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कल्प- व्याख्यान- मांडणी ॥
।। ६० ।।
सर्वो जनः सुखार्थी, तत् सौख्यं धर्मतः स च ज्ञानात् । ज्ञानं च शास्त्र ( स्त्रा ) धिगमात् त्रिविधं शास्त्रं बुधाः प्राहुः ॥ १ ॥ सहूइ एकेन्द्रिय आदि देई जीववर्ग सौख्य वांछइ, अनइ दुःखतु बीहइ । " सव्वे वि सुक्खकंखी, सव्वेवि [य] दुक्ख भीरुणो जीवा । सव्वे वि जीवियपिया, सव्वे मरणाउ बीहंति || " जीवितव्यसौख्य सहूइ वांछइ । तं सौख्य जीव धर्मतु पामइ ।
" यद्वन्न तृषाशान्ति - जलं विनाऽनेन [न] क्षुधाहानिः ।
जलदं विना न सलिलं, न शर्म धर्माद् ऋते क्वचित् ॥ " विनय पाखें विद्याप्राप्ति नहीं | औषध पाखइ रोगशान्ति नही । सच्छंग पाखइ सद्बुद्धि नही । विवसाय पाखइ रद्धि नही । शुक्लध्यान पाखइ सिद्धि नही | तिम धर्म पाखइ सुख नहीं ||
" जलेभ्यो जायते सस्यं, सस्येभ्यो जायते प्रजाः । प्रजाभ्यो जायते धर्मो, धर्मान्मोक्षं च गच्छति ॥"
अनुसंधान - २७
प्रथम पहिलु मेघवृष्टि हुइ । पाणीयें करी तेहहुंती अन्ननी प्राप्ति हुई । अन्नवृद्धि हुंती प्रजा सुखी हुइ । सुखहुंती धर्म चालइ । धर्मथिकी जीव मोक्ष
पामइ ॥
" धर्मसिद्धौ ध्रुवा सिद्धि-घुम्न | प्रद्युम्नयोरपि । दुग्धोपलम्भे सुलभा, संप्राप्तिर्दधिसर्पिषोः ॥"
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जइ जीवप्राणी तणई पोतइ पूर्वाभव ( वो) पार्जित धर्म हुइ तु तेहना धर्म थिकी अर्थनी प्राप्ति नीपजइ । अर्थतु कामभोग पामइ । जिम पहिलं दुग्धनी प्राप्ति नीपजइ तु तेह दुग्ध थिकी दधि अनइ आज्य कहीइ घृत - अमृत ते सुप्राप्य नीपजइ जिम, तिम धर्मतु अर्थ, अनइ अर्थतु कामभोग लहइ । ते धर्म प्राणीआ प्रतिइं पंचविध ज्ञानतु हुइ ||
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