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श्रीरविसागरगणिकृता कुमारसम्भवादिमहाकाव्यचतुष्करीत्या स्तोत्रचतुष्टयी ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
मध्यकालना जैन मुनिओए संस्कृतभाषामां जे रचनाओ करी छे ते जेम विपुल मात्रामां छे तेम अद्भुत अने सर्जक प्रज्ञाना विलक्षण उन्मेषोथी छलकाती पण छे. हस्तप्रतिओमां, अने हवे तो अढळक मुद्रित सामग्रीमां पण, आवी नानी मोटी रचनाओने अवलोकीए छीए, त्यारे आ वातनो यथार्थ ख्याल अवश्य आवे छे. सद्गत विद्वान प्रा. हीरालाल रसिकदास कापडियाए " जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास" लख्यो छे, तेमां एक स्वतंत्र ग्रन्थ लखीने उमेरवो पडे तेटली कृतिओ तो ते पछी, प्रकाशमां आवी गई छे. अने प्रकाशमां न आवेली कृतिओनो जथ्यो तो हजी एवा केटला ग्रन्थ मागशे तेनी कल्पना ज करवी पडे. 'अनुसन्धान' आरंभायुं त्यारे तेनो प्रधान आशय प्राकृत संस्कृतना क्षेत्रनी माहिती आप्या करवानो अवश्य हतो, पण ते साथे ज, संप्रा. रचनाओना संपादन - प्रकाशननो पण आशय हतो ज, अने ते आशयनुं शक्य विशेष प्रमाणमां अनुसरण थई रह्युं छे, ते सन्तोषप्रद छे.
अत्रे आपेली कृति, एक विलक्षण 'वस्तु' लईने आवे छे. संस्कृत साहित्यनां प्रसिद्ध त्रण महाकाव्यो तथा एक अद्भुत जैन महाकाव्यनी अनुकृतिरूप चार अलग अलग स्वतंत्र रचनाओ आ कृतिमां छे.
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जैन चित्रकलामां 'लघुचित्रो 'नुं खूब चलण रह्युं छे. अजन्ता इलोराना बृहत्काय भित्तिचित्रोनुं अत्यन्त लघु अने नाजुक अनुसरण एटले जैन पोथीओमां सांपडतां 'लघु चित्रो' - Miniatures'. ते ज रीते शिल्पकलाना क्षेत्रमां जैनोमां 'अवतार चैत्यो 'नुं व्यापक महत्त्व रह्युं छे. जेवा के शत्रुंजयावतार चैत्य, गिरनारावतार चैत्य वगेरे. पहेलां तो आखुं स्वतंत्र चैत्य (देरासर) बंधातुं, अने तेमां आदिनाथनी मूर्ति बेसाडी ते चैत्यने 'शत्रुंजयावतार चैत्य' जेतुं नाम अपातुं. कालान्तरे, पाषाणना तथा पछीथी धातुमय पट्ट बनवा मांड्या. तेमां केन्द्रमां जे ते तीर्थना मुख्य भगवान स्थापवामां आवता, अथवा जे ते तीर्थनी प्रतिकृति दोरवामां आवती; अने तेने ते ते 'तीर्थावतार' प्रतिमारूपे ओळखवामां
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आवतां ते ते तीर्थ/तीर्थो प्रत्येना श्रद्धापूर्ण लगावने कारणे भाविको द्वारा आवां निर्माण थतां, जे आजे पण छूटाछवायां चाल्या करे छे.
अनुसरण - अवतरणनी आ ज विभावनाने साहित्यक्षेत्रमां पण स्वीकारवामां आवी. तेना परिणामे 'मेघदूत'नी अनेक समस्यापूर्तिओ तथा ते प्रकारनां अन्य नाना मोटां सर्जनो मळ्यां छे. आवां काव्यो माटे 'मेघदूतावतार' एवो शब्द योजीए तो कांई खोटुं नथी.
परन्तु, विलक्षण प्रतिभानी सर्जकताने फक्त समस्यापूर्ति के पादपूर्तिमा ज सन्तोष केम थाय ? ते तो अनुकरणमां पण कोईक वधु सर्जनात्मक अवनवा उन्मेष प्रगटाववा ताकती रहे छे. एना ए ताकमांथी सर्जाय छे अत्रे आपवामां आवेली (अने ते प्रकारनी) अद्भुत 'लघु' रचनाओ.
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महाकवि कालिदासनी महाकाव्यात्मक रचनाओ जगविख्यात छे. कुमारसम्भव, रघुवंश, मेघदूत - ए ऋण तेमनी प्रमुख रचनाओ छे. ते त्रणे रचनाओना ध्वनि अने रचनारीतिने पकड़ी लईने कर्ताए त्रण लघु-काव्यरचनाओ करी छे, जे खरेखर अनुपम छे. आमां पात्रो जुदां, प्रसंगो ने परिवेश जुदा; समानता मात्र शैलीनी प्रतिभासंपन्न माणसनुं ज आ काम.
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प्रथम रचना 'कुमारसम्भव'नी रीतिने अनुसरे छे. कुमारसम्भवनुं प्रथम पद छे अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ', तो आ लघु रचनानो प्रारंभ 'अस्त्यत्र भूयः शिखरानुषङ्गी शिलोच्चयो रैवतकाभिधानः ' एवा पदथी थाय छे. कालिदासना प्रसंगमां प्रसिद्ध वाक्य 'अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ' एनुं प्रथम पद 'अस्ति', कु०सं०नी जेम ज आमां पण कर्ताए गूंथ्युं छे, एटलुं ज नहि, कु.सं. मां 'हिमालय'नी वात छे, तो अहीं पण 'रैवतक' नी वात द्वारा पर्वतनी ज वात थई छे. कु. सं. मां शिव-पार्वतीनी वात छे, तो अहीं नेमिनाथ - राजीमतीनी वात मूकी छे.
बीजी रचना 'मेघदूत'नी रीति प्रमाणे छे. प्रथम पद 'कश्चित् '. मन्दाक्रान्ता छन्द, मेघदूतमां नायक विरहाकुल बनीने नायिकाने सन्देशो पाठववा माटे 'मेघ' ने सन्देशवाहक बनावे छे. अहीं विरहिणी नायिका - राजीमती नायक - नेमिनाथने पोतानी वात पहोंचाडवा माटे 'ज्योत्स्ना' ने सन्देशवाहिका
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अनुसंधान-२३ बनावे छे. नायिकानी विह्वल अने तेथी करुण मनोदशानुं वर्णन करी बताववामां कविए धारी सफलता हांसल करी छे.
त्रीजी रचना 'रघुवंश' ने अनुसरे छे. प्रथम सर्ग अनुष्टुप् छन्दमां छे, 'वाग्' शब्दथी तेनो प्रारम्भ छे, अने रघु-वंशनु तेमां विस्तृवर्णन छे; ते प्रमाणे अहीं पण अनुष्टुभ् छन्द द्वारा इक्ष्वाकुओना वंशनु-ऋषभदेवना वंश- कवि मजानुं वर्णन आपे छे; प्रारम्भ करे छे 'वाग्' शब्दथी ज.
चोथी रचना ते 'जिनशतक'ना एक परिच्छेदनी अनुकृतिरूप छे. विक्रमना १०मा शतकमां थयेला विद्वान जैन मुनि-कवि जम्बूनागे १०० श्लोक अने चार परिच्छेदात्मक महाकाव्य रच्यु छ : जिनशतक. तेमां स्रग्धरा छन्दमां, २५-२५ पद्योना चार विभागोमां, जिनभगवानना एकेक अंगनुं अनुपम वर्णन करेल छे. अर्थालंकारो तथा अर्थगाम्भीर्यथी छलकाता ते काव्यने शब्दालंकारोनी विशिष्ट चमत्कृतिथी कविए एवं तो मढी दीधुं छे के तेने 'महाकाव्य' तरीके ओळखवामां कोई ज खचकाट अनुभवातो नथी. तेना प्रथम परिच्छेदमां आवता 'जिन-पादवर्णन' ने विषय बनावीने कर्ताए ते ज छन्दमां ते ज रीतिए २५ पद्योनी रचना अहीं आपी छे. २६मां पद्यमां कर्ताए ज 'जिनशतक'ने 'महाकाव्य' लेखे ओळखाव्यु छे. तेम ज तेमां थएल सूचना मुजब आ काव्य, पादपूर्तिरूपे होवानुं समजाय छे. (आ क्षणे, विहारयात्रामा होवाने कारणे, पुस्तकोनी अनुपस्थितिमां, आ मुद्दे स्पष्ट विधान करवानुं शक्य नथी.)
कर्तार्नु नाम गणि रविसागर छे, अने तेमना गुरुनु नाम पं. राजपालगणि छे. आ राजपालगणि- नाम पं. राजसागर होवा, अने तेओ वाचक हर्षसागरना शिष्य होवामुं, कर्ताए स्वयं रघुवंशानुकृत काव्यमा २६मा पद्यमां सूचव्युं छे. गच्छनो तथा समयनो उल्लेख नथी. पण अनुमानतः तपगच्छ अने सत्तरमो शतक लागे छे.
आ कृतिनी प्रति उदयपुरना हाथीपोळ सरायना भण्डारमा छे, जे परथी तेनी जेरोक्स नकल मेळवीने मित्र मुनि श्रीधुरन्धरविजयजीए मोकलेली, तेना आधारे आ संपादन थयुं छे. जेरोक्स उकेलवामां जरा कष्ट थाय तेम खरं. केटलेक स्थाने छूटी गएला अमुक पदो तथा चोथी रचनागत २३
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२४-२५ ए त्रण पद्योमा एक ठेकाणे नहि मळेल अर्धं पद्य, अने तेने कारणे पद्यांक आपवामां थएली भूल-आटलुं बाद करतां एकंदरे प्रति शुद्धप्राय छे. चार पत्रोनी प्रति छे. तेनी लेखनशैली जोतां ते १७मा शतकमां लखाई होवार्नु अनुमान करी शकाय तेम छे. जो आनी अन्य प्रति क्यायथी जडे तो पाठमेळवणीपूर्वक शुद्धता आणी शकाय.
एक सामान्य तारण ए नीकळे छे के जैन मुनिओ, परंपरागत रीतेज, जैन न होय तेवां पण रघुवंशादि पांच महाकाव्यो, विशद अध्ययन करता आव्या छे, अने तेने आत्मसात् करीने ते काव्यो उपर टीकाओ पण लखता रह्या छे, साथे साथे आवी विलक्षण अने श्रेष्ठ रचनाओ पण आपता रह्या छे. आम करवामां तेमने संप्रदायभेद, धर्मभेद, मन्तव्यभेद जेवां क्षुल्लक तत्त्वो कदापि नड्या नथी.
