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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का
तुलनात्मक विवेचन
डा. हरीन्द्र भूषण जैन १. जम्बूद्वीप : वैदिक मान्यता
वैदिक लोगों को जम्बूद्वीप का ज्ञान नहीं था। उस समय की भौगोलिक सीमाएं। निम्न प्रकार थीं-पूर्व की ओर ब्रह्मपुत्र नदी तक गङ्गा का मैदान, उत्तर-पश्चिम की ओर हिन्दूकुश पर्वत, पश्चिम की ओर सिन्धुनदी, उत्तर की ओर हिमालय तथा दक्षिण की ओर विन्ध्यगिरि।
वेद में पर्वत विशेष के नामों में 'हिमवन्त' (हिमालय ) का नाम आता है । तैत्तिरीय आरण्यक ( १७ ) में 'महामेरु' का स्पष्ट उल्लेख है जिसे कश्यप नामक अष्टम सूर्य कभी नहीं। छोड़ता; प्रत्युत सदा उसकी परिक्रमा करता रहता है। इस वर्णन से प्रो० बलदेव उपाध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि महामेरु से अभिप्राय 'उत्तरी ध्रुव' है।'
वेदों में समुद्र शब्द का उल्लेख है, किन्तु पाश्चात्य विद्वानों के मत में वैदिक लोक समुद्र से परिचित नहीं थे। भारतीय विद्वानों की दृष्टि में आर्य लोग न केवल समुद्र से अच्छी तरह परिचित थे अपितु समुद्र से उत्पन्न मुक्ता आदि पदार्थों का भी वे उपयोग करते थे। वे समुद्र में लम्बी-लम्बी यात्राएँ भी करते थे तथा सौ दाड़ों वाली लम्बी जहाज बना लेड की विद्या से भी वे परिचित थे ।
- ऐतरेय ब्राह्मण (८/३ ) में आर्यमण्डल को पांच भागों में विभक्त किया गया है जिसके उत्तर हिमालय के उसपार उत्तरकुरु और उत्तरभद्र नामक जनपदों की स्थिति थी। ऐतरे ब्राह्मण (८/१४ ) के अनुसार कुछ कुरु लोग हिमालय के उत्तर की ओर भी रहते थे जिस 'उत्तरकुरु' कहा गया है। २. जम्बूद्वीप: रामायण एवं महाभारत कालीन मान्यता
रामायणीय भूगोल-वाल्मीकि रामायण के बाल, अयोध्या एवं उत्तरकाण्डों पर्याप्त भौगोलिक वर्णन उपलब्ध है, किन्तु किष्किन्धाकाण्ड के ४२वें सर्ग से ४०वें सर्ग तक सुग्रीव द्वारा सीता की खोज में समस्त बानर नेताओं को वानर-सेना के साथ सम्पूर्ण दिशाओं में भेजने के प्रसंग में तत्कालीन समस्त पृथ्वी का वर्णन उपलब्ध है। १. प्रो. बलदेव उपाध्याय, 'वैदिक साहित्य और संस्कृति' शारदा मन्दिर काशी, १९५५, दशन
परिच्छेद, वैदिक भूगोल तथा आर्य निवास, पृ० ३५५ २. वही, पृ० ३६२ ३. वही, पृ० ३६४
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २२७. वाल्मीकि, जम्बूद्वीप, मेरु तथा हिमवान् पर्वत एवं उत्तर कुरु से सुपरिचित थे :'उत्तरेण परिक्रम्य जम्बूद्वीपं दिवाकरः । दृश्यो भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छ्रयम्' ( रामा० ४.५०. ५८-४९) 'तेषां मध्ये स्थितो राजा मेरुरुत्तमपर्वतः' ( रामा० ४.४२-३८) 'अन्वीक्ष्य वरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ' ( रामा० ४.४३.१२) 'उत्तराः कुरवस्तत्र कृतपुण्यपरिश्रमाः' ( रामा० ४.४३.२८)
जैन परम्परा में उत्तरकुरु को भोगभूमि कहा गया है। रामायण के तिलक टीकाकार उत्तरकुरु को भोगभूमि कहते हैं-'तत आरभ्य उत्तरकुरुदेशस्य भोग भूमित्व कथनम्' (रामा० ४ ४३.३८ पर तिलक टीका ), जैन साहित्य में भोग भूमि का जैसा वर्णन प्राप्त होता है वैसा ही वर्णन उत्तर कुरु का रामायण के बाईस श्लोकों ( ४.४३.३८ से ६०) में उपलब्ध है। उनमें से कुछ श्लोक इस प्रकार हैं :--
'नित्य पुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः। दिव्यगन्धरस स्पर्शाः सर्वकामान् स्रवन्ति च ॥ नानाकाराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः । सर्वेसुकृतकर्माणः सर्वे रतिपरायणाः ।। सर्वे कामार्थ सहिता वसन्ति सहयोषितः ।। तत्र नामुदितः कश्चिन्नात्र कश्चिदसत्प्रियः । अहन्यहनि वर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः ।।
( रामा० ४.४३.४३-५२) . प्रो० एस० एम० अली, भूतपूर्व अध्यक्ष, भूगोल विभाग, सागर विश्वविद्यालय मायणीय जम्बूद्वीप की स्थिति पृथ्वी के बीच में मानते हैं जो कि भूगोल की जैन परम्परा पर्याप्त मेल खाती है।'
रामायण के किष्किन्धा काण्ड में जम्बूद्वीप का जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इस कार है:-जम्बद्वीप के पूर्व दिशा में क्रमशः भागीरथी, सरयु आदि नदियाँ, ब्र गध आदि देश तत्पश्चात् लवण समुद्र, यवद्वीप ( जावा ), सुवर्णरूप्यक द्वीप (बोनियो), शिर पर्वत, शोणनद, लोहित समुद्र, कूटशाल्मली, क्षीरोद सागर, ऋषभपर्वत, सुदर्शन डाग, जलोदसागर, कनकप्रभपर्वत, उदय पर्वत तथा सौमनस पर्वत, इसके पश्चात् पूर्व दिशा जम्य है। अन्त में देवलोक है।
जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में क्रमशः विन्ध्यपर्वत, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियाँ, खल, उत्कल, दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ, आन्ध्र, चोल, पाण्डय, केरल आदि देश, मलय पर्वत, इनपर्णी नदी, महानदी, महेन्द्र, पुष्पितक, सूर्यवान्, वैद्युत एवं कुञ्जर नामक पर्वत, भोगवती री, ऋषभ पर्वत, तत्पश्चात् यम की राजधानी पितृलोक ।
ह,
श्री एस० एम० अली, F. N. I. 'The Geography of the Puranas.' People's PubliE shing House, New Delhi, 1973, Page 21-23. (संक्षिप्त रूप---'Geo. of Puranast
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डॉ० हरीन्द्र भूषण जैन जम्बद्वीप के पश्चिम में क्रमशः सौराष्ट्र, वाह्लीक, चन्द्रचित्र (जनपद), पश्चिम समुद्र, सोमगिरि, पारिपात्र, वज्रमहागिरि, चक्रवात् तथा वराह (पर्वत), प्राग्ज्योतिषपुरम् सर्वसौवर्ण, मेरु एवं अस्ताचल ( पर्वत ) और अंत में वरुणलोक ।
इसी प्रकार जम्बूद्वीप के उत्तर में क्रमशः हिमवान् (पर्वत), भरत, कुरु, मद्र, कम्बोज, यवन, शक (देश), काल, सुदर्शन, देवसखा, कैलास, क्रौञ्च, मैनाक. (पर्वत), उत्तरकुरु देश तथा सोमगिरि और अंत में ब्रह्मलोक ।
महाभारतीय भूगोल महाभारत के भीष्म, आदि, सभा, वन, अश्वमेध एवं उद्योग पर्यों में भारत का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध है। तदनुसार जम्बूद्वीप और क्रौञ्चद्वीप मेरु के पूर्व में तथा शकद्वीप मेरी उत्तर में है।
__ महाभारतीय भूगोल में पृथ्वी के मध्य में मेरु पर्वत है। इसके उत्तर दिशा में पूर्व पश्चिम तक फैले क्रमशः भद्रवर्ष, इलावर्त तथा उत्तर कुरु हैं। तत्पश्चात् पुनः उत्तर की ओर क्रमशः नील पर्वत, श्वेत वर्ष, श्वेत पर्वत, हिरण्यक वर्ष, शृङ्गवान पर्वत हैं। पश्चात ऐरावतक और क्षीर समुद्र है। इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में पश्चिम से पूर्व तक फैले हुए केतुमाल एवं जम्बूद्वीप हैं । पश्चात् पुनः दक्षिण की ओर क्रमशः निषध पर्वत, हरिवर्ष, हेमकूट या कैला हिमवत वर्ष, हिमालय पर्वत, भारतवर्ष तथा लवणसमुद्र हैं। यह वर्णन जैन भौगोलि परम्परा के बहुत निकट है। ३. जम्बूद्वीप : पौराणिक मान्यता
प्रायः समस्त हिन्दू पुराणों में पृथ्वी और उससे सम्बन्धित द्वीप, समुद्र, पर्वत, न क्षेत्र आदि का वर्णन उपलब्ध होता है। पुराणों में पृथ्वी को सात द्वीप-समुद्रों वाला मा गया है। ये द्वीप और समुद्र क्रमशः एक दूसरे को घेरते चले गए हैं।
इस बात से प्रायः सभी पुराण सहमत हैं कि जम्बूद्वीप पृथ्वी के मध्य में स्थित और लवण समुद्र उसे घेरे हुए है । अन्य द्वीप समुद्रों के नाम और स्थिति के बारे में सभी पुर एकमत नहीं हैं। भागवत, गरुड, वामन, ब्रह्म, मार्कण्डेय, लिङ्ग, कूर्म, ब्रह्माण्ड, अग्नि, देवी तथा विष्णु पुराणों के अनुसार सात द्वीप और समुद्र क्रमशः इस प्रकार हैं
१-जम्बू-द्वीप तथा लवण समुद्र, २-प्लक्ष द्वीप तथा इक्षु सागर, ३-शाल्मली द्वीप सुरा सागर, ४-कुशद्वीप तथा सर्पिष् सागर, ५-क्रौञ्चद्वीप तथा दधिसागर, ६-शक द्वीप क्षीर सागर और ७-पुष्करद्वीप तथा स्वादुसागर ।। ४. जम्बद्धीप-जैन मान्यता
समस्त जैनपुराण, तत्त्वार्थसूत्र (तृतीय अध्याय ), त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि सम। १. श्री एस० एच० अली 'The Greography of the Puranas', पृ० ३२ तथा पृ० ३२-३
#4 # fpera Fig. No. 2. 'The World of the Mahabharat.--Diagrammatic'. २. 'Geo of Puranas'. पृ० २८, अध्याय II Puranic Continents and oceans.
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २२९ विश्व का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध होता है। लोक के तीन विभाग किए गए हैं-अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक । मेरु पर्वत के ऊपर ऊर्ध्वलोक, नीचे अधोलोक एवं मेरु की जड़ से चोटी पर्यन्त मध्यलोक है।
मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो लवण समुद्र से घिरा है। समुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड नामक महाद्वीप है। धातकीखण्ड द्वीप को कालोदधि समुद्र वेष्टित किए हुए हैं । अनन्तर पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। पुष्करवरद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है जिससे इस द्वीप के दो भाग हो गए हैं । अतः जम्बूद्वीप धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप, इन्हें मनुष्य क्षेत्र कहा गया है।
जम्बूद्वीप का आकार स्थाली के समान गोल है। इसका विस्तार एक लाख योजन है। इसके बीच में एक लाख चालीस योजन ऊँचा मेरु पर्वत है। मनुष्य क्षेत्र के पश्चात् छह द्वीपसमुद्रों के नाम इस प्रकार हैं - वारुणीवर द्वीप-वारुणीवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरवर समुद्र, घृतवर द्वीप-घृतवर समुद्र, इक्षुवर द्वीप-इक्षुवर समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप-नन्दीश्वर समुद्र, अरुणवर द्वीप-अरुणवर समुद्र, इस प्रकार स्वयंभू रमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र हैं।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सात क्षेत्र, छह कुलाचल और चौदह नदियाँ हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं। ये पूर्व से पश्चिम तक लम्बे हैं। ये जिन सात क्षेत्रों को विभाजित करते हैं उनके नाम हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इन सातों क्षेत्रों में बहने वाली चौदह नदियों के क्रमशः सात युगल हैं, जो इस प्रकार हैं :- गङ्गा-सिन्धु, रोहित्-रोहितास्या, हरित्-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला तथा रक्ता-रक्तोदा। इन नदी युगलों में से प्रत्येक युगल की पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है और दूसरी नदी पश्चिम समुद्र को।
भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस (५२६.६) योजन है। विदेह पर्यन्त पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार भरत-क्षेत्र के विस्तार से द्विगुणित है। उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान है।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत देव कुरु और उत्तर कुरु नामक दो भोग भूमियाँ हैं । उत्तर कुरु की स्थिति सीतोदा नदी के तट पर है। यहाँ के निवासियों की इच्छाओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। इनके अतिरिक्त हैमवत, हरि, रम्यक तथा हैरण्यवत क्षेत्र भी भोगभूमियाँ हैं। शेष भरत, ऐरावत और विदेह (देवकरु और उत्तर कुरु को छोड़कर) कर्म भूमियाँ हैं।
भरत क्षेत्र हिमवान् कुलाचल के दक्षिण में पूर्व-पश्चिमी समुद्रों के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिङ्ग, अङ्ग, बङ्ग, काश्मीर, वत्स, पाञ्चाल, मालव, कच्छ, मगध विदर्भ, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, कोंकण आन्ध्र, कर्नाटक, कोशल, चोल. केरल, शूरसेन, विदेह, गान्धार, काम्बोज, बाल्हीक, तुरुष्का शक, केकय आदि देशों की रचना मानी गयी है।' १. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री-आदि पुराण में प्रतिपादित भारत', गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी, १९६८, पृ० ३६-४४ 'आदिपुराण में प्रतिपादित भूगोल' प्रथम परिच्छेद तथा तत्त्वार्थसूत्र की 'सर्वार्थसिद्धि' टीका, सम्पादक पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९६५ तृतीय अध्याय पृ० २११-२२२
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन ५. जम्ब द्वीप एवं आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक
विवेचन
सप्तद्वीप-विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण प्रभृति पुराणों में सप्तद्वीप और सप्तसागर वसुन्धरा का वर्णन आया है। यह वर्णन जैन हरिवंश पराण और आदिपराण की अपेक्षा बहत भिन्न है। महाभारत में तेरह द्वीपों का उल्लेख है। जैन मान्यतानुसार प्रतिपादित असंख्य द्वीप-समुद्रों में जम्बू, क्रौञ्च और पुष्कर द्वीप के नाम वैदिक पुराणों में सर्वत्र आए हैं।
समुद्रों के वर्णन के प्रसंग में विष्णुपुराण में जल के स्वाद के आधार पर सात समुद्र बतलाये गए हैं। जैन परम्परा में भी असंख्यात समुद्रों को जल के स्वाद के आधार पर सात ही वर्गों में विभक्त किया गया है। लवण सुरा, घृत, दुग्ध, शुभोदक, इक्षु और मधुरइन सात वर्गों में समस्त समुद्र विभक्त हैं । विष्णपुराण में 'दधि' का निर्देश है, जैन परंपरा में इसे 'शुभोदक' कहा है। अतः जल के स्वाद की दृष्टि से सात प्रकार का वर्गीकरण दोनों ही परंपराओं में पाया जाता है।
