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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - भी चर्चा की गई है। योगविंशिका में योग के निम्न पाँच भेदों का वर्णन है- (१) स्थान, (२) उर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन, (५) अनालम्बन । योग के इन पाँच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी भी जैन ग्रन्थ में नहीं मिलता। अत: यह आचार्य की अपनी मौलिक कल्पना है । कृति के अन्त में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि इन चार योगांगों और कृति, भक्ति, वचन और असङ्ग-इन चार अनुष्ठानों का भी वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें चैत्यवन्दन की क्रिया का भी उल्लेख है । योगशतक यह १०१ प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध आचार्य हरिभद्र की योग सम्बन्धी रचना है । ग्रंथ के प्रारम्भ में निश्चय और व्यवहार दृष्टि से योग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसके पश्चात् आध्यात्मिक विकास के उपायों की चर्चा की गई है। ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में चित्त को स्थिर करने के लिये अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होने या उनका अवलोकन करने की बात कही गई है। अन्त में योग से प्राप्त लब्धियों की चर्चा की गई है। योगदृष्टिसमुच्चय योगदृष्टिसमुच्चय जैन योग की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। आचार्य हरिभद्र ने इसे २२७ संस्कृत पद्यों में निबद्ध किया है। इसमें सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का निर्देश है: (१) दृष्टियोग, (२) इच्छायोग और (३) सामर्थ्ययोग। दृष्टियोग में सर्वप्रथम मित्रा, तारा, बला, दौत्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा- इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है । संसारी जीव की अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था को योग दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की भी योजना कर ली है। इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है। ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने योग अधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी इन चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया है। योगबिन्दु हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप छन्द के ५२७ संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इस कृति में उन्होंने जैन-योग के विस्तृत विवेचन के साथसाथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचन भी किया है। इसमें योग अधिकारियों की चर्चा करते हुए उनके दो प्रकार निरूपित किये गए हैं- (१) चरमावृतवृत्ति, (२) अचरमावृतआवृत वृत्ति। इसमें चरमावृतवृत्ति को ही मोक्ष का अधिकरी माना गया है। योग के अधिकारी अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में आबद्ध संसारी जीवों को 'भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों को Jain Education International योग का अधिकारी माना है। योग का प्रभाव, योग की भूमिका के रूप में पूर्वसेवा, पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्त्व प्राप्ति का विवेचन, विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, कालादि के पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने 'गुरु' की विस्तार से व्याख्या की है । आध्यात्मिक विकास की पाँच भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतञ्जलि के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में 'चारिसंजीवनी' न्याय गोपेन्द्र और कालातीतं के मन्तव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात अवतरण, आदि भी इस अन्य के मुख्य प्रतिपाद्य है। पुनः इसमें जी के भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक सम्यक् दृष्टि या भिन्त्री, देशविरति और सर्व विरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के सन्दर्भ मे पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है । आध्यात्मिक विकास की चर्चा करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय- इन पाँच भेदों का निर्देश किया गया है। साथ ही इनकी पतञ्जलि अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि से तुलना भी की गई है। इसमें विविध प्रकार के यौगिक अनुष्ठानों की भी चर्चा है जो इस बात को सूचित करते हैं कि साधक योग साधना किस उद्देश्य से कर रहा है । यौगिक अनुष्ठान पाँच हैं- (१) विषानुष्ठान, (२) गरानुष्ठान, (३) अनानुष्ठान, (४) तद्धेतु-अनुष्ठान, (५) अमृतानुष्ठान । इनमें पहले तीन 'असद् अनुष्ठान हैं तथा अन्तिम के दो अनुष्ठान 'सदनुष्ठान' है । षड्दर्शनसमुच्चय षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की लोकविश्रुत दार्शनिक रचना है। मूल कृति मात्र ८७ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसमें आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर १०० पद्य प्रमाण वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र ने चार्वाक, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, जैन और लिखी है, जो १९७५ श्लोक परिमाण है। जैमिनि (मीमांसा दर्शन) इन छः दर्शनों के सिद्धान्तों का, उनकी मान्यता के अनुसार संक्षेप में विवेचन किया है। ज्ञातव्य है कि दर्शन संग्राहक अन्यों में यह एक ऐसी कृति है जो इन भिन्न-भिन्न दर्शनों को खण्डन- मण्डन से ऊपर उठकर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत करती है। इस कृति के सन्दर्भ में विशेष विवेचन हम हरिभद्र के व्यक्तित्व की चर्चा करते समय कर चुके हैं । 'सद्योगचिन्तामणि' से प्रारम्भ होने वाली इस वृत्ति का श्लोकपरिणाम ३६२० है। योगबिन्दु के स्पष्टीकरण के लिये यह वृत्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । शास्त्रवार्तासमुच्चय जहाँ दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण है, वहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों की समीक्षा प्रस्तुत की गयी है। षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा यह एक विस्तृत कृति ম/१०९ ] ম For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212139
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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