________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु उसने जोर से उसे धक्का दिया, और कहा कि बंद करो यह शरारत, बूढ़े हो गये और शरारत नहीं छोड़ी ! सीधे मरो, जैसा मरा जाता है। तो फकीर हंसा और सीधा लेट गया, और मर गया-जैसे मौत एक खेल है। उसने कहा : ‘सीधे मरो ! और फकीर हंसा भी। उसने कहा, मेरी बड़ी बहन आ गयी, अब इसके आगे मेरा न चलेगा। तो अब मैं लेट जाता हूं और मर जाता हूं। ___ मौत को जो ऐसे हलके-से ले सकते होंगे, ये वे ही लोग हैं जिन्होंने इसके पहले अकंपता साधी हो / इसलिए महावीर कहते हैं, अभय...! 'सुख-दुख दोनों को जो समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है।' यह जरा समझ लेने जैसा है। सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता हो—जैसे सुख भी एक दुख है, दुख तो दुख है ही। आपने कभी ठीक से सुख को देखा हो तो आपको पता चल जाये कि वह भी दुख है। सुख और दुख दोनों उत्तेजित स्थितियां हैं। आप सुख में भी उत्तेजित हो जाते हैं। कभी-कभी कुछ लोग सुख में मर तक जाते हैं। दुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं। सुख और दुख दोनों का स्वभाव ऐसा है कि आप कंपित हो जाते हैं। सब डांवांडोल हो जाता है, भीतर तूफान हो जाता है। ___ एक तूफान को आप अच्छा कहते हैं; क्योंकि आप मानते हैं कि वह सुख है। एक तूफान को बुरा कहते हैं, क्योंकि धारणा है कि वह दुख है। यह सिर्फ धारणाओं की बात है, व्याख्या की बात है। लेकिन दोनों स्थितियों में अगर हम वैज्ञानिक से पूछे कि शरीर की जांच करे, तो वह कहेगा कि शरीर दोनों स्थितियों में अस्त-व्यस्त है; उत्तेजित है। कभी-कभी सुख ऐसा भी हो सकता है कि हृदय की धड़कन ही बंद हो जाये, आप खत्म ही हो जायें-इतना बड़ा स है। और दुख तो हम जानते हैं। लेकिन सुख को हमने ठीक से कभी नहीं परखा है कि उससे भी हमारा स्वास्थ्य खो जाता है; शांति नष्ट हो जाती है; भीतर की समता डिग जाती है; तराजू चेतना का डांवांडोल हो जाता है। महावीर कहते हैं, आनंद है अनुत्तेजित चित्त की अवस्था। ___ सुख भी उत्तेजना है, दुख भी उत्तेजना है- और सुख और दुख इसलिए हमारी व्याख्याएं है। वही चीज दुख हो सकती है और वही चीज सुख भी हो सकती है, जरा परिस्थिति बदलने की जरूरत है। ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसके साथी पंडित रामशरण दास दोनों एक साझेदारी में व्यापार कर रहे थे। और उन्होंने बहुत-से कोट पतलुन खरीद लिये-बड़े सस्ते मिल रहे थे। लेकिन, फिर बेचना मश्किल हो गया: सारा पैसा उलझ गया। अब वे बडे घबड़ाये / नया-नया धंधा किया था और फंस गये। अब दोनों चिंतित और परेशान थे, और सोच रहे थे, क्या करें-मुफ्त बांट दें या क्या करें इनका / क्योंकि इनको रखने का किराया और बढ़ता जाता था / कोई खरीददार नहीं था / और सोमवार की संध्या की बात है, एक खरीददार आ गया। और वह इतना आंदोलित हो गया उन सबको देखकर-पैंट-पतलून को, जो बिक नहीं रहे थे कि उसने कहा, 'मैं सब खरीदता हूं, और मुंह-मांगा दाम देता हूं जो तुम कहो; चुकता लाट खरीदता हूं ! लेकिन एक शर्त है कि तीन दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी-आज सोमवार है; मंगल, बुद्ध, बृहस्पति—बृहस्पति की शाम पांच बजे तक / मुझे अपने परिवार से पूछना पड़ेगा, क्योंकि सभी का साझेदारी का धंधा है। तो मैं तार करूंगा। मेरे परिवार के लोग बाहर हैं। तीन दिन बाद, ठीक पांच बजे तक अगर मेरा इनकार का तार आ जाए, तो सौदा कैंसिल; अगर इनकार का तार न आये, तो सौदा पक्का / जो तुम्हारा दाम है, हिसाब तैयार रखो, मैं दो-चार दिन में सब सामान उठवा लूंगा।' 437 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org