जिस प्रकार वैदिक पौराणिक मान्यता में अन्तिम द्वीप पुष्करवर है, उसी प्रकार जैन मान्यता में भी मनुष्य लोक का सीमान्त यही पुष्करार्ध है। तुलना करने से प्रतीत होता है कि मनुष्य लोक की सीमा मानकर ही वैदिक मान्यताओं में द्वीपों का कथन किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में मान्य जम्बू, धातकी और पुष्करार्ध, इन ढाई द्वीपों में वैदिक परम्परा में मान्य सप्तद्वीप समाविष्ट हो जाते हैं। यद्यपि क्रौञ्चद्वीप का नाम दोनों मान्यताओं में समान रूप से आया है, पर स्थान-निर्देश की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है।'
बौद्ध परम्परा में केवल चार द्वीप माने गए हैं। समुद्र में एक गोलाकार सोने की थाली पर स्वर्णमय सुमेरु गिरि स्थित है। सुमेरु के चारों ओर सात पर्वत और सात समुद्र हैं। इन सात स्वर्णमय पर्वतों के बाहर क्षीर सागर है और क्षीर सागर में चार द्वीप अवस्थित हैं :--कुरु, गोदान, विदेह और जम्बू । इन द्वीपों के अतिरिक्त छोटे-छोटे और भी दो हजार द्वीप हैं।२
आधुनिक भौगोलिक मान्यता पौराणिक सप्तद्वीपों की आधुनिक भौगोलिक पहिचान ( Identification ) तथा स्थिति के विषय में दो प्रकार के मत पाए जाते हैं। प्रथम मत के अनुसार सप्तद्वीप ( जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौञ्च, शक तथा पुष्कर ) क्रमशः आधुनिक छह महाद्वीप-एशिया, योरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका एवं एण्टार्टिका ( दक्षिणी ध्रुव प्रदेश ) का प्रतिनिधित्व करते हैं।
द्वितीय मत के अनुसार ये सप्तद्वीप पृथ्वी के आधुनिक विभिन्न प्रदेशों के पूर्वरूप हैं। इसमें भी तीन मत प्रधान हैं१. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री 'आदि पुराण'... 'भारत' पृ० ३९-४० २. एच० सी० रायचौधरी, Studies in Indian Antiquities'. 66, P. T.5
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन
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(क) जम्बू ( इण्डिया ), प्लक्ष ( अराकात तथा बर्मा), कुश ( सुन्द-आर्चीपिलागो), शाल्मली ( मलाया प्रायद्वीप), क्रौञ्च ( दक्षिण इण्डिया ), शक ( कम्बोज ) तथा पुष्कर ( उत्तरी चीन तथा मंगोलिया ) ।
(ख) जम्बू ( इण्डिया), कुश ( ईरान ), प्लक्ष ( एशिया माइनर ), शाल्मली ( मध्य योरोप), क्रौञ्च ( पश्चिम योरोप ), शक ( ब्रिटिश द्वीप समूह ) तथा पुष्कर (आईसलैण्ड)२
. (ग) जम्बू (इण्डिया), क्रौञ्च (एशिया माइनर), गोमेद (कोम डी टारटरी-Kome die Tartary), पुष्कर (तुर्किस्तान), शक (सीथिया), कुश (ईरान, अरेबिया तथा इथियोपिया), प्लक्ष (ग्रीस) तथा शाल्मली (सरमेटिया-Sarmatia ?)२
किन्तु प्रसिद्र भारतीय भूगोल शास्त्री डॉ० एस० एम० अली उपर्युक्त चारों मतों से सहमत नहीं हैं। पुराणों में प्राप्त तत्तत्प्रदेश की आबहवा (Climate ) तथा वनस्पतियों (Vegetation) के विशेष अध्ययन से सप्तद्वीपों की आधुनिक पहिचान के विषय में वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचे वह इस प्रकार हैं
जम्बूद्वीप (भारत), शकद्वीप (मलाया, श्याम, इण्डो-चीन, तथा चीन का दक्षिण प्रदेश), कुशद्वीप (ईरान, ईराक)' प्लक्ष द्वीप (भूमध्यसागर का कछार), पुष्करद्वीप (स्केण्डिनेवियन प्रदेश), फिनलैण्ड, योरोपियन रूस का उत्तरी प्रदेश तथा साइबेरिया), शाल्मली द्वीप (अफ्रीका ईस्ट-इंडीज, मेडागास्कर) तथा क्रौञ्चद्वीप (कृष्ण सागर का कछार)४
मेरु पर्वत जैन परम्परा में मेरु को जम्बूद्वीप की नाभि कहा है-'तन्मध्ये मेरुनाभिर्वत्तो योजनशत सहस्रविष्कम्भो जम्बद्रीपः' ( तत्त्वार्थसत्र ३-९), अर्थात् मेरु जम्बद्वीप के बिल्कल मध्य में है। इसकी ऊँचाई १ लाख ४० योजन है। इसमें से एक हजार योजन जमीन में है, चालीस योजन की अंत में चोटी है और शेष निन्यानबे हजार योजन समतल से चूलिका तक है। प्रारम्भ में जमीन पर मेरु पर्वत का व्यास दस हजार योजन है जो ऊपर क्रम से घटता गया है। मेरु पर्वत के तीन खण्ड हैं। प्रत्येक खण्ड के अन्त में एक एक कटनी है। यह चार वनों से सुशोभित है-एक जमीन पर और तीन इन कटनियों पर। इनके क्रम से नाम हैं-भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक। इन चारों वनों में, चारों दिशाओं में एक-एक वन में चारचार इस हिसाब से सोलह चैत्यालय हैं। पाण्डुकवन में चारों दिशाओं में चार पाण्डुक शिलायें १. Cot Gerini 'Researches On Pltolemy's Geography of Eastern Asia' (1909)
Page-725 २. F. Wilford-Asiatic Researches' Vol. VIII, Page 267-346 B. V. V. Iyer ---The Seven Dwipas of the Puranas' - The Quarterly Journan of the Mythical Society ( London ), 15, No. 1. p. 62, Vol. No. 2, pp 119-127,
No. 3. pp. 238-45, Vol. 16, No. 4. pp. 273-82 ४. डॉ० एच० एच० अली 'Geo of Puranas' p. 39-46. (Ch. II. Puranic continents and
Oceans).
