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________________ गुरुहद्वार परमात्मा निराकार है तो मूर्तियां तोड़ने लगे। अगर समझे होते कहते हैं कि गुरु साक्षात ब्रह्म है। परमात्मा तो दूर है, दिखायी कि परमात्मा निराकार है, तो यही समझ में आता कि सभी नहीं पड़ता है। गुरु दिखायी पड़ता है। परमात्मा तो आकाश की आकार उसके। निराकार का अर्थ आकार तोड़ना नहीं है, गंगा है, कहां है पता नहीं, गुरु ऐसी गंगा है जो तुम्हारे घर के द्वार आकार में उसको देखना है। आकार रोक न पाये, आकार द्वार से बह रही है। स्नान तो उसी में हो सकता है। इसमें स्नान होगा, बने, दरवाजा बने; बाधा न बने। | तो ही तुम परमात्मा की गंगा के योग्य बनोगे। पहला परमात्मा तो मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जिसको पूजना हो, कम से कम गुरु ही है। गुरु से मिलने पर ही तो पहली दफा, परमात्मा है, पूजो तो। क्योंकि मेरा जोर तुम्हारी पूजा में है। तुमने पूजा, तुमने इसकी प्रतीति होती है। प्रार्थना की, तुम झुके, बस काफी है। जहां तुम झुके, वहीं | मगर लोग जड़ हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते परमात्मा के चरण हो गये। हैं, गुरु कहेंगे हम तो, भगवान नहीं कह सकते। इसलिए नानक परमात्मा के चरण तो वहां थे ही, तुम झुक नहीं रहे थे इसलिए को गुरु कहते हैं। लेकिन गुरु का अर्थ ही यही है, जिसमें दिखायी नहीं पड़ते थे। झुके कि दिखायी पड़ गये। और हिसाब भगवान प्रगट हआ हो। जो भगवान के साथ एकाकार हो गया कौन लगाये कि कहां है और कहां नहीं है। मंदिर में है कि मस्जिद हो। जिसकी मौजूदगी में भगवान की झलक मिले। जिसके में है कि गुरुद्वारे में है। हिसाब लगाने की जरूरत कहां। सत्संग में तुम्हारे भीतर का भगवान भी जगे और नाचे और बेहिसाब सब जगह है। अमर्याद सब जगह है। प्रफुल्लित हो। गुरु का अर्थ ही यही है, जो तुम्हें खींचने लगे, जिन मित्र ने पछा है. वह नानक को समझे न होंगे। 'आदमी प्रबल आकर्षण बन जाए। जो चंबक की तरह तम्हें खींचने को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना | लगे। किसी ऐसी जगह ले जाने लगे जहां तुम अपने से न जा चाहिए।' मान ही नहीं सकते। यही कहा होगा नानक ने कि | सकते। भय पकड़ता, हिम्मत न होती। गुरु तो परमात्मा है। जहां भी मानो, उसी को मानना, उस एक को ही मानना। सिक्ख कबीर ने कहा हैकुछ गलत समझे होंगे। कम से कम पूछनेवाला सिक्ख तो | गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय गलत समझा ही है। मानना एक को ही। इसका अर्थ हुआ, जहां | किसके चरण छुऊं पहले? दोनों सामने खड़े हैं। दुविधा बड़ी भी आंख पड़े, उसी को खोजना। जहां सिर झुके, उसी के चरण साफ है। अगर परमात्मा के चरण पहले लगू, तो गुरु का टटोलना। जहां तक हाथ पहुंच सके, उसी की तलाश करना। | अपमान होता है। और गुरु के बिना परमात्मा तो कभी मिल नहीं जहां तक मन जा सके, उसी में उड़ने देना मन को। जहां तक सकता था। तो यह तो अकृतज्ञ होगा कृत्य। यह तो गुरु के प्रति स्वप्न उठ सकें, उठने देना उसी में। जीना तो उसमें, सोना तो | आभार न हुआ। गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय। अगर उसमें। उठना, बैठना, तो उसमें। उस एक में। गुरु के पैर पड़ता हूं, तो परमात्मा का अपमान हो जाएगा। गुरु के इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम एक धारणा को पकड़ लेना, साथ इसीलिए तो थे कि परमात्मा को खोजना था। बड़ी दुविधा और सब धारणाओं को इनकार कर देना। अगर एक धारणा ही है! क्या करूं? भगवान का ढंग है, तो भगवान बड़ा सीमित हुआ। फिर वह / बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय निराकार न हुआ, फिर असीम न हुआ, फिर सारी सत्ता उसकी न | लेकिन गुरु ने तत्क्षण गोविंद को बता दिया कि तू गोविंद के ही हुई। वही होना चाहिए सभी में, तभी निराकार है। तभी शाश्वत पैर लग। पद तो कबीर का यहीं पूरा हो जाता है, पक्का नहीं फिर है, सर्वव्यापी है। वह पैर किसके लगे! मैं जानता हूं कि वह गुरु के लगे। क्योंकि 'और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना | उनकी इस दूसरी पंक्ति में ही साफ है—'बलिहारी गुरु चाहिए।' गुरु भी क्यों कहना! क्योंकि उपनिषद तो कहते हैं, आपकी।' गुरु ने कह दिया कि लग परमात्मा के, देर क्यों कर गुरु परमात्मा है, गुरुर्ब्रह्मा। झंझट हो जाएगी! अगर किसी को रहा है, रुक क्यों रहा है, सोच क्या रहा है? चुनाव थोड़े ही गुरु कहा, तो परमात्मा मान लिया उसको। सारे भारत के शास्त्र करना है। यहीं के लिए तो तुझे ले आया था अपने साथ, आ 311 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340147
Book TitleJinsutra Lecture 47 Guru Hai Dwar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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