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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु इक्कीसवां प्रवचन 421
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________________ भिक्षु-सूत्र : 2 जो सहइ ह गामकंटए, अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य। भय-भेरव-सद्द-सप्पहासे, समसुह-दुक्खसहे अ जे स भिक्खू / / हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइन्दिए। अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू / / जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, तथा अयोग्य उपालंभो (तिरस्कार या अपमान) को शांतिपूर्वक सह लेता है, जो भयानक अट्टहास और प्रचण्ड गर्जनावाले स्थानों में भी निर्भय रहता है, जो सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है। जो हाथ, पांव, वाणी और इंद्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में रत रहता है, जो अपने आपको भलीभांति समाधिस्थ करता है, जो सूत्रार्थ को पूरा जाननेवाला है, वही भिक्षु है। 422
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________________ जीवन दो प्रकार का संभव है : एक शरीर के लिए, एक स्वयं के लिए। जो शरीर के लिए ही जीते हैं, मृत्यु के अतिरिक्त उनकी कोई और दसरी नियति नहीं है। जो स्वयं के लिए जीना शरू करते हैं. वे अमत को उपलब्ध हो जाते हैं। ___ मनुष्य मृत्यु और अमृत का जोड़ है। शरीर मरणधर्मा है / शरीर में जो छिपा है, वह अमरण-धर्मा है / अगर शरीर ही सबकुछ हो जाए, और जीवन की आधार-शिला बन जाए, तो हम सिर्फ मरते हैं, जीते नहीं हैं / जब तक शरीर में जो छिपा है—अदृश्य, चैतन्य, आत्मा, परमात्मा--जो भी नाम हम उसे दें, जब तक वह हमारे जीवन का आधार नहीं बनता, तब तक हम वास्तविक जीवन को जानने से वंचित ही रह जाते हैं। शरीर का जीवन इंद्रियों का जीवन है, दिखाई नहीं पड़ता; खुद स्मरण भी नहीं आता, क्योंकि हम उसमें इतने डूबे हैं कि देखने के लिए जितनी दूरी चाहिए, वह भी नहीं है; परिप्रेक्ष्य चाहिए, फासला चाहिए, वह भी नहीं है। अधिक लोग इंद्रियों के सुख के लिए ही अपने को समर्पित करते रहते हैं / इंद्रियों की बलिवेदी पर ही उनका जीवन नष्ट हो जाता है। ___ सुना है मैंने, पुराने दिनों में यूनान में भोजन की टेबल पर भोजन के साथ-साथ, थाली के पास ही पक्षियों के पंख भी रखे जाते थे, ताकि अगर भोजन बहुत पसंद आया हो, तो आप पंख को उठाकर वमन कर लें, गले में छुआ कर, और फिर से भोजन कर सकें। सम्राट नीरो के संबंध में कहा जाता है कि वह दिन में कम से कम बीस बार भोजन करता था। बीस बार भोजन करने के लिए जरूरी है कि हर बार भोजन करने के बाद उलटी की जाए, ताकि शरीर में भोजन न पहुंच पाये, भूख बनी रहे / तो सम्राट नीरो के पास दो चिकित्सक सिर्फ वमन करवाने के लिए सदा रहते थे। सिर्फ स्वाद के लिए व्यक्ति जीवित है। और उस स्वाद के लिए कष्ट भी सहने की तैयारी है / बीस दफा वमन करना, भोजन करना-तो जैसे सारा जीवन ही एक ही काम में लीन हो गया। जैसे आदमी सिर्फ एक यंत्र है, जिसमें भोजन डालना है। और आदमी का जैसे सारा सुख स्वाद में ठहर गया। नीरो अतिशयोक्ति मालूम पड़ता है, लेकिन हम भी बहुत भिन्न नहीं हैं / बीस बार हम भोजन न करते हों, लेकिन बीस बार आकांक्षा जरूर करते हैं। हमारी जो आकांक्षा है, नीरो ने उसे सत्य बना लिया; वास्तविक बना लिया था, इतना ही फर्क है। लेकिन बहुत लोग हैं जो चौबीस घण्टे भोजन का चिंतन कर रहे हैं। चिंतन भी भोजन करने जैसा ही है; क्योंकि चिंतन में भी जीवन, उतनी ही शक्ति, उतनी ही ऊर्जा नष्ट होती है। 423
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 कछ लोग हैं जो कामवासना के लिए ही जीते रहते हैं: जैसे जीवन का एक ही लक्ष्य है कि शरीर किसी भांति कामवासना का सुख ले ले; क्षणभर को डूब जाये बेहोशी में / फिर उनका चित्त चौबीस घण्टे वही सोचता रहता है / फिर उनकी कविता हो, कि उनका उपन्यास हो, कि उनकी फिल्म हो, कि उनका संगीत हो, नृत्य हो, सभी कामवासना से आपूर होता है। __ अगर हम आधुनिक जीवन को ठीक से देखें, और आधुनिक मन का ठीक विश्लेषण करें, तो ऐसा लगता है जैसे आदमी जमीन पर सिर्फ इसलिए है, उसका शरीर सिर्फ इसलिए है कि किसी तरह कामोत्तेजना में उसको नष्ट कर लिया जाए। और यह पागलपन इतनी दूर तक प्रवेश कर जाता है कि जिन चीजों से कामवासना का कोई भी संबंध नहीं है, उन्हें भी हम कामवासना से ही जोड़कर चलते हैं। अखबार देखें / विज्ञापन देखें / जिनका कोई संबंध कामवासना से नहीं है, उन चीजों को भी बेचना हो तो उनको काम-प्रतीकों के साथ जोड़ना पड़ता है। कार का क्या संबंध है कामवासना से? लेकिन उसके पास एक सुंदर, नग्न स्त्री को खड़ा कर दिया जाए तो कार का विज्ञापन ज्यादा प्रभावकारी हो जाता है। लोग कार को नहीं खरीदते, जैसे उस नग्न स्त्री को कार के पास खडा हआखरीद लेते हैं। सिगरेट बेचनी हो, कि कुछ भी बेचना हो—सारी चिंतना इस बात की है कि मनुष्य का मन शायद कामवासना से ही प्रभावित होता है, और किसी चीज से नहीं। तो जिस चीज को हम सेक्स से जोड़ दें, वह बिक जाती है। ___ करीब-करीब नब्बे प्रतिशत लोग काम भोगने में नष्ट हो जाते हैं। कुछ दस प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं, जो काम से लड़ने में नष्ट होते हैं। उनका पूरा जीवन भोगी से ठीक विपरीत है। वे चौबीस घण्टे लड़ रहे हैं कि कामवासना मन को न पकड़ ले ही कामवासना के इर्द-गिर्द घूमकर मिट जाते हैं; और दोनों की नजर कामवासना पर ही लगी रहती है। ऐसे ही हमारी सारी इंद्रियां हैं। किसी को कान का सुख है, तो वह संगीत सुन-सुनकर जीवन को व्यतीत कर रहा है। किसी को स्पर्श का सुख है, किसी को गंध का सुख है-~-लेकिन हम कहीं न कहीं किसी इंद्रिय के पास अपने को ठहरा लेते हैं। और जो इंद्रिय हमारे जीवन में प्रमुख बन जाती है, वही हमारी आत्मा की हत्या का कारण हो जाती है। शरीर के भीतर जो छिपा है, उसकी कोई भी इंद्रिय नहीं / शरीर में इंद्रियां हैं / और इंद्रियां उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन उसी के लिए, जो बुद्धिमान है। इंद्रियां सेवक हो सकती हैं, सेवक होनी चाहिए यही उनका प्रयोजन है। यह शरीर भी सीढ़ी बन सकता है उस तक पहंचने की जो अशरीरी है। और जब तक कोई व्यक्ति इस शरीर की सीढ़ी नहीं बना लेता, साधन नहीं बना लेता, इसके पार जाने का, इससे ऊपर उठने का, तब तक वह मूढ़ है, अज्ञानी है।। __ शरीर में मनुष्य है, लेकिन शरीर ही नहीं है; शरीर के भीतर है, निवासी है, लेकिन शरीर से भिन्न और अलग है। उस भिन्नता का अनुभव जब तक न हो, तब तक आनंद का कोई भी पता न चलेगा। सुख का छोटा सा अनुभव हो सकता है इंद्रियों से, लेकिन जितना सुख आप खरीदेंगे, उतना ही दुख भी आप खरीदते चले जायेंगे। हर इंद्रिय के साथ सुख-दुख संयुक्त मात्रा में जुड़े हैं / दुख कीमत है जो चुकानी पड़ती है इंद्रिय के सुख पाने के लिए। लेकिन हम दुख चुकाने को राजी हैं, और इसी आशा में जीते हैं कि ये जो बबूले की तरह थोडे-से सख मिलते हैं. ये कभी ठहर जायेंगे। पानी के बबले हैं.छ भी नहीं पाते और मिट जाते हैं। और परा जीवन. हमारा अनभव कहता है कि कोई सुख ठहरता नहीं, फिर भी न ठहरने वाले सुख के लिए हम संघर्षरत रहते हैं। और इसी संघर्ष में मृत्यु हमें पकड़ लेती है-नष्ट हो जाते हैं। ___ धर्म की शुरुआत उस व्यक्ति की चेतना में होती है, जिसे यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि जिनका मैं पीछा कर रहा हूं, वे पानी के बबूले हैं; उन्हें पा भी लूं तो कुछ मिलता नहीं है; और पाकर बबूला टूट जाता है, और दुख लाता है; उन्हें न पा सकू तो पीड़ा होती है। __ इन बबूलों को जब कोई देखता रहता है तटस्थ भाव से और बह जाने देता है; न उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है, न उनके फूट 424
