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________________ जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २२७. वाल्मीकि, जम्बूद्वीप, मेरु तथा हिमवान् पर्वत एवं उत्तर कुरु से सुपरिचित थे :'उत्तरेण परिक्रम्य जम्बूद्वीपं दिवाकरः । दृश्यो भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छ्रयम्' ( रामा० ४.५०. ५८-४९) 'तेषां मध्ये स्थितो राजा मेरुरुत्तमपर्वतः' ( रामा० ४.४२-३८) 'अन्वीक्ष्य वरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ' ( रामा० ४.४३.१२) 'उत्तराः कुरवस्तत्र कृतपुण्यपरिश्रमाः' ( रामा० ४.४३.२८) जैन परम्परा में उत्तरकुरु को भोगभूमि कहा गया है। रामायण के तिलक टीकाकार उत्तरकुरु को भोगभूमि कहते हैं-'तत आरभ्य उत्तरकुरुदेशस्य भोग भूमित्व कथनम्' (रामा० ४ ४३.३८ पर तिलक टीका ), जैन साहित्य में भोग भूमि का जैसा वर्णन प्राप्त होता है वैसा ही वर्णन उत्तर कुरु का रामायण के बाईस श्लोकों ( ४.४३.३८ से ६०) में उपलब्ध है। उनमें से कुछ श्लोक इस प्रकार हैं :-- 'नित्य पुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः। दिव्यगन्धरस स्पर्शाः सर्वकामान् स्रवन्ति च ॥ नानाकाराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः । सर्वेसुकृतकर्माणः सर्वे रतिपरायणाः ।। सर्वे कामार्थ सहिता वसन्ति सहयोषितः ।। तत्र नामुदितः कश्चिन्नात्र कश्चिदसत्प्रियः । अहन्यहनि वर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः ।। ( रामा० ४.४३.४३-५२) . प्रो० एस० एम० अली, भूतपूर्व अध्यक्ष, भूगोल विभाग, सागर विश्वविद्यालय मायणीय जम्बूद्वीप की स्थिति पृथ्वी के बीच में मानते हैं जो कि भूगोल की जैन परम्परा पर्याप्त मेल खाती है।' रामायण के किष्किन्धा काण्ड में जम्बूद्वीप का जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इस कार है:-जम्बद्वीप के पूर्व दिशा में क्रमशः भागीरथी, सरयु आदि नदियाँ, ब्र गध आदि देश तत्पश्चात् लवण समुद्र, यवद्वीप ( जावा ), सुवर्णरूप्यक द्वीप (बोनियो), शिर पर्वत, शोणनद, लोहित समुद्र, कूटशाल्मली, क्षीरोद सागर, ऋषभपर्वत, सुदर्शन डाग, जलोदसागर, कनकप्रभपर्वत, उदय पर्वत तथा सौमनस पर्वत, इसके पश्चात् पूर्व दिशा जम्य है। अन्त में देवलोक है। जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में क्रमशः विन्ध्यपर्वत, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियाँ, खल, उत्कल, दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ, आन्ध्र, चोल, पाण्डय, केरल आदि देश, मलय पर्वत, इनपर्णी नदी, महानदी, महेन्द्र, पुष्पितक, सूर्यवान्, वैद्युत एवं कुञ्जर नामक पर्वत, भोगवती री, ऋषभ पर्वत, तत्पश्चात् यम की राजधानी पितृलोक । ह, श्री एस० एम० अली, F. N. I. 'The Geography of the Puranas.' People's PubliE shing House, New Delhi, 1973, Page 21-23. (संक्षिप्त रूप---'Geo. of Puranast Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210512
Book TitleJambudwip aur Adhunik Bhaugolik Manyatao ka Tulnatmaka Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf
Publication Year1994
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Comparative Study
File Size791 KB
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