Book Title: Jinsutra Lecture 47 Guru Hai Dwar
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
Catalog link: https://jainqq.org/explore/340147/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रवचन गुरु है द्वार For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .5AM प्रश्न-सार नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे, लेकिन उन्होंने स्वयं को भगवान नहीं कहा। आप...? ध्यान के एक गहन अनुभव पर भगवान से मार्गदर्शन की प्रार्थना। INE अफसोस, दिल का हाल कोई पूछता नहीं! और सब यही कहते कि तेरी सूरत बदल गयी। और कि सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या आये! ___मैं क्या करूं?... आप उत्तर न देंगे तो पागल हो जाऊंगा। 2010_03 wwwjainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प हला प्रश्न H नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे। लेकिन नानक ने न कहा हो, मैं कहता हूं कि नानक भगवान थे। और उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं भगवान हूं। उन्होंने | नानक ने अगर न कहा होगा, तो उन लोगों के कारण न कहा यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को | होगा जिनके बीच नानक बोल रहे थे। उनकी बुद्धि इस योग्य न छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए। और जो व्यक्ति रही होगी कि वे समझ पाते। कृष्ण तो नहीं डरे। कृष्ण ने तो अध्यात्म की राह बताये, उसे गरु कहना चाहिए। अर्जुन से कहा--सर्व धर्मान परित्यज्य..., छोड़-छाड़ सब, आ मेरी शरण, मैं परात्पर ब्रह्म तेरे सामने मौजूद हूं। कृष्ण कह सके पूछा है आर. एस. गिल ने। सिक्ख ही पूछ सकता है ऐसा अर्जुन से, क्योंकि भरोसा था अर्जुन समझ सकेगा। नानक को प्रश्न। क्योंकि प्रश्न हृदय से नहीं आया। प्रश्न थोथा है, और पंजाबियों से इतना भरोसा न रहा होगा कि वे समझ पायेंगे। बुद्धि से आया। प्रश्न परंपरा से आया। मान्यता से आया। इसलिए नहीं कहा होगा। और इसलिए भी नहीं कहा कि नानक पक्षपात से आया। पर समझने-जैसा है, क्योंकि ऐसे पक्षपात | | उस विराट परंपरा से थोड़ा हटकर चल रहे थे जिस विराट परंपरा सभी के भीतर भरे पड़े हैं। में कृष्ण हैं, राम हैं, उससे थोड़ा हटकर चल रहे थे। पहली बात, पहले ही प्रश्न की पंक्ति में पूछनेवाला कह रहा नानक एक नया प्रयोग कर रहे थे कि हिंदू और मुसलमान के है-नानकदेव! देव का क्या अर्थ होता है? देव का अर्थ होता बीच किसी तरह सेतु बन जाए। एक समझौता हो जाए। एक है दिव्य, डिवाइन। दिव्यता का अर्थ होता है भगवत्ता। समन्वय बन जाए। मसलमान सख्त खिलाफ हैं किसी आदमी नानकदेव कहने में ही साफ हो गया कि मनुष्य के पार, मनुष्य से को भगवान कहने के। अगर नानक सीधे-सीधे हिंदू-परंपरा में ऊपर; दिव्यता को स्वीकार कर लिया है। भगवान का क्या अर्थ जीते तो निश्चित उन्होंने घोषणा की होती कि मैं भगवान हूं। होता है? बड़ा सीधा-सा अर्थ होता है-भाग्यवान। कुछ और लेकिन सेतु बनाने की चेष्टा थी। जरूरी भी थी। उस समय की बड़ा अर्थ नहीं। कौन है भाग्यवान? जिसने अपने भीतर की मांग थी। मुसलमान को भी राजी करना था। मुसलमान यह | दिव्यता को पहचान लिया। कौन है भाग्यवान? जिसकी कली भाषा समझ ही नहीं सकता कि में भगवान हूं। जिसने ऐसा कह खिल गयी, जो फूल हो गया। कौन है भाग्यवान ? जिसे पाने | उसने मुसलमान से दुश्मनी मोल ले ली। को कछ न रहा-जो पाने योग्य था, पा लिया। जब पूरा फूल नानक हाथ बढ़ा रहे थे मित्रता का, इसलिए नानक को ऐसी | खिल जाता है. तो भगवान है। जब गंगा सागर में गिरती है. तो भाषा बोलनी उचित थी जो मसलमान भी समझेगा। नहीं तो जो भगवान है। जहां भी पूर्ण की झलक आती है, वहीं भगवान है। मंसूर के साथ किया, वही उन्होंने नानक के साथ किया होता। या भगवान शब्द का अर्थ ठीक से समझने की कोशिश करो। उन्होंने कहा होता, नानक भी हिंदू हैं, यह सब बकवास है। हिंदू 307 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग:2 और मुसलमान के एक होने की। बुद्ध की पूजा की। इस मुल्क में भगवत्ता की तरफ ऐसा सहज जिसको समन्वय साधना हो, वह बहुत सोचकर बोलता है। भाव है कि जिन्होंने इनकार किया, उनको भी भगवान मान लिया नानक बहुत सोचकर बोले। उन्होंने कृष्ण जैसी घोषणा नहीं की। गया। यह इस मुल्क की आंतरिक दशा है। उनकी जो घोषणा है, वह मुहम्मद जैसी है। उसमें मुसलमान को तो जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, वह भी कहते हैं—नानकदेव! फुसलाने का आग्रह है। पंजाब है सीमा-प्रांत, वहां हिंदू और नानक कहने से काम चल जाता। देव क्यों जोड़ दिया? मुसलमान का संघर्ष हुआ। वहां हिंदू और मुसलमान के बीच | 'भगवान' शब्द का उपयोग न किया, 'देव' शब्द को उपयोग विरोध हुआ। वहीं मिलन भी होना चाहिए। वहीं हिंदू और किया। लेकिन बात तो वही हो गयी। घोषणा तो हो गयी कि मुसलमान एक-दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़े हुए, वहीं | नानक आदमी पर समाप्त नहीं हैं, आदमी से ज्यादा हैं। मैत्री का बीज भी बोया जाना चाहिए। सीमांत-प्रांत यदि | और ठीक ही है, वह आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी तो हैं समन्वय के प्रांत न हों, तो युद्ध के प्रांत हो जाते हैं। तो नानक ने | ही, लेकिन धन, आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी होना तो बड़ी गहरी चेष्टा की। | जैसे उनका प्रारंभ है, अंत नहीं। वहां से शुरुआत है, वहां इसलिए सिक्ख-धर्म बिलकुल हिंदू-धर्म नहीं है। न | समाप्ति नहीं। मुसलमान-धर्म है। सिक्ख दोनों के बीच है। कुछ हिंदू है, कुछ | 'नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे।' निश्चित ही। इसमें कोई दो मुसलमान। दोनों है। दोनों में जो सारभूत है, उसका जोड़ है। मत नहीं है। लेकिन जागते और सोते में कुछ फर्क करोगे? इसलिए सिक्ख-धर्म की पृथक सत्ता है। | प्रकृति और परमात्मा में फर्क क्या है? जागने और सोने का। लेकिन इसे हमें समझना होगा इतिहास के संदर्भ में, नानक प्रकृति है सोया हुआ परमात्मा। परमात्मा है जागी हुई प्रकृति। क्यों न कह सके जैसा कृष्ण कह सके। बुद्ध कह सके, महावीर | फर्क क्या है ? बुद्ध में और तुममें फर्क क्या है ? बुद्ध जागे हुए, कह सके, नानक क्यों न कह सके। नानक के सामने एक नयी तुम सोये हुए। तुम सोये हुए बुद्ध हो। आंख खोल ली कि तुम परिस्थिति थी, जो न बुद्ध के सामने थी, न महावीर के, न कृष्ण | ही हो गये। आंख की ओट में ही फर्क है, बस। आंख खोली कि के। न तो बुद्ध को, न महावीर को, न कृष्ण को, किसी को भी प्रकाश ही प्रकाश है। आंख बंद की कि अंधेरा ही अंधेरा है। मुसलमान के साथ सामना न था। यह नयी परिस्थिति, और नयी एक आदमी सो.रहा है, उसी सोये आदमी के पास एक जागा भाषा खोजनी जरूरी थी। और जीवंत पुरुष सदा ही परिस्थिति के हुआ आदमी बैठा है। दोनों आदमी हैं, सही। लेकिन क्या दोनों अनुकूल, परिस्थिति के लिए उत्तर खोजते हैं। यही तो उनकी एक ही जैसे आदमी हैं? तो फिर नींद और जागरण में कुछ फर्क जीवंतता है। उन्होंने ठीक उत्तर खोजा। लेकिन पूछनेवाले को | करोगे, न करोगे? नींद और जागरण में इतना क्रांतिकारी फर्क है सोचना चाहिए नानक देव क्यों? कि अगर हम जागे हुओं को कहें कि यह बिलकुल दूसरे ही ढंग इस देश में जो पले, वे चाहे हिंदू हों, चाहे जैन हों, चाहे सिक्ख | का आदमी है, तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं। क्योंकि सोया हुआ हों, चाहे बौद्ध हों, इस देश की हवा में, इस देश के प्राणों में एक आदमी क्या आदमी है! सोये हुए आदमी में और चट्टान में क्या संगीत है, जिससे बचकर जाना मुश्किल है। यहां तो मुसलमान | फर्क है? सोये हुए आदमी और वृक्ष में क्या फर्क है? मूछित भी जो बड़ा हुआ है, वह भी ठीक उसी अर्थ में मुसलमान नहीं रह आदमी और पत्थर में क्या फर्क है? न पत्थर जाग रहा है, न जाता जिस अर्थ में भारत के बाहर का मुसलमान मसलमान होता सोया हआ आदमी जाग रहा है। दोनों है। यहां के मुसलमान में भी हिंदू की धुन समा जाती है। महावीर | नींद में हम प्रकृति में गिर जाते हैं। जागकर हम परमात्मा में ने कहा, कोई भगवान नहीं, कोई संसार को बनानेवाला नहीं, उठने लगते हैं। और यह जागरण जिसको अभी हम जागरण लेकिन महावीर को माननेवालों ने महावीर को भगवान कहा। | कहते हैं, यह तो शुद्ध जागरण नहीं है। इसमें तो नब्बे प्रतिशत से बुद्ध ने कहा, सब मूर्तियां तोड़ डालो, सब मूर्तियां हटा दो, किसी ज्यादा नींद समाविष्ट है। जब कोई व्यक्ति सौ प्रतिशत जाग की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्ध के माननेवालों ने | जाता है, तो उसी को किसी परंपरा में भगवान कहा है, किसी 308 Jair Education International 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुहेद्वार परंपरा में अरिहंत कहा है, किसी परंपरा में तीर्थकर, किसी परंपरा रही है, जब लोग हिम्मत से घोषणा करें भगवत्ता की। में पैगंबर, किसी परंपरा में गुरु, कोई फर्क नहीं पड़ता, शब्दों का | क्योंकि जब कोई तुमसे कहता है मैं भगवान हूं...अगर वह ही फर्क है। लेकिन हम शब्दों से बंध जाते हैं। सिक्ख है, तो जो | यह कहता हो कि मैं भगवान हूं और तुम भगवान नहीं हो, तब तो उसने सुना है उससे बंध गया है। हिंदू है, तो बंध गया है; जैन | वह तुम्हारा दुश्मन है; और अगर वह इसलिए कहता हो कि मैं | है, तो बंध गया है। हम सब सने हए शब्दों से बंध जाते हैं। और भगवान है. क्योंकि तम भी भगवान हो: वह इसलिए घोषणा फिर शब्दों के कारण सत्यों को देखने में अड़चन हो जाती है। करता हो कि मैं भगवान हूं, ताकि तुम्हें भी याद आये तुम्हारे 'नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा भगवान होने की...देखो मेरी तरफ, अगर मैं भगवान हो सकता कि मैं भगवान हूं।' उन्हें अर्जुन न मिला होगा। क्योंकि मैं हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते, कोई भी कारण नहीं, कोई भगवान हूं, यह कहने के लिए कोई सुननेवाला चाहिए। कोई रुकावट नहीं; ठीक तुम जैसा हूं मैं, अगर मैं भगवान हो सकता समझनेवाला चाहिए। कोई आत्यंतिक प्रेम से सुननेवाला | हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते? हो सकते हो। अगर यह फूल चाहिए। अन्यथा यह बात विवाद ही पैदा करेगी, इससे कुछ हल खिला, तो तुम्हारी कली भी खिल सकती है। न होगा। मैं भगवान हूं, यह तो कहा ही जा सकता है किसी बड़े | यह घोषणा जरूरी है अब, क्योंकि द्वार फिर करीब आयेगा। गहरे श्रद्धा के क्षण में, जबकि दो व्यक्ति इतने जुड़े हों कि संदेह जैसे हर वर्ष मौसम का एक वर्तुल घूमता है-मंडलाकार; फिर का उपाय न हो। कृष्ण कह सके। वर्षा आती, फिर सर्दी आती, फिर गर्मी आती है, फिर वर्षा आती फिर यह भी खयाल रखें कि प्रत्येक जाग्रतपुरुष अपनी भाषा है-जैसे बारह महीने में एक वर्तुल घूमता है मौसम का, ऐसे ही | चुनता है, अपना ढंग चुनता है। कोई जाग्रतपुरुष किसी और आध्यात्मिक मौसम का भी एक वर्तुल है जो घूमता है। जैसे जाग्रतपुरुष का अनुकरण नहीं करता। तालमेल बैठ जाए, | चौदह वर्ष में बच्चा जवान होने लगता, वीर्य परिपक्व होता, ठीक; अनुकरण नहीं करता। नानक ने अपने ढंग से चुना। वासना जगती; और अगर सब ठीक चलता रहे तो बयालीस नानक को अपनी शैली बनानी पड़ी। अब अगर तुम इस तरह वर्ष के करीब वासना क्षीण होने लगती, ब्रह्मचर्य की याद आने सोचते फिरे कि जो बुद्ध ने कहा है वही नानक कहें, जो नानक ने लगती; अगर सब ठीक चलता रहे, तो सत्तर वर्ष का होते-होते कहा है वही मैं कहूं, तो तुम व्यर्थ की उलझन में पड़ रहे हो। मैं | व्यक्ति पुनः फिर बच्चे की तरह सरल हो जाता है। कुछ गड़बड़ वही कहूंगा जो मैं कह सकता हूं। नानक ने मुझसे नहीं पूछा, मैं | हो जाए, तो बात अलग है। वह नियम की बात नहीं है। भटक उनसे क्यों पूछू? नानक की मौज, उन्होंने नहीं कहा कि मैं गये तो बात अलग। अन्यथा नियम से सब चलता रहे, तो ऐसा भगवान हूं। मेरी मौज, मैं कहता हूं। होगा। एक वर्तुल है जीवन का भी। मरते-मरते फिर व्यक्ति और मैं मानता हूं कि अस्तित्व एक ऐसी घड़ी के करीब आ रहा सरल हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा जन्म के बाद सरल होता। है, जहां यह घोषणा करनी उपयोगी है। हर पच्चीस सौ वर्ष में ठीक ऐसा ही एक बड़ा वर्तुल है, जो पच्चीस सौ वर्ष का घेरा मनुष्य की चेतना एक ऐसे द्वार के निकट आती है, जहां जागरण लेता है। हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्य की चेतना ज्वार पर होती आसान है। बुद्ध से, महावीर से पच्चीस सौ वर्ष पहले है। और जब ज्वार हो, तब बड़ी सुगमता से ऊंचाइयां छुई जा कृष्ण हुए। कृष्ण ने भगवत्ता की घोषणा की। फिर पच्चीस सौ सकती हैं। जब ज्वार न हो, तब बड़ी कठिनता से ऊंचाइयां छई साल बाद बुद्ध, महावीर हुए; जरथुस्त्र हुआ परसिया में; | जा सकती हैं। लाओत्सू, कन्फयूशियस हुए चीन में; हेराक्लाइटस, सुकरात | नानक ने अपना समय देखा, मैं अलग अपना समय देख रहा हुए यूनान में। पच्चीस सौ वर्ष के बाद फिर एक गहन विस्फोट हूं। नानक मेरे समय के लिए नहीं बोले, मैं उनके समय के लिए हुआ और सब तरफ सारे जगत में एक गुनगुनाहट गूंज गयी नहीं बोलूंगा। नानक अपने भक्तों से बोले, मैं अपने भक्तों से अध्यात्म की। फिर पच्चीस सौ वर्ष पूरे होते हैं। इस सदी के पूरे बोल रहा हूं। नानक का अपना प्रयोजन है, मेरा अपना प्रयोजन होते-होते सारी पृथ्वी पर धर्म की अनुगूंज होगी। घड़ी करीब आ है। इसलिए व्यर्थ के प्रश्न बीच में मत उठाओ। क्या नानक ने 309 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कहा, यह नानक से पूछो कहीं मिल जाएं तो। मुझसे क्या पूछते कहां है, परमात्मा से बचने की जगह कहां है! हो? क्या मैं कहता हूं, वह मुझसे पूछो। ___ मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जितने भी तुम्हें पूजना हो। तुम्हें जो 'उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर | रूप भा जाए, पूजो। तुम्हें जो नाम भा जाए, पूजो। इस अर्थ में किसी को भी नहीं मानना चाहिए।' मैं तुमसे कहता हूं, तुम | हिंदू बड़े अदभुत हैं। दुनिया का कोई धर्म हिंदुओं जैसी गहराई किसी को भी मानो, हर मानने में एक ही परमात्मा को मान सकते | को नहीं छू पाया। क्योंकि दुनिया के सभी धर्म किसी अर्थों में हो, करोगे क्या? पूजो पीपल को कि पहाड़ को, चरण उसी के | थोड़े संकीर्ण हैं। हिंदुओं के पास एक ग्रंथ है—विष्णु पाओगे। वहीं सिर झुकेगा। उसके अतिरिक्त कोई है नहीं। मैं | सहस्रनाम। उसमें परमात्मा के हजार नाम हैं। कोई भी नाम तो तुमसे कहता हूं कहीं भी चढ़ाओ पूजा के फूल, सब पूजा के छोड़ा ही नहीं। जो भी नाम हो सकते थे संभव, वह सब जोड़ फूल उसी के चरणों में गिर जाते हैं, क्योंकि उसी के चरण हैं, और दिये हैं। कोई भी नाम लो, उसी का नाम है। कोई को भी पुकारो, कुछ है ही नहीं। फूल भी उसी के हैं, चरण भी उसी के हैं, उसी को पुकार रहे हो। चुप रहो, तो उसके साथ चुप बैठे हो; चढ़ानेवाला भी उसी का है। इसलिए मैं तुम्हें संकीर्ण नहीं बोलो, तो उसके साथ बोल रहे हो। इधर तुम सोचते हो मैं तुमसे बनाता। मैं नहीं कहता कि सिर्फ एक को छोड़कर किसी को मत बोल रहा हूं, तो तुम गलती में हो। मैं उसी से बोल रहा हूं। तुमसे मानो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम किसी को भी मानो, एक ही माना मैं नाहक सिर नहीं मारूंगा। तुम तो दीवाल जैसे हो। मैं उसी से जाएगा। अंततः तुम पाओगे वही एक पूजा गया। मंदिर में पूजो बोल रहा हूं। तुम्हें जब पुकारता हूं, तो उसी को पुकार रहा हूं। कि मस्जिद में, राम में कि कृष्ण में, बुद्ध में कि महावीर में, कहीं मुसलमान, ईसाई, यहूदी, तीनों धर्म यहूदियों की संकीर्णता से भी सिर झुकाओ, किसी के भी सामने सिर झुकाओ। पैदा हुए हैं। तीनों धर्मों का मूलस्रोत यहूदी है। और सिक्ख-धर्म तमने नानक की कहानी सनी? गये काबा. रात सो गये तो भी आधा यहदी है। इसलिए थोडी-सी संकीर्णता है। नानक में काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो गये। तो न रही होगी, सिक्खों में है। मुल्ला-मौलवी नाराज हो गये होंगे, भागे हुए आये। कहा कि हिंदू कहते हैं, सभी कुछ उसका है। इसलिए तो हिंदू बड़े | कैसे नासमझ हो! और हमने तो सुना कि तुम बड़े ज्ञानी हो, | अदभुत हैं। पत्थर रख लेते हैं वृक्ष के नीचे, सिंदूर पोत देते हैं, औलिया हो; यह कैसा ज्ञान? तुम्हें तो साधारण शिष्टाचार के | पूजा शुरू! अभी पत्थर था, अभी सिंदूर लगाया, पूजा शुरू! नियम भी मालूम नहीं। पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे! | पत्थर को भगवान बनाने में देर नहीं लगती। अनगढ़ पत्थर पूजने परमात्मा की तरफ पैर करके सो रहे! कहानी कहती है कि नानक | लगते हैं। गढ़ो, मूर्ति बनाओ, समय जाया होता है। मिट्टी के हंसे और उन्होंने कहा ऐसा करो, तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो गणेश बना लेते हैं। पूज भी लेते हैं, पूजने के बाद समुंदर में सिरा जहां परमात्मा न हो। कहते हैं उन्होंने पैर घुमाये सब तरफ, भी आते हैं। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि उसी का समुंदर है, लेकिन जहां भी पैर घुमाये, वहीं काबा का पत्थर हो गया। मिट्टी उसी की है; बना लिया, सिरा दिया। दुनिया में कोई जाति ऐसा हुआ हो, जरूरी नहीं। लेकिन कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। अपनी मूर्तियों को सिराती नहीं। बना ली, तो फिर घबड़ाती है, मैं नहीं मानता कि ऐसा वस्तुतः हुआ है। पर इतना मैं जानता हूं कहीं मूर्ति का अपमान न हो जाए। हिंदू अदभुत हैं। नाच-गाना कि होना चाहिए ऐसा ही। क्योंकि काबा का ही पत्थर सब तरफ करके जाकर नदी में डुबा आते हैं कि अब बस विश्राम करो, अब है, सब पत्थरों में वही पत्थर है। पत्थर मात्र काबा के पत्थर हैं, | हमको भी तो चैन लेने दो। और भी तो काम हैं! फिर अगले तो कहां पैर करो! और ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा उत्तर में है, | साल देखेंगे। और फिर तुम सभी जगह हो। सागर तुम्हारा, दक्षिण में नहीं: परब में है, पश्चिम में नहीं; ऊपर है, नीचे नहीं। मिट्टी तुम्हारी, आकाश तुम्हारा। सब तुम्हारा है। तो ऐसा मोह परमात्मा ने तो सभी कुछ घेरा है। चलो तो उसमें, बैठो तो उसमें, क्या बांधना! सोओ तो उसमें ओढ़नी भी वही है, बिछौनी भी वही है, करोगे ध्यान रखना, परमात्मा निराकार है, इसका अर्थ यही हआ कि क्या! खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, श्वास लो तो उसकी, उपाय सभी आकार उसके। मुसलमानों ने बड़ी जिद्द पकड़ ली कि 310/ | Jair Education International 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुहद्वार परमात्मा निराकार है तो मूर्तियां तोड़ने लगे। अगर समझे होते कहते हैं कि गुरु साक्षात ब्रह्म है। परमात्मा तो दूर है, दिखायी कि परमात्मा निराकार है, तो यही समझ में आता कि सभी नहीं पड़ता है। गुरु दिखायी पड़ता है। परमात्मा तो आकाश की आकार उसके। निराकार का अर्थ आकार तोड़ना नहीं है, गंगा है, कहां है पता नहीं, गुरु ऐसी गंगा है जो तुम्हारे घर के द्वार आकार में उसको देखना है। आकार रोक न पाये, आकार द्वार से बह रही है। स्नान तो उसी में हो सकता है। इसमें स्नान होगा, बने, दरवाजा बने; बाधा न बने। | तो ही तुम परमात्मा की गंगा के योग्य बनोगे। पहला परमात्मा तो मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जिसको पूजना हो, कम से कम गुरु ही है। गुरु से मिलने पर ही तो पहली दफा, परमात्मा है, पूजो तो। क्योंकि मेरा जोर तुम्हारी पूजा में है। तुमने पूजा, तुमने इसकी प्रतीति होती है। प्रार्थना की, तुम झुके, बस काफी है। जहां तुम झुके, वहीं | मगर लोग जड़ हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते परमात्मा के चरण हो गये। हैं, गुरु कहेंगे हम तो, भगवान नहीं कह सकते। इसलिए नानक परमात्मा के चरण तो वहां थे ही, तुम झुक नहीं रहे थे इसलिए को गुरु कहते हैं। लेकिन गुरु का अर्थ ही यही है, जिसमें दिखायी नहीं पड़ते थे। झुके कि दिखायी पड़ गये। और हिसाब भगवान प्रगट हआ हो। जो भगवान के साथ एकाकार हो गया कौन लगाये कि कहां है और कहां नहीं है। मंदिर में है कि मस्जिद हो। जिसकी मौजूदगी में भगवान की झलक मिले। जिसके में है कि गुरुद्वारे में है। हिसाब लगाने की जरूरत कहां। सत्संग में तुम्हारे भीतर का भगवान भी जगे और नाचे और बेहिसाब सब जगह है। अमर्याद सब जगह है। प्रफुल्लित हो। गुरु का अर्थ ही यही है, जो तुम्हें खींचने लगे, जिन मित्र ने पछा है. वह नानक को समझे न होंगे। 'आदमी प्रबल आकर्षण बन जाए। जो चंबक की तरह तम्हें खींचने को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना | लगे। किसी ऐसी जगह ले जाने लगे जहां तुम अपने से न जा चाहिए।' मान ही नहीं सकते। यही कहा होगा नानक ने कि | सकते। भय पकड़ता, हिम्मत न होती। गुरु तो परमात्मा है। जहां भी मानो, उसी को मानना, उस एक को ही मानना। सिक्ख कबीर ने कहा हैकुछ गलत समझे होंगे। कम से कम पूछनेवाला सिक्ख तो | गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय गलत समझा ही है। मानना एक को ही। इसका अर्थ हुआ, जहां | किसके चरण छुऊं पहले? दोनों सामने खड़े हैं। दुविधा बड़ी भी आंख पड़े, उसी को खोजना। जहां सिर झुके, उसी के चरण साफ है। अगर परमात्मा के चरण पहले लगू, तो गुरु का टटोलना। जहां तक हाथ पहुंच सके, उसी की तलाश करना। | अपमान होता है। और गुरु के बिना परमात्मा तो कभी मिल नहीं जहां तक मन जा सके, उसी में उड़ने देना मन को। जहां तक सकता था। तो यह तो अकृतज्ञ होगा कृत्य। यह तो गुरु के प्रति स्वप्न उठ सकें, उठने देना उसी में। जीना तो उसमें, सोना तो | आभार न हुआ। गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय। अगर उसमें। उठना, बैठना, तो उसमें। उस एक में। गुरु के पैर पड़ता हूं, तो परमात्मा का अपमान हो जाएगा। गुरु के इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम एक धारणा को पकड़ लेना, साथ इसीलिए तो थे कि परमात्मा को खोजना था। बड़ी दुविधा और सब धारणाओं को इनकार कर देना। अगर एक धारणा ही है! क्या करूं? भगवान का ढंग है, तो भगवान बड़ा सीमित हुआ। फिर वह / बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय निराकार न हुआ, फिर असीम न हुआ, फिर सारी सत्ता उसकी न | लेकिन गुरु ने तत्क्षण गोविंद को बता दिया कि तू गोविंद के ही हुई। वही होना चाहिए सभी में, तभी निराकार है। तभी शाश्वत पैर लग। पद तो कबीर का यहीं पूरा हो जाता है, पक्का नहीं फिर है, सर्वव्यापी है। वह पैर किसके लगे! मैं जानता हूं कि वह गुरु के लगे। क्योंकि 'और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना | उनकी इस दूसरी पंक्ति में ही साफ है—'बलिहारी गुरु चाहिए।' गुरु भी क्यों कहना! क्योंकि उपनिषद तो कहते हैं, आपकी।' गुरु ने कह दिया कि लग परमात्मा के, देर क्यों कर गुरु परमात्मा है, गुरुर्ब्रह्मा। झंझट हो जाएगी! अगर किसी को रहा है, रुक क्यों रहा है, सोच क्या रहा है? चुनाव थोड़े ही गुरु कहा, तो परमात्मा मान लिया उसको। सारे भारत के शास्त्र करना है। यहीं के लिए तो तुझे ले आया था अपने साथ, आ 311 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 गयी वह घड़ी, अब झुक परमात्मा को, भूल मुझे। पद तो यहां दर्शनशास्त्री नहीं हूं। मैं तुम्हें कोई शास्त्र नहीं दे रहा हूं। संकेत दे पूरा हो जाता है, फिर किसी ने कभी कबीर को पूछा नहीं कि रहा हूं। और जीवन के काव्य को समझना हो तो बंधी-बंधायी, वस्तुतः तुम लगे किसके पैर? मैं मानता हूं कि कबीर गुरु के ही पिटी-पिटायी धारणाओं को हटाना, ताकि जीवन अपनी सुषमा पैर लगे-'बलिहारी' शब्द में ही बात आ गयी। अब कैसे को, अपने सौंदर्य को प्रगट कर सके। मन को थोड़ा किनारे कर और कुछ किया जा सकता है। के रखना। गुरु अंततः तुम्हें अपने से भी मुक्त कर देता है— बलिहारी | तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।' सदा प्राणों में कहीं सुनता रहा हूं तुम्हारा संवादतो गुरु तो परमात्मा है। गुरु तो परमातमा का द्वार है। ये जो बिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से होगा कहां साक्षात प्रश्न उठते हैं, ये उठ आते हैं संस्कारों से। संस्कार बाधा हैं। कौन-सी वह प्रात, जिसमें खिल उठेगी क्लिन्न, संस्कारों से मुक्त होना है। और एक ऐसा चित्त पाना है, जहां | सूनी शिशिर-भीगी रात? कोई संस्कार तथ्यों पर धूमिल छाया न डालते हों। जहां तथ्य | चला हूं मैं; मुझे संबल रहा केवल बोधप्रगट होते हों, जैसे हैं वैसे ही। भक्त की कोशिश यही है कि | पग-पग आ रहा हूँ पास; भगवान होना है। रहा आतप-सा यही विश्वास तुझी से तुझे छीनना चाहता हूं स्नेह के मृदुघाम से गतिमान रखना निबिड़ ये क्या चाहता हूं, ये क्या चाहता हूं मेरे सांस और उसांस। भक्त बेचैन भी होता है कि यह भी क्या चाह रहा हूं! लेकिन आह, संख्यातीत रूपों में तुम्हें किया है याद! तुझ ही को तुझ ही से छीनना चाहता हूं, चेष्टा तो यही है कि यहां | तुमने जब भी कुछ चाहा है, मैं कहता हूं, तुमने परमात्मा ही जो प्राणों का दीया जल रहा है, यह भगवत्ता का दीया हो जाए। चाहा है। तुमने धन चाहा, तो धन में भी तुम परमात्मा को ही जब तक भक्त भगवान न हो जाए, तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई। खोजते थे। तुमने पद चाहा, तो पद में भी तुम परमपद को ही इंचभर भी दूरी रह गयी, तो कछ पाने को शेष रहेगा। है क्या | खोजते थे। तुमने किसी स्त्री के प्रेम में आंसू बहाये, तो तुम ईश्वर? प्रार्थना को ही टटोलते थे। तुम किसी मोह से भरे, तुम किसी ईश्वर वह प्रेरणा है राग में गिरे, तो उन सब खाई-खड्डों में भी तुम प्रभु का ही मार्ग जिसे अब तक शरीर नहीं मिला खोजते थे। अनंत-अनंत रूपों में अनंत-अनंत ढंगों से आदमी टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, उसी को खोज रहा है। भला तुम्हारी खोज गलत हो, लेकिन जो वृंत पर अब तक नहीं खिला तुम्हारे प्राणों की अकुलाहट गलत नहीं है। भला तुम रेत से तेल टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, जो वृंत पर अब तक | निचोड़ने की चेष्टा कर रहे होओ, लेकिन तेल निचोड़ने की नहीं खिला—बस वही ईश्वर है। ईश्वर भविष्य है, संभावना आकांक्षा थोड़े ही गलत है। तुम वहां खोज रहे हो, जहां न पा है। ईश्वर तुम जो हो सकते हो उसका नाम है। ईश्वर तुम्हें जो सकोगे, विषाद हाथ लगेगा, विफलता हाथ लगेगी, लेकिन होना ही चाहिए उसका नाम है। ईश्वर तुम्हारी बीजरूप संभावना इससे तुम्हारी खोज की ईमानदारी को तो इनकारा नहीं जा है। तुम्हारे बीज में छिपा हुआ सत्य है। सकता। पत्थर पूजो, प्रेमी को पूजो, अनजाने, तुम्हारी बिना टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, पहचान के परमात्मा की तरफ ही तुम बढ़ रहे हो। जो वंत पर अब तक नहीं खिला तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद मैं जब ईश्वर की बात कर रहा हूं तो मैं किसी दर्शनशास्त्र की और कोई उपाय भी नहीं है। जिस दिन तुम ऐसा समझोगे, उस बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो तुम्हारे जीवन-काव्य की बात कर दिन तुम्हारे जीवन में एक लयबद्धता आ जाएगी। तब तुम रहा हूं। तुम मुझे एक कवि की तरह याद रखना। मैं कोई देखोगे, सब कदम जो किन्हीं भी रास्तों पर पड़े, सभी मंदिर की 3120 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु हे द्वार तरफ पड़े। कभी भटके भी तो मंदिर से ही भटके। कभी दूर भी कहां खून गिरता है—पत्थर पर गिरता है, कि लाश पर गिरता गये, तो परमात्मा से ही भटके, लेकिन चेष्टा उसी की तरफ जाने | है, कि मंदिर पर गिरता है-कहां गिरता है, इससे क्या फर्क की लगी थी। हारे भी बहुत बार, पराजित भी बहुत बार हुए, गिरे पड़ता है ? भी बहुत बार, विषाद भी आया, हताशा भी आयी, लेकिन यह खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा र्ग पर घटा है। और अंतिम निर्णय में तम पाओगे. ऐसा ही मैं तमसे कहता हं_श्रद्धा फिर श्रद्धा है. टपकेगी तो | इस सबने ही तुम्हें मार्ग को खोजने में सहायता दी है। कुछ भी जम जाएगी। और जहां श्रद्धा जमी, वहीं भगवान है। श्रद्धा होनी व्यर्थ नहीं गया है। कुछ व्यर्थ जा नहीं सकता। चाहिए। असली बात भीतर है, असली बात अंतर्तम की है। जीवन के परम अर्थशास्त्र में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है। अगर वहां न हो, तो कहीं भी भगवान नहीं है। अगर वहां श्रद्धा | लेकिन पता तो तब चलता है जब हम पहुंच गये-आखिरी हो, तो सब कहीं, सब दिशाओं में वही है। भीतर हो, तो बाहर घड़ी। तब हम लौटकर देख सकते हैं कि अरे, अगर मैं भटका न भी वही है। भीतर न हो, तो फिर बाहर कहीं भी नहीं है। फिर श्किल होता! कि मैंने धन से पाने की | जाओ तीर्थयात्रा, काबा और काशी, कोई अंतर न पड़ेगा। तुम कोशिश की, वह भी जरूरी था। वह भी शिक्षण था। कि मैंने व्यर्थ ही भटकोगे। घर आओ, कहीं और नहीं जाना है। तुम्हारे प्रेम में प्रार्थना खोजी, वह भी शिक्षण था। उस सबसे बचकर भीतर है तीर्थ। अगर आ जाता, तो इस मंदिर तक आ ही नहीं सकता था। | फिर खयाल रखना, आदमी आदमी में बड़े भेद हैं। तो आदमी इसलिए मैं तो कहता हूं, जिस तरह तुम्हें याद आ सके उसी आदमी के ईश्वर में भी भेद होंगे। चांद निकला आकाश तरह याद करो। सब में वही है। और सबसे उसी की खोज चल | में-पूर्णिमा की रात, शरद पूनो-हजारों, करोड़ों प्रतिबिंब रही है। श्रद्धा चाहिए। एक आदमी पीपल के वृक्ष के पास श्रद्धा | बनते हैं पृथ्वी पर। सागर भी प्रतिबिंब बनाता है, मानसरोवर में से जल चढ़ा रहा है। तुम पीपल का वृक्ष देखते हो, हाथ से भी प्रतिबिंब बनेगा। शांत झीलों में भी बनेगा। तूफान आये हुए गिरती जलधार देखते हो, मैं उसके भीतर गिरती श्रद्धा की धार सागर में भी बनेगा। मिट्टी के कूड़े-कचरे से भरे डबरों में भी देखता हूं। एक आदमी मंदिर की मूर्ति के सामने बैठा दीया जला बनेगा। नाली का जल कहीं इकट्ठा हो गया होगा, उसमें भी रहा है। तुम पत्थर देखते हो, मृण्मय दीया देखते हो, उसके बनेगा। चांद के प्रतिबिंब करोड़-करोड़ बनेंगे, चांद एक है। गंदे भीतर चिन्मय की धार नहीं देखते। एक आदमी विराट, सूनी डबरे में भी बनेगा। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो जाएगा। क्योंकि मस्जिद में बैठा परमात्मा का गीत गनगना रहा है। कोई है जो प्रतिबिंब तो है ही कहां, जो गंदा हो जाए चुप बैठा है वृक्ष के तले, बुद्ध की भांति-न कोई प्रार्थना है, न प्रतिछाया है। कोई पूजा है; न कोई बाह्य उपकरण है, न कोई साधन है; न लेकिन फिर भी गंदा डबरा तो गंदा है। तो गंदे डबरे से अगर मंदिर है, न मस्जिद है; आंख बंद है-अपने में लीन। लेकिन तम पछोगे कि जो चांद तेरे भीतर बना. उसके संबंध में तेरा क्या इन सबके भीतर एक बात समान है, वह भीतर की खयाल है? तो गंदा डबरा जो कहेगा, उसमें गंदगी जुड़ी होगी। चैतन्य-धारा। बाहर के उपकरण भिन्न-भिन्न हैं। बाहर के तो स्वाभाविक है। उसने तो वही चांद देखा, जो उसकी गंदगी में सब खिलौने हैं. जिससे मर्जी हो उससे खेल लेना, भीतर रसधार | प्रतिछायित हो सकता था। मानसरोवर से पूछोगे, तो वह अपने बहती रहे। चांद की बात करेगी। इसीलिए तो दनिया में इतने धर्म हैं। अगर कल मैं पढ़ रहा था ठीक से समझो, तो हर आदमी का खदा अलग होगा। आदमी खके-सेहरा पे जमे, या कफे-कातिल पे जमे आदमी में इतने फर्क हैं। फर्के-इंसाफ पे या पाये-सलासिल पे जमे मेरे भीतर का ईश्वर, तेग-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे विकराल क्रोध है, ऊसर, अनजोती जमीन खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा पर तांडव का त्यौहार रचानेवाला! 313/ 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः मेरे भीतर का ईश्वर, बाकी सब डुबा दिये। आग बरसा दी नगरों पर। जरा नाराज है मेरे मन के स्वर्ग-लोक की नींव हिला हुआ कि विकराल क्रोध! मेरे भीतर भूकंप मचानेवाला! ईश्वर क्रोधी है? नहीं, जिन यहदियों ने परानी बाइबिल मेरे भीतर का ईश्वर, लिखी, वे क्रोधी रहे होंगे। पुरानी बाइबिल यहूदियों के संबंध में है अग्निचंड, मैं उसके भीतर जलता हूं खबर देती है। वेद में ईश्वर की धारणा है, वह धारणा ईश्वर की मेरे भीतर का ईश्वर, खबर नहीं देती, वेद जिन्होंने रचे उनकी खबर देती है। कोई ऋषि है घन घमंड, अंबर का उद्वेलित समुद्र, प्रार्थना कर रहा है कि मेरी गौओं के थन में दूध बढ़ जाए और मेरे मेघों को, जाने, हांक कहां ले जाता है। दुश्मन की गौओं के थन का दूध सूख जाए। हे प्रभु, ऐसा कुछ मेरे भीतर का ईश्वर कर कि मेरी फसल तो खूब आये, पड़ोसी की फसल न आ है नामहीन, एकाकी, अभिशापित विहंग पाये। क्या ईश्वर इस तरह की प्रार्थनाएं सुनता है? क्या ईश्वर जो हृदय-व्योम में चिल्लाता, मंडराता है। की इससे कोई धारणा हमारे मन में साफ होती है—यह कैसा मेरे भीतर का ईश्वर, ईश्वर है? नहीं, इससे इतना ही पता चलता है, जो प्रार्थना है जोर-जोर से पटक रहा मेरे मस्तक को पत्थर पर। करनेवाले थे उनकी याचना, उनके हृदय की खबर।। मेरे भीतर का ईश्वर, तुम जब ईश्वर के संबंध में बोलते हो, तो ध्यान रखना कि यह महाघोर चतुरंग प्रभंजन वेगवान तुम्हारे ईश्वर के संबंध में बोल रहे हो। मैं जब ईश्वर के संबंध में मेरे मन के निर्जन, अकूल, आश्रयविहीन, बोलता हूं, तो ध्यान रखना मैं अपने ईश्वर के संबंध में बोल रहा उत्तप्त प्रांत में ज्वालाएं भड़काता है। हूं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। भीतर उर के मुद्रिक कपाट ईश्वर बड़ी निजी धारणा है। और हर एक की अपनी दृष्टि से बाहर-बाहर वह प्रलय-केतु फहराता है। प्रभावित होती है। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारी सारी दृष्टि आदमी आदमी का ईश्वर अलग-अलग होगा। तुम क्रोधित चली गयी, जब तुम्हारे मन में कोई पक्षपात न रहा—न हिंदू का, हो, तो तुम्हारा ईश्वर क्रोधित होगा। तुम अहंकारी हो, तो तुम्हारे न मुसलमान का, न सिक्ख का, न जैन का, कोई पक्षपात न भीतर का ईश्वर अहंकारी होगा। तुम शांत हो, तो तुम्हारा ईश्वर रहा-तुम सब शास्त्रों, सब शब्दों से मुक्त हुए, तुम शून्य में शांत होगा। तुम उदास हो, तो तुम्हारा ईश्वर उदास होगा। विराजमान हुए, तब उस मानसरोवर में जो झलकता है, वह क्योंकि तुम ही तो तुम्हारे ईश्वर को प्रतिबिंब दोगे। तुम्हारा ईश्वर ईश्वर की निकटतम प्रतिमा है। वह प्रतिमा इतनी निकटतम है, तुम्हारे भीतर रूप धरेगा। तुम ही तो उसकी परिभाषा बनोगे। क्योंकि मानसरोवर का स्वच्छ स्फटिक जैसा जल कोई विकृति तुम ही तो सीमा बनाओगे। तम ही तो बागड़ लगाओगे। तम्हारा पैदा नहीं करता है। पारदर्शी। जैसा है ईश्वर तुम्हारे-जैसा होगा। वह झलक इतनी स्पष्ट और इतनी ईश्वर जैसी है, इसलिए इसीलिए दुनिया में इतने ईश्वरों की भिन्न धारणाएं हैं। इसीलिए उपनिषद के ऋषि कह सके-अहं ब्रह्मास्मि। वह झलक इतनी हर सदी का ईश्वर भी अलग होता है। बदलता चला जाता है। स्पष्ट और इतनी साफ कि उपनिषद के ऋषि कह सके, हम ब्रह्म ईश्वर बदलता, ऐसा नहीं, प्रतिबिंब बदलते हैं। क्योंकि प्रतिबिंब हैं। ब्रह्म में और उस झलक में कोई फर्क न रहा। कभी-कभी धारण करनेवाले बदलते हैं। पुरानी बाइबिल का ईश्वर बड़ा बहुत थोड़े-से लोग उस ऊंचाई पर पहुंचे हैं, जिन्होंने 'अहं क्रोधी, रुद्र-रूप, जरा-सी बात पर नाराज हो जानेवाला, | ब्रह्मास्मि' की घोषणा की है। कोई मंसूर कह सका, जरा-सी बात पर अग्नि बरसा देनेवाला, जरा-सी बात पर अनलहक-मैं हूं सत्य। महाप्रलय ला देनेवाला। क्रोध में उसने डुबा दी दुनिया एक यह तब घटता है, जब समाधि घटती है। जब सब कचरा दफा। थोड़े-से लोग चुने हुए बचा लिये थे नोह की नाव में; तुम्हारे चित्त का बह गया। तुम भी जब निर्विकार, निराकार, | जैसीं जाती / जैसा है वैसा ही यालका देता है। 314 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - mmmmmmmmmmmost -- द्वार निर्विकल्प हुए, तब घटता है। इसकी आकांक्षा करो। इस पर प्रकाश प्रभुरूप है। प्रभु प्रकाश की आभा है। इस प्रकाश में तुम भरोसा करो। क्योंकि श्रद्धा न होगी, तो यह कभी भी न घटेगा। | भी मत बचो। इसीलिए तो घबड़ाहट लगती है। सब गया, तो यह मानकर तो चलो कि परमात्मा ने जिन्हें बनाया है, उनकी आखिर में लगता है, अब मैं भी जाऊंगा। क्योंकि तुमने अब तक अंतिम नियति परमात्मा ही हो सकता है। परमात्मा ने जिसे सृजा अपना जो रूप जाना है, वह उसी सभी का जोड़ था। वह सब तो है, उसका अंतिम निखार परमात्मा ही हो सकता है। और तुम | गया, अब तुम कैसे बचोगे? तुम्हारा सब गया, तो तुम भी जब तक परमात्मा न हो जाओगे, तब तक तुम वापिस-वापिस जाओगे। इससे घबड़ाहट पैदा होती है। भेजे जाओगे। क्योंकि परमात्मा तब तक राजी न होगा, जब तक | ध्यान के अंतिम चरण में मृत्यु घटेगी है। उसको घटने देना है तम उसके जैसे ही होकर चरणों में नैवेद्य न बन जाओ। तब तक स्वागत से घटने देना है। सहर्ष घटने देना है। राजी न होगा, जब तक तुम ठीक उस जैसे न हो जाओ। इसीलिए | उपलब्ध हो जाएगी। अगर डर-डरकर वापिस लौटते रहे, तो मैं कहता हूं, स्मरण रखो इस बात का कि तुम अभी बंद कली हो, यह यात्रा तो ऐसी हुई कि गंगा गयी सागर तक और ठिठककर खिलना है। तुम बंद परमात्मा हो, खिलना है। तुम छिपे खड़ी रह गयी और लौटने लगी गंगोत्री की तरफ। सागर तक परमात्मा हो, प्रगट होना है। गये हैं, तो गिरना ही होगा। फिर यह गंगा कहे कि नहीं, अब मैं गिरना नहीं चाहती, मैं तो मिलने आयी थी, गिरने थोड़े ही आयी दुसरा प्रश्न : सक्रिय-ध्यान के तीसरे चरण में काफी शक्ति थी; मैं तो सागर होने आयी थी, मिटने थोड़े ही आयी थी, तो लगाने पर वहां प्रकाश के सिवाय कुछ भी नहीं बचता है। फिर क्या कहोगे तुम गंगा से? तुम कहोगे, सागर होने का एक ही भय पकड़ता है कि मरा! हे प्रभो, उस घड़ी में क्या करना उपाय है कि सागर में खो जाओ। तुममें सागर तभी खो सकता चाहिए? है, जब तुम सागर में खो जाओ। तुम मिटो, तो सागर हो जाए। ध्यान की आखिरी घड़ी में तुम्हारी गंगा सागर के किनारे आकर उस घड़ी में मरना चाहिए। मरे बिना थोड़े ही चलेगा। उस खड़ी हो जाती है, तब मन घबड़ाता है, स्वाभाविक है। मैं समझ घड़ी में अपने को बचाने की चेष्टा ही फिर तुम्हें वापस लौटा सकता हूं। सभी का घबड़ाया है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई लायेगी। उस घड़ी में खुद को खो देना। उस घड़ी तो कहना- नानक, कोई कबीर उस घबड़ाहट से बचा नहीं। वह सभी का अंतिम यह अभिलाष हृदय में! घबड़ाया है। वह मनुष्य का स्वाभाविक रूप है। अब तक जिसे जीवन दीप जलाकर मेरा, अपना जाना था, जीवन जाना था, वह सब छूटता लगता है, चाहे कोई हरे अंधेरा; बिखरता लगता है। सारा अतीत शून्य में लीन होता मालूम किंतु बुझे यदि दीप कभी तो पड़ता है, भविष्य का कुछ पता नहीं है, तो मृत्यु मुंह बाकर खड़ी बुझे तुम्हारे कोमल कर से, हो जाती है। उस क्षण नाचते हुए मृत्यु में समा जाना। लौटकर अंतिम यह अभिलाष हृदय में! पीछे मत देखना। लौटकर पीछे देखा कि मुश्किल में पड़ परमात्मा के हाथ से अगर तुम्हारा दीया बुझता हो, तो और जाओगे। लौट भी न पाओगे और गिर भी न पाओगे, त्रिशंकु हो क्या सौभाग्य हो सकता है! जाओगे। बड़ी दुविधा में पड़ जाओगे, बड़े द्वैत में पड़ जाओगे। किंतु बुझे यदि दीप कभी तो, उधर सागर बुला रहा होगा, इधर पीछे का अतीत बुला रहा बुझे तुम्हारे कोमल कर से होगा। उधर भविष्य खींचेगा, इधर अतीत खींचेगा। तुम दोनों के अंतिम यह अभिलाष हृदय में! बीच खिंचकर पिस जाओगे। पूछा है कि ध्यान के अंतिम चरण में केवल प्रकाश बचता है। बहुत बार ऐसा हुआ है कि जिन लोगों ने ध्यान की इस घड़ी में और क्या चाहते हो? कुछ और की भी इच्छा है? प्रकाश का तो | मरने से विरोध किया, वे विक्षिप्त हो गये हैं। क्योंकि लौट भी अर्थ हुआ, जो बचना चाहिए वही बचा अब। शुद्धतम बचा। नहीं सकते अब; अब गंगोत्री तक जाना कैसे संभव है? जहां 315 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 तक आ गये, आ गये, लौटना तो होगा नहीं; और आगे जाना बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते हैं नहीं चाहते, तो सारी ऊर्जा तुम्हारे भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगेगी। ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है उससे विक्षिप्तता पैदा हो सकती है। धर्म के जगत में या तो मृत्यु कुछ भी नहीं हैको घटने दो, या पागल हो जाओगे। ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है इसलिए मैं कहता हूं-मरो। बेदिलों की हस्ती क्या जीते हैं न मरते हैं पूछा है—हे प्रभो! उस घड़ी में क्या करना चाहिए?' कुछ | तुम जिसे जीवन कहते हो, वह जीवन नहीं है। जीवन और करना नहीं चाहिए। चुपचाप सरक जाना चाहिए सागर में। जैसे मृत्यु के बीच में अटके हो। तुम जिसे मृत्यु कहते हो वह मृत्यु ओस की बूंद, घास की पत्ती से सरककर पृथ्वी में गिर जाती है, नहीं है, तुम जिसे जीवन कहते हो वह जीवन नहीं है। मृत्यु तो खो जाती है, ऐसे चुपचाप सरक जाना चाहिए और गिर जाना केवल उन्होंने ही जानी, जो समाधि में मरे। तुम जिसे मृत्यु कहते चाहिए। गिरकर तुम पाओगे कि पहली दफे जाना तुम कौन हो। हो, वह तो एक बीमारी का दूसरी बीमारी में बदल जाना है। वह मिटकर तम पाओगे कि हए। शन्य होकर पाओगे कि पर्ण उतरा तो वस्तओं का परिवर्तन है। घर बदल लेना है। भीतर के सब तुममें। इधर तुम गये कि उधर परमात्मा आया। प्रकाश तो उसके रोग वही के वही रहते हैं, घर बदल जाता है। तुम जिसे जीवन आगमन की खबर है। जैसे सुबह सूरज निकलने के पहले एक कहते हो, अगर वही जीवन है, तो फिर परमात्मा की खोज व्यर्थ लाली छा जाती है क्षितिज पर, प्राची सुर्ख होने लगती है—सूरज | है। परमात्मा को हम खोजते इसीलिए हैं कि जिसे हमने अब तक की अगवानी में यह सूरज का पहला संदेश हुआ। आता ही है | जीवन जाना है, वह धीरे-धीरे सिद्ध होता है कि जीवन नहीं था, सूरज अब। अब देर नहीं। पक्षी चहकने लगते हैं, हवाएं फिर भ्रांति थी। माया थी, एक सपना था। गतिमान होने लगती हैं, प्रकृति जागने लगती है, प्राची लाल हो | परमात्मा की खोज का इतना ही अर्थ है कि यह जीवन, जीवन गयी, सूरज आता ही है अब। सिद्ध नहीं हुआ, अब हम महाजीवन को खोजते हैं, किसी और जब ध्यान के आखिरी चरण में प्रकाश बचे, तो समझना कि जीवन को खोजते हैं। प्राची लाली हो उठी, लाल हो उठी, अब सूरज आता ही है। अब लेकिन जिन मित्र ने पूछा है, उनका प्रश्न बिलकल ही मंत्रमुग्ध, नाचते, अहोभाग्य मानकर गिरने को तैयार हो जाना, अनिवार्य है। सभी ध्यानियों को घटता है, इसलिए चिंता मत मिटने को तैयार हो जाना। ध्यान का अंतिम चरण मृत्यु है। लेना। डर लगे, तो अपराध-भाव भी मत पैदा होने देना, इसीलिए ध्यान के बाद जो घटना घटती है, उसे हम समाधि स्वाभाविक है। कोई भी उस घड़ी आकर ठिठक जाता है। यहीं कहते हैं। समाधि का अर्थ, महामृत्यु। जो मरने योग्य था, मर तो गुरु की जरूरत हो जाती है। उस घड़ी अगर गुरु न हो, तो तुम गया; जो नहीं मर सकता था, वही बचा। मर्त्य गया, अमृत लौट जाओगे। या कम से कम वहीं अटके रह जाओगे। गुरु के बचा। मरणधर्मा से छुटकारा हुआ, अमृत से गांठ बंधी। बिना इस घड़ी में पागल होने की पूरी संभावना है। गुरु का और जिसे तुम जिंदगी कहते हो, उसमें बचाने-जैसा भी क्या | केवल इतना मतलब है कि वह तुम्हें आश्वस्त कर सके कि मत है! क्या है बचाने को तुम्हारे पास? तुम व्यर्थ ही बचाने की डरो, देखो मैं खो गया हूं, फिर भी हूं। बहुत होकर हूं। अनंत चिंता में लगे रहते हो, बचाने को कुछ भी नहीं! हालत वैसी ही है | होकर हं। शाश्वत होकर है। आ जाओ, ले लो छलांग। डरो जैसे कोई नंगा नहाता नहीं, क्योंकि कहता है कि नहाऊंगा तो मत। झिझको मत। संदेह न करो। उतर आओ। गुरु हाथ बढ़ा कपड़े कहां सुखाऊंगा? नंगा है, कपड़े सुखाने की चिंता के दे, खींच ले, मरने की हिम्मत दे दे, मिटने का बल दे दे, तो कारण नहाता नहीं! तुम्हारे पास है क्या? तुम्हारे हाथ बिलकुल उतरते से ही तुम्हें पता चलेगा कि नाहक परेशान थे। खाली हैं। तुम्हारे प्राण खाली हैं, तुम रिक्त हो। इस रिक्तता को मैंने सुना है, एक आदमी एक अंधेरी अमावस की रात में पहाड़ भी नहीं छोड़ पाते! नहीं है कुछ, तो भी मुट्ठी नहीं खोल पाते! पर भटक गया। अंधेरा गहन। हाथ को हाथ न सूझे। किसी | अगर कुछ होता, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाती। तरह टटोल-टटोलकर वह रास्ता खोज रहा था कि एक खड़ में 316 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु है द्वार गिर गया। खड्ड में गिरा तो उसने एक वृक्ष की जड़ को पकड़ है। या कि प्रेम के पास ऐसी आंखें हैं, जिनको सिर्फ प्रेमी ही लिया जोर से। सारी रात कैसे कटी, कहना कठिन है। रोते ही, जानते हैं, और कोई नहीं जानता। और प्रेम तो एक पागलपन है, आंसू बहाते ही रात बीती। सर्द रात, ठिठुर रहा, हाथ जड़ हए एक दीवानगी है। प्रेम तो मजन होना है। प्रेम का तो अर्थ ही यही जाते, कब वृक्ष की जड़ हाथ से छूट जाएगी, कहना मुश्किल! है कि अब सब दांव पर लगाने की तैयारी है, लेकिन अब और बल खोता जाता, मृत्यु निश्चित है, पता नहीं नीचे कितना बड़ा | देर सहने की तैयारी नहीं। खड्ड हो! और फिर आधी रात के करीब हाथ बिलकुल ठंडे सुन्न | तो तुम पूछते हो कि पागल हो जाऊंगा। मेरी तरफ से तो जिस हो गये। पकड़ संभव न रही। जड़ छूट गयी और वह आदमी | दिन तुम्हें संन्यास दिया, उसी दिन मैंने मान लिया कि तुम पागल गिरा। और गिरने के बाद उस घाटी में एक खिलखिलाहट की हो गये। पागल हुए बिना परमात्मा को कब किसने पाया है ? आवाज आयी, क्योंकि नीचे कोई खाई न थी, समतल जमीन पागल होने का इतना ही अर्थ है कि जीवन में बड़ी त्वरा से खोज थी। गिरकर पता चला कि गिरने को कुछ नीचे था ही नहीं। हो रही है। कुनकुनी नहीं, उबलती हुई खोज। दुकानदारी नहीं, नाहक कष्ट झेला। जुआरी की तरह-सब लगा दिया। लेकिन अंधेर में पता कैसे चले? गिरकर पता चला कि नीचे | होशियार मेरे पास नहीं आते। मेरे पास तो प्यासे आते हैं। समतल भूमि थी। खिलखिलाकर हंसने लगा। होशियारों के लिए तो बहुत और जगहें हैं, जहां वे संसार को भी सुनो मेरी, उतर आओ! लौटकर मत देखो; जो गया, गया। सम्हाले रहते हैं, परमात्मा का भी थोड़ा सहारा पकड़े रहते हैं। न और प्रभु द्वार पर खड़ा है। सुनो मेरी। स्वागत कर लो! गले यह दुनिया जाए, न वह दुनिया जाए। कुछ दांव पर लगाना नहीं भेंट लो। आनंद से उतर आओ। नाचते, गुनगुनाते। सौभाग्य है। सब सम्हालकर रखना है, दोनों नाव पर सवार रहना है। मेरे समझो! प्रकाश आया, प्राची लाल हो उठी, सूरज करीब है। मैं | पास तो तुम आये हो, तो उसका अर्थ ही यही है कि तुमने पागल तुमसे कहता हूं-मरो! होने की हिम्मत जुटायी। और दूसरे तुम्हारे हृदय को नहीं देख सकते। पूछा है, तीसरा प्रश्न : अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता। | 'अफसोस कोई दिल का हाल नहीं पूछता।' और सब यही कह रहे हैं तेरी सूरत बदल गयी। और यह भी | दिल तो दूसरों को दिखायी पड़ नहीं सकता। दिल तो वही है कह रहे हैं कि सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या आये! | जिसे तुम जानते हो, अपने निजी एकांत में। दिल तो अत्यंत ऐसी मेरी हालत है, मैं क्या करूं? मेरे प्रश्न का उत्तर देने की वैयक्तिक है। वहां तो तम किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते। कृपा करेंगे। आपने उत्तर नहीं दिया, तो मैं सचमुच पागल हो अपने निकटतम मित्र को भी वहां तुम नहीं ले जा सकते। उस जाऊंगा। जगह तो बस तुम्हारा ही आना-जाना है। दूसरे को तुम्हारे दिल का क्या पता चलेगा? इसलिए यह आशा ही छोड़ दो कि कोई जाओगे? तो पागल होना भी तुम्हारी स्वेच्छा पर है? कि जब सकोगे। एक तो कोई पूछेगा ही नहीं। दूसरे को तो यह भी पक्का होना चाहोगे तब हो जाओगे। तो स्वांग होगा। मेरे उत्तर देने न नहीं होता कि तम में दिल है भी। देने से पागल होने का क्या संबंध है? या तो पागल हो; और या इसीलिए तो लोग कहते हैं, आत्मा नहीं है। क्योंकि बाहर से पागल नहीं हो तो कैसे हो जाओगे? | तो सिर्फ इतना ही दिखायी पड़ता है, शरीर है; बहुत से बहुत जिसने संन्यास लिया, मेरे लिए तो पागल हो ही गया। अनुमान लगता है कि मन होगा, वह भी न है, दिखायी तो संन्यास का अर्थ ही यह है कि तुम अब ऐसी डगर पर चले जहां कुछ पड़ता नहीं। | हिसाब-किताब नहीं, जहां तर्क व्यर्थ हैं। जहां श्रद्धा सार्थक है। हृदय की तो बात ही नहीं जमती कि तुम्हारे भीतर हृदय होगा। तुम ऐसी डगर पर चले, जो प्रेम की डगर है। और प्रेम तो अंधा | फिर आत्मा तो और भी आखिरी बात हो गयी। 317 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 शरीर की पहचान तो साफ है। मन की थोड़ी-बहुत अनुमान से अन्यथा कौन किसकी सूरत देखता है! अपनी देखने से फुर्सत पहचान होती है कि मेरे भीतर भी विचार चलते हैं, दूसरे के भीतर मिले तो आदमी दूसरे की सूरत देखे! अपनी देखने से तो फुर्सत भी चलते होंगे। चलने चाहिए। क्योंकि शरीर मेरा जैसा लगता मिलती नहीं। तुम जब घर से निकलते हो तो तुम्हीं बहुत परेशान है, तो मन भी शायद मेरे जैसा हो। फिर मन के भीतर छिपा हुआ होते हो आईना वगैरह देखकर कि कहीं कुछ गलती न रह जाए, हृदय, उस तक तो पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो केवल प्रेम कोई दाग न रह जाए, कोई कचरा न लगा रह जाए, कहीं कोई से पहंच हो पाती है. अनमान से नहीं। फिर हृदय के भीतर छिपी आदमी देख ले। कौन देखता है, तम इसकी फिकर तो करो? आत्मा है। उस तक तो प्रेम से भी पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तुम किसकी सूरत देखते हो? कोई किसी की सूरत नहीं देख तो ध्यान से ही पहंच हो पाती है। फिर आत्मा के भीतर छिपा रहा। लोग अपने-अपने अहंकारों में ग्रस्त हैं। लोग परमात्मा है, उस तक तो किसी चीज से भी पहुंच नहीं होती, अपने-अपने में बंद हैं।। ध्यान से भी नहीं होती। लेकिन जब तुम आत्मा में पहुंच जाते हो, तो कोई अगर तुम्हारी सूरत भी देख लेता है, तो बड़ी कृपा! तो परमात्मा तुम्हें खींच लेता है। आत्मा तक मनुष्य जा सकता और कोई अगर इतना भी पहचान लेता है कि तुम्हारी सूरत बदल है, वहां तक मनुष्य के कृत्य की सीमा है। गयी है, तो उसे धन्यवाद दो। उसके मन में तुम्हारे लिए कुछ इसीलिए तो महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। क्योंकि सहानभति होगी। कछ जगह होगी तम्हारे लिए। कछ लगाव जहां तक मनुष्य जा सकता है वहीं तक बात करनी उचित है, होगा, कुछ राग होगा। और लोग पहले सूरत ही पहचान पाते आगे की क्या बात करनी! आगे तो घटना घटती है—अपने से हैं। लेकिन सूरत निश्चित बदलती है, यह पक्का है। कभी तो घटती है। ऐसा समझो कि तुम छत पर खड़े हो। जब तक खड़े क्षणभर में क्रांति हो जाती है। हो, ठीक; छलांग लगा लो, तो छलांग लगाने के बाद फिर कभी-कभी मैं देखता हूं, एक आदमी आता है, अस्त- व्यस्त, जमीन तक आने के लिए थोड़े ही तुम्हें कुछ करना पड़ता है। संदिग्ध, मन डांवाडोल; उसकी चाल भी देखकर कह सकते हैं छलांग लगा ली कि फिर तो गुरुत्वाकर्षण काम करने लगता है। कि डांवाडोल है, कुछ तय नहीं किया है; भीतर कंपन है, बाहर फिर तो जमीन का ग्रेविटेशन तुम्हें खींच लेता है, कशिश खींच भी कंपन है मेरे सामने बैठता है, कहता है कि संन्यास लूं, या लेती है। फिर तुम यह थोड़े ही पूछोगे कि छलांग लगाने के बाद न लूं? कई दिन से सोच रहा हूं, कुछ तय नहीं हो पाता। जब फिर मैं क्या करूं कि जमीन तक आ जाऊं? हम कहेंगे, तुम कोई चीज तय नहीं हो पाती, तो तुम भीतर बहुत डांवाडोल हो सिर्फ छलांग लगा लो, बाकी काम छोड़ो, फिक्र तुम मत मरो, जाते हो, बंट जाते हो। फिर वह हिम्मत जुटा लेता है, सुन लेता वह जमीन कर लेगी। है मेरी पुकार। मैं कहता हूं-कूदो, देखेंगे; सोचना बाद में कर आत्मा तक मनुष्य जाता है। आत्मा के बाद कशिश परमात्मा लेंगे। सोचना इतना जरूरी भी नहीं है। वह कहता है, बिना सोचे की शुरू होती है। वहां से सीमा परमात्मा की। छलांग लग गयी, कैसे संन्यास ले लूं? फिर वह तुम्हें खींच लेता, उसका गुरुत्वाकर्षण खींच लेता। मैं कहता हूं, जिन्होंने लिया, बिना सोचे ही लिया। हालांकि 'अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता।' लेने के बाद पछताये नहीं। क्योंकि लेने के बाद पाया कि लेने अफसोस मत करो। ऐसे अफसोस किया तो व्यर्थ ही परेशान | योग्य था। कुछ चीजें हैं, जिनको लेकर ही पता चलता है क्या होओगे। कौन पूछेगा दिल का हाल तुमसे? कोई जरूरत भी हैं। स्वाद से ही पता चलता है क्या हैं। पहले से पता भी कैसे नहीं किसी को पूछने की। और बताने की भी आकांक्षा मत चले? मैं कहता हूं, तुम ले लो। मैं देता हूं, तुम ले लो। फिर | करो। तुम्हारी प्रार्थना प्रदर्शन न बने। भीतर-भीतर स्वाद ले लेना, फिर बाद में तय कर लेना कि लेने 'हां, लोग कहते हैं कि तेरी सूरत बदल गयी।' योग्य था या नहीं। हिम्मतवर आदमी होता है, साहसी होता है, सूरत तक उनकी पहचान है। चेहरा दिखायी पड़ता है, तुम उतर जाता है। इधर मैं माला उसके गले में डालता हूं, उधर एक थोड़े ही दिखायी पड़ते हो। उतना भी पूछ लेते हैं, बड़ी कृपा है, | रूपांतरण शुरू होता है, उसकी सूरत बदलने लगती है। क्योंकि 318 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक निष्कर्ष आ गया। एक दुविधा मिटी। दुविधा के मिटते ही पागल होने का अर्थ समझ लेना। भीतर जो लड़ते खंड थे, इकट्ठे हो जाते हैं। जब ले ही लिया, तो पागल होने का अर्थ है, तर्क से नाता तोड़ना। हिसाब-किताब एक हलकापन हो जाता है, चिंता गयी। चेहरे पर प्रसाद आ के जगत से नाता तोड़ना। रहस्य के जगत में पदार्पण। पागल जाता है। और ले सका, इतना आत्मविश्वास कर सका, इतनी होने का अर्थ है, गद्य से पद्य की तरफ यात्रा। पागल होने का श्रद्धा कर सका, तो जब वह आदमी जाता है तो उसकी चाल मैं | अर्थ है, साफ-सुथरे राजमार्गों को छोड़कर जीवन की रहस्य की देखता हूं अब और हो गयी। जैसे वृक्ष को जड़ें मिल गयी हों। पगडंडियों पर चलना। चलो तो बनती हैं। सीमेंट से पटे हुए उसके पैर जमीन में लगे होते हैं बल से। उसका सिर आकाश में | राजमार्ग नहीं हैं, जहां सारी भीड़ चल रही है। उठा होता है बल से। यही आदमी क्षणभर पहले आया था, यही | पागल होने का अर्थ है—अकेला होना। भीड़ चल रही क्षणभर बाद जा रहा है, सूरत बदल जाती है। है-हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की-जब तक तुम भीड़ लेकिन सूरत बदलती है भीतर की बदलाहट से। कोई रंगरोगन के हिस्से बने हो, तब तक तुमने अभी परमात्मा की खोज पर लगाने से सूरतें नहीं बदलती। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे कुछ दांव पर नहीं लगाया। जिस दिन तुम उतरते हो भीड़ को पर रोशनी आ जाती है। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे पर छोड़कर, राजमार्ग को छोड़कर; उतरते हो जीवन के बीहड़ आभा आ जाती है। कुछ रहस्यपूर्ण चेहरे को मंडित कर लेता है। जंगल में और जीवन बीहड़ जंगल है, खतरे हैं वहां, एक प्रभामंडल पैदा हो जाता है। वन्य-पशु हैं वहां, भटक जाने की पूरी संभावना है; पहुंचना, लोग ठीक ही कहते हैं कि सूरत बदल गयी। सूरत इसीलिए जरूरी नहीं कि पहुंचो ही, निश्चित नहीं है-जो आदमी राजमार्ग बदल गयी कि दिल बदल गया है। लोग नहीं पूछेगे दिल का को छोड़कर बीहड़ के मार्ग पर उतरता है, पागल है। तुम्हारे हाल, क्योंकि लोगों को न अपने दिल का पता है, न तुम्हारे दिल संगी-साथी कहेंगे, क्या कर रहे हो? समझ-बूझ से काम लो। का पता है। लोग दिल को तो भल ही गये हैं। दिल को तो लेकिन अगर तुम समझ-बझ को समझ पाये हो तो एक विस्मरण ही कर दिया है। दिल के विस्मरण करने के कारण ही समझ में आ गयी होगी कि समझ-बूझ से कितना ही काम लो, तो परमात्मा से टूट गये हैं, क्योंकि दिल ही जोड़ है। मैंने तुमसे हाथ कुछ आता नहीं। तो तुम कहते हो, अब तो समझ-बूझ कहा, शरीर, शरीर के भीतर मन, मन के भीतर हृदय, हृदय के | छोड़कर जीकर देखना है। अब तो मस्त होकर जीकर देखना है। भीतर आत्मा, आत्मा के भीतर परमात्मा। हृदय ठीक मध्य में अब तो दीवाना होकर जीकर देखना है। है। इस तरफ मन और शरीर, उस तरफ आत्मा और परमात्मा। धार्मिक व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन की सुरक्षाओं को छोड़कर हृदय ठीक मध्य में है। जोड़ है। सेत है। कड़ी है। असुरक्षा को वरण करता है। तर्क, विचार, गणित की जो लोग हृदय को भूल गये हैं, वे आत्मा को तो कैसे याद साफ-सुथरी, पटी-पटायी लीकों को छोड़कर प्रेम की, प्रार्थना . करेंगे। उनके लिए आत्मा तो केवल एक कोरा शब्द है, की बेबूझ पहेलियों को सुलझाने चल पड़ता है। अर्थहीन। जो लोग हृदय को भूल गये हैं, उनके लिए परमात्मा लेकिन ऐसे ही व्यक्ति किसी दिन परमात्मा को पाने में सफल तो बिलकुल व्यर्थ है। वे कैसे परमात्मा शब्द का सार्थक उपयोग होते हैं। परमात्मा तार्किक नहीं है, प्रेमी है। और सत्य तर्क की करें, समझ में भी नहीं आ सकता। | कोई निष्पत्ति नहीं, नयी आंखों का दर्शन है। ये आंखें जो तुम्हारे तो पहली तो बात है, हृदय जगे। लेकिन मैं तुम्हारे हृदय की पास हैं, काफी नहीं। तीसरी आंख पैदा करो। और यह कान जो बात करूंगा, लोगों से आशा मत करो। वही मैं कर रहा हूं रोज तुम्हारे पास हैं, काफी नहीं। तीसरा कान पैदा करो। संन्यास सुबह-शाम। तुम्हारे हृदय की बात तुमसे कह रहा हूं कि उसी तीसरी आंख और तीसरे कान की खोज है। धीरे-धीरे तुम अपने हृदय की भाषा पहचानने लगो। और रही मेरे साथ होना है, तो पागल होकर ही हो सकते हो। और जब पागल होने की बात, मेरे हिसाब से तो तुम हो ही गये हो। और तक मैं हूं, हो लो, क्योंकि पीछे पछताने से कुछ भी न होगा। अब तुम किसलिए रुके हो, अगर नहीं हो गये हो तो जाओ। पीछे पछताये होत का, जब चिड़ियां चुग गयीं खेत। 319 2010_03 www.jainelibrarorg Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग:21 भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें बहुत याद आयेंगे हम याद रखना इसलिए अभी जब तुम्हारे पास हैं, तो पागल हो लो, कल पर मत छोड़ो। यह नृत्य, यह संगीत, जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं, ले लो। संकोच मत करो। फैलाओ झोली और भर लो। भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें बहुत याद आयेंगे हम याद रखना। आज इतना ही। 3200 Jai Education International 2010_03