श्रीसर्चविदे नमः ॥ स्वस्तिश्रियः सर्वजिनान् प्रणत्य तान्, स्तोष्ये किलाहं वृषभं च नेमिनम् । रीत्या समासेन कुमारसम्भव-श्रीमेघदूताख्य-रघूरुवंश्यया ॥१॥
अस्त्यत्र भूयःशिखरानुषङ्गी शिलोच्चयो रैवतकाभिधानः । अनेकसौपसमागमेन गरीयसी संस्थितिमादधानः ॥२॥ सर्वेषु शैलेष्वयमेव तुङ्गः श्रृङ्ग समारुह्य यदीयमुच्चम् । समागतः केलिचिकीर्षयेति वृन्दारकौघैरवधार्यते स्म ॥३॥ एवं न चेत्तन्न किमारुरोह जिनं जिगीषुः कुसुमायुधोऽयम् । यथातथं तद्भुवि योऽल्पशक्ति-र्यत् सोऽधिरोढुं प्रभवेदनुच्चम् ॥४॥ युग्मम् ।। काठिन्यमासीद् वचनीयतायै न यस्य भूयः सुखसिद्धिहेतोः । यदेकदोषो महिमच्छिदेन लावण्यभर्तुः सरितां विभोर्वा ||५|| अशोकवृक्षस्य यमाश्रितस्य च्छायां सुशीमामनुभूय मर्त्यः । अनन्तकालं वपुषां सहायौ निराचकाराखिलशोकतापौ ॥६॥
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अनुसंधान - २३
यत्र स्थितानां सहकारकाणां स्वादूनि खण्डानि रसालयानि । पाणौ समादाय मुदा लिहन्त - स्तृप्यन्ति देवा इव देहभाजः ||७|| यदीयखानिर्वरिवर्तित भूयो माहात्म्यभृत् कल्पलतेव नृणाम् । समग्र सम्पत्तिविधानहेतो - बिभ्राजिरत्नप्रकरं दधाना ||८||
निष्पन्नमादाय यदीयखानौ स्वर्णादिधातुं कमलानिदानम् । जीवन्ति निःस्वा हृदि दीनभावा भूयोऽर्थिनस्त्यागधियो ददन्ते ॥ ९ ॥
यदीयखानेः शुचि चीनपिष्ट-मानाय्य दास्या सह मानिनीभिः | मूर्ध्नि क्रियन्ते तिलकानि नूनं विराजिनानारचनाविशेषैः ॥१०॥ सदौषधीर्भावुककर्मकर्त्रीः संप्राप्य यस्माद्भुवि बोभवीति । सुखी हृषीकाणि पटूनि बिभ्र-ज्जनो मनोवाञ्छितवस्तुलाभात् ॥११॥ यस्मिन्नुपस्थाय पुरोगविद्या - धरैः साधयितुं कृतेच्छैः । प्रभूयते तत्र भवत्सकाशा-दनाबि (वि) लाम्नायमवाप्य पुण्यात् ॥१२॥ आरूढमुच्चैः सुमनःसमूहं क्रीडार्थमालोक्य सहाङ्गनाभिः । कदापि मा भूत् स्वपदस्य भङ्गो यस्मिन् सनेतीव वसन्ति मेघाः ॥ १३॥ बहिर्गताः कन्दफलस्य पुण्य - स्यादित्सया मेघघटां समीक्ष्य । तपस्विनो यस्य दरीः श्रयन्ति विद्युल्लताढ्यां शिखराधिरूढाम् ॥१४॥ वेविद्यमाने मयि कोऽपि मा भूत् कदापि दारिगृहीतधिष्ण्यः । इतीव सद्धातुरधारि येन प्रवर्तते सन् हि परोपकृत्यै ॥ १५ ॥ कुलाङ्गनावच्छुशुभेतरां यो विशालवंशस्थितिमुज्जिहानः । नीतः स्तुति किन्नरकिन्नरीभि मध्यप्रतीके शुचिमेखलाभृत् ||१६|| आलिङ्गितानां युवतीजनानां मुक्तास्रजां चारुवरिष्टवक्षः । भूषाभृतो निर्मलता [ नु ? ] षक्ता यत्राश्रयं प्राप्य दुराबभूवुः ॥१७॥
अविप्रलम्भे जलदावलीनां शिखण्डिनां सन्नटनावियोगः | यस्मिन् वरीवर्तित निवर्तिताघे कार्यं यतः कारणसम्भवे स्यात् ||१८||
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यस्योपकण्ठं मुमुचुनितान्तं न नीलकण्ठाः स्वसुहृद्धनस्य । अनीहमाना विरहं कदापि यदुत्तमीया नियतैव मैत्री ॥१९॥ न सस्मरुविन्ध्यगिरि द्विपेन्द्रा यं प्राप्य तद्भूतबृहत्सुखाप्तेः । विस्मारकं स्याच्च चिरन्तनस्य प्रत्यक्षसौख्यं हि निरन्तरायम् ।।२०।। उपस्थिता निर्जररामरामा क्रीडां विधातुं प्रतिवल्लभं स्वम् । इतस्ततो भ्रान्तिमिवाशु नेतुं केलीच्छया यस्य गुहाः सिषेवे ॥२१॥ द्राक्षीच्च मा मामपि क: सलज्जा-मितीव कृष्णाम्बुदकैतवेन । यदीयकुण्डे जवनी विधाय समन्तत: स्नाति सुपर्वकान्ता ॥२२।। यत्र स्थितानां विलसन्मणीनां स्थितिर्बभूव क्षितिभृत्किरीटे । सम्यक् तदाहुर्गरिमाम्बुराशौ यत्संश्रितानां पदमग्र्यमेव ॥२३॥ मद्वार्गपक्षक्षिप एष यस्मात् कुर्वेऽहमिन्द्रं तदधः प्रसह्य । उच्चस्तरैः शृङ्गगणैः परीत इत्यूर्वमेधिष्टतरां गिरिर्य : ॥२४॥ मुमुक्षया संसृतिदुःखपंक्तेः कल्याणमातुं व्रतिभिः सिषेवे । यः प्राज्यराज्यान्वितभूमिभृद्वा सम्पत्तिमूरीचकृवाननल्पाम् ॥२५॥ शैलाधिराजस्त्वयमेव विश्व इत्युज्जयन्तः प्रथितः स चक्रे । श्रीनेमिनाथेन पुरैव नीत्वा राजीमती स्त्रीकृपया विमुक्तिम् ॥२६॥
