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कल्पव्याख्यानमांडणी ॥ भूमिका
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
__ जैन मुनिनी व्याख्यान-पद्धति एक रसप्रद विषय बने तेम छे. 'व्याख्यान' माटे मूल प्रयोजातो शब्द छे 'देशना'. श्रोताओना समूहने अपातो धर्म-उपदेश ते 'देशना'. 'व्याख्यान' एटले जिनभगवानना कहेला तथा गणधरोए रचेला सिद्धान्त-सूत्रोनी व्याख्या-विवरण. कालान्तरे सूत्र बोलतां जईने तेनो अर्थ, विविध सन्दर्भो टांकतां टांकतां, समजाववानी क्रियाने 'व्याख्यान'ना नामे ओळखवामां आवी. सारांश ए के जे प्रतिपादनमां सूत्र के शास्त्रनां वचनोनो आधार होय, अने ते वचनोना शब्दे शब्दना अर्थोद्धाटन के विवरण माटे, लोकभोग्य बने ते रीते पण, अनेक विभिन्न शास्त्रो तथा सन्दर्भोनो टेको लेवातो होय. अने ते प्रकारे शास्त्रना पदार्थो तथा धर्मनी वातो लोकहृदय सुधी पहोंचाडवामां-ठसाववामां आवती होय, तेनुं नाम व्याख्यान.
व्याख्यानमां मूळ सूत्र मुख्यत्वे प्राकृत-मागधी भाषामां बोलातुं. समर्थन माटे टांकवामां आवतां अवतरणो संस्कृत-प्राकृत आदि भाषानां रहेता. अने तेनुं विवरण-विवेचन जे ते समयमां तथा स्थळमां प्रचलित लोक भाषामां - दा.त. गुजराती, अपभ्रंश वगैरेमां - थतुं.
मध्यकाल अथवा उत्तर मध्यकालमां, आ व्याख्यान पद्धतिने वर्णवनारी अनेक प्रतिओ लखायेली मळी आवे छे. 'सूत्र व्याख्यानपद्धति', 'मध्याह्न व्याख्यानपद्धति' वगेरे नामे ते उपलब्ध होय छे. ते प्रतिओनुं अवलोकनअध्ययन करतां, मध्य युगमां जैन मुनिओ केवी रीते व्याख्यान आपतां हशे तेनो अंदाज अवश्य मळी आवे छे.
अहीं ए प्रकारनी ज एक नानकडी कृति प्रस्तुत थाय छे : 'कल्पव्याख्यान-मांडणी'. भादरवा महिनामां, चातुर्मास रहेला मुनिओए, 'कल्पसूत्र'नुं वांचन करवानु अनिवार्यपणे आवश्यक कृत्यरूप छे. हवे ते सूत्र गृहस्थ श्रोताओने अर्थ साथे संभळाववानुं होय छे, एटले श्रोताओने रस पडे अने
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अनुसंधान-२७ कंटाळो न चडे ते रीते तेनुं व्याख्यान थर्बु जोईए. आ कारणे ज, जेम अनेक विद्वान् मुनिवरोए सेंकडोनी संख्यामां कल्पसूत्रनी टीकाओ तेमज अन्तर्वाच्योनी रचना करी छे, तेम अनेक मुनिओए कल्पसूत्र पर बालावबोध के स्तबक (टबा) पण रच्या छे. अनी भाषा गुजराती के मारुगुर्जर प्रकारनी लोकभाषा होय छे.
प्रस्तुत कृति ए कल्पसूत्रनुं संस्कृत विवरण पण नथी के बालावबोध पण नथी. परन्तु, कल्पसूत्र ज्यारे वांचवानुं होय त्यारे तेनी भूमिका केवी रीते बांधी शकाय के बांधवी जोईए, तेनो एक सुन्दर नमूनो कर्ताए आ कृतिरूपे पेश कर्यो छे. तेमणे आनुं नाम पण बहुज सार्थक आप्युं छे : कल्पव्याख्यान मांडणी : कल्पसूत्र उपर व्याख्यान करवा इच्छनारे तेनी मांडणी एटले के पूर्वभूमिका के पीठिका केवी, केवी रीते, बांधवी जोईए तेनी पद्धति.
तेमणे प्रारम्भ-श्लोकमां ज कारणमालागभित मुखडं बांधी दीधुं छे के लोको सुख इच्छे; सुख धर्मथी; धर्म ज्ञानथी; ज्ञान शास्त्राध्ययनथी; ने छेल्ले उमेर्यु के शास्त्रना त्रण प्रकार छे. आ श्लोक, भाषा-विवरण करतां तेओ धर्मशास्त्र एटले के कल्पशास्त्र सुधी पहोंचे छे, तेटलामा आठेक पद्योनां सार्थ उद्धरण आपीने प्रतिपादनने वजनदार अने रसिक बनावी मूके छे.
'कल्प' शब्द आवतां तेना अनेक प्रकारो दर्शावीने अहीं कल्पसूत्रनी ज वात- व्याख्यान करवानं छे ते कहेवानी साथेज, आवा सूत्रने 'हूं वखाणिसू'- अर्थात् 'हुं आ सूत्रनुं व्याख्यान करीश' - एम कहेवामां पोतानी केवी धृष्टता तथा मूढता थाय-गणाय ते दर्शावे छे, अने पोते, आम छतां, आ व्याख्यान करी रह्या छे तेमां सद्गुरुनी तथा श्रीसंघनी कृपा ज मुख्य कारण छे तेम जणावीने पोतानी गुरुपरतंत्रता तथा संघाधीनता प्रगट बतावी दे छे. गुरुना तथा संघना महिमानुं वर्णन तथा पोतानी हीनतानुं वर्णन करवामां कर्ताए जे हृदयस्पर्शी वातो करी छे तथा उद्धरणो टांक्यां छे, ते अत्यन्त मननीय लागे छे. कुल मळीने प्रथम पद्यना विवरणमा १४ पद्यो तेमणे टांक्यां छे.
द्वितीय पद्यमां श्रीगौतमस्वामीनी वन्दनारूप मंगल आचरीने तेमणे
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पूर्वे थयेला महान् आचार्योनुं स्मरण-वर्णन कर्तुं छे. तेमां प्रथम विभागमा गणधर सुधमास्वामी, जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभवसूरि, यशोभद्रसूरि, भद्रबाहु स्वामी, स्थूलिभद्रजी, आर्यमहागिरि, आर्य सुहस्ती, श्री वज्रस्वामी आटलां नामो जोवा मळे छे.
अहीं नोंधपात्र वात ए छे के आर्य सुहस्ती साथे जोडायेला राजा संप्रतिना वर्णनमां "जीणई सोल सहस्र प्रासाद करावी जिनमंडित पृथ्वी कोधी" - एवो उल्लेख छे. प्रचलित परम्पराप्राप्त मान्यता अनुसार संप्रतिए सवा लाख मन्दिर बनावेलां. ज्यारे अहीं मात्र '१६ हजार' ज कह्यां छे. इतिहासनी दृष्टिए आ मुद्दानी छणावट विचारणा थवी जोईए.
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का पछी पालित्ताचार्य तथा बप्पभट्टसूरिनां नामो आवे छे. अहीं पण एक ऐतिहासिक विसंगति जोवा मळे छे, ते ए के मुरंड राजानो सम्बन्ध बप्पभट्टिसूरि जोडे होवानुं प्रसिद्ध छे, छतां तेनो सम्बन्ध पादलिप्ताचार्य साथे जोडी देवायो छे.
कालव्यत्ययनो दोष घणा आचार्योना सन्दर्भमां थयेलो जोवा मळे छे. जेमके वृद्धवादी, मल्लवादीने नागेन्द्रगच्छीय गणाव्या छे, तथा रत्नप्रभसूरिने बहु पछीथी नोंध्या छे. कर्तानो आशय इतिहासनी परम्परा नोंधवानी जराय नथी; तेमना मनमां महान् आचार्योनुं गुणवर्णन ज छे ते, अलबत्त, स्वीकारीने ज चालवुं जोईए.
त्रीजा तबक्कामां, वायडा जिनदत्तसूरि, वेणीकृपाण अमरचन्द्रसूरि, नागेन्द्रगच्छे देवेन्द्रसूरि, शीलगुणसूरि, संडेरगच्छे यशोभद्रसूरि, विजयसेनसूरि, उपकेशगच्छे रत्नप्रभसूरि तथा सिद्धसूरि दरेक आचार्यना नाम साथे तेमनी विशिष्टता पण कर्ताए नोंधी छे, जे मोटा भागे ऐतिहासिक छे.
नाणावालगच्छना शान्तिसूरि, कोरंटगच्छे नन्नसूरि, भावडारगच्छे वीरसूरि, नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि. अहीं अभयदेवसूरिना नाम पूर्वे 'खरतरगच्छे' वो शब्द नथी ते खास सूचक तथा ध्यानार्ह गणाय. वास्तवमां 'खरतरगच्छ' बुं नामाभिधान बहु मोडुं थयुं छे, ते पण ऐतिहासिक तथ्य छे. खरतरगच्छे जिनप्रभसूरि, कासहदगच्छे उद्योतनसूरि, डगच्छे
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कपटाचार्य, मडाहडगच्छे चक्रेश्वरसूरि आ तबक्कानां नामो साथे लखायेल बाबतो ऐतिहासिक अन्वेषणनी विशेष अपेक्षा राखनारी लागे छे. १. उद्योतनसूरिना प्रतिबोधित अरुणराजाए शत्रुंजयपर्वत पर 'अरुणविहार' बनाव्यो, ते कयो ? क्यां ? क्यारे ? इतिहासमां तेनी नोंध केम नथी ? २. हूंबड एटले दिगम्बर एम आजे मनाय छे. वास्तवमां हूंबड ज्ञाति हती, ते परथी गच्छ पण थयो, अने ते श्वेताम्बरो पण हता, तेवुं आना उल्लेखथी फलित थाय छे. ३. आर्य खपुटाचार्य नामना मान्त्रिक आचार्य थयेला, ते करतां आ आर्य कपटाचार्य जुदा होवानुं मानवुं ठीक लागे छे अने जो ते तथा आ एक ज आचार्य परत्वे होय, तो कालव्यत्यय थयो गणाय. 'कवड' यक्ष साना सम्बन्धने कारणे कपटा (डा ) चार्य नाम पड्युं होवुं जोईए. ४. चक्रेश्वरसूरिए माणिभद्रयक्षने प्रतिबोध कर्यो, ते यक्ष अंगे पण शोध थवी आवश्यक गणाय.
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पूर्णिमापक्षना धर्मघोषसूरि तेमना शिष्य सुमतिसूरिनी वात अनेरी वर्णवी छे. तेमणे कोंकण देशमां विहार करीने हजारो माछीमाराने प्रतिबोधी हिंसा छोडावी, १८ लाख मत्स्यजालो बळावी, ए एक अद्भुत घटना गणाय. छीपा लोकोने जैन बनावी 'भावसार ' श्रावक बनाव्या तथा ते भावसारोए शत्रुंजय पर 'मोल्हावसही' देरासर कराव्यानी वात पण जैन इतिहासनुं रोमांचकारी प्रकरण छे. छेवटे पिप्पलगच्छना धर्मदेवसूरिनी जिकर छे.
आगळ 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य'ना रचनार धनेश्वरसूरिनो उल्लेख छे. ते चित्रावालगच्छना हता. श्रीदेवर्धिगणिना सहयोगी धनेश्वरसूरि ते आ नथी, ते तो स्वयंस्पष्ट छे. ते जोतां 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य' १२मा शतकनी रचना होवानुं, आ उल्लेखथी सिद्ध थई जाय छे. 'बृहट्टिप्पनिका 'मां श माहात्म्यने 'कूटग्रन्थ ' तरीके ओळखाव्यो छे, तेनुं रहस्य बे धनेश्वरसूरिने एक मानीने प्राचीनना नाम ते ग्रन्थ मानी लेवायो हशे, ए ज जणाय छे. पण हवे, आ स्थाने प्राप्त स्पष्ट उल्लेख अनुसार, चित्रावालगच्छीय धनेश्वरसूरिनी ते रचना होवानुं निश्चित थतुं होय, तो तेने 'कूटग्रन्थ' कहेवानी के मानवानी अगत्य रहेती नथी. छेले पूर्णतल्लगच्छना श्रीहेमाचार्यनुं नाम काम वर्णव्युं छे.
ते पछी कर्ता पोताना गच्छनी वात मांडे छे. ते गच्छ राजगच्छ, वृद्धगच्छ के वडगच्छना नामे जाणीतो छे, अने तेमां प्रसिद्ध मानतुङ्गसूरि तथ
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हरिभद्रसूरि थया छे, तेम कर्ता लखे छे. आ. मानतुङ्गना शिष्य आ. हरिभद्र होवानुं कर्ता जणावे छे, तो ते १४४४ ग्रन्थ-प्रणेता हरिभद्राचार्य करतां भिन्न ज हशे. तेमनी परम्परामा क्रमशः सर्वदेवसूरि, वादी देवसूरि, अजितदेवसूरि, जयसिंहसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, रत्नसिंहसूरि थया छे. ते पछी थयेला विनयचन्द्रसूरिने वीसलदेवनी राजसभामा 'सिद्धान्ती' बिरुद मळ्यानी नोंध परथी ते गच्छनुं नाम 'सिद्धान्तगच्छ' प्रसिद्ध थयुं हशे तेम मानी शकाय.
ते पछीनी परम्परामां शुभचन्द्रसूरि, नाणचन्द्रसूरि, अजितचन्द्रसूरि, सोमचन्द्रसूरि अने छेल्ले देवसुन्दरसूरि थया. कर्ता कहे छे के हुं ते देवसुन्दरगुरुनो शिष्य छु.
आ प्रमाणे महापुरुषोनां नामकीर्तन अने गुणस्तवनरूप भूमिका बांधीने हवे कल्प-व्याख्याननो आरम्भ करतां पहेलां पंच मंगलमय श्रीनवकारसार्थ-संक्षिप्त वर्णन कर्ता करे छे, अने ते कर्या बाद तुरत ज कल्पसूत्रनुं वांचन प्रारम्भवाना संकेतरूपे अहीं कर्ताए सूत्रनुं एक वाक्य आलेखीने मांडणी समाप्त करी छे.
प्रान्ते लखेली पुष्पिका परथी सिद्धान्तीगच्छना गच्छपति देवसुन्दरसूरिना शिष्य मुनि देवाणंदे सं. १५७०मां पाटणमां आ प्रति लखी तथा रची होवार्नु सिद्ध थाय छे.
आ प्रति भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभाना ज्ञानभण्डारमा, क्र. ३५४ तरीके अने "आचार्योए करेला शासनोन्नतिनां कृत्यो" ए नामे विद्यमान छे. तेनी जेरोक्स नकल परथी आ सम्पादन करवामां आव्युं छे. पत्रसंख्या ७ छ, तथा कर्ताना स्वहस्ते ज लखायेली जणाय छे. अक्षरो दिव्य छे, सुवाच्य छे, अने पडिमात्रावाळी लिपिमा लखाया छे. प्रतिनी नकल आपवा बदल ते सभाना कार्यवाहकोनो आभारी छु.
गद्यात्मक आ रचना भाषानी दृष्टिए अभ्यास करनाराओने पण उपयोगी थशे एवी आशा छे.
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कल्प- व्याख्यान- मांडणी ॥
।। ६० ।।
सर्वो जनः सुखार्थी, तत् सौख्यं धर्मतः स च ज्ञानात् । ज्ञानं च शास्त्र ( स्त्रा ) धिगमात् त्रिविधं शास्त्रं बुधाः प्राहुः ॥ १ ॥ सहूइ एकेन्द्रिय आदि देई जीववर्ग सौख्य वांछइ, अनइ दुःखतु बीहइ । " सव्वे वि सुक्खकंखी, सव्वेवि [य] दुक्ख भीरुणो जीवा । सव्वे वि जीवियपिया, सव्वे मरणाउ बीहंति || " जीवितव्यसौख्य सहूइ वांछइ । तं सौख्य जीव धर्मतु पामइ ।
" यद्वन्न तृषाशान्ति - जलं विनाऽनेन [न] क्षुधाहानिः ।
जलदं विना न सलिलं, न शर्म धर्माद् ऋते क्वचित् ॥ " विनय पाखें विद्याप्राप्ति नहीं | औषध पाखइ रोगशान्ति नही । सच्छंग पाखइ सद्बुद्धि नही । विवसाय पाखइ रद्धि नही । शुक्लध्यान पाखइ सिद्धि नही | तिम धर्म पाखइ सुख नहीं ||
" जलेभ्यो जायते सस्यं, सस्येभ्यो जायते प्रजाः । प्रजाभ्यो जायते धर्मो, धर्मान्मोक्षं च गच्छति ॥"
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प्रथम पहिलु मेघवृष्टि हुइ । पाणीयें करी तेहहुंती अन्ननी प्राप्ति हुई । अन्नवृद्धि हुंती प्रजा सुखी हुइ । सुखहुंती धर्म चालइ । धर्मथिकी जीव मोक्ष
पामइ ॥
" धर्मसिद्धौ ध्रुवा सिद्धि-घुम्न | प्रद्युम्नयोरपि । दुग्धोपलम्भे सुलभा, संप्राप्तिर्दधिसर्पिषोः ॥"
जइ जीवप्राणी तणई पोतइ पूर्वाभव ( वो) पार्जित धर्म हुइ तु तेहना धर्म थिकी अर्थनी प्राप्ति नीपजइ । अर्थतु कामभोग पामइ । जिम पहिलं दुग्धनी प्राप्ति नीपजइ तु तेह दुग्ध थिकी दधि अनइ आज्य कहीइ घृत - अमृत ते सुप्राप्य नीपजइ जिम, तिम धर्मतु अर्थ, अनइ अर्थतु कामभोग लहइ । ते धर्म प्राणीआ प्रतिइं पंचविध ज्ञानतु हुइ ||
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" अज्ञानी यत् कर्म क्षपयति बहुवर्षकोटिभिः प्राणी ! तत् ज्ञानी गुप्तात्मा, क्षपयति उच्छासमात्रेण ॥"
अज्ञानी भणीइ अजाण, जं कर्म बहु घणी वर्षनी कोडिं करीनइ क्षिपइवेइ, ज्ञानवंत सविवेकपणई तं कर्म एक उच्च्छासमात्रि एक क्षणमाहि क्षपर, तेह कर्मनइ पेलइ पारि जाइ ॥
"सट्ठि वासहस्सा, तिसत्त खत्तोदएण धोरण । अणचिन्हं तामलिणा, अनाणतवोत्ति अप्पफला ॥"
तामल रिषीश्वरिइं नदीतणइ उपकंठि साठि सहस वर्ष भिक्षा आणी २१ वार जल - पाणी- सूं धोई दस दिग्पालविभाग करी शेष थाकती आहार करइ हूंतई जं तप आचरिडं, पुणि ते तप अल्पफल जाणिवुं ॥
" तामलतणइ तवेण, जिणमइ सिझसि सत्त जन्न (ण) । अन्नाणहअ वसेण, तामलि ईसाणइ गयउ || "
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जं तपु तामलिरिषीस्वारं अज्ञानपणई कीधु, तीणि तामलरिषि ईशान -- बीजु देवलोक, जिहां २ सागरोपम अधिकेरुं आयु तिहां गिउ । तु ज्ञानतणु एवडु महिमा है । पंचविध ज्ञान शास्त्राधिगमतु ऊपजइ ।
"अलोचनगोच | रे | ह्यर्थे, पुरुषाणां शास्त्र तृतीयं लोचनम् ।
अनु (न) धीतशास्त्रः पुमान्, चक्षुष्मानपि अन्ध एव ॥"
जे अर्थ लोचनगोचर-चक्षुमार्गि नावइं तेहरइं शास्त्ररूपीउं त्रीजउं लोचन जाणिवरं । जे शास्त्र न जाणइ ते देखतउ अंध जाणिवड | शास्त्र तर जाणीइ जु सद्गुरुतणा उपदेश सांभलीइ । सद्गुरुतणा उपदेश सांभल्या पाखइ जीव हित-अहित, आचार- अनाचार, क्रिया-कुक्रिया, मार्ग-कुमार्ग, पुण्य-पाप, कृत्यअकृत्य न जाणइ । ज्ञानना प्रमाणतु महापापनुं करणहार दढप्रहाररिषि सिद्धि गयु । अल्पकालि अयमत्तउ ऋषीश्वर तथा गयसुकमाल ऋषि, मेतार्य ऋषि प्रभृति अनेक ऋषीश्वर बिहं घडी माहि आठ कर्म-अठावन सु प्रकृति क्षिपी मुक्ति पाम्या, ते विवेकतणुं प्रमाण । ते विवेक शास्त्र थिकी ऊपजइ । ते शास्त्र ३ प्रकारिः धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र । पुण ईहां हिवडां धर्मशास्त्रनुं अवसर । श्रीकल्पशास्त्र बोलीइ । कल्प अनंता छइ:- रैवतकाचलकल्प,
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कदम्बगिरिकल्प, अर्बुदाचलकल्प, औषधीकल्प, मणिकल्प, दीपालिकाकल्प, ईणइंअइं अनेकविध कल्प छइं । जीह कल्पतणा प्रमाण एवडा श्रीपादलिसाचार्य समान गणधर पंचतीर्थी देव नमस्करी आवतां । एक कल्प इस्या नीपजई, जीह लगइ अद्रश्यकारणी रूपरावर्तनी विद्या, सुवर्णसिद्धि, रूपसिद्धि, लक्ष्मी, पुत्र, मित्र, कलत्र, बांधव, स्वजन सौख्य पामीइ । एवंविध अनेकप्रकारि इहलोकसंबंधीया कल्प नीपजइ ।
आउ कल्प दशा श्रुतस्कन्ध सिद्धान्ततणुं आठमुं अध्ययन । अमेयमहिमानिधान, इहलोक-परलोक सौख्यदान हेतु, तेह श्रीकल्प इम को न कहइ, जे हुं वखाणिसु ।।
"सरिसा(शिरसा) गिरि बिभित्सेदुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोभ्या॑म् । प्रतिशी(ती)र्षेच्च समुद्रं मतः सि च पुण कुशाग्रेण (?) ॥ व्योम्नीन्, चक्रमिषे[?]मेरुगिरिं पाणिना कंठयषेत् (?) । गत्याऽनिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ।। खद्योतकप्रभाभिः सोऽपि बुभूषेच्च भास्करं मोहात् । ज्योतिर्महागूढार्थं (योऽतिमहागूढार्थ) व्याचिख्यासेच्च जिनवचनम् ॥" मस्तकि करी जे पर्वत भेदिवा वांछइ, अनइ आपणि बिहु भुजि करी पृथ्वी ऊपाडिवा वांछइ । लवणसमुद्र २ लक्ष योजन प्रमाण तरिवा वांछइ, अनइ आकाशथिकुं इंदुमंडल चलाविवा वांछइ । पाणि-हस्ति करी लक्षयोजन देवकां मेरुपर्वत कंपाविवा वांछइ । आपणी गति करी वायु-रहइं जीपिवा वांछइ । असंख्यातां योजन स्वयंभूरमण समुद्र आपणी तृषां करी पीवा वांछइ। खजूआनी कांति भानु-भास्कर-जगच्चक्षु पाराभविवा वांछइ । ते ए गूढार्थ जिनवचन महामोहतु इम कहइ - 'हूं वखाणिसु' ॥
एह श्री कल्पतणी वाचना बोली तु हुं छद्मस्थ मंदबुद्धि अज्ञान मूर्ख महाजडशरोमणि हुंतउ सभासमुक्ष्य दक्ष थई करी बइसउं, एइ श्रीकल्पसूत्रतणी वाचनानु साहस करूं, तेह सद्गुरुतणु प्रसाद अनइ चतुर्विध संघतणउं सानिध्य जाणिवउं । स्या कारण ?
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"ये मज्जन्ति न मज्जयन्ति च परांस्ते प्रस्तरा दुस्तरा वाद्धौँ वीर ! तरन्ति वानरभटानु(उ)त्तारयन्ति(न्ते) परान् । नावा ग्रामगुणा न वारिधिगुणा नो वानराणां गुणाः
स्फूर्जदाशरथेः प्रभावमहिमा सोऽयं समुज्जृम्भते !" शास्त्रमाहि एकांतपक्षि अनि प्रत्यक्षानुमानि करी पाषाण बूडई अनइ अनेरारई बोलई । पाषाण ए गुण । एस्या महामोटा पाषाण श्रीरामदेवतणे वानरे समुद्रमाहि मूंक्या हूंता तरई । सेतुबंध प्रत्यक्ष आज लगी दीसई सांभलीइं । तेउ ते पाषाणतणउ को गुण न जाणिवउ, समुद्रतणउ को गुण न जाणिवउ, अथवा वानरतणउ को गुण न जाणिवउ । ते गुण श्रीरामदेवतणुं भाग्यनु जाणिवउं ।
तिम हुं पाषाणसिरीखु महामूर्ख जड हूंतउ एह श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करउं, ते माहरु को गुण न जाणिवउ, सभा शालातणउ को गुण न जाणिवउ। ते गुण सद्गुरु अनइ श्रीसंघतणउ जाणिवउ । तउ ते सगुरु अनइ श्रीसंघतणइ प्रसादि एह श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करउं । अनइ इणइं स्थानकि ईणई क्षेत्रि अनेकि गणधर, संपूर्ण श्रुतधर महाव्याख्यानी नवरसावतार व्याख्याण करणहार, तेहइ वखाण करई, श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करइं । अनइ हूंइ ते श्रीकल्पसूत्रतणी वाचना करउं ।
__ "टोलो रुलो रुलंतो अहीयं विन्नाणनाणपरिहीणो ।
दिव्वव वंदणिज्जो कीउ(ओ) गुरुसुत्तहारेण ॥"
जिम टोल पाषाण रुलतउ हूंतउ, ज्ञानविवर्जित हूंतउ आणिउ । तेहतणी प्रतिमा कीधी । गुरु तणे वचने श्रीसंघि विधिमार्गि प्रतिष्ठित कीधी हूंती देवतणी प्रतिमा हुई । सविडं रहई माननीय । तिम हूं संघतणइं प्रसादि माननीय हुइसु । जिमतिम गुरुआतणे स्थानकि कांई एक वचनमात्र बोलिउं ते श्रृंगारभूत प्रवर्तइ ।
"सर्वत्र महतां नामोच्चाराद् भवति गौरवम् ।
लभते भव्यभोज्यानि शुको राम इति ब्रुवन् ॥". सर्वत्र-सघलइ गुरुआतणा नामोच्चार मांगलिक्य तणइ अर्थि संपजइ ।
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अनुसंधान-२७
'शुको राम इति ब्रुवन् भव्यभोज्यानि लभते' । शुक-सूडउ 'राम' ए इस्या अक्षर उच्चरतु हूंतु भव्य भोज्य लहइ । रामतणउं अभिराम नाम उच्चरतु हूंतु तेहतणी भक्ति निर्भर हूंतां तेहतणी प्रतिपालना करई । तुं हूंइ पुण्य गुरुआतणां नाम उच्चरतुं हूंतु स्तुति करतउ हूंतउ माननीय हुइसु ।
गौतमं तमहं वन्दे यः श्रीवीरगिरा पुरा ।
अङ्गत्रयमयीं प्राप्य सद्यश्चक्रे चतुर्गुणाम् ॥१॥
अहं तं गौतमं वन्दे, यः श्रीगौतमः श्रीवीरात् अङ्गत्रयं प्राप्य सद्यस्तत्कालं चतुर्गुणां(णं) चक्रे कृतवान् ।
ते श्रीगौतमस्वामि प्रथमगणधर लब्धिधर श्रुति(त)केवलधर वांदू नमस्करूं । जीणइं श्रीगौतमस्वामि श्रीवर्द्धमानतणी गीर्वाणीजभणित भांडागार अंगत्रयरूप पामी सद्यस्तत्काल चतुर्गुण उद्धार द्वादशांगी बारगुण कीधउ । ते श्रीगौतम आदि देई ११ गणधर हुआ ।
५ गणधर श्री सुधर्मस्वामि, तेहनी आज लगइ संतति-शाखा प्रसरणशील दीसइ छइ ॥ तेहनउ शिष्य श्रीजंबूस्वामि, मुक्तिरूपिणी नायकातणइ कारणि आठ कोडि संयुक्त ८ कन्या नवपरणीत छांडी । पीजंबूस्वामि पूठिई भरतक्षेत्रतु कोइ मुक्ति न गउ ॥ तिवार पूठिई श्रीप्रभवस्वामि । तेहला शिष्य श्रीशज्जंभवसूरि मणकपिता । अ(आ)पणा पुत्रतणउं छ मास आयुकर्म जाणी श्रीदशवैकालिक ग्रंथ उद्धरिउ ॥ तत्पट्टे श्रीयशोभदसूरि ॥ तत्पट्टे भद्रबाहुस्वामि हूआ । जीणइ दस नियुक्त (क्ति) ग्रंथ कीधा | तत्पट्टे दशपूर्वधर दूष्कर दूष्करकारक श्रीस्थूलिभद्रस्वामि हुआ । श्रीनेमिनाथ गिरनार पर्वत गढ बल प्राण लेई राजीमती परहरी । पणि जीणइं श्रीस्थूलिभद्रि कोशावेश्यागृहांगणि चतुर्मासिक रही, नययौवन नवरस घटरस भोजन बारवरसु प्रेम चित्रसाली सुखशय्यासंवास, इसिइ मोहिकटकि पइसी अंगोअंगि भिडी ते पापपंकि न च्छीतु, मदनकंदर्प जीतु ॥
तत्पट्टे आर्य महारषि(गिरि), जीणइं गिउ जिनकल्प उद्धरित ॥ तत्पट्टे आर्य सुहस्ति । द्रमकु दीक्षित, जे ऊजेनीनगरोई संप्रति राजा हुआ। जीणइं सोलसहस्त्र प्रासाद करावी जिनमंडित पृथ्वी कोधी ॥ तदनु श्री वइरस्वामि, जीणई बौधदेशि पर्युषणापर्वि आविइ हूंतइ श्रीसंघलणाउ मनोरथ पूरिउ, जिनशासन
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गहगहाविउं, प्रभावना कीधी ॥ तदनु श्रीपालिताचार्य, जीणई मुरंडराजा प्रतिबोधिउ। लेपतणइ प्रमाणि श्रीशत्रुजयप्रभृति पंचतीर्थी देव नमस्करता ॥ तदनु श्री बप्पभट्टसूरि । जीणई आमराजा प्रतिबोधिउ ।।
श्रीवृद्धवादि, मल्लवादि नागेंद्रगच्छि ॥ वायडज्ञाति श्रीजिनदत्तसूरि, जेहनइ परकायाप्रवेशिनी विद्या हूंती मूई गाई जीवाडी !! तेहना शिष्य अमर, वेणीकृपाण सिरीखा हुआ । जीणइं कविशिष्या(क्षा) प्रभृति महाग्रंथ कीधा । नागेंद्रगछि श्रीदेवेंद्रसूरि हुआ, जीणई एकरात्रिमाहि व्यंतर पाहि सेरीसानुं प्रासाद श्रीपार्श्वनाथ, कराविउ । नागेंद्रगछि श्री शीलग(गुणसूरि हुआ । चाउडा वणराज प्रतिबोधकारक || संडेरगच्छि श्रीयशोभद्रसूरि हुआ, जीणे राजा मूलदेव प्रतिबोध्या ॥ श्रीवस्तपालमंत्रीश्वरगुरु श्री विजयसेनसूरि हुआ । उपकेसि गच्छि श्रीरत्नप्रभसरि हुआ, जेहे ऊएसइ महास्थानि अनइ कोरंटि महास्थानकि एकई अंशि प्रति प्रतिष्ठा कीधी । शचीआवि साचइ धर्मि आणी ॥ तत्पट्टे सिद्धसूरि हुआ |
नाणावालगछि श्रीमौनी शांतिसूरि हुआ, जेहे रोहेडइ ब्रह्मस्थानि रही ४ वेद वखाण्या । कोरंटगछि श्रीननसूरि हुआ ॥ भावडारगछि श्री वीरसूरि हूआ, जेहे कल्याणकटकि नगरि परिमाडि राजा प्रतिबोधी १८ हाथीनी गजथय आणी ।। नवांगवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरि हूआ, जेहे थांभणइ श्रीपार्श्वनाथनी प्रतिमा स्तवी धरणेंद्र प्रत्यक्ष करी आपणु रोग फेडिउ ॥
__खरतरगच्छि श्री जिनप्रभसूरि हुआ, जेहे पातसाह महिमूद अनेकि संकेति करी धर्मपरायण कीधु, श्रीजैनप्रासाद अनइ सिवप्रासाद कराव्या प्रगट ॥ श्री कासदाहागच्छि श्रीउज्जोयणसूरि हुआ, जेहे अरुण राजा प्रतिबोधी अरुणविहार कराविउ सेत्तुंज ऊपरि ॥ तथा हूंबडगच्छि आर्य क(ख?) पटाचार्य हुआ, जेहे कवडयक्ष प्रतिबोधिउ, विद्यासिद्ध हूआ ॥ तथा मडाहडगच्छि श्रीचक्रेस्वरसूरि हुआ, जेहे मडाहड देशि माणिभद्रयक्ष प्रतिबोधि च्यारि नियम दीधा । तदन्वये बइसणां ५ हूआ ॥
___ श्रीपूर्णिमापक्षे श्रीधर्मघोषसूरयः ॥ तेहनइ पाटि सुमतिसूरि हुआ । जीणइं ४ शाखा पांचमा प्रधान स्थापना कीधी । कुंकणदेसि १८ लाख जाल बाल्या । जीवदया पलावी । दस सहस्र छीया प्रतिबोधी भावसार श्रावक
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अनुसंधान-२७ कीधा । तीहतणी मोल्हावसही श्रीश@जय ऊपरि प्रसिद्ध ॥ पिप्फलगच्छि श्रीधर्मदेवसूरि हुआ, जेहे राजा सारंगदेवना ३ भव कह्या, त्रिभवीया बिरद हूउं । अनइ कांचनबलाणाहूंती स्तुति आणी ॥ ईणी परि गच्छि गच्छि अनेक प्रभावक हूआ ॥
चित्रावालगछि श्रीधनेश्वरसूरि हुआ, जेहे चैत्रइ महानगरि १८००० सहस्र ब्राह्मण प्रतिबोधी श्रीमहावीर प्रासाद कराविउ । अढार धडनी सुवर्णमय श्रीमहावीरनी प्रतिमा करावी, स्थापी । १८ पदस्थापना कीधां । शत्रुजयमहात्म्य कर्ता ॥ पूर्णतिलइगच्छि श्रीदत्तसूरिनइ संतानि श्रीहेमसूरि कलिकालसर्वज्ञावतार श्रीहेमसूरि हुआ । जेहे जीणइं राजा श्रीकुमारपाल प्रतिबोधी चऊदसई ४४ प्रासाद कराव्या । अमारि वर्तावी । ३ कोडि ग्रंथ नवा कीधा || इम अनेकि प्रभावक गच्छिगच्छि हूआ ||
आत्मीय श्री वडगच्छतणी वर्णना कीजइ । श्रीवृद्धगच्छो महिमानिधानः, सिद्धान्तसारस्य वर प्रधानः ।
श्रीमानतुङ्गस्य वरं प्रदत्ते, तस्मि(स्या?)न्वये राजति राजगच्छः ॥ ईणइ वडगच्छि श्रीमानतुंगसूरि, जीणइं भक्तामर काव्य कीधउं । जिनशासन गहगहाविउं || तत्पट्टे श्रीहरिभद्रसूरि, जीणइं बौध जीता || तत्पट्टे श्रीसर्वदेवसूरयः ॥ तेहनइ पाटि श्रीदेवसूरि, जीणई कम (कुमुद)चंद्र क्षपनक जीतु, ८४ वाद जीता ॥ तत्पट्टे श्रीअजितदेवसूरि ।। तत्पट्टे श्री जयसिंहसूरि ॥ तत्पट्टे श्रीनेमिचंद्रसूरि ॥ तत्प० श्रीमुनिचंद्रसूरि ॥ त० श्रीरत्नसिंहसूरि, जीणइं अढारसु देस प्रतिबोधी १३३ प्रसाद कराव्या । त० श्रीविनयचंद्रसूरि, जीणई राजा श्रीवीसलदेव प्रतिबोधी षट्दर्शनस्यूं वाद देई 'सिद्धांती' बिरद लावू ॥ त० श्री शुभचंद्रसूरि । श्रीनाणचंद्रसूरि । श्रीअजितचंद्रसूरि । श्री सोमचंद्रसूरि ।। तत्पट्टे श्रीदेवसुंदरसूरि जयवंता वर्तुं । तेहतणो शिष्य हूं जाणिवु ।।
एतलइ वडातणा नामोचार हूआ । हवइ अमुकज्ञातीय अमुकातणी अभ्यर्थनाई करी कल्पवाचना कीजइ । अनेरु जि को ग्रंथ प्रारंभई तिहा समुचित द्रष्ट समुचितेष्ट त्रिधा देवतारहई नमस्कार करइ । ईहां मोक्षशास्त्र भणी समुचितेष्ट पंचपरमेष्टि नमस्कार संक्षेपतु वखाणी छइ ।।
"नमो अरिहंताणं ॥"
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अरिहंतरहई नमस्कारु । भावारिहंत, नामारिहंत, अतीत अनागत वर्तमान, पन्नर कर्मभूमि-मध्यस्थित जे अरिहंत, तेहरई नमस्कार ॥
"नमो सिद्धाणं "
सिद्ध छई जि पनरभेदि, ते सिद्ध सामान्यकेवली मुक्तिपदप्राप्त, तेहरइ नमस्कार ॥
"नमो आयरियाणं ॥"
आचार्य जे चौद पूर्वधर गणधर श्रुतज्ञानी अग्यार अंगतणा जाण अनंत सिद्धांततणा आचार कहणाहार गच्छभारधुरंधर जिनशासनमंडपस्तंभ अदंभविवर्जितारंभ वैराग्यरसकुंभ इस्या छई जि आचार्य, तेहरहइं नमस्कार ॥
"नमो अवज्झायाणं ।"
उपाध्याय ते कहीइं जे आचार्यपदयोग्य पाउ द्वादशांगी भणावई । आपणपे भणइ । ते उपाध्यायरहई नमस्कार ||
"नमो लोए सव्वसाहूणं ।।"
लोक कहता हूंतां चौद रज्ज्वात्मक लोक, तेहमा अष्टदश सहस्त्र शीलांगधरधारक, सर्वसावद्ययोगनिवारक, तपक्रियानिर्मलीकृतमात्र, चारित्रपात्र, दांत, कांत, बावीस परीषह सहनशील, गणि करी धीर, निर्मल चारित्रमार्गतणा पालणहार शुद्ध, बइत्तालीसदोष करी विशुद्ध, अविरुद्ध आहार लेणहार, इस्या छंई जे महात्मा, पंचासाम(मि)ति सम(मि)ता, त्रिहु गुप्ति गुप्ता, ऋषिराज एवंविध साधुमहात्मा, तेहरहई नमस्कार ॥
"एसो पंचनमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेर्सि पढमं हवइ मंगलं ॥१॥"
इसिउ पंचपरमेष्ठि-नमस्कारु सघलाई पापनु प्रणाशन करणहार, मांगलिक्य सवि हु माहि एह श्रीकल्पसूत्रतणइ प्रारंभि पहिलु मांगलिक्य नीपजउ॥ एतावता पंच परमेष्ठि नमस्कारतणु संक्षेपि करी व्याख्यान कीर्छ । हिव ते श्रीकल्पसिद्धांततणउ प्रथम आलापक ग्रंथकार कुणइ प्रकारि भणई ।। सिद्धांत आरंभणुं :
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________________ 26 अनुसंधान-२७ __ "ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था / तं जहा- हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्धं वक्रते // " संवत् 1570 वर्षे ज्येष्ट वदि 7. गुरु श्रीपत्तने श्री श्रीसिद्धांतीगच्छे प्रभ(म)पूज्य गच्छाधिराज श्री श्री श्री 4 देवसुंदरसूरि तशिष्य मुनिदेवाणंद लषितं // आत्मार्थेन // श्री //