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अनुसन्धान ५० (२)
को दोष नहीं देना चाहिए, कर्म का ही दोष है । इस लघु कृति की रचना समयसुन्दरजी ने १६९८ अहमदाबाद में की है । इसी प्रकार एक लघु गीत में अपने हृदय की मार्मिक पीड़ा को व्यक्त किया है, वह गीत है - " चेला नहीं तउ म करउ चिंता, दीसइ घणे चेले पण दुक्ख । संतान करंमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख ॥ '
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समयसुन्दरजी जिनचन्द्रसूरि के पौत्र शिष्य एवं सकलचन्द्रगणि के शिष्य थे । जिनका दीक्षाकाल १६२८ - १६३० से प्रारम्भ होकर १७०२ तक का है । इनके ४५ शिष्य थे और इसमें प्रशिष्यादि की गणना नहीं है। उन्हें जब १६८७ के गुजरात के भयंकर दुष्काल के समय अहमदाबाद में रहना पड़ा तब किसी शिष्य ने साथ नहीं दिया हो, ऐसा दुःखगर्भित - वचन में स्पष्ट झलकता है ।
संभवत: ऐसा प्रतीत होता है कि नव्यतर्कशास्त्री और वादी होने के पश्चात् ही सम्भवतः जिनसागरसूरि का शाखाभेद इन्हीं के कारण हुआ हो । अपने शिष्य व्यामोह से समयसुन्दरोपाध्याय एवं पुण्यनिधानोपाध्याय की सारी परम्परा जिनसागरसूरि की अनुयायी बन गई । अथवा अन्य कोई भी कारण रहा हो ।
वादी हर्षनन्दन चिन्तामणि, महाभाष्य आदि उत्कृष्ट ग्रन्थों के अध्येता थे । इनकी रचित निम्नांकित कृतियाँ प्राप्त हैं :
१.
२.
मध्याह्न-व्याख्यान-पद्धति (सं. १६७३ पाटण) ऋषिमण्डल-वृत्ति, ४ खण्ड (सं. १७०५ बीकानेर) स्थानांग-गाथागत-वृत्ति (सं. १७०५ वा. सुमतिकल्लोल के साथ) उत्तराध्ययन- -वृत्ति (सं. १७११ बीकानेर ज्ञान. )
३.
४.
आदिनाथ- व्याख्यान
५.
६.
आचारदिनकरप्रशस्ति
७. शत्रुंजययात्रा - परिपाटी-स्तवन (सं. १६७१)
८. गौड़ीस्त० (१६८३) एवं अन्य स्तवनादि ।