है किन्तु जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है। वह धर्मतत्त्व से रहित मात्र १०.१]
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नाम का धर्म है।
२७३) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा, पूजा आदि
कार्यों में उलझने पर मुनि-वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका (२) स्थापनाधर्म - जिन क्रियाकाण्डों को धर्म मान लिया पूर्वानुमान कर लिया था । यति-संस्था के विकास से उनका यह अनुमान जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र सत्य ही सिद्ध हुआ । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक हैं । पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किन्तु भावना के अभाव में वे ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रही है वस्तुत: धर्म नहीं हैं । भावनारहित मात्र क्रियाकाण्ड स्थापना धर्म है। तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है । जिन
द्रव्य को अपनी वासना-पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं (३) द्रव्यधर्म - वे आचार-परम्पराएँ जो कभी धर्म थी या तथाकथित श्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं - जो श्रावक जिनधार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं। प्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिनसत्वशून्य अप्रासंगिक बनी धर्म-परम्पराएँ ही द्रव्यधर्म हैं। द्रव्य का जिनाज्ञा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा
भक्षण करते हैं, वे क्रमश: भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने (४) भावधर्म - जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा- वाले और अनन्त संसारी होते हैं ।३५ इसी प्रकार जो साधु जिनद्रव्य का समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भावधर्म हैं। भोजन करता है वह प्रायश्चित् का पात्र है। वस्तुतः यह सब इस तथ्य
हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म को ही प्रधान मानते का भी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासनाहैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया पूर्ति का माध्यम बन रहा था। अत: हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिये
और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध रूपी आत्मा घृत रूप उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया। परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है ।३२ वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन-साधुओं का जो जो भागवत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है । यद्यपि हरिभद्र के इस चित्रण किया है वह एक ओर जैन-धर्म में साधु-जीवन के नाम पर जो कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो पूर्णत: विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक गाथाओं में आत्मशुद्धि निमित्त जिनपूजा और उसमें होने वाली आशातनाओं दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक का सुन्दर चित्रण किया है । मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी। वे अपनी समालोचना कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे । है।३४ यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म- तत्कालीन तथाकथित श्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष विशुद्धि नहीं होती है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। करते हुए वे लिखते हैं कि जिन-प्रवचन में पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, वस्तुत: हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का संसक्त और यथाछन्द (स्वेच्छाचारी)- ये पाँचों अवन्दनीय हैं । यद्यपि ये मूल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं, किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं पहचान है, अत: वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की है। मुनि-वेश धारण करके भी क्या-क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं । यही उनकी चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु क्रान्तधर्मिता है।
गुर्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अर्न्तगत १७१ गाथाओं में विस्तार से हरिभद्र के युग में जैन-परम्परा में चैत्यवास का विकास हो करते हैं। इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना चुका था । अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला मुनिवर्ग तो सम्भव नहीं है, फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय जिनपूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर देने के लिये कुछ विवरण देना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं, ये मुनिरहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन-प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी वेशधारी तथाकथित श्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन विषय-वासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन-प्रतिमा और करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाए गए भोजन को स्वीकार करते जिन-मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान-भूमि या साधना-भूमि न बनकर हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमणभोग-भूमि बन रहे थे । हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के लिये यह सब जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं, कौतुक कर्म, भूत-कर्म, देख पाना सम्भव नहीं था, अत: उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम भविष्य-फल एवं निमित्त-शास्त्र के माध्यम से धन-संचय करते हैं, ये घृतचलाने का निर्णय लिया। वे लिखते हैं - द्रव्य-पूजा तो गृहस्थों के लिये मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य-प्रमाण भोजी होते है, मुनि के लिए तो केवल भाव-पूजा है। जो केवल मुनिवेशधारी हैं, हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो साधूमुनि-आचार का पालन नहीं करते हैं, उनके लिए द्रव्य-पूजा जिन- समूह (मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं।७ प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण, १/ फिर ये करते क्या हैं ? हरिभद्र लिखते हैं कि वे सवारी में घूमते हैं,
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अकारण कटि वस्त्र बाँधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपधि (सामग्री) का को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे, इन अधर्म प्रति-लेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । अनेषणीय पुष्प, और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले और साधुता के फूल और पेय ग्रहण करते हैं । भोज-समारोहों में जाकर सरस आहार चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या ग्रहण करते हैं । जिन-प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं। द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है उच्चाटन आदि कर्म करते हैं। नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा ।४३ हरिभद्र पुन: कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं । विपुल वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, बिस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं । स्त्रियों अधिक श्रेयस्कर है । के समक्ष गीत गाते हैं । आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म लोक-प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके धारण करते हैं । चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है । वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट आरम्भ करवाते हैं, जिन-मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं । मृतक-कृत्य करो, अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप धूमिल हो जाएगा। वे कहते हैं कि निमित्त जिन-पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाय तो नीम का कुछ नहीं करवाते हैं । धन-प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग-सूत्र आदि का बिगड़ेगा, किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। प्रवचन करते हैं । अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदिकर्म, बलिकर्म वस्तुत: हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है, क्योंकि दुराचारियों के आदि करते हैं । पाठ-महोत्सव रचाते हैं । व्याख्यान में महिलाओं से सानिध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वे स्वयं कहते हैं, अपना गुणगान करवाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और जो जिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा हो जाता है । तिल जिस फूल आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं । इस प्रकार में डाल दिये जाते हैं उसी की गन्ध के हो जाते हैं । ६ हरिभद्र इस माध्यम जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। से समाज को उन लोगों को सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं। ये तो ज्ञान के नकाब डाले अधर्म में जीते हैं क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी विक्रेता हैं । ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले भी समाज के लिये अधिक खतरनाक हैं । आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष द्रव्य-संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा करते हुए कहते हैं- जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध सकते हैं और न आचार्य ही ।“ ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिये हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है। कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का कर्मबन्धन होता है ।३९
सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये वस्तुत: जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सानिध्य तो नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं। हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है)।७ फटकारते हुए कहते हैं - यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदशी आचार्य की बात शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे। वे लोगों नहीं धारण कर लेते हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है । वक्र किन्तु मुनि-वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो जड़ों का काल है । दुषमा-काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे। यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य है। यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि-व्रत धारण नहीं हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। करेगा। तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है, हम क्या करें । जैसा कि मैंने पूर्व पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन-साधारण कह रहा था कि कुछ भी अपनी विरोधी दर्शन-परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि, सुवैद्य जैसे उत्तम हो वेश तो तीर्थङ्कर-प्रणीत है, अत: वन्दनीय है । हरिभद्र भारी मन में से विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ ।४५ हैं, विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी किन्तु यह तो प्रत्येक क्रान्तिकारी की नियति होती है। प्रथम अधार्मिक हैं। ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है- क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है । अत: हरिभद्र का इस
ऐसे दुश्शील, साध-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार पीड़ा से गुजरना उनके क्रान्तिकारी होने का ही प्रमाण है । सम्भवतः करता है, क्या वह महापाप नहीं है ?४२ अरे ! इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी, जैन-परम्परा में यह प्रथम अवसर था, जब जैन समाज के तथाकथित मोक्ष-मार्ग के वैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो। मुनि-वर्ग को इतना स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य ने लताड़ा हो। वे स्वयं
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दुःखी मन से कहते हैं - हे प्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अभिनिवेश विकसित हो गया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की अच्छा है, अरे व्याधि ! और मृत्यु भी श्रेष्ठ है, किन्तु इन कुशीलों का भाँति प्रत्येक गुरु के आस-पास एक वर्ग एकत्रित हो रहा था जो उन्हें सान्निध्य अच्छा नहीं है । अरे । (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ अपना गुरु मानता था तथा अन्य को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता भी अच्छा हो सकता है, किन्तु इन कुशीलों का साथ तो बिल्कुल ही था। श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य को अपना गुरु अच्छा नहीं है । क्योंकि हीनाचारी तो अल्प नाश करता है किन्तु ये तो मानता था, जैसा कि आज भी देखा जाता है । हरिभद्र ने इस परम्परा शीलरूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं । वस्तुतः इस कथन के में साम्प्रदायिकता के दुरभिनिवेश के बीज देख लिये थे। उन्हें यह स्पष्ट पीछे आचार्य की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी को लग रहा था कि इससे साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे। समाज विभिन्न इतर परम्परा का मान लेते हैं तो उसकी कमियों को कमियों के रूप में छोटे-छोटे वर्गों में बँट जाएगा। इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा ही जानते हैं । अत: उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं यह था कि गुणपूजक जैन-धर्म व्यक्तिपूजक बन जायेगा और वैयक्तिक आती है, जितनी जैन-मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करने रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के बावजूद एक विशेष वर्ग की, वाले के सम्पर्क से । क्योंकि उसके सम्पर्क से उस पर श्रद्धा होने पर एक विशेष आचार्य की इस परम्परा से रागात्मकता जुड़ी रहेगी । युगव्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जाएगा । यदि सदभाग्य से द्रष्टा इस आचार्य ने सामाजिक विकृति को समझा और स्पष्ट रूप से अश्रद्धा हुई तो वह जिन-प्रवचन के प्रति अश्रद्धा को जन्म देगा (क्योंकि निर्देश दिया- श्रावक का कोई अपना और पराया गुरु नहीं होता है, सामान्यजन तो शास्त्र नहीं वरन् उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता जिनाज्ञा के पालन में निरत सभी उसके गुरु हैं ।५२ काश, हरिभद्र के द्वारा है), फलत: उभयतो सर्वनाश का कारण होगी, अत: आचार्य हरिभद्र बार- कथित इस सत्य को हम आज भी समझ सकें तो समाज की टूटी हुई बार जिन-शासन-रसिकों को निर्देश देते हैं-ऐसे जिन शासन के कलंक, कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सकता है। शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तो छाया से भी दूर रहो, क्योंकि ये तुम्हारे जीवन, चारित्रबल और श्रद्धा सभी को चौपट कर देंगे। हरिभद्र को क्रान्तदर्शी समालोचक : अन्य परम्पराओं के सन्दर्भ में जिन-शासन के विनाश का खतरा दूसरों से नहीं, अपने ही लोगों से
पूर्व में हमने जैन-परम्परा में व्याप्त अन्धविश्वासों एवं धर्म के नाम अधिक लगा । कहा भी है
पर होने वाली आत्म-प्रवंचनाओं के प्रति हरिभद्र के क्रान्तिकारी अवदान की इस घर को आग लग गई घर के चिराग से । चर्चा सम्बोधप्रकरण के आधार पर की है। अब मैं अन्य परम्पराओं में
वस्तुत: एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य प्रचलित अन्धविश्वासों की हरिभद्र द्वारा की गई शिष्ट समीक्षा को प्रस्तुत उद्देश्य था जैन-संघ में उनके युग में जो विकृतियाँ आ गयी थीं, उन्हें करूँगा। दूर करना । अत: उन्होंने अपने ही पक्ष की कमियों को अधिक गम्भीरता हरिभद्र की कान्तदर्शी दृष्टि जहाँ एक ओर अन्य धर्म एवं दर्शनों से देखा । जो सच्चे अर्थ में समाज-सुधारक होता है, जो सामाजिक में निहित सत्य को स्वीकार करती है, वहीं दूसरी ओर उनकी अयुक्तिसंगत जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप से अपनी ही कमियो कपोलकल्पनाओं की व्यंग्यात्मक शैली में समीक्षा भी करती है। इस सम्बन्ध को खोजता है । हरिभद्र ने इस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक में उनका धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है । इस ग्रन्थ की रचना क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है । क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, का मुख्य उद्देश्य भारत (महाभारत), रामायण और पुराणों की काल्पनिक एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और और अयुक्तिसंगत अवधारणाओं की समीक्षा करना है। यह समीक्षा उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता व्यंग्यात्मक शैली में है । धर्म के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या विश्वास युगों से रहे है । उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः हैं, फिर भी पुराण-युग में जिस प्रकार मिथ्या-कल्पनाएँ प्रस्तुत की गईं - प्रतिष्ठित करना । हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को वे भारतीय मनीषा के दिवालियेपन की सूचक सी लगती हैं । इस पौराणिक अपनी दृष्टि में रखा है।
प्रभाव से ही जैन-परम्परा में भी महावीर के गर्भ-परिवर्तन, उनके अंगूठे को उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव,गुरु, धर्म, श्रावक आदि दबाने मात्र से मेरु-कम्पन जैसी कुछ चामत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हुईं। का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है। यद्यपि जैन-परम्परा में भी चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की रानियों की संख्या हरिभद्र ने जहाँ वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि से गुरु एवं उनकी सेना की संख्या, तीर्थङ्करों के शरीर-प्रमाण एवं आयु आदि के कैसा होना चाहिये, इसकी विस्तृत विवेचना भी की है। हम उसके विस्तार विवरण सहज विश्वसनीय तो नहीं लगते हैं, किन्तु तार्किक असंगति से युक्त में न जाकर संक्षेप में यह कहेंगे कि हरिभद्र की दृष्टि में जो पाँच महाव्रतों, नहीं हैं । सम्भवत: यह सब भी पौराणिक परम्परा का प्रभाव था जिसे जैनपाँच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जो जितेन्द्रिय, संयमी, परम्परा को अपने महापुरुषों की अलौकिकता को बताने हेतु स्वीकार करना परिषहजयी, शुद्ध आचरण करने वाला और सत्य मार्ग को बताने वाला है, पड़ा था, फिर भी यह मानना होगा कि जैन-परम्परा में ऐसी कपोलवही सुगुरु है ।
कल्पनाएँ अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं । साथ ही महावीर के गर्भहरिभद्र के युग में गुरु के सम्बन्ध में एक प्रकार का वैयक्तिक परिवर्तन की घटना, जो मुख्यत: ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की श्रेष्ठता
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स्थापित करने हेतु गढ़ी गई थी, के अतिरिक्त, सभी पर्याप्त परवर्ती काल शरीर को पहाड़ के समान मानना, रावण द्वारा अपने सिरों को काटकर की हैं और पौराणिक युग की ही देन हैं और इनमें कपोल-काल्पनिकता महादेव को अर्पण करना और उनका पुनः जुड़ जाना, बलराम का माया का पुट भी अधिक नहीं है । गर्भ-परिवर्तन की घटना छोड़कर, जिसे द्वारा गर्भ-परिवर्तन, बालक श्री कृष्ण के पेट में समग्र विश्व का समा आज विज्ञान ने सम्भव बना दिया है, अविश्वसनीय और अप्राकृतिक रूप जाना, अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान और जह्न के द्वारा गंगापान करना, कृष्ण से जन्म लेने का जैन-परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है, जबकि पुराणों द्वारा गोवर्धन उठा लेना आदि पुराणों में वर्णित अनेक घटनाएँ या तो में ऐसे हजार से अधिक आख्यान हैं । जैन-परम्परा सदैव तर्कप्रधान रही उन महान् पुरुषों के व्यक्तित्व को धूमिल करती हैं या आत्म-विरोधी हैं है, यही कारण था कि महावीर की गर्भ-परिवर्तन की घटना को भी अथवा फिर अविश्वसनीय हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि महावीर के उसके एक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया ।
गर्भ-परिवर्तन की घटना, जो कि निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व पूर्णत: मान्य हरिभद्र के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हो चुकी थी, को स्वीकार करके भी हरिभद्र बलराम के गर्भ-परिवर्तन को ये एक ऐसे आचार्य हैं जो युक्ति को प्रधानता देते हैं। उनका स्पष्ट कथन कैसे अविश्वसनीय कह सकते है । यहाँ यह भी स्मरणय है कि हरिभद्र है कि महावीर ने हमें कोई धन नहीं दिया है और कपिल आदि ऋषियों ने धूर्ताख्यान में एक धूर्त द्वारा अपने जीवन में घटित अविश्वसनीय हमारे धन का अपहरण नहीं किया है, अत: हमारा न तो महावीर के प्रति घटनाओं का उल्लेख करवाकर फिर दूसरे धूर्त से यह कहलवा देते है राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष । जिसकी भी बात कि यदि भारत (महाभारत), रामायण आदि में घटित उपर्युक्त घटनाएँ युक्तिसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिये ।५३ इस प्रकार हरिभद्र तर्क को ही सत्य हैं, तो फिर यह भी सत्य हो सकता है। श्रद्धा का आधार मानकर चलते हैं । जैन-परम्परा के अन्य आचार्यों के हरिभद्र द्वारा व्यंग्यात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो समान वे भी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप के निर्णय मात्र इतना ही है कि धर्म के नाम पर पलने वाले अन्धविश्वासों को नष्ट किया के लिए क्रमश: वीतरागता, सदाचार और अहिंसा को कसौटी मानकर चलते जाय और पौराणिक कथाओं में देव या महापुरुष के रूप में मान्य व्यक्तित्वों हैं और तर्क या युक्ति से जो इन कसौटियों पर खरा उतरता है, उसे स्वीकार के चरित्र को अनैतिक रूप में प्रस्तुत करके उसकी आड़ में जो पुरोहित वर्ग करने की बात कहते हैं । जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप से गुरु अपनी दुश्चरित्रता का पोषण करना चाहता था, उसका पर्दाफाश किया के स्वरूप की समीक्षा करते हैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे परोक्षत: देव या जाय । उस युग का पुरोहित प्रथम तो इन महापुरुषों के चरित्रों को अनैतिक आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करते प्रतीत होते हैं । वे यह नहीं कहते हैं रूप में प्रस्तुत कर और उसके आधार पर यह कहकर कि यदि कृष्ण गोपियों कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव हमारे आराध्य नहीं हैं । वे तो स्वयं ही के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं, विवाहिता राधा के साथ अपना प्रेम-प्रसंग कहते हैं जिसमें कोई भी दोष नही है और जो समस्त गुणों से युक्त है चला सकते हैं, यदि इन्द्र महर्षि गौतम की पत्नी के साथ छल से वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो, उसे मैं प्रणाम करता हूँ। सम्भोग कर सकता है तो फिर हमारे द्वारा यह सब करना दुराचार कैसे उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों ने कपोल-कल्पनाओं के आधार कहा जा सकता है ? वस्तुत: जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में वे अपनी पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व को जिस अतर्कसंगत एवं भ्रष्ट रूप में परम्परा के श्रमण-वेशधारी दुश्चरित्र कुगुरुओं को फटकारते हैं, उसी प्रस्तुत किया है उससे न केवल उनका व्यक्तित्व धूमिल होता है, अपितु प्रकार धूर्ताख्यान में वे ब्राह्मण-परम्परा के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों वे जन-साधरण की अश्रद्धा का कारण बनते हैं।
को लताड़ते हैं। फिर भी हरिभद्र की फटकारने की दोनों शैलियों में बहुत धूर्ताख्यान के माध्यम से हरिभद्र ऐसे अतर्कसंगत अन्धविश्वासों बड़ा अन्तर है । सम्बोधप्रकरण में वे सीधे फटकारते हैं जब कि से जन-साधारण को मुक्त करना चाहते हैं, जिनमें उनके आराध्य और धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शैली में । इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक उपास्य देवों को चरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । उदाहरण दृष्टि छिपी हुई है । हमें जब अपने घर के किसी सदस्य को कुछ कहना के रूप में चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, वायु, अग्नि और धर्म का कुमारी एवं बाद होता है तो परोक्ष रूप में तथा सभ्य शब्दावली का प्रयोग करते है । में पाण्डु पत्नी कुन्ती से यौन-सम्बन्ध स्थापित कर पुत्र उत्पन्न करना, गौतम हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंग्यपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करते ऋषि की पत्नी अहिल्या से इन्द्र द्वारा अनैतिक रूप में यौन-सम्बन्ध स्थापित है और अन्य परम्परा के देव और गुरु पर सीधा आक्षेप नहीं करते है। करना, लोकव्यापी विष्णु का कामी-जनों के समान गोपियों के लिए उद्विग्न दूसरे धूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, होना आदि कथानक इन देवों की गरिमा को खण्डित करते हैं। इसी प्रकार लोकतत्त्वनिर्णय, सावयपण्णत्ति आदि से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हनुमान का अपनी पूँछ से लंका को घेर लेना अथवा पूरे पर्वत को उठा आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बन्ध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह लाना, सूर्य और अग्नि के साथ सम्भोग करके कुन्ती का न जलना, गंगा नहीं है, मात्र आग्रह है तो इस बात का कि उसका चरित्र निदोष और का शिव की जटा में समा जाना, द्रोणाचार्य का द्रोण से, कर्ण का कान निष्कलंक हो । धूर्ताख्यान में उन्होंने उन सबकी समालोचना की है जो से, कीचक का बाँस की नली से एवं रक्त कुण्डलिन् का रक्तबिन्दु से जन्म अपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपने उपास्य के चरित्र को धूमिल लेना, अण्डे से जगत् की उत्पत्ति, शिवलिंग का विष्णु द्वारा अन्त न करते हैं । हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कृष्ण के चरित्र में राधा पाना, किन्तु उसी लिंग का पार्वती की योनि में समा जाना, जटायु के और गोपियों को डाल कर हमारे पुरोहित वर्ग ने क्या-क्या नहीं किया ?
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हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक प्रश्नचिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपास्य) की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी अन्य परम्पराओं के देव और गुरु के सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंग्यात्मक शैली जहाँ पाठक को चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है। हरिभद्र सम्बोधप्रकरण में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी गुरु और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक् स्वरूप को विकृत करना है । अतः हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना होगा । इस प्रकार हरिभद्र जनमानस को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास कर अपने क्रान्तदर्शी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं ।
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
वस्तुतः हरिभद्र के व्यक्तित्व में एक ओर उदारता और समभाव के सद्गुण हैं तो दूसरी ओर सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता भी है। उनका व्यक्तित्व अनेक सदुणों का एक पूँजीभूत स्वरूप है। वे पूर्वाग्रह या पक्षाग्रह से मुक्त हैं, फिर भी उनमें सत्याग्रह है जो उनकी कृतियों में स्पष्टतः परिलक्षित होता है।
आचार्य हरिप्रद की रचनाधर्मिता अपूर्व है, उन्होंने धर्म, दर्शन योग कथा साहित्य सभी पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई। उनकी रचनाओं को ३ भागों में विभक्त किया जा सकता है।
१. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचायों की कृतियों पर टीकाएँ. आचार्य हरिभद्र आगमों के प्रथम संस्कृत टीकाकार हैं। उनकी टीकाएँ अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये हैं। २. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीकाएँ आचार्य ने जैनदर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है। इन ग्रन्थों में सांख्य-योग, न्यायवैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों का प्रस्तुतीकरण एवं
समालोचना की है। जैन-योग के तो वे आदि प्रणेता थे, उनका योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था। इसके साथ ही उन्होंने अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की ।
३. कथा साहित्य आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के माध्यम से धर्म प्रचार को एक नया रूप दिया है। उन्होंने व्यक्ति और समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया है । समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से उन्होंने अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है।
आचार्य हरिभद्र-विरचित ग्रन्थ-सूची निम्न है
१. अनुयोगद्वार वृत्ति । २. अनेकान्तजयपताका । ३. अनेकान्तघट्ट । ४. अनेकान्तवादप्रवेश । ५. अष्टक । ६. आवश्यकनियुक्तिलपुटीका ७ आवश्यक नियुक्तिटीका । ८. उपदेशपद ९. कथाकोश १०. कर्मस्तववृत्ति ११. कुलक । । । । १२. क्षेत्रमासवृत्ति १३. चतुर्विंशतिस्तुति १४. चैत्यवंदनभाष्य । १५. चैत्यन्दनवृत्ति १६. जीवाभिगमलप्रवृत्ति । १७. ज्ञानपंचकविवरण १८. ज्ञानदिव्यप्रकरण । १९. दशवैकालिक - अवचूरि ।२० दशवैका
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लिकबहुटीका २१. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण २२. द्विजवदनचपेटा । २३. धर्मविन्दु । २४. धर्मलाभसिद्धि । २५. धर्मसंग्रहणी । २६. धर्मसारमूलटीका ।२७. धूर्ताख्यान २८. नंदीवृत्ति २९. न्यायप्रदेशसूत्रवृत्ति । ३० न्यायविनिश्चय । ३१. न्यायामृततरंगिणी । ३२. न्यायावतारवृत्ति । ३३. पंचनिग्रन्थी ३४. पंचलिंगी । ३५. पंचवस्तुसटीक । ३६. पंचसंग्रह । ३७ पंचसूत्रवृत्ति । ३८. पंचस्थानक । ३९. पंचाशक । ४०. परलोकसिद्धि । ४१. पिंडनियुक्तिवृत्ति ४२. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या । ४३. प्रतिष्ठाकल्प । ४४. बृहन्मिथ्यात्वमंथन ४५. मुनिपतिचरित्र ४६. यतिदिनकृत्य । ४७. यशोधरचरित । ४८. योगदृष्टिसमुच्चय । ४९. योगबिन्दु । ५०. योगशतक । ५१. लग्नशुद्धि ५२. लोकतत्त्वनिर्णय ५३. लोकबिन्दु । ५४. विंशतिविंशिका । ५५. वीरस्तव । ५६. वीरांगदकथा । ५७. वेदबाह्यतानिराकरण । ५८. व्यवहारकल्प । ५९. शास्त्रवार्तासमुच्चयसटीक । ६० श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति । ६१. श्रावकधर्मतंत्र । ६२. पद्दर्शनसमुच्चय । ६३. षोडशक ६४. समकित पचासी । ६५. संग्रहणीवृत्ति । ६६. संमत्तसित्तिरी । ६७. संबोधसित्तरी । ६८. समराइच्चकहा। ६९. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक ७०. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार |
किन्तु इनमें कुछ ग्रन्थ ऐसे भी जिन्हें 'भवविरहांक' समदर्शी आचार्य हरिभद्र की कृति है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। आगे हम उन्हीं कृतियों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो निश्चित रूप से समदर्शी एवं भव-विरहांक से सूचित वाकिनीसून हरिभद्र द्वारा प्रणीत हैं। आगमिक व्याख्याएँ
जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है, हरिभद्र जैन आगमों की संस्कृत में व्याख्या लिखने वाले प्रथम आचार्य हैं। आगमों की व्याख्या सन्दर्भ में उनके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं -
(१) दशवैकालिक वृत्ति, (२) आवश्यक लघुवृत्ति, (३) अनुयोगद्वार वृत्ति, (४) नन्दी वृत्ति, (५) जीयाभिगमसूत्र लघुवृत्ति (६) चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति (ललितविस्तरा) और (७) प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या ।
इनके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र बृहत्वृत्ति और पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र माने जाते है, किन्तु वर्तमान में आवश्यक वृत्ति अनुपलब्ध है। जो पिण्डनिर्युक्तिटीका मिलती है उसकी उत्थानिका में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ तो हरिभद्र ने उन्होंने किया था, किन्तु वे इसे अपने जीवन काल में पूर्ण नहीं कर पाए, स्थापनादोष तक की वृत्ति लिखी थी, उसके आगे किसी वीराचार्य ने लिखी। आचार्य हरिभद्र द्वारा विरचित व्याख्याअन्यों का संक्षिप्त परिचय
इस प्रकार है
१. दशवैकालिक वृत्ति यह वृत्ति शिष्यबोधिनी या बृहद्वृत्ति के नाम से भी जानी जाती है। वस्तुतः यह वृत्ति दशवैकालिक सूत्र की अपेक्षा उस पर भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है। इसमें आचार्य ने दशवैकालिक शब्द का अर्थ, ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल की आवश्यकता और उसकी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने के साथ ही दशवैकालिक की रचना क्यों की गई इसे स्पष्ट करते हुए सय्यंभव और उनके पुत्र मनक के पूर्ण [१६]
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यतीन्द्रसूरि मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
कथानक का भी उल्लेख किया है । प्रथम अध्याय की टीका में आचार्य शासन में उत्पन्न चार अनुयोगों का विभाजन करने वाले आर्यरक्षित से ने तप के प्रकारों की चर्चा करते हुए ध्यान के चारों प्रकारों का सुन्दर सम्बद्ध गाथाओं का वर्णन है । चतुर्विंशतिस्तव और वंदना नामक विवेचन प्रस्तुत किया है। इस प्रथम अध्याय की टीका में प्रतिज्ञा, हेतु, द्वितीय और तृतीय आवश्यक का नियुक्ति के अनुसार व्याख्यान कर उदाहरण आदि अनुमान के विभिन्न अवयवों एवं हेत्वाभासों की भी चर्चा प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक की व्याख्या में ध्यान पर विशेष के अतिरिक्त उन्होंने इसमें निक्षेप के सिद्धान्तों का भी विवेचन किया है। प्रकाश डाला गया है । साथ ही सात प्रकार के भयस्थानों सम्बन्धी
दूसरे अध्ययन की वृत्ति में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, अतिचारों की आलोचना की गाथा उद्धृत की गई है । पञ्चम आवश्यक पाँच इन्द्रिय, पाँच स्थावरकाय, दस प्रकार का श्रमण धर्म और १८००० के रूप में कायोत्सर्ग का विवरण देकर पंचविधकाय के उत्सर्ग की शीलांगों का भी निर्देश मिलता है । साथ ही इसमें रथनेमि और राजीमती तथा षष्ठ आवश्यक में प्रत्याख्यान की चर्चा करते हुए वृत्तिकार ने के उत्तराध्ययन में आए हुए कथानक का भी उल्लेख है । तृतीय शिष्यहिता नामक आवश्यक टीका सम्पन्न को है। आचार्य हरिभद्र अध्ययन की वृत्ति में महत् और क्षुल्लक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने की यह वृत्ति २२,००० श्लोक प्रमाण है। के साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को ३. अनुयोगद्वार वृत्ति- यह टीका अनुयोगद्वार चूर्णि की शैली स्पष्ट किया गया है तथा कथाओं के चार प्रकारों को उदाहरण सहित पर लिखी गयी है जो कि नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है । इसमें समझाया गया है । चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में पञ्चमहाव्रत और आवश्यक' शब्द का निपेक्ष-पद्धति से विचार कर नामादि आवश्यकों रात्रिभोजन-विवरण की चर्चा के साथ-साथ जीव के स्वरूप पर भी का स्वरूप बताते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव का स्वरूप स्पष्ट दार्शनिक दृष्टि से विचार किया गया है । इसमें भाष्यगत अनेक गाथाएँ किया गया है। श्रुत का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया है । स्कन्ध, भी उद्धृत गयी हैं। इसी प्रकार पंचम अध्ययन की वृत्ति में १८ स्थाणु उपक्रम आदि के विवेचन के बाद आनुपूर्वी को विस्तार से प्रतिपादित अर्थात् व्रत-षट्क, काय-षट्क, अकल्प्य भोजन-वर्जन, गृहभाजनवर्जन, किया है । इसके बाद द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पञ्चनाम, षट्नाम, पर्यंकवर्जन, निषिध्यावर्जन, स्नानवर्जन और शोभावर्जन का उल्लेख हुआ सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दशनाम का व्याख्यान किया गया है। है । षष्ठ अध्ययन में क्षुल्लकाचार का विवेचन किया गया है। सप्तम प्रमाण का विवेचन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का वर्णन तथा अध्ययन की वृत्ति में भाषा की शुद्धि-अशुद्धि का विचार है । अष्टम समय के विवेचन में पल्योपम का विस्तार से वर्णन किया गया है। अध्ययन की वृत्ति में आचार-प्रणिधि की प्रक्रिया एवं फल का प्रतिपादन शरीर पञ्चक के पश्चात् भावप्रमाण में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, है। नवम अध्ययन की वृत्ति में विनय के प्रकार और विनय के फल तथा दर्शन चारित्र, नय और संख्या का व्याख्यान है । नय पर पुनः विचार अविनय से होने वाली हानियों का चित्रण किया गया है । दशम अध्ययन करते हुए ज्ञाननय और क्रियानय का स्वरूप निरूपित करते हुए ज्ञान की वृत्ति भिक्षु के स्वरूप की चर्चा करती है । दशवैकालिक वृत्ति के अंत और क्रिया दोनों की एक साथ उपयोगिता को सिद्ध किया गया है। में आचार्य ने अपने को महत्तरा याकिनी का धर्मपुत्र कहा है।
४. नन्दी वृत्ति - यह वृत्ति नन्दीचूर्णि का ही रूपान्तर है । इसमें २. आवश्यक वृत्ति - यह वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर प्राय: उन्हीं विषयों के व्याख्यान हैं जो नन्दीचूर्णि में हैं। इसमें प्रारम्भ आधारित है। आचार्य हरिभद्र ने इसमें आवश्यक सूत्रों का पदानुसरण में नन्दी के शब्दार्थ, निक्षेप आदि एवं उसके बाद जिन, वीर और संघ न करते हुए स्वतन्त्र रीति से नियुक्ति-गाथाओं का विवेचन किया है। की स्तुति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए तीर्थङ्करावलिका, गणधरावलिका नियुक्ति की प्रथम गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्य ने पाँच प्रकार और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है । नन्दी वृत्ति में ज्ञान के के ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित किया है । इसी प्रकार मति, श्रुत, अवधि, अध्ययन की योग्यता-अयोग्यता पर विचार करते हुए लिखा है कि अयोग्य मनःपर्यय और केवल की भी भेद-प्रभेदपूर्वक व्याख्या की गई है। को ज्ञान-दान से वस्तुत: अकल्याण ही होता है । इसके बाद तीन प्रकार की सामायिक नियुक्ति की व्याख्या में प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर पर्षद् का व्याख्यान, ज्ञान के भेद-प्रभेद, स्वरूप, विषय आदि का विवेचन प्रकाश डालते हुए बताया है कि कुछ पुरुष स्वभाव से ही ऐसे होते हैं, किया गया है। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के क्रमिक उपयोग आदि का जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती है, इसमें प्रवचनों का कोई प्रतिपादन करते हुए युगपद्वाद के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व दोष नहीं है । दोष तो उन सुनने वालों का है। साथ ही सामायिक के के समर्थक जिनभद्रगणि आदि का तथा अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्यों उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र आदि तेईस द्वारों का विदेचन करते हुए का उल्लेख किया गया है । इसमें वर्णित सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर सामायिक के निर्गमद्वार के प्रसंग में कुलकरों की उत्पत्ति,उनके पूर्वभव, से भिन्न हैं, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तृतीय मत अभेदवाद के प्रवर्तक आयु का वर्णन तथा नाभिकुलकर के यहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म, हैं। द्वितीय मत क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी तीर्थङ्कर नाम, गोत्रकर्मबंधन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए अन्य कहा गया है । अन्त में श्रुत के श्रवण और व्याख्यान की विधि बताते आख्यानों की भाँति प्राकृत में धन नामक सार्थवाह का आख्यान दिया हुए आचार्य ने नन्द्यध्ययन-विवरण सम्पत्र किया है। गया है । ऋषभदेव के पारणे का उल्लेख करते हुए विस्तृत विवेचन ५. जीवाभिगमसूत्र-लघुवृत्ति - इस वृत्ति के अपरनाम के रूप हेतु 'वसुदेवहिंडी' का नामोल्लेख किया गया है । भगवान् महावीर के में 'प्रदेशवृत्ति' का उल्लेख मिलता है । इसका ग्रन्थान ११९२ गाथाएँ
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है किन्तु वृत्ति अनुपलब्ध है। जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है जिसमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख भी किया गया है। उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थ टीका का उल्लेख है, परन्तु जीवाभिगम पर उनकी किसी वृत्ति का उल्लेख नहीं है।
६. चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति (ललितविस्तरा ) चैत्यवन्दन के सूत्रों पर हरिभद्र ने ललितविस्तरा नाम से एक विस्तृत व्याख्या की रचना की है। यह कृति बौद्ध परम्परा के ललितविस्तर की शैली में प्राकृतमिश्रित संस्कृत में रची गयी है। यह ग्रंथ चैत्यवन्दन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले प्राणातिपातदण्डकसूत्र (नमोत्पुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेईयाण), चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) श्रुतस्तव (पुक्खरवर), सिद्धस्तव (सिद्धाणंबुद्धाणं), प्रणिधान सूत्र ( जय-वीपराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा गया है । मुख्यतः तो यह ग्रन्थ अरहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहन्त परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देते हुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की है। इसी प्रसंग में इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय-मान्यता के आधार पर स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है।
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७. प्रज्ञापना- प्रदेश - व्याख्या इस टीका के प्रारम्भ में जैनप्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन करते हुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है। भव्य और अभव्य का विवेचन करने के बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के विषय कर्तृत्व आदि का वर्णन किया गया है। जीव प्रशापना और अजीव प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प - बहुत्व, आयुर्बन्ध का अल्प - बहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीवविचार, लोक सम्बन्धी अल्प- बहुत्व, पुद्गलाल्प- बहुत्व, द्रव्याल्प - बहुत्व अवगाढाल्प- बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति तथा पञ्चम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह, षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है। षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बन्धी विरहकाल का वर्णन है । अष्टम पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है। नवम पद में विविध योनियों एवं दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से विवेचन किया गया है। ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप के साथ ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों को बताया गया है। बारहवें पद में औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का प्रतिपादन किया गया है । आगे के पदों की व्याख्या में कषाय, इन्द्रिय, योग, लेश्या, काय स्थिति, अन्तः क्रिया, अवगाहना, संस्थानादि क्रिया, कर्म प्रकृति, कर्म-बन्ध, आहार- परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, प्रविचार, वेदना और समुद्घात का विशेष वर्णन किया गया है। तीसवें
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पद में उपयोग और पश्यता की भेदरेखा स्पष्ट करते हुए साकार उपयोग के आठ प्रकार और साकार पश्यता के छः प्रकार बताए गए हैं ।
आचार्य हरिभद्र की स्वतंत्र कृतियाँ
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षोडशक इस कृति में एक-एक विषयों को लेकर १६-१६ पद्यों में आचार्य हरिभद्र ने १६ षोडशकों की रचना की है। ये १६ षोडशक इस प्रकार हैं- (१) धर्मपरीक्षाषोडशक (२) सद्धर्मदेशना षोडषक, (३) धर्मलक्षणषोडशक (४) धमलंगपोडशक, (५) लोकोत्तरतस्वप्राप्तिषोडशक, (६) जिनमंदिर निर्माणषोडशक, (७) जिनबिम्बषोडशक, (८) प्रतिष्ठाषोडशक, (९) पूजास्वरूपषोडशक, (१०) पूजाफलषोडशक, (११) श्रुतज्ञानलिङ्गषोडशक, (१२) दीक्षाधिकारिषोडशक, (१३) गुरुविनययोदशक, (१४) योगभेद षोडशक, (१५) ध्येयस्वरूपषोडशक (१६) समरसषोडशक । इनमें अपने-अपने नाम के अनुरूप विषयों की चर्चा है।
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विंशतिविंशिका विंशतिविंशिका नामक आचार्य हरिभद्र की यह कृति २०-२० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । ये विंशिकाएँ निम्नलिखित हैं- प्रथम अधिकार विंशिका में २० विंशिकाओं के विषय का विवेचन किया गया है। द्वितीय विंशिका में लोक के अनादि स्वरूप का विवेचन है तृतीय विंशिका में कुल नीति और लोकधर्म का विवेचन है। चतुर्थ विंशिका का विषय चरमपरिवर्त है। पांचवीं विंशिका में शुद्ध धर्म की उपलब्धि कैसे होती है, इसका विवेचन है। छठी विंशिका में सद्धर्म का एवं सातवीं विंशिका में दान का विवेचन है। आठवीं विंशिका में पूजा-विधान की चर्चा है। नवीं विंशिका में आवकधर्म, दशवीं विशिका में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं एवं ग्यारहवीं विंशिका में मुनिधर्म का विवेचन किया गया है। बारहवीं विंशिका भिक्षा-विंशिका है। इसमें मुनि के भिक्षा सम्बन्धी दोषों का विवेचन है तेरहवीं, शिक्षा-विंशिका है। इसमें धार्मिक जीवन के लिये योग्य शिक्षाएँ प्रस्तुत की गई है। चौदहवीं अन्तरायशुद्धि-विंशिंका में शिक्षा के सन्दर्भ में होने वाले अन्तरायों का विवेचन है। ज्ञातव्य है कि इस विंशिका में मात्र छ: गाथाएँ ही मिलती हैं, शेष गाथाएँ किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती हैं। पन्द्रहवीं आलोचना-विंशिका है। सोलहवीं विंशिका प्रायश्चितविंशिका है। इसमें विभिन्न प्रायशितों का संक्षिप्त विवेचन है। सत्रहवीं विंशिका योगविधान - विंशिका है। उसमें योग के स्वरूप का विवेचन है । अट्ठारहवीं केवलज्ञान - विंशिका में केवलज्ञान के स्वरूप का विश्लेषण है । उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति-विंशिका में सिद्धों का स्वरूप वर्णित है । बीसवीं सिद्धसुख-विंशिका है जिसमें सिद्धों के सुख का विवेचन है। प्रकार इन बीस विशिकाओं में जैनधर्म और साधना से सम्बन्धित विविध विषयों का विवेचन है।
योगविंशिका
यह प्राकृत में निबद्ध मात्र २० गाथाओं की एक लघु रचना है। इसमें जैन-परम्परा में प्रचलित मन, वचन और काय-रूप प्रवृत्ति वाली परिभाषा के स्थान पर मोक्ष से जोड़ने वाले धर्म - व्यापार को योग कहा गया है। साथ ही इसमें योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इसकी १०८]
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भी चर्चा की गई है। योगविंशिका में योग के निम्न पाँच भेदों का वर्णन है- (१) स्थान, (२) उर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन, (५) अनालम्बन । योग के इन पाँच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी भी जैन ग्रन्थ में नहीं मिलता। अत: यह आचार्य की अपनी मौलिक कल्पना है । कृति के अन्त में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि इन चार योगांगों और कृति, भक्ति, वचन और असङ्ग-इन चार अनुष्ठानों का भी वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें चैत्यवन्दन की क्रिया का भी उल्लेख है ।
योगशतक
यह १०१ प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध आचार्य हरिभद्र की योग सम्बन्धी रचना है । ग्रंथ के प्रारम्भ में निश्चय और व्यवहार दृष्टि से योग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसके पश्चात् आध्यात्मिक
विकास के उपायों की चर्चा की गई है। ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में चित्त को स्थिर करने के लिये अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होने या उनका अवलोकन करने की बात कही गई है। अन्त में योग से प्राप्त लब्धियों की चर्चा की गई है।
योगदृष्टिसमुच्चय
योगदृष्टिसमुच्चय जैन योग की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। आचार्य हरिभद्र ने इसे २२७ संस्कृत पद्यों में निबद्ध किया है। इसमें सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का निर्देश है: (१) दृष्टियोग, (२) इच्छायोग और (३) सामर्थ्ययोग।
दृष्टियोग में सर्वप्रथम मित्रा, तारा, बला, दौत्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा- इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है । संसारी जीव की अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था को योग दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की भी योजना कर ली है। इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है। ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने योग अधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी इन चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया है।
योगबिन्दु
हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप छन्द के ५२७ संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इस कृति में उन्होंने जैन-योग के विस्तृत विवेचन के साथसाथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचन भी किया है। इसमें योग अधिकारियों की चर्चा करते हुए उनके दो प्रकार निरूपित किये गए हैं- (१) चरमावृतवृत्ति, (२) अचरमावृतआवृत वृत्ति। इसमें चरमावृतवृत्ति को ही मोक्ष का अधिकरी माना गया है। योग के अधिकारी अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में आबद्ध संसारी जीवों को 'भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों को
योग का अधिकारी माना है। योग का प्रभाव, योग की भूमिका के रूप में पूर्वसेवा, पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्त्व प्राप्ति का विवेचन, विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, कालादि के पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने 'गुरु' की विस्तार से व्याख्या की है ।
आध्यात्मिक विकास की पाँच भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतञ्जलि के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में 'चारिसंजीवनी' न्याय गोपेन्द्र और कालातीतं के मन्तव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात अवतरण, आदि भी इस अन्य के मुख्य प्रतिपाद्य है। पुनः इसमें जी
के
भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक सम्यक् दृष्टि या भिन्त्री, देशविरति और सर्व विरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के सन्दर्भ मे
पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है ।
आध्यात्मिक विकास की चर्चा करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय- इन पाँच भेदों का निर्देश किया गया है। साथ ही इनकी पतञ्जलि अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि से तुलना भी की गई है। इसमें विविध प्रकार के यौगिक अनुष्ठानों की भी चर्चा है जो इस बात को सूचित करते हैं कि साधक योग साधना किस उद्देश्य से कर रहा है । यौगिक अनुष्ठान पाँच हैं- (१) विषानुष्ठान, (२) गरानुष्ठान, (३) अनानुष्ठान, (४) तद्धेतु-अनुष्ठान, (५) अमृतानुष्ठान । इनमें पहले तीन 'असद् अनुष्ठान हैं तथा अन्तिम के दो अनुष्ठान 'सदनुष्ठान' है ।
षड्दर्शनसमुच्चय
षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की लोकविश्रुत दार्शनिक रचना है। मूल कृति मात्र ८७ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसमें
आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर १०० पद्य प्रमाण वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र ने चार्वाक, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, जैन और लिखी है, जो १९७५ श्लोक परिमाण है।
जैमिनि (मीमांसा दर्शन) इन छः दर्शनों के सिद्धान्तों का, उनकी मान्यता के अनुसार संक्षेप में विवेचन किया है। ज्ञातव्य है कि दर्शन संग्राहक अन्यों में यह एक ऐसी कृति है जो इन भिन्न-भिन्न दर्शनों को खण्डन- मण्डन से ऊपर उठकर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत करती है। इस कृति के सन्दर्भ में विशेष विवेचन हम हरिभद्र के व्यक्तित्व की चर्चा करते समय कर चुके हैं ।
'सद्योगचिन्तामणि' से प्रारम्भ होने वाली इस वृत्ति का श्लोकपरिणाम ३६२० है। योगबिन्दु के स्पष्टीकरण के लिये यह वृत्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
शास्त्रवार्तासमुच्चय
जहाँ दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण है, वहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों की समीक्षा प्रस्तुत की गयी है। षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा यह एक विस्तृत कृति ম/१०९ ] ম
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
है। आचार्य हरिभद्र ने इसे ७०२ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध किया है। यह कृति आठ स्तबकों में विभक्त है। प्रथम स्तबक में सामान्य उपदेश के पश्चात् चार्वाक मत की समीक्षा की गयी है। द्वितीय स्तबक में भी चार्वाक मत की समीक्षा के साथ-साथ एकान्त स्वभाववादी आदि मतों की समीक्षा की गयी है। इस ग्रन्थ के तीसरे स्तबक में आचार्य हरिभद्र ने ईश्वर-कर्तत्व की समीक्षा की है। चतुर्थ स्तबक में विशेष रूप से सांख्य मत की और प्रसंगान्तर से बौद्धों के विशेषवाद और क्षणिकवाद का खण्डन किया गया है। पञ्चम् स्तबक बौद्धों के ही विज्ञानवाद की समीक्षा प्रस्तुत करता है । षष्ठ स्तबक में बौद्धों के क्षणिकवाद की विस्तार से समीक्षा की गयी है। सप्तम स्तबक में हरिभद्र ने वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। साथ ही इस स्तबक के अन्त में वेदान्त की समीक्षा भी की गयी है। अष्टम् स्तबक में मोक्ष एवं मोक्ष मार्ग का विवेचन है। इसी क्रम में इस स्तबक में प्रसंगान्तर से सर्वज्ञता को सिद्ध किया है। इसके साथ ही इस स्तबक में शब्दार्थ के स्वरूप पर भी विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों की समीक्षा होते हुए भी उनके प्रस्थापकों के प्रति विशेष आदर भाव प्रस्तुत किया गया है और उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का जैनदृष्टि के साथ सुन्दर समन्वय किया गया है। इस सन्दर्भ में हम विशेष चर्चा हरिभद्र के व्यक्तित्व एवं अवदान की वर्षा के प्रसंग में कर चुके हैं, अतः यहाँ इसे हम यहीं विराम देते हैं।
अनेकान्तजयपताका
जैन दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। इस सिद्धान्त के प्रस्तुतीकरण हेतु आचार्य हरिभद्र ने संस्कृत भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की। चूँकि इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों पर विजय प्राप्त करने वाला दिखाया गया है, अतः इसी आधार पर इसका नामकरण अनेकान्तजयपताका किया गया है। इस ग्रन्थ में छ: अधिकार हैं- प्रथम अधिकार में अनेकान्तदृष्टि से 'वस्तु के सद्-असद् स्वरूप का विवेचन किया गया है। दूसरे अधिकार में वस्तु के नित्यत्व और अनित्यत्व की समीक्षा करते हुए उसे नित्यानित्य बताया गया है। तृतीय अधिकार में वस्तु को सामान्य अथवा विशेष मानने वाले दार्शनिक मतों की समीक्षा करते हुए अन्त में वस्तु को सामन्यविशेषात्मक सिद्ध करके अनेकान्तदृष्टि की पुष्टि की गयी है। आगे चतुर्थ अधिकार में वस्तु के अभिलाप्य और अनभिलाप्य मतों की समीक्षा करते हुए उसे वाच्यावाच्य निरूपति किया गया है। अगले अधिकारों में बौद्धों के योगाचार - दर्शन की समीक्षा एवं मुक्ति सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा की गयी है। इस प्रकार इस कृति में अनेकान्त दृष्टि से परस्पर विरोधी मतों के मध्य समन्वय स्थापित किया गया है।
अनेकान्तवादप्रवेश
जहाँ अनेकान्तजयपताका प्रबुद्ध दार्शनिकों के समक्ष अनेकान्तवाद के गाम्भीर्य को समीक्षात्मक शैली में प्रस्तुत करने हेतु लिखी गयी है,
वहाँ अनेकान्तवादप्रवेश सामान्य व्यक्ति हेतु अनेकान्तवाद को बोधगम्य बनाने के लिये लिखा गया है। यह ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में निबद्ध है । इसकी विषय वस्तु अनेकान्तजयपताका के समान ही है।
न्यायप्रवेश टीका
हरिभद्र ने स्वतन्त्र दार्शनिक ग्रन्थों के प्रणयन के साथ-साथ अन्य परम्परा के दार्शनिक ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखी हैं। इनमें बौद्ध दार्शनिक दिनाग के न्याय प्रवेश पर उनकी टीका बहुत ही प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में न्याय सम्बन्धी बौद्ध मन्तव्य को ही स्पष्ट किया गया है। यह ग्रन्थ हरिभद्र की व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देता है। इस ग्रन्थ के माध्यम से जैन- परम्परा में भी बौद्धों के न्याय सम्बन्धी मन्तव्यों के अध्ययन की परम्परा का विकास हुआ
धर्मसंग्रहणी
यह हरिभद्र का दार्शनिक ग्रन्थ है। १२९६ गाथाओं में निबद्ध इस ग्रन्थ में धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा निरूपण किया गया है। मलयगिरि द्वारा इस पर संस्कृत टीका लिखी गयी है। इसमें आत्मा के अनादि-अनिधनत्व, अमूर्तत्व, परिणामित्व ज्ञायक-स्वरूप, कर्तृत्व-भोक्तृत्व और सर्वज्ञ-सिद्धि का निरूपण किया गया है।
लोकतत्वनिर्णय
है
लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्र ने अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया इस ग्रन्थ में जगत् सर्जक संचालक के रूप में माने गए ईश्वरवाद की समीक्षा तथा लोक स्वरूप की तात्त्विकता का विचार किया गया है। इसमें धर्म के मार्ग पर चलने वाले पात्र एवं अपात्र का विचार करते हुए सुपात्र को ही उपदेश देने के विचार की विवेचना की गयी है।
दर्शनसप्ततिका
इस प्रकरण में सम्यक्त्वयुक्त श्रावकधर्म का १२० गाथाओं में उपदेश संगृहीत है। इस ग्रन्थ पर श्री मानदेवसूरि की टीका है।
ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रन्थ में कुल ४२३ प ही उपलब्ध है। आा पद में महावीर को नमस्कार कर ब्रह्मादि के स्वरूप को बताने की प्रतिज्ञा की है इस ग्रन्थ में सर्वधर्मों का समन्वय किया गया है । यह ग्रन्थ अपूर्ण प्रतीत होता है ।
सम्बोधप्रकरण
१५९० पद्यों की यह प्राकृत रचना बारह अधिकारों में विभक्त है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व एवं देव का स्वरूप, श्रावकधर्म और प्रतिमाएँ, व्रत, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का वर्णन है। इसमें हरिभद्र के युग में जैन मुनि संघ में आये हुए चारित्रिक पतन का सजीव [११० ]m
देव
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
चित्रण है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं ।
संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी। यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख धर्मबिन्दुप्रकरण
मिलता है, परन्तु इसकी आज तक कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है । नाम५४२ सूत्रों में निबद्ध यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। इसमें साम्य के कारण अनेक बार हरिभद्रकृत इस प्राकृत कृति (सावयपण्णत्ति) श्रावक और श्रमण-धर्म की विवेचना की गयी है । श्रावक बनने के पूर्व को तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने वाले पूर्व मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है । पश्चाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति की विवेचना की गयी है । इस पर मुनिचन्द्रसूरि ने टीका लिखी है। में और लावण्यसूरि कृत द्रव्य सप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया
है। इस कृति में सावग (श्रावक) शब्द का अर्थ, सम्यक्त्व का स्वरूप उपदेशपद
नवतत्त्व, अष्टकर्म, श्रावक के १२ व्रत और श्रावक समाचारी का इस ग्रन्थ में कुल १०४० गाथाएँ हैं । इस पर मुनिचन्द्रसूरि विवेचन उपलब्ध होता है । ने सुखबोधिनी टीका लिखी है। आचार्य ने धर्मकथानयोग के माध्यम इस पर स्वयं आचार्य हरिभद्र की दिग्प्रदा नाम की स्वोपज्ञ से इस कृति में मन्द बुद्धि वालों के प्रबोध के लिए जैन धर्म के संस्कृत टीका भी है। इसमें अहिंसाणुव्रत और सामायिकव्रत की चर्चा उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। करते हुए आचार्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दिया है । टीका मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि-चमत्कार को प्रकट करने के में जीव की नित्यानित्यता आदि दार्शनिक विषयों की भी गम्भीर चर्चा लिये कई कथानकों का ग्रन्थन किया है। मनुष्य-जन्म की दुर्लभता उपलब्ध होती है। को चोल्लक, पाशक, धान्य, घूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि जैन-आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में पञ्चवस्तुक तथा श्रावकप्रज्ञप्ति के दृष्टान्तों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
अतिरिक्त अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, विंशिकाएँ और पश्चाशकप्रकरण
भी आचार्य हरिभद्र की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं । पंचवस्तुक (पंचवत्युग)
_आचार्य हरिभद्र की यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें अष्टकप्रकरण १७१४ पद्य हैं जो निम्न पाँच अधिकारों में विभक्त हैं
इस ग्रन्थ में ८-८ श्लोकों में रचित निम्नलिखित ३२ १. प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं । इसमें दीक्षासम्बन्धी प्रकरण हैं - विधि-विधान दिये गए हैं।
(१) महादेवाष्टक, (२) स्नानाष्टक, (३) पूजाष्टक, २. नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं । यह (४) अग्निकारिकाष्टक, (५) विविधभिक्षाष्टक, (६) सर्वसम्पमुनिजीवन के दैनन्दिन प्रत्ययों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। स्करिभिक्षाष्टक,(७) प्रच्छन्नभोजाष्टक, (८) प्रत्याख्यानाष्टक, (९) ज्ञानाष्टक,
३. महाव्रतारोपण-विधि के अन्तर्गत ३२१ पद्य हैं । इसमें बड़ी (१०) वैराग्याष्टक (११) तपाष्टक, (१२) वादाष्टक, (१३) धर्मवादाष्टक, दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण-विधि का विवेचन हुआ है, साथ ही इसमें (१४) एकान्तनित्यवादखण्डनाष्टक, (१५) एकान्तक्षणिकवाद-खण्डनाष्टक, स्थविरकल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपधि आदि के सम्बन्ध में (१६) नित्यानित्यवादपक्षमंडनाष्टक, (१७) मांसभक्षण-दूषणाष्टक, भी विचार किया गया है।
(१८) मांसभक्षणमतदूषणाष्टक (१९) मद्यपानदूषणाष्टक (२०) मैथुनदूषाणाष्टक, चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ है। इनमें आचार्य-पद स्थापना, (२१) सूक्ष्मबुद्धिपरिक्षणाष्टक, (२२) भावशुद्धिविचाराष्टक, गण-अनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा (२३) जिनमतमालिन्य निषेधाष्टक, (२४) पुण्यानुबन्धिपुण्याष्टक, करते हुए पूजा-स्तवन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों का निर्देश इसमें (२५) पुण्यानुबन्धिपुण्यफलाष्टक, (२६) तिर्थकृतदानाष्टक, मिलता हैं । पञ्चम अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधान दिये गए हैं। (२७) दानशंकापरिहाराष्टक, (२८) राज्यादिदानदोषपरिहाराष्टक, इसमें ३५० गाथाएँ है।
(२९) सामायिकाष्टक, (३०) केवलज्ञनाष्टक, (३१) तीर्थंकरदेशनाष्टक, इस कृति की ५५० श्लोक-परिमाण शिष्यहिता नामक (३२) मोक्षस्वरूपाष्टक । इन सभी अष्टकों में अपने नाम के अनुरूप स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है। वस्तुत: यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैन- विषयों की चर्चा है। मुनि-आचार से सम्बन्धित है और इस विधा का यह एक आकर-ग्रन्थ भी कहा जा सकता है।
धूर्ताख्यान
यह एक व्यंग्यप्रधान रचना है। इसमें वैदिक पुराणों में वर्णित श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयफण्णत्ति )
असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं ४०५ प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध यह रचना श्रावकाचार के के द्वारा किया गया है । लाक्षणिक शैली की यह अद्वितीय रचना है। सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ऐसा माना जाता रामायण, महाभारत और पुराणों में पाई जाने वाली कथाओं की है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक, अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा
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-यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
के माध्यम से निराकरण किया गया है । व्यंग्य और सुझावों के माध्यम ११. साधधर्मविधि से असम्भव और मनगढन्त बातों को त्यागने का संकेत दिया गया है। १२. साधुसामाचारी विधि खड्डपना के चरित्र और बौद्धिक विकास द्वारा नारी को विजय दिलाकर १३. पिण्डविधानविधि मध्यकालीन नारी के चरित्र को उद्घाटित किया गया है।
१४. शीलाङ्गविधानविधि
१५. आलोचनाविधि ध्यानशतकवृत्ति
१६. प्रायश्चित्तविधि पूर्व ऋषिप्रणीत ध्यानशतक ग्रन्थ का गम्भीर विषय-आर्त, रौद्र, १७. कल्पविधि धर्म, शुक्ल- इन चार प्रकार के ध्यानों का सुगम विवरण दिया गया है। १८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि ध्यान का यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है।
१९. तपविधि
उपरोक्त पंचाशक अपने-अपने विषय को गम्भीरता से किन्तु यतिदिनकृत्य
संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं । इन सभी पंचाशकों का मूल प्रतिपाद्य श्रावक इस ग्रन्थ में मुख्यतया साधु के दैनिक आचार एवं क्रियाओं का एवं मुनि-आचार से सम्बन्धित हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि जैन-परम्परा वर्णन किया गया है । षडावश्यक के विभिन्न आवश्यकों को साधु को में श्रावक और मुनि के लिए करणीय विधि-विधानों का स्वरूप उस युग अपने दैनिक जीवन में पालन करना चाहिए, इसकी विशद् विवेचना इस में कैसा था । ग्रन्थ में की गयी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र बहुआयामी व्यक्तित्व
के धनी एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य रहे हैं। उनके द्वारा की गई पञ्चाशक (पंचासग)
साहित्य-सेवा न केवल जैन-साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में आचार्य हरिभद्रसूरि की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित अपना विशिष्ट स्थान रखती है । हरिभद्र ने जो उदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक है। इसमें उन्नीस पञ्चांशक हैं जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२. वृत्ति और निर्भयता अपनी कृतियों में प्रदर्शित की है, वैसी उनके पूर्ववर्ती तथा शेष में ५०-५० पद्य हैं । वीरगणि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के शिष्य अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन-जनेतर विद्वान् ने शायद ही प्रदर्शित की यशोदेव ने पहले पञ्चाशक पर जैन महाराष्टी में वि. सं० ११७२ में एक हो । उन्होंने अन्य दर्शनों के विवेचन की एक स्वस्थ परम्परा स्थापित चर्णि लिखी थी जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार की तथा दार्शनिक और योग-परम्परा में विचार एवं वर्तन की जो पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है, जिसमें सम्यक्त्व के प्रकार, उसके यतना, अभिनव दशा उद्घाटित की वह विशेषकर आज के युग के असाम्प्रदायिक अभियोग और दृष्टान्त के साथ-साथ मनुष्य-भव की दुर्लभता आदि एवं तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में अधिक व्यवहार्य है । अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। सामाचारी विषय का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है । आवश्यक चूर्णि के देशविरति में १. आवश्यक-टीका की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने लिखा हैजिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहाँ पर “समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका । कृति: भी नौ द्वारों का उल्लेख है।
सिताम्बराचार्यजिनभट- निगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकापंचाशकों में जैन-आचार और विधि-विधान के सम्बन्ध में चार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी - महत्तरासूनोरल्पमतेराचार्य अनेक गम्भीर प्रश्नों को उपस्थित करके उनके समाधान प्रस्तुत किये हरिभद्रस्य । गये हैं । निम्न उनीस पंचाशक उपलब्ध होते हैं ।
जाइणिमयहरिआए रइया एएउ धम्मपुत्तेण । १. श्रावकधर्मविधि
हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छामाणेण ।। २. जिनदीक्षाविधि
-उपदेशपद की अन्तिम प्रशस्ति ३. चैत्यवन्दनविधि
३. चिरं जीवउ भवविरहसूरि ति । -कहावली, पत्र ३०१अ ४. पूजाविधि
४. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी, पृ० ४० ५. प्रत्याख्यानविधि'
५. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४। ६. स्तवनविधि
६. वही, प्रस्तावना, पृ० १९।। ७. जिनभवननिर्माणविधि
७. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ । ८. जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि
८. वही, पृ० ४७ । ९. यात्राविधि
९. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४ । १०. उपासकप्रतिमाविधि
१०. वही, पृ० १९ ।
के कारण इसमें
सन्दर्भ
२.
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११. कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वैतदपि साम्प्रतम् । आत्मनोव्यतिरिक्तं तत् चित्रभावं यतो मतम् ॥ शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते । अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् ॥
-यतीन्द्रसूरि स्मारकसन्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
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शास्त्रवार्तासमुच्चय ९५-९६
१२. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ५३ ५४ ॥ १३. वही, पृ० ५५ ।
१४. ततश्चेश्वर कर्तृत्त्ववादोऽयं युज्यते परम् ।
सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः । ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् ।
यतो मुक्तिस्ततैस्तस्याः कर्ता स्वाद्गुणभावतः ॥ तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः । तेने तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यानं न दुष्यति ॥ शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०३-२०५
१५. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः ।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥
१६. प्रकृतिं चापि सन्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ॥ एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ।
१७. अन्ये त्यभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिक सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥ विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये ।
विनेयान् काचिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः ॥
-
वही,
४६४-४६५
१८. अन्ये व्याख्यानयत्येव समभावप्रसिद्धये ।
अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टश न तु तत्त्वतः ॥ वही, ५५० १९. ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग् व्यवस्थितम् ।
तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्वं न दोषकृत् ॥ वहीं, ५७९ २०. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः ।
जायते द्वेषशमन: स्वर्गसिद्धिसुखावहः । वही, २१. योगदृष्टिसमुच्चय, ८७ एवं ८८
२२. शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०
२३. योगदृष्टिसमुच्चय, ८६ - १०१ ।
२४. वही, १०७ - १०९ ।
२५. चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः । यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ॥ २६. यद्वा तत्तत्रायपेक्षा तत्कालादिनियोगतः ।
वही, २३२-२३७
ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपि तत्त्वतः ॥ २७. मग्गो मग्गो लोए भांति, सव्वे मग्गणा रहिया
।
वही, २०७
२८. परमप्प मग्गणा जत्थ तम्मग्गो मुक्ख मग्गुति ॥
- वही,'
१३४
वही, १३८
-सम्बोधप्रकरण, १/४ पूर्वार्ध
वही, १/४ उत्तरार्ध २९. जत्थ य विसय कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अण्णो । १/५ पूर्वार्ध ३०. सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ||
·
वही, १/३
३१. नामाइ चउप्पभेओ भणिओ । - वही, १/५ (व्याख्या लेखक की अपनी है। )
३२. तक्काइ जोय करणा खोरं पयउं घयं जहा हुज्जा ।
-वही, १/७
३३. भावगयं तं मग्गो तस्स विसुद्धीइ हेउणो भणिया । वही, १/११ पूर्वार्द्ध
-
३४. तम्मि य पढमे सुद्दे सव्वाणि तयणुसाराणि वही, १/१० ३५. वही, १ / ९९ - १०४ ३६. वही, १/१०८
३७. वही, २ / १०, १३, ३२, ३३, ३४.
३८. वही, २ / ३४-३६, ४२, ४६, ४९-५० २/५२, ५६-७४
८८-९२ ३९. वही, २/२०
।।
४०. जह असुइ ठाणंपडिया चंपकमाला न कीरते सीसे । पासल्याइठाणे वट्टमाणा इह अपुज्जा । वही २/२२ ४१. जइ चरिउं नो सक्को सुद्धं जइलिंग महवपूयट्ठी । तो गिहिलिंग गिहे नो लिंगी पुणारिहओ ॥
वही, ४२. एयारिसाण दुस्सीलयाण साहुपिसायाण मत्ति पूव्वं । जे वंदनमंसाइ कुव्वंति न महापावा ? वही, १/११४
-
mad११३ ]6ন
-
तह उमग्गपक्खकरा ।
४३. सुहसीलाओ सच्छंदचारिणो वेरिणो सिवपहस्स आणाभट्टाओ बहुजणाओ मा भणह संवृत्ति ॥ देवाइ दव्वभक्खणतप्परा साहु जणाणपओसं कारिणं मामणंह संघं ॥ जहम्म अनीई अणायार सेविणो धम्मनी पडिकूला । साहुपभि चडरो वि बहुया अवि मा भणह संघ असंघ संघ जे भणित रागेण अहव दोसेण । छेओ वा मुहुत्तं पच्छितं जायए सिं ॥
-वही, १ / ११९ - १२१, १२३ ४४. गम्भपवेसो वि वरं भदवरो नरयमास पासो वि मा जिण आणा लोवकरे वसणं नाम संघे वे ॥
४५. वही, २/१०३ ४६. वही, २ / १०४
४७. वेसागिहे गमणं जहा निसिद्धं सुकुल बहुयाणं । तह हीणावार जह जण संग सहाण पड़िसिद्धं ॥ परं दिट्ठि विसो सप्पो वरं हलाहलं विसं
१/२७५
-
- वही, २/१३२
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________________ चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - होणायार अगीयत्थ वयणपसंगं खु णो भद्दो / / - वही, श्रावक-धर्माधिकार, 2,3 48. वही, 2/77-78 49. बाला वंयति एवं वेसो तित्थकराण एसोवि / नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमों / / - वही, 2/76 50. वरं वाही वरं मच्चू वरं दारिद्दसंगमो / वरं अरण्णेवासो य मा कुलीलाण संगमो / / हीणायारो वि वरं मा कुसीलएण संगमो भदं / जम्हा हीणो अप्प नासइ सव्वं हु सील निहिं / / - वही, 2/101-102 51. विस्तार के लिए देखें सम्बोधप्रकरण गुरुस्वरूपाधिकार / इसमें 375 गाथाओं में सुगुरु का स्वरूप वर्णित है / 52. नो अप्पण पराया गुरुणो कइया वि हुँति सवाणं / जिण वयण रयणनिहिणो सव्वे ते वनिया गुरुणो / / -वही, गुरुस्वरूपाधिकर: 3 53. लोकतत्त्वनिर्णय, 32-33 54. योगदृष्टिसमुच्चय, 129 / 55. जिनलकोश, हरिदामोदर वेलंकर, भंडारकर आरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट ,पूना 1944, पृ० 144 आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष आचार्य हेमचन्द्र भारतीय मनीषारूपी आकाश के एक में धार्मिक समन्वयशीलता के बीज अधिक विकसित हो सके। दूसरे देदीप्यमान नक्षत्र हैं। विद्योपासक श्वेताम्बर जैन आचार्यों में बहुविध और शब्दों में धर्मसमन्वय की जीवनदृष्टि तो उन्हें अपने पारिवारिक परिवेश विपुल साहित्यस्रष्टा के रूप में आचार्य हरिभद्र के बाद यदि कोई महत्त्वपूर्ण से ही मिली थी। नाम है तो वह आचार्य हेमचन्द्र का ही है। जिस प्रकार आचार्य हरिभद्र आचार्य देवचन्द्र जो कि आचार्य हेमचन्द्र के दीक्षागुरु थे, स्वयं ने विविध भाषाओं में जैन-विद्या की विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य भी प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने बालक चंगदेव (हेमचन्द्र के जन्म का का सृजन किया था, उसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने विविध विद्याओं पर नाम) की प्रतिभा को समझ लिया था, इसलिये उन्होंने उनकी माता से विपुल साहित्य का सृजन किया है। आचार्य हेमचन्द्र गुजरात की विद्वत्- उन्हें बाल्यकाल में ही प्राप्त कर लिया। आचार्य हेमचन्द्र को उनकी अल्प परम्परा के प्रतिभाशाली और प्रभावशाली जैन आचार्य हैं। उनके साहित्य बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत् रूप में जो बहुविधता है वह उनके व्यक्तित्व एवं उनके ज्ञान की बहुविधता से उन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुतः की परिचायिका है। काव्य, छन्द, व्याकरण, कोश, कथा, दर्शन, हेमचन्द्र की प्रतिभा और देवचन्द्र के प्रयत्न ने बालक के व्यक्तित्व को अध्यात्म और योग-साधना आदि सभी पक्षों को आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी एक महनीयता प्रदान की। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की सृजनधर्मिता में समेट लिया है। धर्मसापेक्ष और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार भाँति बहु-आयामी था। वे कुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोकके साहित्य के सृजन में उनके व्यक्तित्व की समानता का अन्य कोई नहीं कल्याणकर्ता एवं अप्रतिम विद्वान् सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व मिलता है। जिस मोढ़वणिक जाति ने सम्प्रति युग में गाँधी जैसे महान् के सभी पक्षों को उजागर कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी मैं व्यक्ति को जन्म दिया उसी मोढ़वणिक जाति ने आचार्य हेमचन्द्र को भी कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। जन्म दिया था। हेमचन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के धन्धुका नगर में श्रेष्ठि यह सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य चाचिग तथा माता पाहिणी की कुक्षि से ई० सन् 1088 में हुआ था। निष्ठा थी किन्तु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि हेमचन्द्र गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास के पिता शैव और माता जैनधर्म की अनुयायी थीं। आज भी गुजरात है, हेमचन्द्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न की इस मोढ़वणिक जाति में वैष्णव और जैन दोनों धर्मों के अनुयायी धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही पाए जाते हैं। अत: हेमचन्द्र के पिता चाचिग के शैवधर्मावलम्बी और परिचायक होती है। आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृति को जैनधर्म के माता पाहिणी के जैनधर्मावलम्बी होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में ऐसे अनेक परिवार रहे हैं जिनके सदस्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचन्द्र ने भी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी होते थे। सम्भवत: पिता के शैवधर्मावलम्बी नामक समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं और माता के जैनधर्मावलम्बी होने के कारण ही हेमचन्द्र के जीवन की समीक्षा भी की। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिये कि Sombuoridrioritamidrbadwaldwideshwordabdirditorib114]inbediritordiiudrapriconiudadiridwordrobridwidowder