Book Title: Mahavir Vani Lecture 29 Aliptata aur Anasakti ke Bhav Bodh
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध दूसरा प्रवचन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद-सूत्र : 2 वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम! मा पमायए।। तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुर पारं गमितए, समयं गोयम! मा पमायए।। जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेहबंधनों से रहित हो जा। अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।। तू इस प्रपंचमय विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका है। भला किनारे पहुंचकर तू क्यों अटक रहा है? उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर / हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। 22 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले कुछ प्रश्न। __ एक मित्र ने पूछा है-कल आपने कहा, प्रश्न के उत्तर देने के दो तरीके हैं। एक स्मृति के संग्रह से, दूसरा स्वयं की चेतना से। जब आप उत्तर देते हैं, तब आपका उत्तर चेतना से होता है, या स्मृति से? क्योंकि आप अब तक हजारों किताबें पढ़ चुके हैं और आपकी स्मरण शक्ति भी फोटोग्राफिक है। यदि आपकी चेतना ही उत्तर देने में समर्थ है, तो इतनी विविध किताबें पढ़ने का क्या प्रयोजन है? दो तीन बातें समझनी चाहिए। एक, आपके प्रश्न पर निर्भर होता है कि उत्तर चेतना से दिया जा सकता है या स्मृति से। यदि आपका प्रश्न बाह्य जगत से संबंधित है तो चेतना से उत्तर देने का कोई भी उपाय नहीं है। न महावीर दे सकते हैं, न बुद्ध दे सकते हैं, न कोई और दे सकता है। चेतना से तो उत्तर चेतना के संबंध में पूछे गये प्रश्न का ही हो सकता है। अगर महावीर से जाकर पूछे कि कार पंक्चर हो जाती हो तो कैसे ठीक करनी है, तो इसका उत्तर चेतना से नहीं आ सकता / महावीर की स्मृति में हो तो ही आ सकता है। बाह्य जगत को जानने का सूचनाओं के अतिरिक्त कोई भी उपाय नहीं है। और ठीक ऐसा ही अंतर्जगत को जानने का सूचनाओं के द्वारा कोई उपाय नहीं है। बाहर का जगत जाना जाता है इन्फर्मेशन से, सूचनाओं से, और भीतर का जगत नहीं जाना जाता है सूचनाओं से। इसलिए अगर कोई व्यक्ति बाहरी तथ्यों के संबंध में चेतना से उत्तर दे तो वे वैसे ही गलत होंगे जैसे कोई चेतना के संबंध में शास्त्रों से पायी गयी सूचनाओं से उत्तर दे। वे दोनों ही गलत होंगे। ___ हम दोनों तरह की भूल करने में कुशल हैं / हमने सोचा कि चूंकि महावीर या बुद्ध, कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हो चुके हैं, इसलिए अब बाहर के जगत के संबंध में भी उनसे जो हम पूछेगे, वह भी विज्ञान होने वाला है। वहां हमसे भूल हुई, इसलिए हम विज्ञान को पैदा नहीं कर पाये। ___ विज्ञान पैदा करना है तो भीतर पूछने का कोई उपाय नहीं है, बाहर के जगत से ही पूछना पड़ेगा। अगर पदार्थ के संबंध में कुछ जानना है तो पदार्थ से ही पूछना पड़ेगा। वृक्षों के संबंध में कुछ जानना है तो वृक्षों में ही खोजना पड़ेगा। लेकिन हमने इस मुल्क में ऐसा समझा कि जो आत्मज्ञानी हो गया, वह सर्वज्ञ हो गया। इसलिए हमने विज्ञान को कोई जन्म न दिया और हम सारी दुनिया में पिछड़ गये। महावीर जो भी कहते हैं अंतस के संबंध में, वह उनकी चेतना से आया है। लेकिन महावीर भी जो बाहर के जगत के संबंध में कहते नाएं हैं। इसलिए एक और बात समझ लेनी चाहिए। वे सूचनाएं जो महावीर बाहर के जगत के संबंध में देते हैं, कल गलत हो सकती हैं। क्योंकि महावीर के समय तक बाहर के जगत 23 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 के संबंध में जो सूचनाएं थीं, वही महावीर देते थे। फिर सूचनाएं बदलेंगी, विज्ञान तो रोज बढ़ता है, बदलता है। नयी खोज होती है। तो महावीर ने भी जो बाहर के जगत के संबंध में कहा है, वह कल गलत हो जायेगा। उस कारण महावीर गलत नहीं होते। महावीर तो उसी दिन गलत होंगे जो उन्होंने भीतर के संबंध में कहा है, जब गलत हो जाये। इससे बड़ी तकलीफ होती है। जीसस ने उस समय जो उपलब्ध सूचनाएं थीं, उसके संबंध में बातें कहीं। कहा कि जमीन चपटी है। क्योंकि उस समय तक यही सूचना थी। जीसस भी नहीं जान सकते थे कि जमीन गोल है / फिर ईसाइयत बड़ी मुश्किल में पड़ गयी / जब पता चला कि जमीन गोल है और जमीन चपटी नहीं है तो बड़ा संकट आया। तो ईसाइयत ने पूरी कोशिश की कि जमीन चपटी ही है, क्योंकि जीसस ने कहा है। और जीसस गलत तो कह ही नहीं सकते। इसमें डर था / अगर जीसस एक बात गलत कह सकते हैं तो फिर दूसरी भी गलत हो सकती है, यह संदेह था। अगर जीसस इतनी गलत बात कह सकते हैं कि जमीन चपटी है गोल की बजाय, तो क्या भरोसा? ईश्वर के संबंध में जो कहते हैं, आत्मा के संबंध में कहते हैं, वह भी गलत कहते हों। जब किसी की एक बात गलत हो जाये तो दूसरी बातों पर भी संदेह निर्मित हो जाता है। इसलिए ईसाइयत ने भरसक कोशिश की कि जो जीसस ने कहा है, सभी सही है। लेकिन उसका परिणाम घातक हुआ / क्योंकि विज्ञान ने जो सिद्ध किया, हजार जीसस भी कहें, उसको गलत नहीं किया जा सकता। गैलेलियो को सजा दी जाये, सताया जाये, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। और तब आखिर में, मजबूरी में ईसाइयत को मानना पड़ा कि जमीन गोल है / तब ईसाइयों के मन में ही संदेह उठना शुरू हो गया कि फिर क्या होगा! जीसस जो कहते हैं और चीजों के संबंध में, कहीं वह भी तो गलत नहीं है! महावीर के माननेवाले सोचते हैं कि महावीर ने कहा है कि चंद्रमा देवताओं का आवास है। उस समय तक ऐसी बाहरी जानकारी थी। उस समय तक जो श्रेष्ठतम जानकारी थी, वह महावीर ने दी है। लेकिन यह महावीर के कहने की वजह से सच नहीं होती। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है, बाहर का तथ्य है। इसमें महावीर क्या कहते हैं, सिर्फ उनके कहने से सही नहीं होता। ___ अब जैन मुनि तकलीफ में पड़ गये हैं। क्योंकि चांद पर आदमी उतर गया है, कोई देवता नहीं है। तो अब जैन मुनि उसी दिक्कत में पड़ गये हैं जिस दिक्कत में ईसाइयत पड़ गयी थी। अब क्या करें? तो अब वे सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं! सिद्ध करने की तीन-चार कोशिशें हैं, वह पिटीपिटायी हैं, वही कोशिशें की जाती हैं। पहली तो यह, कि यह चांद वह चांद ही नहीं है, एक यह कोशिश है। तो कौन-सा चांद है? दूसरी यह कोशिश की जा रही है कि इस चांद पर वैज्ञानिक उतरे ही नहीं है, यह झूठ है, यह अफवाह है। यह भी पागलपन है। तीसरी कोशिश यह की जा रही है, कि वे उतर तो गये हैं-एक जैन मनि कोशिश कर रहे हैं-वे उतर तो गये हैं, अफवाह हीं है, चांद भी यही है, लेकिन वे चांद पर नहीं उतरे हैं। चांद के पास देवी-देवताओं के जो बड़े-बड़े यान, उनके बड़े-बड़े रथ, विराटकाय रथ और यान ठहरे रहते हैं चांद के आसपास, उन पर उतर गये हैं। उसी को वे समझ रहे हैं कि चांद है। यह सब पागलपन है। लेकिन इस पागलपन के पीछे तर्क है। तर्क यह है कि अगर महावीर की यह बात गलत होती है, तो बाकी बातों का क्या होगा? तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, महावीर, बुद्ध या कृष्ण किसी ने भी बाहर के जगत के संबंध में जो भी कहा है, वह उस समय तक की उपलब्ध जानकारी में जो श्रेष्ठतम था, वही कहा है। वह उस समय तक जो सत्यतर