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જ્ઞાનાંજલિ
आचाराङ्गादि प्राथमिक अंगआगम शीर्णविशीर्ण हो चूके थे, इस दशामें पूर्वश्रुतके अखंड रहने की संभावना हो कैसे हो सकती है ? ।
स्थविर श्री देववाचककी नन्दीसूत्रके सिवा दूसरी कोई कृति उपलब्ध नहीं है ।
चूर्णिकार
नन्दी सूत्रचूर्णिके प्रणेता आचार्य श्री जिनदासगणि महत्तर हैं । सामान्यतया आज यह मान्यता प्रचलित है कि जैन आगमोंके भाष्यों के प्रणेता श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और चूर्णियोंके रचयिता श्री जिनदासगणि महत्तर ही हैं, और ऐसे प्राचीन उल्लेख पट्टावली आदिमें पाये भी जाते हैं; किन्तु भाग्य - चूर्णियों के अवगाहनके बाद ये दोनों मान्यताएँ गलत प्रतीत हुई हैं । यहाँ पर भाष्यकारों का विचार अप्रस्तुत है, अतः सिर्फ यहाँ पर जैन आगमोंके ऊपर जो प्राचीन चूर्णियाँ उपलब्ध हैं उन्हीं के विषय में विचार किया जाता है । आज जैन आगमोंके ऊपर जो चूर्णिनामक प्राकृतभाषाप्रधान व्याख्याग्रन्थ प्राप्त हैं उनके नाम क्रमशः ये हैं
१ आचाराङ्गचूर्णि, २ सूत्रकृताङ्गचूर्णि ३ भगवतीचूर्णि, ४ जीवाभिगमचूर्णि ५ प्रज्ञापनासूत्र - शरीरपदचूर्णि, ६ जम्बूद्वीपकरणचूर्णि ७ दशाकल्प चूर्णि, ८ कल्पचूर्णि, ९ कल्पविशेषचूर्णि, १० व्यवहारसूत्रचूर्णि, ११ निशीथसूत्र विशेषचूर्णि, १२ पञ्चकल्पचूर्णि, १३ जीतकल्पबृहचूर्णि १४ आवश्यकचूर्णि, १५ दशकालिक चूर्णि श्रीअगस्त्य सिंहकृता, १६ दशकालिकचूर्णि वृद्धविवरणाख्या, १७ उत्तराध्ययनचूर्णि, १८ नन्दी सूत्रचूर्णि, १९ अनुयोगद्वार चूर्णि, २० पाक्षिकचूर्णि ।
ऊपर जिन बीस चूर्णियों के नाम दिये हैं उनके और इनके प्रणेताओंके विषय में विचार करनेके पूर्व एतद्विषयक चूर्णिग्रन्थोंके प्राप्त उल्लेखों को मैं एक साथ यहाँ उद्धृत कर देता हूँ जो भविष्य में विद्वानोंके लिये कायमकी विचारसामग्री बनी रहें ।
(१) आचाराङ्गचूर्णि । अन्तः
से निरालंबणमप्पतितो । शेषं तदेव ॥ इति आचारचूर्णि परिसमाप्ता ॥ नमो सुयदेवयाए भगवईए || ग्रन्थाग्रम् ८३०० ॥
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(२) सूत्रकृताङ्गचूर्णि । अन्तः
हामि न सूत्रेति तव्वं सव्वमिति ॥ नमः सर्वविदे वीराय विगतमोहाय ॥ समाप्तं चेदं सूत्रकृताभिधं द्वितीयमङ्गमिति । भद्रं भवतु श्रीजिनशासनाय । सुगडांगचूर्णिः समाप्ता ॥ ग्रन्थायम् ९५०० ॥
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(३) भगवतीचूर्णि -
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श्रीभगवतीचूर्णिः परिसमाप्तेति ॥ इति भद्रं ॥
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