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मरमी सन्त आनन्दघन अने तेमने परम्परा प्राप्त जैन चिन्तनधारा
नगीन जी. शाह
विक्रमनी १७मी सदीना उत्तरार्धमां विद्यमान कवि, मर्मी, अवधू आनन्दघनजीओ रचेलां प्रथम २२ जिननां स्तवनो प्रसिद्ध छे. श्री मो. द. देसाई खोळी पोते प्रसिद्ध करेलां २३मा अने २४मा जिननां स्तवनो आनन्दघनजीना होवानी अने अमुक कारणे गोप्य रखायां होवानी सम्भावना ते स्वीकारे छे. आ बधां स्तवनोनी पाठशुद्धिनी समस्या पण खास नथी. परंतु पदोनी बाबतमां आवुं नथी. आनन्दघनजीओ हिन्दीमां बहोतेर पदो रच्यां छे अने ते ‘आनन्दघन बहोत्तरी' तरीके प्रसिद्ध छे. ७२ उपरांत बीजां तेमना नामे चडावायां छे अने तेमनां पदो तरीके १०७ पदो छपायां छे. तेमांथी तेमनां पदो कयां नथी तेनो निश्चय करी तेमने बाद करी तेमनां ज पदोने जुदा तारवीओ नहि अने ते बधां ज १०७ पदोने आधारे आनन्दघनजीनो आ विचार हतो अने आ भावना हती ओम कहीओ तो आनन्दघनजीने बहु अन्याय थाय. अने आवुं अत्यार सुधी थतुं आव्युं छे. पदोनी पाठशुद्धि पण अनेक स्थाने विचारणा मागे छे. लहियाओओ - खास करी गुजराती - हिन्दी न समजावाथी पोतानी भाषासमज प्रमाणे फेरफार करी नांख्या छे. तेथी, आनन्दघनजीना पदोन समीक्षित शुद्ध आवृत्तिनी खास जरूर छे. आ कार्यमां श्री मो.द. देसाईनो लेख 'अध्यात्मी श्री आनन्दघन अने यशोविजय' अत्यन्त उपयोगी सिद्ध थशे. आ लेख वांच्यो त्यारे ज जाण्युं के आनन्दघनजीनुं मनातुं अत्यन्त प्रसिद्ध पद 'अब हम अमर भये न मरेंगे' तो आग्रावासी कवि द्यानतराय (जन्म सं. १७३३)नुं छे.
आनन्दघनजी मरमी सन्त छे, तत्त्वचिन्तक नथी. तेथी तेमनुं कथन अन्तर्दृष्टि, आन्तर प्रतिभा, अन्त: प्रज्ञा, intuition मांथी स्फुरेलुं छे, ते बुद्धिना पृथक्करण, विश्लेषणमांथी उपजेलुं नथी. ते आत्मानुभव उपर भार दे छे, बुद्धिचिन्तन उपर नहि. ते तर्कविचार अने वादनी तरफेण करता नथी. 'तर्कविचारे रे वादपरम्परा रे, पार न पहुंचे कोय.' ओटले ते 'घट अन्तर' परखवा, 'अन्तर
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ज्योति’ जगववा, ‘निर्विकल्प रस' पीवा, 'सहज सुभाव थिरता' धरवा, ‘अजपा की अनहद धुनि' सुणवा, 'रम महारस' चाखवा, 'अगम पियाला' पीवा, 'नीज परचे सुख' पामवा अने 'चित्तसमाध' माटे मथवा आपणने प्रेरे छे.
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आनन्दघनजीनी अन्तर्दृष्टि खुली गई छे. तेमने सकळ कोठे अजवाळां छे. ते स्वयं सहज सुज्योति सरूप छे. ते बिना ज्योति उजियारा छे. ते स्वयंप्रकाश छे. तेने बीजी ज्योतिनी आवश्यकता नथी. बुद्धिना प्रकाशनी तेने जरूर नथी. बुद्धिनो प्रकाश भेदक छे, भेद प्रगट करे छे, अने भेद भय, शोक अने मोहनो जनक छे. "द्वितीयाद् वै भयं भवति । तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ।” जे भेदने देखे छे ते मृत्युनी परम्पराथी मुक्त थतो नथी. “मृत्योः मृत्युमाप्नोति य इह नानात्वमनुपश्यति ।" जे आत्मप्रकाश छे, अन्तःप्रज्ञा छे, अन्तर्ज्योति छे ते अभेदने प्रगट करे छे, अभेदने नीरखे छे. अभेद भय, शोक अने मोहनो नाशक छे. आ अभेदनो साक्षात्कार आनन्दघनजीना आ शब्दोमां व्यक्त थाय छे : "राम कहो रहमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री. पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री. भाजनभेद कहावत नाना, अक मृत्तिका रूप री. तैंसें खण्डकल्पना रोपित, आप अखण्ड स्वरूप री." अहीं पण उपनिषदना शब्दो याद आवे छे "वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिका इत्येव सत्यम् ।" अभेदसाक्षात्कार शुद्ध प्रेमनो जनक छे.
