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अनुसंधान-२७
एणी परिइं बहुत मंडाण, सांहमो संघ सुजाण । अबीर लाल गुलाल, तोरण वन्नरमाल ९३।। पूजा नवे अंग कीजइ, दान याचकजन दीजइ । देखई चतुर मिली थोक, कौतिग' मोह्या ए लोक ॥९४। श्रीगुरुवदन निहालइ, दूरित दूरि पखालइ । एणी परिइं बहुत दिवाजइ, आया दिल्ली दरवाजइ ॥९५|| श्रीगुरु रंगि सिधारइ, लाहोरमांहि पधारइ । नगरी सारी सिणगारइ, भलई आयो हीर पट्टोधारी अकब्बर साही बोलायो, गछपति रंगि ए आयो ॥१६॥
दूहा || ईर्यासुमतिं चालतु, बोलइ युगहप्रधान । पहइलुं तिहां अम्हो जाइसुं, जिहां अकब्बर सुलतान ॥९७॥
ढाल ! राग गोडी ॥ श्रीगुरु दरबारई आवइ मननइ रंगिई समतारस-रागी उलट अतिघण अंगि । वेग खवरि कराई अकब्बर साहीकुं एह आएहिं गुरुजी खुसी बोलाए तेह ॥९८॥ साहि अधिक विवेकी आचारिज पधरावइ कास्मेरी मुहुर्लइ साहमो दिल्लीपति आवइ । धर्मलाभ सुगुरु दिइ आणी मन उच्छाह तपगच्छपति सेती बोलइ इयुं पतिस्याह ॥९९।। "चंगे हु गुरुजी चंगे हई गुरु हीर आलम सारीमई कोउ नाही तुम्हसो पीर । तुम्ह वडे वयरागी तुम्ह पाय नाहीं टुकरोस तुम्ह भाषत नाहीं मंत तंत जडी जोस ॥१०॥ बड़े फकीर निरंजन साधत हो नित योग च्यत लाउ खुदायसुं नाही दुनीआंका भोग ।
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