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________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र आचार्य हरिभद्र जैनधर्म के प्रखर प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा विपुल एवं बहुआयामी साहित्य का सृजन किया है। उन्होंने दर्शन, धर्म, योग, आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित काव्य आदि विविध विधाओं के अन्थों की रचना की है। मौलिक साहित्य के साथ-साथ उनका टीकासाहित्य भी विपुल है। जैन धर्म में योग सम्बन्धी साहित्य के तो वे आदि प्रणेता है। इसी प्रकार आगमिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में टीका करने वाले जैन परम्परा में वे प्रथम टीकाकार भी है। उनके पूर्व तक आगमों पर जो नियुक्ति और भाष्य लिखे गये थे वे मूलतः प्राकृत भाषा में ही थे । भाष्यों पर आगमिक व्यवस्था के रूप में जो चूर्णियाँ लिखी गयी थीं वे भी संस्कृत प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखी गयीं विशुद्ध संस्कृत भाषा में आगमिक ग्रन्थों की टीका लेखन का सूत्रपात तो हरिभद्र ने ही किया। भाषा की दृष्टि से उनके ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में मिलते हैं। अनुश्रुति तो यह है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी किन्तु वर्तमान में हमें उनके नाम चढ़े पर हुए लगभग ७५ ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । यद्यपि विद्वानों की यह मान्यता है कि इनमें से कुछ ग्रन्थ वस्तुतः याकिनीसूनु हरिभद्र की कृति न होकर किन्हीं दूसरे हरिभद्र नामक आचार्यों की कृतियाँ हैं। पंडित सुखलालजी ने इनमें से लगभग ४५ ग्रन्थों को तो निर्विवाद रूप से उनकी कृति स्वीकार किया है क्योंकि इनमें 'भव विरह' ऐसे उपनाम का प्रयोग उपलब्ध है। इनमें भी यदि हम अटक प्रकरण के प्रत्येक अटक को षोडशकत्रकरण के प्रत्येक षोडशक को, विंशिकाओं में प्रत्येक विंशिका को तथा पञ्चाशक में प्रत्येक पाशक को स्वतन्त्र ग्रन्थ मान लें तो यह संख्या लगभग २०० के समीप पहुँच जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य हरिभद्र एक प्रखर प्रतिभा के धनी आचार्य थे और साहित्य की प्रत्येक विधा को उन्होंने अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था। प्रतिभाशाली और विद्वान् होना वस्तुतः तभी सार्थक होता है जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो। आचार्य हरिभद्र उस युग के विचारक हैं जब भारतीय चिन्तन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में वाक्-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गयी थी । प्रत्येक दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना बुद्धिकौशल मान रहा था। मात्र यही नहीं, दर्शन के साथ-साथ धर्म के क्षेत्र में भी पारस्परिक विद्वेष और घृणा अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी । स्वयं आचार्य हरिभद्र को भी इस विद्वेष भावना के कारण अपने दो शिष्यों की बलि देनी पड़ी थी। हरिभद्र की महानता और धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है। आचार्य हरिभद्र की महानता तो इसी में निहित है कि उन्होंने शुष्क वाग्जाल तथा ९० Jain Education International घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया । यहाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के गुण उन्हें जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के रूप में विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने अपने जीवन व्यवहार और साहित्य सृजन में इन गुणों को जिस शालीनता के साथ आत्मसात् किया था वैसे उदाहरण स्वयं जैन- परम्परा में भी विरल ही हैं। - आचार्य हरिभद्र का अवदान धर्म-दर्शन, साहित्य और समाज के क्षेत्र में कितना महत्त्वपूर्ण है इसकी चर्चा करने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम उनके जीवनवृत्त और युगीन परिवेश के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से चर्चा कर लें। जीवनवृत्त यद्यपि आचार्य हरिभद्र ने उदार दृष्टि से विपुल साहित्य का सृजन किया, किन्तु अपने सम्बन्ध में जानकारी देने के सम्बन्ध में वे अनुदार या संकोची ही रहे। प्राचीन काल के अन्य आचार्यों के समान ही उन्होंने भी अपने सम्बन्ध में स्वयं कहीं कुछ नहीं लिखा। उन्होंने ग्रन्थप्रशस्तियों में जो कुछ संकेत दिए हैं उनसे मात्र इतना ही ज्ञात होता है कि वे जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के 'विद्याधर कुल' से सम्बन्धित थे । इन्हें महत्तरा याकिनी नामक साध्वी की प्रेरणा से जैनधर्म का बोध प्राप्त हुआ था, अतः उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में अपने आपको 'याकिनीसूनु' के रूप में प्रस्तुत किया है, साथ ही अपने ग्रन्थों में अपने उपनाम 'भवविरह' का संकेत किया है। कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने भी इनका इसी उपनाम के साथ स्मरण किया है। जिन ग्रन्थों में इन्होंने अपने इस 'भवविरह' उपनाम का संकेत किया है वे ग्रन्थ निम्न हैंअष्टक, षोडशक, पञ्चाशक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, शास्त्रवार्तासमुच्चय, पञ्चवस्तुटोका, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, संसारदावानलस्तुति, उपदेशपद, धर्मसंग्रहणी और सम्बोध- प्रकरण । हरिभद्र के सम्बन्ध में उनके इन ग्रन्थों से इससे अधिक या विशेष सूचना उपलब्ध नहीं होती । - आचार्य हरिभद्र के जीवन के विषय में उल्लेख करने वाला सबसे प्राचीन ग्रन्थ भद्रेश्वर की कहावली है। इस ग्रन्थ में उनके जन्मस्थान का नाम बंभपुनी उल्लिखित है किन्तु अन्य ग्रन्थों में उनका जन्मस्थान चित्तौड़ (चित्रकूट) माना गया है । सम्भावना है कि ब्रह्मपुरी चित्तौड़ का कोई उपनगर या कस्बा रहा होगा। कहावली के अनुसार इनके पिता का नाम शंकर भट्ट और माता का नाम गंगा था। पं० सुखलाल जी का कथन है कि पिता के नाम के साथ भट्ट शब्द सूचित करता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे। ब्रह्मपुरी में उनका निवास भी उनके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212139
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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