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु जाने से चिंतित होता है; उनसे अपने को दूर कर लेता है—वही व्यक्ति भिक्षु है / लेकिन मरते दम तक हम बच्चों की तरह... / ___ छोटे बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते रहते हैं। बूढ़े उन पर हंसते हैं कि क्या तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो ! लेकिन बूढ़े भी तितलियों के पीछे ही दौड़ते रहते हैं। तितलियां बदल जाती हैं। इनकी अपनी तितलियां हैं। बूढ़ों की अपनी तितलियां हैं; बच्चों की अपनी तितलियां हैं; जवानों की अपनी तितलियां हैं। लेकिन सभी लोग रोशनी में चमक गये, प्रकाश में चमक गये रंगों के पीछे दौड़ते रहते हैं- इंद्रधनुषों के पीछे / अंत समय तक भी यह पीछा छूटता नहीं। ___ मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की काफी उम्र की हो गयी; तीस वर्ष की हो गयी, और उसे पति नहीं मिल रहा है। खोज की जाती है, मां-बाप भी परेशान हो गये हैं खोज-खोजकर; उम्र ढलती जाती है। अब संदेह होने लगा है कि अब शायद वि तो अपनी लड़की की चिंता में नसरुद्दीन की पत्नी सो भी नहीं पाती। एक दिन उसे खयाल आया कि अखबार में खबर दे दी जाए। और उसने एक बहुत सुंदर विज्ञापन बनाया और लिखा कि एक बहुत सुंदर युवती के लिए, जिसके पास काफी दहेज भी है, एक साहसी युवक की जरूरत है। अति साहसी युवक चाहिए, क्योंकि लड़की को पर्वतारोहण का शौक है। और जिसमें दुस्साहस हो इतनी सुंदर और साहसी लड़की के लिए, वही केवल निवेदन करे। ___ तीन दिन तक मां-बेटी प्रतीक्षा करती रहीं कि कोई पत्र आये। तीन दिन तक कोई पत्र नहीं आया तो मां चिंतित होने लगी। लेकिन तीसरे दिन एक पत्र आया। मां भागी हुई बाहर आयी, तब तक लड़की ने पत्र ले लिया और छिपा लिया। मां ने कहा कि पत्र मुझे देखना है, किसका पत्र आया है। लड़की ने कहा कि आप न देखें तो अच्छा है। तो मां ने कहा कि यह विचार मेरा ही था-यह विज्ञापन का विचार, तो मैं जोर देती हूं कि मैं पत्र देखूगी। और मां जिद पर अड़ गयी। लड़की ने कहा कि आप नहीं मानतीं तो देख लें। पत्र नसरुद्दीन की तरफ से था। क्योंकि विज्ञापन में कोई पता तो था नहीं—अखबार के नाम केयर आफ था, नसरुद्दीन ही निवेदन कर दिया। बूढ़ा आदमी भी वहीं खड़ा है, जहां जवान खड़े हैं। कोई भेद नहीं है / जरा भी भेद नहीं है। बूढ़े मन की भी वे ही कामनाएं हैं; वे ही वासनाएं हैं; वे ही इच्छाएं हैं। __ अंत समय तक भी आदमी शरीर में ही जीता चला जाता है; इसलिए मृत्यु इतनी दुखद है / मृत्यु में कोई भी दुख नहीं है; हो नहीं सकता क्योंकि मृत्यु तो महाविश्राम है / मृत्यु में दुख की कोई सम्भावना ही नहीं है। लेकिन दुख होता है। कभी लाख में एकाध आदमी मृत्यु में आनंदपूर्वक प्रवेश करता है। सभी लोग तो दुख में ही प्रविष्ट होते हैं। लेकिन दुख का कारण मृत्यु नहीं है। दुख का कारण हमारा इंद्रियों से संयोग है, जोड़ है। और दुख का कारण हमारी वासनाएं हैं। जैसे ही मृत्यु करीब आने लगती है, हम इंद्रियों से तोड़े जाते हैं। वह जो चेतना चिपक गयी है, जुड़ गयी है, बंध गयी है, वह टूटती है। उस टूटने के कारण दुख प्रतीत होता है / और अब वासनाओं के होने का कोई उपाय न रहेगा / अब इंद्रियां खो रही हैं। हाथ-पैर शिथिल होने लगे। शरीर टूटने लगा। ___ दुख है इस बात का कि कोई भी वासना तृप्त नहीं हो पायी और मौत आ गयी-दुख मृत्यु का नहीं है। इसलिए वे लोग, जो वासनाओं के पार हो जाते हैं, जो इंद्रियों से अपना संबंध, इसके पहले कि मृत्यु तोड़े, स्वयं तोड़ लेते हैं-वे भिक्षु हैं। और वे आनंद से मरते हैं। यह बड़े मजे की बात है : जो आनंद से मर सकता है, वही आनंद से जी सकता है। और जो दुख से मरता है, वह दुख से ही जीयेगा। क्योंकि मत्य जीवन का चरम उत्कर्ष है। वह आपके सारे जीवन का निचोड़ है, सार है, इत्र है। सारे जीवन में कितने ही फल 425
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 खिले हों, सबकी सगंध मृत्यु के क्षण में आ जाती है। ___ अगर मृत्यु महादुख है, तो पूरा जीवन दुख की एक लंबी यात्रा थी। मृत्यु महासुख हो सके, यही धार्मिक व्यक्ति की खोज है। और जो विरोधाभास है, वह यह है कि जिसकी मृत्यु महासुख हो पाती है, उसके पूरे जीवन पर सुख की छाया और सुख का संगीत फैल जाता ___ आप मृत्यु से डरते हैं / डर का कारण ही यही है कि आपको अभी जीवन का कोई पता नहीं चला। जिस दिन आपको जीवन का पता चल जायेगा, मृत्यु मित्र है। मृत्यु जीवन को नष्ट नहीं करती, केवल शरीर से जीवन को अलग करती है। जीवन को नष्ट करने का कोई आधार नहीं है मृत्यु में / मृत्यु तो केवल उस जीवन से आपको अलग कर लेती है, जिसको आपने एकमात्र जीवन बना रखा था। जैसे कोई आदमी एक दीवाल के छेद से आकाश को देख रहा हो, और उसे कुछ पता न हो कि बाहर जाकर पूरे आकाश को देखा जा सकता है, जीया जा सकता है, और हम उसे उसके छेद से छीनने लगें, खींचने लगें, तो वह चिल्लाने लगे कि मेरा आकाश मत छीनो, मैं मर जाऊंगा। यही तो मेरा जीवन है, यही तो मेरी मुक्ति है, यही तो मेरा सुख है कि सूरज उगता है, कि पक्षी उड़ते हैं, कि फूल खिलते हैं, इसी छिद्र से तो मैं देख पाता हूं। वह रोयेगा, चिल्लायेगा। उसे कुछ भी पता नहीं कि हम उसे पूरे आकाश के नीचे ही ले जा रहे हैं, जहां फूलों की तरह वह खुद भी खिल सकता है; जहां पक्षियों की तरह वह खुद भी उड़ान भर सकता है; जहां सूरज की तरह वह भी रोशन हो सकता है। लेकिन वह अपने छिद्र को ही आकाश समझ रहा है। और जो सदा छिद्र के पास ही बैठा रहा हो, उसे यह भ्रांति होनी स्वाभाविक है। ___ हमारी इन्द्रियां जीवन की तरफ छोटे-छोटे छेद हैं। हमारी आंख क्या है? वह जो भीतर छिपा है, उसके लिए एक छोटा-सा छेद है शरीर में, जिससे हम बाहर देख पाते हैं। हमारा कान क्या है? एक छोटा-सा छेद है, जिससे बाहर की ध्वनि भीतर आ पाती है। हमारी इन्द्रियां छिद्र हैं, उन छिद्रों को ही हम जीवन समझ लिये हैं। मृत्यु हमें छिद्रों से अलग करती है। हम दुखी होते हैं, क्योंकि हमारा सब कुछ छीना जा रहा है / कुछ भी छीना नहीं जा रहा है। अगर हम भीतर के निवासी को पहचान लें, तो मृत्यु हमें केवल क्षद्रता से अलग कर रही है। इसलिए जो व्यक्ति भीतर के निवासी को पहचानने लगता है, उसकी मृत्यु मोक्ष हो जाती है। हमारा जीवन भी मृत्यु जैसा है, उसकी मृत्यु भी मुक्ति बन जाती है। __ मैंने सुना है कि नसरुद्दीन एक दिन अपने मित्रों से बात कर रहा है और शिकार की अतिशयोक्तिपूर्ण घटनाएं और अनुभूतियां सुना रहा है। एक जगह जाकर तो बात बिलकुल आखिरी हद पर पहुंच गयी। उसने कहा, 'मैं अफ्रीका गया था, और सिर्फ शिकार के लिए गया था। चांदनी रात थी। तो बंदूक बिना लिये झोपड़े के बाहर घूमने निकल गया। एक भयंकर सिंह अचानक एक वृक्ष के नीचे आ गया। दस फीट की दूरी रही होगी...।' मित्र भी सांस रोक लिये। 'बंदूक हाथ में नहीं है' नसरुद्दीन ने कहा, 'सिंह दस कदम की दूरी पर तैयार खड़ा है।' एक मित्र ने पूछा, 'फिर क्या हुआ?' नसरुद्दीन ने कहानी को छोटा करने के लिहाज से कहा, 'सिंह ने हमला किया और मेरा खात्मा कर दिया।' उस मित्र ने कहा, 'नसरुद्दीन, डू यू मीन दि लायन किल्ड यू? बट यू आर अलाइव, सिटिंग जस्ट बिफोर मी-और तुम भलीभांति जिंदा हो / मतलब तुम्हारा क्या है, उस सिंह ने तुम्हें खत्म कर दिया?' नसरुद्दीन ने कहा, 'हा, य काल दिस बीइंग अलाइव-यह मेरी जिंदगी को तम जिंदगी कहते हो?' 426
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, उसे हम भी जिंदगी कह नहीं सकते। भला सिंह ने आपको खत्म किया हो या न किया हो, आपने खुद ही अपने को खत्म कर लिया है। आपका होना राख जैसा है, अंगार जैसा नहीं है; बुझे बुझे हैं—किसी तरह-अगर कोई जिंदगी के जीने का न्यूनतम ढंग हो, मिनिमम पर—जैसे दीया जलता है आखिरी वक्त में जब तेल चुक गया है; बाती ही जलती है, तेल तो चुक गया है। तो वैसा, जैसा पीला-सा प्रकाश उस आखिरी दीये में होता है, हमारा जीवन है। जर्मनी की एक बहुत क्रांतिकारी महिला हुई, रोजा लक्जेम्बर / उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि मैं ऐसे जीना चाहती हूं, जैसे कोई मशाल को दोनों तरफ से जला दे; चाहे एक क्षण को, मगर भभककर जीना चाहती हूं-मैक्सिमम; वह जो पराकाष्ठा है जीवन की, जो तीव्रता है, इन्टेन्सिटी है, उस पर जीना चाहती हूं ताकि मुझे जीवन का दर्शन हो जाए। यह जो न्यूनतम पर जीना है, इससे तो सिर्फ राख ही राख का स्वाद आता है। __आप अपनी जबान को टटोलें- जिंदगी राख का एक स्वाद हो गयी है, जहां कुछ होता नहीं लगता; घसीटते-से मालूम होते हैं। नसरुद्दीन ठीक ही कह रहा है कि तुम इसे जिंदगी कहते हो? पर यह राख कैसे जिंदगी हो गयी? हर बच्चा अंगारे की तरह पैदा होता है। जीवन प्रगाढ़ता से, सघनता से उसमें चमकता है। हर बच्चा पूरी क्षमता लेकर पैदा होता है कि जीवन का आखिरी और गहरे से गहरा स्वाद ले ले। लेकिन कहां खो जाता है वह सब, और मरते दम क्षण हम क्यों बुझे-बुझे मर जाते हैं? और इसे हम जीवन की