Book Title: Jinsutra Lecture 27 Sadhu ka Sevan Aatmsevan
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / सत्ताईसवां प्रवचन साधु का सेवन H आत्मसेवन For Private & P al Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EPERIE - सूत्र सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।६६।।. दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।' ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।।६७ / / णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।।६८।। अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति।।६९।। आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरिते य। आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे।।७।। HAR Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - माच्छादित गौरीशंकर के शिखर करीब आने लगे। अहंकार को सुरक्षित कर लेते है। इस तरह ऊंचाई पास आती थी महावीर क्रमशः ऊंचाइयों और ऊंचाइयों पर उड़ रहे | तो हम उससे दूर हट जाते हैं। क्योंकि ऊंचाई के पास हमें अपनी हैं। समझना क्रमशः कठिन होता जायेगा। क्योंकि | नीचाई मालूम पड़ने लगती है! जिन ऊंचाइयों की हमें आदत नहीं है, उन ऊंचाइयों को समझना ऊंचाइयों से दूर मत हटना। उन्हें बुलाना! उनकी खोज तो दूर, उन ऊंचाइयों पर श्वास लेना भी कठिन हो जाता है। और | करना! तुम्हें जितने बड़े शिखर मिल जायें, उतना ही शुभ है। जिन ऊंचाइयों का हमें कोई अनुभव नहीं, उनके संबंध में शब्द क्योंकि जितने तुम्हें शिखर मिलें, उतने ही अहंकार के विसर्जन भला हमें सुनायी पड़ जायें, अर्थ का विस्फोट नहीं होता है। की संभावना बढ़ेगी, उतना ही तुम छोड़ पाओगे यह 'मैं' का गुजर जाते हैं शब्द हमारे पास से। अगर बहुत बार सुने हुए हैं तो खयाल। इसीलिए तो तीर्थंकरों, प्रबुद्ध पुरुषों को हमने बहुत ऐसी भ्रांति भी होती है कि समझ में आ गये। | स्वागत से कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी मौजूदगी हमें हीन इसे स्मरण रखना कि महावीर जो कह रहे हैं, वह अगर समझ करती मालूम पड़ने लगी। उनके सामने हम खड़े हुए तो छोटे में न आये तो स्वाभाविक है; समझ में आ जाये तो संदेह करना, | मालूम होने लगे। उनके पास हम आये, तो हम जैसे जमीन पर क्योंकि वही अस्वाभाविक है। | चींटियां रेंगती हों, ऐसे रेंगते हुए मालम होने लगे। तो दो ही अनुभव से ही समझ में आयेगा। उसके पहले ज्यादा से ज्यादा उपाय थे—या तो हम भी उनके साथ उड़ना सीखें और या हम इतना ही हो सकता है कि अनुभव के लिए एक प्यास प्रज्वलित उन्हें इनकार ही कर दें कि यह सब कल्पना-जाल है कि ये दूर हो जाये, कि अनुभव की आकांक्षा पैदा हो, कि काश, ऐसी की बातें सब काव्य-शास्त्र हैं; कि ये बातें कहीं हैं नहीं; ये सब ऊंचाइयों पर हम भी उड़ सकते! जिन दूर की बातों को महावीर | बातें हैं। या हम यह कहकर हट जायें कि ये बातें हमारी समझ में पास ला रहे हैं, काश हमारे भी जीवन की संपदा उन्हीं नहीं पड़तीं, तो जो समझ में ही नहीं पड़ती हैं उन बातों को स्वर्ण-रत्नों से बन सकती! मानकर हम चलें कैसे? वहां भी भूल हो जायेगी। प्यास उठ आये, बस इतना काफी है।...तो समझ में न आये, ध्यान रखनाः जो तुम्हारे समझ में नहीं पड़ता वह इसलिए तो धैर्य रखना। घबड़ाना मत! और ऐसा मत सोच लेना कि समझ में नहीं पड़ता कि उसका कोई अनुभव नहीं हुआ है। हमारी समझ में आएगा ही नहीं। और ऐसा तो भूलकर भी मत | अनुभव के बिना समझ कैसे होगी? अनुभव के बिना कोई सोच लेना कि यह बात समझने योग्य ही नहीं है। क्योंकि हमारा | अंडरस्टैंडिंग, कोई प्रज्ञा का प्रादुर्भाव नहीं होता। तो तुम यह मत मन इस तरह के बहुत उपाय करता है। अहंकारी मन हो तो वह कहना कि जब समझ में ही नहीं आता तो हम चलें कैसे? कह देता है, इन बातों में कुछ सार नहीं। इस तरह हम अपने क्योंकि चलोगे, तो ही समझ में आयेगा। यह तो तुमने अगर 579 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI LALIS GREH Crimalini ऐसा मान लिया तो अपने जीवन में एक ऐसे पत्थर को रख लिया के हटते ही सारी समझ हट जायेगी। तो समझ उनकी शब्दों का कि उसको पार करना फिर असंभव हो जायेगा। ही जोड़ है। कोई प्रेम को जानता नहीं; प्रेम करता है तब जानता है। और न और एक ज्ञानी की समझ है; तुम उससे सब शब्द छीन लो तो ही कोई परमात्मा को जानता है, जब तक उतरता नहीं उस गहराई भी उसकी समझ न छीन सकोगे। क्योंकि उसकी समझ अनुभव में। और न ही कोई आत्मा को जानता है, जब तक डूबता नहीं की है, शब्दों की नहीं। अगर शब्दों का उसने उपयोग भी किया अपने आत्यंतिक केंद्र पर। है तो अपनी समझ को तुम तक पहुंचाने के लिए किया है। शब्दों तो समझ नहीं है, इसको पत्थर की तरह उपयोग मत कर के उपयोग से उसने समझ को पाया नहीं है। वह बौद्धिक नहीं लेना। समझ आयेगी ही अनुभव से। इसलिए समझ से भी | है-अस्तित्वगत है, एक्जीसटेंशियल है। उसने जाना है. जीया ज्यादा जरूरी है साहस। इसे मैं फिर से दोहराऊंः अध्यात्म के है। तो तुम उसके सारे शब्द छीन लो, तब भी तुम उसकी समझ मार्ग पर समझ से भी ज्यादा जरूरी है साहस। क्योंकि साहस हो न छीन पाओगे। उसकी समझ शब्दों से बहुत गहरी है। उसने तो आदमी अनुभव में उतरता है; अनुभव में उतरे तो समझ आती मौन में समझ पायी है। उसने तो खुद ही शब्द छोड़ दिये थे, तब है। इसलिए जिनको तुम समझदार कहते हो वह वंचित ही रह | समझ आयी है। जाते हैं। क्योंकि समझदार यह कहेगा, यह अपनी समझ में नहीं तो इसे खयाल रखना। और एक खतरा है कि कुछ लोग ऐसे आती। जो समझ में नहीं आती, चलूं कैसे? पता नहीं कोई भी हैं जो इन वचनों को समझ लेंगे, समझते मालूम पड़ेंगे; भटकाव न हो जाये। पता नहीं जो हाथ में है, कहीं वह भी न खो | क्योंकि ये वचन कोई बहुत दुरूह नहीं हैं। इनकी दुरूहता अगर जाये! ये बड़ी दूर की बातें, आकाश की बातें, कहीं मेरी पृथ्वी कहीं है तो अनुभव में है, वचनों में नहीं है। वचन तो बड़े को उजाड़ न दें! एक छोटा घर बनाया है-वासना का, तृष्णा सीधे-साफ हैं। महावीर ने एक भी जटिल विचार का उपयोग का-एक छोटा संसार रचाया है। ये कहीं परमात्मा और आत्मा | नहीं किया-कोई ज्ञानी पुरुष कभी नहीं किया है। जटिल के खयाल, यह दिव्य प्यास, कहीं मेरी सारी घर-गृहस्थी को विचारों का उपयोग तो वे लोग करते हैं जिनके पास कुछ भी नहीं डांवाडोल न कर दे। है; और केवल बड़े-बड़े शब्दों की छाया में अपने अंधकार को तो समझदार आदमी कहता है, जब समझ में आयेगी तब छिपा लेना चाहते हैं। करेंगे। साहसी कहता है, समझ में नहीं आती तो करेंगे और दार्शनिक बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं; बड़े-बड़े लंबे देखेंगे और समझेंगे। | वचनों का उपयोग करते हैं। तुम उनके वचनों के बीहड़ में ही खो साहस! वस्तुतः दुस्साहस चाहिए! इसलिए तो महावीर को जाओगे। तुम्हें यह पक्का हो ही न पायेगा कि वे क्या कहना हमने महावीर नाम दिया। उन्होंने बड़ा दुस्साहस किया। वह चाहते थे। उनके पास कहने को कुछ था भी नहीं। लेकिन जो समझ के लिए न रुके। वह अनुभव में उतर गये।...जुआरी की नहीं था उनके पास कहने को, उसको उन्होंने इस ढंग से फैलाया हिम्मत! सब दांव पर लगा दिया। फिर समझ भी आयी। कि शब्द-जाल ऐसा बड़ा हो गया कि तुम समझ ही न पाये। न क्योंकि समझ अनुभव की छाया की तरह आती है। समझने के कारण कई बार तुम्हें लगता है, बड़ी गहरी बात है। तो दुनिया में दो तरह की समझ है। एक तो समझदारों की, महावीर जैसे पुरुष सुलझाने को हैं, उलझाने को नहीं। उनके जिनको तुम समझदार कहते हो-उनकी समझ अनुभव से नहीं वचन सीधे-साफ हैं; दो टूक हैं; गणित की तरह स्पष्ट हैं। दो आती; उनकी समझ सिर्फ बौद्धिक है, सिर्फ बुद्धि की है। वह और दो चार-बस ऐसे ही उनके वचन हैं। शब्दों को समझ लेते हैं; शब्दों का संयोजन समझ लेते हैं; शब्दों | तो खतरा यह भी है कि तुम्हें वचन सुनकर ऐसा लगे कि अरे, का व्याकरण समझ लेते हैं; शब्दों का अर्थ भी बिठा लेते समझ गये। वहां मत रुक जाना। वह समझ कुछ काम न हैं लेकिन बस सब खेल शब्दों का होता है! आयेगी। अगर तुम महावीर के वचनों को सुनकर समझ गये तो शब्दों को हटा लो तो उनके पीछे कोई समझ बचेगी नहीं; शब्द फिर महावीर ने बारह वर्ष मौन और ध्यान साधा, तो बहुत कम 15801 Jail Education International Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि के आदमी रहे होंगे। तुम सुनकर समझ गये। महावीर को इसलिए मैं किसी मान्यता को कैसे पकडूं? मैं कैसे कहूं कि क्या बारह वर्ष लगे, कठोर तपश्चर्या के, गहन संघर्ष के, रत्ती-रत्ती ठीक है? मुझे कुछ भी पता नहीं है। अपने को छांटा और काटा और जलाया, निखारा, जब तो ऐसा जो अज्ञान में खड़ा हो जाता है शांत चित्त से, जबर्दस्ती अंतरज्योति पूरी शुद्ध हो गयी तब उन्हें यह समझ पैदा हुई। ज्ञान को नहीं पकड़ लेता, छिपाता नहीं ज्ञान के आवरण में अपने तुम्हारा धुएं से भरा हुआ मन, ईंधन गीला, लपट कहीं दिखायी | को, ज्ञान के वस्त्रों में अपने को ढांकता नहीं, जो अपने अज्ञान नहीं पड़ती, बस धुआं ही धुआं फैलता मालूम होता है-इसमें ये को स्वीकार कर लेता है-वही व्यक्ति ज्ञान की तरफ पहला शब्द तुम्हें याद हो सकते हैं। बहुत से पंडितों को याद हैं। इन कदम उठाता है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। ज्ञान की तरफ शब्दों को तुम तोते की तरह कंठस्थ कर ले सकते हो। उस पहला कदम अपने अज्ञान के साथ ईमानदारी से खड़े हो जाना याददाश्त को तुम प्रज्ञा मत समझ लेना। है। हम में से बहुत कम लोग ही ईमानदारी से खड़े होते हैं अज्ञान तो दो बातें स्मरण रखना : समझ में न आयें तो इनकार मत के साथ। अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार को चोट लगती करना; और समझ में आ जायें तो भी वहीं मत रुक जाना। इन है। अहंकार चाहता है दावा करना कि मैं जानता हूं। तो हम दोनों के बीच में मार्ग है। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने शास्त्र से, परंपरा से, अन्यों से, शिक्षकों से, गुरुओं से, कहीं न योग्य है। इतना ज्यादा भी समझ में न आ जाये कि पा लिया। कहीं से इकट्ठा कर लेते हैं ज्ञान।। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। प्यास जग जाये तुम्हारा ज्ञान सभी कुछ नय-पक्ष है। वह तुमने इकट्ठा किया है, और यात्रा शुरू हो जाये। तो किसी दिन अनुभव भी घटेगा। तुम जाना नहीं है। पक्षपात से भरे हो तुम। हर चीज के संबंध में भी उड़ोगे उन आकाश की ऊंचाइयों में। तुम्हें भी पंख लगेंगे! तुमने कुछ तय कर लिया है। तुम तय करके बैठे हो। तुम तय 'जो सब नय-पक्षों से रहित है, वही समयसार है। उसी को करके बैठे हो, इसलिए तुम्हारी आंख खाली नहीं है: पक्ष से सम्यक दर्शन और सम्यकज्ञान की संज्ञा दी है।' आंख दबी है। पक्ष की कंकड़ी तुम्हारी आंख में पड़ी है। तो सम्मदंसणणाणं, ऐसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। कंकड़ी जब आंख में पड़ी हो तो फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता। सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।। महावीर कहते हैं, आंख खाली चाहिए, निर्मल चाहिए! आंख 'सव्वणयपक्खरहिदो'-जिसका मन सभी पक्षों से रहित है, ऐसी चाहिए कि सिर्फ देखती हो और आंख में कछ न पड़ा हो। जो सब नय-पक्षों से शून्य है, वही समयसार है। समयसार का क्योंकि अगर आंख में कुछ भी पड़ा हो तो जो तुम देखोगे वह अर्थ होता है : वही आत्मा की सार स्थिति है। वही अस्तित्व का विकृत हो जायेगा। निचोड़ है। वहीं तुम हो, वहीं तुम्हारी आत्मा है जहां न कोई सोचो...अगर तम जैन हो, पढ़ो गीता-तम्हें समझ में आ नय है, न कोई पक्ष है। इसे समझें। जायेगा। तुम गीता पढ़ ही न पाओगे, तुम्हें रस ही न आयेगा। साधारणतः तो हम नय-पक्षों से भरे हैं। कोई हिंदू है, कोई घड़ी-घड़ी तुम्हारा जैन धर्म बीच में खड़ा हो जायेगा। तुम्हें ऐसा मुसलमान है, कोई ईसाई है। जब तक तुम हिंदू हो, जैन हो, लगेगा, ये कृष्ण तो अर्जुन को भ्रष्ट करने लगे। ऐसा तुम कहो ईसाई हो, तब तक तुम्हें समयसार का पता न चलेगा। आत्मा का या न कहो, तुम्हारे भीतर यह पक्ष खड़ा रहेगा। आज तक किसी रस तुम्हें उपलब्ध न होगा। क्योंकि आत्मा न हिंदू, न मुसलमान, जैन ने गीता पर कोई वक्तव्य नहीं दिया, कोई महत्वपूर्ण बात न जैन है। | नहीं कही। गीता को किनारे हटा दिया है। जब तक तुम कहते हो, 'मेरी ऐसी मान्यता है, तब तक तुम हिंदु से कहो कि महावीर के वचन सुने, पढ़े? पढ़ भी ले तो सत्य को न जान सकोगे, क्योंकि सभी मान्यताएं सत्य को जानने मुर्दा भाव से पढ़ जायेगा। क्योंकि भीतर तो वह जानता ही है कि में बाधा बन जाती हैं। मान्यता का अर्थ है कि बिना जाने तुम सब गलत है। हिंदू से कहो कुरान को पढ़े, तो भीतर तो वह जानते हो। तो जिसने बिना जाने जान लिया है, वह जान कैसे मानता ही है कि क्या रखा है! कहां वेद, कहां उपनिषद ! क्या सकेगा फिर? मान्यता-शून्य होने का अर्थ है : मुझे पता नहीं; रखा है कुरान में? वही कुरान के माननेवाले की स्थिति है। वही AMAVACAR Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग 1 बाइबिल को माननेवाले की स्थिति है। बाइबिल को माननेवाला तुम चुन लेते हो; जो विपक्ष में पड़ता है, वह तुम छोड़ देते हो।। जब वेद पढ़ता है तो उसे लगता है, बस गांव के ग्रामीण गडरियों सत्य को जानने का यह ढंग न हुआ। यह तो असत्य में जीने के गीत हैं, इससे ज्यादा नहीं। जब वेद को माननेवाला | का ढंग हुआ। तो महावीर कहते हैं: आर्यसमाजी पंडित बाइबिल को पढ़ता है तो उसमें से कुछ भी सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेस! सार नहीं पाता; उसमें से सब कचरा-कूड़ा इकट्ठा कर लेता है। / सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।। अगर तुम्हें इस दृष्टि की, पक्षपात से भरी दृष्टि की, जो सब नय-पक्षों से रहित है; जिसकी कोई धारणा नहीं, ठीक-ठीक उपमा चाहिए हो तो दयानंद का ग्रंथ 'सत्यार्थ मान्यता नहीं; जिसका कोई विश्वास-अविश्वास नहीं; जो नग्न प्रकाश' पढ़ना चाहिए। वह पक्षपात से भरी आंख का, उससे चित्त है; जो दिगंबर है; जिसके ऊपर कोई आवरण नहीं; ज्वलंत प्रमाण कहीं खोजना मुश्किल है। तो सभी में भूलें आकाश ही जिसका आवरण है; विराट ही जिसका आवरण है; निकाल ली हैं उन्होंने-और बेहूदी भूलें, जो कि निकालनेवाले इससे कम को जिसने स्वीकार नहीं किया है-ऐसा नग्न चित्त, के मन में छिपी हैं, जो कहीं भी नहीं हैं। लेकिन निकालनेवाला शांत मन, निष्पक्ष व्यक्ति-वही समयसार है। वह जान लेगा पहले से मानकर बैठा है। आत्मा का सारभूत, आत्मा का सत्य, उसे अस्तित्व की पहचान जो तुम मानकर बैठ जाते हो वह तुम खोज भी लोगे। अगर मिलेगी। वह अस्तित्व के मंदिर में प्रवेश पा सकेगा। पात्रता, तुम्हीं मानकर बैठे हो तो फिर मुश्किल है। तुमने जानने के पहले पक्षपात रहित हो जाना है। अगर धारणा तय कर रखी है, तो तुम सत्य को कभी भी न जान | ___ महावीर के पास लोग आते, प्रश्न पूछते, तो महावीर कहते, पाओगे; तुम सत्य को कभी मौका न दोगे कि तुम्हारे सामने प्रगट 'तुम कुछ पहले से ही मानते तो नहीं हो? अगर मानते हो तो हो जाये। बात व्यर्थ, फिर संवाद न हो सकेगा।' / मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने एक मित्र दर्जी से कपड़े बनवाये। जब कोई मानकर ही चलता है तो विवाद हो सकता है, संवाद जब वह कपड़े पहनने गया, उठाने गया, दर्जी ने उसे पहनाकर नहीं हो सकता। जब कुछ मानकर कोई भी नहीं चलता; जब बताया। उसे कपड़े जंचे नहीं; कुछ बेहूदे थे; कुछ अटपटे थे। कोई तैयार है सत्य के साथ जहां ले जाये; जब कोई इतना कछ शरीर पर बैठते भी न थे। लेकिन दर्जी प्रशंसा मारे जा रहा हिम्मतवर है कि सत्य जो दिखाएगा उसे स्वीकार था। वह गणगान किए जा रहा था। वह कह रहा था, 'देखो तो करूंगा तभी, महावीर कहते हैं, संवाद हो सकता है। तब जरा दाहिने आईने में! तुम्हारे मित्र भी तुम्हें पहचान न पायेंगे। महावीर कहते हैं, ज्यादा कुछ कहने को भी नहीं है। क्योंकि सत्य तुम्हारी पत्नी भी शायद ही तुमको पहचान पाए। इतने सुंदर को कहा तो नहीं जा सकता। मैं कुछ इशारे कर देता हूं, तुम मालूम हो रहे हो...! जरा तुम बाहर तो जाओ, जरा सड़क पर इनका पालन कर लो। इन इशारों के पालन करने से धीरे-धीरे चक्कर लगाकर आओ!' तुम्हें भी वही अनभव होने लगेगा जो मझे हो रहा है। जिस द्वार मुल्ला बाहर गया-संकोच से भरा हुआ; क्योंकि बड़ा से खड़े होकर मैं देख रहा हूं जीवन को, तुम भी देख सकोगे मेरे अटपटा-सा लग रहा था उसे उन कपड़ों में। जल्दी ही भीतर आ करीब आ जाओ। लेकिन अगर तुम मानते हो कि तुम्हें द्वार मिल गया। जब वह भीतर आया तो दर्जी, जो उसका पुराना मित्र, | ही गया है, तो फिर तुम मेरे करीब न आओगे और व्यर्थ बोला, 'आइये राजकपूर साहब! बहुत दिनों बाद आये!' खींचा-तानी होगी। अब दर्जी मानकर ही बैठा है कि गजब के कपड़े उसने सी दुनिया में जहां भी जितनी बातचीत हो रही है, तुम अगर गौर दिये! जो तुम मानकर बैठे हो, तुम उसे सिद्ध करने की चेष्टा में करोगे तो बातचीत तो कहीं मुश्किल से होती है। संवाद कहां लग जाते हो, जाने-अनजाने। तुम सब तरह से प्रमाण जुटाते है? विवाद है। चाहे प्रगट हो, चाहे अप्रगट हो। जब भी दो हो। विपरीत प्रमाणों को तुम देखते ही नहीं। तुम्हारी आंखें व्यक्ति बात करते हैं तो खुलते कहां हैं? अपनी-अपनी चेष्टा में चुनाव करने लगती हैं। जो पक्ष में पड़ता है तुम्हारे पक्ष के, वह रत रहते हैं। 582 Jal Education International Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा HTRA साधु का सेवन आत्मसेवन महावीर ने कोई शास्त्रार्थ नहीं किया; किसी से कोई विवाद | कि महावीर जो कहते हैं, वह सही ही कहते हैं; इसीलिए महावीर नहीं किया। महावीर शंकराचार्य की तरह मुल्क में नहीं घूमे से दूर हो गया है। विवाद करते। महावीर की पकड़ बड़ी गहरी है। महावीर कहते | महावीर के साथ तो केवल वही खड़ा हो सकता है जो निष्पक्ष हैं, विवाद से क्या होगा? अगर कोई पहले से मानकर बैठा है है-इतना निष्पक्ष कि यह भी नहीं कहता कि महावीर ठीक हैं। तो उसे मनाया नहीं जा सकता। और अगर जबर्दस्ती उसे चुप इतना ही कहता है कि मुझे पता नहीं; मैं खोजने को तैयार हूं। करा दिया जाये, तर्क से हो सकता है, तो भी उसका हृदय थोड़े सूरज की कहीं से भी किरण आये, मैं पीछे जाने को तैयार हूं। मैं ही राजी होता है। कभी-कभी ऐसा हुआ है कि तर्क में तुम किसी अनंत की यात्रा के लिए तैयार हूं। से हार गये हो, तो भी दिल में तो तुम घाव लिए रहे हो हो कि और बिना मान्यता के यात्रा पर निकलना बड़ा दूभर है। ठीक है, देखेंगे; आज जरा मुश्किल हो गयी, हम तर्क ठीक न क्योंकि तुम कहते हो कि जब कोई मान्यता ही नहीं है, तो हम खोज पाये! चुप कर दिये गये हो तुम, लेकिन तुम्हारा हृदय यात्रा पर कैसे निकलें! वैज्ञानिक तक प्रयोग करने के पहले रूपांतरित तो नहीं हुआ। जबर्दस्ती तुम्हारी जबान रोक दी गयी हाईपोथिसिस निर्मित करता है। हाईपोथिसिस का मतलब है, है। यह हो सकता है, कोई तुमसे ज्यादा कुशल हो तर्क में। पक्ष तय करता है। तय करता है कि यह हो सकता है कम से तो तर्क में जो जीत जाता है, जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य कम। फिर यात्रा पर निकलता है। हो। और तर्क में जो हार जाता है जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य महावीर का विज्ञान वैज्ञानिक के विज्ञान से भी ज्यादा गहरा है। न हो। यह भी हो सकता है, जिसके पास सत्य है उसके पास महावीर कहते हैं, उतना पक्षपात भी खतरनाक है। क्योंकि उसी सत्य को सिद्ध करने का तर्क न हो। यह भी हो सकता है, पक्षपात के कारण तुम वह देख लोगे जो नहीं था। और यह बात जिसके पास सत्य को सिद्ध करने के तर्क हैं उसके पास कोई अब वैज्ञानिकों को भी समझ में आने लगी।। सत्य न हो। और जो कोई तर्क के द्वारा तुम्हें पराजित कर देता है। पोल्यानी ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी हैः पर्सनल वह केवल इतना ही सिद्ध कर रहा है कि वह तुमसे ज्यादा कुशल नालेज। तीन सौ वर्ष की वैज्ञानिक खोज के बाद वैज्ञानिकों को है, तुमसे ज्यादा अनुभवी है; इतना। उससे कुछ सिद्ध नहीं भी यह सिद्ध हो गया है कि हमारा जो ज्ञान है वह इम्पर्सनल नहीं होता। और यह भी हो सकता है कि वह तुम्हारे पीछे चलने लगे, है, अवैयक्तिक नहीं है; वह भी वैयक्तिक है। क्योंकि जो हार जाये तो तुम्हारे पीछे चले, तुम्हें मान ले। कल कुछ और वैज्ञानिक खोज करने जाता है, उसकी धारणा वह जो खोज करता मानता था, आज तुम्हें मान ले-लेकिन मान्यता तो मान्यता है। है उस पर आरोपित हो जाती है, उसको रंग देती है। इसलिए हम कल मानता था, ईश्वर नहीं है; आज तुमने तर्क दे-देकर सिद्ध जो भी जानते हैं, वह वस्तुतः ऐसा है, कहना मुश्किल है। कर दिया और उसने मान लिया कि ईश्वर है। कल एक मान्यता | खोजनेवाला उस पर हावी हो जाता है। से भरा था, आज दूसरी मान्यता से भर गया है-विपरीत तो पहले तो हम सोचते थे...अभी एक बीस वर्ष पहले तक मान्यता से; लेकिन मान्यता तो दोनों ही मान्यताएं हैं। ज्ञान का वैज्ञानिक यही सोचते थे कि विज्ञान निष्पक्ष है। अगर कोई जन्म न हुआ। आदमी किसी स्त्री के संबंध में कहता है, बड़ी सुंदर और तुम्हें महावीर कहते हैं, एक पक्ष को दसरे में नहीं बदलना है-पक्ष संदर नहीं लगती, तो तुम कहते हो, पसंद-पसंद की बात है। को गिरा देना है; तुम्हें निष्पक्ष होना है। इसलिए जैन भी महावीर इसमें कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। के अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि जैन होने में ही खराबी हो गयी। तुम कहते हो, 'चाहत की बात है। अपने रुझान की बात है। महावीर जैन न थे। महावीर के पास जैन होने का उपाय नहीं है। तुम्हें सुंदर मालूम पड़ती है, मुझे सुंदर नहीं मालूम पड़ती।' क्योंकि महावीर की मौलिक दृष्टि यही है कि सभी पक्ष भ्रष्ट कर झगड़ा खड़ा नहीं होता। क्योंकि जो आदमी कहता है, यह स्त्री देते हैं। अब जैन तो पहले से मानकर बैठ गया है कि महावीर सुंदर है, वह इतना ही कह रहा है कि मुझे सुंदर मालूम पड़ती है। ठीक हैं। इसीलिए वंचित हो गया है। पहले से मानकर बैठ गया यह पर्सनल, वैयक्तिक बात है; इसमें झगड़ा नहीं है। एक 583 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदमी को एक तरह की सिगरेट पसंद पड़ती है, दूसरे आदमी तुम्हारा मन सक्रिय रूप से भाग न ले ज्ञान की खोज में, निष्क्रिय को दूसरी तरह की पड़ती है। एक आदमी को एक तरह का रहे; एक्टिव न हो, पैसिव रहे। स्त्रैण हो तुम्हारा चित्त! सिर्फ जो साबुन पसंद है, दूसरे को दूसरी तरह का पसंद है। एक आदमी | हो रहा है उसको स्वीकार करे; लेकिन कैसा होना चाहिए, कैसा को एक तरह का फूल लुभाता है, दूसरे को दूसरी तरह का होता, ऐसी कोई धारणा प्रक्षेपण न करे। इसे खयाल में लेना। लुभाता है। कोई कहता है सुबह बड़ी सुंदर है, कोई कहता है मुझे | जगत में खोज के दो उपाय हैं-एक निष्क्रिय, एक सक्रिय। जंचती नहीं तो कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता; विवाद का कोई सक्रिय में तुम चेष्टा करते हो कुछ खोजने की; निष्क्रिय में तुम कारण नहीं, यह व्यक्तिगत रुझान है। लेकिन अगर कोई आदमी केवल निष्पक्ष भाव से खड़े होते हो। सक्रिय चेष्टा विचार बन कहे, यह स्त्री सुंदर है, यह वैज्ञानिक सत्य है, तो फिर झगड़ा जाती है; निष्क्रिय चेष्टा ध्यान बन जाती है। जब तुम सक्रिय खड़ा होगा। वैज्ञानिक सत्य कहने का अर्थ यह हुआ कि यह होकर खोज में लग जाते हो तो तुम विचारों से भर जाते हो; सभी के लिए सुंदर है। तो फिर अड़चन आयेगी। क्योंकि विचार मन के सक्रिय होने का अंग हैं। मन जब सक्रिय अब तक वैज्ञानिक मानते थे कि उनका सत्य वैज्ञानिक है और होता है तो विचार से भर जाता है। मन जब निष्क्रिय होता है तो बाकी जो वक्तव्य हैं वे कवियों के हैं। लेकिन पोल्यानी की कोरा रह जाता है। आकाश में बादल हों तो सक्रिय; आकाश में किताब ने और पोल्यानी की खोजों ने जीवनभर यह सिद्ध करने | कोई बादल न हो तो निष्क्रिय, कोई क्रिया नहीं हो रही। की कोशिश की कि विज्ञान भी वैयक्तिक है। आइंस्टीन जो कह महावीर कहते हैं, मन की सारी क्रिया शून्य हो जाये, रहा है, वह आइंस्टीन कह रहा है। न्यूनट जो कह रहा है, वह | नय-पक्षरहित हो जाये-सव्वणयपक्खरहिदो-तो जो शेष रह न्यूटन कह रहा है। यद्यपि आइंस्टीन जो कह रहा है वह इतने | जाता है उस निष्क्रिय चित्त की दशा में जिसको लाओत्स ने प्रबल तर्क से कह रहा है कि अभी हम उसका विरोध न कर वू-वेइ कहा है-ऐसी निष्क्रियता, दर्पण जैसी निष्क्रियता; जैसे पायेंगे जब तक कि प्रबलतर आइंस्टीन न आ जाये। और यह दर्पण 'जो है' उसको झलका देता है। अगर दर्पण कुछ जोड़ता तीन सौ साल में निरंतर हुआ। न्यूटन ने जो कहा वह आइंस्टीन है, घटाता है, तो सक्रिय हो गया; जैसा है वैसा का वैसा, तैसे ने गलत कर दिया। ऐसी-ऐसी चीजें जिनके बाबत हम सोचते थे का तैसा झलका देता है। उस स्थिति को महावीर कहते हैं, बिलकुल सही हैं, वह भी सही न रहीं। ज्यामति जैसा शास्त्र भी उपलब्ध हो जाओ तो वही समयसार है। वही अध्यात्म का सही न रहा। इकलेट ने जो सिद्ध किया था, वह गलत हो गया। निचोड़ है। वहीं से तुम्हें अनुभव का जगत शुरू होगा। उसी को दूसरे लोगों ने उससे विपरीत मान्यताएं सिद्ध कर दीं। गणित सम्यक दर्शन और उसी को सम्यक ज्ञान की संज्ञा दी है। जैसा विषय भी अब वैज्ञानिक नहीं रहा। क्योंकि गणित की महावीर कहते हैं, और सब तो शब्द हैं, मगर असली बात वही सामान्य मान्यताओं के विपरीत भी मान्यताएं लोगों ने सिद्ध कर है। सम्यक ज्ञान कहो, सम्यक दर्शन कहो या कुछ और कहना दी और नये गणित विकसित हो गये। तो अब तो दिखायी पड़ता हो-ध्यान, समाधि, निर्विकल्प दशा जो भी कहना हो कहो। है कि सारा ज्ञान व्यक्तिगत है, रुझान है। वह आदमी के ऊपर लेकिन एक बात तय है कि वह निष्क्रिय दशा है। जिसमें तुम निर्भर है। कुछ भी हिस्सा नहीं बंटाते; तुम सिर्फ खड़े रह जाते हो। इसे महावीर कहते हैं, जो परम सत्य को मानने चला है, मान्यता तो थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। यह मेरे कहने भर से साफ न हो दूर, हाइपोथिसिस, परिकल्पना भी ठीक नहीं, नय भी ठीक जायेगा-इसका थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। कभी इसकी नहीं। नय का अर्थ होता है : बड़ी सूक्ष्म-सी रेखा दृष्टि की; कोई झलक मिलेगी। नाच उठोगे तुम, जब इसकी पहली झलक दृष्टिकोण; कोई हाइपोथिसिस। वह भी ठीक नहीं। उसे खाली मिलेगो। तुम भरोसा न कर पाओगे कि अरे, मैं अब तक यह जाना चाहिए-कोरा। तुम्हारे मन के कागज पर कुछ भी न क्या करता रहा! तुम्हारा सारा जीवन तब एक नयी रूप-रेखा से लिखा हो, अन्यथा जो लिखा है उसका प्रक्षेपण हो जायेगा। भर जायेगा। थोड़ा अभ्यास करो। तुम्हारा मन का कागज बिलकुल कोरा हो। इसका अर्थ हुआ, शांत बैठकर वृक्ष को देखते हो तो देखते ही रहो। सक्रिय मत Wat ducation International Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनो। इतना भी मत कहो कि यह पीपल का वृक्ष है। यह भी मत न रहा। तुम खयाल रखना, दूध ही अशुद्ध नहीं होता, पानी भी कहो कि यह गुलाब की झाड़ी है। यह भी मत कहो कि गुलाब अशुद्ध हो गया। तुम दूध को कहते हो अशुद्ध हो गया, पानी को कितने सुंदर हैं। यह भी मत कहो कि अहा, कितने प्यारे फूल नहीं कहते; क्योंकि पानी तो मुफ्त मिलता है, इसलिए कोई चिंता खिले हैं! ऐसा मन में कुछ भी मत कहो। क्योंकि ये सब नहीं है, कोई आर्थिक सवाल नहीं उठता। तुम कहते हो, दूध नय-पक्ष हैं; ये सब तुम्हारी मान्यताएं हैं। अशुद्ध हो गया। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, पानी भी गुलाब का फूल तो बस गुलाब का फूल है-न सुंदर, न अशुद्ध हो गया है। अगर किसी क्षण शुद्ध पानी की जरूरत हो, असुंदर। सुबह तो बस सुबह है। सब वक्तव्य तुम्हारे हैं; सुबह / तब तुम समझोगे कि अरे, यह तो पानी भी अशुद्ध हो गया, दूध तो अवक्तव्य है। उसके बाबत तो कोई वक्तव्य नहीं हो सकता। मिला दिया! मिलावट अशुद्धि है। अनिर्वचनीय है। सब वचन तुम्हारे हैं। तुम अपने को हटा लो। तो जब तुम अस्तित्व में मिलावट करते हो, जब तुम कुछ तुम कुछ कहो ही मत। तुम सक्रिय बनो ही मत। तुम सिर्फ सुबह डालते हो, उंडेलते हो, जब तुम दूध में पानी डाल देते हो, तब को देखते रह जाओ। ऊगता है सूरज, ऊगने दो। वृक्षों में हवा सब अशुद्ध हो जाता है—तुम भी, अस्तित्व भी। जब तुम खड़े सरसराती है, सरसराने दो। तुम शब्द न दो। तुम शब्द को मत रह जाते हो-तटस्थ, साक्षी; यहां अस्तित्व, यहां तुम; दो बनाओ। तुम शब्द से रिक्त और शून्य देखते रहो, देखते रहो। दर्पण एक-दूसरे के सामने, बिना कुछ डाले हुए—तब दो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे-धीरे अभ्यास घना होगा। कभी ऐसा क्षण शुद्धियों का साक्षात्कार होता है। आ जायेगा, एक क्षण को भी, कि तुम सिर्फ देखते रहे और इस साक्षात्कार की अवस्था को महावीर कहते हैं समयसार। तुम्हारे भीतर डालने को कुछ भी न था। तुमने कुछ भी न डाला | और जब तक यह न हो जाये तब तक तुम्हारी जिंदगी नाममात्र को अस्तित्व में, तुम सिर्फ खड़े देखते रहे, दर्शक, द्रष्टा-मात्र, जिंदगी है, अशुद्ध है, कुनकुनी जिंदगी है। इसमें ज्वाला न जिसको महावीर कहते हैं ज्ञायक-मात्र—सिर्फ देखते रहे! उस होगी। इसमें प्रकाश...यह ज्योतिर्मय न होगी। इसमें आनंद के घड़ी में एक झरोखा खुलता है। पहली दफा अस्तित्व तुम्हारे फूल न लगेंगे, न प्रसाद होगा। सामने अपने रूप को प्रगट करता है। पहली बार तुम उसे देखते जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना हो, जो है। क्योंकि पहली बार तुम कुछ जोड़ते नहीं, मिलाते उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना। नहीं, तुम कुछ डालते नहीं। तुम भी शुद्ध होते हो उस घड़ी में नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम और अस्तित्व भी शुद्ध होता है। दो शुद्धियां एक-दूसरे का | सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। यह खिलकर साक्षात्कार करती हैं। इसे महावीर कहते हैं समयसार। | जल ही नहीं पाता, यह खुल के प्रज्वलित नहीं हो पाता। यह तुमने कभी खयाल किया। दूधवाला दूध में पानी मिला लाता | इसकी ज्योति ज्योति ही नहीं बन पाती-बुझी-बुझी, है; तुम कहते हो अशुद्ध कर दिया। तुमने इस पर कभी विचार बुझी-बुझी, टिमटिमाती! किया कि उसने शुद्ध पानी मिलाया हो तो? अशुद्ध क्यों कह रहे | जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना हो? वह कहेगा कि हमने तो दोहरा शुद्ध कर दिया-शुद्ध पानी उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना शुद्ध दूध, दोनों को मिलाया; अशुद्धि तो कुछ मिलायी नहीं है। नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम पानी भी शुद्ध था, प्राशुक था। दूध भी शुद्ध था। अशुद्धि कैसे सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। क्योंकि हमने कह रहे हो, किस कारण कह रहे हो? फिर भी तुम कहोगे, दूध जिंदगी को मौका ही नहीं दिया। हमने जिंदगी पर इतनी शर्ते लगा अशुद्ध है। दी हैं। हमने जिंदगी पर इतने अवरोध खड़े कर दिये हैं, हमने अशुद्धि का कारण यह नहीं कि तुमने अशुद्धि मिलायी। दो | जिंदगी की ज्योति के आसपास इतने पक्ष-विपक्ष, धारणाएं, शुद्धियां भी मिला दो तो अशुद्धि का परिणाम आता है। अशुद्ध | मान्यताएं, विचार, ऐसा घेरा बांध दिया है, किला खड़ा कर दिया कहने का इतना ही अर्थ है कि दूध अब दूध न रहा और पानी पानी है, ईंट पर ईंट रख दी है विचारों और पक्षों की, कि जिंदगी की MM 5851 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 लपट उठे कैसे, प्रगट कैसे हो? एक मेहमान के पीछे दूसरा चला आता है। रिश्तेदारों के जिसे तुम अभी टिमटिमाता हुआ दीया जानते हो, वही महावीर | रिश्तेदार! में प्रज्वलित सूर्य होकर जला है। वही जीवन! वही कबीर ने मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक दफा एक आदमी कहा है कि एक सूरज, एक सूरज कहने से न हो सकेगा; जिस आया पास के गांव से और एक बतख दे गया। कहा कि गांव के दिन मैं जागा, हजार-हजार सूरज मेरे भीतर एक साथ जल उठे। तुम्हारे मित्र ने भेजी है। मुल्ला बड़ा खुश हुआ। उसने उस प्रकाशमयी दशा के लिए कोई उपमा खोजना मुश्किल है। बतख...