था, वही कहा है। लेकिन, बाहर की जानकारी रोज बढ़ती चली जाती है। और आज नहीं कल, महावीर और बद्ध से आगे बात निकल जायेगी। जब आगे बात निकल जायेगी तो भक्त को, अनुयायी को परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक विभाजन साफ कर लेना चाहिए। वह विभाजन यह कि महावीर ने जो बातें बाहर के जगत के संबंध में कही हैं, वे सूचनाएं हैं। और महावीर ने जो अंतस-जगत के संबंध में बातें कही हैं, 24 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध वे अनुभव हैं। उचित होगा कि हम आर्मस्ट्रांग की बात मान लें चांद के संबंध में, बजाय महावीर की बात के। हम आइंस्टीन की बात मान लें पदार्थ के संबंध में, बजाय कृष्ण के / उसका कारण यह है कि बाहर के जगत में जो खोज चल रही है वह खोज रोज बढ़ती चली जायेगी। आज मैं आपसे जो बातें कह रहा हूं, उसमें जब भी मैं बाहर के जगत के संबंध में कुछ कहता हूं तो वह आज नहीं कल गलत हो जायेगा। गलत हो जायेगा, उससे ज्यादा ठीक खोज लिया जायेगा। लेकिन तब भी जो मैं भीतर के जगत के संबंध में कह रहा हूं, वह गलत नहीं हो जायेगा / वह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। सूचना और ज्ञान का अगर यह फासला हम न रख पाये तो आज नहीं कल, बुद्ध, महावीर, कृष्ण सब नासमझ मालूम होने लगेंगे। यह फासला रखना जरूरी है। __ आपके प्रश्न पर निर्भर करता है कि मैं उत्तर कहां से दे रहा हूं। कुछ उत्तर तो केवल स्मृति से ही दिये जा सकते हैं। क्योंकि बाहर के संबंध में स्मृति ही होती है, ज्ञान नहीं होता है। भीतर के संबंध में ज्ञान होता है, स्मृति नहीं होती। तो आप क्या पूछते हैं, इस पर निर्भर करता है। दूसरी बात-पूछते हैं कि अगर भीतर का ज्ञान हो गया हो तो फिर शास्त्र, साहित्य, पुस्तक, इसका क्या प्रयोजन है? इसका प्रयोजन है, आपके लिए, मेरे लिए नहीं। आज मेरे पास कोई आ जाता है पूछने, या महावीर के पास, या बुद्ध के पास आ जाता था पूछने, चांद के संबंध में, तो महावीर कुछ कहते थे। महावीर को कोई प्रयोजन नहीं है चांद से, लेकिन जो पूछने आया था, उसका प्रयोजन है। लेकिन इसे भी कहने की क्या जरूरत है? __ कारण है। मेरे पास ऐसे लोग आते हैं। कोई फ्रायड को पढ़कर विक्षिप्त हुआ जा रहा है, तो वह मेरे पास आता है। जब तक मैं फ्रायड के संबंध में उसे कुछ न कह सकू तब तक उससे मेरा कोई सेतु निर्मित नहीं होता / जब उसे यह समझ में आ जाता है कि मैं फ्रायड को समझता हूं, तभी आगे चर्चा हो पाती है, तभी आगे बात हो पाती है। मेरे पास कोई आदमी आइंस्टीन को समझकर आता है, और अगर मैं पिटीपिटायी तीन हजार साल पुरानी फिजिक्स की बातें उससे कहं, तो मैं तत्काल ही व्यर्थ हो जाता है। आगे कोई संबंध ही नहीं जुड़ पाता। अगर मुझे उसे कोई भी आंतरिक सहायता पहुंचानी है तो उसे मैं बाहर के जगत में उतना तो कम से कम मैं जानता ही हूं, जितना वह जानता है, इतना भरोसा दिलाना अत्यन्त आवश्यक है। इस भरोसे के बिना उससे गति नहीं हो पाती, उससे संबंध नहीं बन पाता। आज साधुओं संन्यासियों से आम आदमी का जो संबंध टूट गया है, उसका कारण यह है कि आम आदमी उनसे ज्यादा जानता है बाहर के जगत के संबंध में / और जब आम आदमी भी उनसे ज्यादा जानता है तो यह भरोसा करना आदमी को मुश्किल होता है कि जिन्हें बाहर के जगत के संबंध में भी कुछ पता नहीं, वह भीतर के संबंध में कुछ जानते होंगे / आज हालत यह है कि आपका साध आपसे कम जानकार है। महावीर के वक्त का साधु आम आदमी से ज्यादा जानकार था। ____ आपसे अगर कोई भी संबंध निर्मित करना है, तो पहले तो आपका जो बाह्य ज्ञान है, उससे ही संबंध जुड़ता है और जब तक मैं आपके बाह्य-ज्ञान को व्यर्थ न कर दूं तब तक भीतर की तरफ इशारा असंभव है। अपने लिए नहीं पढ़ता हूं, आपके लिए पढ़ता हूं। उसका पाप आपको लगेगा, मुझको नहीं। और यह, मैं ऐसा कर रहा हूं, ऐसा नहीं है। बुद्ध या महावीर या कृष्ण सभी को यही करना पड़ा है। करना ही पड़ेगा। अगर कृष्ण अर्जुन से कम जानते हों बाहर के जगत के संबंध में, तो बात आगे नहीं चल सकती। अगर महावीर गौतम से कम जानते हों बाहर 25 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 के जगत के संबंध में तो बात आगे नहीं चल सकती / महावीर गौतम से ज्यादा जानते हैं। आपको पता होना चाहिए, गौतम महावीर का प्रमुख शिष्य है, जिसका नाम इस सूत्र में आया है। उसके संबंध में थोड़ा समझना अच्छा होगा, ताकि सूत्र समझा जा सके। ___ गौतम उस समय का बड़ा पंडित था / हजारों उसके शिष्य थे, जब वह महावीर को मिला, उसके पहले / वह एक प्रसिद्ध ब्राह्मण था। महावीर से विवाद करने ही आया था। गौतम, महावीर से विवाद करने ही आया था। महावीर को पराजित करने ही आया था। अगर महावीर के पास गौतम से कम जानकारी हो, तो गौतम को रूपांतरित करने का कोई उपाय नहीं था / गौतम पराजित हुआ महावीर की जानकारी से। और गौतम ज्ञान से पराजित नहीं हो सकता था, क्योंकि ज्ञान का तो कोई सवाल ही नहीं था। जानकारी से ही पराजित हो सकता था। जानकारी ही उसकी संपदा थी। जब महावीर से वह जानकारी में हार गया, गिर गया, तभी उसने महावीर की तरफ श्रद्धा की आंख से देखा / और तब महावीर ने कहा कि अब मैं तुझे वह बात कहूंगा, जिसका तुझे कोई पता ही नहीं है। अभी तो मैं वह कह रहा था जिसका तुझे पता है / मैंने तुझसे जो बातें कहीं हैं वह तेरे ज्ञान को गिरा देने के लिए, अब तू अज्ञानी हो गया / अब तेरे पास कोई ज्ञान नहीं है। अब मैं तुझसे वे बातें कहूंगा जिससे तू वस्तुतः ज्ञानी हो सकता है। क्योंकि जो ज्ञान विवाद से गिर जाता है, उसका क्या मूल्य है? जो ज्ञान तर्क से कट जाता है, उसका क्या मूल्य है? ___ गौतम महावीर के चरणों में गिर गया, उनका शिष्य बना / गौतम इतना प्रभावित हो गया महावीर से, कि आसक्त हो गया, महावीर के प्रति मोह से भर गया। गौतम महावीर का प्रमुखतम शिष्य है, प्रथम शिष्य, श्रेष्ठतम / उनका पहला गणधर है। उनका पहला संदेशवाहक है। लेकिन, गौतम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सका / गौतम के पीछे हजारों-हजारों लोग दीक्षित हुए और ज्ञान को उपलब्ध हुए, और गौतम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सका / गौतम महावीर की बातों को ठीक-ठीक लोगों तक पहुंचाने लगा, संदेशवाहक हो गया। जो महावीर कहते थे, वही लोगों तक पहुंचाने लगा। उससे ज्यादा कुशल संदेशवाहक महावीर के पास दूसरा न था। लेकिन वह ज्ञान को उपलब्ध न हो सका। वह उसका पांडित्य बाधा बन गया / वह पहले भी पंडित था, वह अब भी पंडित था। पहले वह महावीर के विरोध में पंडित था, अब महावीर के पक्ष में पंडित हो गया। अब महावीर जो जानते थे, कहते थे, उसे उसने पकड़ लिया और उसका शास्त्र बना लिया। वह उसी को दोहराने लगा। हो सकता है, महावीर से भी बेहतर दोहराने लगा हो / लेकिन ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ, वह पंडित ही रहा। उसने जिस तरह बाहर की जानकारी इकट्ठी की थी, उसी तरह उसने भीतर की जानकारी भी इकट्ठी कर ली / यह भी जानकारी रही, यह भी ज्ञान न बना।। गौतम बहुत रोता था। वह महावीर से बार-बार कहता था, मेरे पीछे आये लोग, मुझसे कम जाननेवाले लोग, साधारण लोग, मेरे जो शिष्य थे वे, आपके पास आकर ज्ञान को उपलब्ध हो गये। यह दीया मेरा कब जलेगा? यह ज्योति मेरी कब पैदा होगी? मैं कब पहंच पाऊंगा? जिस दिन महावीर की अंतिम घड़ी आयी, उस दिन गौतम को महावीर ने पास के गांव में संदेश देने भेजा था / गौतम लौट रहा है गांव से संदेश देकर, तब राहगीर ने रास्ते में खबर दी कि महावीर निर्वाण को उपलब्ध हो गये / गौतम वहीं छाती पीटकर रोने लगा, सड़क पर बैठकर / और उसने राहगीरों को पूछा कि वह निर्वाण को उपलब्ध हो गये? मेरा क्या होगा? मैं इतने दिन तक उनके साथ भटका, अभी तक मुझे तो वह किरण मिली नहीं। अभी तो मैं सिर्फ उधार, वह जो कहते थे, वही लोगों को कहे चला जा रहा हूं। मुझे वह हुआ नहीं, जिसकी वह बात करते थे। अब क्या होगा? उनके साथ न हो सका, उनके बिना अब क्या होगा। मैं भटका, मैं डबा / अब मैं अनंत काल तक भटकंगा। वैसा शिक्षक अब कहां? वैसा गुरु अब कहां मिलेगा? क्या मेरे लिए भी उन्होंने कोई संदेश स्मरण किया है. और कैसी कठोरता की उन्होंने मुझ पर? जब जाने की घड़ी थी तो मुझे दूर क्यों भेज दिया? 26 . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध तो राहगीरों ने यह सूत्र उसको कहा है। यह जो सूत्र है, राहगीरों ने कहा है। राहगीरों ने कहा, कि तेरा उन्होंने स्मरण किया और उन्होंने कहा है कि गौतम को यह कह देना / गौतम यहां मौजूद नहीं है, गौतम को यह कह देना / यह जो सूत्र है, यह गौतम के लिए कहलाया गया है। 'जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेह-बंधनों से रहित हो जा। अतः गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।' ___ 'तू इस प्रपंचमय विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका, भला किनारे पहुंचकर तू क्यों अटक गया है। उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर / हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर।' ये जो आखिरी शब्द हैं कि तू सारे संसार के सागर को पार कर गया-गौतम पत्नी को छोड़ आया, बच्चों को छोड़ आया, धन, प्रतिष्ठा, पद / प्रख्यात था, इतने लोग जानते थे, सैकड़ों लोगों का गुरु था, उस सबको छोड़कर महावीर के चरणों में गिर गया, सब छोड़ आया। तो महावीर कहते हैं, तूने पूरे सागर को छोड़ दिया गौतम, लेकिन अब तू किनारे को पकड़कर अटक गया / तूने मुझे पकड़ लिया। तूने सब छोड़ दिया, तूने महावीर को पकड़ लिया / तू किनारा भी छोड़ दे, तू मुझे भी छोड़ दे / जब तू सब छोड़ चुका तो मुझे क्यों पकड़ लिया? मुझे भी छोड़ दे। ___ जो श्रेष्ठतम गुरु हैं, उनका अंतिम काम यही है कि जब उनका शिष्य सब छोड़कर उन्हें पकड़ ले, तो तब तक तो वे पकड़ने दें जब तक यह पकड़ना शेष को छोड़ने में सहयोगी हो, और जब सब छूट जाये तब वे अपने से भी छूटने में शिष्य को साथ दें। जो गुरु अपने से शिष्य को नहीं छुड़ा पाता, वह गुरु नहीं है। यह महावीर का वचन है, कि अब तू मुझे भी छोड़ दे, किनारे को भी छोड़ दे / सब छोड़ चुका, अब नदी भी पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर भी नदी में अटका हुआ है, नदी को नहीं पकड़े हुए हए है। किनारा नदी नहीं है। लेकिन कोई आदमी किनारे को पकड़कर भी तो नदी में हो सकता है। और फिर किनारा भी बाधा बन जायेगा। किनारा चढ़ने को है, बाधा बनने को नहीं। इसे भी छोड़ दे और इसके भी पार हो जा। इस सूत्र को हम समझेंगे। उसके पहले एक दो सवाल और हैं। जिन मित्र ने यह पूछा है—ज्ञान और स्मृति का, वे ठीक से समझ लें / स्मृति व्यर्थ नहीं है। स्मृति सार्थक है बाहर के जगत के लिए। पांडित्य व्यर्थ नहीं है, सार्थक है, बाहर के जगत के लिए। भीतर के जगत के लिए व्यर्थ है। मगर उल्टी बात, इससे विपरीत बात भी सही है। अन्तःप्रज्ञा भीतर जगत के लिए सार्थक है, लेकिन बाहर के जगत के लिए सार्थक नहीं है। विज्ञान बाहर के जगत के लिए, धर्म भीतर के जगत के लिए / विज्ञान है स्मृति, धर्म है अनुभव / इसलिए विज्ञान दूसरों के सहारे बढ़ता है, धर्म केवल अपने सहारे / अगर हम न्यूटन को हटा लें तो आइंस्टीन पैदा नहीं हो सकता। हालांकि मजे की बात है कि आइंस्टीन न्यूटन को ही गलत करके आगे बढ़ता है, लेकिन फिर भी न्यूटन के बिना आगे नहीं बढ़ सकता / न्यूटन ने जो कहा है, उसके ही आधार पर आइंस्टीन काम शुरू करता है। फिर पाता है कि वह गलत है। तो फिर छांटता है। लेकिन अगर न्यूटन हुआ ही न हो तो आइंस्टीन कभी नहीं हो सकता, क्योंकि बाहर का ज्ञान सामूहिक है, पूरे समूह पर निर्भर है। ऐसा समझ लें कि अगर हम विज्ञान की सारी किताबें नष्ट कर दें, तो क्या आप समझते हैं कि आइंस्टीन पैदा हो सकेगा, बिलकुल पैदा नहीं हो सकेगा। अ ब स से शुरू करना पड़ेगा। अगर हम विज्ञान की सब किताबें नष्ट कर दें तो क्या आप सोचते हैं, अचानक कोई आदमी हवाई जहाज बना लेगा? नहीं बना सकता / बैलगाड़ी के चक्के से शुरू करना पड़ेगा, और कोई दस हजार साल लगेंगे, बैलगाड़ी 27 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 के चक्के से हवाई जहाज तक आने में / और यह दस हजार साल में एक आदमी का काम नहीं होने वाला है, हजारों लोग काम करेंगे। विज्ञान परंपरा है, ट्रेडिशन है। हजारों लोगों के श्रम का परिणाम है। धर्म? महावीर न हों, बुद्ध न हों, तो भी आप महावीर हो सकते हैं / कोई बाधा नहीं है / जरा भी बाधा नहीं है। क्योंकि मेरे महावीर या मेरे बुद्ध होने में महावीर और बुद्ध के ऊपर उनके कंधे पर खड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। कोई खड़ा हो भी नहीं सकता। धर्म के जगत में हर आदमी अपने पैर पर खड़ा होता है, विज्ञान के जगत में हर आदमी दूसरे के कंधे पर खड़ा होता है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा दी जा सकती है, धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती। विज्ञान की शिक्षा हमें देनी ही पड़ेगी। अगर हम एक बच्चे को गणित न सिखायें, तो कैसे समझेगा आइंस्टीन को? धर्म का मामला उल्टा है। अगर हम एक बच्चे को बहुत धर्म सिखा दें तो फिर महावीर को न समझ सकेगा। धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती / शिक्षा बाहर की होती है, भीतर की नहीं होती, भीतर की साधना होती है। बाहर की शिक्षा होती है। शिक्षा से स्मृति प्रबल होती है, साधना से ज्ञान के द्वार टूटते हैं। इसको और इस तरह से समझ लें कि बाहर के संबंध में हम जो जानते हैं वह नयी बात है, जो कल पता नहीं थी और अगर हम खोजते न तो कभी पता न चलती। भीतर के संबंध में जो हम जानते हैं वह सिर्फ दबी थी। पता थी गहरे में / खोज लेने पर जब हम उसे पाते हैं तो वह कोई नयी चीज नहीं है। बुद्ध से पूछे, महावीर से पूछे, वे कहेंगे, जो हमने पाया, वह मिला ही हुआ था। सिर्फ हमारा ध्यान उस पर नहीं था। __ आपके घर में हीरा पड़ा हो, रोशनी न हो, दीया जले, रोशनी हो जाये, हीरा मिल जाये तब आप ऐसा नहीं कहेंगे कि हीरा कोई नई चीज है जो हमारे घर में जुड़ गयी, थी ही घर में / प्रकाश नहीं था, अंधेरा था, दिखायी नहीं पड़ता था। जान आपके पास है. सिर्फ ध्यान उस पर पड जाये। लेकिन विज्ञान आपके पास नहीं है. उसे खोजना पडता है। जैसे हीरे को खदान से खोजकर, निकालकर घर लाना पड़े। इस फर्क के कारण विज्ञान सीखा जा सकता है। जो खदान तक गये हैं, जिन्होंने हीरा खोदा है, कैसे लाये हैं, क्या है तरकीब? वह सब सीखी जा सकती है। धर्म सीखा नहीं जा सकता, साधा जा सकता है। साधने और सीखने में बुनियादी फर्क है / सीखना, सूचनाओं का संग्रह है। साधना, जीवन का रूपांतरण