प्रगति कहते हैं! ___ यह तो हास है / यह तो पतन है। बच्चे कहीं ज्यादा जीवित होते हैं, बजाय बूढ़ों के / होना उलटा चाहिए-अगर आदमी ठीक-ठीक जीया हो, जिसको महावीर सम्यक जीवन कहते हैं; अगर ठीक-ठीक जीया हो तो बुढ़ापे में जीवन अपने पूरे निखार पर होगा; क्योंकि इतना अनुभव, इतनी अग्नि, इतने-इतने जीवन के पथ, इतने प्रयोग जीवन को और भी साफ-सुथरा कर गये होंगे; कुंदन की तरह निखार गये होंगे। बूढ़ा तो बिलकुल शुद्ध हो जायेगा। लेकिन बूढ़ा तो बिलकुल मरने के पहले मर चुका होता है। ___ हम सब बुढ़ापे से भयभीत हैं / जीवन में कहीं कोई बुनियादी भूल हो रही है। और वह बुनियादी भूल यह है कि जहां जीवन का स्रोत है, वहां हम जीवन को नहीं खोजते; और जहां जीवन के अनुभव के छिद्र हैं, वहीं हम जीवन को टटोलते हैं। __इन्द्रियों में नहीं, इन्द्रियों के पीछे जो छिपा है, उसमें ही जीवन को पाया जा सकता है। लेकिन आप दो काम कर सकते हैं आसानी से-या तो इन इन्द्रियों को भोगने में लगे रहें, और या जब थक जायें, परेशान हो जायें, तो इन्द्रियों से लड़ने में लग जायें। लेकिन दोनों हालत में आप चूक जायेंगे मंजिल / न तो भोगनेवाला उसे पाता है, और न लड़नेवाला उसे पाता है। सिर्फ भीतर जागनेवाला उसे पाता है। भोगनेवाला भी इन्द्रियों से ही उलझा रहता है, और लड़नेवाला भी इंद्रियों से उलझा रहता है। आप संसारी हों कि संन्यासी हों, कि गृहस्थ हों कि साधु हों-आप दोनों हालत में इंद्रियों से ही उलझते रहते हैं। आप दिन-रात स्वाद का चिंतन करते रहते हैं, और साधु, दिन-रात स्वाद का चिंतन न आये, इस कोशिश में लगा रहता है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि जिसे विस्मरण करना हो, उसे स्मरण करना असंभव है। विस्मरण स्मरण की एक कला है, एक ढंग है। सच तो यह है कि आप किसी को स्मरण करना चाहें तो शायद भूल भी जाएं, और किसी को विस्मरण करना चाहें तो भूल नहीं सकते। ___ कोशिश करके देखें / किसी को भूलने की कोशिश करें और आप पायेंगे कि भूलने की हर कोशिश याद बन जाती है। क्योंकि भूलने में भी याद तो करना ही पड़ता है। ___ तो गृहस्थ शायद भोजन का उतना चिंतन नहीं करता जितना साधु करता है। वह भुलाने की कोशिश में लगा है। भोगी शायद स्त्री-पुरुष के संबंध में उतना नहीं सोचता, जितना साधु सोचता है / वह भुलाने में लगा है। मगर दोनों ही घिरे हैं एक ही बीमारी से—छिद्रों 427
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 से पीड़ित हैं। और उस तरफ ध्यान की धारा नहीं बह रही है, जहां मालिक छिपा है / शरीर एक यंत्र है, और बड़ा कीमती यंत्र है। अभी तक पृथ्वी पर उतना कीमती कोई दूसरा यंत्र नहीं बन सका / किसी दिन बन जाए... / ___ मैंने सुना है ऐसा, उन्नीसवीं सदी पूरी हो गयी; बीसवीं सदी भी पूरी हो गयी और इक्कीसवीं सदी का अंत आ गया। इन तीन सदियों में कम्प्यूटर का विकास होता चला गया है। तो मैंने एक घटना सुनी है कि बाईसवीं सदी के प्रारंभ में एक इतना महान विशालकाय कम्प्यूटर यंत्र तैयार हो गया है कि दुनिया के सारे वैज्ञानिक उसके उदघाटन के अवसर पर इकट्ठे हुए, क्योंकि वह मनुष्य की अब तक बनायी गई यांत्रिक खोजों में सर्वाधिक श्रेष्ठतम बात थी। यह कम्प्यूटर, ऐसा कोई भी सवाल नहीं, जिसका जवाब न दे सकता हो / ऐसा कोई प्रश्न नहीं, जिसको यह क्षण में हल न कर सकता हो / जिसको मनुष्य का मस्तिष्क हजारों साल में हल न कर सके, उसे यह क्षण में हल कर देगा। स्वभावतः, सारी दुनिया के वैज्ञानिक इकट्ठे हुए। और उदघाटन किया जाना था किसी सवाल को पूछकर; और दो हजार वैज्ञानिक सोचने लगे कि क्या सवाल पूछे / सभी सवाल छोटे मालूम पड़ने लगे, क्योंकि वह क्षण में जवाब देगा। कोई ऐसा सवाल पूछे कि यह यंत्र भी थोड़ी देर को चिंता में पड़ जाए / लेकिन कोई सवाल ऐसा नहीं सूझ रहा था क्योंकि वैज्ञानिकों को भी पता था कि ऐसा कोई सवाल नहीं जिसे यह यंत्र जवाब न दे दे। और तभी बुहारी लगानेवाले एक आदमी ने, जो ऊब गया था, परेशान हो गया था प्रतीक्षा करते-करते कि कब पूछा जाए...कब पूछा जाए...और देर होती जाती थी, तो उसने जाकर यंत्र के सामने पूछा, 'इज देयर ए गाड-क्या ईश्वर है ?' यंत्र चल पड़ा / बल्ब जले-बुझे, खटपट हुई, भीतर कुछ सरकन हुई और भीतर से आवाज आयी, 'नाउ देअर इज' क्योंकि यंत्र अब यह कह रहा है, कि मैं हूं-नाउ देअर इज ! वैज्ञानिक बहुत परेशान हुए कि 'ईश्वर अब है', उन्होंने पूछा कि क्या मतलब? तो उस यंत्र ने कहा कि मेरे पहले कोई ईश्वर नहीं था। आदमी का यंत्र अभी सर्वाधिक श्रेष्ठतम है। लेकिन यंत्र भी इक्कीसवीं सदी में यह अनुभव कर सकता है कि मैं ईश्वर हैं। अगर प्रतिभा इतनी विकसित हो जाए तो उसके भीतर भी प्राणों का संचार हो जाए। और आप उस यंत्र में न मालूम कितने जन्मों से जी रहे हैं, जहां प्रतिभा का संचार है। लेकिन आपको अभी अनुभव नहीं हो पाया कि ईश्वर है। और लोग पछते ही चले जाते हैं कि ईश्वर कहां है? और ईश्वर उनके भीतर छिपा है। जो पछ रहा है. वही ईश्वर है-वही चैतन्य की धारा / लेकिन उस तरफ हमारी नजर नहीं है। हमारी धारा बाहर की तरफ बहती है, दूसरों की तरफ बहती है, अपनी तरफ नहीं बहती। जब धारा अपनी तरफ बहने लगती है, तो संन्यास फलित होता है। महावीर के सूत्र को हम समझें। इस सूत्र में बड़ी सरलता से बहुत सी कीमत की बातें कही गयी हैं। __ 'जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, अयोग्य उपालंभों-तिरस्कार या अपमान को शांतिपूर्वक सह लेता है, जो भयानक अट्टहास और प्रचण्ड गर्जनावाले स्थानों में भी निर्भय रहता है, जो सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है।' सब शब्द सीधे-सीधे हैं, समझ में आते हैं। लेकिन उनके भीतर बहुत कुछ छिपा है, जो एकदम से खयाल में नहीं आता। आमतौर से यह समझा जाता है कि जिसको हम गाली दें, अपमान करें, वह अगर शांति से सह ले, तो बड़ा शांत आदमी है; अच्छा आदमी है। इतनी ही बात नहीं है। इतनी बात तो स्वार्थी आदमी भी कर सकता है: इतनी बात तो चालाक आदमी भी कर बात तो जिसको थोड़ी-सी बुद्धि है, जो जीवन में व्यर्थ के उपद्रव नहीं खड़े करना चाहता है, वह भी कर सकता है। महावीर इतने पर समाप्त नहीं हो रहे हैं। महावीर का यह कहना कि बाहर से अगर कांटों की तरह चुभनेवाले वचन भी कानों में पड़ें; 428
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु आग जला देनेवाले वचन आस-पास आ जाएं; अपमान और तिरस्कार फेंका जाए, जलते हुए तीर की तरह छाती में चुभ जाएं, तो भी शांत रहना / शांत रहने का यहां प्रयोजन शांति नहीं है। शांत रहने का यहां प्रयोजन है कि दूसरे को मूल्य मत देना। __ हम उसी मात्रा में मूल्य देते हैं वचनों को, जितना हम दूसरे को मूल्य देते हैं / इसे थोड़ा समझें। अगर आपका मित्र गाली दे तो ज्यादा अखरेगा। शत्र गाली दे. उतना नहीं अखरेगा / गाली वही होगी। गाली एक ही है। शत्र देता है तो नहीं अखरती. मित्र देता है तो अखरती है; क्योंकि शत्रु से अपेक्षा ही है कि देगा और मित्र से अपेक्षा नहीं है कि देगा / कौन देता है, इससे अखरने का संबंध है। __ अगर एक शराबी आपके पैर पर पैर रख दे, तो अखरता नहीं / आप समझते हैं कि बेहोश है / और एक होश से भरा हुआ आदमी आपके पैर पर पैर रख दे, तो अखर जाता है। तो कलह शुरू हो जाती है। ___ एक बच्चा आपका अपमान कर दे तो नहीं अखरता, लेकिन एक बूढ़ा आपका अपमान कर दे तो अखरता है; क्योंकि बच्चे को हम माफ कर सकते हैं, बूढ़े को माफ करना मुश्किल हो जाता है। __ हमें क्या अखरता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिसने गाली दी, अपमान किया, उसका मूल्य कितना था / उस मूल्य पर सब निर्भर होता है। दूसरे का मूल्य है, इसलिए अपमान अखरता है। दूसरे का मूल्य है, इसलिए सम्मान अच्छा लगता है। दूसरे का कोई भी मूल्य न रह जाए, तो व्यक्ति संन्यासी है। ___ तो दूसरा सम्मान करे तो ठीक, अपमान करे तो ठीक / यह दूसरे का अपना काम है; इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मैंने दूसरे के ऊपर से अपना सारा मूल्यांकन अलग कर लिया है। दूसरा दूसरा है और अगर गाली निकलती है, तो यह उसके भीतर की घटना है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। जैसे किसी वृक्ष में कांटा लगता है, यह वृक्ष की भीतरी घटना है। इससे मैं नाराज नहीं होता / या कि मैं नाराज होऊं कि बबूल में बहुत कांटे लगे हैं ? __ जब आप बबूल के पास से निकलते हैं, तो आप कभी भी यह