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन हैं जिन पर उस-उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। इसका रंग पीला है।
वेदों में मेरु नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यक ( १.७.१.३.) में 'महामेरु' है किन्तु इसकी पहचान के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जैन आगम साहित्य में इसके परिणाम तथा स्थान के बारे में प्रायः एक जैसे ही कथन उपलब्ध हैं।
परशियन, ग्रीक, चाइनीज, ज्यूज तथा अरबी लोग भी अपने-अपने धर्मग्रन्थों में मेरु का वर्णन करते हैं। नाम, स्थान आदि के विषय में भेद होते हुए भी केन्द्रीय विचारधारा वही है जैसा हिन्दू पुराणों में इसका वर्णन है। जोरोस्ट्रियन धर्मग्रन्थ के अनुसार अल-बुर्ज ( Al-Burj) नामक पर्वत ने ही पृथ्वी के समस्त पर्वतों को जन्म दिया और इसी से विश्व
जल से आप्लावित करने वाली नदियाँ निकलीं। यही अल-बर्ज, मेरु है। चाइनीज लोगों का विश्वास है कि 'त्सिग लिंग' ( Tsing-Ling ) ही मेरुपर्वत है। इसी से विश्व के समस्त पर्वत और नदियाँ निकलीं।
मेरु के परिमाण और आकार के विषय में विष्णुपुराण में उल्लेख है कि सभी द्वीपों के मध्य में जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के मध्य में स्वर्णगिरि मेरु है। इसकी समस्त ऊँचाई एक लाख योजन है, जिसमें से १६ हजार योजन पृथ्वी के नीचे और चौरासी हजार योजन पृथ्वी के ऊपर है। चोटी पर इसका घेरा बत्तीस हजार योजन तथा मूल में सोलह हजार योजन है, अतः इसका आकार ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पृथ्वीरूपी कमल का 'कमलगट्टा' (Seedcup) हो । पद्मपुराण के अनुसार इसका आकार धतूरे के पुष्प जैसा घण्टे के आकार (Bellshape) का है। वायुपुराण के अनुसार चारों दिशाओं में फैली इसकी शाखाओं के वर्ण पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में क्रमशः श्वेत, पीत, कृष्ण और रक्त हैं । सीलोन के बुद्धिस्ट लोगों के अनुसार मेरु का घेरा सर्वत्र एक जैसा है। नेपाली परम्परा के अनुसार इसका आकार ढोल जैसा है।
आधुनिक भौगोलिक मान्यता मेरु की उपयुक्त स्थिति को ध्यान में रखते हुए अब हमें उसके वर्तमान स्वरूप और स्थान के विषय में विचार करना चाहिए।
हिमालय तथा उसके पार के क्षेत्र (Himalayan and Trans-Himalayan Zone) में पाँच उन्नत प्रदेश हैं। पुराणों में प्राप्त मेरु के विवरण के आधार पर, इन उन्नत प्रदेशों की तुलना मेरु से की जा सकती है। ये प्रदेश हैं
१-कराकोरम (Karakoram) पर्वत शृङ्खलाओं से घिरा क्षेत्र,
२-धौलगिरि (Dhaulagiri) पर्वत शृङ्खलाओं से घिरा क्षेत्र, १. सर्वार्थसिद्धि-तृतीय अध्याय पृ० २११-२२२ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी २. डॉ० एस० एम० अली Geo of Puranas, ch. III ( The Mountain System of the
Puranas) पृ० ४७-४८
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २३३ ३–एवरेस्ट ( Everest ) पर्वत शृंखलाओं से घिरा क्षेत्र, ४-हिमालयन आक्स (Himalayan Arcs) तथा कुन-लुन (Kun-lun) पर्वत से घिरा
हुआ तिब्बत का पठार, तथा ५-हिन्दूकुश (Hindu-Kush), कराकोरम, टीन-शान ( Tienshan) तथा अलाह पार
पर्वत शृंखला (Trans-Alai system) की बर्फ से ढकी चोटियों से घिरा पामीर का
उन्नत पठार । इन पाँचों उन्नत प्रदेशों में से पामीर के पठार' से मेरु की तुलना करना और भी अधिक सही और युक्तियुक्त प्रतीत होता है ।। पामीर और मेरु में नाम का भी सादृश्य है
पा--मीर=मेरु । यदि पामीर के पठार से मेरु की तुलना सही है तो पुराणों में प्रतिपादित जम्बूद्वीप के पार्श्ववर्ती प्रधान पर्वतों की भी पहचान की जा सकती है।
पुराणों के अनुसार मेरु के उत्तर में तीन पर्वत हैं - नील, श्वेत [जैन परम्परा के अनुसार 'रुक्मी' ] और शृङ्गवान् [ जै० प० शिखरी], ये तीनों पर्वत, रम्यक, हिरण्मय [ जै० प० हैरण्यवत् ] तथा कुरु [ जै० प०--ऐरावत् ] क्षेत्रों के सीमान्त पर्वत हैं। इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में भी तीन पर्वत हैं-निषध, हेमकूट [जै० प०-महाहिमवान् ] तथा हिमवान् । ये तीनों पर्वत, हिमवर्ष [ जै० प० हरि ], किम्पुरुष [ जै० प०-हैमवत् ] और भारतवर्ष [ जै० प०-भरत ] क्षेत्रों के सीमान्त पर्वत हैं। ये छहों पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र तक फैले हैं।
