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वादी हर्षनन्दन कृत जिनसागरसूरि गीतानि
म. विनयसागर
गहूंली, गीत, भास आदि संज्ञक रचनाएँ सद्गुरु के प्रति अपनी हृद्गत भावनाओं को प्रकट करती हैं ।
वादी हर्षनन्दन
इन गीतों के प्रणेता वादी हर्षनन्दन हैं । हर्षनन्दन महोपाध्याय समयसुन्दरजी के प्रमुख शिष्य थे । इनका जन्म कब हुआ, दीक्षा कब ग्रहण की, वादीपद एवं उपाध्यायपद कब प्राप्त हुआ एवं स्वर्गवास कब हुआ ? इत्यादि के सम्बन्ध में कोई भी ऐतिह्य प्रमाण प्राप्त नहीं है । कल्पनाति आधार से कुछ प्रमाण एकत्रित किए जा सकते हैं, जो निम्न हैं :
जिनचन्द्रसूरिने अपने आचार्य काल में (१६१२ - १६७०) ४४ नन्दियाँ स्थापित की थी । इसमें से २७वीं नन्दी 'नन्दन' है । इस आधार से अनुमान किया जा सकता है कि संवत् १६४४ और १६४५ के बीच में इनको दीक्षा जिनचन्द्रसूरि ने प्रदान की होगी । जन्म स्थान का पता नहीं, किन्तु राजस्थान के निवासी हों और बाल्यावस्था में दीक्षित हुए हों, ऐसी कल्पना की जा सकती है ।
समयसुन्दरजी ने 'गुरुदुःखितवचनं' में स्पष्ट लिखा है - 'उत्कालिक - कालिक इत्यादि तपोवहन जिन्होंने किया हो, जिनको गच्छनायक को कहकर वाचकादि पद प्रेम से दिलाया गया हो, जिन्होंने बड़े - बड़े विशाल क्षेत्रों में गीतार्थ नाम धारण कर यशोपार्जन किया हो, जो तर्क - व्याकरण और काव्यादि विद्याओं में पारगामि हों, सूत्र - सिद्धान्त की चर्चा में वस्तुस्थिति प्ररूपक हों, पृथ्वीमण्डल में वादी हों और यशस्वी हों, हिन्दू और मुसलमानों के मान्य हों और सर्वगच्छों के मान्य हों, गच्छ के कार्यकर्ता हों; ऐसे शिष्य भी यदि गुरु की वृद्धावस्था में सेवा न कर सकें तो उन शिष्यों का होना निरर्थक है । जो गुरु को दुःखी करते हों, जिनमें लोकलज्जा भी नहीं हों, ऐसे शिष्यों
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को दोष नहीं देना चाहिए, कर्म का ही दोष है । इस लघु कृति की रचना समयसुन्दरजी ने १६९८ अहमदाबाद में की है । इसी प्रकार एक लघु गीत में अपने हृदय की मार्मिक पीड़ा को व्यक्त किया है, वह गीत है - " चेला नहीं तउ म करउ चिंता, दीसइ घणे चेले पण दुक्ख । संतान करंमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख ॥ '
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समयसुन्दरजी जिनचन्द्रसूरि के पौत्र शिष्य एवं सकलचन्द्रगणि के शिष्य थे । जिनका दीक्षाकाल १६२८ - १६३० से प्रारम्भ होकर १७०२ तक का है । इनके ४५ शिष्य थे और इसमें प्रशिष्यादि की गणना नहीं है। उन्हें जब १६८७ के गुजरात के भयंकर दुष्काल के समय अहमदाबाद में रहना पड़ा तब किसी शिष्य ने साथ नहीं दिया हो, ऐसा दुःखगर्भित - वचन में स्पष्ट झलकता है ।
संभवत: ऐसा प्रतीत होता है कि नव्यतर्कशास्त्री और वादी होने के पश्चात् ही सम्भवतः जिनसागरसूरि का शाखाभेद इन्हीं के कारण हुआ हो । अपने शिष्य व्यामोह से समयसुन्दरोपाध्याय एवं पुण्यनिधानोपाध्याय की सारी परम्परा जिनसागरसूरि की अनुयायी बन गई । अथवा अन्य कोई भी कारण रहा हो ।
वादी हर्षनन्दन चिन्तामणि, महाभाष्य आदि उत्कृष्ट ग्रन्थों के अध्येता थे । इनकी रचित निम्नांकित कृतियाँ प्राप्त हैं :
१.