नहीं सोचते कि मेरे लिए कांटे लगाये गये हैं। यह बबूल का अपना गुण-धर्म है। और गुलाब के पौधे में जब फूल खिलता है, तब भी सोचने का कोई कारण नहीं है कि फूल आपके लिए खिल रहा है। यह गुलाब का गुण-धर्म है। महावीर कहते हैं, दुसरा क्या कर रहा है, यह उसकी अपनी भीतरी व्यवस्था की बात है। उसके जीवन से गाली निकल रही है. यह उसके भीतर लगा हुआ कांटा है। उसके भीतर से प्रशंसा आ रही है, यह उसके भीतर खिला फूल है। आप क्यों परेशान हैं ? आपसे इसका कोई भी लेना-देना नहीं है। यह संयोग की बात है कि आप बबूल के कांटे के पास से निकले। यह संयोग की बात है कि गुलाब का फूल खिल रहा था और आप रास्ते से निकले। ___ इसे थोड़ा समझें, क्योंकि जिस आदमी ने आपको गाली दी है, अगर आप न भी मिलते, तो मनसविद कहते हैं, वह गाली देता; किसी और को देता। गाली देने से वह नहीं बच सकता था। गाली उसके भीतर इकट्ठी हो रही थी। अपमान उसके भीतर भारी हो रहा था आप कारण नहीं है। आप सिर्फ निमित्त हैं। निमित्त कोई भी–एक्स, वाइ, जेड हो सकता था। यह आप अपने अनुभव से देखें तो आपको खयाल में आ जायेगा / कभी आप बैठे हैं, क्रोध उबल रहा है। और छोटा बच्चा अपने खिलौने से खेल रहा है। तो उसको ही आप डांट-डपट शुरू कर देते हैं। बच्चे में कोई कारण नहीं है। वह कल भी खेलता था, परसों भी खेलता था। वह रोज ही अपने खिलौने से ऐसे ही खेलता था। लेकिन परसों आपके भीतर क्रोध नहीं उबल रहा था, तो आप चुपचाप मुस्कुराते रहे। उसका शोर-गुल भी आनंददायी मालूम हो रहा था। वह नाच रहा था तो आप प्रसन्न थे। घर में जीवन मालम हो रहा 429
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 था। आज वह नाच रहा है, कूद रहा है, तो आपको क्रोध उठ रहा है। क्रोध उठ रहा है-उसका नाचना, कूदना निमित्त बन रहा है। वह बच्चा आपके क्रोध का भागीदार हो जायेगा। और छोटे बच्चों को कभी समझ में नहीं आता कि क्यों उन पर क्रोध किया गया। क्योंकि उनको अभी दूसरे से इतना संबंध नहीं बना है। वे अभी अपने में जीते हैं। इसलिए छोटे बच्चे हैरान हो जाते हैं कि अकारण, कोई भी कारण नहीं था, और मां-बाप उन पर टूट पड़ते __अगर बच्चा न मिले तो आप अपनी पत्नी पर टूट पड़ेंगे। अगर कुछ भी न हो तो यह भी हो सकता है कि आप निर्जीव वस्तुओं पर टूट पड़ें–कि आप अखबार को जोर से गाली देकर पटक दें; कि आप रेडियो को गुस्से से बंद कर दें कि उसकी नॉब ही टूट जाए। जिस दिन स्त्रियां नाराज होती हैं, उस दिन घर में बर्तन ज्यादा टूटते हैं। ऐसे महंगा नहीं है यह–पति का सिर टूटे, इससे एक प्लेट का टूट जाना बेहतर है। यह सस्ता ही है / स्त्री भी भरोसा नहीं कर सकती कि उसने प्लेट छोड़ दी / वह भी सोचती है कि छूट गयी / लेकिन कभी नहीं छूटी थी। कल नहीं छूटी; परसों नहीं छूटी। और रोज अनुपात अलग-अलग होता है। __ अगर आप अपने क्रोध का हिसाब रखें, और बर्तनों के टूटने का हिसाब रखें, आप जल्दी ही पूरा आंकड़ा निकाल लेंगे। जिस दिन क्रोध ज्यादा होता है, उस दिन हाथ छोड़ना चाहते हैं-अन्कांशस / कोई जानकर भी पत्नी नहीं छोड़ रही है। क्योंकि नुकसान तो घर का ही हो रहा है। लेकिन छूटता है। मनसविद कहते हैं कि ड्राइवरों के द्वारा जो मोटर-दुर्घटनाएं होती हैं, उनमें पचास प्रतिशत का कारण क्रोध है, कारें नहीं / क्रोध में आदमी ऐक्सिलरेटर को जोर से दबाये चला जाता है / वह दबाने में रस लेता है, किसी को भी दबाने में; ऐक्सिलरेटर को ही दबाता है। क्रोधी आदमी तेज रफ्तार से कार दौड़ा देता है / क्रोधी आदमी कोई भी चीज पर त्वरा से जाना चाहता है, गति से जाना चाहता है। तो रास्तों पर जो दुर्घटनाएं हो रही हैं, वे पचास प्रतिशत तो आपके क्रोध के कारण हो रही हैं। और थोड़ी घटनाएं नहीं हो रहीं हैं। दूसरे महायुद्ध में एक वर्ष में जितने लोग मरे, उससे दो गुने लोग कारों की दुर्घटनाओं से हर वर्ष मर रहे हैं। महायुद्ध वगैरह का कोई मूल्य नहीं है। कितना ही बड़ा महायुद्ध करो, जितने लोग सड़कों पर लोगों को मार रहे हैं, उतना आप युद्ध करके भी नहीं मार सकते। ये कौन लोग हैं ? और आप कभी खयाल करना कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो आप जोर से हार्न बजाते हैं; जोर से ऐक्सिलरेटर दबाते हैं; कार को भगाते हैं। सामने वाला आदमी लगता है कि बिलकुल धीमी रफ्तार से जा रहा है-हर एक हट जाए, सारी दुनिया रास्ता दे दे, तो आप अपनी पूरी गति में आ जाएं। यह जो क्रोध है, इसका ऐक्सिलरेटर से कोई भी संबंध नहीं है। अगर ऐक्सिलरेटर को भी होश होता आप-जैसा, तो वह भी कहता कि क्यों मुझे परेशान कर रहे हो? वह भी दुखी होता। महावीर यह कह रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जीता है अपनी भीतरी नियति से। उससे जो भी बाहर आता है, वह उसके भीतर से आ रहा है। उसका संबंध उससे है, उसका संबंध आपसे नहीं है। आप शांत रह सकते हैं / अगर यह बात समझ में आ जाए तो शांत रहने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ेगा। अगर शांत रहने का आप प्रयास करेंगे, तो वह प्रयास भी अशांति है। किसी ने गाली दी और आपने अपने को समझाया, और अपने को शांत रखा, और अपने को दबाया, तो अशांत तो आप हो चुके / अब इतना ही होगा कि यह जो आदमी गाली दे रहा है, इसने जो क्रोध पैदा किया है, वह इस पर नहीं निकलेगा, किसी और पर निकलेगा। इतना ही होगा। कहीं जाकर यह बह जायेगा। और जब तक नहीं बहेगा, तब तक आप भारी रहेंगे। 430
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु आखिर क्रोध का मजा क्या है ? क्रोध करके आपको क्या सुख मिलता है ? इतना सुख मिलता है कि क्रोध से जो भारीपन और ज्वार और बुखार आ जाता है, जो फीवरिशनेस छा जाती है, वह निकल जाती है। ___ जापान में...और जापान मनुष्य के मन के संबंध में काफी कुशल है... हर फैक्ट्री में, बड़ी फैक्ट्रियों में पिछले महायुद्ध के बाद मैनेजर और मालिक के पुतले रख दिये गये हैं कि जब भी किसी कर्मचारी को गुस्सा आये, वह जाकर पिटाई कर सके / एक कमरा है हर बड़ी फैक्ट्री में, जहां मालिक, मैनेजर और बड़े अधिकारियों के पुतले रखे हुए हैं। गुस्सा तो आता ही है, तो आदमी चले जाते हैं, उठाकर डंडा उनकी पिटाई कर देते हैं, गाली-गलौज बक देते हैं-हल्के होकर मुस्कराते हुए बाहर आ जाते हैं। लोग पुतले जलाते हैं, जब नाराज हो जाते हैं। और कभी-कभी हजारों साल लग जाते हैं...होली पर हम होलिका को अभी तक जलाये चले जा रहे हैं। पुरानी नाराजगी है; हजारों साल पुरानी है, लेकिन अभी भी राहत मिलती है। होली पर जितने लोग हल्के होते हैं, उतने किसी अवसर पर नहीं होते / होली राहत का अवसर है। क्रोध, गाली-गलौज, जो भी निकालना हो, वह आप सब निकाल लेते हैं। एक दिन के लिए सब छूट होती है। कोई नीति नहीं होती; कोई धर्म नहीं होता। कोई महावीर, बुद्ध बीच में बाधा नहीं देते / उस एक दिन के लिए आप बिलकुल मुक्त हैं / जो आप वर्षों से कहना चाहते थे, करना चाहते थे, वह कह सकते हैं, कर सकते हैं। बहुत समझदार लोगों ने होली खोजी होगी, जो मनुष्य के मन को समझते थे कि उसमें कोई नाली भी चाहिए, जिससे गंदा पानी बाहर निकल जाए। अभी इस समय के बहुत से बुद्धिमान समझाते हैं कि यह बात ठीक नहीं है, होली पर सदव्यवहार करो; गालीगलौज मत बको; भजन कीर्तन करो। ये नासमझ हैं। इन्हें कुछ पता नहीं है आदमी का।। होली आदमी को हल्का करती है। और जब तक आदमी जैसा है, तब तक होली जैसे त्यौहार की जरूरत रहेगी। आदमी जिस दिन बुद्ध, महावीर जैसा हो जायेगा, उस दिन होली गिर जायेगी। उसके पहले होली गिराना खतरनाक है। सच तो यह है कि जैसा आदमी है, उसे देखकर ऐसा लगता है, हर महीने होली होनी चाहिए / हर महीने एक दिन आपके सब नीति नियम के बंधन अलग हो जाने चाहिए ताकि जो-जो भर गया है, जो-जो घाव में मवाद पैदा हो गयी है, वह आप निकाल सकें।। __ एक बड़े मजे की बात है कि होली के दिन अगर कोई आपको गाली दे, तो आप यह नहीं समझते कि आपको गाली दे रहा है। आप समझते हैं कि अपनी गाली निकाल रहा है। लेकिन गैर-होली के दिन कोई आपको गाली दे, तो आपको गाली देता है। महावीर कहते हैं, उस दिन भी वह अपनी ही गाली निकालता है। होली या गैर-होली से फर्क नहीं पड़ता। ___ हम जो भी करते हैं, वह हमारे भीतर से आता है। दूसरा केवल निमित्त है, खूटी की तरह है-उस पर हम टांग देते हैं। अगर यह बोध हो जाये तो जीवन में एक शांति आयेगी, जो प्रयास से नहीं आती; जीवन में एक शांति आयेगी, जो मुर्दा नहीं होगी; दमन की नहीं होगी—जीवंत होगी। मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा था कि उसने अपनी पत्नी के सिर पर कुल्हाड़ी मार दी, पत्नी मर गयी। और मजिस्ट्रेट ने पूछा कि नसरुद्दीन, और तुम बार-बार कहे जाते हो कि यू आर ए मैन आफ पीस / तुम कहे चले जाते हो कि तुम बड़े शांतिवादी हो, और बड़े शांति को प्रेम करने वाले हो। नसरुद्दीन ने कहा कि निश्चित, मैं शांतिवादी हूं। और जब कुल्हाड़ी मेरी पत्नी के सिर पर पड़ी, तो जैसी शांति मेरे घर में थी, वैसी उससे पहले कभी नहीं देखी थी। जो शांति का क्षण मैंने देखा है उस वक्त, वैसा पहले कभी नहीं देखा था। आप अपने चारों तरफ लोगों को मारकर भी शांति अनुभव कर सकते हैं; जो आप सब कर रहे हैं। जब आप पत्नी को दबा देते हैं, और बेटे को दबा देते हैं, जब आप अपने नौकर को गाली दे देते हैं और दबा देते हैं, और जब आप बर्तन तोड़ देते हैं तब आप क्या 431
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 कर रहे हैं? ___ अपने चारों तरफ आप मृत्यु के माध्यम से शांति ला रहे हैं / यह शांति थोथी है, मुर्दा है। और यह शांति ज्यादा देर टिकेगी नहीं, क्योंकि इस शांति में उपद्रव के बीज छिपे हुए हैं; क्योंकि जो आप कर रहे हैं, वही आपके आस-पास के लोग आपके प्रति भी करेंगे / यह सिर्फ थोड़ी देर के लिए कलह का स्थगन है। यह पोस्टपोनमेन्ट है। और यह शांति उपद्रव से भरी हुई है-उपद्रव इसके भीतर पल रहा है। लेकिन एक और भी शांति है, जो आसपास मृत्यु लाकर नहीं, अपने भीतर जीवन को जगाकर उपलब्ध की जाती है। और जब अपने भीतर जीवन जगता है, तो आदमी अनुभव कर लेता है कि कोई भी मुझसे प्रयोजन नहीं है किसी का भी। ध्यान रहे, यह भी हमारा अहंकार ही है कि हम सोचते हैं कि सारे लोग हमसे जुड़े हुए हैं-गाली देनेवाला मुझे गाली दे रहा है; प्रशंसा करनेवाला मेरी प्रशंसा कर रहा है। हम सब यह समझते हैं कि सारे जगत के जैसे हम केंद्र हैं और सारा जगत हमारे चारों तरफ चल रहा है / कोई रास्ते पर हंसता है, तो मेरे लिए हंस रहा है। कोई फुस-फुस-फुस करके बात करता है, तो जरूर मरा बात कर रहा है कि मैं ही इस जगत में हूं और बाकी सारे लोग मेरे लिए हैं। किसी को प्रयोजन नहीं है। किसी को अर्थ नहीं है। अगर वे फुस-फुसाकर बातें कर रहे हैं, तो भी उनके कारण अपने हैं। अगर कोई हंस रहा है, तो भी उसके कारण अपने हैं। आप अपने को बीच में मत डालें। लेकिन आप मान नहीं सकते / आप हर जगह अपने को बीच में खड़ा कर लेते हैं। जब तक आप बीच में नहीं होते, तब तक आपको चैन नहीं होता। मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक मेहमान आया हुआ था। मेहमान धनपति था, कुलीन था, सुसंस्कृत था। और उसे पता था कि मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में एक रिवाज है कि घर का जो मुखिया होता है, भोजन की टेबल पर वह सिर की तरफ बैठता है, पहली जगह पर बैठता है। वह रिवाज कभी नहीं तोड़ा जाता। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन ने मेहमान को चूंकि वह बड़ा आदमी था, कीमती आदमी था, उससे कहा कि आप खाने की मेज पर इस जगह बैठे, सिर की तरफ / उस आदमी ने कहा कि नहीं, क्षमा करें नसरुद्दीन, यह नहीं हो सकता / जैसा इस गांव का रिवाज है, वही उचित है। आप ही इस पर बैठे, आप इस घर के मुखिया हैं। ___ वह नहीं माना तो नसरुद्दीन गुस्से में आ गया। उसने कहा, 'तुमने समझा क्या है ? नसरुद्दीन जहां बैठेगा, वहीं टेबल का सिर है। तुम बैठो वहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं जहां बैलूंगा, वहीं मुखिया बैठा हुआ है।' ____एक दफा नसरुद्दीन के गांव में एक विवाद था / और सारे पण्डित इकट्ठे हुए, सारे ज्ञानी इकट्ठे हुए / नसरुद्दीन को नहीं बुलाया, क्योंकि कुछ उपद्रव कर दे, कुछ गलत-सही बात कह दे / लेकिन नसरुद्दीन को खबर लगी तो वह पहुंचा / लेकिन हाल भर चुका था; मंच भर चुका था। नेतागण बैठ चुके थे। कोई आदमी अध्यक्ष हो चुका था। नसरुद्दीन, जहां जते पड़े थे, वहीं बैठ गया। और वहीं उसने धीरे-धीरे कहानी किस्से कहने शुरू कर दिये। थोड़ी देर में लोग उसमें उत्सुक हो गये / वह आदमी ही ऐसा था / लोगों ने पीठ कर ली मंच की तरफ और उसकी बातें सुनने लगे। धीरे-धीरे आधा हाल उसकी तरफ मुड़ गया। आखिर सभापति ने कहा कि नसरुद्दीन, क्यों उपद्रव कर रहे हो? क्यों अराजकता पैदा कर रहे हो? ___ नसरुद्दीन ने कहा, 'मैं नहीं कर रहा हूं। आइ एम द प्रेसिडेन्ट, आइ एम आल्वेज द प्रेसिडेन्ट / मैं कहीं भी रहूं, उससे कोई फर्क पड़ता ही नहीं / तुम चलाओ अपनी सभा, मैं सभापति हूं। मेरा कोई दूसरा स्थान है ही नहीं। मैं कहां बैलूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।' आप भी अपने मन में तो यही धारणा लेकर चलते हैं कि सारे चांद-तारे आपको केंद्र मानकर घूम रहे हैं। इसलिए जब पहली दफा 432
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु वैज्ञानिकों ने खोजा कि पृथ्वी केंद्र नहीं है जगत का, तो मनुष्य के अहंकार को बड़ी चोट पहुंची। और आदमी ने बड़ी जिद्द की कि यह हो ही नहीं सकता। सूरज, चांद, तारे-सब पृथ्वी के चारों तरफ घूम रहे हैं / पृथ्वी बीच में है; सारे जगत का केंद्र है। लेकिन जब वैज्ञानिकों ने सिद्ध ही कर दिया कि पृथ्वी केन्द्र नहीं है, और बजाय इसके कि सूरज पृथ्वी के चारों तरफ घूम रहा है, ज्यादा सत्य यही है कि पृथ्वी सूरज के चारों तरफ घूम रही है—मनुष्य के अहंकार को भयंकर चोट पहुंची; क्योंकि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रह रहा है, सभी कुछ उसके चारों तरफ घूमना चाहिए। ___ बर्नार्ड शा कहता था कि वैज्ञानिक जरूर कहीं भूल कर रहे हैं / यह हो ही नहीं सकता कि पृथ्वी-और सूरज का चक्कर काटे ! सूरज ही पृथ्वी का चक्कर काट रहा है। और एक दफा वह बोल रहा था तो किसी ने खड़े होकर कहा कि बर्नार्ड शा, आप भी हद बेहूदी बात कर रहे हैं ! अब यह सिद्ध हो चुका है। अब इसको कहने की कोई जरूरत नहीं है / और आपके पास क्या प्रमाण है कि सूरज पृथ्वी का चक्कर काट रहा है? ___ बर्नार्ड शा ने कहा, 'प्रमाण की क्या जरूरत है ? जिस पृथ्वी पर बर्नार्ड शा रहता है, सूरज उसका चक्कर काटेगा ही। और अन्यथा होने का कोई उपाय नहीं है।' वह व्यंग कर रहा था। बर्नार्ड शा ने गहरे व्यंग किये हैं। आदमी अपने को हमेशा केंद्र में मानकर चलता है। भिक्षु वह है, जिसने अपने को केंद्र मानना छोड़ दिया। जिसने तोड़ दी यह धारणा कि मैं केंद्र हूं दुनिया का; सारी दुनिया मेरी ही प्रशंसा में या क्रोध में, या उपेक्षा में, या प्रेम में, या घृणा में, चल रही है। सारी दुनिया मेरी तरफ देखकर चल रही है; और जो कुछ भी किया जा रहा है, वह मेरे लिए किया जा रहा है। जिसने यह धारणा छोड़ दी, वही व्यक्ति अपमान सह सकेगा। और उसे सहना नहीं पड़ेगा। है, अपमान उसे छुएगा ही नहीं। वैसा व्यक्ति अस्पर्शित रह जायेगा / सहने का तो मतलब यह है कि छू गया, फिर संभाल लिया अपने को। नहीं, संभालने की भी जरूरत नहीं है—छुएगा ही नहीं। अपमान दूर ही गिर जायेगा। अपमान उस व्यक्ति के पास तक नहीं पहंच पायेगा। अपमान पहुंच सकता है, इसीलिए कि हम दूसरे से मान की अपेक्षा करते थे। न मान की अपेक्षा है, न अपमान की अपेक्षा है; न प्रशंसा की, न निंदा की। दूसरे का हम मूल्य नहीं मानते। दूसरा कुछ भी करे, वह उसकी अपनी अंतर्धारा और कर्मों की गति है; और मैं जो कर रहा है, वह मेरी अंतर्धारा और मेरे कर्मों की गति है। लेकिन यह बात अगर ठीक से खयाल में आ जाए तो इसका एक दूसरा महत परिणाम होगा। और वह यह होगा कि जब मैं गाली देना चाहूंगा, तब भी मैं समझूगा कि मैं गाली देना चाह रहा हूं, दूसरा कसूर नहीं कर रहा है। और जब मैं प्रशंसा करना चाहूंगा, तब भी मैं समझूगा कि मेरे भीतर प्रशंसा के गीत उठ रहे हैं, दूसरा सिर्फ निमित्त है / और तब दोष देना और प्रशंसा देना भी गिर जायेगा। और तब व्यक्ति अपनी जीवन-धारा के सीधे संपर्क में आ जाता है। तब वह दसरों के साथ उलझकर व्यर्थ भटकता नहीं। करना है, जो भी नहीं करना है, उसका अंतिम निर्णायक मैं हो जाता हूं। फिर जिससे मुझे सुख मिलता है, वह बढ़ता जाता है अपने आप। जिससे मुझे दुख मिलता है, वह छूटता जाता है। क्योंकि मेरे अतिरिक्त अब मेरा कोई मालिक न रहा। अब मैं ही नियंता हूं। तो जब महावीर कह रहे हैं कि जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, अयोग्य उपालंभों को, तिरस्कार या अपमान को शांतिपूर्वक सह लेता है...। इसमें एक उन्होंने बड़ी अच्छी शर्त लगायी है-'अयोग्य उपालंभों को कोई गाली दे रहा है, और वह गाली गलत है। लेकिन कभी 433
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 गाली सही भी हो सकती है। कोई आपको चोर कह रहा है, और आप चोर हैं / तो महावीर कहते हैं, अयोग्य उपालंभों को शांति से सह लेना, लेकिन योग्य -उपालंभों को सोचना, सिर्फ सह मत लेना / क्योंकि दूसरा एक मौका दे रहा है, जहां आप अपनी धारा की परख कर सकते हैं। कोई आपको चोर कह रहा है। लेकिन हम बड़ी अजीब हालत में हैं। अगर हमें ऐसी गालियां दे रहा हो जो हम पर लागू नहीं होती, तब तो हम उन्हें नजर अंदाज भी कर सकते हैं, लेकिन अगर कोई हमारे संबंध में सत्य ही कह रहा है, तो फिर नजर अंदाज करना बहुत मुश्किल हो जाता है। तो फिर उसे छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। __ सत्य जितनी चोट करता है, उतना असत्य नहीं करता / इसलिए जब आपसे कोई कहे, 'चोर', और आप बहुत बेचैन हो जायें तो उसका मतलब है, बेचैनी खबर दे रही है कि आप चोर हैं। अगर आप चोर न होते तो इतनी बेचैनी नहीं हो सकती थी; आप हंस भी सकते थे। आप कहते, कहीं कुछ भूल हो गयी होगी। जब कोई बिलकुल छू देता है घाव को, तभी आप बेचैन होते हैं। अगर कोई घाव को नहीं छूता तो बेचैन नहीं होते। ___ मैंने सुना है कि अब्राहिम लिंकन ने अपने एक विरोधी नेता के संबंध में आलोचना की। आलोचना कठोर थी। उस विरोधी नेता ने पत्र लिखा लिंकन को, और कहा कि आप मेरे संबंध में असत्य बोलना बंद कर दें, अन्यथा उचित न होगा। लिंकन ने जवाब दिया कि तुम फिर से सोच लो। अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे संबंध में असत्य बोलना बंद कर दूं, तो मुझे तुम्हारे संबंध में सत्य बोलना शुरू करना पड़ेगा। और दोनों में तुम चुन लो कि क्या तुम पसंद करोगे। वह आदमी भी घबड़ा गया कि बात तो ठीक ही थी। उसने खबर भेजी कि आप असत्य ही बोले चले जाएं / सत्य तो और खतरनाक बर्नार्ड शा ने अपने संस्मरणों में कहा है कि किसी के संबंध में असत्य कहने से ज्यादा चोट नहीं पहुंचाई जा सकती। ठीक-ठीक सत्य कह देने से जैसा घाव हो जाता है, वैसा असत्य कहने से कभी नहीं होता / असत्य बड़ा मधुर है / असत्य का लेप बड़ा प्रीतिकर है। सत्य की चोट भारी है। तो जब आप ज्यादा उद्विग्न होते हों किसी के अपमान से; बेचैन और विक्षिप्त हो जाते हों, तब शांत बैठकर सोचना, उसने जरूर सत्य को छू दिया है। तब भी उस पर विचार करने की जरूरत नहीं है, अपने भीतर ही अपने सत्य को परखने की कोशिश करना / और, अगर ऐसा सत्य आपके भीतर है, जो घाव की तरह है, जो छूने से पीड़ा देता है, तो दूसरे को दोष मत देना कि दूसरा छूकर आपको पीड़ा पहुंचाता है। अपने घावों को भरना, अपने घावों को मिटाना और उस जगह आ जाना, जहां कोई कुछ भी कहे, पर आपको स्पर्श न कर पाये। जीवन एक अंतर्सजन है; एक इनर क्रियेटिविटी है। लेकिन हम अवसर खो देते हैं। अगर कोई गाली देता है तो हमारा ध्यान गाली देनेवाले पर अटक जाता है। हम अपने को तो छोड़ ही देते हैं, भूल ही जाते हैं। वह क्या कह रहा है, वह कौन है; गलत है ! और गाली देनेवाला गलत होगा ही। हम उसकी भूल-चूक खोजने में लग जाते हैं। उस गाली के क्षण में हमें अपने भीतर खोजना चाहिए। अगर गाली असत्य है, तब तो कोई कारण ही नहीं है। अगर गाली सत्य है तो हमें अंतर्निरीक्षण और अंतचिंतन, और अंतर्मंथन में लग जाना चाहिए। और मैं क्या करूं कि मैं भीतर से बदल जाऊं, वही हमारा ध्यान होना चाहिए। जरूरी नहीं है कि आप बदल जाएं तो लोग गालियां देना बंद कर देंगे। जरूरी नहीं है कि आपके सब घाव मिट जायें तो लोग आपका अपमान न करेंगे। संभावना तो यह है कि जितना ही आप कम प्रभावित होंगे, उतने ही लोग ज्यादा चोट करेंगे। क्योंकि लोग मजा लेते हैं आपको प्रभावित करने में / अगर कोई गाली दे और आप प्रभावित न हों, तो और वजनदार गाली वह आपको देगा। क्योंकि आपने 434
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु उसको बड़ा दुखी कर दिया / उसने गाली दी और आप प्रभावित न हुए, इसका मतलब आप उसके नियंत्रण के बाहर हो गये। आप पर अब उसका कोई वश नहीं है, कोई ताकत नहीं है / आप ताकतवर हो गये; वह कमजोर पड़ गया-वह और वजनी गाली खोजेगा। जब कोई व्यक्ति सचमच ही साध होना शरू होता है, तो सारा समाज उसे सब तरफ से कसता है और सब तरफ से कोशिश करता है कि छोड़ो यह साधुता, आ जाओ उसी जगह जहां हम सब खड़े हैं। उस वक्त परेशानियां बढ़ जाती हैं। महावीर ने कहा है, साधु के परिश्रय, उसके कष्ट गहन हो जाते हैं। क्योंकि जिन-जिन के नियंत्रण के वह बाहर होने लगता है, वे-वे पूरी चेष्टा करते हैं नियंत्रण करने की। यहूदियों में एक पुरानी कहावत है कि जब भी कोई तीर्थंकर या पैगंबर पैदा होता है, कोई प्राफेट, तो पहले लोग उसको गालियां देते है; निंदा करते हैं। अगर वह निंदा और गालियों के पार हो जाये, जो कि बड़ा मुश्किल हो जाता है... / अगर वह भी निंदा और गालियों में पड़ जाए, तो लोग उसे भूल जाते हैं, क्योंकि वह उन्हीं जैसा हो गया। लेकिन अगर वह उनके पार चला जाये, तो फिर लोग उपेक्षा करते हैं। ___ ध्यान रहे, गाली से भी ज्यादा पीड़ा उपेक्षा में है। यह आपको पता नहीं है। उपेक्षा, इनडिफरेन्स... लोग ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे वह है ही नहीं। उसके पास से लोग ऐसे गुजर जाते हैं, जैसे उसे देखा ही नहीं। __ आप खयाल करें। अगर लोग आपकी उपेक्षा करें तो आप पसंद करेंगे कि लोग गाली दें, वही बेहतर है-कम से कम ध्यान तो देते हैं। इसीलिए लोग अपराध करने को उत्सुक हो जाते हैं / जो नेता नहीं बन सकते हैं, वे गुण्डे बन जाते हैं। गुण्डों और नेताओं में जरा भी फर्क नहीं है। गुण का कोई फर्क नहीं है, दिशाएं थोड़ी भिन्न हैं / अगर गुण्डों को ठीक मौका मिले तो वे नेता बन जाएं, और नेताओं को ठीक मौका न मिले तो वे गुण्डे बन जायें। गुण्डे और नेता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। नेता भी, दूसरे लोग ध्यान दें, इस बीमारी से पीड़ित है / जितने ज्यादा लोग ध्यान दें, उतना ही उसका अहंकार तृप्त होता है। और गुण्डा भी उसी बीमारी से पीड़ित है। लेकिन वह कोई रास्ता नहीं खोज पाता; और अगर कुछ न करे तो लोग उपेक्षा किये चले जाते हैं। तब फिर वह बुरा करना शुरू कर देता है। बुरे पर तो ध्यान देना ही पड़ेगा; उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक दफा भले की उपेक्षा संभव हो, बुरे की उपेक्षा संभव नहीं है / उस पर ध्यान देना ही पड़ेगा। अदालत, कोर्ट, मजिस्ट्रेट, पुलिस, अखबार-सब उसकी तरफ ध्यान देने को खड़े हो जायेंगे। वह तृप्त होता है। अपराधियों से पूछा गया है तो वे तृप्त होते हैं, जब उनका नाम छपता है अखबारों में / लोग उनकी चर्चा करते हैं, तब वे तृप्त होते हैं। तब उन्हें लगता है कि मैं भी कुछ हूं। उपेक्षा सबसे ज्यादा कठिन बात है। यहूदी कहते हैं कि पहले निंदा होती है पैगंबर की। और जब निंदा से वह नहीं पीड़ित होता और पार निकल जाता है, तो उपेक्षा करना लोग शुरू कर देते हैं कि ठीक है, कुछ खास नहीं। कोई चिंता की जरूरत नहीं है। और जब वह उपेक्षा को भी पार कर जाता है, जो कि बड़ी कठिन साधना है, परिश्रय है, तब लोग श्रद्धा करना शुरू करते हैं। तो उन्होंने जिनकी निंदा की है और जिनकी उपेक्षा की है. लंबे अर्से में, वे उनकी श्रद्धा कर पाते हैं। __महावीर कहते हैं, जो इन सारी बाहर से घटने वाली घटनाओं को ऐसे सह लेता है, जैसे मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है-शांतिपूर्वक, वही भिक्षु है। 'जो भयानक अट्टहास और प्रचंड गर्जनावाले स्थानों में भी निर्भय रहता है...।' 435