है। अपने को बदलना होता है। इसलिए कम पढा लिखा आदमी भी धार्मिक हो सकता है। लेकिन कम पढ़ा लिखा आदमी वैज्ञानिक नहीं हो पाता / बिलकुल साधारण आदमी, जो बाहर के जगत में कुछ भी नहीं जानता है, वह भी कबीर हो सकता है. कष्ण हो सकता है, क्राइस्ट हो सकता है। ___क्राइस्ट खुद एक बढ़ई के लड़के हैं, कबीर एक जुलाहे के, कुछ जानकारी बाहर की नहीं है। कोई पांडित्य नहीं है, कोई बड़ा संग्रह नहीं है, फिर भी अन्तःप्रज्ञा का द्वार खुल सकता है। क्योंकि जो पाने जा रहे हैं, वह भीतर छिपा ही हुआ है, थोड़े से खोदने की बात है। हीरा पास है, मुट्ठी बंद है, उसे खोल लेने की बात है। यह जो मुट्ठी खोलना है, यह साधना है / हीरा क्या है, कहां छिपा है, किस खदान में मिलेगा, कैसे खोदा जायेगा, इन सबकी जानकारी बाह्य सूचना है। शास्त्रों में अगर हम यह भेद कर लें तो हम शास्त्रों को बचाने में सहयोगी हो जायेंगे, अन्यथा हमारे सब शास्त्र डूब जायेंगे। क्योंकि कृष्ण के मुंह से ऐसी बातें निकलती हैं जो जानकारी की हैं। वह गलत होंगी आज नहीं कल / महावीर ऐसी बातें बोलते हैं, जो जानकारी की हैं, वह गलत हो जायेंगी। विज्ञान के जगत में कोई कभी सदा सही नहीं हो सकता / रोज विज्ञान आगे बढ़ेगा और अतीत को गलत करता जायेगा। बुद्ध ने ऐसी बातें कही हैं जो गलत हो जायेंगी / जीसस ने, मुहम्मद ने, ऐसी बातें कही हैं जो गलत हो जायेंगी। लेकिन इससे कोई भी धर्म का संबंध नहीं है। धर्मशास्त्र में दोनों बातें हैं, वे भी जो भीतर से आयी हैं, और वे भी जो बाहर से आयी हैं। अगर भविष्य में हमें धर्मशास्त्र की प्रतिष्ठा बचानी हो तो हमें धर्मशास्त्र के विभाजन करने शुरू कर देने चाहिए। जानकारी एक तरफ हटा देनी चाहिए, अनुभव एक तरफ। 28 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17हा अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध अनुभव सदा सही रहेगा, जानकारी सदा सही नहीं रहेगी। ___ तो मैं कुछ जानकारी की बातें आपसे कहता हूं। जरूरी नहीं है कि आपसे कहूं, और आपकी तैयारी बढ़ जाये तो नहीं कहूंगा। लेकिन जहां आप हैं वहां जो जानकारी की बातें हैं वही आपकी समझ में आती हैं। वह जो अनुभव की बातें कहता हूं वह तो आपको सुनायी ही नहीं पड़तीं। इस आशा में जानकारी की बात कहता हूं कि शायद उसी के बीच में एकाध अनुभव की बात भी आपके भीतर प्रवेश हो जाये / वह जानकारी की बात करीब-करीब ऐसी है जैसी एक कड़वी दवा की गोली पर थोड़ी शक्कर लगा दी जाये। वह शक्कर देने के लिए आपको नहीं लगायी गयी है, उस शक्कर के पीछे कुछ छिपा है जो शायद साथ चला जाये। अगर आप समझदार हैं तो शक्कर लगाने की जरूरत नहीं है, दवा सीधी ही दी जा सकती है। लेकिन दवा थोड़ी कड़वी होगी। उसको समझदार ले सकेगा, बाल-बुद्धि के लोग नहीं ले सकेंगे। सत्य, वह जो अनुभव का सत्य है वह थोड़ा कड़वा होगा। क्योंकि वह आपकी जिंदगी के विपरीत होगा। उसे आप तक पहुंचाना हो तो जानकारी केवल एक साधन है। एक मित्र ने पूछा है कि क्या सिद्ध पुरुष को भी सोये हुए लोगों के बीच रहने में खतरा है, या केवल साधकों के लिए यह निर्देश है? __ सिद्ध पुरुष को कोई खतरा नहीं है, क्योंकि वह मिट ही गया। खतरा तो उसको है जो अभी है / ऐसा समझें, कि क्या बीमारों के बीच मरे हुए आदमी को रहने में कोई खतरा है? कोई बीमारी न लग जाये। लगेगी नहीं अब / मरे हुए आदमी को बीमारी नहीं लगती / चारों तरफ प्लेग हो, चारों तरफ हैजा हो, मरे हुए आदमी को बिठा दें बीच में आसन लगाकर, वे मजे से बैठे रहेंगे। न हैजा पकड़ेगा, न प्लेग पकड़ेगी। क्योंकि बीमारी लगने के लिए होना जरूरी है, पहली शर्त / वह मरा हुआ आदमी है ही नहीं अब / लगेगी किसको? सिद्ध पुरुष को तो कोई खतरा नहीं है। क्योंकि सिद्ध पुरुष एक गहरे अर्थों में मर गया है, भीतर से वह अहंकार मर गया, जिसको बीमारियां लगती हैं। लोभ लगता लगता है, क्रोध लगता है। वह अहंकार अब नहीं है। अब सिद्ध पुरुष को कोई खतरा नहीं है / सिद्ध पुरुष का अर्थ ही यह है कि जो अब नहीं है / खतरा तो रास्ते पर है। जब तक आप सिद्ध नहीं हो गये हैं तब तक खतरा है। मगर एक बड़े मजे की बात है अगर आपको ऐसा पता चलता है कि मैं सिद्ध हो गया है, तो अभी खतरा है। क्योंकि अगर आपको पता चलता है कि मैं मर गया हूं तो अभी आप जिंदा हैं / आंख बंद करके बैठे और आप सोच रहे हैं कि मैं मर गया हूं, अब मुझे कोई बीमारी लगनेवाली नहीं है तो आप पक्का समझना, अभी सावधानी बरतें। अभी काफी जिंदा हैं, अभी बीमारी लगेगी। सिद्ध पुरुष का अर्थ है-जो हवा पानी की तरह हो गया। अब जिसे कुछ भी नहीं है, जिसे यह भी नहीं है कि मैं सिद्ध पुरुष हो गया हूं। ऐसा भाव ही मैं का जहां खो गया है वहां कोई बीमारी नहीं है। क्योंकि बीमारी लगने के लिए मैं की पकड़ने की क्षमता चाहिए, और मैं बीमारी पकड़ने का मैगनेट है। वह जो मैं का भाव है, जो अहम है, वह है मैगनेट, वह बीमारियों को खींचता है। और आप ऐसा मत सोचना कि दूसरा ही आपको बीमारी दे देता है। आप लेने के लिए तैयार होते हैं तभी देता है। __ आपने कभी खयाल किया होगा, प्लेग है और डाक्टर घूमता रहता है और उसको प्लेग नहीं पकड़ती, और आपको पकड़ लेती है। क्या मामला है? खुद चिकित्सक बहुत परेशान हुए हैं इस बात से कि डाक्टर है, वहीं घूम रहा है। दिन भर हजारों मरीजों की सेवा कर रहा है, इंजेक्शन लगा रहा है, भाग-दौड़ कर रहा है। उन्हीं कीटाणुओं के बीच में भटक रहा है। जहां आपको बीमारी पकड़ती है, उसे बीमारी नहीं पकड़ती। कारण क्या है? कारण सिर्फ एक है कि डाक्टर की उत्सुकता मरीज में है, अपने में नहीं है। इसलिए मैं क्षीण हो जाता है। वह उत्सुक है दूसरे को ठीक करने में। वह इतना व्यस्त है दूसरे को ठीक करने में कि उसके होने की उसे सुविधा ही नहीं है जहां बीमारी पकड़ती है। वह नान-रिसेटिव हो जाता है, क्योंकि उसको पता ही नहीं रहता है कि मैं हं। 29 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जब बीमारी जोर की होती है, महामारी होती है, तो डाक्टर अपने को भूल ही जाता है। न भूले, तो बीमार पड़ेगा। यह भूलना बाहर की बीमारी तक को रोक देता है। वे जो दूसरे लोग हैं चारों तरफ, वे भयभीत हो जाते हैं कि कहीं बीमारी मुझे न पकड़ जाये / यह कहीं बीमारी मुझे न पकड़ जाये, यह मैं भाव ही बीमारी को पकड़ने का द्वार बन जाता है / रिसेप्टिव हो जाता है। यह तो बाहर की बीमारी के संबंध में है, भीतर की बीमारी के संबंध में तो और जटिलता हो जाती है। ये सारी सूचनाएं साधक के लिए हैं। यही सूचनाएं नहीं, सूचनाएं मात्र साधक के लिए हैं / सिद्ध पुरुष के लिए क्या सूचना है। सिद्ध पुरुष का अर्थ ही यह है कि जिसको करने को अब कुछ न बचा / सिद्ध का अर्थ क्या होता है? सिद्ध का अर्थ होता है जिसे करने को कुछ न बचा, सब पूरा हो गया, सब सिद्ध हो गया। उसके लिए तो कोई भी सूचना नहीं है / ये सारी सूचनाएं मार्ग पर चलनेवाले के लिए हैं, साधक के लिए हैं। एक और प्रश्न है। आशुप्रज्ञ होना प्रकृति-दत्त आकस्मिक घटना है या साधना-जन्य परिणाम? / प्रकृति-दत्त घटना नहीं है, आकस्मिक घटना नहीं है, साधना-जन्य परिणाम है / प्रकृति है अचेतन / आपको भूख लगती है, यह प्रकृति-दत्त है। आपको प्यास लगती है, यह प्रकृति-दत्त है / आप सोते हैं रात, यह प्रकृति-दत्त है। आप जागते हैं सुबह, यह प्रकृति-दत्त है। यह