Book Title: Nandisutra ke Praneta tatha Churnikar
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दिसूत्रके प्रणेता तथा चूर्णिकार* नन्दीसूत्रके प्रणेता नन्दीसूत्रकारने नन्दीसूत्रमें कहीं भी अपने नामका निर्देश नहीं किया है, किंतु चूर्णिकार श्री जिनदासगणि महत्तरने अपनी चूर्णिमें सूत्रकारका नाम निर्दिष्ट किया है, जो इस प्रकार है --- “एवं कतमंगलोवयारो थेरावलिकमे य दंसिए अरिहेसु य दंसितेसु दूसगणिसीसो देववायगो साहुजणहितढाए इणमाह " [पत्र १३ ] इस उल्लेख द्वारा चूर्णिकारने नन्दीसूत्रप्रणेता स्थविर श्री देववाचक हैं -- ऐसा बतलाया है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि एवं आचार्य श्री मलयगिरिसूरिने भी इसी आशयका उल्लेख अपनी अपनी टीकामें किया है, किन्तु इनका मूल आधार चूर्णिकारका उल्लेख ही है। चूर्णिकारके उल्लेखसे ही ज्ञात होता है कि - नन्दीसूत्रके प्रणेता नन्दीसूत्रस्थविरावलिगत अंतिम स्थविर श्री दुष्यगणिके शिष्य श्री देववाचक हैं। ___ पंन्यासजी श्री कल्याणविजयजी महाराजने अपने 'वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना' निबन्धमें (नागरीप्रचारिणी भाग १० अंक ४) अनेकानेक प्रमाण और युक्ति द्वारा नन्दीसूत्रप्रणेता स्थविर देववाचक और जैन आगमोंकी माथुरी एवं वालभी बाचनाओंको संवादित करनेवाले श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणको एक बतलाया है। ___नव्यकर्मग्रंथकारआचार्य श्री देवेन्द्रसूरि महाराजने अपनी स्वोपज्ञ वृत्तिमें देवर्द्धिवाचक, देवर्द्धिक्षमाश्रमण नामके उल्लेखपूर्वक अनेकवार नन्दीसूत्रपाठके उद्धरण दिये हैं, ये भी उन्होंने * श्रीदेववाचकरचितं नन्दीसूत्रम्-श्रीजिनदासगणिमहत्तरविरचितया चूा संयुतम् (प्रकाशक-प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, ई. स. १९६६ ) के सम्पादनकी प्रस्तावमासे उद्धृत । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હનીસૂત્રકે પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [७३ देववाचक और देवर्द्धिक्षमाश्रमणको एक व्यक्ति मानके ही दिये हैं । यह भी श्री कल्याणविजयजो महाराजकी मान्यताको पुष्ट करनेवाला सबूत है। तथापि नन्दीकी स्थविरावलीमें अंतिम स्थविर दुष्यगणि हैं, जिनको नन्दीचूर्णिकारने देववाचकके गुरु दर्शाये हैं। तब कल्पसूत्रकी वि. सं० १२४६ में लिखित प्रतिसे लेकर आज पर्यन्तकी प्राचीन-अर्वाचीन ताडपत्रीय एवं कागजकी प्रतियोंमें स्थविरावलिके पाठोंकी कमी-बेशीके कारण कोई एक स्थविरका नाम व्यवस्थित रूपसे पाया नहीं जाता है। इस कारण इन दोनों स्थविरोंको एक मानना कहाँ तक उचित है, यह तज्ज्ञ विद्वानोंके लिये विचारणीय है । देववाचक और देवर्द्धिक्षमाश्रमण इन नाम और विशेषण-उपाधिमें भी अंतर है । साथमें यह भी देखना जरूरी है कि नन्दीसूत्रकी स्थविरावलीमें वायगवंस, वायगपय, बायग, इस प्रकार वायग शब्दका ही प्रयोग मिलता है, दूसरे कोई वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर जैसे पदोका प्रयोग नजर नहीं आता है। अगर देववाचकको क्षमाश्रमणकी भी उपाधि होती तो नन्दीचूर्णिकार जरूर लिखते ही । जैसे द्वादशारनयचक्रटीकाके प्रणेता सिंहवादी गणि क्षमाश्रमण, विशेषावश्यककी अपूर्ण स्वोपज्ञ टोकाको पूरी करनेवाले कोट्टायवादी गणि महत्तर, सन्मतितके प्रणेता वादी सिद्धसेनगणी दिवाकर आदि नामोंके साथ दो विशेषण-उपाधियाँ जुडी हुई मिलती हैं इसी तरह देववाचकके लिये भी दो उपाधियोंका निर्देश जरूर मिलता । अतः देववाचक और देवर्द्धिक्षमाश्रमण, ये दोनों एक ही व्यक्ति हैं या भिन्न, यह प्रश्न अब भी विचारणीय प्रतीत होता है । कल्पसूत्रकी स्थविरावली और नन्दीसूत्रकी स्थविरावलीका मेलझोल कैसे, कितना और कहाँ तक हो सकता है, यह भी विचारार्ह है। वाचकपदको अपेक्षाकृत प्राचीनता होने पर भी कल्पसूत्रकी समय समय पर परिवर्धित स्थविरावलीमें घेर और स्वमासमणपदका ही निर्देश नजर आता है, यह भी दोनों स्थविर और स्थविरावलीकी विशेषता एवं भिन्नताके विचारका साधन है । यहाँ पर प्रसंगोपात्त एक बात स्पष्ट करना उचित है कि-भदेश्वरसूरिकी कहावलीमें एक गाथा निम्नप्रकारकी नज़र आती है वाई य खमासमणे दिवायरे वायगे ति एगट्ठा । पुचगयं जस्सेसं जिणागमे तम्मिमे नामा ॥ .. ___अर्थात् - वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर और वाचक, ये एकार्थक-समानार्थक शब्द हैं। जिनागममें जो पूर्वगत शास्त्र हैं उनके शेष अर्थात् अंशोंका पारम्परिक ज्ञान जिनके पास है उनके लिये ये पद हैं। ___ इस गाथासे यह स्पष्ट है कि-इन उपाधियोंवाले आचार्योंके पास पूर्वगतज्ञानकी परंपरा थी। किन्तु आज जैन परम्परामें जो ऐसी मान्यता प्रचलित है कि-इन पदधारक आचार्योंको एक पूर्वमादिका ज्ञान था, यह मान्यता भ्रान्त एवं गलत प्रतीत होती है । कारण यह है कि अगर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] જ્ઞાનાંજલિ आचाराङ्गादि प्राथमिक अंगआगम शीर्णविशीर्ण हो चूके थे, इस दशामें पूर्वश्रुतके अखंड रहने की संभावना हो कैसे हो सकती है ? । स्थविर श्री देववाचककी नन्दीसूत्रके सिवा दूसरी कोई कृति उपलब्ध नहीं है । चूर्णिकार नन्दी सूत्रचूर्णिके प्रणेता आचार्य श्री जिनदासगणि महत्तर हैं । सामान्यतया आज यह मान्यता प्रचलित है कि जैन आगमोंके भाष्यों के प्रणेता श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और चूर्णियोंके रचयिता श्री जिनदासगणि महत्तर ही हैं, और ऐसे प्राचीन उल्लेख पट्टावली आदिमें पाये भी जाते हैं; किन्तु भाग्य - चूर्णियों के अवगाहनके बाद ये दोनों मान्यताएँ गलत प्रतीत हुई हैं । यहाँ पर भाष्यकारों का विचार अप्रस्तुत है, अतः सिर्फ यहाँ पर जैन आगमोंके ऊपर जो प्राचीन चूर्णियाँ उपलब्ध हैं उन्हीं के विषय में विचार किया जाता है । आज जैन आगमोंके ऊपर जो चूर्णिनामक प्राकृतभाषाप्रधान व्याख्याग्रन्थ प्राप्त हैं उनके नाम क्रमशः ये हैं १ आचाराङ्गचूर्णि, २ सूत्रकृताङ्गचूर्णि ३ भगवतीचूर्णि, ४ जीवाभिगमचूर्णि ५ प्रज्ञापनासूत्र - शरीरपदचूर्णि, ६ जम्बूद्वीपकरणचूर्णि ७ दशाकल्प चूर्णि, ८ कल्पचूर्णि, ९ कल्पविशेषचूर्णि, १० व्यवहारसूत्रचूर्णि, ११ निशीथसूत्र विशेषचूर्णि, १२ पञ्चकल्पचूर्णि, १३ जीतकल्पबृहचूर्णि १४ आवश्यकचूर्णि, १५ दशकालिक चूर्णि श्रीअगस्त्य सिंहकृता, १६ दशकालिकचूर्णि वृद्धविवरणाख्या, १७ उत्तराध्ययनचूर्णि, १८ नन्दी सूत्रचूर्णि, १९ अनुयोगद्वार चूर्णि, २० पाक्षिकचूर्णि । ऊपर जिन बीस चूर्णियों के नाम दिये हैं उनके और इनके प्रणेताओंके विषय में विचार करनेके पूर्व एतद्विषयक चूर्णिग्रन्थोंके प्राप्त उल्लेखों को मैं एक साथ यहाँ उद्धृत कर देता हूँ जो भविष्य में विद्वानोंके लिये कायमकी विचारसामग्री बनी रहें । (१) आचाराङ्गचूर्णि । अन्तः से निरालंबणमप्पतितो । शेषं तदेव ॥ इति आचारचूर्णि परिसमाप्ता ॥ नमो सुयदेवयाए भगवईए || ग्रन्थाग्रम् ८३०० ॥ हु (२) सूत्रकृताङ्गचूर्णि । अन्तः हामि न सूत्रेति तव्वं सव्वमिति ॥ नमः सर्वविदे वीराय विगतमोहाय ॥ समाप्तं चेदं सूत्रकृताभिधं द्वितीयमङ्गमिति । भद्रं भवतु श्रीजिनशासनाय । सुगडांगचूर्णिः समाप्ता ॥ ग्रन्थायम् ९५०० ॥ - (३) भगवतीचूर्णि - - श्रीभगवतीचूर्णिः परिसमाप्तेति ॥ इति भद्रं ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નન્દી સૂરક પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [७५ ___सुअदेवयं तु वंदे जीइ पसाएण सिक्खियं नाणं । विश्यं पि बतव (? बंभ) देविं पसन्नवाणि पणिवयामि ॥ ग्रंथानं ६७०७ ॥ श्री ॥ (४) जीवाभिगमचूर्णि इस चूर्णिकी प्रति अद्यावधि ज्ञात किसी भंडारमें देखनेमें नहीं आई है। (५) प्रज्ञापनाशरीरपदणि । अन्तः - जमिहं सायविरुद्धं बढे बुद्धिविकलेण होजा हि । तं जिणवयगविहन्नू खमिऊणं मे पसोहिंतु ॥१॥ ॥ सरीरपदस्स चुण्णी जिणभदखमासमणकित्तिया समत्ता ॥ अनुयोगद्वारचूर्णि पत्र ७४ । ___ याकिनी महत्तरासूनु आचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृत अनुयोगद्वारलघुवृत्ति पत्र ९९ में भी यही उल्लेख है। (६) जम्बूद्वीपकरणणि । अन्तः एवं उवरिल्लभागस्त तेरासियं पउजियव्वं । विरुव्वेहवुड्ढीओ आणेयवाओ। जंबुद्दीवपण्यत्तिकरणाणं चुण्णी समत्ता ॥ (७) दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि । अन्तः जाव णया वि । जाव करणओ- सव्वेसि पि णयाणं० गाधा ॥ दशानां चूर्णि समाता ॥ (८) कल्पचूर्णि आउयवजा उ० गाहा ९९ । वित्थरेण जहा विसेसावस्सगभासे । 'सामित्तं चेव पगडीणं को केवत्तियं बंधइ ? खवेइ वा केत्तियं को उ? त्ति जहा कम्मपगडीए । एतं पसंगेण गतं । अन्त: तओ य आराहणातो छिण्णसंसारी भवति संसारसंतति छेत्तुं मोक्खं पावतीति ॥ कल्पचूर्णि समाप्ता ।। ग्रन्थानम् - ५३०० प्रत्यक्षरगणनया निर्णीतम् ॥ [ सर्वग्रन्थानम् - १४७८४] । (९) कल्पविशेषचूर्णि - अन्तः कप्पविसेसचुण्णी समत्तेति ॥ (१०) व्यवहारचूणि । अन्तः व्यवहारस्य भगवतः अर्थविवक्षाप्रवर्त्तने दक्षम् । विवरणमिदं समाप्तं श्रमणगणानाममृतभूतम् ॥१॥ (११) निशीथविशेषचूर्णि । आदिःनमिऊणऽरहंताणं, सिद्धाण य कम्मचक्कमुक्काणं । सयणसिणेहविमुक्काण सव्वसाहूण भावेण ॥१॥ सविसेसायरजुत्तं काउ पणामं च अत्थदायिस्स । पञ्जुण्णखमासमणस्स चरण-करणाणुपालस्स ॥२॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ ] જ્ઞાનાંજલિ एवं कयपणाम पकपणामस्स विवरणं वने । पुव्वायरियकयं चिय अहं वि तं चैव उविसेसे ॥३॥ भणिया विमुत्तिचूला अहुणाऽवसरो णिसीहचूलाए । को संबंधो तिस्सा ? भण्णइ, इणमो निसामेहि ||४|| तेरहवें उद्देशके अन्तमें संकर डमउडविभूसणस्स तण्णामसरिणामस्स । तस्स सुतेणेस कता विसेसचुण्णी णिसौहस्स || पंद्रहवें उद्देशके अन्तमें रैविकरमभिषाणक्स्वरसत्तमवग्गंत अक्खरजुएणं । णामं जस्सित्थीए सुतेण तिस्से कया चुण्णी ॥ सोलहवें उद्देश अन्त में देहँडो सोह थोरा य ततो जेट्ठा सहोयरा । कणिट्ठा देउलो गण्णो सत्तमो य तिइज्जिओ । एतेसि मज्झिमों जो उ मंदेवी (मंदघी) तेण वित्तिता ( चिन्तिता ) ॥ अन्तः 1 जो गाहासुतत्थ चेवंविधपागडो फुडपदत्थो । रइओ परिभासाए साहूण अणुग्गहट्ठाए || १|| ति चउ-पण मवग्गे ति-पण-ति-तिगक्खरा ठवें तेर्सिं । पढम-ततिएहि णिट्ठइ सरजुएहिं णामं कथं जस्स|| २ || गुरुदिण्णं च गणित्तं महत्तरत्तं च तस्स तुद्वेण । तेण कतेसा चुण्णी विसेसणामा मिसीहस्स ||३|| णमो सुदेवया भगवतीए || जिणदासगणिमहत्तेरण रइया मिसीहचुण्णी समत्ता ॥ ――― -- (१२) पञ्चकल्पचूर्णि । अन्तः - कप्पपणस्स भेओ परूविओ मोक्खसाहणट्टाए । जं चरिऊण सुविहिया करेंति दुक्खक्खयं धीरा || पञ्चकल्पचूर्णिः समाप्ता ॥ ग्रन्थप्रमाणं सहस्रत्रयं शतमेकं पञ्चविंशत्युत्तरम् ३१२५ ॥ (१३) जीतकल्पबृहच्चूर्णि । अन्तः इति जेण जी दाणं साहूणश्यार पंक परिसुद्धिकरं । गाहाहिं फुडं रश्यं महुरपयत्थाहि पावगं परमहियं ॥ १ ॥ जिणभद्दवमासमणं निच्छियसुत्तऽत्थदाय गामल चरणं । तमहं वंदे पयओ परमं परमो वगार कारिणं महग्घं ॥२॥ ॥ जीतकल्पचूर्णिः समाप्ता । सिद्धसेनकृतिरेषा || (१४) आवश्यकचूर्णि । अन्तः करणनयो- सव्वेसि पि नयाणं० गावा ॥ इति आवस्सगनिज्जुत्तिचूण्गी समाप्ता ॥ मंगलं महाश्रीः || -- १. इस गाथासे ज्ञात होता है कि चूर्णिकार श्री जिनदासगणि महत्तर के पिताका नाम नाग अथवा तो चन्द्र होंगा | २. इस गाथाके अर्थका विचार करनेसे चूर्णिकार श्री जिनदासगणि महत्तरको माताका नाम प्राकृत गोवा संस्कृत गोपा अधिक संभवित है । ३. इस गाथामें उल्लिखित देहड आदि चूर्णिकार श्री जिनदोसगणि महत्तरके सहोदर भाई हैं । ४. इस चूर्णि पर टिप्पन रचनेवाले श्री श्रीचंद्रसूरिजी प्रस्तुतचूर्णिका बृहचूर्णिके नामसे उल्लेख करते हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નદીસૂત્રક પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર ७७ (१५) दशकालिकसूत्रअगस्त्यसिंहचूणि । अन्तः - एवमेतं धम्मसमुकित्तणादिचरण-करणाणेगपरूवणागभं नेव्वाणगमणफलावसाणं भवियजणाणंदिकरं चुण्णिसमासवयणेण दसकालियं परिसमत्तं ॥ नमः। वीरवरस्स भगवतो तित्ये कोडीगणे सुविपुलम्मि । गुणगणवइराभस्सा वैरसामिस्स साहाए ॥१॥ महरिसिसरिससभावा भावाऽभावाण मुणितपरमत्था। रिसिगुत्तखमासमगा खमा समाणं निधी आसि ॥२॥ तेसि सीसेण इमा कलसभवमइंदणामधेज्जेणं । दसकालियस्स चुण्णी पयाण रयणातो उवणस्था ॥३॥ रुयिरपद-संधिणियता छड़ियपुणरुत्तवित्थरपसंगा । वक्खाणमंतरेणावि सिस्समतिबोधणसमत्था ॥४॥ ससमय-परसमयणयाण जंथण समाधितं पमादेणं । तं स्वमह पसाहेह य इय विण्णत्ती पवयणीणं ॥५॥ ॥ दसकालियचुण्णी परिसमत्ता ॥ (१६) दशकालिकसूत्रचूणि वृद्धविवरणाख्या । अन्तः अन्झयणाणंतरं 'कालगओ समाधीए ' जीवणकालो जस्स गतो समाहीए त्ति । जहा तेण एत्तिएण चेव ........ आराहगा भवंति त्ति ॥ दशवैकालिकचूर्णि सम्मत्ता ॥ ग्रन्थाग्रन्थ ७४०० ॥ (१७) उत्तराध्ययनचूणि । अन्तःवाणिजकुलसंभूतो कोडियगणितो य वजसाहीतो। गोवालियमहतरओ विक्खातो आसि लोगम्मि ॥१॥ ससमय-परसमयविऊ ओयस्ती देहियं सुगंभीरो । सीसगगसंपरिखुडो वक्खाणरतिप्पियो आसी ॥२॥ तेसिं सीसेण इमं उत्तरायणाण चुण्णिखंडं तु । रइयं अणुग्गहत्थं सीसाणं मंदबुद्धीणं ॥३॥ जं एत्थं उत्सुत्तं अयाणमाणेण विरतितं होजा । तं अणुओगधरा मे अणुचितेउं समारेंतु ॥४॥ ॥ षट्त्रिंशोत्तराध्ययनचूर्णी समाप्ता ॥ ग्रन्थाग्रं प्रत्यक्षरगणनया ५८५० ॥ (१८) नन्दीसूत्रचूणि । अन्तः णि रे ण ग म त ण ह स दा जि या (?) पसुपतिसंखगजद्विताकुला । कमट्टिता धीमतचिंतियक्खरा फुडं कहेयंतऽभिधाण कत्तणो ॥१॥ शकराज्ञो पश्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णिः समाप्ता इति ॥ ग्रंथाग्रम् १५००॥ (१९) अनुयोगद्वारसूत्रचूर्णि । अन्तः चरणमेव गुणो चरणगुणो। अहवा चरणं चारित्रम् , गुणा खमादिया अणेगविधा, तेसु जो जहडिओ साधू सो सव्वणयसम्मतो भवतीति ।। ॥ कृतिः श्रीश्वेताम्बराचार्यश्रीजिनदासगणिमहत्तरपूज्यपादानामनुयोगद्वाराणां चूर्णिः ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] (२०) पाक्षिकसूत्रचूर्णि । अन्तः अनुष्टुपभेदेन छंदसां ग्रंथाग्रं चत्वारि शतानि ४०० ॥ पाक्षिकप्रतिक्रमणचूर्णी समाप्तेति || शुभं भवतु सकलसंघस्य मंगलं महाश्रीः || १. ऊपर जिन बीस चूर्णियोंके आदि-अन्तादि अंशोके उल्लेख दिये हैं, इनके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि - प्रज्ञापनासूत्र के बारहवें शरीरपदकी चूर्णि श्री जिनमद्रगणि क्षमाश्रमणकृत है । आज इसकी कोई स्वतन्त्र हस्तप्रति ज्ञानभंडारोंमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्री जिनदासगणि महत्तर और आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने क्रमशः अपनी अनुयोगद्वारसूत्र की चूर्णि और लघुवृत्तिमें इस चूर्णिको समग्र भावसे उद्धृत कर दी है, इससे इसका पता चलता है। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने प्रज्ञापनासूत्र पर सम्पूर्ण चूर्णि की हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है । इसका कारण यह है कि - प्राचीन जैन ज्ञानभंडारों में प्रज्ञापनासूत्रचूर्णिकी कोई हाथपोथी नहीं हैं । दूसरा यह भी कारण है कि- आचार्य श्री मलयगिरि अपनी प्रज्ञापनावृत्तिमें सिर्फ शरीरसद की वृत्तिके सिवा और कहीं भी चूर्णिपाठका उल्लेख नहीं किया है । अतः ज्ञात होता है कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने सिर्फ प्रज्ञापनसूत्रके बारहवें शरीरपद ही चूर्ण की होगी । आचार्य मलयगिरिने अपनी वृत्तिमें इस चूर्णिका छः स्थानों पर उल्लेख किया है । જ્ઞાનાંજલિ २. नन्दी सूत्रचूर्ण, अनुयोगद्वारचूर्णि और निशीथसूत्र चूर्णिके प्रणेता श्री जिनदासगणि महत्तर हैं जो इन चूर्णियों के अन्तिम उल्लेख से निर्विवाद रूपसे ज्ञात होता है । निशीथचूर्णिके प्रारम्भमें आपने अपने विद्यागुरुका शुभ नाम श्री प्रद्युम्न क्षमाश्रमण बतलाया है। संभव है कि आपके दीक्षागुरु भी ये हो हों। इन चूर्णियों की रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके बादकी है। इसका कारण यह है किनन्दी चूर्णि में चूर्णिकारने केवलज्ञान- केवलदर्शन विषयक युगपदुपयोग- एकोपयोग-क्रमोपयोगकी चर्चा की है एवं स्थान स्थान पर जिनभद्रगणिके विशेषावश्यक भाष्यकी गाथाओं का उल्लेख भी किया है । अनुयोगद्वार चूर्णिमें तो आपने श्री जिनभद्रगणिकी शरीरपदचूर्णिको साधन्त उद्धृत कर दी है | अतः ये तीनों रचनायें श्री जिनभद्रगणिके बादकी ही निर्विवाद सिद्ध हैं । ३. दशवैकालिक चूर्णिके कर्त्ता श्री अगस्यसिंहगणी हैं। ये आचार्य कौटिकगणान्तर्गत श्री वज्रस्वामीकी शाखामें हुए श्री ऋषिगुप्त क्षमाश्रमणके शिष्य हैं। इन दोनों गुरु-शिष्यों के नाम शास्त्रान्तरवत्तिं होनेके कारण पट्टावलियों में पाये नहीं जाते हैं । कल्पसूत्रको पट्टावलीमें जो श्री ऋषिगुप्तका नाम है स्थविर आर्यहस्ति शिष्य होनेके कारण एवं खुद वज्रस्वामी से भी पूर्ववर्ती होनेसे श्री अगस्त्य - सिंहगणिके गुरु ऋषिगुप्तसे भिन्न हैं । कल्पसूत्रकी स्थविरावलीका उल्लेख इस प्रकार है ----- थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिद्धसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हो । जहा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નન્દી સૂત્રક પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [७४ थेरे य अजरोहण १जसभद्दे २ मेहगणी ३ य कामिड्ढी ४ । सुद्रिय ५ सुप्पडिबुद्धे ६ रक्खिय ७ तह रोहगुत्ते ८ य ॥१॥ इसिगुत्ते ९ सिरिगुत्ते १० गणी य बंभे ११ गणी य तह सोमे १२।.. दस दा य गणहरा खलु एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥ स्थविर आर्यसुहस्ति श्री वज्रस्वामीसे पूर्ववर्ती होनेसे ये ऋषिगुप्त स्थविर दशकालिकचूर्णिप्रणेता श्री अगस्त्यसिंहके गुरु श्री ऋषिगुप्त क्षमाश्रमणसे भिन्न हैं, यह स्पष्ट है । आवश्यकचूर्णि, जिसके प्रणेताके नामका कोई पता नहीं है, उसमें तपसंयमके वर्णनप्रसंगमें आवश्यकचूर्णिकारने इस प्रकार दशवैकालिकचूर्णिका उल्लेख किया है तवो दुविहो- वज्झो अब्भतरो य । जधा दसवेतालिय चुण्णीए चाउलोदणंतं (? चालणेदाणतं) अलुद्रेणं णिज्जर₹ साधूसु पडिवायणीयं ८ । [ आवश्यक्त्वचूर्णि विभाग २ पत्र ११७ ] आवश्यकचूर्णिके इस उद्धरणमें दशवैकालिकचूर्णिका नाम नज़र आता है। दशवैकालिकसूत्रके ऊपर दो चूर्णियाँ आज प्राप्त हैं - एक स्थविर अगस्त्यसिंहप्रणीत और दूसरी जो आगमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरि महाराजने रतलामकी श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजो जैन श्वेतांबर संस्थाकी ओरसे सम्पादित की है, जिसके कर्ताके नामका पता नहीं मिला है और जिसके अनेक उद्धरण याकिनीमहत्तरापुत्र आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने अपनी दशवैकालिकसूत्रकी शिष्यहितावृत्तिमें स्थान स्थान पर वृद्धविवरणके नामसे दिये हैं। इन दो चूर्णियोंमेंसे आवश्यकचूर्णिकारको कौनसी चूर्णि अभिप्रेत है, यह एक कठिन-सी समस्या है। फिर भी आवश्यकचूर्णिके ऊपर उल्लिखित उद्धरणको गौरसे देखनेसे हम निर्णयके समीप पहुँच सकते हैं । इस उद्धरणमें "चाउलोदणतं" यह पाठ गलत हो गया है। वास्तवमें " चाउलोदणंत" के स्थानमें मूलपाठ " चालणेदाणतं" ऐसा होगा । परन्तु मूलस्थानको बिना देखे ऐसे पाठोंके मूल आशयका पता न चलने पर केवल शाब्दिक शुद्धि करके संख्याबन्ध पाठोंको विद्वानोंके गलत बनानेके संख्याबन्ध उदाहरण मेरे सामने हैं । दशवैकालिकसूत्रको प्राप्त दोनों चूर्णियोंको मैंने बराबर देखी हैं, किन्तु “चाउलोदणंतं" का कोई उल्लेख उनमें नहीं पाया है और इसका कोई सार्थक सम्बन्ध भी नहीं है । दशवैकालिकसूत्रको अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तपके निरूपणकी समाप्तिके बाद “चालणेदाणिं" [पत्र १९] ऐसा चूर्णिकारने लिखा है, जिसको आवश्यकचूर्णिकारने "चालणेदाणंतं" वाक्य द्वारा सूचित किया है । इस पाठको बादके विद्वानोंने मूल स्थानस्थित पाठको विना देखे गलत शाब्दिक सुधारा कर बिगाड दिया ऐसा निश्चितरूपसे प्रतीत होता है । अतः मैं इस निर्णय पर आया हूँ कि-- आवश्यकचूर्णिकारनिर्दिष्ट दशवैकालिकचूर्णि अगस्त्यसिहीया चूर्णि ही है। और इसी कारण अगस्त्यसिंहीया चूर्णि आवश्यकचूर्णिके पूर्वकी रचना है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનાંજલિ आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने अपनी शिष्यहितावृत्तिमें इस चूर्णिका खास तौर से निर्देश नहीं किया है। सिर्फ़ रइवक्का सं० रतिवाक्या नामक दशवैकालिकसूत्रकी प्रथम चूलिकाकी व्याख्या में [पत्र २७३ - २] " अन्ये तु व्याचक्षते " ऐसा निर्देश करके अगस्त्य सिंहीया चूर्णिका मतान्तर दिया है । इसके सिवा कहीं पर भी इस चूर्णिके नामका उल्लेख नहीं किया है । ८०] इस अगस्त्य सिंह या चूर्णिमें तत्कालवर्त्ती संख्याबन्ध वाचनान्तर - पाठभेद, अर्थभेद एवं सूत्रपाठोकी कमी - बेशीके काफ़ी निर्देश हैं, जो अतिमहत्त्वके हैं । यहाँ पर ध्यान देने जैसी एक बात यह है कि दोनों चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णीमें दशवैकालिकसूत्रकी एक प्राचीन चूर्णी या वृत्तिका समान रूपसे उल्लेख रइवकाचूलिकाको चूर्णीमें किया हैं, जो इस प्रकार है 66 एत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेत्तगाधाओ । नहा दुक्खं च दुस्समाए जीविउं जे १ लहुसगा पुणो कामा २ । सातिबहुला मणुस्सा ३ अचिरद्वाणं चिमं दुक्खं ४ ॥ १॥ ओमजणम्मिय खिसा ५ बंतं च पुणो निसेवियं भवति ६ । अहरोवसंपया विय ७ दुलभो धम्मो गिहे गिहिणो ८ ॥ २ ॥ निवयंति परिकिलेसा ९ बंधो १९ सावज्जजोग गिहिवासो १३ । एते तिणि वि दोसा न होति अणगारवासम्मि १०-१२-१४॥ ३॥ साधारणाय भोगा १५ पत्तेयं पुण्ण - पावफलमेव १६ । जीयमवि माणवाणं कुसग्गजलचंचलमणिचं १७ ॥ ४ ॥ थिय अवेदयित्ता मोक्खो कम्मस्स निष्छओ एसो १८ । पदमद्वारसमेतं वीरवयणसासणे भणितं ॥ ५ ॥ " अगस्त्य सिंहिया चूर्णी दूसरी मुद्रित चूर्णीमें [ पत्र ३५८ ] “ एत्थ इमाओ वृत्तिगाधाओ । उक्तं च " ऐसा लिखकर ऊपर दी हुई गाथायें उद्धृत कर दी हैं । इन उल्लेखोंसे यह निर्विवाद है कि - दशवैकालिकसूत्र के ऊपर इन दो चूर्णियोंसे पूर्ववर्ती एक प्राचीन चूर्णी भी थी, जिसका दोनों चूर्णिकारोंने वृत्ति नामसे उल्लेख किया है । चूर्णीको 'वृत्ति' कहनेका प्रघात प्राचीन है । इसमें यह भी कहा जा सकता है कि- आगमों के ऊपर पद्य और गद्य में व्याख्याप्रन्थ लिखने की प्रणालि अधिक पुराणी है । और इससे हिमवंतस्थविरावली में उल्लिखित निन • उल्लेख सत्य के समीप पहुँचता है Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નન્દીકે પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [८१ ___ "तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽर्यस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वधरस्थविगेत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम् । एकादशाङ्गोपरि चाऽऽर्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विवरणानि रचितानि । यदुक्तं तद्रचिताऽऽचाराङ्गविवरणान्ते यथा थेरस्स महुमित्तस्स सेहेहिं तिपुव्वनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविवंदिएहिं ववगयरायाइदोसेहिं ॥१॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गंधह स्थिविबुहेहिं । विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥२॥ आचारागसूत्रके इस गंधहस्तिविवरणका उल्लेख आचार्य श्री शीलाङ्कने अपनी आचाराङ्गवृत्तिके उपोद्घातमें भी किया है। कुछ भी हो; जैन आगमोंके ऊपर व्याख्या लिखनेकी प्रणाली अधिक प्राचीन है। ४. उत्तराध्ययनसूत्रचूर्णिके प्रणेता कौटिकगणीय, वज्रशाखीय एवं वाणिजकुलीय स्थविर गोपालिक महत्तरके शिष्य थे । इस चूर्णिकारने चूर्णिमें अपने नामका निर्देश नहीं किया है। इनके निश्चित समयका पता लगाना मुश्किल है । तथापि इस चूर्णिमें विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञ टीकाका सन्दर्भ उल्लिखित होनेके कारण इसकी रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके स्वर्गवासके बादकी है। विशेषावश्यक भाष्यको स्वोपज्ञ टीका श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणको अन्तिम रचना है। छठे गणधरवाद तक इस टीकाका निर्माण होने पर आपका देहान्त हो जानेके कारण बादके समग्र ग्रंथकी टीकाको श्रीकोट्टार्यवादी गणी महत्तरने पूर्ण की है। ५. जीतकल्पबृहचूर्णिके प्रणेता श्रीसिद्धसेनगणी हैं । इस चूर्णांके अन्तमें आपने सिर्फ अपने नामके अतिरिक्त और कोई उल्लेख नहीं किया है। श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत ग्रन्थके ऊपर यह चूर्णी होनेके कारण इसकी रचना श्रीजिनभद्रगणिके बादकी स्वयंसिद्ध है। इस चूर्णीको टिप्पनककार श्रीश्रीचन्द्रसूरिने बृहचूर्णीनामसे दर्शाई हैनत्वा श्रीमन्महावीर परोपकृतिहेतवे । जीतकल्पबृहचूर्णाख्या काचित्प्रकाश्यते ॥१॥ उपरिनिर्दिष्ट सात चूर्णीयोंके अतिरिक्त तेरह चूर्णीयों के रचयिताके नामका पता नहीं मिलता है। तथापि इन चूर्णीयोंके अवलोकनसे जो हकीकत ध्यानमें आई है इसका यहाँ उल्लेख कर देता हूँ । यद्यपि आचाराङ्गचूर्णी और सूत्रकृताङ्गचूीके रचयिताओंके नामका पता नहीं मिला है तो भी भाचाराङ्गचूर्णीमें चूर्णीकारने पंद्रह स्थान पर नागार्जुनीय वाचनाका उल्लेख किया है, उनमेंसे सात स्थान पर "भदंतनागज्जुणिया" इस प्रकार बहुमानदर्शक 'भदन्त' शब्दका प्रयोग किया है, इससे अनुमान होता है कि ये चूर्णीकार नागार्जुनसन्तानीय कोई स्थविर होने चाहिए। सूत्रकृताङ्गचूर्णीमें जहाँ जहाँ नागार्जुनीय वाचनाका उल्लेख चूर्णीकारने किया है वहाँ सामान्यतया Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] જ્ઞાનાંજલિ नागज्जुणिया इतना ही लिखा है। अतः ये दोनों चूर्णीकार अलग अलग ज्ञात होते हैं। सूत्रकृताङ्गचूर्णीमें जिनभद्रगणीके विशेषावश्यकभाष्यकी गाथाओं एवं स्वोपज्ञ टीकाके सन्दर्भ अनेक स्थान पर उद्धृत किये गये हैं, इससे इस चूर्णीकी रचना श्रीजिनभद्रगणिके बादकी है। परन्तु आचाराङ्गचूर्नामें जिनभद्रगणिके कोई ग्रन्थका उल्लेख नहीं है, इस कारण इस चूर्णी की रचना श्रीजिनभद्रगणिके पूर्वकी होनेका सम्भव अधिक है । भगवतीसूत्रचूर्णीमें श्रीजिनभद्रगणीके विशेषणवतीग्रन्थकी गाथाओंके उद्धरण होनेसे, और कल्पचूर्णीमें साक्षात् विसेसावस्सगभासका नाम उल्लिखित होनेसे इन दोनों चूर्णीयों की रचना निश्चित रूपसे श्रीजिनभद्रगणिके बादकी है । दशासूत्रचूर्णीमें केवलज्ञान-केवलदर्शनविषयक युगपदुपयोगादिवादका निर्देश होनेसे यह चूर्णी भी श्रीजिनभद्रगणीके बादकी है । आवश्यकचूीके प्रणेताका नाम चूर्णीकी कोई प्रतिमें प्राप्त नहीं है । श्रीसागरानन्दसूरि महाराजने अपने सम्पादनमें इसको जिनदासगणिमहत्तरकृत बतलाई है। प्रतीत होता है कि - आपका यह निर्देश श्रीधर्मसागरोपाध्यायकृत तपागच्छीय पट्टावलीके उल्लेखको देख कर है, किन्तु वास्तवमें यह सत्य नहीं है। अगर इसके प्रणेता जिनदासगणि होते तो आप इस प्रासादभूत महती चूर्णीमें जिनभद्रगणीके नामका या विशेषावश्यकभाष्यकी गाथाओंका जरूर उल्लेख करते । मुझे तो यही प्रतीत होता है कि इस चूर्णीकी रचना जिनभद्रगणिके पूर्वकी और नन्दीसूत्ररचनाके बादकी है । दशवैकालिकचूर्णी (वृद्धविवरण) में और व्यवहारचूर्णीमें श्रीजिनभद्रगणि की कोई कृतिका उद्धरण नहीं है, अतः ये चूणीयाँ भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके पूर्वकी होनी चाहीए। जम्बूद्वीपकरणचूर्णी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकी चूर्णी मानी जाती है, किन्तु वास्तवमें यह जम्बूद्वीपके परिधि-जीवा-धनुःपृष्ठ आदि आठ प्रकारके गणितको स्पष्ट करनेवाले किसी प्रकरणकी चूर्णी है। वर्तमान इस चूर्णीमें मूल प्रकरणकी गाथाओं के प्रतीक मात्र चूर्णीकारने दिये हैं, अतः कुछ गाथाओंका पता जिनभद्रीय बृहत्क्षेत्रसमासप्रकरणसे लगा है, किन्तु कितनीक गाथाओंका पता नहीं चला है ? इस चूर्णीमें जिनभद्रीय बृहरक्षेत्रसमासकी गाथायें भी उद्धृत नज़र आती हैं, अतः यह चूर्णी उनके बादकी है। यहां पर चूर्णीयोंके विविध उल्लेखोंको लक्ष्यमें रख कर चूर्णीकारों के विषयमें जो कुछ निवेदन करनेका था, वह करनेके बाद अंतमें यह लिखना प्राप्त है कि-प्रकाश्यमान इस नन्दीसूत्रचूगीके १. “ श्रीवीरात् १०५५ वि. ५८५ वर्षे याकिनीसूनुः श्रीहरिभद्रसूरिः स्वर्गभाक् । निशीथ-बृहस्कल्पभाध्याऽऽवश्यकादिचूर्णिकाराः श्रोजिनदासमहत्तरादयः पूर्वगतश्रुतधरश्रीप्रद्युम्नक्षमणादिशिष्यत्वेन श्रीहरिभद्रप्रितः प्राचीना एव यथाकालभाविनो बोध्याः । १११५ श्रीजिनभद्रगणियुगप्रधानः । अयं च जिनभद्रीयध्यानशतककाराद्भिनः सम्भाव्यते । " इण्डियन एण्टीक्वेरी पु. ११. पृ. २५३ ॥ [सिरिदेववायगविरइयं “ नंदीसुतं" मेंसे उद्धृत. ] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નન્દી સૂત્રક પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [83 प्रणेता श्रीजिनदासगणिमहत्तर हैं, जिसका रचनासमय स्पष्टतया प्राप्त नहीं है, फिर भी आज नन्दीसूत्रचूर्णीकी जो प्रतियाँ प्राप्त हैं, उनके अंतमें संवत्का उल्लेख नज़र आता है, जो चूर्णीरचनाका संवत् होनेकी संभावना अधिक है / यह उल्लेख इस प्रकार है शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति / अर्थात् शाके 598 (वि. सं. 733) वर्षमें नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्त हुई / इस उल्लेखको कितनेक विद्वान् प्रतिका लेखसमय मानते हैं, किन्तु यह उल्लेख नन्द्यध्ययनचूर्गीकी समाप्तिका अर्थात् रचनासमामिका ही निर्देश करता है, लेखनकालका नहीं। अगर प्रतिका लेखनकाल होता तो ' समाप्ता' ऐसा न लिखकर ‘लिखिता' ऐसा ही लिखा होता / इस प्रकार गद्यसन्दर्भमें रचनासंवत् लिखनेकी प्रथा प्राचीन युगमें थी ही, जिसका उदाहरण आचार्य श्रीशीलाङ्ककी आचारागवृत्तिमें प्राप्त है। सूत्र और चूर्णिकी भाषा __नन्दीसूत्र और उसकी चूर्णीकी भाषाका स्वरूप क्या है ? इस विषयमें अभी यहाँ पर अधिक कुछ मैं नहीं लिखता हूँ। सामान्यतया व्यापकरूपसे मुझे इस विषयमें जो कुछ कहना था, मैंने अखिलभारतीय प्राच्यविद्यापरिषत्-श्रीनगरके लिये तैयार किये हुए मेरे " जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय" नामक निबन्धमें कह दिया है, जो 'श्रीहजारीमल स्मृतिग्रन्थ' में प्रसिद्ध किया गया है, उसको देखने की विद्वानोको सूचना है। [र्णिसहित 'नन्दीस्त्र', प्रस्तावनासे, वाराणसी, 1966 ]