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 अभय पर महावीर का बहुत जोर है—फिअरलेसनेस पर / क्योंकि महावीर कहते हैं, जो अभय को नहीं साधेगा वह मृत्यु से भयभीत रहेगा। सारा भय मृत्यु का भय है। भयमात्र मूल में मृत्यु से जुड़ा है। जो भी चीज हमें मिटाती मालूम पड़ती है, उससे हम भयभीत हो जाते हैं / जो भी चीज हमें संभालती मालूम पड़ती है, उससे हम चिपट जाते हैं। उसे हम आग्रहपूर्वक अपने पास रखने लगते हैं। ___महावीर कहते हैं कि अभय का जन्म अत्यंत आवश्यक है / तो कुछ भी स्थिति हो-तूफान हो कि गर्जना हो, अंधकार हो कि एकांत हो-जहां मौत किसी भी क्षण घट सकती है, वहां भी जो शांत रहे, वहां भी जो मौन रहे, अडिग रहे, अकंप रहे... | क्यों? ___ यह अकंप रहने का इशारा इसलिए है कि अगर कोई ऐसे क्षण में अकंप रहे, तो उसका इंद्रियों से संबंध छूट जाता है और आत्मा से संबंध जुड़ जाता है। अगर कंपित हो जाए, तो आत्मा से संबंध छूट जाता है और इन्द्रियों से संबंध जुड़ जाता है। ___ इस सूत्र को ठीक से समझ लें / अकंपता आत्मा का स्वभाव है। इसलिए जब भी आप अकंप होते हैं, आत्मा से जुड़ जाते हैं। और कंपना इन्द्रियों का स्वभाव है। इसलिए जितना आप कंपते हैं, उतने ही इन्द्रियों से जुड़ जाते हैं। जितना भयभीत और कंपित व्यक्ति, उतना इन्द्रियों से जुड़ा हुआ होगा। जितना अकंप और निर्भय व्यक्ति, उतना आत्मा से जुड़ने लगेगा। ___ अकंपता, कृष्ण ने कहा है, ऐसी है, जैसे कि घर में हवा का एक झोंका भी न आता हो जब कोई दिया जलता है और उसकी लौ अकंप होती है। वैसी ही आत्मा है-अकंप। तो मौका खोजना चाहिए, जहां चारों तरफ भय हो, और आप भीतर शांत और अकंप रह सकें / कठिन होगा। शुरू-शुरू में भय आपको कंपा जायेगा / लेकिन उस कंपन को भी देखते रहें। ___ आप बैठे हैं निर्जन एकांत में और सिंह की गर्जना हो रही है-छाती धकधका जायेगी; खून तेजी से दौड़ेगा; श्वास ठहर जायेगी। लेकिन यह सब आप शांति से देखते रहें। आप सिंह की फिकर न करें। आपके चारों तरफ जो हो र चेतना के दीये के चारों तरफ, उसको आप शांति से देखते रहें। और एक ही खयाल रखें कि हृदय कितनी ही जोर से धड़के-धड़के, श्वास कितनी ही तेजी से चले–चले, रोएं खड़े हो जाएं–हो जाएं, पसीना बहने लगे-बहने लगे, लेकिन भीतर मैं मौन और शांत बना रहूंगा; भीतर मैं नहीं हिलूंगा। इस न हिलने को जो पकड़ता जाता है, धीरे-धीरे इन्द्रियों से उसकी चेतना धारा मुड़ती है और आत्मा के अनुभव में प्रविष्ट हो जाती है। ऐसी घड़ी आने लगे, तो ही मृत्यु में आप बिना कंपे रह सकेंगे, अन्यथा असंभव है। अन्यथा असंभव है। मैंने सुना है, एक झेन फकीर मरने के करीब था। तो उसने अपने शिष्यों से पूछा कि सुनो, मैं मरने के करीब हूं, मौत करीब है, और यह सूरज के अस्त होते-होते मैं शरीर छोड़ दूंगा; जरा मैं तुमसे एक सलाह चाहता हूं। कोई रास्ता बताओ मरने का कुछ ऐसा अनूठा, जैसे पहले कभी कोई न मरा हो / मरना तो है, लेकिन थोड़ा मरने का मजा ले लें। शिष्य तो छाती पीटकर रोने लगे। उनकी समझ में भी न आया कि गुरु पागल तो नहीं हो गया है मरने के पहले / एक शिष्य ने कहा कि आप खड़े हो जाएं, क्योंकि खड़े होकर कभी किसी का मरना नहीं सुना / गुरु ने कहा कि नहीं, मेरे गुरु ने कहा है कि एक दफा एक फकीर खड़े-खड़े मरा था। तो यह नहीं जंचेगा; यह हो चुका। ___ किसी दूसरे शिष्य ने सिर्फ मजाक में कहा कि आप शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाएं / ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि कोई सिर के बल खड़ा हुआ हो और मर गया हो। ___ फकीर ने कहा, यह बात जंचती है। वह हंसा और शीर्षासन लगाकर खड़ा हो गया। उसके पास के ही विहार में उसकी बड़ी बहन भी भिक्षुणी थी। उस तक खबर पहुंची कि उसका भाई मरने के करीब है और वह शीर्षासन लगाकर खड़ा हो गया है। वह आयी और 436
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु उसने जोर से उसे धक्का दिया, और कहा कि बंद करो यह शरारत, बूढ़े हो गये और शरारत नहीं छोड़ी ! सीधे मरो, जैसा मरा जाता है। तो फकीर हंसा और सीधा लेट गया, और मर गया-जैसे मौत एक खेल है। उसने कहा : ‘सीधे मरो ! और फकीर हंसा भी। उसने कहा, मेरी बड़ी बहन आ गयी, अब इसके आगे मेरा न चलेगा। तो अब मैं लेट जाता हूं और मर जाता हूं। ___ मौत को जो ऐसे हलके-से ले सकते होंगे, ये वे ही लोग हैं जिन्होंने इसके पहले अकंपता साधी हो / इसलिए महावीर कहते हैं, अभय...! 'सुख-दुख दोनों को जो समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है।' यह जरा समझ लेने जैसा है। सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता हो—जैसे सुख भी एक दुख है, दुख तो दुख है ही। आपने कभी ठीक से सुख को देखा हो तो आपको पता चल जाये कि वह भी दुख है। सुख और दुख दोनों उत्तेजित स्थितियां हैं। आप सुख में भी उत्तेजित हो जाते हैं। कभी-कभी कुछ लोग सुख में मर तक जाते हैं। दुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं। सुख और दुख दोनों का स्वभाव ऐसा है कि आप कंपित हो जाते हैं। सब डांवांडोल हो जाता है, भीतर तूफान हो जाता है। ___ एक तूफान को आप अच्छा कहते हैं; क्योंकि आप मानते हैं कि वह सुख है। एक तूफान को बुरा कहते हैं, क्योंकि धारणा है कि वह दुख है। यह सिर्फ धारणाओं की बात है, व्याख्या की बात है। लेकिन दोनों स्थितियों में अगर हम वैज्ञानिक से पूछे कि शरीर की जांच करे, तो वह कहेगा कि शरीर दोनों स्थितियों में अस्त-व्यस्त है; उत्तेजित है। कभी-कभी सुख ऐसा भी हो सकता है कि हृदय की धड़कन ही बंद हो जाये, आप खत्म ही हो जायें-इतना बड़ा स है। और दुख तो हम जानते हैं। लेकिन सुख को हमने ठीक से कभी नहीं परखा है कि उससे भी हमारा स्वास्थ्य खो जाता है; शांति नष्ट हो जाती है; भीतर की समता डिग जाती है; तराजू चेतना का डांवांडोल हो जाता है। महावीर कहते हैं, आनंद है अनुत्तेजित चित्त की अवस्था। ___ सुख भी उत्तेजना है, दुख भी उत्तेजना है- और सुख और दुख इसलिए हमारी व्याख्याएं है। वही चीज दुख हो सकती है और वही चीज सुख भी हो सकती है, जरा परिस्थिति बदलने की जरूरत है। ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसके साथी पंडित रामशरण दास दोनों एक साझेदारी में व्यापार कर रहे थे। और उन्होंने बहुत-से कोट पतलुन खरीद लिये-बड़े सस्ते मिल रहे थे। लेकिन, फिर बेचना मश्किल हो गया: सारा पैसा उलझ गया। अब वे बडे घबड़ाये / नया-नया धंधा किया था और फंस गये। अब दोनों चिंतित और परेशान थे, और सोच रहे थे, क्या करें-मुफ्त बांट दें या क्या करें इनका / क्योंकि इनको रखने का किराया और बढ़ता जाता था / कोई खरीददार नहीं था / और सोमवार की संध्या की बात है, एक खरीददार आ गया। और वह इतना आंदोलित हो गया उन सबको देखकर-पैंट-पतलून को, जो बिक नहीं रहे थे कि उसने कहा, 'मैं सब खरीदता हूं, और मुंह-मांगा दाम देता हूं जो तुम कहो; चुकता लाट खरीदता हूं ! लेकिन एक शर्त है कि तीन दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी-आज सोमवार है; मंगल, बुद्ध, बृहस्पति—बृहस्पति की शाम पांच बजे तक / मुझे अपने परिवार से पूछना पड़ेगा, क्योंकि सभी का साझेदारी का धंधा है। तो मैं तार करूंगा। मेरे परिवार के लोग बाहर हैं। तीन दिन बाद, ठीक पांच बजे तक अगर मेरा इनकार का तार आ जाए, तो सौदा कैंसिल; अगर इनकार का तार न आये, तो सौदा पक्का / जो तुम्हारा दाम है, हिसाब तैयार रखो, मैं दो-चार दिन में सब सामान उठवा लूंगा।' 437
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 फांसी लग गयी। अब वे दोनों बैठे हैं, और एक-एक दिन गुजरने लगा। तीसरा दिन भी आ गया। अब चार बज गये। अभी तक कुछ नहीं हुआ, तो उनकी सांस अटकी है कि कहीं ऐसा हो कि पांच के पहले टेलिग्रामवाला कैन्सिलेशन का तार लिये द्वार पर दस्तक दे दे। फिर साढ़े चार बज गये। फिर पौने पांच...! अब तो जीना बिलकुल मुश्किल हुआ जा रहा है। और ठीक पौने पांच बजे तारवाले ने दस्तक दी। उसने कहा, 'टेलिग्राम !' 'दोनों की सांस वहीं रुक गयी। अब कोई से उठते न बने / आखिर ताकत लगाकर मुल्ला नसरुद्दीन उठा; बाहर गया। पैर चलते नहीं, हाथ कंप रहे हैं; पसीना छूट रहा है। पण्डित जी तो आंख बंद किये वहीं राम-स्मरण करते रहे। मुल्ला ने जाकर तार खोला, हाथ कंप रहे हैं, और जोर से खुशी से चीखा, 'पंडित रामशरण दास ! योर फादर हैज डाइड-ए गड न्यूज।' बाप का मरना भी किसी क्षण में गुड न्यूज हो सकता है, एक सुखद समाचार-कि पिता चल बसे! दोनों प्रसन्न हो गये। वह जो सामान बिकना है...। क्या दुख है और क्या सुख, निर्भर करता है परिस्थिति पर, व्याख्या पर | जो सुख है, वह दुख जैसा मालूम हो सकता है / जो दुख है, वह सुखजैसा मालूम हो सकता है। किसी से प्रेम है; और गले लगे खड़े हैं ! कितनी देर सुख रहेगा यह गले लगना? अगर वह छोड़ने से इनकार ही कर दे, तो चार-पांच मिनट में आप अपनी गर्दन हिलाकर बाहर होना चाहेंगे। लेकिन हाथ जंजीरों की तरह जकड़ जायें, तो जो बड़ा सुख मालूम हो रहा था—कितना फूल की तरह कोमल था, वह पत्थर की तरह दुख हो जायेगा। यही दुख हो गया है परिवार-परिवार में कि जो आलिंगन था किसी क्षण, वह अब जंजीर हो गयी है। अब उससे छटने का उपाय नहीं है। महावीर कहते हैं, सुख भी दुख का ही एक रूप है। और यह बड़ी वैज्ञानिक बात है। जैसे हम कहते हैं कि गर्मी और सर्दी दो चीजें नहीं हैं / हमको दो चीजें मालूम पड़ती हैं। वैज्ञानिक कहता है, वे एक ही तापमान की दो डिग्रियां हैं। एक ही चीज हैं, गर्मी और सर्दी / अंधेरा और प्रकाश एक ही चीज हैं; एक ही चीज की दो डिग्रियां हैं / जो आपको गर्मी मालूम पड़ती है, वह सर्दी मालूम पड़ सकती है; जो सर्दी मालूम है, वह गर्मी मालूम पड़ सकती है। ये निर्भर करता है कि किस हालत में आप हैं। अगर आप एयर-कंडीशंड कमरे से बाहर आयें, तो आपको गर्मी मालूम पड़ती है / जो वहां खड़ा है, उसको गर्मी का कोई पता नहीं है। आप धूप से आ रहे हैं एयर-कंडिशंड कमरे में, तो आपको बड़ा शीतल मालूम पड़ता है। जो वहां बैठा है, उसे कुछ पता नहीं कि शीतलता है / सापेक्ष है / सुख-दुख भी सापेक्ष घटनाएं है भीतर। महावीर कहते हैं, जो दोनों को समभाव से सहन कर लेता है; जो न उत्तेजित होता दुख में और न उत्तेजित होता सुख में; जो दोनों का समभावी साक्षी हो जाता है, वही भिक्षु है। 