२.
मध्याह्न-व्याख्यान-पद्धति (सं. १६७३ पाटण) ऋषिमण्डल-वृत्ति, ४ खण्ड (सं. १७०५ बीकानेर) स्थानांग-गाथागत-वृत्ति (सं. १७०५ वा. सुमतिकल्लोल के साथ) उत्तराध्ययन- -वृत्ति (सं. १७११ बीकानेर ज्ञान. )
३.
४.
आदिनाथ- व्याख्यान
५.
६.
आचारदिनकरप्रशस्ति
७. शत्रुंजययात्रा - परिपाटी-स्तवन (सं. १६७१)
८. गौड़ीस्त० (१६८३) एवं अन्य स्तवनादि ।
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इससे ऐसा प्रतीत होता है कि संवत् १७१२ के पश्चात् इनका देहावसान हुआ होगा ।
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इसमें अन्तिम कृति बालचन्द्र के नाम से है, उनका कोई परिचय प्राप्त नहीं होता है ।
ये समस्त कृतियाँ आचार्य जिनसागरसूरि से सम्बन्धित है अतएव जिनसागरसूरिजी का परिचय देना अनिवार्य है :
आचार्य श्रीजिनसागरसूरि
बीकानेर निवासी बोथरा शाह बच्छराज की भार्या मृगादे की कोख से सं० १६५२ कार्तिक शुक्ला १४ रविवार को अश्विनी नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था | जन्म नाम चोला था पर सामल नाम से प्रसिद्ध हुई । सं० १६६१ माघ सुदि ७ को अमृतसर जाकर अपने बड़े भाई विक्रम और माता के साथ श्रीजिनसिंहसूरिजी महाराज के पास दीक्षा लेकर 'सिद्धसेन' नाम पाया । आगम के योगोद्वहन किए, फिर बीकानेर में छमासी तप किया । कविवर समयसुन्दरजी के विद्वान् शिष्य वादी हर्षनन्दनजी ने आपको विद्याध्ययन बड़े मनोयोग से कराया । श्रीजिनसिंहसूरिजी के साथ संघवी आसकरण के संघ सह शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की । खंभात, अहमदाबाद, पाटण होते हुए वडली में जिनदत्तसूरिजी के स्तूप की यात्रा की । सिरोही पधारने पर राजा राजसिंह ने बहुत सम्मानित किया । जालौर, खंडप, दुनाड़ा होते हुए घंघाणी आकर प्राचीन जिनबिम्बों के दर्शन किये । बीकानेर पधारे, शाह बाघमल ने प्रवेशोत्सव किया। सम्राट जहांगीर के आमंत्रण से विहार कर आगरा जाते हुए मार्ग में जिनसिंहसूरिजी का स्वर्गवास हो जाने से राजसमुद्रजी को भट्टारकपद व सिद्धसेनजी को आचार्यपद से अलंकृत किया गया । चोपड़ा आसकरण, अमीपाल, कपूरचन्द, ऋषभदास और सूरदास ने पदमहोत्सव किया । पूनमियागच्छीय हेमसूरिजी ने सूरिमन्त्र देकर सं० १६७४ फा० सु० ७ को जिनराजसूरिजी व जिनसागरसूरिजी नाम प्रसिद्ध किया ।
मेड़ता से राणकपुर, वरकाणा, तिंवरी, ओसियां, घंघाणी यात्रा कर मेड़ता में चातुर्मास बिता कर जैसलमेर पधारे । राउल कल्याण व संघ ने वंदन किया । भणशाली जीवराज ने उत्सव किया । वहाँ श्रीसंघ को ग्यारह
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अंग सुनाये । शाह कुशला ने मिश्री सहित रुपयों की लाहण की । लौद्रवा जी में थाहरू साह ने स्वधर्मी - वात्सल्यादि में प्रचुर द्रव्य व्यय किया ।