इति पण्डितचक्रचक्रवत्ति पं. श्री राजपालगणिशिष्यरविसागरगणिना कृतं संक्षेपेण कुमारसम्भवरीत्या श्रीगिरिनारवर्णनं सम्पूर्णम् ॥ श्रीरस्तु संघवर्गसा(स्य) ॥
कश्चित् प्रत्यानयति मनुजो यः प्रियं मामकीनं सर्वाभीष्टं विभवमतुलं तं प्रतीहार्पयामि । व्यक्तीचक्रे सहृदयमन:संश्रितो वाग्विलासोराजीमत्याऽभिमतसुतयेत्युग्रसेनेश्वरस्य ॥१॥
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कष्टेनात्मप्रियविरहिता विप्रयोगानुषक्ता नीत्वा घस्त्रान् किल कतिपयान् ह्रस्वजालान्तरालैः । स्वच्छच्छायां नयनसुभगामागतां सा ददर्श ज्योत्स्नां भ्राजच्छशधरभुवं शारदीं पूर्णिमीयाम् ॥२॥ तामाश्लिष्य प्रियविरहिणी सा मनाग् भूरिशक्ति कर्तुं प्रीती: कुवलयवनस्योच्चले साधु दध्यौ । वर्वर्त्येषा तनुविरहिणोऽप्यत्तिसम्पादयित्री प्राणेशस्य प्रमदवसते: किं पुनर्विप्रयोगे ॥३॥ अभ्यायाते जलदवियुभे (ते?) कार्तिकेड्यैस्तया स्राक् स्वप्रीत्यर्थं कुशलकलितं प्रापयिष्यत्युदन्तम् । तारामुक्ताफलपरिचितं हारमुत्कल्य ( ? ) तस्यै सोच्चैः प्रीत्या प्रमुदितमनाः स्वागतं पृच्छति स्म ||४||
अनुसंधान - २३
प्रातर्ह्यस्तंगतिरपि निशि स्थायिनी षत्क ( षत्क्व?) चन्द्रज्योत्स्नोदन्तां सततबलिभिः प्रापणीया जनैः क्व ? | मोहादेवं विरहविधुरा प्रार्थयामास तां सा रागाश्लिष्टाः सहजविकलाः साम्प्रतासाम्प्रते यत् ॥५॥ त्वामुत्पन्नां भुवननयनान्दिनो वेद्मि चन्द्राद् गन्तुं पूज्यत्रिनयनशिरो दिक्षु गन्त्री यथेच्छम् । तस्माद्दैन्यं त्वयि गतवती मन्त्वभावेन मुक्ता मद्भर्त्रासो यदुपकुरुतेऽलं यथाशक्ति दीनम् ||६|| हेतुः प्रीतेः प्रतिकुवलयं चन्द्रिके ! वर्त्तसे त्वं मद्भर्तुस्तज्झटिति गदितुं दुःखिनीं मे प्रवृत्तिम् । संप्राप्ता या विरहजलधिं कर्मणा द्वारिका ते प्राप्या चामीकरमयजिनप्रौढसौधाभिरामा ॥७॥
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त्वामासीनां शशिमणिगृहे कामवत्यः प्रमोदात् पास्यन्त्युच्चैः स्ववसतिमतप्राणनाथा: पदव्याम् । आयाता यां त्वयि न कुरुते का निकाय्येषु पानं यान्या न स्यादहमिव कदाप्याश्रिता विप्रलम्भैः ॥८॥ सौख्यस्पर्शो भवति पवन: प्रेरणाकाम्यया त्वामाशीर्वाद दिशति वचसा तेऽनुकूलश्चकोरः । पारावारः प्रकटलहरीनिर्गतैर्बिन्दुवृन्दैः प्रीत्या वर्धापनमतितमां ते करिष्यत्यवश्यम् ॥९॥ नित्यं स्वान्ते निजमतसखीभूरिचिन्तां वहन्ती मत्प्राणेशः कजमृदुमनाः सन्मुखं द्रक्ष्यति त्वाम् । कारुण्यार्दा विपदुपगतान् सन्मुखीनं(नान् ?) हि दृष्ट्वा पान्ति प्रीत्यां(त्या) परतनुमतश्चोपकर्तुं समर्थाः ॥१०॥ मोदो(दा)धिक्यं दृशि जनयितुं दर्शनं यत् प्रभूष्णु प्रेक्ष्य प्रेक्ष्यं तदखिलमहासम्मदाप्तेर्निदानम् । तारास्तारास्तरुणकिरणाः प्राप्स्यति त्वं सहायीभूता- -पगततिमिराभीशुमद्यातयानाः (?) ॥११॥ आपृच्छयास्वं (च्छय स्वं?) प्रियमुपपुरं दृश्यमानं त्वमेनद् याहि क्षिप्रं सखि ! सह मया प्रेमपात्रीकृतात्मा । वार्तामेषा कुशलकथिका मानयिष्यत्यवश्यं यत्त्वां पश्यत्यतिशुभदृशा प्रत्ययादित्यवेक्ष्याम् ॥१२॥ अध्वानं तं श्रवणविषयं त्वं कुरुष्वालि मत्तः पूर्वं सर्वं तदनु श्रृणु मद्वाचिकामादरेण । यत्राजिह्मे तव जिगमिषा विद्यते रम्यहh क्षेपं क्षेपं श्रममविकलं विग्रहे विग्रहेच्छे ॥१३।।
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अनुसंधान-२३ हैम: पातः किमिति भवतीत्युन्मुखीभिर्वशाभिभीतं भीतं चपलनयनैः प्रेक्षितो मुग्धधीभिः । एतस्मात्त्वं प्रकुरु गमनीयास्पदादुद्यम द्राग् स्नेहाधिक्याद् भवति हि यत: कार्यसिद्धिः समग्रा ।।१४।। एतत्खण्डं स्फुटति समुद: कैरविण्याः प्रतीच्या त्वय्याबद्धस्वकवि[क?]चतासिद्धिसौगन्ध्यशालि । धत्ते यत्त्वां विरहवशतो म्लानिमात्मीयकाये जात्यस्त्रीणां वपुरिव मनाक् सौवभर्तुर्वियोगे ॥१५।। ध्वान्तध्वंसस्तव निशिवशोदम्पतिभ्यामितीष्टा स्मरश्वी(राक्षी?)भिनयननिगमैः प्रेक्ष्यमाणा मिथस्त्वम् । श्रित्वा किञ्चिद् भवनमनयोर्नित्यसम्पृक्तयोः स्वात् पुण्यात् पश्चात् प्रभवजवतः पश्चिमायाः पदव्याम् ॥१६॥ प्रासादस्त्वां प्रमुदितहृदं मातृमातुः स्वमूर्जा प्रेमस्थानां महिमकलितां धीरयिष्यत्यतीव । तत्पूज्य: स्याद् गिरिशचरणस्रस्तरेणूत्करोऽपीशानेन स्वे शिरसि निहिता या पुनः किं न सा स्यात् ।।१७।। आतिथ्यं ते द्रुतजिगमिषोऽसौ करिष्यत्यवश्यं संसर्पन्त्याः सकलहरिता पुष्कलप्रीतिहेतोः । स्मेरीभूतं श्व(स्व?)मपि जनयेस्तद्गत(तं) कैरविण्या: कक्षं प्रीतिः सुखकृतिपरा स्यान्मिथो ह्युत्तमानाम् ॥१८॥ ---नुं मं त्वयि शुचिरुचौ संश्रितायां विभूषा दृश्या देवव्रजवनितया लप्स्यतेऽसौ गरीयान् । बिभ्रत्कान्तिहतवसुमयीमाश्रितामर्त्यवृक्षं (?) कल्याणाद्रेः शिखरमिव दृग् दर्शनीयस्वरूपम् ॥१९॥
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आश्रित्यैनं द्रुतगतिरहोरात्रमेव त्वमस्मादग्रे तीर्णप्रचुरसरणिर्गोमती द्रक्ष्यसीक्ष्याम् । स्नेहं भर्ना सह कृतवतीं नित्यमामुष्मिकायात् (?) पौलोमी वा त्रिदशपतिना भूरिभूरिप्रभाजा ॥२०॥ भर्तुस्तस्यास्तव च जनकाद्वारमादाय गच्छेमुक्ता युक्तं ननु मम विभोः प्राभृतीकर्तुकामा । यस्माद् भूयःसमयमिलितं स्वामिनं रिक्तपाणिन प्रेक्षेत स्वकबहुरते: कामुकः शास्त्रदक्षः ॥२१॥ श्यामा दैर्घ्यं विरहशिथिलीभूतकेयूरवत्याः स्वामिस्तस्यास्तनुवपुरभूदन्नपानारुचिश्च । प्रोच्चैस्तापो वपुषि शशिनो दीधितीभ्यः प्रभूतः सौरभ्येण भ्रमरकृतमुच्चन्दनं वह्निकल्पम् |२२|| चिन्तापात्रीविगलितसुखा ज्वालितात्मीयकाया निःश्वासौ(विधुतशयना त्वद्वियोगेन साऽभूत् । सख्या साधू ललनविषये निर्मितान्यूनमौना बाष्पाम्भोभिः कृषिकजनवत् सिक्तवत्केकवप्रा (?) ॥२३॥ संप्राप्य त्वं तमिति कथय प्रौढसौख्यस्य हेतु मच्चित्तस्य प्रियसखि ! मयि प्रास्तरागप्रवृत्तिम् । तस्मिन्नेव ध्रुवधृतधृतौ तत्करस्पर्शमिच्छौ त्यक्तेच्छायामपरजगतीस्वामिनीष्टप्रभेऽपि ॥२४॥ सन्देशीयैरिति सुवचनैर्यस्य नीतं न रागं राजीमत्या हृदयममलाम्भोजसोमालवृत्ति । कारुण्याई प्रकृतिसुभगं स्निग्धताश्लिष्टमिष्टं गाम्भीर्येण व्यपगततमश्चक्रवालप्रवेशम् ॥२५।। इति संक्षेपेण मेघदूतरीत्या श्रीनेमिराजीमतीवर्णनं संपूर्णम् ॥श्री।।
