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लाभोदयरास । वाचना बीजी ॥ भूमिका
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
अनुसन्धान-२५ मां (September 2003) पृ. ६२-७३ 'लाभोदयरास' प्रकाशित थयेलो. ते रासनी आधारभूत प्रति त्रुटित-त्रुटक होई ते अधूरो ज छपायो छे. सद्भाग्ये ते रासनी वधु एक प्रति जडी आवी छे, जे अत्रुटितसंपूर्ण वाचना धरावे छे, उपरांत, केटलाक महत्त्वना पाठभेद पण आपे छे. आ कारणे ज, आ बीजी प्रतिनी वाचना साद्यन्त सम्पादित करी अत्रे आपवामां आवे छे, जेथी अभ्यासी जनोने तुलना करवानुं सुगम थशे..
१. सौ प्रथम जे अंशो पूर्व-सम्पादनमां नथी, पण आ नवीन सम्पादनमा छे, ते अंशोनी नोंध जोईशुं. आ माटे समजवान सुगम पडे ते हेतुथी पूर्व सम्पादनने 'ला.१' तरीके तथा आ नवीन सम्पादनने 'ला.२' तरीके ओळखीशुं.
(1) ला. १मां अंक-संख्या-अनुसारे ९० कडी छे, तो ला.रमां १४४ कडी छे. (2). ला. २ प्रमाणे कडी क्र.८, कडी क्र. ४६-९४, कडी क. ११४-१२३, कडी क्र. १४२-४४, आटली कडीओ ला.१मां नथी. (3) तो ला.१ गत कडी १०३-४ तथा कडी ११९-२३, आ कडीओ ला.२मां नथी. (4) ला.१नी कडी १० (ला.२मां ११)नुं त्रीचं चरण; कडी ३४ (ला.२मां ३६)नुं त्रीजुं चरण; कडी ९५ (ला.२,मां ९५)मा पूर्वार्ध-पश्चार्धनो व्यत्यय; कडी ९६ (बन्नेमां) नो उत्तरार्ध; कडी १०३ (बन्नेमा)मां बे पंक्तिनो उत्तरार्ध तथा तेनी प्रथम पंक्ति; कडी ११४ (ला.रमां ११३)मां उत्तरार्ध; कडी १२६ (ला.२मां १२८)नो पूर्ण पाठ; आ बधामां जे सुधारा, उमेरा, फेरफार छे, ते बन्ने वाचनाओ साथे सामे राखवाथी समजी शकाय तेम छे. तो कडी ३२ (ला.२मां ३३) नवी वाचनामां सुग्रथित तथा पूर्णरूपे जोवा मळे छे. (5) ला.१ नी वाचनामां 'ढाल'ना रागो नोंधाया नथी, जे ला-२नी वाचनामां जोवा मळे छे.
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( 6 ) ला. १नी भूमिकामां आ रासना रचनासमय विषे अटकळ करतां नोंधेलुं के 'छतां तेनी रचना विजयसेनसूरिमहाराजनी विद्यमानतामां ज थई होय, अथवा तो आ समग्र घटनाक्रमना कर्ता स्वयं साक्षी पण रह्या होय अने तेमणे आंखे देख्यो हेवाल आ रासरूपे लख्यो होय, तेवी शक्यता वधु लागे छे.'- आ नोंध ला. २नी वाचना द्वारा प्राप्त निम्नांकित पंक्तिओ जोतां यथार्थ होवानुं सिद्ध थाय छे. कर्ता रासनुं समापन करतां लखे छे के
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आगरइ सहइरि श्रीपासपसाउलइ संवत सोल उगणपंचासइ ।
कल्याणकुशल गुरुराज कल्याणकर सीस दयाकुशल मनिरंगि भासइ ||
अर्थात् आगरा शहेरमां संवत १६४९मां दयाकुशले आ रास रच्यो छे. विजयसेनसूरिनो शाह पासे जवा रहेवानो समय पण आ ज छे; अने कवि ते वखते तेमनी साथे होवा जोईए.
( 7 ) ला. १मां जे अंश नथी, ते अंश ला - २ मां मळवाथी खूटती विगतो जाणी शकाय छे. ते आ प्रमाणे :
शाहनो संदेशो ( आमंत्रण) आव्या पछी गुरु-शिष्य (विजय हीर, विजयसेन) एक स्थाने बेसीने चर्चा करे छे. तेमां शिष्यनी गुरुने मूकीने जवानी अनिच्छा, गुरुनी मोकलवानी भावना, अने शिष्यनी गुरुवचनने न उत्थापवानी तत्परता एकदम अल्प शब्दोमां ज ध्वनित थाय छे. (कडी ४७४९). विजयसेनसूरिनुं मूळ नाम जेसींग- जयसिंह हतुं, तथा गुरु हमेशां तेमने 'जेसींग 'ना लाड - नामथी ज बोलावता, तेथी कविए पण आ तबक्के तेमने ते नामे ज वर्णव्या छे. विजयसेनसूरिए विहार कर्यो त्यारे थयेलां शुभ शकुनोनुं वर्णन (५०-५२) वास्तविक लागे तेवुं छे. आने मळतुं वर्णन 'विजयप्रशस्ति' काव्यमां पण जोवा मळे छे.
आ पछी तेमना विहारक्रमनुं वर्णन ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वनुं छे. तेओ कया मार्गे चाल्या, ते खास जाणवालायक छे. राधनपुरथी शंखेश्वर, पाटण, सिद्धपुर, मालवणी, रोह-सरोतरना मार्गे आगळ वधतां मुण्डस्थल,
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कासींद्रा थईने तेओ आबू पर्वते आव्या छे. त्यांथी सीरोही गया. वाटमां सरोतर (सरोत्रा?)मां सहस्रार्जुन नामे भील राजवीए गुरुनी स्वागता करी हती, तो सीरोहीमां देवडा राये सरभरा करी हती. आ पछी तेओ सादडी आवे छे, तेना प्रयोजनमां कवि कथे छे के 'संसारीआ वंदाववा' अर्थात् पोतानां संसारी स्वजनो खातर तेओ सादडी (अथवा सादडीना रस्ते) आव्या छे. अने त्यां निडोलाई-नाडलाईनो-तेमनी जन्मभूमिनो संघ पण आव्यानो निर्देश थयो छे.