सब प्राकृतिक है, यह अचेतन है / इसमें आपको कुछ भी नहीं करना पड़ा है, यह आपने पाया है। यह आपके शरीर के साथ जुड़ा हुआ है। लेकिन एक आदमी ध्यान करता है, यह प्रकृति-दत्त नहीं है। अगर आदमी न करे तो अपने आप यह कभी भी न होगा। भूख लगेगी अपने आप, प्यास लगेगी अपने आप, ध्यान अपने आप नहीं लगेगा। कामवासना जगेगी अपने आप, मोह के बंधन निर्मित हो जायेंगे अपने आप, लोभ पकड़ेगा, क्रोध पकड़ेगा अपने आप। धर्म नहीं पकड़ेगा अपने आप। इसे ठीक से समझ लें। ___ धर्म निर्णय है, संकल्प है, चेष्टा है, इन्टेंशन है। बाकी सब इंसटिंक्ट है। बाकी सब प्रकृति है। आपके जीवन में जो अपने आप हो रहा है, वह प्रकृति है। जो आप करेंगे तो ही होगा और तो भी बड़ी मुश्किल से होगा / वह धर्म है। जो आप करेंगे, तभी होगा, बड़ी मुश्किल से होगा क्योंकि आपकी प्रकृति पूरा विरोध करेगी कि यह क्या कर रहे हो? इसकी क्या जरूरत है? पेट कहेगा, ध्यान की क्या जरूरत है? भोजन की जरूरत है। शरीर कहेगा, नींद की जरूरत है, ध्यान की क्या जरूरत है? काम-ग्रंथियां कहेंगी कि काम की, प्रेम की जरूरत है। धर्म की क्या जरूरत है? __ आपके शरीर को अगर सर्जन के टेबल पर रखकर पूरा परीक्षण किया जाये तो कहीं भी धर्म की कोई जरूरत नहीं मिलेगी, किसी ग्रंथि में / सब जरूरतें मिल जायेंगी। किडनी की जरूरत है, फेफड़े की जरूरत है, मस्तिष्क की जरूरत है, वह सब जरूरतें सर्जन काटकर अलग-अलग बता देगा कि किस अंग की क्या जरूरत है, लेकिन एक भी अंग मनुष्य के शरीर में ऐसा नहीं जिसकी जरूरत धर्म है। ___ तो धर्म बिलकुल गैरजरूरत है। इसीलिए तो जो आदमी केवल शरीर की भाषा में सोचता है वह कहता है, धर्म पागलपन है, शरीर के लिए कोई जरूरत है नहीं। बिहेवियरिस्ट्स हैं, शरीरवादी मनोवैज्ञानिक हैं; वे कहते हैं, क्या पागलपन है? धर्म की कोई जरूरत ही नहीं है। और जरूरतें हैं, धर्म की क्या जरूरत है? समाजवादी हैं, कम्युनिस्ट हैं, वे कहते हैं, धर्म की क्या जरूरत है? और सब जरूरतें हैं। और जरूरतें समझ में आती हैं। क्योंकि उनको खोजा जा सकता है। धर्म की जरूरत समझ में नहीं आती। कहीं कोई कारण नहीं है। इसलिए पशुओं में सब है जो आदमी में है। सिर्फ धर्म नहीं है। और जिस आदमी के जीवन में धर्म नहीं है, उसको अपने को आदमी कहने का कोई हक नहीं है। क्योंकि पश के जीवन में सब है जो आदमी के जीवन में है। ऐसे आदमी के जीवन में, जिसके जीवन में धर्म नहीं है, वह कहां से अपने को अलग करेगा पशु से? Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध पशु प्रकृति-जन्य है। आदमी भी प्रकृति-जन्य है, जब तक धर्म उसके जीवन में प्रवेश नहीं करता। जिस क्षण धर्म जीवन में प्रवेश करता है, उसी दिन मनुष्य प्रकृति से परमात्मा की तरफ उठने लगा। प्रकृति है निम्नतम, अचेतन छोर; परमात्मा है अंतिम, आत्यंतिक चेतन छोर / जो अपने आप हो रहा है, अचेतना में हो रहा है, वह है प्रकृति / जो होगा चेष्टा से, जागरूक प्रयत्न से, वह है धर्म / और जिस दिन यह प्रश्न इतना बड़ा हो जायेगा कि अचेतन कुछ भी न रह जायेगा, भूख भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से, प्यास भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से, चलूंगा तो मेरी आज्ञा से, उलूंगा तो मेरी आज्ञा से, शरीर भी जिस दिन प्रकृति न रह जायेगा, अनुशासन बन जायेगा, उस दिन व्यक्ति परमात्मा हो गया। ___ अभी तो हम जो भी कर रहे हैं, सोचते भी हैं तो, मंदिर भी जाते हैं तो, प्रार्थना भी करते हैं तो, खयाल कर लेना, प्रकृति-जन्य तो नहीं है। हमारा तो धर्म भी प्रकृति-जन्य होगा। इसलिए धर्म नहीं होगा, धोखा होगा। जिसको हम धर्म कहते हैं, वह धोखा है धर्म का। इसलिए जब आप दुख में होते हैं तो धर्म की याद आती है। सुख में नहीं आती। __बर्टेन्ड ने तो कहा है कि जब तक दुख है, तभी तक धर्मगुरु भगवान से प्रार्थना करें कि बचे हुए हैं। जिस दिन दुख नहीं होगा उस दुख समाप्त हो जाये। क्योंकि दुखी आदमी उनके पास जाता है / दुख जब होता है तब आपको धर्म की याद आती है, क्यों? क्योंकि आप सोचते हैं कि अब यह दुख मिटता नहीं दिखता है, अब कोई उपाय नहीं दिखता मिटाने का, तो अब धर्म की तलाश में जायें। जब आप सुखी होते हैं तो निश्चिंत हैं, तब कोई बात नहीं। आप ही अपने मसले हल कर रहे हैं, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है / जब आपकी उलझ जाती है—प्रकतिगत समस्या--जो आप हल नहीं कर पाते, तब आप परमात्मा की तरफ जाते हैं। मर्थता उसका धर्म है? आदमी की नपुंसकता उसका धर्म है? उसकी विवशता? जब वह कुछ नहीं कर पाता तब वह परमात्मा की तरफ चल पड़ता है। तब तो उसका मतलब यह हुआ कि वह परमात्मा की तरफ भी किसी प्रकृति-जन्य प्यास या भूख को पूरा करने जा रहा है। अगर आप परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि मेरे लड़के की नौकरी लगा दे, कि मेरी पत्नी की बीमारी ठीक कर दे, तो उसका अर्थ क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि आपकी भूख तो प्रकृति-जन्य है, और आप परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं। आप परमात्मा से भी थोड़ी सेवा लेने की उत्सुकता रखते हैं। थोड़ा अनुगृहीत करना चाहते हैं उसको भी, कि थोड़ा सेवा का अवसर देना चाहते हैं। इसका, ऐसे धर्म का कोई भी संबंध धर्म से नहीं है। ___ यह जो आशुप्रज्ञ होना है, यह प्रकृति-दत्त नहीं है। यह आपकी इन्सटिंक्ट, आपकी मूल वृत्तियों से पैदा नहीं होगा। कब होगा पैदा यह? अगर यह प्रकृति से पैदा नहीं होगा तो फिर पैदा कैसे होगा? यह कठिन बात मालूम होती है। यह तब पैदा होता है जब हम प्रकृति से ऊब जाते हैं, यह तब पैदा होता है जब हम प्रकृति से भर जाते हैं / यह तब पैदा होता है जब हम देख लेते हैं कि प्रकृति में कुछ भी पाने को नहीं है। यह दख से पैदा नहीं होता। जब हमें सख भी दख जैसा मालूम होने लगता है, तब पैदा होता है। यह अतृप्ति से पैदा प्रकृति की सब भूख प्यास कमी से पैदा होती है। शरीर में पानी की कमी है तो प्यास पैदा होती है। शरीर में भोजन की कमी है तो खाली हो जाओ, ताकि फिर भर सको। शरीर की दो तरह की जरूरतें हैं-भरने की और निकालने की / जो चीज नहीं है उसे भरो. जो चीज ज्यादा हो जाये उसे निकालो। यह शरीर की कुल दुनिया है / वीर्य भी एक मल है / जब ज्यादा हो जाये तो उसे फेंक दो बाहर, नहीं तो वह बोझिल करेगा, सिर को भारी 31 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 करेगा। ___ इसलिए फ्रायड ने तो कहा है कि संभोग से ज्यादा अच्छा टैंक्विलाईजर कोई भी नहीं है। नींद के लिए अच्छी दवा है / क्योंकि अगर शक्ति भीतर है तो सो न पायेंगे। उसे फेंक दो बाहर, हल्के हो जाओ, खाली हो जाओ। नींद लग जायेगी। तो दो ही जरूरतें है-जब कमी हो तो भरो, जब ज्यादा हो जाये तो निकाल दो। इसलिए दुनिया में इतनी कामवासना दिखायी पड़ रही है आज, उसका कारण यह है कि भरने की जरूरतें काफी दूर तक काफी लोगों की पूरी हो गयी हैं, निकालने की जरूरत बढ़ गयी है, भूखा आदमी है, गरीब आदमी है, मकान नहीं, कपड़ा नहीं, प्रतिपल भरने की चिंता है, तो निकालने की चिंता का सवाल नहीं उठता। इसलिए आज अगर अमरीका में एकदम कामुकता है, तो उसका कारण आप यह मत समझना कि अमरीका अनैतिक हो गया है / जिस दिन आप भी इतनी समृद्धि में होंगे, इतनी ही कामुकता होगी। क्योंकि