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वाग् प्रसन्नमुखी भूयात्] विद्यादानकृते मम । नमस्कारार्हपादाब्जा बिभ्रती स्वच्छकच्छपीम् ॥१॥ क्वाऽप्सरः पतिसम्भूतोऽन्वयः क्व जुडधीरहम् । अस्म्यादित्सुर्महद्वस्तु - मोहान्निः स्वपुमानिव ॥२॥ बालः पटुगतिं वाञ्छन्नुपहास्याय देहिनाम् । भविष्यामि यथा पङ्गु-र्मोहाद् वैदग्ध्यधारिणाम् ॥३॥ यद्वाऽस्मिन् सूरिभिर्वशे जनिते स्तुतिगोचरे । गृहीते वप्र एकांशे जनस्येव गतिर्मम ||४|| सोऽहमाजन्मभूयिष्ठज्ञानानामाजगच्छ्रियाम् । आभोग्यकर्मसंसारस्थितीनामाजनूरुचाम् ॥५॥ यथाविध्युपकर्तृणां यथावित्तप्रदायिनाम् । यथावंशं प्रवृत्तीनां यथाभिमतभाषिणाम् ||६|| जयार्थं प्रौढसंग्रामकारिणां न्यायधारिणाम् । प्रत्तप्रत्यर्थिवासानां तुङ्गश्रृङ्गाद्रिगहवरे ॥७॥
असङ्ख्यानेहसं यावद् ऊढनिर्वाणवर्त्मनाम् । वैराग्यत्यक्तसंसारसम्भोगानां त्रिवर्गणाम् ॥८॥
इक्ष्वाकूणामहं स्तोष्ये जननं मन्दधीरपि ।
स्थित्वा तत्कीर्तनैः स्वान्ते स्तोतुमुत्कण्ठयेरितः ॥ ९॥ कुलकम् ॥
योग्यायोग्यविदः श्रोतुं व्यवस्यन्ति तदुत्तमाः । ज्ञायते यज्जनस्य ज्ञै- विद्वत्ता मन्दताऽपि वा ॥१०॥
मारुदेवोऽभवन्नाभि-गरिष्ठगुणगौरवः । निःशेषयुग्मिनां मान्यः पर्जन्यः स्वर्गिणामिव ॥ ११॥
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तत्कुले बहुल श्रीके पक्षद्वितयनिर्मल: । श्रीमान् वृषभ इत्यासीत् सरसीव सितच्छि(च्छ)दः ॥१२॥ निर्वोढुं निखिलं भारं प्रभूष्णुर्जात्यगौरिव । तारणार्थं भवाम्भोधे-र्नृणां पोत इवाऽभवत् ॥१३॥ सद्राज्यादिगुणाधिक्यं तन्वता यशसान्वितः । विरेजे व्यापिना व्योम्नि किरणेनांशुमानिव ॥१४|| स्वरूपप्रतिमं शीलं शीलेन प्रतिमान् गुणान् । गुणप्रतिमपूज्यत्वं युग्मिराड् धृतवानसौ ॥१५।। भीमकान्तगुणेनासौ प्रीति-द्वेषकरोऽभवत् । मित्रार्योः पद्म-कुचयोर्भास्तापेनांशुमानिव ॥१६॥ मर्यादायाः प्रजास्तस्य न कदाप्यतिचक्रमुः । लोककल्लोलकान्तस्य वेला इव नदीशितुः ॥१७॥ संपत्त्यर्थं नृणामेवा-ददे तेभ्योऽयमर्हणाम् । यतश्चिन्तामणि: पूजां दातुं गृह्णाति भूरि शम्(भूरिशः?) |॥१८॥ तस्यान्येऽलंकृतीभूताद्वयेनैवास्ति विभ्रमः । अलोभत्वेन कीर्त्या च श्यामीभूतारिवक्त्रया ॥१९॥ तस्याऽज्ञातस्वरूपस्याऽऽकारेण क्रिययाऽनिशम् । इच्छयैवाखिलप्राप्ति-र्देवस्येव श्रियः --- ॥२०॥ आत्मस्तुत्यन्यसंस्तुत्योर्न मुद्द्वेषौ स्वदानधीः । पूर्वपुण्यानुयायित्वादिवास्यासीन्मतिः सना ||२१|| निश्चयीभूतदुःप्राप-निःश्रेयससुखोऽपि सन् । विनैव वार्द्धकं धर्मे बभूव रुचिमानसौ ॥२२॥ सर्वसौख्यविधानेन शिक्षा[दा]नाच्च युग्मिनाम् । कल्पद्रुमाधिकः सोऽभूत् तेषां कल्पद्रुसंनिभाः (भः) ॥२३।।
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अनुसंधान-२३ दण्ड्यान् दण्डयिता नीत्यै भोग्यकर्मच्छिदे यतः । परिणेता च तस्यार्थ-कामौ सुकृतमेव तत् ॥२४॥ एवं यो भगवानासीद् राज्य-धर्मास्थितिं दधत् । स्वर्णवर्णसवर्णाभो नम्र देवासुराधिपः ॥२५॥ श्रीहर्षसागरमनोहरवाचकानां पट्टाम्बरे परिलसत्तरणीयितं यैः । श्रीराजसागरविचक्षणशेखराणां तेषां विनेयरविसागरनामकेन ॥२६॥ रीत्या समासेन कुमारसम्भव-श्रीमेघदूताख्य-रघूरुवंश्यया । स्तुतौ जिनौ तौ वृषभाङ्कनेमिनौ, मुक्तिस्पृहाणां कुरुतां शिवश्रियम् ।।२७||
इति पण्डितचक्रवर्ति पं० श्री राजपालगणिशिष्यरविसागरगणिना कृतं संक्षेपेण रघुवंशरीत्या श्रीऋषभदेववंशवर्णनं सम्पूर्णम् ॥
श्रीसर्व्वविदे नमः ॥ श्रीमद्यत्पादजाताः प्रबलबलभृतः शोणिमानं दधाना ऊध्र्वं तिर्यग्(क्) त्वधस्तादिति किल विचरन्त्यंशव: माकृपार्दाः । स्थानं यत्रास्य भानोस्तत इममभियोऽधः करिष्यामहे हि श्रीमद्भिः स्वैर्महोभिर्भुवनमविभुवन्नापयत्येष शश्वत् ॥१॥ पोतायन्ते यदीयक्रमणभवविभाः प्रौढमाहात्म्यभाजो नोरन्ध्राः केतुजातैर्विवरपरिचिताः सुश्रियश्च द्विधायि(पि?) । यद्येवं नो कथं तत् सकलतनुमतस्तारयन्त्यञ्जसैताः संसारापारनीरेश्वरगुरुनिरयाशर्मपाको(कौ)घमग्नान् ॥२॥ स्वाहाभुक्को(कौ)शिकाद्याः प्रणमनसमये भूरिभक्त्यानुषक्ताश्चित्ते चित्रं दधाना मुखदशकमधुभ्रान्तिमन्मत्ययुक्ताः । भूयिष्टश्रीनिधीनामिव सुखजननात् प्राणभाजां च येषां
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प्रोद्यद्दीप्रप्रभादयक्रमनखमुकुरक्रोडसंक्रान्तबिम्बम् ॥३॥ बिभ्राणैर्यत्क्रमाब्जैः प्रसृमरकिरणान् जनिरे लीलयेवाज्ञानस्थाष्णूनि यानि भ्रमररुचिशितीन्यन्धकाराणि नूनम् । तान्युग्रांशोर्नशिष्णून्यपि निबिडरुचिं सन्दधानो नृणां नो मार्तण्डचण्डभावं दहति चानिहिनस्त्यस्तदोषोऽपि पादैः ॥४॥ विघ्नाघो(घ्नौधो)द्यत्तमोघ्नैर्घन?]सुघनघटाघर्मसंघातघातं निर्मोघत्वार्थयार्घ्यं मघवभिरघ-च्च(?) जे संघटेभं (?) । सद्धोषैः श्लाघ्यमानं घनघृणि घटयन्त्यंघ्रियुग्मं यदीयं निर्विघ्नान् विघ्ननिघ्नानतिधनघृणया श्लाघ्यघोषानघोषान् ।।५।। भूयः सत्याश्रितोऽपि प्रमथपतिधिया नास्ति सत्याश्रितश्च ध्वस्तप्रोद्यत्करोऽपि प्रचुरकरगणान् सन्दधानः समन्तात् । काप्युच्चैर्वृषोक्तेर्व्यपगतवृषवारपादपद्मो यदीयो रक्तस्त्यक्तस्मरोऽपि प्रतिभयभयकृत्रियत्वप्रदोऽपि ॥६।। शुद्धा बुद्धिर्गुणौघः श्रयति हि नितरामेतदेवानुकम्पाप्रोद्यद्गानं [च?]तस्मादहमपि विलसद्वाञ्छितस्थानहेतुः । भावादेतद् भजामि प्रमुखशमरसो नूनमिद्धं यदीयं स्वातारण्यं शरण्या श्रयणमिति यदध्यास्तविध्वस्तशङ्कः ।।७।। सिद्धि यावद्विशुद्धां परमतमरमाप्राप्तिहेतोर्जनौघो व्याचष्टे पूजनीयान् विकसितकुसुमैः प्रार्थनामन्तरेण । येषां पादान् सपादानखरुचिविलसन्मञ्जरीन् कल्पवृक्षान् जङ्घोध्वत्कन्धबुनोगतलसदरुणाभाङ्गुलीपल्लवाढ्यान् ॥८॥ क्षेमोद्यदृक्षकक्षेक्षणकरजलदानक्षिलक्षैः समीक्ष्यान् साक्षाद्रक्षोविपक्षक्षपणबलवत: क्ष्मातिरक्षाक्षमाशान् । प्रेक्षास्थान् मोक्षकांक्षोर्यदमलचलनान् भिक्षुलक्षा नमन्ति क्षोणी क्षान्त्या क्षिपन्त: क्षणिक--- रस्त्रीकटाक्षाक्षिताक्षाः ।।९।।
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अनुसंधान-२३ प्राज्यैश्वर्ये निषण्णास्त्रिदशनमसिताश्चक्रलक्ष्मी दधाना: प्रक्षिप्तारिष्टकष्टाः शुचिरुचिकमलास्वामिनो नन्दकाभाः । विभ्राजन्ते यदीयाः परमतमपदाश्चक्रिणो वा क्षमायां तन्वाना वैनतेयश्रियमहितवृषा(षो)त्कर्षमोषिप्रतापा: ॥१०॥ पादद्वन्द्वाङ्गलीसत्किशलयकलितौ बभ्रतुर्मानवानामन्यूनश्रीफलाती विबुधजनमतच्छायया सेव्यमानौ । हस्तान्निर्गच्छदच्छच्छविनिचयवनैनित्यसंसिच्यमानौ यत्पादौ पादपौ वा शुचिरुचिनिचिताम्भोजपुञ्जालवालौ ॥११॥ प्रोद्यद्विद्याद्यविद्याधरनिकरमुदः सद्य उद्योतविद्यानन्द्यावरनिन्द्यापतिहतविभा उद्यमासाद्यमद्य । द्युत्युद्यानं प्रसद्य क्रमणजलधरश्चिन्वते द्राग् यदीया द्यां धुत्योद्योत्यमुद्यद्द्युसदधिपमता विद्युदुद्योतजेत्र्याः ॥१२॥ प्राज्ञैर्येषां शशङ्के क्रमणरुचिरिति भ्राज्यशोकद्रुमस्य (?) च्छाया विस्तारिता किं गुरुभिरिति परैर्मा व्यघातापजाभूत्(?) । शुद्धान्तर्भावभाजामखिलतनुमतां सिद्धिसिद्धाध्वना द्वे निर्वाणात् पूर्वदेशप्रगमकृतधियां शुद्धबुद्धय[ध्व]गानाम् ॥१३|| मित्रत्वेनापि युक्तं चरणयुगमदोऽन्यस्वभावं यदीयं केनाप्यप्रास्तशस्तद्युतिजननयनैर्दृश्यमानस्वरूपम् । बिभ्रन्नो चण्डभावं त्विषि च कुवलयं प्रापयत्युग्रतोषं शोभामम्भोरुहाणामपहरति करोत्युद्वचं कौशिकस्य ॥१४|| तानन्तानन्दपंक्तेः सदसि विदधतावादरेणादरेण?] कालं कालं क्षिपन्तौ प्रतिभयभयदं मानवानां नवानाम् । कामं कामं जयन्तौ जगति घटजवतासमुद्रं समुद्रं दूरे दूरेपसोवो वसतिमसुभृतां साधयन्तौ धयन्तौ ॥१५।।
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माञ्जिष्ठी भूतभावो ध्रुवमिति रुषया प्रेषयामास रागो यत्पादोद्भूतभानिर्गमनकपटतो मार्गणौघान् प्रगाढम् । प्रोद्यत्प्रद्योतनाद्यस्खलितगुरुरुचीन् निभि तिष्ठत्ययं किं कृत्वाऽधः पादयोर्मां निरतिशयशम श्रीसमालिङ्गिताङ्गः ॥ १६ ॥ प्रौच्चैः प्राचीनबर्हिर्निचयरुचिचितिश्चित्तचार्वेकचेष्टचण्डाच्चिर्वन्न चर्च्यः शुचिवचनविपश्चिच्चयैर्निश्चयार्च्यः । प्रोचे वाचाप्रपञ्चैः शुचिशुचिरचनो यत्क्रमाच्चिर्गुणो नोचार्वाचारोक्तिचञ्चुप्रवचनचतुराचार्यचं (च) कस्य चञ्चत् ॥१७॥ इत्यन्तः क्रोधरुद्धा दधुरपरिमितं द्वादशापि प्रतापे रक्तोष्णत्वं पतङ्गा ध्रुवमभिभवितुं यत्क्रमाच्चिविभूषाम् । तान् जेष्यावोऽस्य केतून् वयमपि परितश्चेदभीशून् सतां नः पद्धयां भूभृद्गुरुभ्यां भ्रमति भृशमभीभ्रंशयन् हेलयाऽयम् ||१८||
स्फूर्ज्जन्मुक्ताफलाभाच्छिशिररुचिसमुल्लासभर्तुर्यदीयात् पादद्वन्द्वात् पयोधेरिव लहरिरिव द्युद्बहिर्निर्जगाम । भूयः शैत्यानुषक्ता बहुलवसुमती व्यश्नुवाना स्फुरन्ती प्रख्यातादच्युतश्रीवरवसतितयाशेषकान्त्योपगूढात् ॥१९॥
मन्ये धात्रेति येषां शुभजननपटू भ्राजिनौ निर्मितो (तौ) स्तः पादावालम्बनाह गुणमितजगतस्तारणार्थं समर्थों । प्रोच्चैः पोतायमानौ लसदसुखकृतिप्रौढसंसारसिन्धौ मा पतत्तस्त्वभावात् कलिकलिल भराकान्तमत्यन्तमेतत् ॥२०॥ भूयः कल्पप्रभास्वत्फलदपदतया चारुचामीकराद्रिचञ्चच्चेद्भानुकारं कुवलयवरमुन्निर्मितित्वेन नित्यम् । येषां सत्पादपद्मक्षितिपतिरतिकृद् रक्षयोर्व्याः - पित्वा (?) दुर्गे स्वर्गापवर्गाध्वनि सदरितया स्पन्दनं सस्यदागः (?) ||२१||
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________________ 46 अनुसंधान-२३ कामं कामाङ्कशोत्थैररुणिममिलितैः प्रग्रहै: सन्दधानैभूषां भावं जनानां सदसि किशलगन्धोद्धर्वदेशेऽवदातैः / वर्णैः पुष्पाग्यमाल्यस्थितमिति विलसद्विभ्रमस्य प्रदानात् यत्पादैः पारिजातक्षितिरुहमहिमाहानिमानीयते हि // 22 // पादद्वन्द्वं पदीयं कजमिव शुशुभे भूरिसौरभ्यपृक्तं सन्मूर्ध्यारोहणार्ह शुचिविकचतया चारुरुक् चीय[मानम्?]। प्रोच्चैः प्रेम्णा प्रणामप्रवणतम इह प्राप्नुवन्ति प्रमोद प्रौढं दीप्रप्रकारं प्रसृमरभविकाः प्राणिनः प्रेक्षयाढ्याः // 23 // येषां प्राज्ञप्रभौघान् प्रियतमचरणान् क्षमाप्रणम्यान् प्रणम्य प्राज्यप्रौढप्रमादप्रतिभयनिधनप्राप्तदीप्र[प्र]तापान् / येषां पादारविन्दं सबलमपि भियं प्रापयत्पुष्पकेतु (?) भीरं वा भूम्यधीशं क्षतरुचिकमलालिङ्गनत्वेन नित्यम् // 24 // विष्वक्सेनाय मातं प्रमथपतितुलं शङ्करत्वात् क्षमापा (?) उज्जृम्भाम्भोजगर्भश्रितमिति परमेष्ठीमते निष्ठितार्थे // भक्तैवं संस्तुतास्ते जिनशतकमहाकाव्यनाम्नः किलाद्यैः पादैः कारुण्यपुण्यास्त्रिजगति गुरवश्चारुनिःश्रेयसाप्त्यै / कुर्वन्तु श्रीफलाप्ति प्रणिपतनकृतं नालिकेरद्रुवद् द्राग नित्यं सत्यं गुणौघं वपुषि निदाध]ता भ्राजमाने(नैः?) कलाभिः / / 26 / / इतिश्री 6 राजपालपण्डितशिष्य गणिरविसागरसमस्थित जिनशतक महाकाव्य प्रथमपरिच्छेदाद्यपदगुरुवर्णनं संपूर्णम् // शुभं भवतु //