___ सादडीथी राण(क)पुरनी यात्रा करतां नडूलाई पहोंच्या. अत्यार सुधी (राधनपरथी?) साथे आवेल 'गूजरात'नो संघ (श्रावको) गुरुनी अनुमति लईने पाछो फरे छे (कडी ६०), तेनो उल्लेख खूब रसप्रद छे. त्यांथी बांतावगडीमां थई जैतारण, केकिंद अने मेडता पधार्या. मेडतानो संघ तथा त्यांना राठोड सामा आव्या, अने नगरमां पधार्या पछी श्रावकोए खूब उत्सव ने भक्ति काँ. श्रावको तरीके सचीआदास, नरायणा तथा रूपसी-ए ३ नाम (कडी ६३) नोंधेल छे. त्यांथी महिमामेर, सांगानेर थई वैराट नगरे आव्या. त्यां विमलनाथ जिन देरासर होवानो तेमज भारमल्ल इन्द्राज नामे गुरुभक्त (राजा) होवानो उल्लेख (कडी ६५) महत्त्वनो छे. त्यांथी विक्रमपुर (बीकानेर) आव्या. त्यां पण इंद्राज (राजा) वंदे छे.
त्यांथी महिमानगर आवतां त्यां रहेला पंडित रंगकुशल मुनि आवीने गुरुने भेटे छे (गडी ७०). त्यांनो खोजो (गामनो मुखी होवो जोईए) पण घणी आवभगत करे छे (कडी ७१). अहीं लाहोरथी कल्याणशाह श्रावके आवी गुरुने वंदन कर्यां छे. पछी गुरु खानपुर आवतां लाहोरनो संघ सामो आव्यो हतो. आ खानपुर ए लाहोरनुं शाखापुर होय एवी शक्यता वधु जणाय.
पछीनी ढालमा सामे आवेलो संघ, गुरुनी पधरामणीना हर्षमां, शुं शुं लाव्यो छे तेनुं विगते वर्णन छे, जे काल्पनिक-अवास्तविक न होतां ऐतिहासिक तथ्यात्मक छे. ते काळे गुरुर्नु स्वागत आवा अनेक प्रकारोथी थतुं. संघ उपरांत शेषजी एटले शेख अबुल फजल, शाहजादा, खानसाहेबो तथा राजा-राणाओ पण गुरुने सामैये आव्यानो उल्लेख आमां जोई शकाय छे (८०). आखी ढालमा स्वागत-सामैयानुं हू-ब-हू वर्णन थयुं छे.
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अनुसंधान-२७ (8) आ पछी ११४-१२३ कडीनो त्रुटित अंश ला. २मां प्राप्त थयो छे, ते जोईए. आ अंशमां, गुरुनी विरुद्धमां ब्राह्मणादिए शहेनशाहनी कानभंभेरणी करेली अने सूर्य तथा गंगा विषे शाहना मुखे प्रश्नो गुरुने पूछावेला, तेनो प्रत्युत्तर जे गुरुए आप्यो, अने ते थकी शाहने समाधान थतां विरोधीओनो जे पराभव थयो, तेनुं बयान मळे छे.
कडी १२६-२९मां नगरठठा, सिंध, कच्छ-ए देशोमा चोमासामां मच्छीमारी न थाय तेवू फरमान शाहे गुरुने आप्यानो उल्लेख छे. साथे गोवंश तथा अन्य प्राणीओ माटे अमारि-फरमान, मृतकवेरानुं निवारण तथा कोईने केदखानामां न नाखवानो हुकम पण शाहे आपेल छे. तो ते पछीनी ढालमां शाहे गुरुना उपदेशथी करेलां अहिंसाप्रधान सत्कार्योनी नोंध पण जोई शकाय छे.
(9) समस्या एक ज छे के ला.१मां (कडी ११९-२३) शेखनी प्रार्थनाथी गुरुए उपाध्यायपद आप्यानो उल्लेख छ, ते आ ला.रनी वाचनामां केम नथी ? ला. १ गत कडी ११९-२० आ प्रमाणे छे :
शेषजी श्रीगुरुकुं कहई, भलशिष्य तुहीरा भाण । मलेच्छ करें डेकाविली, सो किआ चतुर सुजाण ॥
गुरु कह्या हमारा कीजइ, उपाध्याय पदवी दीजइ ॥
(ला.१नी भूमिकामां “केटलाक खास मुनिवरोने उपाध्याय पद" आबुं विधान छे ते बराबर नथी; भाण एटले भानुचन्द्र गणिने ज पद आपवानी वात छे).
आ घटना ऐतिहासिक छे. 'हीरसौभाग्य' (सर्ग १४)मां आ घटनानो आ प्रमाणे उल्लेख थयो छ :
श्रीमत्सूरिवरो व्यधत्त वसुधावास्तोष्पतेराग्रहेणोपाध्यायपदस्य नन्दिमनघां श्रीभानुचन्द्रस्य सः । शेखो रुपकषट्शती व्यतिकरे तत्राश्वदानादिभिभक्तः श्राद्ध इवार्थिनां प्रमुदितो विश्राणयामासिवान् ॥२९२॥
अर्थात् बृहस्पतितुल्य शेखना आग्रहथी सूरिजीए श्रीभानुचन्द्रजीने नन्दि(नाण)पूर्वक उपाध्याय पद आप्युं, अने ते प्रसंगे शेखे ६०० रुपियानो
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सद्व्यय, अश्वदान वगेरे करवा द्वारा, एक भक्त श्रावकनी जेम कर्यो.
मूळे हीरविजयसूरिए तो अगाऊ ज तेमने 'उपाध्याय' तरीके जाहेर करेला, परंतु नन्दि अने वासक्षेपदाननी क्रिया बाकी हती, ते आ अवसरे शेखना कहेवाथी गुरुए पूर्ण करी. (ही.सौ. १४-२८६).
ला.१नी वाचनागत ११९-२३ कडीओमां आ ऐतिहासिक प्रसंग ज वर्णवायो छे, अने रासकार आ प्रसंगोना स्वयं साक्षी होवाथी तेओ आवी महत्त्वनी घटना नोंध्या विना रहे ज केम ? ए सवाल ला.२ नी वाचना जोया पछी थाय तो ते स्वाभाविक छे.
एक संभावना ए छे के ला.२ वाचनाना प्रतिलेखक समक्ष आ पाठ ना होय; अथवा तो तेओ आ अंश लखवानुं चूकी गया होय. अलबत्त, आ उपरथी एक वात ए पण सिद्ध थई शके के ला.२ वाळी प्रति करतां ला. १ वाळी प्रति वधु पुराणी होय. केमके बेमांथी एकेयमां लेखनसंवत् दर्शावती पुष्पिका नथी. अलबत्त, आ मात्र अटकळ ज गणाय. क्यारेक तेनाथी ऊलटुं पण होई शके, केमके ला. १ प्रतिमां, ला. २ गत १४२-४४ कडीओ नथी ज.
(10) ला.२मां घणा पाठो महत्त्वना जणाया छे. जेमके- 'साह कमा' (कडी २-२), 'जगि जयउ' (६-६), 'तिहां सो०' (१०-११), कमता बलष' (१५-१६), 'सघलइ' (१६-१७), 'ताको न लहु' (१७-१८), 'गाजी पठान' (१८-१९), 'चबाड' (१९-२०), 'सुरमांहिं' (२१-२२), 'बुहडि बोलइ' (२६-२७), 'हीक कही उर कूकूत' (२६-२७), 'भंगि खाई' (२७२८), 'ए सब जब' (३०-३१), 'श्रवणे सुंण्या' (३०-३१), 'जोगीसर सिंणगार' (३१-३२), 'न हाथि लीइ' (३२-३४), 'बहु बोलइ' (३२-३४), 'अइसे हिं उही' (३३-३५), 'इया खुदा तई' (३६-३८), 'बंद खलासी' (३८-४०), 'कहु तु लीजई' (३८-४०), 'उहांको', 'करणी अयसी' (४१४३), 'दुहाई' (४२-४४), 'श्रीगुरुवदन' (९५-९५), 'साधत हो' (१०११०१), 'पीआरां सुख' (१०९-१०८), 'मान्युं गुरु वचनप्रमाण' (१२८१३०), 'हीर अकब्बर जेसंग साही' (१२८-१३०), 'आतम साधक साधु' (१३३-१३५), 'सीझइ वंछित' (१३९-१४१) इत्यादि.
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अनुसंधान-२७ अहीं पाठ ला.२ प्रमाणे शुद्ध लाग्या ते मूक्या छे, अने ब्रेकेटमां प्रथम ला. १ प्रमाणे अने पछी ला. २ प्रमाणे कडी क्रमांक आप्या छे.
आ ला.२नी प्रतिनी झेरोक्स नकल मने आ. श्रीविजयप्रद्युम्नसूरि महाराज तरफथी मळी छे. तेमणे ते कोबाना ज्ञानभण्डारमाथी मेळवी छे. प्रतिमा एकथी वधु कृतिओ हशे, तेम जणाय छे. प्रतिना प्रथम ७ पानांमां आ रास छे. ते पछी आरामनन्दनरास शरु थतो होवानुं आठमा पत्रथी लागे छे. मने ८ पत्रो ज मळ्या छे. कोबा संग्रहनो क्र. १३७२१ छे. तेओनो अत्रे आभार मानू छु.
पं. दयाकुशलकृत - श्रीलाभोदयरास ॥ सरसति मति अतिनिरमली, आपो करी पसाय । जेसंगजी गुण गावतां, अविहड वर दिउ माय ॥१॥ नडुलाई नयरी भली, धन्य धन्य श्रीउसवंस । शाह कमाकुल चंदलु, सुर नर करइं प्रसंस ॥२॥ धन कोडमदे जनमिउ, तपगछको सुलतान । अधिक अधिक तेजिं सदा, वाधइ युगह प्रधान ॥३॥ जस मुख शारद चंदलो, जीह अमीनो घोल । दंतपंति हीरा जसी, अधरस कुंकुमरोल ॥४॥ अति अणीयाली आंखडी, वांकी भमुह कमानि । सरल सकोमल नासिका, मोहइ भविक सुजाण ॥५॥ गजगति चालइ चालतु, सकल कलागुण पूर । गौतमसम गुरु जगि जयउ, जस अनोपम नूर ॥६॥ श्रीगुरु हीर सदा जयउ, तासु तणो ए सीस । रास रचुं रलीआमणो, प्रणमी जिन चउवीस ॥७॥
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कल्याणकुशलपंडित जयउ, सकल पंडित सरि लीह । दयाकुशल तसु पय नमी, सफल करइ निज जीह ॥८॥ चउपई ॥
विनय विवेक विचार सुजाति, कहीइ देस चतुर गूजराति । तिहां रायधनपुर नयर प्रसिद्ध लोक वसई पुन्यवंत समृद्धि ॥९॥
तिहां गुरु गुणवंत करइ चउमासि, पूरइ भविजन केरी आस । श्रीगुरु हीर जेसंगजी वली, दूधमांहिं जिम शाकर भली ॥ १० ॥ तिहां सोहइ गुरु-गुरु की जोडि, मंगल महानंद होवइ कोडि । आवइ निति निति श्री संघ थोक, श्रीगुरुतेजि सुखी सहु लोक ॥११॥
दूहा ||
अवसरि इणइ अति बली, अकबर साह सुलतान । श्रीगुरु रंगि बोलावीआ, ते सुणो भविक सुजान ॥ १२ ॥
ढाल ॥ राग देशाख ॥
अतिहठी अकबरसाहि कहावइ, दूजो दुनिभई उपम कोई नावइ । कोउ नाहीं अकबर बलि पूजइ, नाम सुणत वयरी तन धूजइ । दूरि कीआ वयरी मद मोड, विषम लीउ जेणई कोट चितोड । कुंभलमेर अजमेर समाणो, जोधपुर जेसलमेर जाणो || १३ || जुंनो गढ लीउ सूरति कोट, भरूअचिकोट लीउ एकदोट । मांडवगढ लीउ बल मांडी, हाडा गया रणथंभर छांडी ॥१४॥ लीउ शीआलकोटि रोहीतास, अनेक विषमगढ पार न जास । सो लीआ अकबर एक निशाण, हवइ सुणो देसनां नांम सुजाण ॥ १५ ॥ ढाल || राम गोडी ||
गोड बंगाल तिलंग वंग अंग घोड़ा घाट
दुलखोडीसु खंधारदेस जाकी विसमी वाट ।
कामरु कमता बलष देस परवत सवालाख
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मगध कासी कास्मीर देस तिहां झाझी दाख ||१६||
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सिंधु देस जे नगरठठो काबिल खुरासान
दिल्ली मंडण मेवात देस सघलइ साहि आण । मरहठ मेवाडि मारुआडि मालव गूजराति
सोरठ कुंकुण दक्षिण देस सहु अकबर हाथि ॥१७॥ निजबलि अकबरि देस लीआ ताको न लहुं पार
कौतग कारणि देस नाम कहीआं दो-च्यार ।। रथि सुखासण पालखी ए परतखि चक्रवृत्ति
पुण्य विवेकी सु सारबुद्धि अडीग्ग आछी मत्ति ॥१८।। ताजा तुरीय तोखार सार जाकुं न लहुं पार
मोटा मयगल मलपता ए दीसइ केई हजार । सेवइ जास सुलतान खांन उंबरा राय रान
रोमी फिरंगी हींदु हठी मूलां गाजी पठान ॥१९॥ इस्यो दुनीमई कोउ नाही लोपइ अकबर लीह
विधिना एही ज आप घड्यो अडीग्ग अबीह । जाकइ तेजि सहु लोक सुखी प्रजा प्रतिपालइ
___ चाड चबाड अनाई चोर धूत्तारा टालइ ॥२०॥ आनंद अधिक सगाल सदा मोटो वडभागी लाहोरनगर मई लील करइ अकब्बर सोभागी ॥२१॥
दुहा ॥ परवतसरि जिउं मेरुगिरि, ग्रहगण मांहि चंद । सेषनाग सहु नागसरि, जिउं सुरमांहि इंद ॥२२।। सकल छत्रपति तिलकसम, एकदिन सभा मझारि । बोलइ अधिक उच्छाहसुं, वचन अमृत रसधार १२३।।
ढाल ॥ राग देसाष ॥ साह कहइ सुंणो वात इयारा, दोउं दूनिमई वात आसकारां । एक भले दूनीआदार भोगी, दूजे फकीर निरंजन योगी ॥२८॥
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योगी सोई जे जोग अभ्यासइ, फूटी कुडी नवि राखइ पासइ । चित्त लगाई निरंजन ध्यावइ, भलो रे बूरो सुनी खेद न पावइ ॥२५॥ जाकइ जोरूसुं नाहीं टूक संग, एक निरंजन सेती रंग । खोजी थई बहु खोज करायो, साचो योगी कोई नजरि न आयो ।।२६।। बुहडि बोलइ इयु अकबरभूप, जोई जोउं सोईउ रप्तरूप । सेष दरवेस सोफी इयुं चालइ, हीक कही उर कूकूत उच्छालइ ।।२७।। भंगि खाई होवइ अति लाल, सिंखला पहइरी दीसइ विकराल । नामि योगी फुनि याहि ज भेष, नामि संन्यासी सन्यास न रेख ॥२८॥ खाजई पीजइ कीजइ तीय भोग, बोधा बोलइ जगि एह ज योग । पंच वखत नमाज गूजारइ, छुरी लेई बहु जीव सिंहारई ॥२९॥ काजी मुलां कहइ सुणो साह, खुदाई एही फुरमाया राह । साही कहइ ए सब ही जूठे, खुदा थकी चालइ यु अ पूठे । इयुं करतां किउं पाईइ दीन, जाको मन दुनीआसुं लीन ॥३०॥
दुहा ॥ ए सब जब जूठे कीए, वडवखती कहइ मीर । दुनीआं दीपक एक मई, श्रवणि सुंण्यो गुरु हीर ॥३१।। सो हम वेग बोलाइआ, देख्या तास दीदार । कहणी-करणी साचउ, योगीसर सिंणगार ॥३२॥
ढाल ॥ राग गोडी ॥ ताकी करणी बहुत कठिन, किन पिं कही जाइ । जीव न मारइ जूठ नाही, स्त्री सहु जइसी माय । कुडी न राखइ आसपास, एक करइ खुदायकी । लेत नाही कछु गयर दीउ, प्रवाह न किसकी ॥३३॥ खाना खावइ एक बेर, पीवइ ताता नीर बीजा तमासु खेल नाही, ध्यावइ एक पीर ।
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हरि तरकारी न हाथि लीइ, नाहीं लेत तंबोल नांगे पाउं फिरे, बहु बोलइ न बोल || ३४ ॥ बाल उचावई धर्म जाणि अइसे हिं उही देस विलाति सहु गाम फिरइ प्रतिबंध नां मोही । सत्तू - मित्त समचित गिणई, किंसहइ नि दिइ दोस महिने दस रोजे करइ न करइ टुक रोस ||३५|| भुई सुवइ धूपकालि धूप सीतकालि सीत समतिणमणि नाहीं क्रोध लोभ कामवयरी जीत । राह निहालइ चलइ पंथि साचे वयरागी पाढ पढइ गुरु ध्यान धरइ होवइ गुणरागी ॥३६॥
टाटुणुं उ करत नाहीं, मंत तंत जडी दारु सबाब होवइ सो कथन कथइ नाहीं किं न सारु ||३७||
दूहा ॥
वली निजमुखि साहि कहइ, अयसे वचन अनेक | इया खुदा तई निस्पृही, कींआ हीर यु एक ||३८|| एक ज हीर दीदार थई, हुआ हम बहुत सबाब | मरती मछी मनय कोई, बकस्या डावर तलाव ||३९|| भादुं नव रोजे जनमिदिन, जीव मरत मनीय कीध । पंखी छूटे उस वचन थई, बंद खलासी दीध ||४०||
अनुसंधान-२७
हीर चीरमणिमुद्रिका, देस मुलक पुर गाम । लालचि देखाई घणी, गुरुजी कहइ नाहीं काम ॥ ४१ ॥
साही कहइ गुरु हीरकुं, दर्शन देखण की चाय | जो सेषुजी तुम्ह कहु तु, लीजइ बहुड बोलाय ॥ ४२ ॥ ढाल || राग गोडी ||
सेषुजी इउं बोलइ साही स्युंणो अरदास तुम्ह जानत नीं को पंथ उहां को उदास ।
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करणी अयसी पालई उर भए उ वृध कइसई करि आवइ सेषड़ं उत्तर दीध ||४३|| जो चाहो बोलाए तु, एक अरज हमारी आलंपनां सलांमत को मेटइ दुहाई तुमारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ ए शिष्य सुजाण सही ताकुं बोलाउ वेग लिखी फुरमान ॥४४॥ ए वात सुणी तब साहि खुसी बहु मांनी श्रीविजयसेनसूरि साचे हई गुरु ग्यांनी । मेवडे दो पठउ साहि लिखी फुरमांन राधनपुरि आए जिहां गुरु गुणह निधान ॥ ४५॥
तुम्ह गुण रंजिउ हइ दिल्लीपति पतिस्याह जाकइ राति दिवस एक तुम्ह देखण की चाह । गुरुजी वडवेगई श्रीआचारिज नाम पठिउ पतिस्या पि जिउं होवइ भले काम ||४६ ||
श्रीहीर - जेसंगजी गोठि करइ एक ठउरी पतिस्या पिं जानो आए मेवडे दउरी । इयुं कहइ आचारिज श्रीगुरु वीनती एह एक चरणनसुं मोही लागो अधिक सनेह ||४७||
विछोह विषम हइ किं गुरु वचन लोपाय इह चरणन बीनुं मोही षिन एक रह्यो न जाय । समझाव वली वली आचार्यकुं हीर सही चाल्यो चहीइ करो ध्यान मन धीर ॥४८॥
आचार्य चितइ किउं गुरुवचन लोपाय गुरुवचन मई करणो पांमी प्रबल पसाय । शुभ वेला जेसंगजी साथि लेइ यतीवृंद करइ वेगि पीआणो मोहनवल्लीकंद ॥४९॥
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अनुसंधान-२७ गुरुचरण नमीनइ लेई गुरुकी आसीस नवकार जपइ मुखि स्मरणि जिन चउवीस । होवइ शुकन भले तिहां मयगल मलपत दीठ बोलइ वायस वांमो कुकर हरइ अनीठ ॥५०॥ दाहिण अंगइ आवइ नारि सुहासणि जेह विवहारी वारु दक्षण अंग वली तेह । चास तोरण रूपारेलि वारु दाहिण अंगिं बोलइ वामांगिइं खर तीतर मनरंगिइं ॥५१॥ दाहिण अंगिइं आवइ प्रथम पुहुरि मृग माल मनवंछित पूरइ एही हरणकी फाल । वांमागि देव्या बोलति विघन हरेय साचइ सुकुनतणइ बलि चालइ हर्ष धरेय ॥५२॥
दूहा ॥ जगि जस महिमा जागतो, पूरइ वंछित पास । श्रीगुरु भेटइ रंगसुं, श्रीसंखेश्वर पास ॥५३।।
ढाल ॥ देसी धमालनी ॥ पाटणि वेग पधारीया, श्रीगुरु बहुत मंडाणि रे । शुभ करणी सहु को करइ, सुंणीय सहइगुरुकी वाणी रे ॥ तपगच्छपति गुरु गुणनिलो, श्रीविजयसेनसूरिंद रे । समतारसमांहिं झीलतु, धरतो मनि आणंद रे || तप० आंकणी ॥५४॥ सिद्धपुर मालवणिमांहि थई, रोह सरोतर चंग रे । सहसाअरजन राजवी, अधिक अधिक करइ रंग रे ॥५५।। मुंडथलाथी कासंदरइ, हवई कीजइ आबू जात रे । मनमोहन गिरि भेटतां, होवइ निर्मल गात रे ॥५६॥ सीरोहीइं सेवा करइ, देवडो राय सुलतान रे । तिणइ समय श्रीसंघ तिहां, करइ अधिक मंडाण रे ॥५७॥
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संसारीआ वंदाववा, श्रीगुरु सादडी आवइ रे । संघ सहू निडोलाईनो, अवसरि लष्यमी वावइ रे ॥तप०॥५८।। राणपुरि जई यात्रा करइ, संघसुं बहुत मंडाणिई रे । लष्यमी कमाई तेहनी, जे अवसरि खरची जाणइ रे ||५९।।तप०।। जन्मभूमि निडुलाई तिहां, गुरु पगले पुण्य जागइ रे । संघ सहू गूजरातिनो, सीख तिहांथी मागइ रे ।।६०||तप०|| बांता बगडीमांहिं थई, जयतारण केकंदिई रे । संघ सहु मेडता तणो, साहमो आवइ आणि(णं)दि रे ॥६१।।तप०।। राठउड जागती योति तिहां, श्रीगुरु सांहमा आवइ रे । उच्छवरंग जे तिहां हूआ, ते कहइतां पार न आवइ रे ॥६२शतप०॥ भमरो दइ भली भगति करइ, सचीआदास सुजाण रे । नरायणा ताई रूपसी, आवइ करत मंडाण रे ॥६३।।तप०॥ आणंद होवइ अतिघणा, पहुंता महिमामेर रे । झाकती बहुत मंडाणसुं, आया सांगानेर रे ॥६४|तप० विमल जिणंदकुं भेटवा, गुरु वयराट पधारइ रे ! भारमल्ल इंद्राज तिहां, शासनशोभ चढावइ रे ॥६५||तप०। इंद्राज अति आणंदस्युं, चालइ श्रीगुरुसंगिई रे । याचकजनांनइ पोषतु, उलट अतिघणो अंगि रे ॥६६॥तप०|| बीरोजथी रयवाडीइं, श्रीगुरु रंगिइं आवइ रे । श्रीसंघ महोत्सव बहु करइ, वित्त सुपात्रइ वावइ रे ॥६७॥तप०॥ विक्कमपुरि पधारीआ, गुरु इंद्राज वंदावइ रे । अवसरि तिणइ अतिघणा, दान याचकजन पावइ रे ॥६८तप०॥ साहमो संघ झज्झरि आवइ, महिमतणो आणंदिइ रे । अब जनम सफलो हुउ, फिरी फिरी श्रीगुरु वंदइ रे ॥६९।।तप०॥
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अनुसंधान-२७
महिमनगर कइ सामहीइ, पंडित प्रबल प्रधान रे । रंगकुशल आवी नमइ, श्रीगुरु दिइ बहुमान रे ॥७०||तप०।। षोजो बहु षजमति करइ, लाभ घणा गुरु पावइ रे । गुरुजी श्रीसंघ महिमकु, नगर समाणइ आवइ रे ॥७०॥तप०॥ अतिआणंद तिहां हुउ, सांहमो साह कल्याण रे । लाहोरथी आवइ रंगस्यु, श्रावक अतिहिं सुजाण रे ॥७२।।तप०॥ प्रघल चित्त वित्त वावतु, श्रीगुरुकुं पधरावई रे ।। खानपुरइ श्रीलाहोरकइ, सांहमो श्रीसंघ आवइ रे ७३॥तप०॥
दूहा || श्रीगुरु सांभली आवतां, नरनारीना वृंद ।। थोके थोके मिली घणा, आवइ अति आनंद ॥७४॥
ढाल || राग-धन्यासी ॥ श्रीसंघ सांहमो ए आवइ, वाघा आछा बणावइ खासा मुलमुल साही, महिमुंदी अतलस लाई ॥५॥ खीरोदक खेस खांतीला, श्रावक सोहइ रंगीला । जडित कर्टि कट दोर, देखी जलइ कुंमति कठोर ॥७६।। चूआ चंदन अंगि लावइ, आछी मुद्रिका फावइ । कठिन कनकीए माला, हरखइं हेज मुछाला ॥७७|| केइ चडई वड़े हाथी, वेगई बोलावए साथी । सुखासन तुरी चकडोल, रथि चडइ रंगरोल १७८।। आवइ श्रावक सहु भेला, खरचणकी एही वेला । वरसइ कंचनधार, बंदी बोलइ जयकार ॥७९॥ सेषजी साथि साहीजादा, करइ ते बहुत दिवाजा । खान मुलक सांहमा आवइ, राय रांणा तिहां फावइ ॥८॥
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आवइ हाथी स(सु)ढाला, घमकइ घुघरमाला । झूलिसुं कोतल आगई, नेजा नवरंग छाजइ ॥८१॥ सुंदरी सुंदर देह, आंखि काजल-रेह । नलवटि चंदाए चंगा, खेस उढइ पंचरंगा ॥८२।। लटकइ लाखीणी वीणी, उढणि पांमरी झीणी । नेउरी घूघरी घमकइ, चालइ गोरी सहु ठमकइ ॥८३।। पहइरइ सार पटउली, दप्पणफालीए पुहुली । कामिनी चंपकवरणी, करइ नित्य धर्मकी करणी ॥८४|| हईडइ नवसर हार, पहरइ सोल सिंणगार । सरस वय उपम रूडी, अंगीआं कसी कसी जूडी ||८५॥ मोहनीकट कटि लंकी, भमह कमाणि ते वंकी । अभिनव रूपि ए रंभा, साथल कदली ए थंभा ॥८६॥ भरयोवन मदि माती, चतुरकइ चिति सुहाती । रमझम करती ए बाला, महइकइ फूलकी माला ॥८७|| कोकिलकंठि समाणी, बोलइ सुललित वाणी । मिलइ सो सुंदरी टोलइ, धुंघटकइ पट उरइ ॥८८॥ विनय विवेक सरीति, गावइ श्रीगुरुगीत । मोती लुंछणां कीजइ, मणुअ जन्म फल लीजइ ॥८९॥ वसमसि अढलीक दांन, वंदइ युगह प्रधान । वाजितनाद ते वाजइ, नादि. गयणंगण गाजइ ॥९०|| भेरी नफेरी सहिनाई, पखाउज ताल बनाई । रबाप महुंअरि बीणा, किनरी शबद सो झीणा ॥११॥ ढोल कंसाल नीशाण, दडदडी मोटइ मंडाण । हुडक तिवल संख वाजइ, झल्लरी तूर ते छाजइ ॥१२॥
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अनुसंधान-२७
एणी परिइं बहुत मंडाण, सांहमो संघ सुजाण । अबीर लाल गुलाल, तोरण वन्नरमाल ९३।। पूजा नवे अंग कीजइ, दान याचकजन दीजइ । देखई चतुर मिली थोक, कौतिग' मोह्या ए लोक ॥९४। श्रीगुरुवदन निहालइ, दूरित दूरि पखालइ । एणी परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ ॥९५|| श्रीगुरु रंगि सिधारइ, लाहोरमांहि पधारइ । नगरी सारी सिणगारइ, भलई आयो हीर पट्टोधारी अकब्बर साही बोलायो, गछपति रंगि ए आयो ॥१६॥
दूहा || ईर्यासुमतिं चालतु, बोलइ युगहप्रधान । पहइलुं तिहां अम्हो जाइसुं, जिहां अकब्बर सुलतान ॥९७॥
ढाल ! राग गोडी ॥ श्रीगुरु दरबारई आवइ मननइ रंगिई समतारस-रागी उलट अतिघण अंगि । वेग खवरि कराई अकब्बर साहीकुं एह आएहिं गुरुजी खुसी बोलाए तेह ॥९८॥ साहि अधिक विवेकी आचारिज पधरावइ कास्मेरी मुहुर्लइ साहमो दिल्लीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिइ आणी मन उच्छाह तपगच्छपति सेती बोलइ इयुं पतिस्याह ॥९९।। "चंगे हु गुरुजी चंगे हई गुरु हीर आलम सारीमई कोउ नाही तुम्हसो पीर । तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पाय नाहीं टुकरोस तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस ॥१०॥ बड़े फकीर निरंजन साधत हो नित योग च्यत लाउ खुदायसुं नाही दुनीआंका भोग ।
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हम जानत नीकइ जिस्या तुम्ह आचार" साही. सभा सुंणत हइं प्रसंसइ वारवार ॥१०॥ "हम बहुत खुसी हइं देखत तुम्ह दीदार सुखिई आए पिंडइ सुखी सहु तुम्ह परिवार ।" तिहां श्रीआचार्य धर्मदेशन दीध भविकजन केरां मनवंछित सह सिद्ध ॥१०२॥ अकब्बर आचारिज करइ जे धर्मविचार ते कहुं हुं किणी परि कइता नावइ पार । कीधी कुंमर निरंद परि कई श्रेणिक परि जांणी श्रीहीरजी जेसंगजी कीए विधिना गुणखांणी ॥१०३।।
ढाल ॥ राग सामेरी ॥ . मनवंछित काज समारी, हरख्यो हीइ हीरपट्टीधारी । सीख साही पासई तव मागइ, बहु नुबति नीकी बाजइ ।।१०४।। उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर-चीर पट्टकूल, गंठोडा तुरी बहुमूल ॥१०५॥ रूपानाणइ दुर्जनसाह, प्रभावना मंडिउ प्रवाह । धन्य दिवस गणुं ते लेखइ, एहवा आणंद जे नित देखइ ॥१०६।।
दूहा ॥ इणइ अवसरि वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उगइ भाण ॥१०७||
माखी त्यजइ जीउ अप्पणो, पणि देवइ परदुख । - दुरजन दहई मनि अपणइ, देखि पीआरां सुख ॥१०८||
ढाल ॥ बांभणे जाइ चुगली कीधी, मुंको मयदा मांहिं दीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानो, कीर्छ उहांको करणी जाणो ॥१०९।।
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अनुसंधान-२७ मानत नांही सूरज गंगा, उर, श्रीपरमेश्वर चंगा । नांही दंडवरत की बात, पापी च्युगले घाली घात ॥११०॥
दहा ॥ दूरजन कर तन वेवहइ, सन्मुख लेत संताप । गरुड बराबरि किउं होवइ, जोरे भलेरा साप ॥१११॥
ढाल ॥ जेसंगजी साहि हजूर, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणीकी फाली ॥११२।। सुभट सुणी रणतूर, किउं झाल्या रहइ तिहां सूर । झूझूइ जिउं सबल झूझार, हुइ तिहां वादविचार ॥११३।।
दहा ।। तव गुरु आए साहि पइं, जिहां जूडे वादीवृंद । तिहां गुरु गुंजइ सीह जिउं, वादी-गरुड-गोविंद ॥११४॥ सूरज हम मानइ सही, निसुंणि अरज वडवीर । उदय होवइ जब सूरकु, तब हम पीवइ नीर ॥११५॥
. ढाल || राति जिमइ भरपूर, तो किसई मान्यो इणइ सूर । । गंगाकुं इयु हम ध्यावइ, मल भस्म न पाउ लगावइ ॥११६।। जो भगवती कही पोकारई, तु कइसइ भस्म मल डारइ । भगवंत निरंजन कहीइ, मसकति विण किउं सो लहीइ ॥११७।। उस पावनकुं इयु कीनो, सही भोग तिजी व्रत लीनो । रमइ रामा रंगि जेह, भगवंत कहीइ किउं तेह ॥११८।। वंछइ माल मुलक जे कोई, दंडव्रत करइगा सोइ । सुणी बोल खुसी हूउ भूप, धन धन गुरु तेरा सरूप ॥११९॥ दुसमन जे वसिमसि करता, मुंसाकी दाइं फिरता । ते कीआ जिउं आटामांहि लूंण, तुझ विण समझावइ कुंण ॥१२०॥
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भट्ट मिलीया जे उतकट, नाठा ते सहु दहवट्ट । जिनशासन की थिति राखी, कीउ साही अकब्बर साखी ॥१२१॥ धन्य धन्य कोडमदेनंद, जेणइ जगत्र कीउ आनंद ॥१२२।।
दूहा ॥ जाण्युं तुं किउं कीजस्यइ, सबला सेती काम । जेसंग तइ दूसमन समय, राखी मोटी माम ॥१२३॥
ढाल ॥ वाद हुउ साही हजूरि, जीत्या श्रीविजयसेनसूरि । बांभणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी ॥१२४॥ . हुआ ते हाकाविका, पडीया दुसमन सब फीका । एकएक्कु इयुं समझावइ, अपनो कीउ सहु को पावइ ॥१२५॥
दहा ॥ जय जयवाद वरी तिहां, श्रीगुरु मनि उलासि । . श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहुर करइ चउमासि ॥१२६।।
ढाल ॥ अकब्बर सहइगुरुकुं बकसइ, ते सुणतां हईईं विकसइ । नगरठठो सिंधु कच्छ, पाणी बहुलां तिहां मच्छ ॥१२६।। जिहां हुंता बहुत सिंहार, धन धन सहइगुरु उपगार । च्यार मास को जाल न घालइ, वसेषई वली वरशालइ ॥१२७॥ गाइ बलद भीस जेह, कदी कोई न मारइ तेह । गुरुवचन कोई बंदि न झालइ, मृतककेरो कर टालइ ॥१२८॥
दूहा ॥ जो गुरु साचा निस्पृही, तु मागइ अभयदान । साहि पासि करावीयां, ए अडीग्ग फुरमान ॥१२९।।
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अनुसंधान-२७
ढाल ॥ बोलइ इयुं साहि सुजाण, मान्युं गुरुवचन प्रमाण । हीर अकब्बर जेसंग साही, टुंजिउं (भुजिउं?) अविचल पातिसाही॥१३०।। जिहां मेरु मही सूरचंद, तां प्रतपो एह मुणिंद ।। साधु साधवी श्रावक श्रावी, उदयवंत सु सुगुरु पद पावी ॥१३२।। करतव्य जे अकब्बर कीधा, सहु जांणइ लोकप्रसिद्धां । जगतगुरु दीधुं नाम, छ मासि अमारि फुरमांन ॥१३२॥ सेव॒जादिक तीर्थ जेह, बकसइ सहइगुरुकुं तेह ।। जीजीउ दंड दोर जगाति, अकबरसाही कहइ नही वात ॥१३३।। जोर जलम न कीजइ जाकइ, हुए ए अधिक इसा कइ ॥१३४।। भोगीजन करइ बहुभोग, आतम साधक साधु योग । देस मुलक पुर गाम, सुखी जिहां जिहां अकबर नाम ॥१३५।। ते तो सहइगुरुको उपदेस, समुअइ सो सदा वंछेस । चउथउ आरो परतखि दीसइ, पूजीजइ जिन चउवीसइ ॥१३६॥ उच्छव होवइ निति झाझा, जिनशासन बहुत दिवाजा ॥१३७|| श्रीविजयसेनसूरिंद, चिर नंदो महामुर्णिद । जस गुणकुं न लहु पार, सोहम जंबु अवतार ॥१३८॥ सकलपंडित सिरताज, कल्याणकुशल गुरुराज । ज्ञानी गुणवंत मुनीस, श्रीमेहमुंणिंदकु शीस ॥१३९।।
साह लटकण सुत गुणनिलो, लीलादे जस माय । कल्याणकुशल गुरु भेटतां, दारिद्र दूरि जाय ॥१४०।।
ढाल ॥ अहनिशि जपतां गुरु नाम, सीझइ वंछित काम । कहइ दयाकुशल तस सीस, सुप्रसन्न सहइगुरु निशदीस ॥१४२।।
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ढाल ॥ राग-धन्यासी ।। धन्य गुरु हीर धन्य तपगच्छ ए धन्य जेसंग जगमइ वदीतो । साहि अकब्बरसदसि जेणि निजभुजबलि वादी जिनधर्मवर वाद जीतो ॥ध० ॥ १४२।। कुंमतिकुद्दाल जय वादवेताल तुं असमसाहसीक तुं सुद्धभाषी । हेमगुरु जेम तइं पण दूसमनसमय जैनशासन तणी माम राखी १०॥ १४३।। आगरइ सहइरि श्रीपासपसाउलइ संवत सोल उगणपंचासइ । कल्याणकुशल गुरुराज कल्याणकर
सीस दयाकुशल मनिरंगि भासइ ।।१०।। १४४|| इति श्री विजयसेनसूरिश्वराणां लाभोदयनामा रास संपूर्ण ॥
कठिन शब्दो
कडी क्र.
दुनि पूजइ सगाल सरि इयारा आसकारां कुडी बुहडि सोफी हीक
दुनिया-लोक पूगे-पहोंचे सुकाल शिरे-मस्तके, शिरोमणि यार,मित्र आशाकारी-आश्वासन देनार कोडी बहु(?)
सूफी
हाकोटा (?)
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अनुसंधान-२७
कूकूत भंगि सिंखला तीय
कौतुक, विचित्र चेनचाळा (?) भांग शंखला
स्त्री .
प्रवाह
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ताता विलाति किसहइ नि सबाब भाएं आलंपनां
परवाह तपावेला-उकाळेला विलायत-परदेश कोईने ना स्वभाव-स्वाभाविक के वास्तविक (?) भादरवामां आलमपनाह (बादशाह)
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xx
दुहाई
द्विधा
मेवडे पीआणो सुहासणि देव्या सहइगुरु सीख भमरो इंद्राज सामहीइ खजमति प्रघल
६३
सेवको-खेपिया प्रयाण सौभाग्यवंती देवचकली सदुरु शिक्षा-रजा प्रदक्षिणा(?) राजा-ठाकोर सामैये खिदमत-सेवा परिगल-अनर्गल वेष अच्छा
६५-५५
७०
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वाघा
झूल
आछा झूलि कोतल नलवटि चंदा
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________________ March-2004 49 वीणी वसमसि ईर्यासुमति 101 103 104 वेणी झळके (?), (आपे?) ईर्यासमिति, जैन मुनिनी जीवदयापूर्वक ज चालवानी क्रिया चित्त नरेन्द्र कुमारपाल नोबत उत्तम उपाश्रयमां-जैन साधुनो आवास, तेमां. मर्यादा बख्तर फाळ-कूदको-छलांग योद्धा डाले-नाखे - (हिन्दीमां मशक्कत?) च्यत कुंमर निरंद नुबति नीकी उपासरइ मयदा पाखर फाली झूझार 105 109 112 113 117 डारइ मसकति मुंसा की दाइ 120 उतकट 122 123 दहवट्ट जगत्र सेती दूसमनसमय माम हाकाविका वरशालई श्रावी समुसइ चउथउ आरो उत्कट-थनगनता दशे दिशामां जगत साथे दुश्मन सामे ममत्व-इज्जत आकुल-विकल चोमासामां-वरसाद वखते श्राविका 125 127 131 136 चोथो आरो (काळविशेषतुं नाम)