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________________ 306 | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 राजा वहां गया। किसान ने राजा को शीतल एवं मधुर जल पिलाया और भोजन कराया। राजा ने किसान से कहा-एक दिन तू मेरे यहां आ-मैं भी तुझे अच्छा-अच्छा भोजन खिलाउँगा / यह कहकर राजा अपने नगर को चला आया। एक दिन किसान राजा के पास गया / राजा ने उसे राजमहलों में रखा / अच्छे वस्त्र पहनाए, मिष्ठान्न खिलाए / पर किसान का मन महलों में नहीं लगा / एक दिन वह उकताकर राजा से कहने लगा-मैं अपने घर जाना चाहता हूँ। राजा ने कहा-जा सकता है। किसान अपने घर चला आया। किसान के कुटुम्बियों ने उससे पूछा-राजा के यहाँ तू कैसे रहा? किसान राजा के महल का, वस्त्रों का और भोजन का यथार्थ वर्णन नहीं कर सका। किसान ने कहा-वहाँ का आनन्द तो निराला ही था / मैं तुम्हें क्या बताऊँ / वहाँ जैसी मिठाइयाँ मैंने कभी नहीं खाईं। वहाँ जैसे वस्त्र मैंने कभी नहीं पहने / वहाँ जैसे बिछोनों पर मैं कभी नहीं सोया / किसान जिस प्रकार राजसी सुख का वर्णन नहीं कर सका इसी प्रकार मुक्तात्मा के सुख का वर्णन भी मानव की शब्दावली नहीं कर सकती / 27 मार्ग का अभिप्रेतार्थ मार्ग भी भाववाचक संज्ञा है-इसका वाच्यार्थ है-दो स्थानों के बीच का क्षेत्र / जिस स्थान से व्यक्ति गन्तव्य स्थान के लिए गमन-क्रिया प्रारम्भ करता है। वह एक स्थान और जिस अभीष्ट स्थान पर व्यक्ति पहुंचना चाहता है-वह दूसरा स्थान / ये दोनों स्थान कहीं ऊपर या नीचे / कहीं सम या STAR एजWAY AMBIL .... HTTTTTTTES C...... इन दो स्थानों के मध्य का क्षेत्र कहीं अल्प परिमाण का और कहीं अधिक परिमाण का भी होता है। आध्यात्मिक साधना में मार्ग शब्द का अभिप्रेतार्थ है-मुक्ति के उपाय / अर्थात् जिन उपायों (साधनों) से आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो सके / ऐसे उपाय आगमों में "मुक्ति के मार्ग" कहे गये हैं / मार्ग के समानार्थक२८ (1) पन्थ (क) द्रव्य विवक्षा-जिस पर चलकर किसी ग्राम या नगर से इष्ट ग्राम या नगर को पथिक पहुँच जाय वह द्रव्य पन्थ है। (ख) भाव विवक्षा-जिस निमित्त से या उपदेश से मिथ्यात्व से मुक्त होकर सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय वह भाव पन्थ है। (2) मार्ग (क) द्रव्य विवक्षा-जो मार्ग सम हो और कन्टक, बटमार या श्वापदादि से रहित हो। (ख) भाव विवक्षा-जिस साधना से आत्मा अधिक शुद्ध हो। ANANDANEL (क) द्रव्य विवक्षा-ऐसा सद् व्यवहार जिससे विशिष्ट पद या स्थान की प्राप्ति हो। (ख) भाव विवक्षा-सम्यग्ज्ञान-दर्शन से सम्यग्चारित्र की प्राप्ति हो। (4) विधि (क) द्रव्य विवक्षा-ऐसे सत् कार्य जिनके करने से इष्ट पद या स्थान की निर्विघ्न प्राप्ति हो। (ख) भाव विवक्षा-जिस साधना से सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की निर्विघ्न आराधना हो। (5) धृति (क) द्रव्य विवक्षा-अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हुए भी धैर्य से इष्ट पद या स्थान प्राप्त हो जाय / (ख) भाव विवक्षा-अनेक परीषह एवं उपसर्गों के होते हुए भी धैर्य से रत्नत्रय की आराधना करते हुए कर्मबन्धन से आत्मा मुक्त हो जाय / 20000 doot Padmaaaaaane
SR No.211051
Book TitleJainagamo me Mukti marg aur Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size3 MB
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