Book Title: Ketlik Aetihasik Aprakat Krutio
Author(s): Suyashchandravijay, Sujaschandravijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ केटलीक ऐतिहासिक - अप्रगट कृतिओ - सं. मुनिसुजसचन्द्र-सुयशचन्द्रविजयौ प्राचीन इतिहासने वर्तमान समय साथे जोडती कडी रूपे जो कोईपण सामग्री आजे प्राप्त थती होय तो ते आपणा पूर्वाचार्यो द्वारा प्रणीत साहित्य, लेखित साहित्य तथा पूर्वपुरुषोए करावेलां स्थापत्यो. ते सामग्री भलेने जैनदर्शननी होय, बौद्धदर्शननी होय, के अन्य कोईपण दर्शननी होय परन्तु ते चोक्कस प्रमाणोने रजु करे छे. अत्रे तेवी ज केटलीक जैनदर्शननी ऐतिहासिक कृतिओ अने तेनो परिचय आपणे अनुक्रमे जोइशं. १. रत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् : प्रभु पार्श्वनाथनी श्रमणपरम्परामां शुभदत्त नामना गणधर थया. तेमनी पट्टपरम्परामां अनुक्रमे हरिदत्तसूरि - आर्यसमुद्रसूरि - श्रीकेशीगणधर - स्वयम्प्रभसूरि थया. तेमने विद्याधरेन्द्र रत्नप्रभसूरि नामना सवालाखश्रावकप्रतिबोधक - ओसवालज्ञातिस्थापक प्रभावक शिष्य हता. कवि देवतिलके प्रस्तुत कृतिमां तेमना जीवननी केटलीक महत्त्वपूर्ण बाबतोने काव्यमां गूंथी छे. मन्त्री आहडना पुत्रने सर्पदंश निवारी पुनजीवित कों, कोरंटानगरना अने उपकेशनगरना जिनालयमां योगबळे एक ज समये बे वीरबिम्बनी प्रतिष्ठा करी, सत्यिका देवीने सम्यग्दृष्टि करी इत्यादि प्रसंगो द्वारा गुरुभगवन्तना माहात्म्यनुं वर्णन करी अन्त्य पंक्तिओमां स्तोत्रपठनना फळनी कविए ओछा पण सुन्दर शब्दोमां वर्णना करी छे. प्रत सुन्दर छे. प्रतलेखन-पुष्पिका वांचवा जेवी छे.. २. हीरविहारविभूषण-श्रीऋषभदेवस्तवनम् : सुरतना निझामपुरा विस्तारमा पू. उपा. नेमिसागरजीना उपदेशथी सं. १६७५ मां 'हीरविहार' नामना जिनालय, निर्माण थयु. मूळनायक तरीके आदिनाथ प्रभुना बिम्बनी प्रतिष्ठा थई. कविए प्रस्तुत कृतिमां ते आदिनाथ प्रभुनी स्तवना करता हीरविहारना स्थापत्यनी पण उडती नोंध मूंकी छे. कृतिमां कर्ताना नामनो स्पष्ट उल्लेख नथी. पण 'रत्नसुधाकर' शब्दथी रत्नचन्द्र (उपा०) आ कृतिना कर्ता होवानुं विचारी शकाय. कृतिनी रचना कई संवतमां थई ए विचारता प्रायः १६७५ आसपास ज थई हशे. कारण पू. उपा. रत्नचन्द्रजीए आ सालमां (१६७५ वै.सु. ८) हीरविहारमा उपा० विद्यासागरजी, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुअरी २०११ उपा. लक्ष्मीसागर. अने उपा. नेमिसागरजीनी पादुकानी प्रतिष्ठा कर्यानी नोंध पू. धर्मदासजीए हीरविहारस्तवनमां करी छे. १०५ आजे हीरविहारना जिनालयने सम्बन्धि कशी विगतो मळती नथी. अभ्यासुओने हीरविहारनी अन्य माहिती माटे हीरविहारस्तवन जोवा विनति. ३. हीरविजयसूरिस्वाध्याय : क्यारेक कोई महात्माना संयमादि गुणोथी आकर्षाई विद्वानोए तेमना जीवन पर सौथी वधु कृतिओ रची होय तो ते जगद्गुरु हीरविजयसूरिजी म.सा. जेटली कृतिओ प्राप्य हशे तेमांनी घणीखरी कृतिओ संग्रहीत करी पू. महाबोधिविजयजीए हीरस्वाध्याय भाग १ - २ मां प्रकाशित करी छे. छतां हजी घणी अप्रगट नानी मोटी कृतिओ मळे पण छे. अत्रे एमांनी एक अप्रगट रचना प्रकाशित कराई छे. पूज्यश्रीनी शिष्यपरम्परामां विद्याकुशल नामना कवि थया. तेमणे सं. १६१७मां चैत्र सुद ५ना दिवसे आ कृतिनी रचना करी छे. गुरुनाम गुम्फित करता कविए अनुक्रमे पू. आणन्दविमलसूरिजी, उपा. विद्यासागरजी, विजयदानसूरिजी, उपा. धर्मसागरजी, हीरविजयसूरिजी अने रूपऋषिजीनुं नाम गूंथ्युं छे. श्लोक ११ छे. कृति ठीक ठीक छे. ४. विजयप्रभसूरिस्तोत्र : तपागच्छनी परम्परामां पू. हीरविजयसूरिनी पाटे सेनसूरिजी, तेमनी पाटे विजयदेवसूरि अने तेमनी पाटे विजयप्रभसूरि थया. कच्छना मनोहरपुरमां ओशवालवंशीय सा. शिवगणनी भार्या भाणीनी कुक्षीथी सं. १६७७ माघ सु. ११ना तेमनो जन्म थयो. सं. १६८६ मां ९ वर्षनी नानी उमरे तेमणे दीक्षा लीधी. दीक्षा बाद वीरविजयना नामथी ओळखाता तेमने सं. १७०१ मां पंन्यासपद, १७१० मां आचार्यपद मळ्युं. आचार्यपदवी बाद विजयप्रभसूरिना नामथी तेओ प्रसिद्ध थया. प्राचीनमूर्तिना लेखो, ग्रन्थरचनानी / लेखननी पुष्पिकाओमां तेमनुं नाम वांचवा मळे छे. कविए तेमना गुणानुवादरूपे प्रस्तुत कृतिनी रचना करी छे. कमलबद्ध चित्रकाव्य रचवा द्वारा कविए पोतानी प्रतिभा पण रजू करी छे. कर्तानुं नाम अहीं पण गुप्त छे. कर्ता वीरसागरना शिष्य छे. 'कृपाम्भो' शब्द जो कर्ताना नाम माटे विचारीए तो कृपासागर एवं नाम बनी शके छतां अन्य माहिती मळे चोक्कस करी शकाय . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ (५) धर्मलक्ष्मीमहत्तरास्तुति (सटीक) सरस्वतीव श्रीधर्म-लक्ष्मीजीयात् महत्तरा । सुवर्णलक्षजननी, प्रवीणा विधिसंयुता ॥१॥ उपकारीना ऋणने येन केन प्रकारेण प्रकटित करवू ते हमेशा सज्जनोनुं लक्षण रयुं छे. 'याकिनीमहत्तरासूनु' ए उपनामथी हरिभद्रसूरिजीए सा. याकिनीना, करुणावज्रायुधनाटकना रचयिता बालचन्द्रसूरिए 'धर्मपुत्र'ना विशेषणथी सा० रत्नश्रीजीना उपकारनुं जेम स्मरण कर्यु तेमज उपरोक्त श्लोकना कर्ता ज्ञानसागरसूरिजीए पण विमलनाथचरित्रग्रन्थनी प्रशस्तिमां सा० धर्मलक्ष्मीना उपकारोने स्मरण करी आ श्लोक रच्यो हशे एम लागे छे. आ वातने पुष्ट करती अन्य एक नोंध मळे छे. ते धर्मलक्ष्मीमहत्तरास्तुति. (आ कृतिनी रचना पण ज्ञानसागरसूरि म.सा.नी होवा- अमे मानीए छीए. कृतिना छेल्ला श्लोकमां वपरायेलो 'ज्ञानादिरत्नाकर' शब्द ज्ञानसागर नामनो द्योतक छे.) प्रस्तुत कृतिमां कविश्री साध्वीजी भगवन्तना गुणोनुं वर्णन करे छे. श्लेषकाव्यो, चित्रकाव्यो, विविधभाषाओ, विविध छन्दोमां रचायेली लाक्षणिक कृति खरेखर साध्वीजीना विशिष्ट व्यक्तित्वनो परिचय आपती होय तेम जणाय छे. संस्कृतभाषामां के गुर्जरभाषामां अन्य कोई साध्वीजी माटे आवी कृति मळती होय तेवू प्रायः ख्यालमां नथी. कृति सुन्दर छे. कर्ताए मूळ साथे विषमार्थ करी कृतिने समजवामां सुगमता करी आपी छे.२ प्रस्तुत कृतिओनी झेरोक्ष आपवा बदल निम्नोक्त संस्थानो आभार१. श्रीसुरेन्द्रनगर जैन संघ ज्ञानभण्डार २. आणंदजी कल्याणजी पेढीनो भण्डार - लींबडी ३. श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानभण्डार - पाटण ४. श्रीतपोवन जैन ज्ञानभण्डार - नवसारी ५. श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर - सुरत १. कृतिनी अन्तिम पंक्ति 'भावस्येप्सितसम्पदं च सुपदं देयात्' परथी तो कृतिना कर्ता भावसागर होय एम जणाय छे. -सं. २. श्लो. १४-टीकानी अन्तिम पंक्ति 'निश्चितिः प्राक्तनवृत्तौ ज्ञेया' जोतां आ विषमार्थ मूळकारे पोते को होय एवं नथी जणातुं. -सं. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी २०११ १०७ १. रत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् ॥६०॥ श्रीमद्प्रभसूरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥ वामेयपट्टे शुभदत्तनामा, तच्छिष्यजातो हरदत्तमुख्यः । आर्याम्बुधिः-केशि-स्वयंप्रभोऽपि, सूरीशरत्नप्रभू(भु)लब्धिपात्रम् ॥१॥ भव्यावलीकमलकाननराजभृङ्ग, श्री(श्रे)यःप्रवृत्ति(त्त)मुनिमानसराजहंसम् । श्रीपार्श्वनाथपदपङ्कजचञ्चरीकं, रत्नप्रभुगणधरं सततं स्तवीमि ॥२॥ विद्याधरेन्द्रपदवीकलितोऽपि कामं, श्रीमत्स्वयं प्रभुगिरः परिपीय योऽत्रः(त्र) । दीक्षावधूमुदवहन्मुदमादधानो, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥३॥ मन्त्रीश्वरो(रा)ऽऽहडसुतो भुजगेन दष्टः, सञ्जीवितः सकललोकसभासमक्षम् । यस्यांऽह्रिवारिरुहपुष्करसिञ्च(सेच)नेन, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥४॥ मिथ्यात्वमोहतिमिराणि विधूय येन, भव्यात्मनां मनसि तिग्मरुचेव विश्वे । सन्दशितं सकलदर्शनतत्त्वरूपं, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥५॥ येनोपकेशनगरे गुरुदिव्यशक्त्या, कोरण्टके च विदधे महती प्रतिष्ठा । श्रीवीरबिम्बयुगलस्य वरस्य येन, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥६॥ श्रीसत्यिका भगवती समभूत् प्रसन्ना, सर्वज्ञशासनसमुन्नतवृद्धिकी । यद्देशनारसरहस्यमवाप्य सम्यक्, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥७॥ गृह्णन्ति यस्य सुगुरोर्गुरुनाममन्त्रं, सम्यक्त्वतत्वगुणगौरवगर्भिता ये । तेषां गृहे प्रतिदिनं विलसन्ति पद्मा, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥८॥ कल्पद्रुमः करतले सुरकामधेनु-श्चिन्तामणिः स्फुरति राज्यरमाऽभिरामा । यस्योल्लसत्क्रमयुगाम्बुजपूजनेन, रत्नप्रभुस्स दिशतात् कमलाविलासम् ॥९॥ इत्थं भक्तिभरेण देवतिलकश्चातुर्यलीलागुरोः, श्रीरत्नप्रभुसूरिराजसुगुरोः स्तोत्रं करोति स्म यः । प्रातः काम्य(व्य)मिदं पठत्यविरतं, तस्याऽऽलये सर्वदा सानन्दं प्रमदेव दीव्यतितरां साम्राज्यलक्ष्मीः स्वयम् ॥१०॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ इति ओएसनगरे सपादलक्षश्रावका(काः) प्रतिबोधिता(ताः), ओएसवालज्ञातिः स्थापिता । तस्य स्तोत्रमिदं प्रातर्व्याख्यानपद्धतौ प्रत्यहं पठनीयम् ॥ संवत १९५८ रा मिति कार्तिक कृष्णपक्षे तिथौ १० म्यां भृगुवासरे लिप्यी(पी) कृतम् । पं. धीरसुन्दरेण ओएसकवलागच्छे वृद्धपौषधशालायाम् । लेखं भूयात् । सु(शु) भं भवतु । श्रीकल्याणमस्तु । श्री रस्तु । श्री ॥ २. हीरविहारविभूषण-श्रीऋषभदेवस्तवनम् ॥ए ई०॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ नत्वा श्रीगुरुचरणौ, स्मृत्वा श्रीशारदां च वरवरदाम् । स्तोष्ये हीरविहारं, तदनु च तद्भूषणं वृषभम् ॥१॥ विमलतोरणगोमटिकायुतं, विहितहीरगणाधिपपादुकम् । प्रतिदिनं वरसूरतिबन्दिरो-त्तममहेभ्यजनैः कृतभावनम् ॥२॥ सकलरत्नसुधाकरवाचक-विहितवासविधानप्रतिष्ठया । सुकृत-लब्धि-सुनेमिसुवाचक-त्रितयशोभनपादुकयाऽन्वितम् ॥३॥ प्रवरभूषणनागर-नागरी-विहितगीत-गुण-स्तुतिकं जनाः । महिमधाम जिनादिममण्डितं, नमत हीरविहारमनुत्तरम् ॥४॥ कमलकोमलकान्तिविराजितं, भविकभावुकसन्ततिकारकम् । ऋषभदेवजिनं गतदूषणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥५॥ मदनतुङ्गमहीरुहवारणं, सकलविष्टपसंस्थितिकारकम् । भवपयोधिपतज्जनतारणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥६॥ सुगुरुहीरमुनीश्वरसेवितं, विजयसेनगुरुत्तमसंस्तुतम् । विजयदेवगुरुप्रणतं सदा, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥७॥ युगलजन्मिजनावृषवारणं, प्रथमपात्रविहायितसाधनम् ।। प्रथममिक्षुरसाधिकपारणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ।।८।। गजभयादिभयाष्टकवारणं, स्वकविहारपवित्रवसुन्धरम् । वरनवीनपुराग्रिममण्डनं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥९।। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी २०११ १०९ भरतभूपतिभूपतिसेवितं, तनुजबाहुबलीश्वरचर्चितम् । नववसुप्रमितोद्वहतारणं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥१०॥ जयजयारवबन्दिजनैः स्तुतं, सततवैणिकगीत्युपवीणितम् । विमलकेवलचारुविलोचनं, नमन हीरविहारविभूषणम् ॥११॥ गणधरादिमुनिव्रजमध्यगं, सकलजातिसुरैः कृतसेवनम् । विविधनाट्यविधानसुरञ्जितं, नमत हीरविहार विभूषणम् ॥१२॥ वरगुणावलिरत्नमहानिधि, सकलरत्नसुधारुचिना मुदा, स्तुतिपथं विनयादवतारितं, नमत हीरविहारविभूषणम् ॥१३।। ॥ इति श्रीहीरविहारविभूषण-श्रीऋषभदेवस्तवनं सम्पूर्णम् ॥छ।। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनपादरतं आनन्दाकरवि नं दनदं भव द रदावानलभ विश्वसुरासुरव मदनवधैक ललनाजन [वि] मुखं सूरीश्वरमुकुटं विधुतारं द्या धारं सागरपोतं ग सुनीरं र नतपादं उ मेशसमानं पा तारं श्री नन्दनरूप ध रसार विद्वज्जनकृतधर्म विचारं यजयरवपर साधुकपोतं तिनाथं गुण ग णगम्भीरं नदयाबलभ र जितवादं ज य ३. श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्याय दा न म्रनरोत्तम उ त्तममानं नाबन्धन पा तनिवारं R श्री सिद्धान्तनि रूपणकारं वन्दे हीरविजयगणधारं ही नाचारनगे प विधारं वन्दे हीरविजयगणधारं र त्नत्रयधारक ऋ षिसारं वन्दे हीरविजयगणधारं विदितविपुलऋ षि भाषिते सारं, वन्दे हीरविजयगणधारं जयकरपालित पंचाचारं वन्दे हीरविजयगणधारं य नभरेण विखंडि तमारं वन्दे हीरविजयगणधारं सूरकिरणखर तपसाऽवारं, वन्दे हीरविजयगणधारं ध्या नेशं ध्या पितमेशं री ण मोहभट रि पुसन्दोहविज य निष्णातं य शोविख्यातं श मसुखदं सुरत निखिलमुनीशशिरोवतंसं नाथीकुक्षिसरोवरहंसं, साहकउंराकुलकजकासारं वन्दे हीरविजयगणधारं ॥ गणधरविजयदानगुरुसीसं, भविजनपूरितचित्तजगीसं, विद्याकुशलकीरे सहकारं वन्दे हीरविजयगणधारं ।। री तिबलेनाs श र्मकरं सु गुरुविस्तारं वन्दे हीरविजयगणधारं रु अवतारं वन्दे हीरविजयगणधारं ॥ इति पं. विद्याकुशलकृतः श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्याय: । सं. १६१७ वर्षे चैत्र शुदि ५ दिने कृतः ॥ ११० अनुसन्धान- ५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी २०११ श्रीहीरविजयसूरिस्वाध्याय श्रीजिनपादरतं विधुतारं, श्रीनन्दनरूपं धरसारम् । श्रीसिद्धान्तनिरूपणकारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥१॥ आनन्दाकरविद्याधारं, विद्वज्जनकृतधर्मविचारम् । हीनाचारनगे पविधारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥२॥ नन्दनदं भवसागरपोतं, जयजयरवपरसाधुकपोतम् । रत्नत्रयधारकऋषिसारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥३॥ दरदावानलभङ्गसुनीरं, यतिनाथं गुणगणगम्भीरम् । विदितविपुलऋषिभाषितसारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥४॥ विश्वसुरासुरवरनतपादं, दानदयाबलभरजितवादम् । जयकरपालितपञ्चाचारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥५॥ मदनवधैकउमेशसमानं, नम्रनरोत्तमउत्तममानम् । यत्नभरेण विखण्डितमानं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥६॥ ललनाजनविमुखं पातारं, सूनाबन्धनपातनिवारम् । सूरकिरणखरतपसाऽवारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥७॥ सूरीश्वरमुकुटं ध्यानेशं, रीतिबलेनाऽध्यापितमेशम् । रीणमोहभटगुरुविस्तारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥८॥ रिपुसन्दोहविजयनिष्णातं, शर्मकरं सुयशोविस्तारम् । शमसुखदं सुरतरुअवतारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥९॥ निखिलमुनीशशिरोवतंसं, नाथीकुक्षिसरोवरहंसम् । साहकउंराकुलकजकासारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥१०॥ गणधरविजयदानगुरुसीसं, भविजनपूरितचित्तजगीसम् ।। विद्याकुशलकीरे सहकारं, वन्दे हीरविजयगणधारम् ॥१०॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान - ५४ श्री हेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २ ४. विजयप्रभसूरिस्वाध्याय ॥ए८०॥ श्रीतपगणपुष्करसवितारं, विहितविधिशास्त्रार्थविचारम् । जनतागेययशोविस्तारं, यतिततिसूचितशुद्धाचारम् ॥१॥ सेवाकृल्लोक(का)खित(ल) नारं, नयनानन्दकरं सुविहारम् । सूर्याधिकतेजोविस्तारं, री (रि) क्तीकृतकल्मषकासारम् ॥२॥ श्रीजिनशासनवरशृङ्गारं, विकचकमलदललोचनसारम् । जनितजगज्जनसौख्यमुदारं, यतनाकामिनीकण्ठे हारम् ॥३॥ देशनाजलवर्षणजलधारं, वरतरपूर्वमुनिव्रतधारम् । सूरिगुणावलिभाण्डागारं, रिपुमित्रादिषु तुल्याकारम् ॥४॥ परमतवृक्षभिदैककुठारं, टालितमोहमहाभटचारम् । लम्भितभव्यभवोदधिपारं, कामितपूरणवरमन्दारम् ॥५॥ रजनीकरसमवदनाकारं, हास्यादिकनवकृतपरिहारम् । रञ्जितसकलसुरासुरवारं, श्रीउपशमरसभृतभृङ्गारम् ॥६॥ विशददशनतती(ति)जितशुचिहारं, जयविजयाद्भुतभाग्याधारम् । यशसा सु (शु) भ्रितविश्वागारं प्रकटितपरमजिनागमसारम् ॥७॥ भक्तजनद्रुमवृद्ध्यासा(धा)रं, सूक्ष्मेतरजन्तूक्षरतारम् । नभोभरग्रहनेतारं, मनसाऽप्युज्झितकामविकारम् ॥८॥ हस्तविहितविद्वज्जनवारं, मीमांसादिकशास्त्राधारम् । लेखावन्दितपादमुदारं, वन्दे प्रथमाक्षरगणधारम् ॥९॥ इत्थं सत्कमलप्रबन्धघटित श्रेयः स्तवैयः स्तुत:, श्रीमच्छ्रीविजयप्रभाभिधगुरुर्भूपालमालार्चितः । प्राज्ञः श्रीवरवीरसागरपदाम्भोजन्मसेवाकृतो, भावस्येप्सितसम्पदं च सुपदं देयात् कृपाम्भोनिधिः ॥१०॥ ॥ इति कमलबन्ध [विजयप्रभसूरि ] स्वाध्याय ॥छ||छ||श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुअरी २०११ ५. धर्मलक्ष्मीमहत्तरास्तुति ( सटीक ) ॥ए ६०॥ प्रणम्य विज्ञातसमस्तभावं, श्रीस्तम्भनाधीशमुरुप्रभावम् । महत्तरां नौमि गुणैरुदारां, श्रीधर्मलक्ष्मीं विजितासदाराम् ॥१॥ आरं - अरिसमूहो यया । १. विजितं असत् - अप्रधानम्, रत्नाकरप्राप्तपदऽर्थदांत्री, नालीकँवासा जिनभक्तिकर्त्री । या राजते मूर्त्तिमतीव लक्ष्मी - महत्तरा नन्दतु धर्मलक्ष्मीः ॥२॥ ११३ १. रत्नाकराभिधे गच्छे प्राप्तं पदं स्थानं यया । २. अर्थः शास्त्रार्थः, द्रव्यं च । ३. अलीक:-मिथ्या वासो यस्याः सा अलीकवासा, सा ईदृशी न । लक्ष्मीपक्षे नालीकेकमले वासो यस्याः । ४. जिन: - वीतरागः, कृष्णश्च । बहुधन्यहितां वरसंवरैंदां, जिनैंसत्क्रमगां सुविचारपदाम् । विबुधा' हि भजन्ति यदीयगिरं, खर्धुनीमिव जीवतु सा सुचिरम् ॥३॥ १. खधुनीमिव गङ्गामिव । २. बहुधा - [बहु] प्रकारेण अन्येभ्यो जीवेभ्यो हिता - हितकर्त्री, पक्षे बहुभिर्धान्यैः-सस्यैर्हिता । ३. संवरः-आश्रवनिरोधः, पक्षे शम्बरं - पानीयं, दन्त्योपदिष्टं तालव्यस्याऽपि इति न्यायात्, बवयोरेकत्वाच्च । ४. जिनस्य - वीतरागस्य क्रमः - आचारः, तं गच्छतीति, पक्षे जिनस्य - कृष्णस्य क्रमः लक्षणया दक्षिणः पादः, तस्माद् गच्छतीति । ५. सुविचारं पदं स्याद्यन्तं त्याद्यन्तं यस्यां सा, पक्षे शोभनो यो वीनां - हंसादिपक्षिणां चारःपरिभ्रमणम्, तस्य पदं स्थानं यस्याम् । ६. विबुधा: - विद्वांसः, देवाश्च । वरालङ्कृतिंर्भव्यभावभिरामा, सुविन्यस्तपादा स्वैरव्यञ्जनाढ्या । नरीनर्त्ति कालन्दिका' नर्त्तिकीवद्, यदीयास्यवेश्मागणे साऽस्तु भूत्यै ॥४॥ १. अलङ्कृतिः-अलङ्कारशास्त्रम्, पक्षे विभूषणम् । २. भावा- भाग्यरूपा, पक्षेऽनुभावाः । ३. शोभनाः विन्यस्ताः पादाः श्लोककाव्यादिविरचनया यस्यां, पक्षे पादौ चरणौ । ४. स्वराः-१४ व्यञ्जनानि - ३३ तैराढ्या, पक्षे स्वरस्य - [शब्द ] स्य व्यञ्जनं-प्रकटनम्, तेनाऽऽढ्या-समृद्धा । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ५. कालन्दिका - सर्वविद्या | अनुसन्धान- ५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २ विशिष्टकाष्ठां प्रगुणैर्गुणैः श्रितां, सदापि चारित्रैभृतां निराश्रवाम् । भव्या ! भवाब्धि तरितुं तरीमिव श्रयध्वमेतां नितरां महत्तराम् ॥५॥ १. काष्ठाः- नियमाः, पक्षे काष्ठं-लकुटम् । २. गुणा:- क्षान्त्यादयः, पक्षे दवरकाः । ३. सदापि चारित्रेण-सदाचारेण भृता, पक्षे च - पुनः, सदापि अरित्रै: - आउलकैर्भृता(?) । आश्रवः- पापद्वाराणि छिद्राणि च । ४. वरैर्गोभरैः कौर्मुदं भासयन्ती, हरन्ती तमः शैत्यैमुल्लासयन्ती । लसच्चन्द्रगच्छाम्बरे चन्द्रलेखा - वदाभाति सैषा सती प्राप्तरेखा ||६|| १. गौ:- वाणी, गावः किरणाश्च । २. कौ - पृथ्व्यां मुदं - हर्षं भासयन्ती - प्रकटयन्ती, पक्षे कुमुदानां समूहः कौमुदम् । ३. तम:- पापम्, अन्धकारं च । ४. शीतस्य भावः शैत्यम् । हंसलीना सदा वै बुंधोपासिता, सद्विधैिर्वर्यशुभ्राम्बरोद्भासिता । सा प्रवीणोत्तरा राजते सारदा - ऽध्यक्षलक्षेव शास्त्रावली सारदा ॥७॥ हंसा: - परमात्मा, राजहंसश्च । १. २. वै-निश्चितं बुधैः- विद्वद्भिरुपासिता, पक्षे विबुधानां - देवानां समूहो वैबुधम् । ३. विधि:-आचारः, ब्रह्मा च । वर्याः शुभ्राम्बराः-श्वेताम्बराः तेषूद्भासिता - प्रकटिता, क्षे वर्यं श्रेष्ठं शुभ्रं श्वेतम्, अम्बरं - वस्त्रं [ यस्या: सा ] | ४. प्रवीणेषु - विद्वत्सु उत्तरा - उत्कृष्टा, पक्षे प्रकृष्टवीणया उत्तरा । ५. अध्यक्षलक्षा-प्रत्यक्षलक्षा सारदेव । शुद्धवंशोद्भवा सङ्गृहीताऽऽशये, सुक्षमाभृद्भिरुद्यद्गुर्णं भ्राजिता । यज्जयत्यत्र सत्कोटिशिष्टा परान्, धर्मलक्ष्मीश्च तत्साम्प्रतं साम्प्रतम् ॥८॥ [द्व्यर्थकाव्यानि] १. शुद्धो वंश उपकेशरूपः पक्षे वंशः । २. क्षमाभृद्भिः-साधुभि: आशये - चित्ते गृहीता । पक्षे [क्षमाभृद्भिः ] राजभिः शये - हस्ते गृहीता । ३. गुणा:- क्षमादय: [ पक्षे गुणो ज्या] ४. सत्कोटिषु-उत्तमकोटिषु शिष्टा, पक्षे सत् - प्रधानम्, कोटि: अग्रविभागम् । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुअरी २०११ धर्मलक्ष्मीर्यत्परान् वादिनो जयति तत्साम्प्रतं अधुना साम्प्रतं युक्तम्, अन्याऽपि धर्मस्य - धनुषो लक्ष्मीः परान् - वैरिणो जयति । ५. मोहभूमिरुहमाथदन्तिनीं, साधुसाररसवारिवाहिनीम्' । मङ्गलावलिलतावसुन्धरां, संनुवामि सततं महत्तराम् ॥९॥ १. साधूनां सारः-उत्कृष्टो रसो शान्तरसः, स एव वारि-पानीयं, तस्य वाहिनीं - नदीम् । विश्वविसारिविशालयशः श्रीः १, सर्ववशांवरिवर्यवरांह्निः । संवरशस्यशरीरविलासा, सेह शिवाय सुशीललया वः ॥१०॥ [पञ्चवर्गपरिहारकाव्य] १. विश्वे विसारिणी - प्रसरणशीला विशाला - विस्तीर्णा यशः श्रीर्यस्याः । २. सर्ववशाभिः - स्त्रीभिर्वरिवर्यौ-सेव्यावंही यस्याः । ३. संवरेण शस्यः शरीरविलासो यस्याः सा । पूज्या: के जगतां ब्रवीति कृपणः, किं मार्गणैर्मार्गितौ ?, धातोस्त्यादिविभक्तिषु स्फुटतरं, का साध्यते शाब्दिकैः ? । धन्यैः कोऽर्थिषु दीयते सुनृपतेः, सेना भवेत् कीदृशी ?, कीद्ग् भाति महत्तरा कविवरा, ज्ञानक्रियाराजिता ॥ ११ ॥ ११५ या जैनक्रर्मवासिनी सुचरणांभोगं दधाती हया, पारं याति कदा गुरुर्गुरुमति - र्यस्या महिम्नोऽपि नो । सा निःसीमरुचिँर्विभाति हि सदा - रागस्थिति ४/५ बिभ्रती, गङ्गावद् गजराजवद् गगनवद्, गङ्गेयवद् गेयवत् ॥१२॥ १. जैनक्रमौ - वीतरागपादौ, गङ्गा पक्षे विष्णुपादौ । २. चरणं - चारित्रं, गज[पक्षे] पादाः । ३. नि:सीमा रुचि:- सम्यक्त्वं यस्याः, गङ्गेο[गाङ्गेयपक्षे]रुचिः-कान्तिः । ४. सदाऽरागस्थितिं-नीरागावस्थाम् । ५. गेय (पक्षे ) श्रीरागाया पुर अरागास्तेषां स्थितम् । [प्रश्नोत्तरम् ] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ १. करीरतुल्यो भवः, कल्पलतातुल्या महत्तरा । श्रीशुभसौख्यभृता', नरसत्तमसिंहसुता, णंदउ सा सययं‍, जणदंसिदधम्मपधा वालियमालविया लभला“ ततनातवरा, मंकलवालकरा", नदलोगविसोगहरा ' ॥ १४ ॥ [अष्टभाषामयम् ] अनुसन्धान - ५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - २ भवे भ्रमन्तः कटुकण्टकाकुले, दुःपापसन्तापहरामभीष्टदाम् । महत्तरामाप्य जना वदन्त्यहो !, विलोकिता कल्पलता करीरके' ! ॥१३॥ [समस्याद्वयम्] ५. १. श्रीः- लक्ष्मीः, शुभं - पुण्यं, सौख्यं सुखं, तैर्भृता । २. नरेषु सत्तमसिंहः स्वपिता, तस्य सुता, एषा समसंस्कृता । ३. नं(णं)द०...., एषा प्राकृता । ४. जनानां दर्षि (शि) तो धर्मपथो यया, एषा सौ ( शौ) रसेनी । तो दोऽनादौ सौ(शौ)रसेन्यामयुक्तस्य[सि. ८/४ / २६० ] अनेन सौ (शौ) रसेन्यां तस्य दः । 'थो धः’ [सि.८/४/२६७] अनेन थस्य धः । ६. - वारितो मारस्य-कन्दर्पस्य विकार भरो यया । 'रसोर्लशो' [सि.८/४/२८८] अनेन रस्य लः, एषा मागधी । तत:-विस्तीर्णो नादः शब्द:, तेन वरा । 'तदोस्त:' [सि.८/४/३०७] अनेन तस्य दस्य च तः, एषा पैशाची । ७. मङ्गलस्य वारं- समूहं करोतीति । 'तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ' [सि.८/४/३२५] अनेन तृतीयस्य गस्य स्थाने आद्यः कः स्यात् । 'रस्य लो वा' [सि.८/४/३२६] अनेन विकल्पेन रस्य लः, एषा चूलिकापैशाची । ८. नतानां लोकानां विरु (?) शोकं हरतीति । 'स्वरादसंयुक्तानां कखतथप - फां गघर (द) धबभा:' [सि.८/४/३९६] अनेन तस्य दः, कस्य गः । एषा अपभ्रंश भाषा । आसां भाषाणां निश्च(श्चि)ति: प्राक्तनवृत्तौ ज्ञेया । यतिनामछन्दसा काव्यम् : एवं श्रीगुरुरत्नसिंहमुनिपात्, प्राप्तप्रतिष्ठापदा, सौभाग्योदयवल्लभा कृतशुभा, ज्ञानादिरत्नाकरः । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी 2011 117 जीयात् सत्करुणा बुधैः स्तुतगुणा, श्रीरत्नचूलान्वय व्योमधोमणिभानिभा भगवती, श्रीधर्मलक्ष्मीरसौ // 15 // 1. ज्ञानादिरत्नानां आकरः शब्द आदि अष्टलिङ्गः(?) / शेषं स्पष्टम् / // इति महत्तरा स्तुतिः // ग्र = 22 अ = 12 // ___C/o. अश्विनभाई संघवी कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा, सूरत-१