मांथी निरुपाधिक प्रेम ज प्रगटे छे. प्रीतसगाई रे... विकसति... द्रवति.... व्यतिषजति... जे आतम अनुभव रसनो रसियो छे, ते प्रेम कटोरी पीयूष पीओ छे, तेने प्रेमनुं तीर अचूक लागे छे. आतम अनुभवथी प्रगट अभेदमांथी प्रसूत प्रेम ज्यां होय त्यां दुविधा होय नहि. 'प्रेम जहां दुविधा नहीं रे. '
आनन्दघनजी जातपांतभेद, सम्प्रदायभेद, स्त्रीपुरुषभेदनो प्रबळ विरोध करे छे. गच्छभेद से तो उपलक्षण छे. तेनाथी सम्प्रदायभेद, पन्थभेद पण समजवाना छे. 'नहीं हम पुरुषा नहीं हम नारी' ओम कही आनन्दघनजी समजावे छे के आत्मा स्त्री-पुरुषभेदथी पर छे अने जेने आतम अनुभव छे ते पण आ भेदथी पर छे, ते आ भेदने स्वीकारतो नथी. अहीं नानपणमां सांभळेली वात याद आवे छे. मीराबाई वृन्दावन गया. त्यां प्रसिद्ध गोस्वामीने मळवानी ईच्छा थई, मऴवानी रजा मागी. गोस्वामीओ कहेवडाव्युं के पोते कोई स्त्रीने
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मळता नथी. मीराबाइओ वळतुं कहेवडाव्युं के हुं तो समजती हती के समग्र ब्रह्माण्डमां अक ज पुरुष छे, बाकी बधी गोपीओ छे, आ बीजो पुरुष कोण छे से मने समजावशो. मीराबाईना शब्दोथी गोस्वामीनुं पुरुषाभिमान गळी गयुं अने मीराने वन्दन करवा सामे गया. सर्व मरमी सन्तो भेदोना, ऊंचनीचना प्रखर विरोधी रह्या छे.
आनन्दघन निजानन्दी, ब्रह्मविहारी, आतमरस पीनार मरमी छे. ओटले तेमनुं जीवन सहज छे, मुक्त छे, मस्त छे. ते रूढिबन्धनोने गांठता नथी, तेमने तोडी मुक्त बने छे. तेमने लोकलाजनी परवा नथी. 'लोकलाज सूं नहि काज. ' ते अनादि अनन्तमां खेले छे, ते बेहदना मेदानमां रमे छे.
आनन्दघनजी चिन्तक न होवा छतां जे जैन चिन्तनधारामां ते थया छे ते चिन्तनधाराना ख्यालोने, विचाराने ते प्रस्तुत करे छे. आ विचारो तेमनां जिनस्तवनोमां विशेषे अभिव्यक्ति पामे ओ पण स्वाभाविक छे. मरमीना अभेददर्शननो, निरुपाधिक सात्त्विक प्रेमनो, वैचारिक अहिंसानो पोषक अनेकान्तवाद तेमने सौथी वधु आकर्षे छे. सर्व दृष्टिओ, दर्शनो, विचारधाराओनो समन्वय अनेकान्त छे. तेथी, कोई पण विचारधारानो अनादर जैनने मान्य न होय चार्वाक के कार्ल मार्क्सनी भौतिकवादी विचारधारानो पण नहि. ओटले ज तो आनन्दघनजी कहे छे
" षड्दरिशन जिनअंग भणी जे, न्याय षडंग जो साधे रे । नमिजिनवरना चरणउपासक, षड्दरिशन आराधे रे ॥१॥
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लोकायतिक कूख जिनवरनी....
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अहीं षड्दर्शन अ तो उपलक्षण छे, तेथी उपलब्ध सघळां दर्शनो समजवानां छे. अनेकान्तवादनुं के आनन्दघनजीना कथननुं रहस्य ऊंडुं छे. ते आ छे : जैनदर्शन स्वयं अक दृष्टि नथी पण बधी दृष्टिओनो समन्वय छे. अने दृष्टिओ (नयो) अनन्त छे, तेनो कदी अन्त थवानो नथी, कालक्रमे दृष्टिओ वधती अने विस्तरती ज रहेवानी छे. आमांथी अ फलित थाय छे के जैनदर्शन closed system नथी, बन्ध थई गयेली सिस्टम नथी, पूर्ण थई गयेली System नथी, पण सदा विकसती ज रहेवानी छे, कदी पण Closed
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बनवानी नथी, सदा Open ज रहेवानी छे, कदी पूर्ण बनवानी नथी. आ महत्त्वनी वात छे. आ रहस्यनो स्वीकार तेने सदा चेतनवन्ती, जीवन्त राखशे, सदा वधु ने वधु समृद्ध थती राखशे, अन्यथा तेनी पूर्णतानो स्वीकार ओ ज तेनो विनाश- अन्त बनी रहेशे. समन्वय विचारधाराओनो करवानो छे अने ओटले ज बधी भारतीय अने अभारतीय - विचारधाराओनो अभ्यास जरूरी छे. अन्यथा समन्वय शेनो करीशुं ? फ्रोईड, युंग, हेगल, कान्ट, शोपनहोर, अरविन्द, रवीन्द्रनाथ, शंकराचार्य, बुद्ध, धर्मकीर्ति, वगेरेने वांचवा-समजवा पडशे. सीमामां बद्ध रहेवू नहि पालवे, मनने मुक्त करवू पडशे. आचारनी बाबतमां जैनाचार्योओ वारंवार भारपूर्वक कर्तुं छे के आ करवू ज अने आ न ज करवू ओवी एकान्त आज्ञा भगवाननी नथी परंतु पुरुष, देश, काळ, वगेरेने लक्षमां लई विवेकबुद्धि जे नक्की करे ते करवू. तेवी ज रीते, जैनाचार्यो) अनेकान्तवादने अनुसरी कहेवू जोइओ के तत्त्व आq ज छे अने आq नथी ज अम भगवाननुं कहेवू नथी परंतु ते ते देश-काळे उपलब्ध बधी ज दृष्टिओने ध्यानमां लइ समन्वयकारी विवेकबुद्धि जे नक्की करे तेवू तत्त्व ते ते देश काळे समजq । स्वीकार.
प्रथम स्तवनमां सर्वदर्शनमान्य कर्मसिद्धान्तने आधारे सतीप्रथा- खण्डन छे. ते ज स्तवनमां जगतनिर्माणने ईश्वरनी लीला माननारना मतनो प्रतिषेध छे. लीला, क्रीडा तो आनन्दप्राप्ति माटे होय, पूर्णानन्द लीला करे नहि. छठ्ठा स्तवनमां जैन कर्मसिद्धान्तनी सारभूत बाबतो जैन परिभाषामां निरूपी छे. बारमा स्तवनमां जैन मते आत्मस्वरूपवर्णन छे. वीसमा स्तवनमां आत्मा विशेना विविध दार्शनिक मतो- जैन दृष्टिले निरसन छे. आठमा स्तवनमां सूक्ष्म निगोदथी संज्ञी पंचेन्द्रिय सुधीना जीववर्गोनी गणना छे. आ उपरांत, प्रसंगे प्रसंगे नयवाद, द्रव्यगुणपर्यायवाद, सप्तभंगी, निश्चय-व्यवहार आदिना उल्लेखो तेमनां स्तवनो अने पदोमां मळे छे. अहीं ओ वस्तु ध्यानमा राखवी जोईओ के स्तवनो अने पदोमां जैन सिद्धान्तोना उल्लेख के निर्देशने अवकाश छे, अथी विशेषने अवकाश नथी.
___ अहीं आपणे बारमा स्तवननी नीचेनी पंक्तिओ उपर विस्तारथी विचार करीशं.
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निराकार साकार सचेतन,
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निराकार अभेद संग्राहक, भेदग्राहक साकारो रे, दर्शन- ज्ञान दुभेद चेतना, वस्तुग्रहण व्यापारो रे ॥२॥"
जैनदर्शनमां 'दर्शन' शब्द बे अर्थमां प्रयोजायो छे - (१) श्रद्धा (२) अक प्रकारनो बोध. नोंधपात्र वात से छे के श्रद्धाना अर्थमां 'दर्शन' शब्दनो प्रयोग उपनिषदो, जैन परम्परा अने बौद्ध परम्परा सिवाय बीजे क्यांय थो नथी. आपणे जे पंक्तिओनो विचार करीओ छीओ त्यां 'दर्शन' शब्द ओक प्रकारना बोधना अर्थमां प्रयोजायो छे. दर्शन पण ओक प्रकारनो बोध छे अने ज्ञान पण एक प्रकारनो बोध छे. आ बे बोध वच्चे शो तफावत छे ? दर्शन अने ज्ञान वच्चे शो भेद छे ? आ समस्या छे. आ अंगे जैन चिन्तकोमां मतभेद छे.
सचेतन निराकार-साकार उभयात्मक छे, चेतना उभयात्मक छे. चेतनाप्रकाश निराकार पण छे अने साकार पण छे. चेतनानो वस्तुग्रहणव्यापार निराकार अने साकार बे प्रकारे होय छे. चेतनाप्रकाशने के चेतनाना वस्तुग्रहणव्यापारने जैन परिभाषामां उपयोग पण कहेवामां आवे छे. ओटले जैन आगमोमां कह्युं छे के उपयोग बे प्रकारनो छे - निराकार उपयोग अने साकार उपयोग. सादी भाषामां कही तो बोध बे प्रकारनो छे - निराकार अने साकार, अने निराकार बोध अटले दर्शन अने साकार बोध ओटले ज्ञान. आ वस्तुने वधारे स्पष्ट करतां कहेवामां आव्युं के निराकार बोध अटले सामान्यग्राही बोध (दर्शन) अने साकार बोध ओटले विशेषग्राही बोध (ज्ञान). "जं सामण्णगहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणम् ।" - सन्मतितर्कप्रकरण (२.११). अर्थात्, अभेदग्राही बोध से दर्शन छे अने भेदग्राही बोध से ज्ञान छे. आ मत स्वीकारतां, प्रथम दर्शन उत्पन्न थाय अने पछी ज ज्ञान उत्पन्न थाय, सामान्यनुं ग्रहण कर्या विना विशेषनुं ग्रहण थाय नहि. "प्राग् अनाकारः पश्चात् साकार इति प्रवृत्तौ क्रमनियम:, यस्तु नाऽपरिमृष्टसामान्यो विशेषाय धावति ।" - तत्त्वार्थभाष्य उपर सिद्धसेनगणिटीका, २.९. आ मतनो स्वीकार आनन्दघनजीनी उपरनी पंक्तिओमां छे. केटलाक जैन चिन्तको आ मत स्वीकारता नथी. ते माटेनो तेमनो
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मुख्य तर्क नीचे मुजब छे. जैनदर्शन अनुसार वस्तु सामान्यविशेषात्मक छे. वस्तुग्राही बोधने ज यथार्थ अथवा प्रमाण कहेवाय. केवळ सामान्यग्राही बोधने के केवळ विशेषग्राही बोधने वस्तुग्राही गणाय नहि अने तेथी यथार्थ के प्रमाण गणाय नहि. आमांथी अ फलित थाय के आ चिन्तको दर्शनने पण सामान्यविशेषग्राही गणे छे अने ज्ञानने पण सामान्यविशेषग्राही गणे छे. तो पछी तेओ दर्शन अने ज्ञान वच्चेना भेदनो खुलासो केवी रीते करशे अने तेमनी क्रमोत्पत्तिने केवी रीते समजावशे ? आ चिन्तकोनुं समाधान आ प्रमाणे छे सामान्यविशेषात्मक आत्मस्वरूपग्रहण दर्शन छे अने सामान्यविशेषात्मक बाह्य वस्तुनुं ग्रहण ज्ञान छे. “सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति । धवला टीका पृ. १४७. कुन्दकुन्दाचार्ये नियमसार गाथा १६०मां “दिट्ठी अप्पपयासा चेव" लखीने दर्शन आत्मप्रकाशक होय ओवो पक्ष रजू कर्यो छे. पण क्रमोत्पत्तिने केवी रीते समजावशो ? आनो विचार करीओ. ‘तदात्मकस्वरूपग्रहण' पदमां आवेला 'स्वरूप' शब्दनो अर्थ आत्मस्वरूप या आत्मा कर्यो छे तेने बदले ज्ञानस्वरूप या ज्ञान करवामां आवे तो आ प्रश्ननो खुलासो थई शके. विषयनुं ग्रहण ए ज्ञान, अने आ ज्ञाननुं ज्ञान से दर्शन. आम, अहीं क्रम ऊलटो थई जाय - पहेलां ज्ञान अने पछी दर्शन. परंतु जैनोना मतमां ज्ञाननुं ज्ञान अ स्वसंवेदन छे. ओटले क्रमपक्षने अवकाश नथी पण युगपत्पक्ष ज स्वीकार्य बने.
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आ बीजा मतमां सामान्यविशेषग्राही दर्शन अने सामान्यविशेषग्राही ज्ञान वच्चेना भेदने तेम ज तेमनी क्रमोत्पत्तिने बीजी रीते पण समजावी शकाय छे परंतु कोई जैन चिन्तके तेनो उपयोग कर्यो नथी. प्रथम मतमां माननारा सामान्यग्राही बोधने माटे निर्विकल्प बोध अने विशेषग्राही बोधने माटे सविकल्प बोध अवा प्रयोगो करे छे. अहीं आपणे नोंधवुं जोईओ के विकल्पनो अर्थ विचार पण छे अने आ अर्थ अनुसार बीजा मतने स्वीकारनारा जैन चिन्तको कही शके के सामान्यय - विशेषनुं निर्विचार ग्रहण दर्शन अने सामान्य- विशेषनुं सविचार ग्रहण ज्ञान. आम दर्शन अने ज्ञान बनेनो विषय तो अकनो अक ज होय छे पण दर्शन विचार द्वारा ते विषयने ग्रहण करतुं नथी ज्यारे ज्ञान विचार द्वारा ते विषयने ग्रहण करे छे. प्रशस्तपाद, जयन्त भट्ट आदि न्याय- - वैशेषिक चिन्तकोओ स्वीकार्युं छे के निर्विकल्प प्रत्यक्ष अने सविकल्प प्रत्यक्ष बनेनो
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विषय अकनो ओक ज होय छे, परंतु निर्विकल्प प्रत्यक्ष द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य वगेरे बधा पदार्थोने अविभक्तरूपे ग्रहण करे छे, ज्यारे सविकल्पक प्रत्यक्ष ते ज पदार्थोने विभक्तरूपे ग्रहण करे छे, अने पहेलां निर्विकल्प प्रत्यक्ष या बोध थाय छे अने पछी सविकल्प प्रत्यक्ष या बोध थाय छे. अहीं बीजी ओक रसप्रद बाबत नोंधवी जोईओ के योगीओनी बाबतमा पहेलां सविकल्पक ध्यानमां (सविचार ध्यानमां) सविकल्पक या सविचार बोध थाय छे अने पछी निर्विकल्पक ध्यानमां (निर्विचार ध्यानमां) निर्विकल्पक या निर्विचार बोध थाय छे. योगीओनी बाबतमां ज्ञान पहेलां अने दर्शन पछी ओवो ऊलटो क्रम होय छे अम कहेवामां कोई बाध नथी.
ज्ञान-दर्शननी समस्याना उकेल माटे जैन चिन्तकोओ अन्य भारतीय दर्शनोमां ज्ञानरूप बोध अने दर्शनरूप बोधनो भेद स्वीकारायो छे के नहि अने जो स्वीकारायो होय तो ते भेदनो आधार शो छे, मेनो विचार को नथी. पोतानी दार्शनिक समस्याओना उकेल माटे बीजा भारतीय दर्शनोनो अभ्यास करवानुं अने तेमांथी सहाय मेळववानुं जैन चिन्तको अने संशोधकोने माटे आवश्यक छे. तुलनात्मक दृष्टिनी जरूर छे. आधुनिक चिन्तकोमा पण्डितश्री सुखलालजी आ बाबतोमां अनुकरणीय दृष्टान्त पूरुं पाडे छे.