श्रीजिनसागरसूरिजी फलौदी पधारे, श्रावक माने ने प्रवेशोत्सव किया। करणुंजा होते हुए बीकानेर पधारे । पाताजी ने संघ सह प्रवेशोत्सव किया । मंत्री कर्मचन्द के पुत्र मनोहरदास आदि सामहिये में पधारे । लूणकरणसर चतुर्मास कर जालपसर पधारे, मंत्री भगवंतदास ने उत्सव सह वंदन किया। डीडवाणा, सुरपुर, मालपुर जाकर बीलाड़ा में चौमासा किया, कटारियों ने उत्सव किया । मेड़ता में गोलछा रायमल के पुत्र अमीपाल - नेतसिंह व पौत्र राजसिंह ने नन्दिस्थापन कर व्रतोच्चारण किये । फिर राजपुर - कुंभलमेर होते हुए उदयपुर पधारे । मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र के पुत्र लक्ष्मीचन्द के पुत्र रामचन्द्र, रुघनाथ ने दादी अजायबदे के साथ वंदन किया । फिर स्वर्णगिरि होते हुए सांचौर गए । हाथीशाह ने साग्रह चातुर्मास कराया ।
सं० १६८६ में पारस्परिक मनोमालिन्य से दोनों शाखाएँ भिन्न-भिन्न हो गई । जिनसागरसूरि की 'आचारजीया' शाखा में उ० समयसुन्दरजी का सम्पूर्ण शिष्य परिवार और पुण्यप्रधानादि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी के सभी शिष्य मिल गये । तथा अनेक नगरों का संघ जिनसागरसूरिजी को मानने लगा। मुख्य श्रावक समुदाय के धर्मकृत्य इस प्रकार हैं
करमसी शाह संवत्सरी को महम्मदी मुद्रा, उनका पुत्र लालचन्द श्रीफल की प्रभावना करता । माता धनादे ने उपाश्रय का जीर्णोद्धार कराया । भार्या कपूरदे ने धर्मकार्यों में प्रचुर द्रव्यव्यय किया । शाह शान्तिदास, कपूरचन्द ने स्वर्ण के वेलिये देकर ढाई हजार खर्च किया । उनकी माता मानबाई ने उपाश्रय के एक खण्ड का जीर्णोद्धार कराया । प्रत्येक वर्ष चौमासी (आषाढ़) के पौषधोपवासी श्रावकों को पोषण करने का वचन दिया । शा० मनजी के कुटुम्ब में उदयकरण, हाथी जेठमल, सोमजी मुख्य थे । हाथीशाह के पुत्र धनजी भी सुयश - पात्र थे । मूलजी, संघजी पुत्र वीरजी एवं परीख सोनपाल ने २४ पाक्षिकों को भोजन कराया । आचार्यश्री की आज्ञा में परीख चन्द्रभाण, लालू, अमरसी, सं० कचरमल्ल, परीख अखा, बाछड़ा देवकर्ण, शाह गुणराज के पुत्र रायचन्द, गुलालचन्द आदि राजनगर का संघ तथा खंभात के
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भशाली वधू का पुत्र ऋषभदास भी धर्मकृत्य करने में उल्लेखनीय था । हर्षनन्दन के गीतानुसार मुकरबखान नवाब भी आपको सम्मान देता था । अनेक गीतार्थों को उपाध्याय, वाचक आदि पद प्रदान किये और स्वहस्त से अपने पट्ट पर जिनधर्मसूरि को स्थापित किया । उस समय भणशाली वधू की भार्या विमलादे और सधुआ की भार्या सहजलदे व श्राविका देवकी ने पदोत्सव बड़े समारोह से किया ।
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श्रीजिनसागरसूरिजी का शरीर अस्वस्थ हो जाने से वैशाख सुदि ३ को गच्छभार छोड़ कर, शिष्यों को गच्छ की शिखामण देकर वैशाख सुदि ८ को अनशन उच्चारण कर लिया । उस समय आपके पास उपाध्याय राजसोम, राजसार, सुमतिगणि, दयाकुशल वाचक, धर्ममन्दिर, ज्ञानधर्म, सुमतिवल्लभ आदि थे । सं० १७१९ ज्येष्ठ कृष्णा ३ शुक्रवार को आप समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारे । हाथीशाह ने धूमधाम से अन्त्येष्टि क्रिया की । संघ ने दो सौ रुपये खर्च कर गायें, पाड़े, बकरियों आदि की रक्षा की । शान्ति - जिनालय में देववंदन किया । इनके रचित विहरमान बीसी एवं स्तवनादि उपलब्ध हैं । बीकानेर शान्तिनाथ मन्दिर और रेल दादाजी में आपके चरण स्थापित हैं । प्रति - परिचय
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इस प्रति की साइज २५.२ x ४.३ है । चार पत्र हैं । दूसरा पत्र अप्राप्त है । प्रति पत्र पंक्ति लगभग १३ हैं और प्रति पंक्ति अक्षर लगभग ३९ हैं। लेखन १८वीं सदी का प्रारम्भ है । अपूर्ण प्रति है । प्रारम्भ की कृतियाँ वादी हर्षनन्दन कृत है और अन्तिम १४वीं कृति बालचन्द कृत है।
(१) गहूंली गीत
॥ ६० ॥ ढाल - सखीरी
मंगलकारणि सहथइ, आदीसर अरिहन्त सखीरी । सुन्दरिनइ सीखावीयउ, उतपति जास सुणन्त सखीरी ॥१॥ साथीयइ मन लागउजी नन्द्यावर्त इण तास सखीरी । चउरंस चतुरस मारिस्यइ, जाणइ सगलउ गाम सखीरी ॥
साथीयइ मन लागउजी ।
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कुंकू आणी सोरठउ, माण्डिलगढरी सालि सखीरी । पदमिण जातिनी श्राविका, वात वणइ ततकाल सखीरी ॥सा० २॥ कोकिल कण्ठइ कामिनी, गीतारि त्रिण्ह गाय सखीरी । मोती कीजइ लुंछणा, सफल मनोरण थाय सखीरी ॥सा० ३॥ यथासकतइ साचवइ कलयुगि मे तपे धन्न सखीरी । श्रावककरणी एहवि, उत्तराध्ययन वचन्न सखीरी ॥सा० ४॥ मिरगां माता गाईयइ, धर्मपिता वच्छराज सखीरी । जिण कुलि सद्गुरु उपनउ, खरतरगच्छ गच्छराज सखीरी ॥सा० ५॥ सुखसन्तान सदा हुवइ, सहगुरु आपइ वास सखीरी । जिनसागरसूरि वान्दतां, हरखनन्दन उह्लास सखीरी ॥सा० ६॥
इति गहुली गीतम्
(२) गुरु गीत
ढाल - लाखा फुलाणी री तिहां सखी वांदण जाउ, जिण देस माहे पूजजी जांणीयइ । हुआ सकुन विचार पांचुही पण्डित तेह वखाणीया ॥१॥ श्रीजिनसागरसूरि कलियुगि सुणीजइ गोयम-सामजी । फुरकइ वामउ नेत्र, आज असोही सुणि अभिरामजी ॥२॥ माल्हा लीनि ज माहली, सन्मुख आवी आडी उडती । वामउ सबद गणेश, दाहिणी देवी दीठीइ उडती ॥३॥ अक समान मुझ हाथ, आम्बा बे दीधा मीठा बहुफल्या । सामा साजण मेलि, मनमान्या पूजजी तउ मील्या ॥४॥ हीयइ कमल उल्हास, नयणे कीजइ पूजजी लुंछणा । भाव भगतिसुं भेटि, सुख समाधि पूजजी पूछणा ॥५॥ नयणे दीठा पूजजी, जीभ न दीठा गुरुगुण कुण तवइ । हरखनन्दन कहइ एम, मंगल कारण पूजजी नवनवइ ॥६॥
इति श्री गुरु गीतम्
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(३) अन्योक्ति गीतम् (मो मन उमाह्यउ श्री आचारिज वांदिवा-एहनी ढाल) कलियुग खोटउ कवियण कां कहउजी, जिहां जिनसागरसूरि । श्रीखरतरगच्छ केरी मांडणी, भाग सोभाग पडूर ॥ दिन-दिन दीसइ हो पूजजी दीपता, गुरु समवडि करइ कुंण । दुरजण माणस बेहुं नयणमई, सिभरवालउ लुंण ॥दि० १॥ खोटउ मुरिख जे करइ, गुरुजी न पुइचई कोइ । वानर ऊचा घणुं ही आफलइ, गवण च पहुंचइ तोइ ॥दि० २॥ साजन साम्भलि सुख पामइ घj, दुर्जण मन अमलाय । दिन-दिन चिन्ता थायइ दूबला, गुरु प्रताप न खमाय ॥दि० ३॥ लेख हुवइ जगदीस ताहरउ, माणस भुंजइ भाउ । तेहनइ मुहडइ माहें पडइ, जेह उड़ावइ वाउ |दि० ४॥ श्रीजिनसागरसूरि वांदिस्यइ, ते जीव भविअण जाण । वादी हरखनन्दन कहइ इणविधइ, साची वात प्रमाण ॥दि० ५॥
इति अन्योक्ति गीतम्
(४) गुरु गीतम्
(राग मारु, ढाल सोहलारी) सखी मोरी करि सिणगार हे, सखी मोरी पहिरि पटोली नवरंग चुनड़ी हे । उरि एकावली हार हे, सखी मोरी सीस उपरि सोवन राखरी हे ॥१॥ सिरधरि पूरण कुम्भसि............ (अपूर्ण)
(५) अपूर्ण
लउ, तिहां याचक पामइ दानो रे ॥श्री० ४॥ नयण सलूणा पूज्यजी, हिव हुं बलिहारी नामइं रे । मोहणगारा मानवी, हिव हरखनन्दन सुख पामइ रे ॥श्री० ५॥
इति गीतम्
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(८) गुरु गीतम् (गुहंलड़ी मनरंगइ गावउ - एहनी ढाल )
श्रीजिनसागरसूरि आचारिज चालउ सखी गुरुवन्दण कारिज || श्री० १॥ चालउ मोती चउक पुरावउं सूहव नारि मोतीयडे वधावउ || श्री० २|| अमृतवाण सुणि सुख पावउ, मंगल गीत मधुर - सरी गावउ ॥ श्री० ३ ॥ बोथरां वंसइ सोह चडावइ, वलिय पिता वच्छराज मल्हावइ ॥ श्री० ४ ॥ मिरघां माता उरि अवतारा, लघुवय लीछउ संयमभारा ॥ श्री० ५ ॥ श्रीजिनसिंहसूरीसरसीस सोहइ लक्षण अंगि बत्रीस || श्री० ६ ||
संवत् सोल चिमोत्तर वरसे, फागुण सुदी सातमि बहु हरखे || श्री० ७৷৷ पद ठवण मेड़ता माहीं कीधउ संघवी आसकरण सोभाग लीधउ || श्री० ८ ॥ उत्कृष्टी किरिया खपकारी श्री आचारिज बाल- ब्रह्मचारी | श्री० ९॥ सुन्दर रूप अनइं सोभागी आचारिज महावय सागी ॥ श्री० १०॥ दरिसण दीठा आणन्द थायइ वाचक हरखनन्दण गुण गायइ ॥ श्री० ११ ॥ इति श्री गुरु गीताम्
अनुसन्धान ५० (२)
(९) गुरु गीतम्
(वीर वखाणी राणी चेलणाजी - एहनी ढाल)
जिनसागरसूरि चिर जयउ जी, आचारिज अणगार ।
कठिन किरिया तप जप करइजी, गच्छ खरतर सिणगार ॥ जिन० १ ॥ धुर थकी सुजस सोभा घणीजी, लाइक कहता सहु लोग । जिणचन्द्रसूरि पणि काउ हूँतउ जी जेहनइ पाटनउ जोग ||जिन० २|| खरतर संघ सहु दीपतउजी मेडतई सबक...
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संघवी सलजी, आसकर्ण अवसर जाण ॥ जिन० ३ ||
सुन्दर रूप सोहामणाजी, सूत्र सिद्धान्त मु....
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गुरु भलाजी, सुललित सरस वखाण || जिन० ४ ॥
तात वच्छराज माता मृगांजी, जिनसिंहसूरिसीस । हरखनन्दण कहइ हरखसुंजी, प्रतपज्यो कोडि वरीस || जिन० ५ ॥
इति गीतम्
१. वस्तुत: यहाँ क्रमांक ६ होना चाहिए ।
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शी.
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(१०) गुरुगीतम्
(पूजजी चउमास थकी आवियउ - एहनी ढाल )
आज वधावउ जी गाईयइ, उछ्व घरी घरी आज । तोरण बांध्या
ऊजलइ, आव्या जिनसागरसूरि राय || आज ० १॥
सात पांच सूहव मिली, गोरी गावइजी भास ।
मादल ताल बजावतां, गन्धर्व गावइ छइ रास || आज० २|| सूत्र सिद्धान्त वखाणतां, कान
होइ ।
सुललित वाणीजी सांभलइ, निसचल मन सहु कोइ ||आज० ३ || कूकुं तिलकजी श्रावक, उत्तम फल हाथ ।
केसर अबीरजी छांटणा, साजण सहू को जी साथ ||आज० ४|| साथइ मोटांजी साधुजी, दीठां पातक जाय ।
तिण्हकाल करउ वन्दणाजी, पडिलाभइ पुण्य थाय ॥ आज० ५ ॥ धन मृगा कीन्नी कूंखडी, धन पिता वच्छराज ।
बोथरां वंसइजी चांदिलउ, गच्छमई वधसी छई लाज ॥ आज० ६ || गाई वाईजी हरखीया पूजजी द्यउ साबासि ।
हरखनन्दन सुख संपजइ, हाथ तणउ द्यउ वास || आज० ७ ॥
इति गीतम्
(११) गुरुगीतम्
(कपूर हुवइ अति ऊजलुं रे-एहनी ढाल)
सरवर सरवर जल हुवइ रे, गंगाजल अतसान्ति ।
घरि घरि कुलगुरु छइ छणां रे नावइ ए गुरु पांति ॥ १ ॥ रे सहियां श्रीजिनसागरसूरि
|
रतन ग्रही काच नांखीयइ रे, तिम सहगुरु नउ संघ रे सही ॥२॥
फूल्य सुन्दर नींबड़उ रे कोइली छइ नही लाग ।
पण्डित माणस राचिस्यइ रे ए स्युं रु धरमसम ॥३॥ नयण पदारथ ओलखइ रे लख आवरु लख जाइ ।
मन मान्या विण आपणइ रे सिर मन मणुं जाय रे सहिया ||४||
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अनुसन्धान ५० (२)
थोड़ा बोला गुण घणा रे पालइ संजय साच । हरखनन्दन करइ वन्दणा रे निकलंक काच नहीं वाय रे ॥५॥
___ इति गीतम्
(१२) गुरु गीतम्
(राग खम्भायती-एहनी ढाल) आठ वरस बालक वई रे लीधउ संजम भार । वारु वरस बावीसमइ रे खरतरगच्छ गणधारो रे । पियु ..... पखीयइ जिनसागरसूरि क्रिया करू रे ॥१॥ वड वयराग सोभागसुं रे सग वडइ कुण पूजइ रे । कठिन क्रिया देखीं करी रे शिथिलाचारी धूजइं रे ॥पियु० २॥ छत्रीस गुण अंगइ धरया रे शील सुगन्धित गात्रो रे । ध्यान मौन तप जप धरइ रे निरमल चारित्र पात्रो रे ॥पियु० ३॥ पूरव प्रीयां उधरया रे गुरु गच्छ राख्यउ नामो रे ।। श्रीसंघ हरखित दिन-दिनई रे हरखनन्दन अभिरामो रे ॥पियु० ४॥
इति श्री गुरु गीतम्
(१३)
(ढाल-पारधीयानी) हरख धरी म्हे आवीयो, मंगलीक कण्ठा गाय रे । चिर जीवउ पूरइ मुख दीठइ दुख जायइ ॥१॥ थारइ दरसण थी सुखथाइ इक वीनती ए वीसी अवधारि रे । धरमलाभ थायइ घणउ रे गुहलडी .............. सांची देसणा दीजीयइ रे ए मोटो उपगार रे । वार-वार कईयइ किसुं रे श्री गुरुजी सब जाण रे ॥चिर० २॥ अभिग्रह पिण पूरा हुवइ रे सुख पामउ भवि जीव रे ।। आज दिवस छइ परवउ रे श्री संघ उदय सदीव रे ॥चिर० ३॥ पूज पधारया पूठीयइ रे, मिरघा मात मलार रे । चि० । श्रीजिनसागरसूरिजी रे सफल मनोरथ सार रे ॥ चिर० ४||
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________________ मार्च 2010 35 सुहव करइ वधामणा रे चतुरविध श्रीसंघ रंग रे / चि० / हरखनन्दन कहइ सेवतां रे चतुर माणस चित चंग रे ॥चि० 5 // इति गीतम् (14) गुरु गीतम् (ढाल-हासलानी) जउ तुहे जास्यउ कामनइ हुं जाइसुं रे वान्दण मन भाइय कि / पूजजी भला। पूजजी कउ हो रुडउ परिवार अति रुडउ हो आचार-विचार कि / पू.भ. / सुणि सुन्दरी पहिली सुण्या पधारया खरतरगच्छराय कि ।पू. 1 // सजकरी सोल श्रृङ्गार तु हूं हिरु हो अति उजल वेश कि ।पू.। ओढ़ नवरंग चूनड़ी कसबीनी हो बांधु पाग विशेष कि ॥पू. 2 // तुं करिजे तिहां गूंहली हु खरचिसुं हे बोरी भरी दाम कि ।पू.। तुं गीत गावे पूजरा हूँ करिस्युं हे पंचाग प्रणाम कि ॥पू.३।। हूँ तेडीसि घरि आंपणइ पडिलाभे हे सुजतउ आहार कि ।पू.। वार-वार थे वान्दिज्यो हूँ सेविसुं हे गुरु चरण उदार कि ॥पू.४।। एह मनोरथ सवि फल्या जब दीठा हे जिनसागरसूरि कि ।पू.। वांद्या भाव वछइ घणा बोलइ बालचन्द सनूरकि ॥पू.५।। इति मनोरथ गीतम् (14) (15) गुरु गीतम् __ (मादल मई सुण्यउ-एहनी ढाल) इण नगरइं उ............. C/o. प्राकृत भारती 13-A, मेन गुरुनानकपथ मालवीयनगर, जयपुर