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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 कछ लोग हैं जो कामवासना के लिए ही जीते रहते हैं: जैसे जीवन का एक ही लक्ष्य है कि शरीर किसी भांति कामवासना का सुख ले ले; क्षणभर को डूब जाये बेहोशी में / फिर उनका चित्त चौबीस घण्टे वही सोचता रहता है / फिर उनकी कविता हो, कि उनका उपन्यास हो, कि उनकी फिल्म हो, कि उनका संगीत हो, नृत्य हो, सभी कामवासना से आपूर होता है। __ अगर हम आधुनिक जीवन को ठीक से देखें, और आधुनिक मन का ठीक विश्लेषण करें, तो ऐसा लगता है जैसे आदमी जमीन पर सिर्फ इसलिए है, उसका शरीर सिर्फ इसलिए है कि किसी तरह कामोत्तेजना में उसको नष्ट कर लिया जाए। और यह पागलपन इतनी दूर तक प्रवेश कर जाता है कि जिन चीजों से कामवासना का कोई भी संबंध नहीं है, उन्हें भी हम कामवासना से ही जोड़कर चलते हैं। अखबार देखें / विज्ञापन देखें / जिनका कोई संबंध कामवासना से नहीं है, उन चीजों को भी बेचना हो तो उनको काम-प्रतीकों के साथ जोड़ना पड़ता है। कार का क्या संबंध है कामवासना से? लेकिन उसके पास एक सुंदर, नग्न स्त्री को खड़ा कर दिया जाए तो कार का विज्ञापन ज्यादा प्रभावकारी हो जाता है। लोग कार को नहीं खरीदते, जैसे उस नग्न स्त्री को कार के पास खडा हआखरीद लेते हैं। सिगरेट बेचनी हो, कि कुछ भी बेचना हो—सारी चिंतना इस बात की है कि मनुष्य का मन शायद कामवासना से ही प्रभावित होता है, और किसी चीज से नहीं। तो जिस चीज को हम सेक्स से जोड़ दें, वह बिक जाती है। ___ करीब-करीब नब्बे प्रतिशत लोग काम भोगने में नष्ट हो जाते हैं। कुछ दस प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं, जो काम से लड़ने में नष्ट होते हैं। उनका पूरा जीवन भोगी से ठीक विपरीत है। वे चौबीस घण्टे लड़ रहे हैं कि कामवासना मन को न पकड़ ले ही कामवासना के इर्द-गिर्द घूमकर मिट जाते हैं; और दोनों की नजर कामवासना पर ही लगी रहती है। ऐसे ही हमारी सारी इंद्रियां हैं। किसी को कान का सुख है, तो वह संगीत सुन-सुनकर जीवन को व्यतीत कर रहा है। किसी को स्पर्श का सुख है, किसी को गंध का सुख है-~-लेकिन हम कहीं न कहीं किसी इंद्रिय के पास अपने को ठहरा लेते हैं। और जो इंद्रिय हमारे जीवन में प्रमुख बन जाती है, वही हमारी आत्मा की हत्या का कारण हो जाती है। शरीर के भीतर जो छिपा है, उसकी कोई भी इंद्रिय नहीं / शरीर में इंद्रियां हैं / और इंद्रियां उपयोगी हो सकती हैं, लेकिन उसी के लिए, जो बुद्धिमान है। इंद्रियां सेवक हो सकती हैं, सेवक होनी चाहिए यही उनका प्रयोजन है। यह शरीर भी सीढ़ी बन सकता है उस तक पहंचने की जो अशरीरी है। और जब तक कोई व्यक्ति इस शरीर की सीढ़ी नहीं बना लेता, साधन नहीं बना लेता, इसके पार जाने का, इससे ऊपर उठने का, तब तक वह मूढ़ है, अज्ञानी है।। __ शरीर में मनुष्य है, लेकिन शरीर ही नहीं है; शरीर के भीतर है, निवासी है, लेकिन शरीर से भिन्न और अलग है। उस भिन्नता का अनुभव जब तक न हो, तब तक आनंद का कोई भी पता न चलेगा। सुख का छोटा सा अनुभव हो सकता है इंद्रियों से, लेकिन जितना सुख आप खरीदेंगे, उतना ही दुख भी आप खरीदते चले जायेंगे। हर इंद्रिय के साथ सुख-दुख संयुक्त मात्रा में जुड़े हैं / दुख कीमत है जो चुकानी पड़ती है इंद्रिय के सुख पाने के लिए। लेकिन हम दुख चुकाने को राजी हैं, और इसी आशा में जीते हैं कि ये जो बबूले की तरह थोडे-से सख मिलते हैं. ये कभी ठहर जायेंगे। पानी के बबले हैं.छ भी नहीं पाते और मिट जाते हैं। और परा जीवन. हमारा अनभव कहता है कि कोई सुख ठहरता नहीं, फिर भी न ठहरने वाले सुख के लिए हम संघर्षरत रहते हैं। और इसी संघर्ष में मृत्यु हमें पकड़ लेती है-नष्ट हो जाते हैं। ___ धर्म की शुरुआत उस व्यक्ति की चेतना में होती है, जिसे यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि जिनका मैं पीछा कर रहा हूं, वे पानी के बबूले हैं; उन्हें पा भी लूं तो कुछ मिलता नहीं है; और पाकर बबूला टूट जाता है, और दुख लाता है; उन्हें न पा सकू तो पीड़ा होती है। __ इन बबूलों को जब कोई देखता रहता है तटस्थ भाव से और बह जाने देता है; न उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है, न उनके फूट 424 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340048
Book TitleMahavir Vani Lecture 48 Asparshit Akamp hai Bhikshu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size76 MB
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