'जो हाथ, पांव, वाणी और इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म में रत रहता है, जो अपने आपको भलीभांति समाधिस्थ करता है, जो सूत्रार्थ को पूरा जाननेवाला है, वही भिक्षु है।' दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। निश्चित ही जैसे-जैसे साक्षी-भाव बढ़ता है जीवन में, संयम बढ़ता है, तब हाथ भी अकारण नहीं हिलता, तब आंख भी अकारण नहीं उठती, तब जीवन का रंच-रंच विवेकपूर्ण हो जाता है। तब आप वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं। तब आप वही करते हैं, जो करना चाहते हैं। 438
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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु बुद्ध के पास एक आदमी बैठा है सामने और बैठकर अपने पैर का अंगूठा हिला रहा है। बुद्ध बोलना बंद कर देते हैं और कहते हैं, 'मित्र, यह अंगूठा क्यों हिलता है ?' उस आदमी का अंगूठा, जैसे ही बुद्ध यह कहते हैं, रुक जाता है। रोकने की जरूरत नहीं पड़ती, होश आ जाता है; उसे खुद ही खयाल आ जाता है / वह कहता है, 'छोड़िये भी, आप भी कहां की बात में पड़ गये / यह तो यों ही हिलता था, मुझे कुछ पता ही नहीं था।' ___ बुद्ध ने कहा, 'तेरा अंगूठा, और तुझे पता न हो और हिलता रहे, तो तू बड़ा खतरनाक आदमी है। तू किसी की गर्दन भी काट सकता है, तेरा हाथ हिल जाए / तेरा अंगूठा और तुझे पता नहीं है, और हिलता है, तो तू मालिक नहीं है। होश संभाल।' तो महावीर कहते हैं : हाथ, पांव, वाणी, इन्द्रियां जिसकी सभी संयमित हो गयी हैं, जिसके विवेक ने सभी चीजों की मालकियत आत्मा को दे दी है; और अब कोई भी इन्द्रिय अपने ढंग से, अपने-आप कहीं नहीं जा सकती; आपकी बिना मर्जी के रोआं भी नहीं हिल सकता...। जो सदा अध्यात्म में रत है; जिसका जीवन, जिसकी चेतना, जिसकी ऊर्जा प्रतिपल एक ही बात की खोज कर रही है कि 'मैं कौन हूं?' जो हर अनुभव से अनुभोक्ता को पकड़ने की चेष्टा में लगा है। जो हर घड़ी बाहर से भीतर की तरफ मुड़ रहा है / जो हर अवसर को बदल लेता है और चेष्टा करता है कि हर अवसर में मुझे मेरा स्मरण सजग हो जाए / जो हर स्थिति में आत्मस्मृति को जगाने की कोशिश में लगा है। जो भीतर के दीये को उकसाता रहता है, ताकि वहां ज्योति मद्धिम न हो जाए, और बाहर का कितना भी अंधेरा हो, भीतर के प्रकाश को आच्छादित न कर ले। ऐसे व्यक्ति को महावीर भिक्षु कहते हैं। 'जो अपने को सब भांति समाधिस्थ करता है, सूत्रार्थ को जाननेवाला है, वही भिक्षु है।' समाधि शब्द बड़ा अदभुत है। समाधान शब्द से हम परिचित हैं। समाधि समाधान का अंतिम क्षण है / जो व्यक्ति सब भांति अपना समाधान खोज लिया है। जिसके जीवन में अब कोई समस्या नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है; जो हर तरह से समाधिस्थ है। यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम सब पूछते चले जाते हैं। जितना हम पूछते हैं, उतने उत्तर मिल जाते हैं। लेकिन हर उत्तर और नये प्रश्न खड़े कर देता है / हजारों साल से आदमी पूछ रहा है। किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। हर प्रश्न कुछ उत्तर लाता है, लेकिन फिर उत्तर से नये प्रश्न खड़े हो जाते हैं। __ कोई पूछता है, किसने बनाया जगत? कोई कहता है, ईश्वर ने बनाया। अब फिर सवाल ईश्वर का हो जाता है कि ईश्वर कौन है ? क्यों बनाया? और इतने दिन तक क्या करता रहा, जब तक नहीं बनाया? और ऐसा जगत किसलिए बनाया, जहां दुख ही दुख है ? ___ हजार प्रश्न खड़े होते हैं एक उत्तर से / दर्शन शास्त्र, फिलासाफी-प्रश्न, उत्तर और उत्तर से हजार प्रश्न-इस तरह बढ़ता जाता है वृक्ष। धर्म समाधि की खोज है, उत्तर की नहीं / तो धर्म की यात्रा बिलकुल अलग है। प्रश्न का उत्तर नहीं खोजना है, बल्कि प्रश्न गिर जाए, ऐसी चित्त की अवस्था खोजनी है। एक प्रश्न उठता है 'किसने जगत बनाया', अब इसके उत्तर की खोज में आप निकल जायें तो अनंत जीवन आप चलते रहेंगे। लेकिन धार्मिक व्यक्ति, जिसको महावीर भिक्षु कह रहे हैं—संन्यासी, वह यह नहीं पूछता कि किसने जगत बनाया? वह कहता है, यह निष्प्रयोजन है। किसी ने बनाया हो, न बनाया हो—मुझे क्या लेना-देना है ! असली सवाल यह नहीं है कि जगत किसने बनाया। असली सवाल यह है कि मैं ऐसी अवस्था में कैसे पहुंच जाऊं, जहां कोई प्रश्न न हो; जहां मेरा चित्त निस्तरंग हो जाए; जहां कोई समस्या न हो। 439
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 यह रास्ता बिलकुल अलग है। अगर प्रश्न छोड़ने हैं तो ध्यान करना पड़ेगा। अगर प्रश्नों के उत्तर खोजने हैं तो विचार करना पड़ेगा। विचार से उत्तर मिलेंगे; उत्तरों से नये प्रश्न मिलेंगे, और जाल फैलता चला जायेगा। ___ अगर प्रश्न छोड़ने हैं तो ध्यान करना पड़ेगा। एक प्रश्न उठता है, उसके उत्तर की खोज में मत जाएं; उस प्रश्न को देखते हुए खड़े रहें; और तब तक खड़े रहें भीतर, जब तक कि वह प्रश्न तिरोहित न हो जाये; आंख से ओझल न हो जाए; परदे से हट न जाए। हर चीज हट जाती है, आप थोड़ी हिम्मत से लगे रहें। ___सोचें, आपको पता होगा कि आपके पिता का चेहरा कैसा है। जब तक आपने गौर नहीं किया, तब तक पता है। आंख बंद करें, हलकी-सी छवि आयेगी। फिर गौर से देखें, आप बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे-पिता का चेहरा अस्त-व्यस्त होने लगा। अपने ही पिता का चेहरा, और पकड़ में ठीक से नहीं आता। और गौर से देखें...रेखाएं घुमिल हो गयीं, चेहरा हटने लगा। और गौर से देखें...देखते चले जाएं। थोड़ी देर में आप पायेंगे, परदा खाली हो गया, वहां पिता का कोई चेहरा नहीं है। चित्त से किसी भी चीज को विसर्जित करना हो-गौर से देखना कला है। टु बी अटेन्टिव-पूरा ध्यान उसी पर हो जाए, वह नष्ट हो जायेगी। __ ध्यान अग्नि है / वह किसी भी विचार को जला देती है। आप करें और देखें। किसी भी विचार को सोचें मत, सिर्फ देखें / खड़े हो जाएं और देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें-थोड़ी देर में आप पायेंगे, वह तिरोहित हो गया। वहां खाली जगह रह गयी। वह खाली जगह समाधान है। और जब कोई व्यक्ति ऐसी कला से चलते, चलते, चलते उस जगह पहुंच ता है, जहां प्रश्न उठते ही नहीं, खाली जगह रह जाती है, वह समाधिस्थ है। __ इस समाधि में आत्मा का अनुभव होता है, क्योंकि इस समाधि में मन नहीं रह जाता। मन है विचार, जब विचार खो गये; मन है प्रश्न, जब प्रश्न खो गये-तब कोई मन नहीं बचता-अ-मन-नो-माइण्ड। कबीर ने कहा है : अ-मनी स्थिति आ गयी, अब अमत झरता ही रहता है। जब मन नहीं रह जाता, अ-मनी स्थिति आ जाती है-उसको महावीर कहते हैं, 'समाधि।' __ इस समाधि को उपलब्ध हो जाना जीवन का परम लक्ष्य है / इस समाधि को उपलब्ध होकर ही आपके भीतर परमात्मा का फूल खिल जाता है। और जब तक वह फल न खिल जाए, तब तक जीवन से दुख, उत्तेजना, बेचैनी, तकलीफ, चिंता, संताप उपाय नहीं है। उस फूल के खिलने के लिए ही यह सारा आयोजन है। तो महावीर कहते हैं : वही है भिक्षु, जो शांत है इतना कि बाहर से उसका कोई संबंध न रहा / जो अभय है इतना कि बाहर से कोई भी चीज उसे कंपित नहीं कर सकती। और जो समाधिस्थ है; जिसके भीतर भी प्रश्न उठने बंद हो गये, वही भिक्षु है। पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें और फिर जायें...! 440