उसने कहा कि रुको, शोरबा तो पीते जाना। उसने हजार-हजार सूरज भी कम पड़ते हैं, क्योंकि सूरज तो एक न एक शोरबा बनवाया, मित्र को पिलाया और कहा कि कभी भी आओ दिन चुक जाएंगे। सभी सूरज चुक जाते हैं। यह हमारा सूरज तो जरूर आना। कोई दो-तीन दिन बाद एक दूसरा आदमी भी, वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार सालों में ठंडा हो जायेगा। आया। मुल्ला ने पूछा, आप कौन हो? उसने कहा, कि जो इसका ईंधन चुकता जा रहा है। आखिर कब तक जलता बतख लाया था उसका मैं मित्र हूं। कोई बात नहीं, मित्र के मित्र रहेगा? सब ईंधन की सीमा है। कितना ही बड़ा हो, करोड़ों हो तो भी मित्र हो। उसको भी उसने भोजन करवाया, साल जले तो भी एक सीमा आती है और चुक जायेगा। सांझ खिलवाया-पिलवाया। यह तो सिलसिला अंतहीन होने लगा। दीया जलाया, सुबह बुझ जायेगा; फिर रात कितनी ही लंबी होः फिर दो-तीन दिन बाद एक आदमी आ गया। उसने कहा, मित्र लेकिन भीतर का दीया कुछ ऐसा है कि वह ज्योति शाश्वत है। के मित्र का मित्र। ऐसे यह संख्या बढ़ने लगी। तो मुल्ला बहुत हजारों सूरज जलते हैं और बुझ जाते हैं और उस भीतर की घबड़ा गया। दो-तीन महीने में तो मुल्ला बहुत घबड़ा गया कि ज्योति का कभी बुझना नहीं होता। इसलिए हजार सूरज का यह तो एक बतख क्या भेजी, यह तो सारा गांव आये जा रहा है! प्रतिमान भी छोटा है। लेकिन छोड़ो सूरज की तो बात दूर, हम तो उसने कहा, कुछ करना पड़ेगा। फिर एक आदमी आ गया अपने भीतर के दीये को टिमटिमाता दीया भी नहीं कह सकते। दो-चार दिन बाद। अब तो बहुत संख्या आगे हो गयी ज्योति मालूम ही नहीं पड़ती। | थी-मित्र के मित्र, मित्र के मित्र। काफी लंबी शृंखला हो गयी अनेक लोग सुनकर सुकरात की बात, कि महावीर की बात, थी। उसने कहा, अब कुछ बताने की जरूरत नहीं, ठीक है। कि बुद्ध की, कि कृष्ण की बात भीतर जाने की चेष्टा करते हैं। उसने पत्नी से कहा, सिर्फ गर्म पानी बना दे, कुछ और बनाना क्योंकि ये सभी लोग कहते हैं, जानो अपने को! आंख बंद करके मत। गर्म पानी लेकर उसको पीने को दिया। कहा, बतख का भीतर जाने की कोशिश करते हैं, जल्दी से बाहर लौट आते हैं; शोरबा है। उसने चखा, उसने कहा, यह तो सिर्फ गर्म पानी क्योंकि अंधेरा ही अंधेरा मालूम पड़ता है। और ये सब तो कहते मालूम होता है; इसमें बतख तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। उसने हैं, बड़ा ज्योतिर्मय लोक है! कहा कि खाक दिखाई पड़ेगी, यह शोरबे के शोरबा का शोरबा नहीं, अभी तुम भीतर न जा सकोगे। अभी तो तुमने बाहर को का शोरबा...सिर्फ पानी बचा है अब! भी शुद्ध आंख से नहीं देखा। अभी तो तुमने क ख ग भी नहीं विचार से और विचार निकल आते हैं। पहला विचार ही व्यर्थ पढ़ा जीवन के सत्य का। था, दूसरा और भी व्यर्थ होता है। तीसरा और भी व्यर्थ होता है। इसलिए महावीर का पहला सूत्र कहता है: जो सब नय-पक्षों | अंत में तुम्हारे पास विचारों की भीड़ लग जाती है, जिनमें से रहित वही समयसार है। और अगर ऐसा न किया तो एक पक्ष | सार्थकता कुछ भी नहीं होती। में से दूसरा पक्ष निकलता जाता है। जैसे एक वृक्ष में अनेक | मिलते गये हैं मोड़ नए हर मुकाम पर शाखाएं निकलती हैं। फिर एक शाखा में अनेक उपशाखाएं बढ़ती गई है दूरी-ए-मंज़िल जगह-जगह। निकलती हैं ऐसा तुमने अगर एक पक्ष बनाया तो जल्दी ही तुम और एक-एक मोड़ नए मोड़ ले आता है और तुम बढ़ते जाते पाओगे, तुम बहुत पक्षों से घिर गये। एक मेहमान को घर हो, और मंजिल दूर होती जाती है। और जितने तुम चलते जाते लाओगे, जल्दी ही पाओगे मेहमानों की भीड़ लग गई; क्योंकि | हो विचारों में उतने ही तुम अपने से दूर होते जाते हो, क्योंकि वही 5861 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NARENER साधका सवनः आत्मस मंजिल है। नहीं अभी। यह तो वह जो डाक्टर ने कहा था, भेड़ गिनो...कहां अगर उस स्वयं को पाना हो तो लौटो उलटे, चलो गंगोत्री की का नासमझ आदमी। भेड़ें गिनी, ऊन काटा, कपड़े बनाये, तरफ! छोड़ो एक-एक विचार को। और जब तुम आखिरी बाजार में बेचने खड़े हो गये...खरीददार नहीं है। और इतना विचार पर आओगे, तब तुम्हें पता चलेगा : यह मेरा पक्षपात था, सब बना लिया है कि बरबाद हो जायेंगे। जिससे सारी यात्रा शुरू हुई। उस पक्षपात को भी गिरा दो। विचार एक के बाद एक चलते चले जाते हैं—या तो अतीत के तुम्हारे भीतर उठेगा। उस निर्विचार में ही समयसार है। होते हैं या भविष्य के होते हैं। तो या तो स्मृति पैदा करते हैं वे और जब तक वैसी शुद्ध दर्पण की दशा न आ जाये, तब तक और स्मृति के घावों को उघाड़ते हैं, या फिर कल्पना पैदा करते हैं तुम जिंदगी को तो जानोगे ही नहीं, न अपने को जानोगे। क्योंकि और कल्पना से वासना को उकसाते हैं। तो या तो तुम अपने तुम चूकते ही रहोगे। जिंदगी है प्रतिपल अभी और यहां-और घावों को कुरेदते रहते हो, जो कि बड़ी व्यर्थ प्रक्रिया है और उससे मिलने नहीं देता, क्योंकि विचार सदा कहीं खतरनाक भी; क्योंकि उनसे घाव हरे बने रहते हैं। और है-या तो भविष्य में या अतीत में। या तो अतीत की लौट-लौटकर, किसी ने गाली दी थी, तुम सोचने लगते हो; स्मृतियों से जुड़ा है विचार, जो कल हो चुका, परसों बीत लौट-लौटकर क्रोधित होने लगते हो। चुका-उसका सब संग्रह। उसकी तुम उधेड़-बुन में लगे रहते कभी तुमने खयाल किया! अगर तुम विचार करने बैठ जाओ हो। और या भविष्य...। और ठीक से स्मृति को जगाओ तो जब तुम्हें किसी ने गाली दी थी मुल्ला नसरुद्दीन को नींद न आती थी। एक डाक्टर ने कहा कि और अपमान किया था, तो उसकी स्मृति ही न आएगी; तुम तू ऐसा कर भेड़ें गिन; भेड़ें गिनने से बड़ा लाभ होता है, अचानक पाओगे, फिर तुम्हारे रग-रेशे में क्रोध आ गया, तुम्हारे गिनते-गिनते नींद आ जाती है। गिनते गए; एक, दो, तीन, रोएं-रोएं में फिर क्रोध दौड़ गया! तुम फिर कुछ करने को उतारू हजार, दस हजार, लाख, जहां तक...बस चलते गए, चलते हो गये! फिर घाव हरा हो गया। गए। एक ऐसी घड़ी आयेगी कि थककर तू नींद में गिर जाएगा। या तो तुम घाव कुरेदते हो और या तुम भविष्य में कामना को मुल्ला ने कहा, ठीक। उसने भेड़ें गिननी शुरू की। वह कई | उकसाते हो। लाख पर पहुंच गया। उसने कहा, ऐसे तो बढ़ते गये तो ये तो दोनों खतरनाक हैं। क्योंकि सभी कामनाएं आज नहीं कल करोड़ों अरबों हो जायेंगी। फिर करेंगे क्या इनका? तो उसने विषाद में रूपांतरित हो जाएंगी। सभी कामनाएं आज नहीं कल सोचा, अब बेहतर है कि अब इनका ऊन निकालना शुरू करें, घाव बन जायेंगी। जो अभी भविष्य है, कल अतीत हो जायेगा। बजाय इसके कि गिनते ही जाने से। उसने ऊन निकालना शुरू अगर कोई विचार न हो चित्त में तो तुम यहां होते हो-अभी। किया। अब वह लाखों भेड़ों का ऊन, गांठों पर गांठें लग गयीं। न कोई अतीत, न कोई भविष्य-य उसने सोचा, ऐसे अगर ऊन इकट्ठा करते गए तो कहां, रखेंगे समग्रता से घेर लेता है। कहां? गोदाम मिलते कहां आजकल? रखने की जगह कहां गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन है? वर्षा सिर पर आ रही है। यह तो मुश्किल है। इसके कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद कोट-कपड़े बनवाना शुरू कर दो। तो कंबल, कोट, -बगीचे में जाने से सार क्या? कपड़े...लेकिन इतना ढेर हो गया कि वह एकदम घबड़ाया कि गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन, बाजार की हालत तो वैसे ही खराब है, खरीददार तो मिलता नहीं, -बहुत बार गए हैं, अनेक बार गए हैं! मारे गये! तो वह आधी रात में चिल्लाया : बचाओ, बचाओ! कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद तो उसकी पत्नी घबड़ाकर उठी। उसने कहा, हुआ क्या? उसने -या तो वसंत के पहले जाते हैं या वसंत जब बीत जाता है। कहा, हुआ क्या...मर गये, लुट गये! पत्नी ने कहा, क्या, हुआ तब जाते हैं। हर हालत में पतझड़ हाथ लगता है। क्या? कोई सपना देखा, उसने कहा, सपना क्या, नींद तो आयी | तो अस्तित्व का जो बगीचा है वह तो अभी और यहां है। .. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H जिन सूत्र भागः1 Main वर्तमान उसका ढंग है। तुम जाते हो-या तो जब बीत चुकी अस्तित्व का। बहार या अभी जब आयी नहीं; या तो अतीत के ढंग से या सेवन...'सेवन' बड़ा प्यारा शब्द है! इसका भोग करता है। भविष्य के ढंग से। | जैन मुनि 'भोग' शब्द को लाने में अड़चन अनुभव किए निर्विचार में जो खड़ा है वह वर्तमान से जुड़ता है। उसका होंगे। 'सेवन करता है' उनको लगा होगा, इसे 'करना चाहिए' सीधा-सीधा संबंध हो जाता है। वह आमने-सामने खड़ा होता में बदलो। है। यह प्रतीति, यह साक्षात्कार, महावीर कहते हैं, समयसार। यह हमारे सारे शास्त्रों के साथ होता है। जहां 'है' की सूचना _ 'साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना है वहां 'होना चाहिए', हम अनुवाद करते हैं। जहां केवल 'है' चाहिए। निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना की सूचना है—जैसे कि आग जलाती है, यह तो ठीक है; चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं। अतः निश्चय से आत्मा का लेकिन आग को जलाना चाहिए, तब अड़चन हो गयी। कोई सेवन ही उचित है।' ऐसा अनुवाद न करेगा कि आग को जलाना चाहिए, क्योंकि दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। आग इस तरह की बकवास को मानती ही नहीं। वह तो जलाती ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।। है। 'चाहिए'-वासना, कामना आ गयी; भविष्य आ गया। इस वचन के जो भी अनुवाद किए गए हैं, उनमें थोड़ा-सा फर्क 'चाहिए' का अर्थ ही हुआ कि कल हो सकेगा, आज नहीं हो मालूम होता है। और फर्क बहुमूल्य है। जिन्होंने अनुवाद किये सकता। ‘चाहिए' का मतलब ही यह हुआ कि जो है नहीं; हैं—जैन साधु, मुनि अनुवाद करते हैं। अनुवाद में उनका कोशिश करके लाना होगा। तो कोशिश में तो समय लगेगा। व्यक्तिगत पक्षपात उतर जाता है। जैसे दसणाणचरित्ताणिः दिन लग सकते हैं, वर्ष लग सकते हैं, जन्म लग सकते हैं। कौन दर्शन, ज्ञान और चरित्र; सेविदव्वाणि साहुणा णिच्वं : इनका | जाने कितना समय लगेगा तब हो पायेगा! नित्य सेवन, यही साधु का लक्षण है। लेकिन अनुवाद क्या लेकिन साधारणतः दूसरे सुननेवाले भी इस अनुवाद से राजी किया जाता है : साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन होते हैं, क्योंकि उनको भी सुविधा मिल जाती है। वे भी कहते हैं, करना चाहिए। चाहिए कहीं मूल सूत्र में नहीं है। मूल सूत्र में तो 'चाहिए' ठीक है। कल पर स्थगित करने का उपाय है। तो सिर्फ व्याख्या है कि साधु कौन। साधु का कर्तव्य नहीं गिनाया कल कर लेंगे। साधुता कल, असाधुता आज! | है, साधु की परिभाषा है। साधु कौन? जो नित्य दर्शन, ज्ञान तुमने देखा, अगर दान देना हो तो तुम कहते हो देंगे; क्रोध और चरित्र का सेवन करता है-पालन भी नहीं। मूल शब्द है : करना हो तो तुम नहीं कहते, करेंगे। तुम कहते हो, करते हैं सेविदव्वाणि-जो सेवन करता है; पालन नहीं; जो भोजन अभी! क्रोध होता है। और करुणा? करनी चाहिए! यह बड़े करता है; जो उपभोग करता है; जो भोगता है। साधु है वह जो मजे की बात है। अगर दान देना है, तो तुम कहते हो, करेंगे! दर्शन, ज्ञान और चरित्र का नित्य भोग करता है। __ एक मित्र संन्यास लेने आये थे, वे कहने लगे, सोचता हूँ! अब बात साफ हो सकती है। पहले तो नित्य, प्रतिपल, बहुत दिन से सोच रहा हूं। अभी भी विचार कर रहा हूं, अभी भी वर्तमान में न तो बीते कल में न आनेवाले कल में-अभी और पक्का नहीं कर पाता। यहां भोग करता है। असाधु या तो अतीत में भोगता है या मैंने उनसे पूछा, क्रोध के संबंध में सोचते हो कि बिना ही सोचे भविष्य में। पक्का कर लेते हो? वे कहने लगे कि क्रोध के संबंध में तो गये हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन हालत उलटी है : सोचते हैं कि न करें और होता है। और संन्यास कभी बहार से पहले कभी बहार के बाद। के संबंध में हालत यह है कि सोचते हैं कि लें, और नहीं होता। -वह असाधु। साधु वह जो अभी और यहीं के द्वार से हमने शुभ को, श्रेष्ठ को, सत्य को, शिवम् को टालने के उपाय अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो 'अब' के द्वार से अस्तित्व में | किए हैं। तो इसलिए इन अनुवादों पर कोई एतराज भी नहीं प्रवेश करता है; जो यहां और ठीक अभी साक्षात्कार करता है करता। यह सिर्फ सूचक हैं। 5881 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवनः आत्मसेवन महावीर कह रहे हैं: नहीं। भेजने की कोई जरूरत नहीं। भेजेंगे सात दिन बाद। सात दसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। दिन बाद तू आना, फिर इसको पढ़ लेना। अगर तू सात दिन बाद वही है साधु, वही है साहु, जो नित्य सेवन कर रहा है दर्शन, कहे कि भेजना है तो भेज देंगे। उस आदमी ने कहा, ठीक है। ज्ञान, चरित्र का। जो कल पर नहीं छोड़ रहा है; जो अभी और कोई हर्जा नहीं। वह सात दिन बाद आया, उसने पत्र देखा। उसे यहीं जी रहा है; जिसने भविष्य के साथ नाते तोड़ लिए। भविष्य भरोसा ही न आया कि मैं और ऐसा पत्र लिख सकता हूं। के साथ जिसका नाता है, वही गृहस्थ। क्योंकि गृहस्थ का अर्थ सात दिन में आग सब ठंडी हो गयी, अंगारे बुझ गये। दी गयी है: वासना, कामना; कल भोगेंगे। और गृहस्थ की भूल यही है | गालियां उतनी महत्वपूर्ण न मालूम पड़ीं। उत्तर व्यर्थ मालूम कि कल आएगी मौत, तुम भोग न पाओगे। तुम कल पर टालते पड़े। वह आदमी तो पागल मालूम ही पड़ा। अपना पत्र देखा तो जाओगे, एक दिन मौत आ जायेगी। तुम्हारा सब टाला हुआ, उसने कहा, यह मेरा भी दिमाग खराब है। इसको जवाब नहीं टाला हुआ रह जायेगा। देना, मेरे दिमाग के लिए कुछ उपाय बताओ, इस तरह की बातें महावीर इतना ही कह रहे हैं कि शुभ को टालना मत, स्थगित मेरे मन में उठती हैं। अच्छा ही हुआ, उस आदमी ने कहा कि मत करना; जब शुभ का भाव उठे, तत्क्षण भोग लेना। उसने यह पत्र लिखा। उसके पत्र के बहाने मुझे मेरी आत्मा के अशुभ को टालना; क्योंकि टल जाये तो अच्छा। अशुभ को दर्शन तो हो गये थोड़े कि यह सब मेरे भीतर भरा पड़ा है। कल पर छोड़ना! | मैं तुमसे कहता हूं अगर क्रोध को तुम कल पर टाल दो तो उसी मेरे देखे ऐसा है कि अगर तुम अशुभ को कल पर छोड़ो तो तरह टल जायेगा, जैसे करुणा अभी तक टलती आयी है।। उसी तरह अशुभ न हो पायेगा जैसे अभी शुभ नहीं हो पा रहा है। अशुभ को अगर तुम कहो, करेंगे भविष्य में, तो अशुभ भी कल पर छोड़ा, होता ही नहीं। तुम जरा करके देखो! कोई तुम्हें | उसी तरह विदा हो जायेगा तुम्हारे जीवन से जैसे शुभ विदा हो गाली दे, तुम कहो कि चौबीस घंटे बाद क्रोध करेंगे। अगर तुम | गया है। कर लो चौबीस घंटे बाद क्रोध तो चमत्कार है। हो नहीं सकता। महावीर कहते हैं, साधु वह है जो दर्शन, ज्ञान और चरित्र का चौबीस घंटे! चौबीस क्षण तो रुको, क्रोध असंभव हो जायेगा। / अभी पालन कर रहा है, अभी सेवन कर रहा है। और 'पालन' अब्राहम लिंकन के जीवन में उल्लेख है, एक आदमी, मित्र से 'सेवन' शब्द ज्यादा बेहतर है, क्योंकि पालन में ऐसा लगता उनका, बड़ा क्रोधित आया। किसी ने उसको पत्र लिखा था और है कि कुछ चेष्टा करके आयोजन करके अपने को बांध रहा है; बड़ी ऊलजलूल बातें लिखी थीं। लिंकन ने कहा, 'बैठो इसी कोई अनुशासन। 'सेवन' में ऐसा लगता है: कुछ अनुभव में वक्त जवाब दो। और दिल खोलकर जवाब दो! डरने की आ रहा है, उसको भोजन बना रहा है; उसको अपने रक्त, जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा मित्र भी हूं, तुम्हारा वकील भी हूं। मांस-मज्जा में मिला रहा है। यह हद्द हो गयी! लिखो दिल खोलकर! जो भी गालियां तुम्हें / 'निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये लिखनी हैं, लिख डालो पूरा।' वह आदमी भी थोड़ा चौंका! तीनों आत्मरूप ही हैं।' ऐसा उसने सोचा ही न था कि लिंकन यह कहेंगे। पर वह बैठ ये अलग-अलग नहीं हैं। यह जैनों की त्रिवेणी है या त्रिमूर्ति। गया लिखने। दिल तो भरा था। दिल खोलकर उसने गालियां क्योंकि ईश्वर का तो कोई भाव जैनों के पास नहीं है। सम्यक दीं। लिंकन उसे उकसाता था, उकसावा देते रहे कि तू डर मत, ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चारित्र्य-ये उनके शिव, ब्रह्मा, लिख, सब लिख डाल! सब मवाद निकाल दे! कागज पर विष्णु हैं। यह उनकी त्रिमूर्ति है। यह उनकी ट्रिनिटी है। और ये कागज, उसने गालियां और ऊलजलूल बातों के सब उत्तर दे। तीनों आत्मा के ही तीन रूप हैं। ये तुम्हारे होने की शुद्धता में डाले। और जब वह पूरा लिखकर उसने हलकी सांस ली, प्रगट होते हैं। ये आत्मा ही हैं। लिंकन ने कहा, ला अब यह पत्र मुझे दे दे। उसने कहा, पता तो ___ 'अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है।' लिख देने दो। तो उसने कहा, पता लिखने की कोई जरूरत | यह बड़ा अदभुत वचन है। अपना ही भोजन उचित है। अपना Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सत्र भाग: 1 RERE A ही भोग उचित है। अपने को ही पीयो, अपने को ही भोगो। कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से हम साधारणतः जीवन में दूसरे को भोगने का आयोजन करते / मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती। हैं। 'पर' का हम सेवन करना चाहते हैं। लेकिन दिल है कि वह गरीब का गरीब, दीन का दीन, भिखारी महावीर कहते हैं, 'पर' का सेवन करते-करते तो तुम संसार का भिखारी, खंडहर का खंडहर, वहां कभी महल बन नहीं में भटक गये हो। अब तुम अपना ही सेवन करो। तुम अकेले पाता-बनेगा भी नहीं। क्योंकि बाहर की तुम सारी दुनियाएं अपने एकांत को ही भोगो। तुम अपने स्वभाव में डूबो। तुम्हारे | लूटकर ले आओ, तो भी कुछ न होगा, जब तक कि भीतर की भीतर जो छिपा है, इसके साथ नाचो, इसी को संगी-साथी दुनिया न लूटो। और भीतर की दुनिया कुछ ऐसी है-ऐसी बनाओ! भीतर होने दो रास! अनंत कि भोगो और भोग के नये द्वार खुलते चले जाते हैं; रस तुमने अपने साथ संबंध ही नहीं जोड़े। तुम अपने से कभी लो, और नई रसधार बहती है। रसधार बड़ी होती जाती है, बड़ी आलिंगन नहीं किए। तुमने अपने को कभी चूमा नहीं, अपना | होती जाती है। और कतरा एक दिन दरिया बन जाता है। बूंद कभी भोजन नहीं किया। अपना सेवन करो। एक दिन सागर हो जाती है। सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया तुम जब तक प्रगट न हो जाओगे अपनी परिपूर्ण महिमा में, तब खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ। | तक दुखी रहोगे, घाव रहेगा। गीत गाना ही पड़ेगा। वह हमारी और जब तक बूंद सागर न हो जाये, तब तक मिट्टी है। और | नियति है। अभिव्यंजित होना ही होगा, गूंजना ही होगा-एक जब तक हृदय में छिपा हुआ गीत प्रगट न हो जाये, तब तक वह परम संगीत से! एक दिव्य विभा से मंडित होना ही होगा! हृदय का घाव है। अपनी महिमा को छिपाओ मत, भोगो! सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया हिंदू शास्त्रों में बड़े प्रसिद्ध वचन हैं : खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ। आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः। हमारे जीवन में जो इतनी पीड़ा है, यह पीड़ा सिर्फ इसीलिए है सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति। कि हमारे भीतर जो पड़ा है, छिपा है, वह प्रगट नहीं हो पाया। जो