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________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध था- अगर बीस पच्चीस वर्ष की उम्र तक आपने अपनी काम-ऊर्जा को संग्रहीत किया हो तो ही वे केमिकल्स निर्मित होते थे संग्रह के कारण, जो एक स्त्री और पुरुष को देवी और देवता बना देते थे। अब वे संग्रहीत ही नहीं होते / इसलिए हनीमून वैसा ही साधारण होता है जैसा कि साधारण रोज के दिन होते हैं। हमारे भीतर रासायनिक उपक्रम हैं, जैविक विज्ञान के अनुसार, जिससे हम सम्मोहित होते रहते हैं। जब आप एक स्त्री के प्रेम में गिरते हैं तो आप मर्छित हैं। इसे महावीर ने प्रमाद कहा है। जिसको जीव विज्ञानी बेहोशी के रासायनिक द्रव्य कहता है उसको महावीर ने प्रमाद कहा है। आप बेहोश हो जाते हैं। इस बेहोशी को जो नहीं तोडता रहता है निरंतर, वह आदमी कभी भी कमलवत नहीं हो पायेगा। और जो कमलवत नहीं हो पायेगा. वह इस कीचड़ में कीचड़ ही रहेगा। इस कीचड़ के जगत में उसे फल के होने का आनंद उपलब्ध नहीं हो सकता। उसे कीचड की ही पीड़ा झेलनी पड़ेगी। प्रमाद मिटता है ध्यान से। ध्यान प्रमाद के विपरीत है। ध्यान का अर्थ है होश / जो भी करें, होश से करना। अगर प्रेम भी करें तो होश से करना। यह कठिन मामला है। न चोरी हो सकती होश से, न क्रोध हो सकता होश से, न प्रेम हो सकता होश से। बेहोशी उनकी अनिवार्य शर्त है। बेहोश हों तो ही वे होते हैं। इसलिए अंग्रेजी में शब्द अच्छा है। हम कहते हैं कि कोई आदमी प्रेम में गिर गया, वन हैज फालन इन लव। कहना चाहिए, वन हैज राइजन इन लव / कहते हैं, गिर गया बेचारा; वह गिर गया, ठीक ही कहते हैं। क्योंकि बेहोशी का अर्थ है गिर जाना, होश खो दिया, सिर गंवा दिया। इसलिए प्रेमी सबको पागल मालूम पड़ता है। इसका यह मतलब नहीं, कि जब आप प्रेम में गिरेंगे तब आपको पागलपन पता चलेगा। तब आपको सारी दुनिया पागल मालूम पड़ेगी। आप भर समझदार मालूम पड़ेंगे, और सारी दुनिया आपको पागल समझेगी। ऐसा नहीं है कि उनकी कोई बुद्धि बढ़ गयी है। वे भी गिरते रहे हैं, गिरेंगे। लेकिन जब तक नहीं गिरे हैं, तब तक वे समझते हैं, देखते हैं, किसके पैर डगमगा रहे हैं, कौन बेहोशी में चल रहा है। आसक्ति प्रमाद है, ध्यान, अनासक्ति है, कितने होश से जीते हैं। एक-एक पल होश में रह गौतम / 'इस प्रपंचमय विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका तू / भला किनारे पहुंचकर तू क्यों अटक रहा है? महावीर कहते हैं, गौतम! तेरा स्नेह मुझसे अटक गया है। अब तू मुझे प्रेम करने लगा है। यह भी छोड़। पत्नी का, पति का, मित्र का, स्वजन का मोह छोड़ दिया, यह गुरु का मोह भी छोड़। यह स्नेह मत बना। यह आसक्ति मत बना। __'उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर / हे गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।' एक क्षण को भी बेहोश मत जी / उठ, तो यह जानते हुए उठ, कि तू उठ रहा है। बैठ तो जानते हुए बैठ, कि तू बैठ रहा है। श्वास भी ले तो यह जानते हुए ले, कि तू श्वास ले रहा है। यह श्वास भीतर गयी तो महावीर ने कहा है, जान कि भीतर गयी। यह श्वास बाहर गयी, तो जान कि बाहर गयी। तेरे भीतर कुछ भी न हो पाये जो तेरे बिना जाने हो रहा है। यह कठिनतम साधना है, लेकिन एकमात्र साधना है। अनेक-अनेक रास्तों से लोग इसी साधना पर पहंचते हैं। क्योंकि जब कोई व्यक्ति एक क्षण भी बेहोशी नहीं करता है और निरंतर होश की चेष्टा में लगा रहता है। भोजन करे तो होशपूर्वक, बिस्तर पर लेटने जाये तो होशपूर्वक, करवट ले तो रात में होशपूर्वक, इतना जो होश से जीता है, धीरे-धीरे होश सघन हो जाता है, इंटेन्स हो जाता है। और जब होश सघन होता है तो अंतर-ज्योति बनती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340029
Book TitleMahavir Vani Lecture 29 Aliptata aur Anasakti ke Bhav Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size71 MB
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