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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - ब्राह्मण होने के अनुमान की पुष्टि करता है । गणधरसार्धशतक और अन्य भवविरह का इच्छुक कहते हों । यह भी सम्भव है कि अपने प्रिय शिष्यों ग्रन्थों में उन्हें स्पष्टरूप से ब्राह्मण कहा गया है । धर्म और दर्शन की अन्य के विरह की स्मृति में उन्होंने यह उपनाम धारण किया हो। पं० परम्पराओं के सन्दर्भ में उनके ज्ञान-गाम्भीर्य से भी इस बात की पष्टि होती सुखलालजी ने इस सम्बन्ध में निम्न तीन घटनाओं का संकेत किया हैहै कि उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा ब्राह्मण कुल में ही हुई होगी। (१) धर्मस्वीकार का प्रसंग (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग कहा यह जाता है कि उन्हें अपने पाण्डित्य पर गर्व था और और (३) याचकों को दिये जाने वाले आशीर्वाद का प्रसंग तथा उनके अपनी विद्वत्ता के इस अभिमान में आकर ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर ली द्वारा भवविरहसूरि चिरंजीवी हो कहे जाने का प्रसंग । इस तीसरे प्रसंग थी कि जिसका कहा हुआ समझ नही पाऊँगा उसी का शिष्य हो जाऊँगा। का निर्देश कहावली में है । जैन अनुश्रुतियों में यह माना जाता है कि एक बार वे जब रात्रि में अपने घर लौट रहे थे तब उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख से प्राकृत की निम्न हरिभद्र का समय गाथा सुनी जिसका अर्थ वे नहीं समझ सके हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित चक्कीदुर्ग हरिपणगं पणगं चक्की केसवो चक्की । हैं। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने 'विचार- श्रेणी' में हरिभद्र के केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ ।। स्वर्गवास के सन्दर्भ में निम्न प्राचीन गाथा को उद्धृत किया है - - आवश्यकनियुक्ति, ४२१ पंचसए पणसीए विक्कम कालाउ झत्ति अस्थिमओ । अपनी जिज्ञासुवृत्ति के कारण वे उस गाथा का अर्थ जानने के हरिभद्रसूरी भवियाणं दिसउ कल्लाणं ।। लिए साध्वीजी के पास गये । साध्वीजी ने उन्हें अपने गुरु आचार्य उक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० ५८५ जिनदत्तसूरि के पास भेज दिया । आचार्य जिनदत्तसूरि ने उन्हें धर्म के दो में हुआ। इसी गाथा के आधार पर प्रद्युम्नसूरि ने अपने विचारसारप्रकरण' भेद बताए - (१) सकामधर्म और (२) निष्कामधर्म । साथ ही यह भी एवं समयसुन्दरगणि ने स्वसंगृहीत 'गाथासहस्री' में हरिभद्र का स्वर्गवास बताया कि निष्काम या निस्पृह धर्म का पालन करने वाला ही 'भवविरह' वि० सं० ५८५ में माना है । इसी आधार पर मुनि श्रीकल्याणविजयजी अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसा लगता है कि प्राकृत भाषा और ने 'धर्म-संग्रहणी' की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का सत्ता-समय उसकी विपुल साहित्य-सम्पदा ने आचार्य हरिभद्र को जैन धर्म के प्रति वि० सं० की छठी शताब्दी स्थापित किया है। आकर्षित किया हो और आचार्य द्वारा यह बताए जाने पर कि जैन-साहित्य कुलमण्डनसूरि ने 'विचारअमृतसंग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय के तलस्पर्शी अध्ययन के लिये जैन मुनि की दीक्षा अपेक्षित है, अतः ने तपागच्छगुर्वावली में वीर-निर्वाण-संवत् १०५५ में हरिभद्र का समय वे उसमें दीक्षित हो गए। वस्तुत: एक राजपुरोहित के घर में जन्म लेने निरूपित किया है - के कारण वे संस्कृत व्याकरण, साहित्य, वेद, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, पणपन्नदससएहिं हरिसूरि आसि तत्थ पुवकई । दर्शन और ज्योतिष के ज्ञाता तो थे ही, जैन-परम्परा से जुड़ने पर उन्होंने परम्परागत धारणा के अनुसार वी० नि० के ४७० वर्ष पश्चात् जैन-साहित्य का भी गम्भीर अध्ययन किया । भात्र यही नहीं, उन्होंने अपने वि० सं० का प्रारम्भ मानने से (४७०+५८५ = १०५५) यह तिथि इस अध्ययन को पूर्व अध्ययन से परिपुष्ट और समन्वित भी किया। उनके पूर्वोक्त गाथा के अनुरूप ही वि० सं० ५८५ में हरिभद्र का स्वर्गवास ग्रन्थ योगसमुच्चय, योगदृष्टि, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि इस बात का निरूपित करती है । स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त ज्ञान और आचार्य हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० की छठी शताब्दी के जैन-परम्परा में दीक्षित होकर अर्जित किए ज्ञान को एक दूसरे का पुरक उत्तरार्ध में हुआ, इसका समर्थन निम्न दो प्रमाण करते हैं - बनाकर ही इन ग्रन्थों की रचना की है। हरिभद्र को जैनधर्म की ओर (१) तपागच्छ-गुर्वावली में मुनिसुन्दरसूरि ने हरिभद्रसूरि को आकर्षित करने वाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी, अत: अपना धर्म- मानदेवसूरि द्वितीय का मित्र बताया है जिनका समय विक्रम की छठी • ऋण चुकाने के लिये उन्होंने अपने को महत्तरा याकिनीसन अर्थात शताब्दी माना जाता है । अत: यह उल्लेख पूर्व गाथोक्त समय से अपनी याकिनी का धर्मपुत्र घोषित किया । उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेकशः संगति रखता है। अपने साथ इस विशेषण का उल्लेख किया है । हरिभद्र के उपनाम के (२) इस गाथोक्त समय के पक्ष में दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण रूप में दूसरा विशेषण ‘भवविरह' है। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं साक्ष्य हरिभद्र का 'धूर्ताख्यान' है जिसकी चर्चा मुनि जिनविजयजी ने में इस उपनाम का निर्देश किया है । विवेच्य ग्रन्थ पञ्चाशक के अन्त में 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९८८) हमें 'भवविरह' शब्द मिलता है । अपने नाम के साथ यह भवविरह में नहीं की थी । सम्भवत: उन्हें निशीथचूर्णि में धूर्ताख्यान का उल्लेख विशेषण लगाने का क्या कारण रहा होगा, यह कहना तो कठिन है, फिर सम्बन्धी यह तथ्य ज्ञात नहीं था । यह तथ्य मुझे 'धूर्ताख्यान' में मूलभी इस विशेषण का सम्बन्ध उनके जीवन की तीन घटनाओं से जोड़ा स्रोत की खोज करते समय उपलब्ध हुआ है । धूर्ताख्यान के समीक्षात्मक जाता है । सर्वप्रथम आचार्य जिनदत्त ने उन्हें भवविरह अर्थात् मोक्ष प्राप्त अध्ययन में प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये ने हरिभद्र के प्राकृत धूर्ताख्यान करने की प्रेरणा दी, अत: सम्भव है उनकी स्मति में वे अपने को का संघतिलक के संस्कृत धूर्ताख्यान पर और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212139
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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