स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः। गीत दबा पड़ा है हमारे प्राणों में, वह गाया नहीं गया। जो नाच आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि; सत्व शुद्धि से स्मृति का लाभ; हम छिपाये चल रहे हैं, वह नाचा नहीं गया। जो भोग हमारा | और स्मृति-लाभ से ग्रंथियों का खुलना; और समस्त उलझनों स्वभाव है, वह भोगा नहीं गया। हमने अपने को अभिव्यंजना का अंत, समाप्ति, विप्रमोक्ष।। नहीं दी है। हमारा सितार ऐसा ही पड़ा है, उस पर हमने साधारणतः लोग यही अर्थ करते हैं, आहार शुद्धि से सत्व अंगुलियां नहीं नचायीं। वह सितार ऐसे ही धूल जमा पड़ा है। शुद्धि। यही अर्थ करते हैं : शुद्ध आहार। ब्राह्मण के हाथ का उससे विराट संगीत पैदा हो सकता था, उस तरफ हमने कोई | बनाया हुआ आहार। इसका गहरा अर्थ खयाल में नहीं आता : ध्यान ही न दिया। हमारी नजरें दूसरे को तलाशती रहीं। हम | शुद्ध का आहार! परम शुद्ध का आहार! सत्व का आहार! वह दूसरे के संगीत में डूबने को आतुर रहे-और अपना घर भूल जो तुम्हारे भीतर छिपा है, उसका आहार! गये, अपना संगीत भूल गये। हमने और सब भोगा और हाथ | महावीर वर्षों तक उपवास किए, महीनों उपवास किए, दिनों सदा खाली पाए, और हमने उसे न भोगा जो हमारा था और जिसे उपवास किए! लेकिन उन्होंने अपने इस उपवास को उपवास भोगने से जीवन भर जाता। कहा, निराहार न कहा; अनशन न कहा, उपवास कहा। कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से उपवास का अर्थ है: अपने पास होते जाना; अपने निकट होते मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती। जाना। जो उपनिषद का अर्थ है, वही उपवास का अर्थ है। अपने कितनी बार नहीं तुमने दोनों दुनियाओं को लूटकर अपने हृदय / पास, अपने पास, और पास होते चले जाना! निराहार न कहा को भर देने की चेष्टा की है! अपने उपवास को, क्योंकि वह गलत जोर होता। भोजन नहीं 5901 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Site साधु का सेवन: आत्मसेवन / किया, यह तो गौण बात है। अपना भोजन किया, यह महत्वपूर्ण मुझे हुआ। आप भी जब मेरे घर में आते हो तो मैं भोजन नहीं कर बात है। आत्म-आहार किया। और आत्म-आहार से ऐसे भर पाती। मैं इतनी प्रसन्न हो जाती हूं कि वर्ष में आप दो दिन के लिए गये कि भोजन कि जरूरत न रही। वह गौण बात है। आते हो, कि दो दिन मैं भोजन नहीं कर पाती; बस ऐसे ही चाय तुमने कभी खयाल किया! प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख इत्यादि से काम चल जाता है। भूख ही नहीं लगती, ऐसा कुछ नहीं लगेगी। कभी-कभी तुम चकित होओगे...एक महिला ने भरापन मालूम होता है।' मुझे कहा...मैं यह बात कर रहा था। उसने सुनी, वह मुझसे | जब भी तुम आनंदित होओगे, तुम हैरान हो जाओगे कि पेट मिलने आयी। उसने कहा कि एक बात आपसे कहनी है, मेरे | भरा है! तुम इतने भरे हो, इतने भीतर भरे हो कि पेट का जीवन में अटकी रही है सदा से। उसकी सास की मृत्यु हुई सांझ खालीपन पता न चलेगा। प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख न के वक्त। जैनों की 'अंथऊ' का समय। सूरज ढल गया, फिर लगेगी। दुख के क्षणों में भूख लगेगी। दुख में तुम एकदम भोजन तो हो नहीं सकता। सास मर गई बेवक्त। सासों के खाली हो जाओगे। दुख में न केवल पेट खाली हो जायेगा, ढंग...! अब वह कोई ढंग का वक्त भी चुन सकती थी। | आत्मा भी खाली हो जायेगी। दोपहर में मरती, रात मरती ठीक; अंथऊ के वक्त मर गई! तो इसलिए अकसर जिसने तुम्हारे जीवन को बहुत गहराई से भरा भोजन तो हो नहीं सका; पड़ा रह गया। और ऐसा भी नहीं कि था, अगर वह मर जायेगा तो तुम्हें तत्क्षण भूख लगेगी। बेचैनी इस बहू का अपनी सास से कुछ विरोध रहा हो-बड़ा लगाव होगी तुम्हें यह सोचकर कि यह कोई वक्त है भूख लगने का। था। तो उस समय तो कुछ खयाल नहीं आया, लेकिन जैसे रात क्योंकि भोजन को तो हम उत्सव मानते हैं। दुख में तो कोई बढ़ने लगी, उसकी भूख बढ़ने लगी। इधर रो भी रही। सास ने भोजन करता नहीं। पास-पड़ोस के लोगों को भोजन बनाकर उसे अपनी बेटी की तरह रखा था, बहुत गौरव से रखा था। वह | लाना पड़ता है खिलाने अगर कोई मर जाये किसी के घर में; मर गयी तो दुख स्वाभाविक था। रो रही है, दुखी हो रही है। क्योंकि वह अपना चूल्हा जलाये तो वह भी तो अशुभ मालूम लेकिन पेट में भूख लग रही है! और आधी रात भूख इतनी पड़ता है। यह कोई वक्त है! किसी का पति जल गया हो और ज्यादा बढ़ गयी कि वह महिला चकित हुई। भूख इतनी बढ़ गयी वह चूल्हा जलाकर भोजन बना रही! चूल्हा नहीं जलता दिनों कि उसे जाकर चोरी से अपने चौके में कुछ भोजन करना पड़ा। तक। लेकिन जब कोई निकटतम तुम्हारा मर जायेगा, तो न उसकी ग्लानि उसके मन में रह गयी। केवल तुम्हारा शरीर खाली हो गया, उसने तुम्हारी आत्मा के भी और यह जो महिला, जिसने मुझे यह कहा, वह आठ-आठ एक हिस्से को घेरा था, वह भी खाली हो गया। और खालीपन दस-दस दिन के उपवास कर लेती है; इसलिए उसे भी बड़ा ऐसा मालूम होगा कि लगेगा कुछ भोजन कर लो। चक्कर मालूम हुआ कि 'यह हुआ क्या! मैं आठ-आठ कल ही एक संन्यासी ने मुझे कहा, कि विपस्सना का दस दिन दस-दस दिन उपवास कर लेती हूं और कभी भूख ने मुझे ऐसा प्रयोग करने के बाद, दसवें दिन, आखिरी दिन, उसे ऐसा लगा नहीं सताया कि उपवास तोड़ना पड़ा हो! और यह सास का कि शरीर से आत्मा अलग हो गयी है। कोई आधी रात के वक्त, मरना और इतना मेरा लगाव! तो एक अपराध-भाव उसके मन | वह घबड़ा गया! यह अनुभव इतना प्रगाढ़ था और इतना साफ में अटका रह गया। किसी को भी उसने कहा नहीं-अपने पति था कि मैं आत्मा से अलग हूं, कि उसे लगा कि अब मौत होने के को भी नहीं कहा, क्योंकि वह भी दुखी होंगे यह बात सोचकर कि करीब है। और जो पहली बात उसे याद आयी वह यह कि कुछ मेरी मां मर गयी और तूने रात चोरी से भोजन किया। उसने मुझे खाओ, जल्दी कुछ खाओ। जो कुछ भी उसे मिल सका आधी कहा और कहा कि आप किसी को कहना मत! मुझे यह उलझन | रात...होटल में रहता है...आधी रात जो कुछ भी मिल सकता रह गयी है। है जगाकर, कुछ भी, उसने जल्दी अपना पेट भर लिया। उसने मैंने उससे कहा कि इससे विपरीत भी तुझे कभी हआ? कभी | कल मुझे कहा कि यह मैंने कुछ गलत तो नहीं किया है? क्योंकि आनंद के क्षण में, भूख न लगी हो? उसने कहा, 'हां, यह भी करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि कुछ भूल हो गयी। क्योंकि वह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POSE - S S Hoyi जिन सूत्र भाग : 1 PRENE अनुभव तत्क्षण खो गया। लेकिन उस क्षण में मुझे इतने जोर की -और आत्मा के शुद्ध आहार से जब भीतर का सत्व शुद्ध भूख लगी, जैसी मुझे कभी लगी न थी। होता है तो स्मृति ध्रुव हो जाती है। शरीर आत्मा से अलग होता हुआ मालमू पड़े, एक खालीपन | स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः। मालूम होगा। और भरने का हम एक ही उपाय जानते हैं-पेट -और स्मृति से, स्मृति के लाभ से सारी ग्रंथियां खल जाती को भर लो; और हमें कोई उपाय नहीं मालूम। अगर इस क्षण में हैं—जिसको महावीर कहते हैं निग्रंथ दशा-सब गांठें खुल यह युवक अपने को प्रेम से भर लेता या आनंद से भर लेता तो जाती हैं। और जो शेष रह जाता है-वही मोक्ष, वही समाधान, यह अनुभव और ऊंचे शिखर पर पहुंच जाता। इसने शरीर से समाधि, विप्रमोक्ष ! फिर कुछ और करने को शेष नहीं रह जाता। भर लिया। इसने इस क्षण में शरीर का सेवन कर लिया। भोजन 'जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ मतलब शरीर। भोजन-जो शरीर बन जायेगा; अभी भोजन नहीं करता है, और न कुछ छोड़ता है उसी को निश्चय-नय से है, कल शरीर बन जायेगा। भोजन यानी बीज रूप से शरीर। मोक्ष-मार्ग कहा है।' इसने शरीर से भर लिया। यह क्षण था जब इसे आत्मा से भरना णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो ह जो अप्पा। था। नाच उठता! गीत गाता! आंदोलित हो उठता आनंद से! ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो ति।। प्रेम को जगाता ! आत्मा से भरता! आत्मा का सेवन करता! तो बड़ी अदभुत बात महावीर कह रहे हैं! जो आत्मा इन तीनों से यह घड़ी बड़ी गहरी हो जाती। यह अनुभव चिरस्थायी हो समाहित हो जाता है—सम्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य से जाता। चूक हो गयी। समाहित! समाहित का अर्थ है, जिसके लिए ये ऊपर से थोपे महावीर कहते हैं, 'आत्मा से ही आत्मा का सेवन उचित है।' गये नियम नहीं.-जो इन्हें पचा गया; जो इसको इस भांति पी आत्मा से आत्मा का भोजन, आत्मा से आत्मा का भोग ही गया, इस भांति कि मांस-मज्जा बन गयी, समाहित हो गया! उचित है। अब ऐसा नहीं कि वह चेष्टा करता है चारित्र्य की, कि मैं ठीक आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः। करूं और गैर-ठीक न करूं। ऐसा भी नहीं कि वह चेष्टा करता -आहार के शुद्ध होने से सत्व शुद्ध हो जाता है। है ज्ञान को पकड़ने की, दर्शन को पकड़ने की। नहीं, ये सब यह आहार की शुद्धि को तुम ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया समाहित हो गए। आहार मत समझना। इसे तो तुम समझना ब्रह्म के द्वारा बनाया तुमने भोजन किया...