जब भरने का काम पूरा हो गया, तब निकालने का ही काम बचता है। जब भोजन की कोई जरूरत न रही, तो सिर्फ संभोग की ही, सेक्स की ही जरूरत रह जाती है, और कोई जरूरत बचती नहीं है। ___भोजन है भरना, और संभोग है निकालना / तो जब भोजन ज्यादा होगा, तो तकलीफ शुरू होगी। इसलिए सभी सभ्यताएं जब भोजन की जरूरत पूरी कर लेती हैं, तब कामुक हो जाती हैं। इसलिए हम बड़े हैरान होते हैं कि समृद्ध लोग अनैतिक क्यों हो जाते हैं ! गरीब आदमी सोचता है, हम बड़े नैतिक हैं। अपनी पत्नी से तृप्त हैं। ये बड़े आदमी, समृद्ध आदमी, तृप्त क्यों नहीं होते, शांत क्यों नहीं हो जाते? ये क्यों भागते रहते हैं। मोरक्को का सुलतान था, उसके पास अनगिनत पत्नियां थीं, कभी गिनी नहीं गयीं। लेकिन अनगिनत होंगी-उसके पास दस हजार बच्चे पैदा करने की कामना थी, उसकी। काफी दूर तक सफल हआ / एक हजार छप्पन लड़के और लड़कियां उसने पैदा किये। गरीब आदमी को लगेगा, यह क्या पागलपन है! लेकिन एक सुलतान को नहीं लगेगा। भरने की जरूरतें सब पूरी हैं, जरूरत से ज्यादा पूरी हैं, अब निकालने की ही जरूरत रह गयी है। ___ यह जो स्थिति है, यह तो प्रकृतिगत है। धर्म कहां से शुरू होता है? धर्म वहां से शुरू होता है, जहां भरना भी व्यर्थ हो गया, निकालना भी व्यर्थ हो गया। जहां दुख तो व्यर्थ हो ही गये, सुख भी व्यर्थ हो गये। जहां सारी प्रकृति व्यर्थ मालूम होने लगी। ___ एक स्त्री से असंतुष्ट हैं तो आप दूसरी स्त्री की तलाश पर जायेंगे। लेकिन अगर स्त्री-मात्र से असंतुष्ट हो गये, तब धर्म का प्रारंभ होगा। इस भोजन से असंतुष्ट हैं, दूसरे भोजन की तलाश में जायेंगे। लेकिन भोजन मात्र, एक व्यर्थ का क्रम हो गया, तो धर्म की खोज शुरू होगी / यह सुख भोग लिया, इससे असंतुष्ट हो गये तो दूसरे सुख की खोज शुरू होगी। सब सुख देखे, और व्यर्थ पाये, तो धर्म की खोज शुरू होगी। जहां प्रकृति व्यर्थता की जगह पहुंच जाती है, मीनिंगलेसनेस, वहां आदमी आशुप्रज्ञता की तरफ, उस अंतस चैतन्य, उस भीतरी ज्योति की तरफ यात्रा करता है। क्यों? __ क्योंकि प्रकृति है बाहर / जब बाहर से कोई व्यर्थता अनुभव करता है तो भीतर की तरफ आना शुरू होता है। एक है जगत, जो खाली है उसे भरो, जो भरा है उसे खाली करो ताकि फिर भर सको, ताकि फिर खाली कर सको। एक है जगत इस सर्कल, व्हिसियस सर्कल का। और एक और जगत है, कि बाहर व्यर्थ हो गया, भीतर की तरफ चलो। प्रकृति व्यर्थ हो गयी, परमात्मा की तरफ चलो। __इसलिए प्रकृति की ही मांग के लिए अगर आप परमात्मा की तरफ जाते हों, तो जानना कि अभी गये नहीं। जिस दिन आप परमात्मा के लिए ही परमात्मा की तरफ जाते हैं, उस दिन जानना कि धर्म का प्रारंभ हुआ। अब हम सूत्र लें। 'जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता, और अलिप्त रहता है।' 32 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध कमल को देखा आपने? कमल हमारा बड़ा पुराना प्रतीक है। महावीर बात करते, कृष्ण बात करते, बुद्ध बात करते, उनकी बातों में कितने ही फर्क पडते हों लेकिन कमल जरूर आ जाता है। इस मुल्क में तीन बड़े धर्म पैदा हुए, हिन्दू, जैन, बौद्ध, और फिर सैकड़ों महत्वपूर्ण संप्रदाय पैदा हुए। लेकिन अब तक एक सदगुरु ऐसा नहीं हुआ जो कमल को भूल गया हो / कमल की बात करनी ही पड़ती है। कुछ मामला है, कुछ एक सत्य भीतर सब धर्मों की आवाज के भीतर दौड़ता हुआ एक स्वर है-चाहे कोई भी हो सिद्धांत / अलिप्तता मार्ग है, इसलिए कमल की बात आ जाती है। भारत के बाहर जिन मुल्कों में कमल नहीं होता, उन मुल्कों के सदगुरुओं को बड़ी कठिनाई रही है। कोई उदाहरण नहीं है उनके पास संन्यासी का, कि संन्यासी का क्या अर्थ है? संन्यासी का अर्थ है-कमलवत / कमल के पत्ते पर बूंद गिरती है पानी की, पड़ी रहती है, मोती की तरह चमकती है। जैसी पानी में भी कभी नहीं चमकी थी, वैसी कमल के पत्ते पर चमकती है। मोती हो जाती है। जब सूरज की किरण पड़ती, तो कोई मोती भी क्या; फीका हो जाये, वैसी कमल के पत्ते पर बूंद चमकती है। लेकिन पत्ते को कहीं छूती नहीं, पत्ता अलिप्त ही बना रहता है / ऐसी चमकदार मोती जेसा अस्तित्व उसका, और पत्ता अलिप्त बना रहता है। भागता भी नहीं छोड़कर पानी को, पानी में ही रहता है / पानी में ही उठता है, पानी के ही ऊपर जाता है और कभी छूता नहीं, अछूता बना रहता है, कुआंरा बना रहता है। ___ एक यह अलिप्तता का जो भाव है, यह संसार के बीच संन्यास का अर्थ है। इसलिए कमल प्रतीक हो गया / पर कमल एक और कारण से भी प्रतीक है। मिट्टी से पैदा होता है, गंदे कीचड़ से पैदा होता है। ऊपर उठ जाता है और कमल हो जाता है। कमल में और कीचड़ में कितना फासला है! जितना फासला हो सकता है दो चीजों में / कहां कमल का निर्दोष अस्तित्व! कहां कमल का सौदर्य! और कहां कीचड़! पर कीचड़ से ही कमल निर्मित होता है। इस कारण से भी कमल की बड़ी मीठी चर्चा जारी रही सदियों-सदियों तक। आदमी संसार में पैदा होता है कीचड में, पर कमल हो सकता है। कीचड़ में ही पैदा होना पड़ता है। चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों, कीचड़ में ही पैदा होते हैं। चाहे आप हों, चाहे कोई हो-सभी को कीचड़ में पैदा होना पड़ता है। संसार कीचड़ है। थोड़े से लोग इस कीचड़ के पार जाते हैं और कमल हो जाते हैं / वे ही लोग इस कीचड़ के पार जाते हैं जो अलिप्तता को साध लेते हैं। ___ अलिप्तता ही कीचड़ के पार जाने की पगडण्डी है। उससे ही वे दूर हो पाते हैं। कीचड़ नीचे रह जाती है, कमल ऊपर आ जाता है। जिस दिन कमल ऊपर आ जाता है, कमल को देखकर कीचड़ की याद भी नहीं आती। कभी कमल आपको दिखायी पड़े, कीचड़ की याद आती है? वह याद भी नहीं आती। इसलिए बड़ी अदभुत घटनाएं घटीं। जीसस के माननेवाले कहते हैं कि जीसस सामान्य संभोग से पैदा नहीं हुए, कुआंरी मां से पैदा हुए हैं। यह बात बड़ी मीठी है और बड़ी गहरी है। असल में जीसस को देखकर ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि दो व्यक्तियों की कामवासना से पैदा हुए हों। कमल को देखकर कहां कीचड़ का खयाल आता है। जीसस को देखकर खयाल नहीं आता कि दो व्यक्ति जानवरों की तरह कामवासना में गुंथ गये हों, और उनके शरीर की बेचैनी, और उनके शरीर की अस्त-व्यस्तता, अराजकता, पशुता और उनके शरीर की वासना की दुर्गन्ध की कीचड़ से जीसस पैदा हुए। कमल को देखकर कीचड का खयाल ही भल जाता है। और अगर हमें पता ही न हो कि कीचड से कमल पैदा होता है. और जिस आदमी ने कभी कीचड़ न देखी हो और कमल ही देखा हो, वह कहेगा यह असंभव है कि यह कमल और कीचड़ से पैदा हो जाये। इसलिए जीसस को देखकर अगर लोगों को लगा हो कि ऐसा व्यक्ति कुंआरी मां से ही पैदा हो सकता है, तो वह लगना वैसा ही है, 33 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग 2 जैसे कमल को देखकर किसी को लगे कि ऐसा कमल जैसा फूल तो मक्खन से ही पैदा हो सकता है, कीचड़ से नहीं। लेकिन मक्खन से कोई कमल पैदा नहीं होता। अभी तक कोई मक्खन कमल पैदा नहीं कर पाया / कमल कीचड़ से ही पैदा होता है। असल में पैदा होने का ढंग कीचड़ में ही संभव है। इसलिए हमने कहा जो एक दफा कमल हो जाता है, फिर वह दुबारा पैदा नहीं होता, क्योंकि दुबारा पैदा होने का कोई उपाय नहीं रहा। अब वह कीचड़ में नहीं उतर सकता है इसलिए दुबारा पैदा नहीं हो सकता / इसलिए हम कहते हैं, उसकी जन्म-जन्म की यात्रा समाप्त हो जाती है, जिस दिन व्यक्ति कमल हो जाता है / कमल तक यात्रा है कीचड़ की। कीचड़ कमल हो सकती है लेकिन फिर कमल कीचड़ नहीं हो सकता / वापस गिरने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए भी कमल बड़ा मीठा प्रतीक हो गया। अगर हम भारतीय चेतना का, पूर्वीय चेतना का कोई एक प्रतीक खोजना चाहें तो वह कमल है। महावीर कहते हैं—'जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता।' बड़ी मजे की बात कही है। गंदे जल को तो छूता ही नहीं-निर्मल, शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता / जिसको छूने में कोई हर्जा भी न होगा, लाभ भी शायद हो जाये, उसको भी नहीं छता। छूता ही नहीं। लाभ-हानि का सवाल नहीं है। गंदे और पवित्र का भी सवाल नहीं है। छूना ही छोड़ दिया है। पाप को तो छूता ही नहीं, पुण्य को भी नहीं छूता है। 'शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छता, जैसे कमल, अलिप्त रहता है। वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेह-बंधनों से रहित हो जा गौतम!' ___ वह गौतम को कह रहे हैं कि ऐसा ही तू भी हो जा। जहां-जहां हमारा स्नेह है, वहां-वहां स्पर्श है, स्नेह हमारे छूने का ढंग है। जब आप स्नेह से किसी को देखते हैं, छू लिए, चाहे कितने ही दूर हो / __ एक आदमी क्रोध से आकर छुरा मार दे आपको, तो भी छूता नहीं है / छुरा आपकी छाती में चला जाये, लहूलुहान हो जाये सब, तो भी आपको छूता नहीं है। दूर है बहुत / और एक आदमी हजारों मील दूर हो और आपकी याद आ जाये स्नेह-सिक्त, तो छू लेता है, उसी वक्त / स्नेह स्पर्श है। जब आप स्नेह से किसी की तरफ देखते हैं, तब आपने अलिंगन कर ही लिया, छू लिया। छूना हो गया / मन छू ही गया। महावीर कहते हैं, जब तक यह स्पर्श चल रहा है बाहर, यह आकांक्षा चल रही है कि किसी का स्पर्श सुख देगा, यही स्नेह का अर्थ है। तब तक व्यक्ति संसार में ही होगा संन्यास में नहीं हो सकता। . जब तक कमल कीचड़ को छूने को आतुर है, तब तक दूर कैसे जायेगा, उठेगा कीचड़ से पार कैसे? जब तक कमल खुद ही छूने को आतुर है, तब तक मुक्त कैसे होगा। स्नेह बंधन है। जहां-जहां हम छूने की आकांक्षा से भरते हैं, जहां-जहां हम दूसरे में, दूसरे से सुख पाने की आकांक्षा से भरते हैं, वहां-वहां हम लिप्त हो जाते हैं। असल में, जहां दूसरा महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, वहीं हम लिप्त हो जाते हैं। जहां दूसरे पर ध्यान जाता है, वहीं हम लिप्त हो जाते हैं। आपका ध्यान चारों तरफ तलाश करता रहता है कि किसको देखें, किसको छुएं। आपका ध्यान चारों तरफ दौड़ता रहता है / जैसे आक्टोपस के पंजे चारों तरफ ढूंढते रहते हैं किसी को पकड़ने को। आपका ध्यान आपकी सारी इंद्रियों से बाहर जाकर तत्पर रहता है, किसको छुएं! आप अपने को रोकते होंगे, संभालते होंगे। जरूरी है , उपयोगी है, सुविधापूर्ण है। लेकिन आपका ध्यान भागता रहता है चारों तरफ / आप अपने मन की खोज करेंगे तो पायेंगे कि कहां-कहां आप लिप्त हो जाना चाहते हैं, कहां-कहां आप छ लेना चाहते हैं। 34 . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध ___ यह जो भागता हुआ, चारों तरफ बहता हुआ मन है आपका, यह जो सारे संसार को छू लेने के लिए आतुर मन है आपका... वायरन ने कहीं कहा है कि एक स्त्री से नहीं चलेगा, मन तो सारी स्त्रियों को ही भोग लेना चाहता है। रिल्के ने अपने एक गीत में कड़ी लिखी है और कहा है कि यह नहीं है कि एक स्त्री को मैं मांगता है। एक स्त्री के द्वारा मैं सारी स्त्रियों को मांगता हं। और ऐसा भी नहीं है कि सारी स्त्रियों को भोग लूं तो भी तृप्त हो जाऊंगा। तब भी मांग जारी रहेगी। छूने की मांग है, वह फैलती चली जाती है-स्त्री हो या पुरुष महावीर कहते हैं, अलिप्त हो जा समस्त आसक्तियां मिटाकर, सब तरफ से अपने स्नेह-बंधन को तोड़ ले। यह जो फैलता हुआ वासना का विस्तार है, इसे काट दे। यह कैसे कटेगा? तो महावीर कहते हैं, गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर / प्रमाद का अर्थ है, बेहोशी / प्रमाद का अर्थ है, गैर-ध्यानपूर्वक जीना, प्रमत्त, मूर्छा में / यह जब-जब भी हम संबंध निर्मित करते हैं निर्मित नहीं करेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वह पत्थर हो जायेगा, और उससे प्रेम नहीं होगा। सच तो यह है कि उसी में प्रेम होगा, लेकिन उसका प्रेम अलिप्त होगा। यह कठिनतम घटना है जगत में, प्रेम का और अलिप्त होना! __महावीर जब गौतम को यह कह रहे हैं, तो यह बड़ा प्रेमपूर्ण वक्तव्य है कि गौतम, तू ऐसा कर कि मुक्त हो जा, कि तू ऐसा कर गौतम कि तू पार हो जाए / इसमें प्रेम तो भारी है, लेकिन स्नेह जरा भी नहीं है, मोह जरा भी नहीं है। अगर गौतम मुक्त नहीं होता तो महावीर छाती पीटकर रोनेवाले नहीं हैं। अगर गौतम मुक्त नहीं होता, तो यह कोई महावीर की चिंता नहीं बन जायेगी। अगर गौतम महावीर की नहीं सुनता तो इसमें महावीर कोई परेशान नहीं हो जायेंगे। - महावीर जब गौतम से कह रहे हैं कि तू मुक्त हो जा, और ये करुणापूर्ण वचन बोल रहे हैं, तब वे ठीक कमल की भांति हैं, जिस पर पानी की बूंद पड़ी है। बिलकुल निकट है बूंद, और बूंद को यह भ्रम भी हो सकता है कि कमल ने मुझे छुआ। और मैं मानता हूं, कि बूंद को होता ही होगा यह भ्रम / क्योंकि बूंद यह कैसे मानेगी कि जिस पत्ते पर मैं पड़ी थी उसने मुझे छुआ नहीं। जिस पत्ते पर मैं रही हं, जिस पत्ते पर मैं बसी है, जिस पत्ते पर मेरा निवास रहा, उस पत्ते ने मुझे नहीं छआ, यह बंद कैसे मानेगी! बंद को यह भ्रम होता ही होगा कि पत्ते ने मुझे छुआ। पत्ता बूंद को नहीं छूता है। गौतम को भी लगता होगा कि महावीर मेरे लिए चिंतित हैं। महावीर चिंतित नहीं हैं। महावीर जो कह रहे हैं, इसमें कोई चिंता नहीं है, सिर्फ करुणा है। ध्यान रहे, करुणा अपेक्षारहित प्रेम है / मोह, अपेक्षा से परिपूर्ण प्रेम है / अपेक्षा जहां है वहां स्पर्श हो जाता है / जहां अपेक्षा नहीं है, वहां कोई स्पर्श नहीं होता। प्रमाद है स्पर्श का द्वार, आसक्ति का द्वार, मूर्छित / / कभी आपने खयाल किया, जब आप किसी के प्रेम में पड़ते हैं तो होश में नहीं रह जाते / बेहोशी पकड़ लेती है। बायोलाजिस्ट कहते हैं कि इसका कारण ठीक वैसा ही है, जैसा शराब पीकर आपके पैर डगमगाने लगते हैं, वैसा ही है / या एल.एस.डी., मारिजुआना लेकर जगत बहुत रंगीन मालूम होने लगता है / एक साधारण-सी स्त्री या एक साधारण-सा पुरुष, जब आप उसके प्रेम में पड़ जाते हैं, तो एकदम ___ एक साधारण-सी स्त्री अचानक, जिस दिन आप प्रेम में पड़ जाते हैं। कल भी इस रास्ते से गुजरी थी, परसों भी इस रास्ते से गुजरी थी, हो सकता है, बचपन से आप उसे देखते रहे हों, और कभी नहीं सोचा था कि यह स्त्री अप्सरा है। अचानक एक दिन कछ हो जाता 35 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है आपके भीतर। आपको भी पता नहीं चलता क्या होता है, और एक स्त्री अप्सरा हो जाती है। उस स्त्री का सब कुछ बदल जाता है, मेटामार्कोसिस हो जाती है। उस स्त्री में आपको वह सब दिखायी पड़ने लगता है, जो आपको कभी दिखायी नहीं पड़ा था / सारा संसार उस स्त्री के आसपास, इर्द-गिर्द इकट्ठा हो जाता है। सारे सपने उस स्त्री में पूरे होते मालूम होने लगते हैं। सारे कवियों की कविताएं एकदम फीकी पड़ जाती हैं, वह स्त्री काव्य हो जाती है। क्या हो जाता है? बायोलाजिस्ट कहते हैं कि आपके शरीर में भी सम्मोहित करने के केमिकल्स हैं। कोई आदमी ऊपर से एल.एस.डी. लेता है, एल.एस.डी. लेने से ही; जब हक्सले ने एल.एस.डी. लिया तो जिस कुर्सी के सामने बैठा था, वह कुर्सी एकदम इंद्रधनुषी रंगों से भर गयी। लिया एल.एस.डी., भीतर एक केमिकल डाला, उससे सारी आंखें आच्छादित हो गयीं। कुर्सी-साधारण कुर्सी, जिसको उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया था, जो उसके घर में सदा से थी, वह उसके सामने रखी थी-उस कुर्सी में से रंग-बिरंगी किरणें निकलने लगीं। वह कुर्सी एक इंद्रधनुष बन गयी। हक्सले ने लिखा है, कि उस कुर्सी से सुंदर कोई चीज ही नहीं थी उस क्षण में / ऐसा मैंने कभी देखा ही नहीं था। हक्सले ने लिखा है कि क्या कबीर ने जाना होगा अपनी समाधि में, क्या इकहार्ट को पता चला होगा, जब वह कुर्सी ऐसी रंगीन हो गयी, स्वर्गीय हो गयी। देवताओं के स्वर्ग की कुर्सियां फीकी पड़ गयीं। सारा जगत ओछा मालूम पड़ने लगा। __ क्या हो गया उस कुर्सी को? उस कुर्सी को कुछ नहीं हुआ। कुर्सी अब भी वही है / हक्सले को कुछ हो गया / हक्सले को भीतर कुछ हो गया। वह जो भीतर केमिकल गया है, खून में दौड़ गया है, उसने हक्सले की मनोदशा बदल दी। हक्सले अब सम्मोहित है। अब यह कुर्सी अप्सरा हो गयी। छह घंटे बाद जब नशा उतर गया एल.एस.डी. का, तो, कुर्सी वापस कुर्सी हो गयी। कुर्सी, कुर्सी थी ही; हक्सले वापस हक्सले हो गये। फिर कुर्सी साधारण है। __इसलिए हनीमून के बाद अगर स्त्री साधारण हो जाये, पुरुष साधारण हो जाये घबराना मत / कुर्सी, कुर्सी हो गयी। कोई आदमी सुहागरात में ही जिंदगी बिताना चाहे तो गलती में है। पूरी रात भी सुहागरात हो जाये तो जरा कठिन है / कब नशा टूट जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। मुल्ला नसरुद्दीन स्टेशन पर खड़ा था। पत्नी को बिदा कर रहा था। गाड़ी छूट गयी। किसी परिचित ने पूछा कि नसरुद्दीन! पत्नी कहां जा रही है? . मुल्ला ने कहा, 'हनीमून पर, सुहागरात पर / ' मित्र थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, 'क्या कहते हो? तुम्हारी ही पत्नी है न?' मुल्ला ने कहा, 'मेरी ही है।' 'तो अकेली कैसे जा रही है हनीमून पर?' मुल्ला ने कहा, 'हम पिछले साल हनीमून पर हो आये, यह सस्ता भी था, अलग-अलग जाना, सुविधापूर्ण भी था।' 'और फिर मैंने सुना है कि हनीमून के बाद विवाह फीका हो जाता है। तो हम अलग-अलग हो आये हैं, ताकि विवाह जो है फीका न हो। हनीमून पर हो भी आये हैं नियमानुसार, और हनीमून अभी हुआ भी नहीं।' वह जो हनीमून है, वह जो सुहागरात है, वह जो दिखायी पड़ता है, वह आपके भीतर केमिकल्स ही हैं / इसलिए बहुत खयाल रखें, जहां अमरीका में या योरोप में शादी के पहले यौन के संबंध निर्मित होने लगे हैं, वहां हनीमून तिरोहित हो गया। वहां हनीमून पैदा होता 36 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध था- अगर बीस पच्चीस वर्ष की उम्र तक आपने अपनी काम-ऊर्जा को संग्रहीत किया हो तो ही वे केमिकल्स निर्मित होते थे संग्रह के कारण, जो एक स्त्री और पुरुष को देवी और देवता बना देते थे। अब वे संग्रहीत ही नहीं होते / इसलिए हनीमून वैसा ही साधारण होता है जैसा कि साधारण रोज के दिन होते हैं। हमारे भीतर रासायनिक उपक्रम हैं, जैविक विज्ञान के अनुसार, जिससे हम सम्मोहित होते रहते हैं। जब आप एक स्त्री के प्रेम में गिरते हैं तो आप मर्छित हैं। इसे महावीर ने प्रमाद कहा है। जिसको जीव विज्ञानी बेहोशी के रासायनिक द्रव्य कहता है उसको महावीर ने प्रमाद कहा है। आप बेहोश हो जाते हैं। इस बेहोशी को जो नहीं तोडता रहता है निरंतर, वह आदमी कभी भी कमलवत नहीं हो पायेगा। और जो कमलवत नहीं हो पायेगा. वह इस कीचड़ में कीचड़ ही रहेगा। इस कीचड़ के जगत में उसे फल के होने का आनंद उपलब्ध नहीं हो सकता। उसे कीचड की ही पीड़ा झेलनी पड़ेगी। प्रमाद मिटता है ध्यान से। ध्यान प्रमाद के विपरीत है। ध्यान का अर्थ है होश / जो भी करें, होश से करना। अगर प्रेम भी करें तो होश से करना। यह कठिन मामला है। न चोरी हो सकती होश से, न क्रोध हो सकता होश से, न प्रेम हो सकता होश से। बेहोशी उनकी अनिवार्य शर्त है। बेहोश हों तो ही वे होते हैं। इसलिए अंग्रेजी में शब्द अच्छा है। हम कहते हैं कि कोई आदमी प्रेम में गिर गया, वन हैज फालन इन लव। कहना चाहिए, वन हैज राइजन इन लव / कहते हैं, गिर गया बेचारा; वह गिर गया, ठीक ही कहते हैं। क्योंकि बेहोशी का अर्थ है गिर जाना, होश खो दिया, सिर गंवा दिया। इसलिए प्रेमी सबको पागल मालूम पड़ता है। इसका यह मतलब नहीं, कि जब आप प्रेम में गिरेंगे तब आपको पागलपन पता चलेगा। तब आपको सारी दुनिया पागल मालूम पड़ेगी। आप भर समझदार मालूम पड़ेंगे, और सारी दुनिया आपको पागल समझेगी। ऐसा नहीं है कि उनकी कोई बुद्धि बढ़ गयी है। वे भी गिरते रहे हैं, गिरेंगे। लेकिन जब तक नहीं गिरे हैं, तब तक वे समझते हैं, देखते हैं, किसके पैर डगमगा रहे हैं, कौन बेहोशी में चल रहा है। आसक्ति प्रमाद है, ध्यान, अनासक्ति है, कितने होश से जीते हैं। एक-एक पल होश में रह गौतम / 'इस प्रपंचमय विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका तू / भला किनारे पहुंचकर तू क्यों अटक रहा है? महावीर कहते हैं, गौतम! तेरा स्नेह मुझसे अटक गया है। अब तू मुझे प्रेम करने लगा है। यह भी छोड़। पत्नी का, पति का, मित्र का, स्वजन का मोह छोड़ दिया, यह गुरु का मोह भी छोड़। यह स्नेह मत बना। यह आसक्ति मत बना। __'उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर / हे गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।' एक क्षण को भी बेहोश मत जी / उठ, तो यह जानते हुए उठ, कि तू उठ रहा है। बैठ तो जानते हुए बैठ, कि तू बैठ रहा है। श्वास भी ले तो यह जानते हुए ले, कि तू श्वास ले रहा है। यह श्वास भीतर गयी तो महावीर ने कहा है, जान कि भीतर गयी। यह श्वास बाहर गयी, तो जान कि बाहर गयी। तेरे भीतर कुछ भी न हो पाये जो तेरे बिना जाने हो रहा है। यह कठिनतम साधना है, लेकिन एकमात्र साधना है। अनेक-अनेक रास्तों से लोग इसी साधना पर पहंचते हैं। क्योंकि जब कोई व्यक्ति एक क्षण भी बेहोशी नहीं करता है और निरंतर होश की चेष्टा में लगा रहता है। भोजन करे तो होशपूर्वक, बिस्तर पर लेटने जाये तो होशपूर्वक, करवट ले तो रात में होशपूर्वक, इतना जो होश से जीता है, धीरे-धीरे होश सघन हो जाता है, इंटेन्स हो जाता है। और जब होश सघन होता है तो अंतर-ज्योति बनती है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 होश की सघनता ही भीतर की ज्योति है। होश का बिखर जाना ही भीतर का अंधकार है। जितना होश सघन हो जाता है, उतने हम प्रकाशित हो जाते हैं। और यह प्रकाश भीतर हो, तो फिर आसक्ति निर्मित नहीं होती। अंधेरे में निर्मित होती है। यह प्रकाश भीतर हो तो आपको मिल गयी वह व्यवस्था, जिससे कीचड़ से कमल अपने को दूर करता जायेगा। होश बीच की डण्डी है, जिससे कीचड़ से कमल दूर चला जाता है। पार हो जाता है। फिर कुछ भी उसे स्पर्श नहीं करता / फिर वह अस्पर्शित और कुंआरा रह जाता है। कमल का कुंआरापन संन्यास है। . आज इतना ही। पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें।