Book Title: Jainagamo me Mukti marg aur Swarup
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 मुनि कन्हैयालाल 'कमल' [आगम अनुयोग प्रवर्तक 000000000000 ०००००००००००० मोक्ष (निर्वाण) के सम्बन्ध में जनदर्शन का चिन्तन * सर्वोत्कृष्ट माना गया है। उसने अत्यंत गहराई व विविध दृष्टियों से उस पर ऊहापोह किया है, मनन किया है, I विश्लेषण किया है। आगमों के पृष्ठ पर इतस्तत: विकीर्ण । उस व्यापक चिन्तन-करणों को एक धारा के रूप में निबद्ध किया है-प्रसिद्ध आगम अनुसंधाता मुनिश्री कन्हैयालाल ६ जी 'कमल' ने। a-o------------ -------------------- जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप LITML PRANAS TIME ......." HUMITRUMES O जैनागम, त्रिपिटक, वेदों एवं उपनिषदों में मुक्ति के मार्गों (साधनों) का विशद दार्शनिक विवेचन विद्यमान है, किन्तु प्रस्तुत प्रबन्ध की परिधि में केवल जैनागमों में प्रतिपादित तथा उद्धृत मुक्तिमार्गों का संकलन किया गया है । यह संकलन मुक्तिमार्गानुयायी स्वाध्यायशील साधकों के लिए परम प्रसादरस परिपूर्ण पाथेय बने और इसकी अहर्निश अनुप्रेक्षा करके वे परम साध्य को प्राप्त करें। मुक्ति श्रेष्ठ धर्म है इस विश्व में धर्म शब्द से कितने व कैसे-कैसे कर्मकाण्ड अभिहित एवं विहित हैं और कितने मत-पथ धर्म के नाम से पुकारे जाते हैं। उनकी इयत्ता का अनुमान लगा सकना भी असम्भव-सा प्रतीत हो रहा है। इस विषम समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए जिनागमों में कहा गया है "निव्वाण सेट्ठा जह सब्वधम्मा' संसार के समस्त धर्मों में निर्वाण अर्थात् मुक्ति ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है। जिस धर्म की आराधना से आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाए वही धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ है । मुक्तिवादी महावीर भगवान महावीर के युग में कितने वाद प्रचलित थे-यह तो उस युग के दर्शनों का ऐतिहासिक अध्ययन करके ही जाना जा सकता है। किन्तु यह निश्चित है कि उस युग में अनेकानेक वाद प्रचलित थे और इन वादों में मुक्तिवाद भी एक प्रमुख वाद था। समकालीन मुक्तिवादियों में भगवान महावीर प्रमुख मुक्तिवादी थे । और अपने अनुयायी विनयी अन्तेवासियों को भी कर्मबन्धनों से मुक्त होने की उन्होंने प्रबल प्रेरणा दी तथा मुक्ति का मार्ग-दर्शन किया। मुक्ति किसलिये ? प्राणिमात्र सुखैषी है किन्तु मानव उन सबमें सब से अधिक सुखैषी है। सुख के लिए वह सब कुछ कर लेना चाहता है। उग्र तपश्चरण, कष्टसाध्य अनुष्ठान और प्रचण्ड परीषह सहना सुखैषी के लिए सामान्य कार्य हैं । पर सुख तो भुक्ति (मोग्य पदार्थों के उपभोग) से भी प्राप्त होता है। उ LO SANE INE Sain Education International ___. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | २९९ भुक्ति से प्राप्त सुख क्षणिक होता है इसलिए उसे पाकर प्राणी कमी तृप्त नहीं होता अपितु तृष्णा की ज्वाला में ही अहर्निश झुलसता रहता है । 'शाश्वत सुख' मुक्ति से ही मिलता है। उसे पाकर आत्मा असीम आनन्द की अनुभूति भी करता है पर भुक्ति की अपेक्षा मुक्ति का मिलना जरा मुश्किल है । भुक्ति और मुक्ति का द्वन्द्र "म" और "म" वर्णमाला के पवर्ग में जनम जनम के साथी हैं। भोग प्रवृत्ति का "भ" और भोग निवृत्ति का "म" प्रतीक है । भुक्ति एवं मुक्ति का शाब्दिक प्रादुर्भाव "भ" और "म" की प्रसूति का परिणाम है । 1 मुक्ति और मुक्ति की व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति है का साम्राज्य है । अतः भुक्ति का भगत मुक्ति का उपासक सकता । आत्मा अनादिकाल से भुक्ति के लिए मटकता रहा है। मुक्ति का संकल्प अब तक मन में उदित नहीं हुआ है । क्योंकि वह अनन्तकाल से " तमसावृत" रहा है । अतः अपूर्वकरण के अपूर्व क्षणों में आत्मा का मोहावरण सम्यक्त्व सूर्य की प्रखर रश्मियों से जब प्रतनुभूत हुआ तो उसमें अमित ज्योति की आभा प्रस्फुटित हुई है और उसी क्षण वह भुक्ति से विमुख होकर मुक्ति की ओर मुड़ा है। लौकिक जीवन में भुक्ति का लोकोत्तर जीवन में मुक्ति और मुक्ति का उपासक भुक्ति का भगत नहीं बन भुक्ति आत्मा को अपनी ओर तथा मुक्ति आत्मा को अपनी ओर आकृष्ट करती रहती है । यही स्थिति मुक्ति एवं मुक्ति के इन्द्र की सूचक है। मुक्ति की अनुभूति (१) रत्नजटित स्वर्णपिंजर में पालित शुक बादाम - पिश्ते आदि खाकर भी सुखानुभव से शून्य रहता है । वह चाहता है— पिंजरे से मुक्ति और अनन्त आकाश में उन्मुक्त विहार । (२) पुंगी की मधुर स्वरलहरी से मुग्ध एवं पयपान से तृप्त पन्नगराज पिटारी में पड़कर पराधीनता की पीड़ा से अहर्निश पीड़ित रहता है। वह चाहता है- पिटारी की परिधि से मुक्ति और स्वच्छन्द संचरण । श्रम किये बिना ही कोमल शय्या, सरस आहार एवं शीतल सरस सलिल आदि की मानव अन्तर्वेदना से अनवरत व्यथित रहता है। वह चाहता है—स्वतन्त्रता एवं (३) नजर कैद में अनेकानेक सुविधाएँ पाकर भी स्वैर बिहार । कठोर परिश्रम के बाद भले ही उसे निवास के लिए पर्णकुटी, शयन के लिए भू-शय्या और भोजन के लिए अपर्याप्त अरस-विरस आहार भी क्यों न मिले, वह इतने से ही सन्तुष्ट रहेगा । पिंजर से मुक्त पक्षी, पिटारी से मुक्त पन्नग एवं नजरकैद से मुक्त नर मुक्ति के आनन्द की झलक पाकर शाश्वत सुख का स्वर समझ सकता है । न संसार रिक्त होगा और न मुक्ति भरेगी मुक्तिक्षेत्र में अनन्तकाल से अनन्त आत्माएँ स्थित हैं। मानव क्षेत्र में से अनेक आत्माएँ कर्म-मुक्त होकर प्रतिक्षण मुक्ति-क्षेत्र में पहुंचती रहती हैं किन्तु मुक्त आत्माएँ मुक्ति क्षेत्र से परावर्तित होकर मानव क्षेत्र में कभी नहीं आती हैं। क्योंकि कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त आत्मा के पुनः बद्ध होकर मानव क्षेत्र में लौट आने का कोई कारण नहीं है। अल्पज्ञ मन में यदा-कदा यह आशंका उभर आती है कि अनन्तकाल से मुक्त आत्माएँ मुक्ति क्षेत्र में जा रही हैं और लोटकर कभी कोई आत्मा आएगी ही नहीं तो क्या यह विश्व इस प्रकार आत्माओं से रिक्त नहीं हो जाएगा ? जैनागमों में इस आशंका का समाधान इस प्रकार दिया गया है healhadka Jain Education international 000000000000 - 100 DREYF .:S.Bhaste/ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 को काल अनन्त है / अतीत भी और अनागत भी / आत्माएँ अनन्त हैं / अनन्त अतीत में भी यह विश्व आत्माओं से रिक्त नहीं हुआ तो अनन्त भविष्य में भी यह रिक्त कैसे होगा। जिस प्रकार भविष्य का एक क्षण वर्तमान बनकर अतीत बन जाता है, पर भविष्य ज्यों का त्यों अनन्त बना हुआ रहता है / वह कभी समाप्त नहीं होता। उसी प्रकार विश्वात्माएँ भी अनन्त हैं, अतः यह विश्व कभी रिक्त नहीं होगा। मुक्ति की जिज्ञासा कैसे जगी? अनन्तकाल से यह आत्मा भवाटवी में भटक रही है / पर इसे सर्वत्र दुःख ही दुःख प्राप्त हुआ है। सुख कहीं नहीं मिला। 'कभी इसने नरक में निरन्तर कठोर यातनाएँ भोगी हैं तो कभी तिर्यग्योनि में दारुण दुःख सहे हैं। कभी . मनुज जीवन में रुग्ण होने पर रुदन किया है तो कभी स्वर्गीय सुखों के वियोग से व्याकुल भी हुई है।' इस प्रकार अनन्त जन्म-मरण से संत्रस्त आत्मा को एकदा अनायास अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ-यह था इस आत्मा का नैसर्गिक उदय / इस उदय से आत्मा का आर्य क्षेत्र एवं उत्तम कुल में जन्म, स्वस्थ शरीर, स्वजन-परिजन का सुखद सम्बन्ध, अमित वैभव के साथ-साथ सद्गुरु की संगति एवं सद्धर्म-श्रवण-अभिरुचि भी उसमें जाग्रत हुई। एक दिन उसने धर्मसभा में श्रवण किया 'आत्मा ने अतीत के अनन्त जन्मों में अनन्त दुःख भोगे हैं-जब तक इस आत्मा की कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्ति नहीं हो जाती तब तक यह आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती।' इस प्रकार प्रवचन-श्रवण से अतीत की अनन्त दुखानुभूतियाँ उस आत्मा की स्मृति में साकार हो गईं, अतः उसकी अन्तश्चेतना में मुक्ति-मागों की जिज्ञासा जगी। मुक्ति का अभिप्रेतार्थ मुक्ति भाववाचक संज्ञा है-इसका वाच्यार्थ है-बन्धन आदि से छुटकारा पाने की क्रिया या भाव / आध्यात्मिक साधना में मुक्ति शब्द का अभिप्रेतार्थ है-आत्मा का कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होना / / मुक्ति के समानार्थक मोक्ष-किसी से छुटकारा प्राप्त करना / आध्यात्मिक साधना में आत्मा का कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त होना अभिप्रेत है। निर्वाण-इस शब्द का अर्थ है-समाप्ति / यहाँ अभिप्रेत अर्थ है-कर्मबन्धनों का सर्वथा समाप्त होना / बहिविहार-इसका वाच्यार्थ है-बाहर गमन करना / यहाँ इष्ट अर्थ है-जन्म-मरण रूप संसार स्थान से बाहर जाना / मुक्त होने पर पुनः संसार में आवागमन नहीं होता। सिद्धलोक-मुक्तात्मा अपना अभीष्ट सिद्ध (प्राप्त) कर लेता है अत: मुक्तात्माओं का निवास स्थान 'सिद्धलोक' कहा जाता है। आत्मवसति-मुक्तात्माओं की वसति (शाश्वत स्थिति का स्थान) 'आत्मवसति' कही जाती है / अनुत्तरगति-कर्मबन्धनों से बद्ध आत्मा नरकादि चार गतियों में आवागमन करती है और कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त आत्मा इस 'अनुत्तरगति' को प्राप्त होती है / क्योंकि आत्मा की यही अन्तिम गति है अतः यह 'अनुत्तरगति' कही जाती है / 10 प्रधानगति-बद्धात्मा चार गतियों को पुनः-पुनः प्राप्त होती है और मुक्तात्मा इस गति को प्राप्त होती है। विश्व में इस गति से अधिक प्रधान अन्य गति नहीं है, इसलिए यह 'प्रधानगति' कही गई है।११ सुगति-देवगति और मनुष्यगति भी सुगति कही गयी है किन्तु यह कथन नरक और तिर्यग् गति की अपेक्षा से किया गया है / वास्तव में मुक्तात्माओं की जो गति है, वही सुगति है / 12 WAMANIDA .. MERROD Kocop Jain Education international FOI Private Personal use Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 301 वरगति-विश्व में इस गति से अधिक श्रेष्ठ कोई गति नहीं है। यह गति मुक्तात्माओं को प्राप्त होती है। ऊर्ध्वदिशा-आत्मा का निज स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का है / मुक्तात्माओं की स्थिति लोकाग्रमाग में होती है, वह ऊर्ध्वदिशा में है, अत: यह नाम सार्थक है / 14 दुरारोह-मुक्ति प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। मुक्त होने की साधना जितनी कठिन है उतना ही कठिन मुक्ति प्राप्त करना है / 14 ___अपुनरावृत्त-मुक्तात्मा की संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती है अत: मुक्ति का समानार्थक नाम 'अपुनरावृत्त' 000000000000 000000000000 शाश्वत-मुक्तात्मा की मुक्ति ध्रव होती है / एक बार कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होने पर आत्मा पुनः बद्ध नहीं होती है, इसलिए मुक्ति और मुक्ति क्षेत्र दोनों शाश्वत हैं।१७ अव्याबाध-आत्मा के मुक्त होने पर जो उसे शाश्वत सुख प्राप्त होता है, वह समस्त बाधाओं से रहित होता है, इसलिए मुक्ति अव्याबाध है।१८ लोकोत्तमोत्तम-तीन लोक में मुक्ति ही सर्वोत्तम है।१६ मुक्तिक्षेत्र मुक्तिक्षेत्र ऊपर की ओर लोक के अग्रभाग में है / 20 इस क्षेत्र में अनन्त मुक्तात्माएँ स्थित हैं। अतीत, वर्तमान और अनागत इन तीन कालों में मुक्त होने वाली आत्माएँ इसी मुक्तिक्षेत्र में आत्म (निज) स्वरूप में अवस्थित हैं। मानव क्षेत्र मध्यलोक में है और मुक्ति क्षेत्र ऊर्ध्वलोक में है। मानव क्षेत्र और मुक्ति क्षेत्र का आयाम विष्कम्भ समान है। दोनों की लम्बाई-चौड़ाई पैतालीस लाख योजन की है / मानव क्षेत्र के ऊपर समश्रेणी में मुक्तिक्षेत्र अवस्थित है। मुक्तिक्षेत्र की परिधि मानव क्षेत्र के समान लम्बाई-चौड़ाई से तिगुनी है। PRACHANDA समय मक्खी की पांख से भी अधिक पतली है। मुक्तिक्षेत्र शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत स्वर्णमय निर्मल एवं शुद्ध है / यह उत्तान (सीधे खुले हुए) छत्र के समान आकार वाला है। ___ मुक्तिक्षेत्र सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर है और वहाँ से एक योजन ऊपर लोकान्त है / 21 मुक्तिक्षेत्र के बारह नाम (1) ईषत्-रत्नप्रभादि पृथ्वियों की अपेक्षा यह (मुक्तिक्षेत्र की) पृथ्वी छोटी है, इसलिए इसका नाम ईषत् है। (2) ईषत् प्राग्भारा-रत्नप्रभादि अन्य पृथ्वियों की अपेक्षा इसका ऊँचाई रूप (प्राग्मार) अल्प है। (3) तन्वी-अन्य पृथ्वियों से यह पृथ्वी तनु (पतली) है। (4) तनुतन्वी-विश्व में जितने तनु (पतले) पदार्थ हैं, उन सबसे यह पृथ्वी अन्तिम भाग में पतली है। (5) सिद्धि-इस क्षेत्र में पहुंचकर मुक्त आत्मा स्व-स्वरूप की सिद्धि प्राप्त कर लेती है। (6) सिद्यालय-मुक्तात्माओं को "सिद्ध" कहा जाता है। क्योंकि कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होने का कार्य मुक्तात्माओं ने सिद्ध कर लिया है, इसलिए इस क्षेत्र का नाम "सिद्धालय" है। (7) मुक्ति-जिन आत्माओं की कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्ति हो चुकी है, उन आत्माओं का ही आगमन इस क्षेत्र में होता है, इसलिए यह क्षेत्र मुक्ति-क्षेत्र है। (8) मुक्तालय-यह क्षेत्र मुक्तात्माओं का आलय (स्थान) है। (8) लोकाग्र-यह क्षेत्र लोक के अग्र भाग में है / (10) लोकाग्र-स्तूपिका-यह क्षेत्र लोक की स्तूपिका (शिखर) के समान है। MAILLIAMEREARNI TORIERI Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 (11) लोकान-प्रतिवाहिनी-लोक के अग्र भाग ने जिस क्षेत्र (पृथ्वी) का वहन किया है। (12) सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्व सुखावहा-चतुर्गति के जीव एक भव या अनेक भव करके इस मुक्तिक्षेत्र को प्राप्त होते हैं और वे शाश्वत सुख को प्राप्त होते हैं / 22 मुक्ति के प्रकार मुक्ति दो प्रकार की है—एक द्रव्यमुक्ति और दूसरी भावमुक्ति / द्रव्यमुक्ति अनेक प्रकार की है-ऋण चुका देने पर जो ऋण से मुक्ति मिलती है, वह ऋणमुक्ति द्रव्यमुक्ति है। कारागार से मुक्ति मिलने पर जो हथकड़ी, बेड़ी आदि बन्धनों से मुक्ति मिलती है, वह बन्धनमुक्ति भी द्रव्यमुक्ति है। इसी प्रकार अभियोगमुक्ति, देहमुक्ति आदि अनेक प्रकार की द्रव्यमुक्तियाँ हैं। औदयिक भावों से मुक्त होने पर आत्मा की जो कर्मबन्धनों से मुक्ति होती है। अथवा औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक भावों के आने पर जो कर्मबन्धनों से मुक्ति होती है वह "भावमुक्ति" कही गई है। इस प्रकार भावों द्वारा प्राप्त "भावमुक्ति" ही वास्तविक मुक्ति है। ये भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से किए गए हैं। संग्रहनय की अपेक्षा से तो मुक्ति एक ही प्रकार की है / 23 मुक्ति के मूल कारण (1) काल, (2) स्वभाव, (3) नियति, (4) पूर्वकृत कर्मक्षय और (5) पौरुष। ये मुक्ति के प्रमुख पाँच हेतु हैं। इन पाँचों के समुदाय से आत्मा मुक्त होती है। इनमें से एक का अभाव होने पर भी आत्मा मुक्त नहीं हो सकती है। (1) काल-आत्मा के कर्मबंधन से मुक्त होने में काल की अपेक्षा है। कुछ मुक्तात्माओं का साधना काल अल्प होता है और कुछ का साधना काल अधिक / अर्थात् कुछ आत्माएँ एक भव की साधना से और कुछ आत्माएँ अनेक भव की साधना के बाद मुक्त होती हैं। इसलिए काल मुक्ति का प्रमुख हेतु है। (2) स्वभाव-मुक्ति का प्रमुख हेतु केवल काल ही नहीं है / आत्मा के कर्मबन्धन से मुक्त होने में स्वभाव की भी अपेक्षा है। केवल काल ही यदि मुक्ति का हेतु होता तो अमव्य भी मुक्त हो जाता, किन्तु मुक्त होने का स्वभाव भव्य का ही है, अभव्य का नहीं / इसलिए स्वभाव भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है। (3) नियति-काल और स्वभाव-केवल ये दो ही मुक्ति के दो प्रमुख हेतु नहीं हैं / आत्मा के कर्मबन्धन से मुक्त होने में नियति की भी अपेक्षा है। यदि काल और स्वभाव-ये दो ही मुक्ति के प्रमुख हेतू होते तो समी भव्य आत्माएँ मुक्त हो जातीं, किन्तु जिन भव्य आत्माओं के मुक्त होने की नियति होती है वे ही मुक्त होती हैं। इसलिए नियति भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है। (4) पूर्वकृत कर्मक्षय-काल, स्वभाव और नियति-केवल ये तीन ही मुक्ति के प्रमुख हेतु नहीं है / आत्मा DHANOK का होता तो प्रमुख हेतु प्रमुख हे होते तो राजा श्रेणिक मी मुक्त हो जाते किन्तु उनके पूर्वकृत कर्म जब तक क्षय नहीं हुए तब तक वे मुक्त कैसे होते ? इसलिए पूर्वकृत कर्मक्षय भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है / (5) पौरुष–पूर्वकृत कर्मों का क्षय षौरुष के बिना नहीं होता, इसलिए पूर्वोक्त चार हेतुओं के साथ पौरुष भी मुक्ति का प्रमुख हेतु है / यद्यपि मरुदेवी माता के मुक्त होने में बाह्य पुरुषार्थ परिलक्षित नहीं होता है किन्तु क्षपक श्रेणी और शुक्लध्यान का अंतरंग पुरुषार्थ करके ही वह मुक्त हुई थीं। मुक्ति के अन्य मूल कारण 1. त्रसत्व-गमनागमन शक्ति सम्पन्नता, 2. पञ्चेन्द्रिय सम्पन्न, 3. मनुष्यत्व 4. आर्यदेश क MP - - - sa Loucairn internauona For private & Personal use only www.jamenbrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 303 000000000000 Janw पाण AMIL SE. सामा 5. उत्तम कुल 6. उत्तम जाति 7. स्वस्थ शरीर 8. आत्मबल-सम्पन्न 6. दीर्घायु 10. विज्ञान 11. सम्यक्त्व 12. शील-सम्प्राप्ति 13. क्षायिक भाव 14. केवलज्ञान 15. मोक्ष उक्त कारणों में तेरहवाँ क्षायिक भाव है, उसके 6 भेद हैं 1. केवलज्ञान, 2. केवलदर्शन, 3. दानलब्धि, 4. लाभलब्धि, 5. मोगलब्धि, 6. उपभोगलब्धि 7. वीर्यलब्धि, 8. क्षायिक सम्यक्त्व और 6. यथाख्यात चारित्र / घातिकर्म चतुष्टय के सर्वथा क्षय होने पर जो आत्म-परिणाम होते हैं वे क्षायिक भाव कहे जाते हैं। ये क्षायिक भाव सादि अपर्यवसित हैं / एक बार प्राप्त होने पर ये कभी नष्ट नहीं होते हैं / मुक्ति सूचक स्वप्न (1) स्वप्न में अश्व, गज यावत् वृषभ आदि की पंक्ति देखे तथा मैं अश्व आदि पर आरूढ़ हूँ-ऐसा स्वयं अनुभव करता हुआ जागृत हो तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से सिद्ध, बुद्ध-यावत्-सर्व दुःखों से मुक्त होता है। (2) स्वप्न में समुद्र को एक रज्जू से आवेष्टित करे और 'मैंने ही इसे आवेष्टित किया है'-ऐसा स्वयं अनुभव करता हुआ जागृत हो तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। (3) स्वप्न में इस लोक को एक बड़े रज्जू से आवेष्टित करे और 'मैंने ही इसे आवेष्ठित किया है'-ऐसा स्वयं अनुभव करता हुआ जागृत हो तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। (4) स्वप्न में पांच रंग के उलझे हुए सूत को स्वयं सुलझाए तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। (5) स्वप्न में लोह, ताम्र, कथीर और शीशा नामक धातुओं की राशियों को देखे तथा स्वयं उन पर चढ़े तो स्वप्नद्रष्टा दो भव से मुक्त होता है / (6) स्वप्न में हिरण्य, सुवर्ण, रत्न एवं वज्र (हीरे)की राशियों को देखे और स्वयं उन पर चढ़े तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है / (7) स्वप्न में घास यावत् कचरे के बहुत बड़े ढेर को देखे और स्वयं उसे बिखेरे तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। (8) स्वप्न में शर वीरण वंशीमूल या वल्लीमूल स्तम्भ को देखे और स्वयं उसे उखाड़े तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। () स्वप्न में क्षीर, दधि, घृत और मधु के घट को देखे तथा स्वयं उठाए तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। (10) स्वप्न में सुरा, सौवीर तेल या बसा भरे घट को देखकर तथा स्वयं उसे फोड़कर जागृत हो तो स्वप्नद्रष्टा दो भव से मुक्त होता है। (11) स्वप्न में असंख्य उन्मत्त लहरों से व्याप्त पद्म सरोवर को देखकर स्वयं उसमें प्रवेश करे तो स्वप्नद्रष्टा (12) स्वप्न में महान् सागर को भुजाओं से तैरकर पार करे तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है / (13) स्वप्न में रत्नजटित विशाल भवन में प्रवेश करे तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है। (14) स्वप्न में रत्नजटित विशाल विमान पर चढ़े तो स्वप्नद्रष्टा उसी भव से मुक्त होता है / ये चौदह स्वप्न पुरुष या स्त्री देखे और उसी क्षण जागृत हों तो उसी भव से मुक्त होते हैं। पांचवा और दसवाँ स्वप्न देखने वाले दो भव से मुक्त होते हैं / 24 मुक्तात्मा के मौलिक गुण अष्ट गुण-(अष्ट कर्मों के क्षय से ये अष्ट गुण प्रगट होते हैं / ) - www.jamelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन अन्य 000000000000 000000000000 Sload0gs == 1 अनन्त ज्ञान , 2 अनन्त दर्शन, 3 अव्याबाध सुख, 4 क्षायिक सम्यक्त्व, 5 अक्षय स्थिति, 6 अमूर्तपना, 7 अगुरुलघु, 8 अनन्त शक्ति / इकतीस गुण-(आठ कर्मों की मूल प्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से ये गुण कहे गए हैं।) 1. ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्रगटे पांच गुण (क) क्षीण आभिनिबोधिक ज्ञानावरण, (ख) क्षीण श्र तज्ञानावरण, (ग) क्षीण अवधिज्ञानावरण, (घ) क्षीण मनःपर्यव ज्ञानावरण, (ङ) क्षीण केवलज्ञानावरण / 2. वर्शनावरण कर्म के क्षय से प्रगटे नौ गुण (क) क्षीण चक्षुदर्शनावरण, (ख) क्षीण अचक्षुदर्शनावरण, (ग) क्षीण अवधिदर्शनावरण, (घ) क्षीण केवलदर्शनावरण, (ङ) क्षीण निद्रा, (च) क्षीण निद्रानिद्रा, (छ) क्षीण प्रचला, (ज) क्षीण प्रचलाप्रचला, (झ) क्षीण स्त्यानद्धि, 3. वेदनीय कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण (क) क्षीण सातावेदनीय, (ख) क्षीण असातावेदनीय / 4. मोहनीय कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण (क) क्षीण दर्शनमोहनीय (ख) क्षीण चारित्रमोहनीय / 5 आयु कर्म के क्षय से प्रगटे चार गुण (क) क्षीण नैरयिकायु, (ख) क्षीण तिर्यंचायु (ग) क्षीण मनुष्यायु, (घ) क्षीण देवायु / 6. नाम कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण (क) क्षीण शुभ नाम, (ख) क्षीण अशुभ नाम / 7. गोत्र कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण (क) क्षीण उच्चगोत्र, (ख) क्षीण नीचगोत्र / 8. अन्तराय कर्म के क्षय से प्रगटे पांच गुण(क) क्षीण दानान्तराय, (ख) क्षीण लाभान्तराय, (ग) क्षीण भोगान्तराय, (घ) क्षीण उपभोगान्तराय, (ङ) क्षीण वीर्यान्तराय। अन्य प्रकार से इकतीस गुण मुक्तात्मा के पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, पांच संस्थान, तीन वेद, काय, संग और रूह-इन इकतीस के क्षय से इकतीस गुण प्रगट होते हैं। मुक्तात्मा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान और वेद रहित होते हैं। मुक्तात्मा के औदारिकादि काय (शरीर) न होने से "अकाय" हैं। बाह्याभ्यन्तर संग रहित होने से "असंग" हैं। मुक्त होने के बाद पुनः संसार में जन्म नहीं लेते, अतः "अरूह" हैं। दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः / कर्मबोजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः॥ बीज के जल जाने पर जिस प्रकार अंकुर पैदा नहीं होता उसी प्रकार कर्म रूप बीज के क्षय हो जाने पर भव (जन्म) रूप अंकुर पैदा नहीं होता। मुक्तात्मा की अविग्रह गति मुक्तात्मा स्थूल (औदारिक) शरीर और सूक्ष्म (तैजस-कार्मण) शरीर छोड़कर मुक्तिक्षेत्र में अविग्रह (सरल) गति से पहुंचता है। इस गति में केवल एक समय (काल का अविभाज्य अंश) लगता है / क्योंकि मनुष्य क्षेत्र में आत्मा जिस स्थान पर देहमुक्त होता है उस स्थान से सीधे ऊपर की ओर मुक्तिक्षेत्र में मुक्त आत्मा स्थित होती है। इसलिए मुक्तात्मा की ऊर्ध्वगति में कहीं विग्रह नहीं होता। lain Education Intemational For Private Personalise Only wasow.jainelibrarying Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 305 000000000000 000000000000 अविग्रह गति के चार कारण (1) पूर्व प्रयोग-पूर्वबद्ध कर्मों से मुक्त होने पर जो वेग उत्पन्न होता है उससे मुक्तात्मा ऊर्ध्वगति करता है। जिस प्रकार कुलाल चक्र दण्ड द्वारा घुमाने पर तीव्र वेग से फिरता है / दण्ड के हटा लेने पर भी वह पूर्व प्रयोग से फिरता ही रहता है। इसी प्रकार मुक्तात्मा भी पूर्व प्रयोगजन्य वेग से ऊर्ध्वगति करता है। (2) संग का अभाव-प्रतिबंधक कर्म का संग-सम्बन्ध न रहने से मुक्तात्मा ऊर्ध्वगति करता है जिस प्रकार अनेक मृत्तिकालेपयुक्त तुम्ब जलाशय के अधस्तल में पड़ा रहता है और मृत्तिका के लेपों से मुक्त होने पर अपने आप जलाशय के उपरितल पर आ जाता है इसी प्रकार मुक्तात्मा भी प्रतिबंधक कर्मबंध से मुक्त होने पर लोक के अग्रभाग पर अवस्थित होता है। (3) बंध छेव-कर्मबंध के छेदन से आत्मा ऊर्ध्वगति करता है। जिस प्रकार एरंडबीज कोश से मुक्त होने पर स्वतन्त्र ऊर्ध्व गति करता है इसी प्रकार मुक्तात्मा भी ऊर्ध्वगति करता है। (4) गति परिणाम-आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगति करने वाला है। जहां तक धर्मास्तिकाय है वहां तक मुक्तात्मा गति करता है / धर्मास्तिकाय लोक के अग्रभाग तक ही है इसलिए अलोक में मुक्तात्मा नहीं जाती। उक्त चार कारणों से मुक्तात्मा की लोकान्तपर्यन्त अविग्रह गति होती है / 25. मुक्तात्मा का अमूर्तत्व - मुक्तात्मा के न स्थूल शरीर होता है और न सूक्ष्म शरीर / जब तक आत्मा शरीरयुक्त रहता है तब तक उसका परिचय किसी एक प्रकार की विशिष्ट आकृति में दिया जाता है किन्तु शरीर रहित (अमूर्त) आत्मा का परिचय निषेधपरक शब्दों के अतिरिक्त शब्दों द्वारा दिया जाना संभव नहीं है। यहां ये बत्तीस वाक्य अमूर्त आत्मा के परिचायक हैं। मुक्त आत्मा-(१) न दीर्घ है, (2) न ह्रस्व है, (3) न वृत्त है, (4) न तिकोन है, (5) न चतुष्कोण है, (6) न परिमण्डल है, (7) न काला, (8) न हरा, (8) न लाल, (10) न पीला और, (11) न श्वेत है, (12) न सुगन्ध रूप है और (13) न दुर्गन्ध रूप है, (14) न तीक्ष्ण, (15) न कटुक, (16) न कषाय, (17) न अम्ल और (18) न.. मधुर है, (16) न कठोर, (20) न कोमल, (21) न गुरु, (22) न लघु, (23) न शीत, (24) न उष्ण, (25) न स्निग्ध और (26) न रुक्ष है, (27) न काय, (28) न संग और (26) न रूह है, (30) न स्त्री (31) न पुरुष, और (32) न पुंसक है। वैदिक परम्परा में मुक्तात्मा के अमूर्तत्व को “नेति-नेति" कहकर व्यक्त किया है। मुक्तात्माओं का अनुपम सुख / मुक्तात्मा को जैसा सुख होता है वैसा सुख न किसी मनुष्य को होता है और न किसी देवता को-क्योंकि उनके सुख में यदाकदा विघ्न-बाधा आती रहती है किन्तु मुक्तात्मा का सुख अव्याबाध (बाधा रहित) होता है। यदि कोई समस्त देवों की स्वर्गीय सुखराशि को अनन्त काल के अनन्त समयों से गुणित करे और गुणित सुख राशि को अनन्त बार वर्ग करे फिर भी मुक्तात्मा के सुख की तुलना नहीं हो सकती। एक मुक्तात्मा के सर्वकाल की संचित सुखराशि को अनन्त वर्गमूल से विभाजित करने पर जो एक समय की सुखराशि शेष रहे-वह भी सारे आकाश में नहीं समाती है / 26 इस प्रकार मुक्तात्माओं का सुख शाश्वत एवं अनुपम सुख है। विश्व में एक भी उपमेय ऐसा नहीं है जिसकी उपमा मुक्तात्मा के सुख को दी जा सके, फिर भी असाधारण सादृश्य दर्शक एक उदाहरण प्रस्तुत है। जिस प्रकार एक पुरुष सुधा समान सर्वरस सम्पन्न सुस्वादु भोजन एवं पेय से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर सुखानुभव करता है-इसी प्रकार अनुपम निर्वाण सुख प्राप्त मुक्तात्मा सर्वदा निराबाध शाश्वत सुख सम्पन्न रहता है / अनुपम सुख का प्रज्ञापक एक उदाहरण एक राजा शिकार के लिए जंगल में गया। वहां वह अपने साथियों से बिछुड़ गया / कुछ देर बाद उसे क्षुधा और तृषा लगी। पानी की तलाश में इधर-उधर घूमते हुए उसे किसान की एक कुटिया दिखाई दी। ....... Soctor KE JYA m ucatomimitemation Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 राजा वहां गया। किसान ने राजा को शीतल एवं मधुर जल पिलाया और भोजन कराया। राजा ने किसान से कहा-एक दिन तू मेरे यहां आ-मैं भी तुझे अच्छा-अच्छा भोजन खिलाउँगा / यह कहकर राजा अपने नगर को चला आया। एक दिन किसान राजा के पास गया / राजा ने उसे राजमहलों में रखा / अच्छे वस्त्र पहनाए, मिष्ठान्न खिलाए / पर किसान का मन महलों में नहीं लगा / एक दिन वह उकताकर राजा से कहने लगा-मैं अपने घर जाना चाहता हूँ। राजा ने कहा-जा सकता है। किसान अपने घर चला आया। किसान के कुटुम्बियों ने उससे पूछा-राजा के यहाँ तू कैसे रहा? किसान राजा के महल का, वस्त्रों का और भोजन का यथार्थ वर्णन नहीं कर सका। किसान ने कहा-वहाँ का आनन्द तो निराला ही था / मैं तुम्हें क्या बताऊँ / वहाँ जैसी मिठाइयाँ मैंने कभी नहीं खाईं। वहाँ जैसे वस्त्र मैंने कभी नहीं पहने / वहाँ जैसे बिछोनों पर मैं कभी नहीं सोया / किसान जिस प्रकार राजसी सुख का वर्णन नहीं कर सका इसी प्रकार मुक्तात्मा के सुख का वर्णन भी मानव की शब्दावली नहीं कर सकती / 27 मार्ग का अभिप्रेतार्थ मार्ग भी भाववाचक संज्ञा है-इसका वाच्यार्थ है-दो स्थानों के बीच का क्षेत्र / जिस स्थान से व्यक्ति गन्तव्य स्थान के लिए गमन-क्रिया प्रारम्भ करता है। वह एक स्थान और जिस अभीष्ट स्थान पर व्यक्ति पहुंचना चाहता है-वह दूसरा स्थान / ये दोनों स्थान कहीं ऊपर या नीचे / कहीं सम या STAR एजWAY AMBIL .... HTTTTTTTES C...... इन दो स्थानों के मध्य का क्षेत्र कहीं अल्प परिमाण का और कहीं अधिक परिमाण का भी होता है। आध्यात्मिक साधना में मार्ग शब्द का अभिप्रेतार्थ है-मुक्ति के उपाय / अर्थात् जिन उपायों (साधनों) से आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो सके / ऐसे उपाय आगमों में "मुक्ति के मार्ग" कहे गये हैं / मार्ग के समानार्थक२८ (1) पन्थ (क) द्रव्य विवक्षा-जिस पर चलकर किसी ग्राम या नगर से इष्ट ग्राम या नगर को पथिक पहुँच जाय वह द्रव्य पन्थ है। (ख) भाव विवक्षा-जिस निमित्त से या उपदेश से मिथ्यात्व से मुक्त होकर सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय वह भाव पन्थ है। (2) मार्ग (क) द्रव्य विवक्षा-जो मार्ग सम हो और कन्टक, बटमार या श्वापदादि से रहित हो। (ख) भाव विवक्षा-जिस साधना से आत्मा अधिक शुद्ध हो। ANANDANEL (क) द्रव्य विवक्षा-ऐसा सद् व्यवहार जिससे विशिष्ट पद या स्थान की प्राप्ति हो। (ख) भाव विवक्षा-सम्यग्ज्ञान-दर्शन से सम्यग्चारित्र की प्राप्ति हो। (4) विधि (क) द्रव्य विवक्षा-ऐसे सत् कार्य जिनके करने से इष्ट पद या स्थान की निर्विघ्न प्राप्ति हो। (ख) भाव विवक्षा-जिस साधना से सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निर्विघ्न आराधना हो। (5) धृति (क) द्रव्य विवक्षा-अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हुए भी धैर्य से इष्ट पद या स्थान प्राप्त हो जाय / (ख) भाव विवक्षा-अनेक परीषह एवं उपसर्गों के होते हुए भी धैर्य से रत्नत्रय की आराधना करते हुए कर्मबन्धन से आत्मा मुक्त हो जाय / 20000 doot Padmaaaaaane Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 307 (6) सुगति (क) द्रव्य विवक्षा-सुख से (कष्ट के बिना) इष्ट स्थान को पहुंच जाय / 000000000000 000000000000 आत्मा का कर्मबन्धन से मुक्त होना / (7) हित (क) द्रव्य विवक्षा-जिस मार्ग पर चलना हितकर हो / (ख) भाव विवक्षा-रत्नत्रय से आत्म-स्वरूप की प्राप्ति हो क्योंकि आत्मा का वास्तविक हित यही है ! (8) सुख (क) द्रव्य विवक्षा-जिस मार्ग पर चलने में सुखानुभूति हो वह सुखकर मार्ग है। (ख) भाव विवक्षा-रत्नत्रय की आराधना से आत्मिक सुख की प्राप्ति हो / (9) पथ्य (क) द्रव्य विवक्षा-जिस मार्ग पर चलने से स्वास्थ्य का सुधार हो / (ख) भाव विवक्षा-रत्नत्रय की आराधना से कषायों का उपशमन हो / (10) श्रेय (क) द्रव्य विवक्षा-जो मार्ग गमन करने वाले के लिए श्रेयस्कर हो / (ख) भाव विवक्षा-रत्नत्रय की साधना से मोह का उपशमन हो / (11) निर्वृत्ति (क) द्रव्य विवक्षा-जिस मार्ग पर चलने से मानसिक अशान्ति निर्मल हो / CRETANI RTIES WITHILU ANPAANI MAINMK (12) निर्वाण (क) द्रव्य विवक्षा-जिस मार्ग पर चलने से शारीरिक एवं मानसिक दुखों से निवृत्ति मिले / (ख) भाव विवक्षा-रत्नत्रय की साधना से घाति कर्म चतुष्टय का निर्मल होना / (13) शिव (क) द्रव्य विवक्षा -जिस मार्ग पर चलने से किसी प्रकार का अशिव (उपद्रव) न हो। (ख) भाव विवक्षा-रत्नत्रय की साधना से शैलेषी (अयोग) अवस्था प्राप्त हो / मार्ग के प्रकार लौकिक लक्ष्य-स्थान के मार्ग तीन प्रकार के हैं-१. जलमार्ग, 2. स्थलमार्ग, और 3. नभमार्ग / इन मार्गों द्वारा अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए तीन प्रकार के साधनों का उपयोग किया जाता है / 1. गमन क्रिया करने वाले के पैर, 2. यान और 3. वाहन / इसी प्रकार लोकोत्तर लक्ष्य-स्थान "मुक्ति" के मार्ग भी तीन प्रकार के हैं। 1. ज्ञान, 2. दर्शन और 3. चारित्र / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग / 26 / मार्ग के प्रकार मार्ग छह प्रकार के है-१. नाम मार्ग, 2. स्थापना मार्ग, 3. द्रव्य मार्ग, 4. क्षेत्र मार्ग, 5. काल मार्ग और 6. भाव मार्ग / (1) नाम मार्ग-एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाने वाला मार्ग जिस नाम से अभिहित हो-वह नाम मार्ग है। यथा-यह इन्द्रप्रस्थ जाने वाला मार्ग है। (2) स्थापना मार्ग-एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाने के लिए जिस मार्ग की रचना की गई हो-वह स्थापना मार्ग है / यथा-पगदण्डी, सड़क, रेलमार्ग आदि / (3) द्रव्य मार्ग-यह मार्ग अनेक प्रकार का है। (क) फलक मार्ग-जहाँ पंक अधिक हो वहाँ फलक आदि लगाकर मार्ग बनाया जाय / (ख) लता मार्ग-जहाँ लताएँ पकड़कर जाया जाय / OPIEDIAS . . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 (ग) आन्दोलन मार्ग-जहाँ झूले से आन्दोलित (ऊपर की ओर उठकर) होकर पहुंचा जाय / (घ) वेत्र मार्ग-बेंत के पौधे को पकड़कर नदी पार की जाय / (क) रज्जु मार्ग-जहाँ रस्सियाँ बाँधकर जाया जाय / (च) यान मार्ग-जहाँ किसी यान (रेल, मोटर, तांगा, रथ आदि) द्वारा जाया जाए। (छ) बिल मार्ग-जहाँ सुरंग द्वारा जाया जाय। (ज) पाश मार्ग-जहाँ जाने के लिए पाश (जाल) बिछाया गया हो। (स) कील मार्ग-रेतीले प्रदेश में कीलें गाड़कर बनाया मार्ग / (ज) अज मार्ग-जहाँ बकरों पर बैठकर जाया जाए। (ट) पक्षि मार्ग-भारण्ड पक्षी आदि पक्षियों पर बैठकर जहाँ जाया जाय / (8) छत्र मार्ग-जहाँ छत्र लगाकर जाया जाय / (ड) नौका मार्ग-जहाँ नौका द्वारा जाया जाय / (ढ) आकाश मार्ग-विद्याधर या देवताओं का मार्ग / अथवा वायुयान द्वारा जाने का मार्ग / (4) क्षेत्र मार्ग-यह मार्ग दो प्रकार का है। (क) शालि आदि धान्य के क्षेत्र को जाने वाला मार्ग / (ख) ग्राम नगर आदि को जाने वाला मार्ग / (5) काल मार्ग-यह मार्ग दो प्रकार का है। (क) शिशिर, वसन्त आदि किसी एक ऋतु विशेष में जाने योग्य मार्ग / (ख) प्रातः, सायं, मध्याह्न या निशा में जाने योग्य मार्ग / (6) भाव मार्ग-यह मार्ग दो प्रकार का है / 1. प्रशस्त और 2. अप्रशस्त / (क) प्रशस्त भाव मार्ग-इस मार्ग का अनुसरण करने से आत्मा सुगति को प्राप्त होता है / (ख) अप्रशस्त भाव मार्ग-इस मार्ग का अनुसरण करने से आत्मा दुर्गति को प्राप्त होता है। इसी प्रकार भाव मार्ग के कुछ अन्य प्रकार भी हैं / (क) 1 सत्य मार्ग और 2 मिथ्या मार्ग / (ख) 1 सुमार्ग और 2 कुमार्ग / (ग) 1 सन्मार्ग और 2 उन्मार्ग / द्रव्य मार्ग के अन्य और चार प्रकार 1. क्षेम है और क्षेम रूप है। जो मार्ग सम है और बटमार या श्वापदों से रहित है। 2. क्षेम है किन्तु अक्षेम रूप है। __मार्ग सम है किन्तु बटमार या श्वापदों से युक्त है। 3. अक्षेम है किन्तु क्षेम रूप है। मार्ग विषम है किन्तु बटमार या श्वापदों से रहित है। 4. अक्षेम है और अक्षेम रूप है। मार्ग भी विषम है और बटमार या श्वापदों से भी युक्त है। मार्ग के समान मार्गगामी भी दो प्रकार के होते हैं / यथा-१ सुमार्गगामी और 2 कुमार्गगामी / भाव मार्गगामी के चार प्रकार 1. क्षेम है और क्षेम रूप है। जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से युक्त है और साधुवेष (स्वलिंग) से भी युक्त है। PA NEducauonmenion Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 306 / 000000000000 2. क्षेम है किन्तु अक्षेम रूप है। जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से तो युक्त है किन्तु साधु वेष (स्वलिंग) से युक्त नहीं है / 3. अक्षेम है किन्तु क्षेम रूप है। जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से तो युक्त नहीं है किन्तु साधुवेष (स्वलिंग) से युक्त है। 4. अक्षेम है और अक्षेम रूप है। जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से भी युक्त नहीं है और साधु वेष से भी युक्त नहीं है। प्रथम भंग में मुक्ति मार्ग का पूर्ण आराधक है / द्वितीय भंग में मुक्ति मार्ग का देश आराधक है। तृतीय भंग में मुक्ति मार्ग का देश विराधक है। चतुर्थ भंग में मुक्ति मार्ग का पूर्ण विराधक है / मुक्ति के कितने मार्ग? मानव क्षेत्र से मुक्ति क्षेत्र में पहुँचने का मार्ग एक ही है या अनेक हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार है। मुक्ति मार्ग के सम्बन्ध में जैनागमों में दो विवक्षाएं हैं। (1) संक्षेप में मुक्ति का मार्ग एक है "क्षायिक भाव।" (2) विस्तृत विवक्षा के अनुसार मुक्ति के अनेक मार्ग हैं / ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समवेत साधना ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। तपश्चर्या चारित्र का ही एक अंग है। इसलिए आचार्य उमास्वति ने-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" कहा है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साथ जो “सम्यक्" विशेषण का प्रयोग है वह विलक्षण प्रयोग है / इस प्रकार का प्रयोग केवल जैनागमों में ही देखा गया है। पण NUNJAMINS नहीं अपितु सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र हैं / जिसकी दृष्टि सम्यक् (आत्मस्वरूप चिन्तन परक) है उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। उस सम्यग्दृष्टि का दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है। इनको संयुक्त साधना ही एकमात्र मुक्ति का मार्ग है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट साधना करने वाले भव भ्रमण से मुक्त होकर मुक्ति क्षेत्र में शाश्वत स्थिति को प्राप्त होते हैं। मुक्ति कब और कैसे ? आत्मा कर्मबन्धन से बद्ध कब हुई और मुक्त कब होगी ? आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है किन्तु कर्मक्षय होने पर मुक्त होगी। जिस प्रकार स्वर्ण की खान में स्वर्ण अनादिकाल से मिट्टी से मिश्रित है। विधिवत् शुद्ध करने पर स्वर्ण शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार कर्म-रजबद्ध आत्मा तपश्चर्या से कर्म रज मुक्त होती है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि सान्त है। इसलिए आत्मा कर्म रज से मुक्त होकर मुक्ति क्षेत्र में स्थित हो जाती है। अन्य दर्शनमान्य मुक्तिमार्ग जैनागम सूत्रकृताङ्ग में अन्य दर्शनमान्य जिन मुक्ति मार्गों का निर्देश है-यहाँ उनका संक्षिप्त संकलन प्रस्तुत है। तारागण आदि ऋषियों ने सचित्त जल के सेवन से मुक्ति प्राप्त की है। HAMARAikari Damcumvauommom Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ नमि (विदेह) ने आहार का उपभोग करके मुक्ति प्राप्त की है। रामगुप्त ने भी नमि के समान आहार का उपभोग करके मुक्ति प्राप्त की है। 'बाहुक' ने सचित्त जल के सेवन से मुक्ति प्राप्त की है। नारायण ऋषि ने अचित्त जल के सेवन से मुक्ति प्राप्त की है। असिल, देवल, द्वैपायन और पाराशर ऋषि ने सचित्त जल, बीज और हरितकाय के सेवन से मुक्ति प्राप्त 000000000000 000000000000 की है।३१ W SAGAR नमक न खाने से मुक्ति प्राप्त होती है। शीतल जल के सेवन से मुक्ति प्राप्त होती है / होम करने से मुक्ति प्राप्त होती है / 32 क्रियावादी केवल क्रिया से ही मुक्ति मानते हैं / ज्ञान का निषेध करते हैं। अक्रियावादी केवल ज्ञान से ही मुक्ति मानते हैं / क्रिया का निषेध करते हैं / विनयवादी केवल विनय से ही मुक्ति मानते हैं / ज्ञान-क्रिया आदि का निषेध करते हैं / 33 अन्य दर्शनमान्य मुक्ति मार्गों का अन्य दर्शनों के किन-किन ग्रन्थों में उल्लेख है-यह शोध का विषय है। सूत्रकृताङ्ग के व्याख्या ग्रन्थों में भी मुक्ति विषयक वर्णन वाले अन्य दर्शनमान्य ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है इसलिए नवीन प्रकाश्यमान सूत्रकृताङ्ग के व्याख्या ग्रन्थों के सम्पादकों का यह कर्तव्य है कि उक्त मुक्ति मार्गों का प्रमाण पूर्वक निर्देश करें। श्र तसेवा का यह महत्त्वपूर्ण कार्य कब किस महानुभाव द्वारा सम्पन्न होता है ? यह भविष्य ही बताएगा। जैनदर्शन-सम्मत मुक्ति मार्ग जो ममत्व से मुक्त है वह मुक्त है।३४ जो मान-बड़ाई से मुक्त है वह मुक्त है / 35 जो वैर-विरोध से मुक्त है वह मुक्त है / 36 जो रागद्वेष से मुक्त है वह मुक्त है।३७ जो मोह से मुक्त है वह मुक्त है / 38 जो कषाय-मुक्त है वह मुक्त है / जो मदरहित है वह मुक्त है।४।। जो मौन रखता है वह मुक्त होता है।४१ जो सम्यग्दृष्टि है वह मुक्त होता है।४२ जो सदाचारी है वह मुक्त होता है।४३ अल्पभोजी, अल्पभाषी, जितेन्द्रिय, अनासक्त क्षमाश्रमण मुक्त होता है।४४ आरम्म-परिग्रह का त्यागी ही मुक्त होता है चाहे वह ब्राह्मण, शूद्र, चाण्डाल या वर्णशङ्कर हो / 45 हिताहित के विवेक वाला उपशान्त गर्वरहित साधक मुक्त होता है / 46 निदानरहित अणगार ही मुक्त होता है।४८ सावद्य दान के सम्बन्ध में मौन रखने वाला मक्त होता है।४६ प्रत्याख्यान परिज्ञा वाला मुक्त होता है।५० कषाय-मुक्त संवृत दत्तषणा वाला मुनि ही मुक्त होता है।५१ गुरु की आज्ञा का पालक मुक्त होता है।५3 कमल के समान अलिप्त रहने वाला मुक्त होता है।५४ विवेकपूर्वक वचन बोलने वाला मुक्त होता है / 55 One UOOD IRIALES Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 311 000000000000 000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन का पालक मुक्त होता है।५६ जो दीर्घदर्शी लोक के स्वरूप को जानकर विषय-भोगों को त्याग देता है वह मुक्त होता है / 50 जो दृढ़तापूर्वक संयम का पालन करता है वह मुक्त होता है। जो लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है वह मुक्त होता है / 56 शुद्ध चारित्र का आराधक सम्यक्त्वी मुक्त होता है। मुषाभाषा का त्यागी मुक्त होता है। काम-भोगों में अनासक्त एवं जीवन-मरण से निष्पृह मुनि ही मुक्त होता है / अन्त-प्रान्त आहार करने वाला ही कर्मों का अन्त करके मुक्त होता है। विषय-भोग से विरत जितेन्द्रिय ही मुक्त होता है।६४ शुद्ध धर्म का प्ररूपक और आराधक मुक्त होता है। रत्नत्रय का आराधक मुक्त होता है।६६ शल्यरहित संयमी मुक्त होता है। त्रिपदज्ञ ज्ञानी (हेय, जय और उपादेय का ज्ञाता) त्रिगुप्तसंवृत जो जीव-रक्षा के लिए प्रयत्नशील है वह मुक्त होता है।६८ शुद्ध अध्यवसाय वाला, मानापमान में समभाव रखने वाला और आरम्भ-परिग्रह का त्याग करने वाला अनासक्त विवेकी व्यक्ति ही मुक्त होता है / जिस प्रकार पक्षी पांखों को कम्पित कर रज दूर कर देता है उसी प्रकार अहिंसक तपस्वी भी कर्मरज को दूर कर देता है। जिस प्रकार धुरी टूटने पर गाड़ी गति नहीं करती उसी प्रकार कर्ममुक्त चतुर्गति में गति नहीं करता। शुद्धाशय स्त्री-परित्यागी मुक्त होता है / 72 / जो संयत विरत प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्म वाला संवृत एवं पूर्ण पण्डित है वह मुक्त होता है। 3 जो सुशील, सुब्रती, सदानन्दी सुसाधु होता है वह मुक्त होता है / 74 जो घातिकर्मों को नष्ट कर देता है वह मुक्त होता है। जो हिंसा एवं शोक संताप से दूर रहता है वह मुक्त होता है। जो आत्म-निग्रह करता है वह मुक्त होता है। जो सत्य (आगमोक्त) आज्ञा का पालन करता है वह मुक्त होता है।७८ ज्ञान और क्रिया का आचरण करने वाला मुक्त होता है। संयम में उत्पन्न हुई अरुचि को मिटाकर यदि कोई किसी को स्थिर करदे तो बह शीघ्र ही मुक्त होता है।८० तेरहवें क्रियास्थान-ऐपिथिक क्रिया वाला अवश्य मुक्त होता है।" सावद्य योग त्यागी अणगार ही मुक्त होता है / 82 जो परमार्थ द्रष्टा है वह मुक्त होता है / 83 लघु और रुक्ष आहार करने वाला मुक्त होता है / 64 जो उग्रतपस्वी उपशान्त-दान्त एवं समिति-गुप्ति युक्त होता है वह मुक्त होता है / 85 जो आगमानुसार संयमपालन करता है वह मुक्त होता है।८६ जो सम्यग्दृष्टि सहिष्णु होता है वह मुक्त होता है। जिस प्रकार अनुकूल पवन से नौका पार पहुंचती है उसी प्रकार उत्तम भावना से शुद्धात्मा मुक्त होता है / आचार्य और उपाध्याय की मुक्ति जो आचार्य-उपाध्याय शिष्यों को अग्लान भाव (रुचिपूर्वक) से सूत्रार्थ का अध्ययन कराते हैं और अग्लान भाव से ही उन्हें संयम-साधना में सहयोग देते हैं / वे एक, दो या तीन भव से अवश्य मुक्त होते हैं / Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000 000000000000 312 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन प्रन्य धर्मदेव और देवाधिदेव की मुक्ति धर्म देव अणगार को कहते हैं / यदि वह समाधिमरण करे तो देवगति या मुक्ति को प्राप्त होता है किन्तु देवाधिदेव तो (तीर्थङ्कर) मुक्ति को ही प्राप्त करते हैं।'' आत्मा की क्रमिक मुक्ति (1) जीव-अजीव का ज्ञान / (2) जीव की गतागत का ज्ञान / (3) पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष का ज्ञान / (4) ज्ञान से दैविक और मानुषिक भोगों की विरक्ति / (5) विरक्ति से आभ्यन्तर और बाह्य संयोगों का परित्याग / (6) बाह्याभ्यन्तर संयोग परित्याग के बाद अनगारवृत्ति की स्वीकृति / (7) संवरात्मक अनुत्तर धर्म का आराधन / (8) मिथ्यात्व दशा में अजित कर्मरज का क्षरण / (8) केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति / (10) योगों का निरोध और शैलेषी अवस्था की प्राप्ति / (11) कर्मरज मुक्त-मुक्त / 5 मुक्ति का एक और कम प्रश्न-तथारूप (आगमोक्त ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्त) श्रमण ब्राह्मण की पर्युपासना का क्या फल है ? उत्तर-सेवा का सुफल शास्त्र श्रवण है। प्रश्न-शास्त्र श्रवण का फल क्या है ? प्रश्न-ज्ञान का क्या फल है ? उत्तर-ज्ञान का फल विज्ञान है। प्रश्न-विज्ञान (सार-असार का विवेक) का क्या फल है ? उत्तर-विज्ञान का फल प्रत्याख्यान (हिंसा आदि पाप कर्मों से निवृत्त होने का संकल्प) है। प्रश्न-प्रत्याख्यान का क्या फल है ? उत्तर-प्रत्याख्यान का फल संयम है। प्रश्न-संयम का फल क्या है ? उत्तर--संयम का फल अनास्रव (संवर-पाप कर्मों के करने से रुकना) है। प्रश्न-अनास्रव का फल क्या है? उत्तर-अनास्रव का फल तप है। प्रश्न-तप का क्या फल है ? प्रश्न-व्यपदान का क्या फल है? उत्तर-व्यपदान का फल अक्रिया,(मन, वचन, काया के योगों-व्यापारों का निरोध) है। प्रश्न-अक्रिया का फल क्या है ? उत्तर-अक्रिया का फल निर्वाण (कर्मरज से आत्मा की मुक्ति) है / प्रश्न निर्वाण का फल क्या है ? उत्तर-निर्वाण का फल मुक्त होना है।६२ आरम्भ-परिग्रह के त्याग से ही मुक्ति आरम्भ और परिग्रह का त्याग किए बिना यदि कोई केवल ब्रह्मचर्य, संयम और संवर की आराधना से मुक्त होना चाहे तो नहीं हो सकेगा तथा उसे आभिनिबोधिक ज्ञान यावत् केवलज्ञान भी नहीं होगा। 3 Jam Loom TO F ate Personal use only wwwajalwellorary.orge Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 313 000000000000 000000000000 mmy KUMAmy मुक्तात्मा के प्राणों का प्रयाण मुक्तात्मा के प्राण (देहावसान के समय) सर्वांग से निकलते हैं / देवगति में जाने वाले के प्राण शिर से निकलते हैं। मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में जाने वालों के प्राण क्रमशः वक्षस्थल (मध्यभाग) से, पिण्डलियों से और पैरों से (अधोभाग से) निकलते हैं / 4 चार प्रकार की अन्तक्रिया-मुक्ति 5 प्रथम अन्तक्रिया-कोई अल्पकर्मा व्यक्ति मनुष्य भव में उत्पन्न होता है। वह मुण्डित होकर गृहस्थावस्था से अनगार धर्म में प्रवजित होने पर उत्तम, संयम, संवर, समाधि युक्त रूक्ष भोजी, स्वाध्यायी, तपस्वी, भवसागर पार करने की भावना वाला होता है / न उसे कुछ तप करना पड़ता है और न उसे परीषह सहने पड़ते हैं, क्योंकि वह अल्पकर्मा होता है। ऐसा पुरुष दीर्घायु की समाप्ति के बाद सिद्ध-बुद्ध मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है, यथा-भरत चक्रवर्ती / द्वितीय अन्तक्रिया-कोई अधिक कर्म वाला मनुष्य भव पाकर प्रवजित होता है। संयम, संवर युक्त यावत् तपस्वी होता है उसे उग्र तप करना पड़ता है और असह्य वेदना सहनी पड़ती है। ऐसा पुरुष अल्पायु भोग कर सिद्ध बुद्ध मुक्त होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करना है, यथा-गजसुकुमार अणगार / तृतीय अन्तक्रिया-कोई महाकर्मा मनुष्य मुण्डित-यावत्-प्रवजित होकर अनगार धर्म की दीक्षा लेता है / वह उग्र तप करता है और अनेक प्रचण्ड परीषह सहता हुआ दीर्घायुभोग कर सिद्ध बुद्ध मुक्त होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, यथा-सनत्कुमार चक्रवर्ती। चतुर्थ अन्तक्रिया-कोई अल्पकर्मा व्यक्ति केवल भाव चारित्र से सिद्ध बुद्ध और मुक्त होता है / न उसे तप करना पड़ता है और न परीषह सहने पड़ते हैं, यथा--मरुदेवी माता। मुक्ति के दो प्रमुख हेतु (1) बन्धहेतुओं का अभाव-१ मिथ्यात्व, 2 अविरति, 3 प्रमाद, 4 कषाय और 5 योग ये पांच हेतु कर्मबन्ध के हैं / इनके अभाव में क्रमश: पांच संवर के हेतु प्राप्त होते हैं / 1 सम्यक्त्व, 2 विरति, 3 अप्रमाद, 4 अकषाय और 5 योग गुप्ति-ये पांच हेतु आत्मा को कर्मबन्ध से बचाते हैं / अर्थात् नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। (2) निर्जरा-१-६ अनशन आदि 6 बाह्य तप और 7-12 प्रायश्चित्त आदि 6 आभ्यन्तर तप-ये बारह भेद निर्जरा के हैं / इनसे पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है। केवल अनशनादि 6 बाह्य तपों के आचरण से सकाम निर्जरा (विवेकपूर्वक कर्म क्षय) नहीं होती साथ में प्रायश्चित्तादि 6 आभ्यन्तर तपों की आराधना भी आवश्यक है। बाह्य तपों की आराधना किए बिना यदि कोई केवल आभ्यन्तर तपों की ही आराधना करे तो उसके सकाम निर्जरा हो जाती है / केवल बाह्य तपों की आराधना से तो अकाम (अविवेकपूर्वक) निर्जरा होती है। कर्म निर्जरा का एक रूपक जिस प्रकार किसी बड़े तालाब का जल, आने के मार्ग को रोकने से और पहले के जल को उलीचने से सूर्यताप द्वारा क्रमशः सूख जाता है उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भवों के संचित कर्म पापकर्म के आने के मार्ग को रोकने से तथा तप करने से नष्ट होते हैं / 17 MARATHI AIIMIRCT PRO IAS and - E asti ..m.53 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 शान्तितीर्थ में मुक्ति स्नान सोमदेव के तीन प्रश्न१. आपका नद कौन-सा है? 2. आपका शान्तितीर्थ कौन सा है ? 3. आप कहां स्नान करके कर्मरज धोते हैं ? मुनि हरिकेशबल के क्रमशः उत्तर१. सरल आत्मा के प्रशान्त परिणाम वाला धर्म मेरा नद है। 2. ब्रह्मचर्य मेरा शान्तितीर्थ है। 3. उसमें स्नान करके मैं विमल-विशुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करूंगा। अनेक महर्षि इस शान्तितीर्थ में स्नान करके उत्तम स्थान (मुक्ति) को प्राप्त हुए हैं। मानव-सेवा से मुक्ति अज्ञान मिटाने के लिए जन-जन में ज्ञान का प्रचार करने से, मोह मिटाकर प्रेम बढ़ाने से और राग-द्वेष का क्षय करने से एकान्त सुखमय मोक्ष की प्राप्ति होती है / गुरुजनों और वृद्धों की सेवा करने से, अज्ञानियों का संसर्ग न करने से, स्वाध्याय एकान्तवास एवं सूत्रार्थ का चिन्तन करने से तथा धैर्य रखने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। मानव देह से मुक्ति केशीमुनि-महाप्रवाह वाले समुद्र में नौका तीव्र गति से चली जा रही है। गौतम ! तुम उस पर आरूढ़ हो / उस पार कैसे पहुँचोगे? गौतम-जो सछिद्र नौका होती है वह उस पार नहीं पहुंचती है। किन्तु जो सछिद्र नौका नहीं होती वह उस पार पहुंच जाती है। केशी-गौतम ? नौका किसे कहते हो? - गौतम- शरीर को नौका, जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है। महर्षि उसे पार कर मुक्ति पहुँचते हैं / 100 दुर्लभ चतुरंग और मुक्ति मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ / ये चार अंग प्राणियों के लिए दुर्लभ हैं / यह जीव स्वकृत कर्मों से कभी देवलोक में, कभी नरक और कभी तिर्यंच में जन्म लेता है। काल क्रम से कर्मों का अंशतः क्षय होने पर यह जीवात्मा मनुष्यत्व को प्राप्त होता है। मनुष्य शरीर प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है।। कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए फिर भी उस पर श्रद्धा का होना परम दुर्लभ है। श्रुति और श्रद्धा प्राप्त करके भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्यत्व प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत होता है और कर्मरज को दूर कर निर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होता है / 101 मुक्ति पथ के पथिक (1) अरिहन्त भगवान के गुणों की स्तुति एवं विनय-भक्ति करने वाले / (2) सिद्ध भगवान के गुणगान करने वाले / (3) जिन प्रवचन के अनुसार आराधना करने वाले / (4) गुणवन्त गुरु का सत्कार-सम्मान करने वाले / माजीवात्मा मनुष्का श्रवण दुर्लभर श्रद्धा का होना है। संयम में पुरुषार्थ - 288000 圖圖圖圖 MORROW யார் Of Private Personal use my www.jamelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 315 000000000000 000000000000 पान VIRDLY SE.. (5) स्थविर महाराज का सत्कार-सन्मान करने वाले। (6) बहुश्रुत की विनय-भक्ति करने वाले / (7) तपस्वी की विनय-भक्ति करने वाले / (क) निरन्तर ज्ञानाराधना करने वाले / (9) निरन्तर दर्शनाराधना करने वाले / (10) ज्ञान और ज्ञानी का विनय करने वाले / (11) भावपूर्वक षडावश्यक करने वाले / (12) निरतिचार शीलव्रत का पालन करने वाले। (13) क्षण भर भी प्रमाद न करने वाले / (14) यथाशक्ति निदान रहित तपश्चर्या करने वाले / (15) सुपात्र को शुद्ध आहार देने वाले। (16) आचार्य यावत् संघ की बैयावृत्य-सेवा करने वाले / (17) समाधि भाव रखने वाले / (18) निरन्तर नया-नया ज्ञान सीखने वाले / (16) श्रुत की भक्ति करने वाले। (20) प्रवचन की प्रभावना करने वाले / 102 मुक्ति की मंजिलें (1) संवेग-मुक्ति की अभिरुचि / (2) निर्वेद-विषयों से विरक्ति / (3) गुरु और स्वधर्मी की सेवा / (4) अनुप्रेक्षा-सूत्रार्थ का चिन्तन-मनन करना / (5) व्यवदान-मन, वचन और काय योग की निवृत्ति / (6) विविक्त शय्यासन-जन-सम्पर्क से रहित एकान्तवास / (7) विनिवर्तना-मन और इन्द्रियों को विषयों से अलग रखना। (8) शरीर-प्रत्याख्यान-देहाघ्यास से निवृत्ति / (6) सद्भाव-प्रत्याख्यान-सर्व संवर रूप शैलेशी भाव / (10) वैयावृत्य-अग्लान भाव से सेवा करना / (11) काय समाधारणा-संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में काया को भली-भांति संलग्न रखना। (12) चारित्र-सम्पन्नता-निरतिचार चारित्राराधन / (13) प्रेय-राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन विजय / ये त्रयोदश मुक्ति के सूत्र हैं। इनकी सम्यक् आराधना से आत्मा अवश्य कर्मबन्धनों से मुक्त होता है / 10 3 मुक्ति के सोपान आत्मा की मिथ्यात्वदशा एक निकृष्ट दशा है / उस दशा से उत्क्रान्ति करता हुआ आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है। उत्क्रान्तिकाल में आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, इस प्रकार क्रमिक अवस्थाओं से पार होना पड़ता है / इन अवस्थाओं को जैनागमों में 'गुणस्थान' कहा है / ये चौदह हैं। 1. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के तीव्रतम उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा या प्रतिपत्ति) मिथ्या-विपरीत हो जाती है-वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है / THE Mu/ Fth A AANEWS we ........SH Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 2. सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान औपशमिक सम्यक्त्व वाला आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर झुकता है जब तक वह आत्मा मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता तब तक सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है / 3. सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान जिसकी दृष्टि कुछ सम्यक् और कुछ मिथ्या होती है वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है / 4. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के व्रत-प्रत्याख्यान नहीं कर पाता वह अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है। 5. देशविरत गुणस्थान प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो जीव सावद्य क्रियाओं से सर्वथा विरत नहीं हो पाता, किन्तु देश (अंश) से विरत होता है / वह देशविरत गुणस्थान वाला 'श्रावक' कहा जाता है। 6. प्रमत्त संयत गुणस्थान जो जीव प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव में सभी प्रकार की सावध क्रियाओं का त्याग करके सर्वविरत तो हो जाता है लेकिन प्रमाद का उदय उसे रहता है, वह प्रमत्त संयत गुणस्थान वाला कहलाता है। 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान जो संयत मुनि निद्रा, विषय, कषाय, विकथा आदि प्रमादों का सेवन नहीं करता वह अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है। 8. निवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान जिस जीव के बादर (स्थूल) संपराय (कषाय) की सत्ता में से भी निवृत्ति प्रारम्भ हो गई है वह निवृत्ति बादर संपराय गुणस्थानवाला कहा जाता है / 104 6. अनिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान जिस जीव के स्थूल कषाय सर्वथा निवृत्त नहीं हुए हैं अर्थात् सत्ता में जिसके संज्वलन लोभ विद्यमान है / वह अनिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान वाला कहा जाता है / जिस जीव के लोभकषाय के सूक्ष्म-खण्डों का उदय रहता है, वह सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाला कहा जाता है / 11. उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान जिस जीव के कषाय उपशान्त हुए हैं और राग का भी सर्वथा उदय नहीं है। वह उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वाला कहा जाता है। 12. क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान जिस जीव के मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है किन्तु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीन घातिकर्म अभी निर्मूल नहीं हुए हैं / अतः वह क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वाला कहा जाता है। 13. सयोगिकेवली गुणस्थान 4DADANA व्यापार होता है अतः वह सयोगिकेवली गुणस्थान वाला कहा जाता है। 14. अयोगिकेवली गुणस्थान तीनों योगों का निरोध कर जो अयोगि अवस्था को प्राप्त हो गए हैं वे अयोगि केवली गुणस्थान वाले हैं। मुक्तात्माओं के दो वर्ग आठवें गुणस्थान में मुक्तात्माओं के दो वर्ग बन जाते हैं। एक उपशमक वर्ग और दूसरा क्षपक वर्ग / 208 Doomso Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 317 000000000000 000000000000 उपशमक वर्ग बाले दर्शनमोह की तीन१०५ और चारित्रमोह की चार१०६-इन सात प्रकृतियों का उपशमन करते हैं / वे अष्टम, नवम, दशम और एकादशम गुणस्थान को प्राप्त कर पुनः प्रथम गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं / क्षपक वर्ग वाले दशवें गुणस्थान से सीधे बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होते हैं। बाद में तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का स्पर्श कर मुक्त हो जाते हैं। यहाँ गुणस्थानों का अति संक्षिप्त परिचय दिया है। विशेष जिज्ञासा वाले 'गुणस्थान क्रमारोहण' नाम का ग्रन्थ देखें। मुक्त होने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया अन्तर्मुहूर्त में मुक्त होने वाले केवली के समुद्घात को 'केवली समुद्धात' कहा जाता है। सभी केवली "केवली समुद्घात" नहीं करते हैं। केवल वे ही केवली "केवली समुद्घात" करते हैं जिनके आयु कर्म के दलिक एक अन्तर्मुहूर्त में समाप्त होने योग्य हों और वेदनीय, नाम एवं गोत्र के दलिक इतने अधिक हों जिनकी अन्तम हुर्त में समाप्ति संभव न हो / केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं। प्रथम समय में केवली आत्म-प्रदेशों के दण्ड की रचना करते हैं। वह मोटाई में स्वशरीर प्रमाण और लम्बाई में ऊपर और नीचे से लोकान्तपर्यन्त विस्तृत होता है / द्वितीय समय में केवली उसी दण्ड को पूर्व-पश्चिम और दक्षिण-उत्तर में फैलाते हैं। फिर उस दण्ड का लोकपर्यन्त फैला हुआ कपाट बनाते हैं / तृतीय समय में दक्षिण-उत्तर अथवा पूर्व-पश्चिम दिशा में लोकान्तपर्यन्त आत्म-प्रदेशों को फैलाकर उसी कपाट को "मथानी" रूप बना देते हैं। ऐसा करने से लोक का अधिकांश भाग आत्म-प्रदेशों से व्याप्त हो जाता है। किन्तु मथानी की तरह अन्तराल प्रदेश खाली रहते हैं / चतुर्थ समय में मथानी के अन्तरालों को पूर्ण करते हुए समस्त लोकाकाश को आत्म-प्रदेशों से भर देते हैं क्योंकि लोकाकाश और जीव के प्रदेश बराबर हैं। पांचवें, छठे, सातवें और आठवें समय में विपरीत क्रम से आत्म-प्रदेशों का संकोच करते हैं / इस प्रकार आठवें समय में सब आत्म-प्रदेश पुनः शरीरस्थ हो जाते हैं / मुक्ति के द्वार यहाँ मुक्त आत्माओं के सम्बन्ध में क्षेत्रादि द्वादश द्वारों (विषयों) का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया (1) क्षेत्र-(क) जन्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्म-भूमियों में उत्पन्न मानव मुक्त होते हैं / (ख) संहरण की अपेक्षा सम्पूर्ण मानव क्षेत्र से "मानव" मुक्त हो सकता है / (2) काल-(क) जन्म की अपेक्षा अवसर्पिणी, उत्सपिणी तथा अनवसर्पिणी / अनुत्सर्पिणी में जन्मा हुआ मानव मुक्त होता है। (ख) संहरण की अपेक्षा भी पूर्वोक्त कालों में जन्मा हुआ मानव मुक्त हो सकता है। (3) गति-(क) अन्तिम भव की अपेक्षा मानव गति से आत्मा मुक्त होती है / (ख) पूर्व भव की अपेक्षा चारों गतियों से आत्मा मुक्त हो सकती है। (4) लिंग-(क) लिंग अर्थात् वेद या चिन्ह / वर्तमान की अपेक्षा वेद-विमुक्त आत्मा मुक्त होती है। (ख) अतीत की अपेक्षा स्त्रीवेद, पुरुषवेद या नपुंसक वेद से भी आत्मा मुक्त हो सकती है। चिन्ह-(क) वर्तमान की अपेक्षा लिंग रहित आत्मा मुक्त होती है। (ख) अतीत की अपेक्षा भाव लिंग आत्मिक योग्यता-वीतराग भाव से स्वलिंग धारी आत्मा की मुक्ति होती है। :-... Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000 000000000000 पूर्णम (SO ... NITINK ARATHITIES 318 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज–अभिनन्दन प्रन्य (ग) द्रव्य लिंग की अपेक्षा स्वलिंग (जैन लिंग), परलिंग और गृहस्थलिंग इन तीनों लिंगों से मुक्ति हो सकती है। (5) तीर्थ-(क) कोई तीर्थंकर रूप से और कोई अतीर्थंकर रूप से मुक्त होते हैं / (ख) तीर्थंकर के अभाव में यदि तीर्थंकर का शासन चल रहा हो या शासन विच्छिन्न हो गया हो-दोनों ___ समयों में आत्मा मुक्त हो सकती है। (6) चारित्र-(क) वर्तमान काल की अपेक्षा यथाख्यात चारित्र युक्त आत्मा मुक्त होती है। (ख) अतीत की अपेक्षा तीन, चार या पाँचों चारित्र युक्त आत्मा मुक्त हो सकती है / यथातीन चारित्र-१ सामायिक चारित्र, 2 सूक्ष्मसम्पराय चारित्र, और 3 यथाख्यात चारित्र / तीन चारित्र-१ छेदोपस्थापनीय, 2 सूक्ष्मसम्पराय, और 3 यथाख्यात चारित्र / चार चारित्र-१ सामायिक चारित्र, 2 परिहारविशुद्धि चारित्र, 3 सूक्ष्मसम्पराय चारित्र, और 4 यथाख्यात चारित्र / पांच चारित्र-१ सामायिक चारित्र, 2 छेदोपस्थापनीय चारित्र, 3 परिहार विशुद्धि चारित्र, 4 सूक्ष्मसम्पराय चारित्र, और 5 यथाख्यात चारित्र / (7) प्रत्येक-बुद्ध बोधित-(क) प्रत्येक बुद्ध बोधित आत्मा मुक्त होती है। (ख) बुद्ध बोधित आत्मा भी मुक्त होती है। (ग) स्वयं बुद्ध मुक्त होते हैं। (8) ज्ञान-(क) वर्तमान काल की अपेक्षा एक केवलज्ञानी मुक्त होता है। (ख) अतीत काल की अपेक्षा-दो-मति और श्रु त ज्ञानी, तीन-मति-श्रत और अवधिज्ञानी, अथवा मति श्रुत और मनपर्यवज्ञानी, चार-मति, श्रुत, अवधि और मनपर्यवज्ञानी मुक्त होते हैं / (9) मुक्तात्मा की अवगाहना मुक्तात्मा के आत्म-प्रदेश देहावसान के समय जितनी ऊंचाई वाले देह में व्याप्त होते हैं उतनी ऊँचाई में से तृतीय भाग न्यून करने पर जितनी ऊँचाई शेष रहती है, मुक्तिक्षेत्र में उतनी ही ऊँचाई में मुक्तात्मा के आत्म-प्रदेश व्याप्त रहते हैं। मुक्तिक्षेत्र में मुक्तात्मा के आत्म-प्रदेश तीन प्रकार की ऊँचाइयों में विभक्त हैं। 1. उत्कृष्ट, 2. मध्यम, और 3. जघन्य / (1) उत्कृष्ट ऊँचाई-मुक्तात्मा के देह की ऊंचाई 500 धनुष की होती है तो मुक्ति क्षेत्र में उसके आत्म-प्रदेश 333 धनुष और 32 अंगुल की ऊँचाई में व्याप्त रहते हैं। (2) मध्यम ऊंचाई-मुक्तात्मा के देह की ऊँचाई सात हाथ की होती है तो मुक्ति क्षेत्र में उसके आत्मप्रदेश चार हाथ और सोलह अंगुल की ऊंचाई में व्याप्त रहते हैं। (3) जघन्य ऊँचाई-मुक्तात्मा के देह की ऊँचाई यदि दो हाथ की होती है तो मुक्ति क्षेत्र में उसके आत्मप्रदेश एक हाथ और आठ अंगुल की ऊँचाई में व्याप्त रहते हैं। उत्कृष्ट और जघन्य ऊँचाई वाले मुक्तात्माओं के आत्मप्रदेशों की मुक्ति क्षेत्र में जितनी ऊँचाई होती है, उतनी ही ऊंचाइयों का कथन किया जाता तो पर्याप्त था / उत्कृष्ट और जघन्य के मध्य में समस्त मध्यम ऊँचाइयों का कथन स्वत: हो जाता है, फिर भी यहाँ एक मध्यम ऊँचाई का कथन है। इसका अभिप्राय यह है कि जघन्य सात हाथ की ऊँचाई वाले तीर्थकर ही मुक्त होते हैं। उनकी यह ऊँचाई तृतीय भाग न्यून होने पर चार हाथ सोलह अंगुल शेष - रहती है / मुक्ति क्षेत्र में आत्मप्रदेशों की यह मध्यम ऊँचाई तीर्थंकरों की अपेक्षा से ही कही गई है। सामान्य केवलज्ञानियों को अपेक्षा से तो मुक्तिक्षेत्र में मुक्तात्माओं के आत्मप्रदेशों की मध्यम अवगाहना (ऊँचाइयाँ) अनेक प्रकार की हैं। (10) अन्तर--(क) निरन्तर मुक्त-जघन्य दो समय और उत्कृष्ट आठ समय पर्यन्त मुक्त होते हैं। RA ATE S Army BACHAR JACOBAR RO andutoenternational www.jama .Org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | 316 000000000000 000000000000 (ख) सान्तर मुक्त-जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः मास बाद मुक्त होते हैं। (11) संख्या-एक समय में जघन्य एक और उत्कृष्ट एक सौ आठ मुक्त होते हैं / (12) अल्पबहुत्व-(क) क्षेत्र मुक्त-संहरण मुक्त सबसे अल्प होते हैं / (ख) उनसे जन्म-मुक्त संख्येय गुण हैं। लोक-मुक्त-(क) सबसे अल्प उर्वलोक से मुक्त होते हैं / (ख) अधोलोक से मुक्त होने वाले उनसे संख्येय गुण हैं / (ग) तिर्यग्लोक से मुक्त होने वाले उनसे संख्येय गुण हैं / (घ) समुद्र से मुक्त होने वाले सबसे अल्प हैं। द्वीप से मुक्त होने वाले संख्येय गुण हैं / विस्तृत विवरण जानने के लिए लोक प्रकाश आदि ग्रन्थ देखने चाहिए। प्रस्तुत निबन्ध में मुक्ति मार्ग से सम्बन्धित अनेक विषय संकलित किए गए हैं। किन्तु अवशिष्ट भी अनेक रह गए हैं। यदि मुक्ति विषयक सारी सामग्री संकलित करने का प्रयत्न किया जाता तो समय एवं श्रम साध्य होता और विशालकाय निबन्ध बन जाता। जो इस ग्रन्थ के लिए अनुपयुक्त होता / यदि कहीं अल्पश्रुत होने के कारण अनुचित या विपरीत लिखा गया हो तो, "मिथ्या मे दुष्कृतम् / " बहुश्रुत संशोधनीय स्थलों की सूचना देकर अनुग्रहीत करें / यही अभ्यर्थना है। NEPAL ATTRITE MEANIN MARATI MULILA 1 उत्त० अ० 26, गा० 45, 46, 74 / 16 उत्त० अ०६, गाथा 58 / 2 उत्त० अ० 26, गा०४७-७४ / 20 उत्त० अ० 23, गाथा 83 / 3 उत्त० अ०७, गा०१ से 3 / 21 उत्त० अ० 36, गाथा 57-61 / 4 मोचनं मुक्तिः / कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः / अथवा मुच्यते 22 प्रज्ञापना पद 2, सू० 211 / / सकल कर्मभिर्यस्यामिति मुक्तिः / 23 ठाणांग अ० 1, सू० 10 और सू० 46 / 5 उत्त० अ०६, गाथा 10 / 24 भग० श० 16, उ०६, सूत्र 18 से 31 / उत्त० अ० २८,गा०३० / 25 पूर्वप्रयोगादसंगत्त्वाद्वन्धछेदात्तथागति परिणामाच्च 7 जाईजरा मच्चुभयाभिभूया, तद्गतिः / तत्त्वार्थ० अ० 10 सूत्र 6 / बहि विहारामिनिविट्ठ चित्ता / 26 प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 211 / संसार चक्कस्स विमोक्खणट्ठा / 27 प्रज्ञापना पद 2 / दठूण ते कामगुणे विरत्ता // 28 सूत्रकृताङ्ग अ०११ टीका / -उत्त० अ० 14, गा०४ / 26 तत्त्वार्थसूत्र अ० 1, सू०१ / 8 उत्त० अ० 10 गाथा 35 / 30 भग० श०८, उ०१०। है उत्त० अ०१४ / 31 सूत्रकृताङ्ग श्रु०१, अ०३, उ०४ 10 उत्त० अ०१७, गाथा 38 / 32 सूत्रकृताङ्ग 2.0 2, अ०७। 11 उत्त० अ०१६,६७ / 33 सूत्रकृताङ्ग श्रु०१, अ०६। 12 उत्त० अ०२८, गाथा 3 / 34 आचा०१, अ०२, उ०६। 13 उत्त० अ० 36, गाथा 67 / 35 आचा० 1, अ० 5, उ०६ / 14 उत्त० अ०१६,गाथा 83 / 36 आचा०१, अ०३, उ०१ / 15 उत्त० अ० 23, गाथा 81 / 37 आचा०१, अ०६, उ०३। 16 उत्त० अ० 29, सूत्र 44 / 38 सूत्र० श्रु०१, अ०१५, गा०१४ / 17 उत्त० अ० 23, गाथा 81 / 36 सूत्र० श्रु०१, अ०८, गा०१०। 18 उत्त० अ० 23, गाथा 83 / 40 सूत्र० श्रु. 1, अ० 13, गा० 15-16 / ..... TEST Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन प्रन्य 000000000000 000000000000 NER JALA पापा SC. TRANSP ACC ..... HTTARA 41 आचा० श्र.१, अ० 5, उ०३। 42 आचा० श्रु. 1, अ० 3, उ० 2 / 43 आचा० श्र.१, अ० 3, उ०२। 44 सूत्र० श्र०१, अ० 8, गा० 23 / 45 सूत्र० श्र.१, अ०६, गा० 2-3 / 46 सूत्र० श्र०२, अ०६, गा० 36 / 47 सूत्र० 01, अ० 11, गा० 11 / 48 सूत्र० श्रु० 1, अ० 11, गा०६। 46 सूत्र० 01, अ० 11, गा० 21 / 50 सूत्र० श्रु० 1, अ०११, गा० 34 / 51 सूत्र० श्रु.१, अ० 11, गा० 38 / 52 सूत्र० श्रु०१, अ० 14, गा० 15 / 53 सूत्र० श्रु०१, अ० 14, गा०२७ / 54 सूत्र० श्र०२ अ० 1, सू०१ / 55 सूत्र० श्र०२, अ०५, गा०३३ / 56 सूत्र० श्र. 2, अ० 2, गा०१५ / 57 आचा० श्रु०१, अ० 2, उ०६ / 58 आचा० श्र.१, अ०२, उ०२। 56 आचा० श्रु०१, अ०२, उ०२। 60 सूत्र० श्रु० 1, अ०८, गा० 23 / 61 सूत्र० श्र०१, अ० 10, गा० 22 / 62 सूत्र० श्र.०१, अ० 12, गा०२२। 63 सूत्र० श्रु०१, अ० 15, गा० 15 / 64 सूत्र० श्रु. 1, अ० 15, गा० 12 / 65 सूत्र० श्रु०१, अ० 15, गा० 16 / 66 सूत्र० श्रु०१, अ० 15, गा० 25 / 67 सूत्र० श्र०१, अ०१५, गा० 24 / 68 सूत्र० श्रु० 1, अ० 2, उ० 3, गा० 15 / 66 सूत्र० श्रु. 1, अ०२, उ०१, गा० 8-11 / 70 सूत्र० श्रु० 1, अ० 2, उ० 1, गा० 14-15 / 71 सूत्र० श्रु०१, अ० 7, गा०३० / 72 सूत्र० श्रु०१, अ०४ उ०२ गा०२२। 73 सूत्र० श्रु०२ अ० 4, सू०११ / 74 सूत्र० श्रु० 2, अ०२, सू० 35 / 75 आचा० श्र० 1, अ० 3, उ०२। 76 आचा० श्र. 1, अ० 3, उ०१। 77 आचा० श्रु०१, अ० 3, उ०३ / 78 आचा० 10 1, अ० 3, उ० 3 / 76 आचा००१, अ०२, उ०६ / 80 आचा० श्र.१, अ०२, उ०२। 81 सूत्र० श्र०२, अ० 2, सू०४८ / 82 सूत्र० थ०१, अ० 2, उ० 3 / 83 आचा० 101, अ० 2, उ०६ / 84 आचा० श्र 01, अ०५, उ०३ / 85 आचा० 10 1, अ०४, उ०४। 86 आचा० श्र०, अ०६, उ०४। 87 सूत्र० श्र०१, अ० 3, उ०४; गा० 22 / 88 सूत्र थ०१, अ०१५, गा०५। 86 मग० श०५, उ०६। 60 भग० श०१२, उ०६। 61 दश० अ०४, गाथा 14-25 / 62 सवणे णाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संयमे / अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धि / (ख) स्थानांग अ० 3, उ० 3, सू० 160 / 63 ठाणांग-अ०२, उ०२, सू०६३ / 64 ठाणांग-अ०५, उ०३, सू० 462 / 65 ठाणांग / अ०४, उ०१, सू०२३५ / 66 तत्वार्थ० अ० 10, सू०२। 67 उत्त० अ० 30, गाथा 5-6 / 68 उत्त० अ०१२, गा० 45-47 / 66 उत्त० अ० 32, गा० 2, 3 / 100 उत्त० अ०२३, गा०७०-७३ / 101 उत्त० अ० 3 / 102 ज्ञाता धर्म कथा अ०८ / 103 उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में बहत्तर सूत्र है उनमें से यहाँ केवल त्रयोदश सूत्रों का सार संक्षेप में लिखा है / क्योंकि इन सूत्रों में ही मुक्ति की प्राप्ति का स्पष्ट निर्देश है। 104 यहाँ “पहिज्जमाणे पहीणे" भग० श० 1, उ० 1, सूत्र के अनुसार बादर कषाय की निवृत्ति का प्रारम्भ होना भी निवृत्ति माना गया है। 105 (1) सम्यक्त्वमोहनीय, (2) मिथ्यात्वमोहनीय, (3) मित्र मोहनीय / 106 (1) क्रोध, (2) मान, (3) माया, (4) लोभ / NON - - I maa - artara