तो भोजन की दो घटनाएं घट सकती हैं। गया आहार—वह जो तुम्हारे भीतर की अंतत्मिा है, जिस पर तुमने भोजन किया-या तो भोजन समाहित हो जायेगा और या ब्रह्म के हस्ताक्षर हैं। अपच हो जायेगी। अपच होगी तो भोजन बिना पचा शरीर के सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। बाहर फेंक देना होगा। वमन से निकले, मल-मूत्र से -और जिसने उस आत्मा का आहार कर लिया उसकी स्मृति निकले लेकिन अगर अपच हुआ तो उसे शरीर से बाहर फेंक ध्रुव हो जाती है। उसका बोध थिर हो जाता है। यही तो मैंने उस देना होगा वैसा का वैसा। उसमें जो छिपा हुआ सत्व है, तुम्हारा संन्यासी को कहा कि उस क्षण में आत्मा का आहार कर लिया हिस्सा न बन पाएगा। समाहित का अर्थ है : पच जाये। तो जो होता, तो स्मृति ध्रुव हो जाती। कूड़ा-कचरा है वह बाहर निकल जायेगा; जो सार-सार है वह स्मृति का अर्थ यहां याददाश्त नहीं है। यहां स्मृति का अर्थ है तुम्हारे खून में, लहू में बहने लगेगा। वह तुम्हारे हृदय में परमात्मा का स्मरण, या आत्मा का स्मरण। धड़केगा, तुम्हारी आंखों से देखेगा, तुम्हारे मस्तिष्क से सोचेगा। जिसको महावीर सम्यक दर्शन कह रहे हैं; वह थिर हो जाता वह तुम्हारे भीतर का हिस्सा हो जायेगा। है, उसकी लकीर खिंच जाती अमिट। फिर भूले न भूलती। फिर | एक बार जो अन्न पच गया, फिर तुम्हें उसकी चिंता नहीं करनी मिटाये न मिटती। होती कि अब वह क्या कर रहा है; खून ठीक चल रहा है कि सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। नहीं; मस्तिष्क सोच रहा है या नहीं; हड्डी, मांस-मज्जा बन रही Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु का सेवन : आत्मसेवन है या नहीं। तुम तो गले के नीचे उतार लेते हो भोजन को, फिर अगर बेजार हो अपनी किरण से? बात खतम हो गयी। अगर न पचे तो अड़चन होती है। और ये अपनी ही किरणें हैं। अगर इनसे हम बेजार हो गये, पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित नहीं हुआ। ज्ञानी और इनकी निंदा करने लगे और छोड़ने के चक्कर में पड़े गये, तो है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित हो गया। हम तोड़ते जायेंगे अपने को। लेकिन जीवन का अहोभाग्य इस पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसको अपच हो जाता है। भर लेता है दिशा से नहीं आता। जीवन का अहोभाग्य तो तब आता है जब ज्ञान को, लेकिन वह ज्ञान कहीं उसके जीवन की धारा का अंग जो भी हमें मिला है उसे हम रूपांतरित करने में कुशल हो जायें, नहीं होता; वह धारा में कंकड़-पत्थर की तरह पड़ा रहता है, समाहित करने में कुशल हो जायें। धारा के साथ बहता नहीं। कामवासना समाहित होकर ब्रह्मचर्य बन जाती है। क्रोध समाहित का अर्थ है जिसे तुम भूल जाओ, फिर भी तुम्हारे | समाहित होकर करुणा बन जाता है। राग समाहित होकर प्रेम साथ हो; जिसकी तुम्हें चेष्टा न करनी पड़े, सहज तुम्हारे साथ | बन जाता है। हिंसा समाहित होकर अहिंसा बन जाती है। पचा हो। सहज-स्फूर्त यानी समाहित। लो। बेजार मत हो जाना! छोड़ने के उपद्रव में मत पड़ जाना! ___ 'जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ क्योंकि जो-जो तुम छोड़ दोगे, उस उसका रूपांतरण असंभव हो भी नहीं करता...' जायेगा। अगर क्रोध छोड़ दिया तो यह तो हो सकता है तुम अन्य कुछ की कोई जरूरत नहीं, ये तीन काफी हैं। इन तीन में अक्रोधी हो जाओ, लेकिन करुणावान न हो सकोगे। अगर सब हो जाता है। और न कुछ छोड़ता है। यह जैन मुनियों को कामवासना छोड़ दी, तो यह तो हो सकता है कि तुम काम-रहित बड़ी तकलीफ होगी सोचकर : न कुछ करता न कुछ छोड़ता; हो जाओ, लेकिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध न हो सकेगा। यह क्योंकि छोड़ना भी कृत्य है। छोड़ने में भी कर्ता आ जाता है और काम-रहितता वैसे ही होगी जैसे हम सांड को बैल बना देते हैं, अहंकार आ जाता है। न तो पकड़ता और न छोड़ता, चुपचाप ग्रंथि काट देते हैं, यंत्र को नष्ट कर देते हैं। साक्षी-भाव से जीता है। और तुम ऐसा मत सोचना कि यह जो मैं दृष्टांत दे रहा हूं, बड़े 'उसी को निश्चय-नय से मोक्ष-मार्ग कहा है।' दूर का है। यह दूर का नहीं है। साधुओं ने यह सब किया है। वही है मुक्ति का मार्ग। रूस में साधुओं की एक जमात थी जो जननेंद्रिय काट लेती थी। जो छोड़ने-पकड़ने में पड़ा वह अड़चन में पड़ेगा। वह यहां से काट देने से, एक अर्थ में तो हल हो जाता था। जब जननेंद्रिय ही वहां डोलेगा। न रही तो कोई उपाय न रहा। लेकिन ब्रह्मचर्य इस तरह उपलब्ध कभं तो दैर में हूं, कभं हूं काबे में नहीं होता। ब्रह्मचर्य उपलब्ध तो तब होता है जब यह जीवंत कहां-कहां लिए फिरता है शौक उस दर का। ऊर्जा काम की समाहित होती है; जब तुम इसे बाहर नहीं फेंकते, वह उसके दरवाजे को कभी मंदिर में खोजेगा, कभी मस्जिद में भीतर पचा जाते हो; जब तुम इसे उछालते नहीं फिरते; जब यह खोजेगा, कभी यहां कभी वहां; और एक दरवाजा जहां कि वह ऊर्जा तुम्हारे भीतर ऊर्ध्वगमन बन जाती है। छिपा है-स्वयं का-अनखला रह जायेगा। __ क्रोध को काट देने से, कसम खा लेने से कि क्रोध न करूंगा, चमक सूरज में क्या रहेगी यह हो सकता है तुम दबा लो, दबाते जाओ, ऐसी घड़ी आ जाये अगर बेजार हो अपनी किरण से? कि किसी को भी पता न चले कि तुममें क्रोध है; लेकिन तुम्हें तो और जो व्यक्ति छोड़ने-पकड़ने में लग जायेगा, वह बेजार हो चलता ही रहेगा पता! तुम तो उसी के ऊपर बैठे हो। तुम तो जायेगा। छोड़ने का मतलब है निंदा करनी होगी अपने कुछ अंगों | ज्वालामुखी पर बैठे हो जो कभी भी फूट सकता है।। की; शरीर की निंदा करनी होगी; धन की निंदा करनी होगी; नहीं, करुणा पैदा न हो पायेगी। क्योंकि करुणा तो उसी ऊर्जा कामवासना की निंदा करनी होगी, सबकी निंदा करनी होगी। से निर्मित होती है जिससे क्रोध निर्मित होता है। ऊर्जा का दमन चमक सूरज में क्या रहेगी नहीं-ऊर्जा का रूपांतरण! 593 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ indi जिन सूत्र भागः1 AMROHIBIRM 'इस दृष्टि से आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि होता | हो। सिर में दर्द है तो चेतना सिर के कारण डांवाडोल हो जाती है। पैर में कांटा लगा है तो कांटे के कारण चेतना डांवाडोल हो तो महावीर कह रहे हैं. फिर व्याख्या क्या होगी सम्यक दष्टि जाती है। जब तम बिलकल डांवाडोल नहीं होते न सिर की? जिसको गीता में स्थितिप्रज्ञ कहते हैं, उसी को महावीर बुलाता, न पैर बुलाता, न पेट बुलाता-जब शरीर को तुम सम्यक दृष्टि कहते हैं। स्थितिप्रज्ञ-जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो बिलकुल भूले रहते हो, ऐसा जैसा विदेह, है ही नहीं-तब तुम गयी; सम्यक दृष्टि-जिसका दर्शन स्थिर हो गया है। एक ही 'स्वस्थ।' यही तो आत्म-स्थिति की दशा है; जब तुम इतने | अपने में लीन हो कि कोई गाली दे तो तुम बाहर नहीं आते। तुम 'आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि है। जो आत्मा को वहीं अपने भीतर से सुन लेते हो, कोई परिणाम नहीं होता। यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यक ज्ञान है और उसमें स्थिर तुम्हारी दशा में कोई भेद नहीं पड़ता। तुम वही रहते हो जैसा रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' गाली देने के पहले थे; वैसे ही गाली देने के बाद रहते हो। गाली बड़ी अदभुत बात....! महावीर चरित्र यह नहीं कह रहे हैं जो दी या न दी, बराबर। तुम पर कोई रेखा नहीं खिंचती, कोई तुम करते हो-उसमें चरित्र नहीं है। तुम जो हो...! साधारणतः खरोंच नहीं लगती। किसी ने सम्मान किया, तुम फूल नहीं हम सोचते हैं चरित्र का अर्थ है, जो हम करते हैं। अगर हमने जाते। तुम्हारे अहंकार का गुब्बारा बड़ा नहीं होने लगता। तुम क्रोध नहीं किया तो हम चरित्रवान हैं। अगर क्रोध किया तो हम वैसे ही रहते हो जैसे थे, कोई अंतर नहीं पड़ता। चरित्रहीन हैं। अगर हमने कामवासना का संबंध बनाया तो हम रवींद्रनाथ को जब नोबल प्राइज मिली और वे वापिस कलकत्ता चरित्रहीन हैं। अगर कोई कामवासना का संबंध न बनाया तो हम लौटे, तो कलकत्ते में बड़ा संकट था। अनेक लोगों को बड़ी चोट चरित्रवान हैं। लगी थी कि रवींद्रनाथ को नोबल प्राइज मिल गयी। तो बंगाली महावीर राजी न होंगे। महावीर कहेंगे, क्रोध किया या नहीं, बड़े नाराज भी थे। एक संपादक अखबार का जूतों की माला यह सवाल नहीं-क्रोध है या नहीं? यह हो सकता है क्रोध लेकर पहुंच गया स्वागत करने के लिए। तो सोचा था उसने कि किसी से भी न किया हो और क्रोध भीतर हो। तो भी वह कहते रवींद्रनाथ खिन्न होंगे, नाराज होंगे, लेकिन रवींद्रनाथ के 'कवि' हैं, तुम सम्यक चारित्र्य को उपलब्ध न हुए। | में कुछ 'ऋषि' का अंग था। इसलिए उनकी गीताजंलि में 'उसमें स्थित रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' आत्मा में स्थित उपनिषदों की झलक है। कुछ उड़ानें उन्होंने उस आकाश में भी रहना ही...! अपने में ऐसे खड़े हो जाना कि वहां से डांवाडोल भरी थीं जहां ऋषि ही प्रवेश करते हैं। वे सिर्फ सामान्य कवि नहीं न किए जा सको। वहां से तुम्हें कोई बाहर न ले जा सके-क्रोध थे। उस आदमी को जूतों की माला लिए देखकर वे उसके पास या काम, कोई भी स्थिति 'अप्पो अप्पम्मि रओ'-अपने में ही गये, क्योंकि वह भीड़ में पीछे खड़ा था। थोड़ा संकोच भी लग रमो! अपने में ही रम जाओ। अप्पा अप्पम्मि रओ। रमो अपने रहा था। दूसरे फूलमाला लाए थे, वह जूतों की माला लाया था। में! आपे में! कहीं और न जाओ! कहीं और न भटको! उसको संकोच में देखकर उनको थोड़ा अच्छा भी न लगा। वे सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। फलों की माला छोड़कर उसके पास गये, और कहा कि अब ले -और यही है सम्यक दृष्टि हो जाने का मार्ग! ही आये हो तो पहना दो। वह आदमी और लज्जा से भर गया। जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति। वह जूते की माला पटककर भाग खड़ा हुआ। तो रवींद्रनाथ ने यही है जानना, यही है देखना, यही है दर्शन, यही है चारित्र्य! | उसमें से एक जोड़ी चुन ली अपने पहनने के लायक, पैर के अप्पा अप्पम्मि रओ! अपने में रम जाओ।' लायक जो जोड़ी थी वह पहन ली और वे चल पड़े घर की तरफ। हमारे पास जो शब्द है 'स्वास्थ्य', वह यही अर्थ रखता है। उन्होंने कहा कि ठीक किया, मेरे जूते रास्ते में खो भी गए थे। यह अप्पा अप्पम्मि रओ! स्वास्थ्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित हो आदमी भी वक्त पर ले आया! और जूते की दुकान पर जाने की जाना। जब तुम बीमार होते हो तो तुम स्वयं में डांवाडोल हो जाते झंझट से बचा दिया! और माला लाया तो काफी जूते लाया था, 594 ' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध का सेवनः आत्मसेवन तो दो उनके नाप के मिल भी गये। 'आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन है। आत्मा ही जब तुम्हें बाहर का सम्मान और असम्मान कुछ अंतर न लाता चारित्र्य है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और हो, तुम्हारी मुस्कुराहट न तो जरा फीकी पड़ती हो, न जरा गहरी योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप ही है।' होती हो, तुम वैसे ही रह जाते हो जैसे तुम हो-स्वभाव में | आया हु महं नाणे स्थिर! अप्पा अप्पम्मि रओ! तो तुम स्वस्थ! तो तुम आत्मज्ञान | 'ज्ञान, आत्मा ही मेरा ज्ञान है।' को उपलब्ध! तो यही है सम्यक दृष्टि हो जाना। और यही आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्ते य। सम्यक चारित्र्य है-इसमें स्थिर होना ही! 'और दर्शन और चरित्र भी मेरी आत्मा...।' तो चारित्र्य का अर्थ दूसरे से संबंध नहीं है। अगर चारित्र्य का | आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे। अर्थ दूसरे से ही संबंध है तो हिमालय की किसी एकांत गुफा में और आत्मा ही प्रत्याख्यान। और आत्मा ही व्रत-नियम, बैठे हुए तुम चारित्र्यवान न हो सकोगे। आत्मा ही संयम और योग अर्थात ये सब आत्मरूप ही हैं।' इसलिए ये दो शब्द एक जैसे हैं-चरित्र और चारित्र्य। इनका महावीर के लिए आत्मा शब्द परम है। और जिसने उसमें फर्क समझ लेना। चरित्र का अर्थ है : जिसका संबंध दूसरे से थिरता पाली, सब पा लिया। है। और चारित्र्य का अर्थ है : स्वयं में स्थित। तुमने गाली दी तो अगर तुमने त्याग किया दूसरों को दिखाने के लिए तो वह मैंने क्रोध किया—यह चरित्र। तुमने प्रशंसा की तो मैंने धन्यवाद चरित्र हो गया, चारित्र्य नहीं। अगर तुमने त्याग किया भीतर के दिया-यह चरित्र। तुमने गाली दी कि प्रशंसा की, मैंने कुछ भी परम आनंद से, तो चारित्र्य। अगर तुम्हारा ज्ञान दूसरों से आया न किया, मैं वैसा ही रहा जैसा था—यह चारित्र्य। है तो वह ज्ञान नहीं। अगर तुम्हारा ज्ञान भीतर से आविर्भूत हुआ तो अगर तुम हिमालय की गुफा में बैठ जाओ तो चरित्र तो है तो ज्ञान। जो गीत तुमने दूसरों की नकल पर गुनगुनाया है, वह समाप्त हो जायेगा, क्योंकि चरित्र तो दूसरे के बिना हो ही नहीं | गीत नहीं। जो गीत सद्यःस्नात, अभी ताजा नहाया हुआ तुम्हारी सकता; लेकिन चारित्र्य...चारित्र्य प्रगट होगा। एकांत में भी | अंतरात्मा से उठा है, अलौकिक, अद्वितीय, नितनतन, यद्यपि प्रगट होगा, जैसा एकांत में फूल खिलता है! कोई नहीं निकलता सनातन-वही गीत! वही गीत वेद बन जाता है। वही गीत पास से तो भी उसकी गंध हवाओं में फैलती है। रात सब सो गये ऋचाएं। वही गीत उपनिषद बन जाते हैं। होते हैं, तब भी तारा आकाश में चमकता रहता है। वह चारित्र्य महावीर का सारा जोर एक बात पर है कि तुम किसी तरह है। उसका दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं। अपने घर लौट आओ। आपे में आ जाओ! अपने में आ जाओ! दूसरे में बहुत भटक लिए-दूसरे में होना ही संसार है। पर दस्तक दी-तुम तत्क्षण बदल जाते हो, कोट-टाई ठीक तो जो तुमने दूसरे के लिए किया, दूसरे को सोचकर किया, दूसरे करके बैठ जाते हो। यह चरित्र! | की आशा-अपेक्षा में किया—वह सब संसार है। दूसरे से गृह में स्नान कर रहे हो। आईने के सामने मुंह भी | आशा-अपेक्षा छोड़ो। दूसरे से दृष्टि हटाओ। तुम वहीं लीन हो बना-बिचका रहे हो। तत्क्षण तुम्हें खयाल होता है कि बच्चा जाओ जो तुम हो। यही संयम, यही योग! | तुम्हारा ताली के छेद में से देख रहा है। तुम समझ जाते हो कि इश्क भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में यह बाप के लिए योग्य नहीं कि मुंह बिचकाए, बनाए, कि या तो खुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर। नाचे-कूदे, स्नानागृह में। यह चरित्र! यह दूसरे के देखते ही दो ही उपाय हैं। या तो हम परमात्मा से कहें या तो खद बदल जाता है। आशकार हो-या तो खुद को प्रगट कर; या मुझे आशकार जिसका दूसरे से कोई संबंध नहीं, जिसका तुमसे ही बस संबंध / कर-या मुझे प्रगट कर। है-वह है चारित्र्य। महावीर ने दूसरा ही रास्ता चुना है। वे कहते हैं. अपने को ही अप्पा अप्पम्मि रओ। प्रगट करना है। प्रार्थना की उन्होंने गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने 595 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः1 इतना भी दूसरे पर भरोसा नहीं रखा है। परमात्मा भी दसरा हो जरूरत नहीं। दोनों के बीच में है स्थितिः भूली-भूली सी याद जायेगा, 'पर' हो जायेगा। तो परमात्मा भी संसार ही हो / है। भली-भली सी याद, धंधली-धंधली सी याद! सर जायेगा। उतना भी दूसरे पर निर्भर नहीं रखना है। क्योंकि दूसरे निकला है. भर-दपहरी नहीं है, अंधेरी रात भी नहीं है-सुबह पर निर्भरता तम्हें कभी भी मोक्ष, कभी भी परम स्वतंत्रता में न ले का हलका-हलका सा आलोक! सूरज ऊगने-उगने को है। जा सकेगी। कहासा छाया है। हाथ को हाथ नहीं सूझता, फिर भी सूझ तेरी दुआ से कजा तो बदल नहीं सकती बिलकुल नहीं खो गयी है। वह जो थोड़ी-सी सूझ बची है, जो मगर है इसमें ये मुमकिन कि तू बदल जाये। थोड़ी-सी याद बची है, उसी को ही निखारो, प्रगाढ़ करो। उसी यह बात बड़ी ठीक है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना से के सहारे भीतर की यात्रा होगी। उसी को निखारने और प्रगाढ़ने कोई तुम्हारी मौत नहीं रुक जायेगी, न प्रार्थना से कुछ और का नाम ध्यान है, विवेक है। बदलेगा। लेकिन यही होता है कि प्रार्थना करने में तुम बदल थोड़ा जागते चलो! जो थोड़ा-सा आसरा दिखायी पड़ रहा है, जाते हो। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम्हारी प्रार्थना से और उसको पकड़ो, और उस दिशा में थोड़े बढ़ते चलो। थोड़ा साहस कुछ भी नहीं बदलता, लेकिन प्रार्थना करनेवाला बदल जाता है। करो। वह भूली-भूली सी याद गहन होने लगेगी। भूल छंटती तो महावीर ने इस सार को बहुत गहराई से पकड़ा। उन्होंने | जायेगी, याद सघन होने लगेगी। कहा कि, तो फिर प्रार्थना की जरूरत क्या? जब बदलना ही और जिस दिन भी कोई अपने घर लौट आ स्वयं को है, तो फिर परोक्ष क्यों? फिर प्रत्यक्ष क्यों नहीं? जब घटना घटती है। इतने दुख, इतनी पीड़ाएं, इतनी शिकायत, इतने असली सवाल मेरे भीतर ही घटना है, जब असली में भगवान शिकवे, सब समाप्त हो जाते हैं। इतनी मांगें, इतनी वांछनाएं, भक्त के भीतर ही प्रगट होना है, तो फिर बाहर की तलाश बंद। इतनी आकांक्षाएं, इतनी तष्णाएं, सब अचानक पूरी हो जाती हैं। फिर बाहर क्यों टटोलं किसी पैरों को? फिर अपने घर लौट सब न मिलने की बातें थीं जब आकर मिल गए आऊं। फिर अपने में ही लीन हो जाऊं। सारे शिकवे मिट गए, सारा गिला जाता रहा। अप्पा अप्पम्मि रओ! तब पता चलता है कि वह सब जो मांगें थीं, अनंत-अनंत, वह और यह जो तुम्हारे भीतर की आत्मा की बात महावीर कर रहे | एक ही मांग के खंड थीं। अपने से मिलने की असली मांग थी। हैं, यह तुम भूल भला गए हो, लेकिन बिलकुल भूल भी नहीं गए उसको नहीं पहचान पा रहे थे, तो वही मांग अनंत खंडों में बंट हो। थोड़ी पर्ते जम गई हैं धूल की, लेकिन पर्त के नीचे तुम्हारे गई थी। वह जो पद को चाहा था, वह अपने ही भीतर आत्मपद प्राण अभी भी जीवंत हैं। जलधार अभी भी ताजी है। को चाहा था। वह जो धन को चाहा था, वह अपने ही भीतर उस ऊपर-ऊपर काई छा गई है। तुम इसे भूल भी नहीं गए हो, शाश्वत धन को चाहा था, जो मेरा स्वभाव है। वह जो यश और क्योंकि कोई कैसे अपने को भूल जा सकता है? भूलने जैसी प्रतिष्ठा चाही थी, उस यश और प्रतिष्ठा में अपनी ही महिमा की हालत है, लेकिन बिलकुल नहीं भूल गये हो। उसी में संभावना तलाश थी-गलत रास्ते पर गलत दिशा में। है। उसी में किरण है संभावना की। जरा-सा सहारा पकड़ लो महावीर का सारा योग आत्म-स्थिति है। कृष्ण ने कहा है गीता तो तुम अपने को याद कर पाओगे। में समत्वं योग उच्चते! एक मुद्दत से तेरी याद भी आयीन हमें समत्व को उपलब्ध हो जाना योग है। महावीर भी कहते हैं, और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं। सम्यक दृष्टि, समत्व। सम्यकत्व-समता को उपलब्ध हो सदियां बीत गयी हों, मुद्दत बीत गयी है और तुमने अपनी याद | जाना! डांवाडोल न रहे चित्त, सम हो जाये। यहां-वहां न जाये, भी न की हो! लेकिन भूल गये हो, ऐसा भी नहीं है। इस बात को थिर हो जाये। थिरता सधे! ज्योति ऐसी हो जाये जैसे किसी घर ठीक से समझना। अगर बिलकुल भूल गये हो, तब तो याद का में हवा के झोंके न आते हों, और ज्योति अकंप जलती हो, कंपती कोई उपाय नहीं। और अगर बिलकुल याद है तो याद की कोई | न हो। समत्वं योग उच्चते। यही दशा योग की दशा है। और पत! 596/ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S साधका सेवनः आत्मसेवन महावीर कहते हैं, यही दशा-आया हु महं नाणे-यही दशा इससे जो कम पर राजी हुआ वह नासमझ है। तुम कंकड़-पत्थरों ज्ञान। आया में दंसणे चरिते य। और यही दर्शन और यही से राजी मत हो जाना। हीरों की अनंत राशियां तुम्हारी प्रतीक्षा कर चरित्र! रही हैं। आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे। 'और यही प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, अनुशासन। और यही आज इतना ही। संयम और योग!' महावीर ने जैसी महिमा का गुणगान आत्मा का किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्मा को आत्मा में उंडेल | दिया है। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी है और किसी ने भी नहीं दी। महावीर ने मनुष्य को सर्वोत्तम, सबसे ऊपर रखा है। और यह जो दुर्लभ क्षण तुम्हें मिला है मनुष्य होने का, इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसे ऐसे भूले-भूले ही मत गंवा देना। इसे दूसरों के द्वार खटखटाते-खटखटाते ही मत गंवा देना। बहुत मुश्किल से मिलता है यह क्षण और बहुत जल्दी खो जाता है। बड़ा दुर्लभ है यह फूल; सुबह खिलता है, सांझ मुझ जाता है। फिर हो सकता है सदियों-सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़े। इसलिए मनुष्य होना महिमा ही नहीं है, बड़ा उत्तरदायित्व है। अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ा कृत्य पूरा करना चाहा है। साथ दो! सहयोग दो! अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ी घटना को घटाने का आयोजन किया है। साथ दो! सहयोग दो! और जब तक तुम खिल न पाओगे, नियति तुम्हारी पूरी न होगी। तो समस्त ज्ञानी पुरुष कहते हैं तुम वापिस भेज दिये जाओगे। यह जीवन और मरण का चक्र चलता रहेगा। इससे केवल वे ही बाहर निकल पाते हैं जो इस जीवन और मरण के चक्र में चलते हुए भी अपने भीतर के सारे विचारों के चक्र को रोक देते हैं; जो इस जीवन-मरण के चक्र में रहते हुए भी, साक्षी हो जाते हैं और एक गहन अर्थ में बाहर हो जाते हैं। साक्षी होकर जो बाहर हो गया संसार के, उसको फिर दुबारा लौटने की कोई जरूरत न रहेगी। और जो दुबारा नहीं लौटता, उसने ही अपनी नियति को पूरा किया। उसके भीतर ही बीज फूल को उपलब्ध हुए। इस अवस्था को महावीर कहते हैं : परमात्म-अवस्था। तुम परमात्मा होने को हो। इससे कम पर राजी मत होना। 597 www.jainelibrary org