इन सभी पर्वतों की तुलना वर्तमान भूगोल से इस प्रकार की जा सकती है१-शृङ्गवान् [शिखरी] की करा ताउ-किरगीत-केतमान पर्वतशृङ्खला [Kara Tau
Krighiz-Ketman Chain] से, २--- श्वेत [रुक्मी] की नूरा ताउ-तुर्किस्तान-अतबासी पर्वत शृङ्खला [Nura Tau ___Turkistan-Atbasi Chain] से, ३-नील की जरफशान-ट्रान्स-अल्लाह-टीन शान पर्वत शृङ्खला से, ४-निषध की हिन्दूकुश तथा कुनलुन पर्वत शृङ्खला से ५-हेमकूट [महाहिमवान्] की लद्दाख-कैलाश-ट्रान्सहिमालयन पर्वत शृङ्खला से तथा ६–हिमवान् की हिमालय पर्वत शृंखला [Great Himalayan range] से ।'
जम्ब द्वीप जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, पुराणों में मेरु पामीर्स] नील के उत्तर में क्रमशः तीन पर्वत मालायें हैं जो पूर्व-पश्चिम लम्बी हैं-नील, जो कि मेरु के सबसे निकट और सबसे लम्बी पर्वतमाला है, श्वेत. जो कि नील से कुछ छोटी और उससे उत्तर की ओर आगे है, तथा अन्तिम शृङ्गवान्, जो कि सबसे छोटी तथा श्वेत से उत्तर की ओर आगे है। १. डा० एस० एम० अली Geo. of Puranas पृ० ५० से ५३ तक
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जैन परम्परा के अनुसार भी मेरु के उत्तर में तीन वर्षधर पर्वत हैं-नील, रुक्मी और शिखरी। दोनों (जैन-वैदिक) परम्पराओं में केवल नील पर्वतमाला का ही नाम सादृश्य नहीं है अपितु रुक्मी [श्वेत] और शिखरी [शृङ्गवान्] पर्वतमाला का भी नाम सादृश्य है। इन पर्वतों की आधुनिक भौगोलिक तुलना भी हम विभिन्न पर्वतमालाओं से कर चुके हैं।
___इन पर्वतमालाओं तथा उत्तरी समुद्र [आर्कटिक ओशन] अर्थात् लवण समुद्र के बीच क्रमशः, नील और श्वेत [रुक्मी] के बीच रम्यक या रमणक [जैन परम्परा में रम्यक] वर्ष, श्वेत और शृङ्गवान् [ जै० प० में शिखरी ] के बीच हिरण्यक [ जै० प० में हैरण्यवत् ] तथा शृङ्गवान् और उत्तरी समुद्र-लवण समुद्र के बीच उत्तरकुरु या शृङ्गासक [ जैन परम्परा में ऐरावत ] नाम के वर्ष क्षेत्र हैं।'
जम्ब द्वीप का उत्तरी क्षेत्र सबसे पहले हम रम्यक क्षेत्र को लेते हैं । जैन परम्परा में भी इसका नाम रम्यक वर्षक्षेत्र है । इसके दक्षिण में नील तथा उत्तर में श्वेत पर्वत है। हमारी पहचान के अनुसार नील, नूरताउ-तुर्किस्तान पर्वतमालाएँ हैं और श्वेत, जरफशान-हिसार पर्वत मालाएँ हैं । - यह प्रसिद्ध है कि एशिया के भूभाग में अति प्राचीन काल में दो राज्यों की स्थापना हुई थी-आक्सस (Oxus River) नदी के कछार में बेक्ट्रिया राज्य (Bactria) तथा जरफशान नदी
और कशका दरिया (River Jarafshan and Kashka Darya) के कछार में सोगदियाना राज्य ( Sogdiana ) आज से २५०० या २००० वर्ष पूर्व ये दोनों राज्य अत्यन्त घने रूप से बसे थे।। यहाँ के निवासी उत्कृष्ट खेती करते थे। यहाँ नहरें थीं। व्यापार और हस्तकला कौशल में भी ये राज्य प्रवीण थे।
ऐसा कहा जाता है कि 'समरकंद' की स्थापना ३००० ई० पू० हुई थी। अतः ‘सोगदियाना' को हम मानव संस्थिति का सबसे प्राचीन संस्थान कह सकते हैं । 'सोगदियाना' का नील
और श्वेत पर्वतमालाओं से तथा पड़ोसी राज्य, बेक्ट्रिया ( केतुमाल ), जिसका हम आगे वर्णन करेंगे, से विशेष संबंधों पर विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पौराणिका 'रम्यक' वर्ष प्राचीनकाल का 'सोगदियाना' राज्य है। बुखारा का एक जिला प्रदेश जिसका नाम 'रोमेतन' ( Rometan ) है, संभवतः 'रम्यक' का ही अपभ्रंश है।
दूसरा क्षेत्र, जो कि श्वेत और शृङ्गवान् पर्वतमालाओं के मध्य स्थित है, हिरण्यवत् है ।। हिरण्यवत् का अर्थ है सुवर्णवाला प्रदेश। जैन परम्परा में इसे 'हैरण्यवत्' कहा गया है । इस क्षेत्र में बहने वाली नदी का पौराणिक नाम है 'हिरण्यवती' । आधुनिक जरफशान नदी इसी प्रदेश में बहती है । जैन परम्परा के अनुसार इस नदी का नाम सुवर्णकला है। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि हिरण्यवती. सुवर्णकला और जरफशान तीनों के लगभग एक ही अर्थ हैं-हिरण्यवती का अर्थ है-जहाँ सुवर्ण प्राप्त हो, सुवर्णकूला का अर्थ है-जिसके तट पर सुवर्ण हो और जरफ शान का अर्थ है--सुवर्ण को फैलाने वाली ( Sea Heres of gold ). १. डा० एस० एम० अली Geo. of Puranas अध्याय ५ Regions of Jambu Dwip-Northernal
