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मार्च २०१०
परंतु कालक्रम बंने वच्चे नथी. ज्ञान अने दर्शननी उत्पत्ति युगपत् छे. घटज्ञान अने घटदर्शननी उत्पत्ति युगपत् छे. जो बधी पारिभाषिकताने बाजुओ राखीओ तो सांख्य-योग मतमांथी ओवो निष्कर्ष नीकळे छे के घटनुं ज्ञान से ज्ञान अने घटज्ञाननुं ज्ञान से दर्शन. आम सांख्य-योगमांथी नीकळतो आ निष्कर्ष जैन चिन्तकोना ओक वर्गना अ मतनी अत्यन्त निकट छे के बाह्यार्थनुं ज्ञान अ ज्ञान अने स्वरूपनुं (आत्मस्वरूपनं) ज्ञान से दर्शन. जो स्वरूपनो अर्थ (ज्ञानस्वरूप के ज्ञान) करवामां आवे तो सांख्य-योगमांथी नीकळता आ निष्कर्ष साथै अ मतनो अभेद ज थई जाय.
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सांख्य-योग मत अने जैन मतमां भेद ओटलो ज छे के सांख्य-योगे दर्शन अने ज्ञान गुणने अटला तो भिन्न मान्या के ते ओक ज तत्त्वना आ बे गुणो छे ओम मानी शक्युं नहि, ज्यारे जैनोओ तेमने भिन्न गुणो तो मान्या पण अटला भिन्न नहि के जेथी तेमने ओक ज तत्त्वना गुण मानी न शकाय .
बौद्धधर्मदर्शनमां पण दर्शनरूप बोध अने ज्ञानरूप बोध से भेद स्वीकारायो छे. पिटकोमां समाधिनां फळरूपे ज्ञान- दर्शन जणावायां छे. घोषकप्रणीत अभिधर्मामृत ५.१०मां कह्युं छे : " समाधिं भावयतो ज्ञान- दर्शनलाभ: ।" अर्थात् आ यौगिक कोटिनां ज्ञान- - दर्शन छे. 'जाणता अने देखता' अ बुद्धनुं लाक्षणिक वर्णन छे. चार आर्यसत्योने बुद्धे जाणीने पछी देख्यां छे. 'अरियसच्चानि अवेच्च पस्सति । " - सुत्तनिपात, २२९. अभिधर्मकोशभाष्य ८.२७ मां कह्युं छे के " ज्ञानदर्शनाय समाधिभावना''. यशोमित्रनी स्फुटार्था व्याख्या तेनी समजूती आपतां कहे छे - "ज्ञानदर्शनाय इति । ज्ञानाय दर्शनाय चेति समास: । तत्र ज्ञानं मनोविज्ञानसंप्रयुक्ता प्रज्ञा । विकल्पात् । दर्शनं चक्षुर्विज्ञानसंप्रयुक्ता प्रज्ञा अविकल्पिका । अहीं सन्दर्भ दिव्यचक्षुनो होइ, चक्षुथी दिव्यचक्षु अभिप्रेत छे. निष्कर्ष ओ के समाधिना फळरूपे क्रमथी जे सविकल्पिका प्रज्ञा अने निर्विकल्पिका प्रज्ञा जन्मे छे ते ज यौगिक ज्ञान अने दर्शन छे. अहीं ज्ञाननी उत्पत्ति प्रथम अने दर्शननी उत्पत्ति पछी अ क्रम छे, जे 'अवेच्च पस्सति' अ शब्दोथी सूचित थाय छे. आम सविचार - ध्यानजन्य सविचार बोध (प्रज्ञा) से ज्ञान अने निर्विचार - ध्यानजन्य निर्विचार बोध (प्रज्ञा) से दर्शन अवुं स्पष्ट समजाय छे. यौगिक कोटिनां ज्ञान - दर्शन उपरान्त व्युत्थानदशामां पण
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