सांख्य-योगमां तो ज्ञान-दर्शननो भेद ऊडीने आंखे वळगे अवो छे. चित्त अने पुरुष बे अलग तत्त्वो छे. चित्त ज्ञाता छे अने पुरुष दृष्टा छे, चित्तने ज्ञान छे अने पुरुषने दर्शन छे. चित्त जे ते विषयना आकारे परिणमी ते विषयने जाणे छे. चित्तना विषयाकार परिणामने चित्तवृत्ति कहेवामां आवे छे अने आ चित्तवृत्ति ज ज्ञान छे. घटाकार चित्तवृत्ति ज घटज्ञान छे. चित्तवृत्तिनुं प्रतिबिम्ब पुरुषमां पडे छे. चित्तवृत्तिनुं प्रतिबिम्ब झीलवू ओ पुरुष द्वारा चित्तवृत्तिनुं दर्शन छे. घटाकार चित्तवृत्तिनुं प्रतिबिम्ब पुरुषमां पडवू ओ ज घटाकार चित्तवृत्तिनुं पुरुष द्वारा दर्शन छे. चित्तवृत्ति जेवी उत्पन्न थाय छे तेवू ज ते चित्तवृत्तिनुं प्रतिबिम्ब पुरुषमां पडे छे. चित्तवृत्ति ओक क्षण पण पुरुषथी अदृष्ट रहेती नथी, सदा दृष्ट ज रहे छे. "सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य.... ।" - योगसूत्र ४.१८. चित्तवृत्ति विना चित्तवृत्तिनुं दर्शन संभवतुं नथी, ज्ञान उत्पन्न थया विना दर्शन उत्पन्न थतुं नथी, आ अर्थमां तार्किक क्रम ज्ञान अने दर्शन वच्चे छे
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परंतु कालक्रम बंने वच्चे नथी. ज्ञान अने दर्शननी उत्पत्ति युगपत् छे. घटज्ञान अने घटदर्शननी उत्पत्ति युगपत् छे. जो बधी पारिभाषिकताने बाजुओ राखीओ तो सांख्य-योग मतमांथी ओवो निष्कर्ष नीकळे छे के घटनुं ज्ञान से ज्ञान अने घटज्ञाननुं ज्ञान से दर्शन. आम सांख्य-योगमांथी नीकळतो आ निष्कर्ष जैन चिन्तकोना ओक वर्गना अ मतनी अत्यन्त निकट छे के बाह्यार्थनुं ज्ञान अ ज्ञान अने स्वरूपनुं (आत्मस्वरूपनं) ज्ञान से दर्शन. जो स्वरूपनो अर्थ (ज्ञानस्वरूप के ज्ञान) करवामां आवे तो सांख्य-योगमांथी नीकळता आ निष्कर्ष साथै अ मतनो अभेद ज थई जाय.
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सांख्य-योग मत अने जैन मतमां भेद ओटलो ज छे के सांख्य-योगे दर्शन अने ज्ञान गुणने अटला तो भिन्न मान्या के ते ओक ज तत्त्वना आ बे गुणो छे ओम मानी शक्युं नहि, ज्यारे जैनोओ तेमने भिन्न गुणो तो मान्या पण अटला भिन्न नहि के जेथी तेमने ओक ज तत्त्वना गुण मानी न शकाय .
बौद्धधर्मदर्शनमां पण दर्शनरूप बोध अने ज्ञानरूप बोध से भेद स्वीकारायो छे. पिटकोमां समाधिनां फळरूपे ज्ञान- दर्शन जणावायां छे. घोषकप्रणीत अभिधर्मामृत ५.१०मां कह्युं छे : " समाधिं भावयतो ज्ञान- दर्शनलाभ: ।" अर्थात् आ यौगिक कोटिनां ज्ञान- - दर्शन छे. 'जाणता अने देखता' अ बुद्धनुं लाक्षणिक वर्णन छे. चार आर्यसत्योने बुद्धे जाणीने पछी देख्यां छे. 'अरियसच्चानि अवेच्च पस्सति । " - सुत्तनिपात, २२९. अभिधर्मकोशभाष्य ८.२७ मां कह्युं छे के " ज्ञानदर्शनाय समाधिभावना''. यशोमित्रनी स्फुटार्था व्याख्या तेनी समजूती आपतां कहे छे - "ज्ञानदर्शनाय इति । ज्ञानाय दर्शनाय चेति समास: । तत्र ज्ञानं मनोविज्ञानसंप्रयुक्ता प्रज्ञा । विकल्पात् । दर्शनं चक्षुर्विज्ञानसंप्रयुक्ता प्रज्ञा अविकल्पिका । अहीं सन्दर्भ दिव्यचक्षुनो होइ, चक्षुथी दिव्यचक्षु अभिप्रेत छे. निष्कर्ष ओ के समाधिना फळरूपे क्रमथी जे सविकल्पिका प्रज्ञा अने निर्विकल्पिका प्रज्ञा जन्मे छे ते ज यौगिक ज्ञान अने दर्शन छे. अहीं ज्ञाननी उत्पत्ति प्रथम अने दर्शननी उत्पत्ति पछी अ क्रम छे, जे 'अवेच्च पस्सति' अ शब्दोथी सूचित थाय छे. आम सविचार - ध्यानजन्य सविचार बोध (प्रज्ञा) से ज्ञान अने निर्विचार - ध्यानजन्य निर्विचार बोध (प्रज्ञा) से दर्शन अवुं स्पष्ट समजाय छे. यौगिक कोटिनां ज्ञान - दर्शन उपरान्त व्युत्थानदशामां पण
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________________ 60 अनुसन्धान 50 (2) ज्ञान-दर्शन होय छे. अभिधर्मकोशभाष्य १.४३मां कर्तुं छे के चक्षु अर्थात् इन्द्रियो देखे छे अने मन जाणे छे, स्थविरो अनुसार मन- (मनोविज्ञान-) कार्य सन्तीरण (investigating, ईहा, ऊह) अने वोट्टपन (determining निश्चयप्रक्रिया) छे. पांच इन्द्रियविज्ञानो सन्तीरण अने वोट्टपनथी रहित छे. भदन्त घोषक अभिधर्मामृतमां कहे छे के पांच इन्द्रियविज्ञानो विवेक करवा समर्थ नथी ज्यारे मनोविज्ञान विवेक करवा समर्थ छे. "पंच विज्ञानानि न शक्नुवन्ति विवेक्तुम्, मनोविज्ञानं शक्नोति विवेक्तुम् / " 5.10. आ उपरथी ओ तारण नीकळे छे के व्युत्थानदशामां दर्शननो अर्थ छे निर्विकल्पक इन्द्रियप्रत्यक्ष अने ज्ञाननो अर्थ छे सविकल्पक इन्द्रियप्रत्यक्ष अने अन्य सविकल्पक ज्ञानो. अहीं दर्शननी उत्पत्ति पहेलां अने ज्ञाननी उत्पत्ति पछी ओ क्रम छे. अहीं निविकल्पकनो अर्थ सामान्यग्राही करवो शक्य ज नथी, कारण के बौद्धोने मते सामान्य जेवी कोई वस्तु ज नथी, सामान्य अवस्तु छे, कल्पना छे. अटले निर्विकल्पक अटले निर्विचार अने सविकल्पक अटले सविचार ज अर्थ छे. अने आ ज अर्थ ध्यानदशानी बे प्रकारनी प्रज्ञाओ अने व्युत्थानदशाना बे प्रकारना बोध ओ बंने कोटिओमां अकसरखो ज रहे छे. बौद्ध परम्परामां पण जैन परम्परानी जेम अक ज तत्त्वने (= चित्तने = आत्माने) ज्ञान पण छे अने दर्शन पण छे; वळी ज्ञानने पोताने ज थतुं पोतानु संवेदन (स्वसंवेदन) छे. सर्व ज्ञानो स्वसंविदित ज छे. परंतु बौद्ध परम्परामां बाह्यार्थ- ग्रहण ज्ञान अने स्वसंवेदन दर्शन ओ रीतनो ज्ञान-दर्शननो भेद करवामां आव्यो नथी... आम अन्य दर्शनोमांथी आपणने पर्याप्त सामग्री मळे छे, जे आपणने जैन परम्परामां ज्ञान-दर्शनना भेद अंगे जे मतभेद छे, तेनो उकेल शोधवामां सहाय करी शके. C/o. 23, वाल्केश्वर सोसायटी, भुदरपुरा, आंबावाडी, अमदावाद-१५