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २३५ तृतीय क्षेत्र, जो कि शृङ्गवान् पर्वत के उत्तर में है, उत्तरकुरु है। जैन परम्परा में इसे ऐरावत वर्ण कहा गया है। यह प्रदेश आ
रावत वर्ण कहा गया है। यह प्रदेश आधनिक इर्टिश ( Irtysh) दी ओब ( The ob) इशीम ( Ishim ) टोबोल ( Tobol ) नदियों का कछार प्रदेश है। दूसरे शब्दों में आधुनिक भौगोलिक वर्गीकरण के अनुसार यह क्षेत्र साइबेरिया का पश्चिमी प्रदेश है।
इस प्रकार जम्बूद्वीप का यह उत्तरी क्षेत्र एक बहुत लम्बे प्रदेश को घेरता है जो कि
त और केस्पियन सागर से लेकर येनीसाइ नदी ( Yenisei River-US.S.R.) तक तथा तुर्किस्तान-टीन शान पर्वतमाला से लेकर आर्कटिक समुद्र तक जाता है।'
जम्बद्वीप का पश्चिमी क्षेत्र केतुमाल मेरु ( पामीर्स ) का पश्चिम प्रदेश केतुमाल है। जैन भूगोल के अनुसार यह विदेह का पश्चिम भाग है। इसके दक्षिण में निषध और उत्तर में नील पर्वत है। निषध पर्वत को आधुनिक भूगोल के अनुसार हिन्दूकुश तथा कुनलुन पर्वतमाला ( Hindukush-Kunlun ) माना गया है। यह केतुमाल प्रदेश चक्षु नदी ( Oxus River ) तथा आमू दरिया का कछार है। इसके पश्चिम में केस्पियन सागर ( Caspean Sea ) है जिसमें आक्सस नदी बहकर मिलती है। इसके उत्तर-पश्चिम में तूरान का रेगिस्तान है । इस प्रदेश को हिन्दू पुराण में इलावृत कहा गया है । इस प्रदेश में सीतोदा नदी बहती है । इसी प्रदेश में बेक्ट्रिया राज्य था जिसे हम पहले कह चुके हैं।
___ जम्बूद्वीप का पूर्वी क्षेत्र भद्रवर्ष मेरु के पूर्व का यह प्रदेश 'भद्रवर्ष' के नाम से हिन्दूपुराणों में कहा गया है । जैन भूगोल के अनुसार यह विदेह का पूर्वी भाग है । इसके उत्तर में नील ( Tien Shan Renge ) तथा दक्षिण में निषध ( Hindukush-Kunlun ) पर्वतमाला है । इसके पश्चिम में देवकूट और पूर्व में समुद्र है।
आधुनिक भूगोल के अनुसार यह प्रदेश तरीम तथा ह्वांगहो ( Tarim and Hwangho) नदियों का कछार है। दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण सिकियांग ( Sikiang ) तथा उत्तर-चीन प्रदेश इसमें समाविष्ट है । यहाँ सीता नदी बहती है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भद्रवर्ष प्रदेश ( पूर्व विदेह ) के अन्तर्गत उत्तरी चीन, दक्षिणी चीन तथा त्सिगलिंग ( Tsing-Ling ) पर्वत का दक्षिणी प्रदेश आता है। यहाँ के निवासी पीतवर्ण के हैं। आधुनिक भूगोल के अनुसार इस नदी का नाम किजिल सू ( KigilSu ) है।
१. डॉ० एस० एम० अली Geo. of Puranas pp. 83-87 ( chap. v Regions of Jambu
Dwipa : Northern Regions. Ramanaka Hiranmaya and Uttar Kuru. २. वही pp. 88-98 : ( Chap. VI Regions of Jambu Dwipa-Ketumala ३. वही pp. 99-108. Chap. VII Regions of Jambu Dwipa : Bhadravarsa.
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन
जम्बूद्वीप का दक्षिणी क्षेत्र जम्बूद्वीप के दक्षिण-प्रदेश का वर्णन मेरु के प्रसंग में किया जा चुका है। तदनुसार मेरु (पामीर्स ) के दक्षिण में निषध, हेमकूट (जैन परम्परा में महाहिमवान् ) तथा हिमवान् पर्वत हैं और इन पर्वतों से विभाजित क्षेत्र के नाम हैं, क्रमशः हिमवर्ष (जैन पर० में हरि) किंपुरुष (जैन पर० में हैमवत और भारतवर्ष ) (जै० परं० में भरत )।
यह सभी प्रदेश मेरु (पामीर्स) से लेकर हिन्दमहासागर तक का समझना चाहिए। भारत के दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम में जो क्रमशः हिन्द महासागर एवं प्रशान्त तथा अरबसागर हैं वहीं लवण समुद्र है।
जम्बूद्वीप और भारतवर्ष : पौराणिक इतिहास विष्णु पुराण (२.१.) के अनुसार स्वयंभू-मनु के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद । प्रियव्रत ने समस्त पृथ्वी के सात भाग (सप्तद्वीप) करके उन्हें अपने सात पुत्रों में बांट दियाअग्निध्र को जम्बूद्वीप, मेधातिथि को प्लक्ष, वपुष्मत् को शाल्मली, ज्योतिष्मत् को कुश, द्युतिमत् को क्रौञ्च, भव्य को शक और शबल को पुष्कर द्वीप।
जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र के नौ पुत्र थे। उन्होंने जम्बूद्वीप के नौ भाग करके उन्हें अपने नौ पुत्रों में बाँट दिया--हिमवत् का दक्षिणभाग 'हिम' ( भारतवर्ष ) नाभि को दिया। इसी प्रकार हेमकूट किम्पुरुष को, निषध तरिवर्ष को, मेरु के मध्यवाला भाग इलावृत को, इस प्रदेश और नील पर्वत के मध्यवाला भाग रम्य को। इसके उत्तर वाला श्वेत प्रदेश हिरण्यवत् को, शृङ्गवान् पर्वत से घिरा श्वेत का उत्तर प्रदेश कुरु को, मेरु के पूर्व का प्रदेश भद्राश्व को तथा गन्धमादन एवं मेरु के पश्चिम का प्रदेश केतुमाल को दिया।
_नाभि के सौ पुत्र थे उनमें सबसे ज्येष्ठ भरत थे। नाभि ने अपने प्रदेश 'हिम' अर्थात् भारतवर्ष को नौ भागों में विभक्त करके अपने पुत्रों में बाँट दिया । मार्कण्डेय पुराण के अनुसार भारत वर्ष के वे नौ भाग इस प्रकार हैं--इन्द्रद्वोप, कसेरुमान्, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वरुण तथा कुमारिका या कुमारी।
जैन परम्परा के अनुसार नाभि और मरुदेवी के पुत्र, प्रथम तीर्थंकर ऋषभ, युग पुरुष थे। उन्होंने विश्व को असि, मसि, कृषि, सेवा, वाणिज्य और शिल्प रूप संस्कृति प्रदान की। उनके एक सौ एक पुत्र थे। इनमें भरत और बाहुबली प्रधान थे। संसार से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व ऋषभ ने सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य अपने समस्त पुत्रों को बाँट दिया। बाहुबली को पोदन का राज्य मिला। भरत चक्रवर्ती सम्राट् हुए, जिनके नाम से यह भारत वर्ष प्रसिद्ध हुआ।
इस पौराणिक आख्यान से तीन बातें स्पष्टतः प्रतीत होती हैं -
(अ) किसी एक मूल स्रोत से विश्व की पुरुष जाति का प्रारम्भ हुआ। यह बात आधुनिक विज्ञान की उस मनोजेनिष्ट थियरी (Monogenist Theory) के अनुसार सही है जो मानती है कि मनुष्य जाति के विभिन्न प्रकार प्राणिशास्त्र की दृष्टि से एक ही वर्ग के हैं।
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________________ 237 जम्बूद्वीप ओर आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन (आ) किसी एक ही केन्द्रीय मलस्रोत से निकलकर सात मानव-समूहों ने सात विभिन्न भागों को व्याप्त स्वतन्त्र रूप से पृथक्-पृथक् मानव सभ्यता का विकास किया। यह सिद्धान्त भी आधुनिक नैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्मत है जिसमें कहा गया है कि विश्व की प्राथमिक जातियों ने पृथिवी के विभिन्न वातावरणों वाले सात प्रदेशों को व्याप्त कर तत्तत्प्रदेशों के वातावरण के प्रभाव में अपनी शारीरिक विशिष्ट आकृतियों का विकास किया। (इ) पश्चात् पृथ्वी के इन सात भागों में से (पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप में ) नौ मानव समूहों ने जो नौ प्रदेशों को व्याप्त किया उनमें भारतवर्ष भी एक है।' भारतवर्ष भारत वर्ष से प्रायः इण्डिया उपमहाद्वीप जाना जाता है। किन्तु प्राचीन विदेशी साहित्य में समग्र इण्डिया उपमहाद्वीप के लिए कोई एक नाम नहीं है। वैदिक आर्यों ने पंजाब प्रदेश को 'सप्तसिन्धव' नाम दिया। बोधायन और मनु के समय में आर्यों के कर्म क्षेत्र को 'आर्यावर्त' नाम दिया गया। डेरियस् ( Darius ) तथा हेरोडोटस (Herodotus) ने सिन्धुघाटी तथा गङ्गा के उत्तरी प्रदेश को 'इण्ड' 'या इण्डू' (हिन्दू) नाम दिया। कात्यायन ओर मेगास्थनीज ने सूदूर दक्षिण में पांड्य राज्य तक फैले का वर्णन किया है। रामायण तथा महाभारत भी पाण्डय राज तथा बंगाल की खाड़ी तक फैले भारतवर्ष का वर्णन करते हैं। ___ अशोक के समय में भारत की सीमा उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश तक और दक्षिण-पूर्व मात्रा-जावा तक पहुँच गई थी। कनिङ्गम ने इस समस्त प्रदेश को विशाल भारत (Greater India) नाम दिया और भारत वर्ष के नवद्वीपों से इसकी समानता स्थापित की। इस प्रकार आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं के अनुसार जम्बूद्वीप का विस्तार उत्तर में साइबेरिया प्रदेश (आर्कटिक ओशन), दक्षिण मे हिन्दमहासागर और उसके द्वीप समूह, पूर्व में चीन-जापान (प्रशान्त महासागर ) तथा पश्चिम में केस्पियन सागर तक समझना चाहिए। ___ अन्त में, हम प्रसिद्ध भूगोल शास्त्र वेत्ता, सागर विश्व विद्यालय के भूगोल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष, डा० एस० एम० अली के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना अपना कर्तव्य समझते हैं, जिनके अतिशय खोजपूर्ण ग्रन्थ (The Geography of the Puranas') से हमें इस निबन्ध के लेखन में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। 1. डॉ० एस० एम० अली Geo. of Puraras Page 9-10 (Introduction). 2. वही Page 190. chapter VIII Bharat varat varsai Physical