________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु वैज्ञानिकों ने खोजा कि पृथ्वी केंद्र नहीं है जगत का, तो मनुष्य के अहंकार को बड़ी चोट पहुंची। और आदमी ने बड़ी जिद्द की कि यह हो ही नहीं सकता। सूरज, चांद, तारे-सब पृथ्वी के चारों तरफ घूम रहे हैं / पृथ्वी बीच में है; सारे जगत का केंद्र है। लेकिन जब वैज्ञानिकों ने सिद्ध ही कर दिया कि पृथ्वी केन्द्र नहीं है, और बजाय इसके कि सूरज पृथ्वी के चारों तरफ घूम रहा है, ज्यादा सत्य यही है कि पृथ्वी सूरज के चारों तरफ घूम रही है—मनुष्य के अहंकार को भयंकर चोट पहुंची; क्योंकि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रह रहा है, सभी कुछ उसके चारों तरफ घूमना चाहिए। ___ बर्नार्ड शा कहता था कि वैज्ञानिक जरूर कहीं भूल कर रहे हैं / यह हो ही नहीं सकता कि पृथ्वी-और सूरज का चक्कर काटे ! सूरज ही पृथ्वी का चक्कर काट रहा है। और एक दफा वह बोल रहा था तो किसी ने खड़े होकर कहा कि बर्नार्ड शा, आप भी हद बेहूदी बात कर रहे हैं ! अब यह सिद्ध हो चुका है। अब इसको कहने की कोई जरूरत नहीं है / और आपके पास क्या प्रमाण है कि सूरज पृथ्वी का चक्कर काट रहा है? ___ बर्नार्ड शा ने कहा, 'प्रमाण की क्या जरूरत है ? जिस पृथ्वी पर बर्नार्ड शा रहता है, सूरज उसका चक्कर काटेगा ही। और अन्यथा होने का कोई उपाय नहीं है।' वह व्यंग कर रहा था। बर्नार्ड शा ने गहरे व्यंग किये हैं। आदमी अपने को हमेशा केंद्र में मानकर चलता है। भिक्षु वह है, जिसने अपने को केंद्र मानना छोड़ दिया। जिसने तोड़ दी यह धारणा कि मैं केंद्र हूं दुनिया का; सारी दुनिया मेरी ही प्रशंसा में या क्रोध में, या उपेक्षा में, या प्रेम में, या घृणा में, चल रही है। सारी दुनिया मेरी तरफ देखकर चल रही है; और जो कुछ भी किया जा रहा है, वह मेरे लिए किया जा रहा है। जिसने यह धारणा छोड़ दी, वही व्यक्ति अपमान सह सकेगा। और उसे सहना नहीं पड़ेगा। है, अपमान उसे छुएगा ही नहीं। वैसा व्यक्ति अस्पर्शित रह जायेगा / सहने का तो मतलब यह है कि छू गया, फिर संभाल लिया अपने को। नहीं, संभालने की भी जरूरत नहीं है—छुएगा ही नहीं। अपमान दूर ही गिर जायेगा। अपमान उस व्यक्ति के पास तक नहीं पहंच पायेगा। अपमान पहुंच सकता है, इसीलिए कि हम दूसरे से मान की अपेक्षा करते थे। न मान की अपेक्षा है, न अपमान की अपेक्षा है; न प्रशंसा की, न निंदा की। दूसरे का हम मूल्य नहीं मानते। दूसरा कुछ भी करे, वह उसकी अपनी अंतर्धारा और कर्मों की गति है; और मैं जो कर रहा है, वह मेरी अंतर्धारा और मेरे कर्मों की गति है। लेकिन यह बात अगर ठीक से खयाल में आ जाए तो इसका एक दूसरा महत परिणाम होगा। और वह यह होगा कि जब मैं गाली देना चाहूंगा, तब भी मैं समझूगा कि मैं गाली देना चाह रहा हूं, दूसरा कसूर नहीं कर रहा है। और जब मैं प्रशंसा करना चाहूंगा, तब भी मैं समझूगा कि मेरे भीतर प्रशंसा के गीत उठ रहे हैं, दूसरा सिर्फ निमित्त है / और तब दोष देना और प्रशंसा देना भी गिर जायेगा। और तब व्यक्ति अपनी जीवन-धारा के सीधे संपर्क में आ जाता है। तब वह दसरों के साथ उलझकर व्यर्थ भटकता नहीं। करना है, जो भी नहीं करना है, उसका अंतिम निर्णायक मैं हो जाता हूं। फिर जिससे मुझे सुख मिलता है, वह बढ़ता जाता है अपने आप। जिससे मुझे दुख मिलता है, वह छूटता जाता है। क्योंकि मेरे अतिरिक्त अब मेरा कोई मालिक न रहा। अब मैं ही नियंता हूं। तो जब महावीर कह रहे हैं कि जो कान में कांटे के समान चुभनेवाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, अयोग्य उपालंभों को, तिरस्कार या अपमान को शांतिपूर्वक सह लेता है...। इसमें एक उन्होंने बड़ी अच्छी शर्त लगायी है-'अयोग्य उपालंभों को कोई गाली दे रहा है, और वह गाली गलत है। लेकिन कभी 433 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org