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मार्च २०१०
(३) अन्योक्ति गीतम् (मो मन उमाह्यउ श्री आचारिज वांदिवा-एहनी ढाल) कलियुग खोटउ कवियण कां कहउजी, जिहां जिनसागरसूरि । श्रीखरतरगच्छ केरी मांडणी, भाग सोभाग पडूर ॥ दिन-दिन दीसइ हो पूजजी दीपता, गुरु समवडि करइ कुंण । दुरजण माणस बेहुं नयणमई, सिभरवालउ लुंण ॥दि० १॥ खोटउ मुरिख जे करइ, गुरुजी न पुइचई कोइ । वानर ऊचा घणुं ही आफलइ, गवण च पहुंचइ तोइ ॥दि० २॥ साजन साम्भलि सुख पामइ घj, दुर्जण मन अमलाय । दिन-दिन चिन्ता थायइ दूबला, गुरु प्रताप न खमाय ॥दि० ३॥ लेख हुवइ जगदीस ताहरउ, माणस भुंजइ भाउ । तेहनइ मुहडइ माहें पडइ, जेह उड़ावइ वाउ |दि० ४॥ श्रीजिनसागरसूरि वांदिस्यइ, ते जीव भविअण जाण । वादी हरखनन्दन कहइ इणविधइ, साची वात प्रमाण ॥दि० ५॥
इति अन्योक्ति गीतम्
(४) गुरु गीतम्
(राग मारु, ढाल सोहलारी) सखी मोरी करि सिणगार हे, सखी मोरी पहिरि पटोली नवरंग चुनड़ी हे । उरि एकावली हार हे, सखी मोरी सीस उपरि सोवन राखरी हे ॥१॥ सिरधरि पूरण कुम्भसि............ (अपूर्ण)
(५) अपूर्ण
लउ, तिहां याचक पामइ दानो रे ॥श्री० ४॥ नयण सलूणा पूज्यजी, हिव हुं बलिहारी नामइं रे । मोहणगारा मानवी, हिव हरखनन्दन सुख पामइ रे ॥श्री० ५॥
इति गीतम्