SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध तो राहगीरों ने यह सूत्र उसको कहा है। यह जो सूत्र है, राहगीरों ने कहा है। राहगीरों ने कहा, कि तेरा उन्होंने स्मरण किया और उन्होंने कहा है कि गौतम को यह कह देना / गौतम यहां मौजूद नहीं है, गौतम को यह कह देना / यह जो सूत्र है, यह गौतम के लिए कहलाया गया है। 'जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेह-बंधनों से रहित हो जा। अतः गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।' ___ 'तू इस प्रपंचमय विशाल संसार-समुद्र को तैर चुका, भला किनारे पहुंचकर तू क्यों अटक गया है। उस पार पहुंचने के लिए शीघ्रता कर / हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर।' ये जो आखिरी शब्द हैं कि तू सारे संसार के सागर को पार कर गया-गौतम पत्नी को छोड़ आया, बच्चों को छोड़ आया, धन, प्रतिष्ठा, पद / प्रख्यात था, इतने लोग जानते थे, सैकड़ों लोगों का गुरु था, उस सबको छोड़कर महावीर के चरणों में गिर गया, सब छोड़ आया। तो महावीर कहते हैं, तूने पूरे सागर को छोड़ दिया गौतम, लेकिन अब तू किनारे को पकड़कर अटक गया / तूने मुझे पकड़ लिया। तूने सब छोड़ दिया, तूने महावीर को पकड़ लिया / तू किनारा भी छोड़ दे, तू मुझे भी छोड़ दे / जब तू सब छोड़ चुका तो मुझे क्यों पकड़ लिया? मुझे भी छोड़ दे। ___ जो श्रेष्ठतम गुरु हैं, उनका अंतिम काम यही है कि जब उनका शिष्य सब छोड़कर उन्हें पकड़ ले, तो तब तक तो वे पकड़ने दें जब तक यह पकड़ना शेष को छोड़ने में सहयोगी हो, और जब सब छूट जाये तब वे अपने से भी छूटने में शिष्य को साथ दें। जो गुरु अपने से शिष्य को नहीं छुड़ा पाता, वह गुरु नहीं है। यह महावीर का वचन है, कि अब तू मुझे भी छोड़ दे, किनारे को भी छोड़ दे / सब छोड़ चुका, अब नदी भी पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर भी नदी में अटका हुआ है, नदी को नहीं पकड़े हुए हए है। किनारा नदी नहीं है। लेकिन कोई आदमी किनारे को पकड़कर भी तो नदी में हो सकता है। और फिर किनारा भी बाधा बन जायेगा। किनारा चढ़ने को है, बाधा बनने को नहीं। इसे भी छोड़ दे और इसके भी पार हो जा। इस सूत्र को हम समझेंगे। उसके पहले एक दो सवाल और हैं। जिन मित्र ने यह पूछा है—ज्ञान और स्मृति का, वे ठीक से समझ लें / स्मृति व्यर्थ नहीं है। स्मृति सार्थक है बाहर के जगत के लिए। पांडित्य व्यर्थ नहीं है, सार्थक है, बाहर के जगत के लिए। भीतर के जगत के लिए व्यर्थ है। मगर उल्टी बात, इससे विपरीत बात भी सही है। अन्तःप्रज्ञा भीतर जगत के लिए सार्थक है, लेकिन बाहर के जगत के लिए सार्थक नहीं है। विज्ञान बाहर के जगत के लिए, धर्म भीतर के जगत के लिए / विज्ञान है स्मृति, धर्म है अनुभव / इसलिए विज्ञान दूसरों के सहारे बढ़ता है, धर्म केवल अपने सहारे / अगर हम न्यूटन को हटा लें तो आइंस्टीन पैदा नहीं हो सकता। हालांकि मजे की बात है कि आइंस्टीन न्यूटन को ही गलत करके आगे बढ़ता है, लेकिन फिर भी न्यूटन के बिना आगे नहीं बढ़ सकता / न्यूटन ने जो कहा है, उसके ही आधार पर आइंस्टीन काम शुरू करता है। फिर पाता है कि वह गलत है। तो फिर छांटता है। लेकिन अगर न्यूटन हुआ ही न हो तो आइंस्टीन कभी नहीं हो सकता, क्योंकि बाहर का ज्ञान सामूहिक है, पूरे समूह पर निर्भर है। ऐसा समझ लें कि अगर हम विज्ञान की सारी किताबें नष्ट कर दें, तो क्या आप समझते हैं कि आइंस्टीन पैदा हो सकेगा, बिलकुल पैदा नहीं हो सकेगा। अ ब स से शुरू करना पड़ेगा। अगर हम विज्ञान की सब किताबें नष्ट कर दें तो क्या आप सोचते हैं, अचानक कोई आदमी हवाई जहाज बना लेगा? नहीं बना सकता / बैलगाड़ी के चक्के से शुरू करना पड़ेगा, और कोई दस हजार साल लगेंगे, बैलगाड़ी 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340029
Book TitleMahavir Vani Lecture 29 Aliptata aur Anasakti ke Bhav Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size71 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy