SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20 अनुसंधान-२७ कदम्बगिरिकल्प, अर्बुदाचलकल्प, औषधीकल्प, मणिकल्प, दीपालिकाकल्प, ईणइंअइं अनेकविध कल्प छइं । जीह कल्पतणा प्रमाण एवडा श्रीपादलिसाचार्य समान गणधर पंचतीर्थी देव नमस्करी आवतां । एक कल्प इस्या नीपजई, जीह लगइ अद्रश्यकारणी रूपरावर्तनी विद्या, सुवर्णसिद्धि, रूपसिद्धि, लक्ष्मी, पुत्र, मित्र, कलत्र, बांधव, स्वजन सौख्य पामीइ । एवंविध अनेकप्रकारि इहलोकसंबंधीया कल्प नीपजइ । आउ कल्प दशा श्रुतस्कन्ध सिद्धान्ततणुं आठमुं अध्ययन । अमेयमहिमानिधान, इहलोक-परलोक सौख्यदान हेतु, तेह श्रीकल्प इम को न कहइ, जे हुं वखाणिसु ।। "सरिसा(शिरसा) गिरि बिभित्सेदुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोभ्या॑म् । प्रतिशी(ती)र्षेच्च समुद्रं मतः सि च पुण कुशाग्रेण (?) ॥ व्योम्नीन्, चक्रमिषे[?]मेरुगिरिं पाणिना कंठयषेत् (?) । गत्याऽनिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ।। खद्योतकप्रभाभिः सोऽपि बुभूषेच्च भास्करं मोहात् । ज्योतिर्महागूढार्थं (योऽतिमहागूढार्थ) व्याचिख्यासेच्च जिनवचनम् ॥" मस्तकि करी जे पर्वत भेदिवा वांछइ, अनइ आपणि बिहु भुजि करी पृथ्वी ऊपाडिवा वांछइ । लवणसमुद्र २ लक्ष योजन प्रमाण तरिवा वांछइ, अनइ आकाशथिकुं इंदुमंडल चलाविवा वांछइ । पाणि-हस्ति करी लक्षयोजन देवकां मेरुपर्वत कंपाविवा वांछइ । आपणी गति करी वायु-रहइं जीपिवा वांछइ । असंख्यातां योजन स्वयंभूरमण समुद्र आपणी तृषां करी पीवा वांछइ। खजूआनी कांति भानु-भास्कर-जगच्चक्षु पाराभविवा वांछइ । ते ए गूढार्थ जिनवचन महामोहतु इम कहइ - 'हूं वखाणिसु' ॥ एह श्री कल्पतणी वाचना बोली तु हुं छद्मस्थ मंदबुद्धि अज्ञान मूर्ख महाजडशरोमणि हुंतउ सभासमुक्ष्य दक्ष थई करी बइसउं, एइ श्रीकल्पसूत्रतणी वाचनानु साहस करूं, तेह सद्गुरुतणु प्रसाद अनइ चतुर्विध संघतणउं सानिध्य जाणिवउं । स्या कारण ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229342
Book TitleKalpa Vyakhyan Mandani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size388 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy