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जैन- परमाणुवाद और विज्ञान
परमाणुवाद एक सनातन सिद्धान्त है। इस सृष्टि की परिकल्पना के साथ परमाणुवाद का उदय माना जाता है। सृष्टि क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका समाधान सहज नहीं है। क्योंकि इस प्रश्न के गर्भ में अनगिनत प्रतिप्रश्न छिपे हैं। प्रश्नप्रतिप्रश्न, उत्तर- प्रत्युत्तर के क्रम ने विविध प्रकार के नए-नए सत्यों एवं तथ्यों को उद्घाटित किया । तथ्यों का यह उद्घाटन मनुष्य की विविध जिज्ञासाओं को शान्त करने के साथ-साथ उसके मन में नितांत नवीन जिज्ञासाओं का भी भाव भरता गया । फलस्वरूप मनुष्य निरंतर इनके समाधान हेतु उद्यम करता रहा । उसके इस उद्यम का ही परिणाम है कि हम आज काल्पनिक तथ्य को भी सत्य रूप में न केवल देख रहे हैं, बल्कि उसका उपयोग भी कर रहे हैं। परमाणुवाद भी मनुष्य के मन में उत्पन्न हुई जिज्ञासा का एक परिणाम है। यह सिद्धान्त दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तो है ही, विज्ञान के लिए भी आश्चर्य का विषय है। जैन दार्शनिकों ने परमाणुवाद का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से किया है जो दार्शनिक विशिष्टताओं से युक्त होने के साथ-साथ आधुनिक वैज्ञानिक मतों से कम महत्त्व नहीं रखता है। परमाणुवाद क्या है?
जैन परमाणुवाद की व्याख्या करने के पूर्व हमें यह जान लेना होगा कि परमाणुवाद क्या है? यह ब्रह्माण्ड भौतिक तत्त्वों से निर्मित है। इन्हीं भौतिक तत्त्वों के संबंध में जानना एवं इनके विविध स्वरूप को समझना परमाणुवाद है । परमाणुवाद अचित्त जगत् की विचित्रताओं से मनुष्य को अवगत कराता है। भारतीय चिंतकों ने इसे विविध नामों से व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है। चार्वाक जो अपने भौतिकतावादी चिंतन के लिए प्रसिद्ध है उसने परमाणुवाद की व्याख्या भूत तत्त्व के आधार पर करने का प्रयत्न किया? इसने इसी भूत को चेतन एवं अचेतन दोनों ही को सृष्ट करने वाला तथ्य स्वीकार किया।
आत्मवादी चिंतकों में सांख्य- योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा वेदान्त आदि वैदिक दार्शनिकों के साथ-साथ जैन एवं बौद्ध
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डॉ. रज्जन कुमार
प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.....
चिंतकों ने भी परमाणुवाद को अपने चिंतन का महत्त्वपूर्ण पक्ष स्वीकार किया है। सांख्य योग इस हेतु प्रकृति तत्त्व को अपना आधार बनाता है वहीं न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसक जड़ द्रव्य के आधार पर परमाणुवाद का विवेचन करते हैं । अद्वैतवाद के आचार्य शंकर माया' एवं विशिष्टाद्वैत के समर्थक श्री रामानुज अचित्" को अपने परमाणुवाद की विवेचना करने वाला तथ्य स्वीकार करते हैं। अवैदिक दार्शनिक बौद्ध-परमाणुवाद की व्याख्या हेतु रूप का आश्रय लेता है। वहीं दूसरी तरफ जैन चिंतक इसके लिए पुद्गल द्रव्य की प्रतिष्ठापना करते हैं । वैज्ञानिक परमाणुवाद की व्याख्या हेतु अणु-परमाणु' को अपने चिंतन का आधार बनाते हैं।
परमाणुवाद और मूलकण
परमाणुवादी चिंतन का प्रारंभ मूलकण अथवा मूलतत्त्व की अवधारणा से संबद्ध है। प्रायः मानव के समक्ष यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि यह ब्रह्माण्ड क्या है? इस ब्रह्माण्ड की जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब किन तत्त्वों से मिलकर बनी हैं? तत्त्व क्या है?
[ १७ ] स मिले ये मि
மாயி
उपर्युक्त समस्त चिंतनों का मन्तव्य कमोवेश एक ही था - जगत् के भौतिक स्वरूप की व्याख्या । यह जगत् चेतनअचेतन तत्वों से परिपूर्ण है तथा यहाँ पिण्ड आदि के रूप में ठोस, द्रव्य एवं गैसादि (वायु) पदार्थ भी पाए जाते हैं। पिण्डों का विभाजन भी होता है तथा विभिन्न तत्त्वों के संयोग से नए पिण्डों का निर्माण भी होता रहता है। संयोग और वियोग की इस क्रिया को मानव युगों से देखता आ रहा था। वह इस दिशा में निरंतर चिंतन करता रहता था। क्योंकि मानव-मन सर्वदा से जिज्ञासु रहा है। मानव के अवलोकन एवं चिंतन की प्रवृत्ति ने ही शनैः
शनैः परमाणुवाद की आधारशिला रख दी। क्योंकि वह संयोग और वियोग की क्रिया का समाधान चाहता था। वस्तुतः परमाणुवाद इसी समस्या के समाधान का एक परिणाम है जो आज इतना अधिक विकसित हो चुका है कि इसे कुछ शब्दों में व्यक्त कर पाना शायद ही संभव हो।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन क्या तत्व का सबसे छोटा अंश भी है? अगर छोटा अंश है तो कहा गया। बहुत दीर्घ अवधि तक परमाणु को मूलभूत कण क्या वही मूलतत्त्व या मूलकण है? अगर किसी तत्त्व का सबसे माना जाता रहा। छोटा भाग मूलतत्त्व है तो वह किस प्रकार वस्तुओं का निर्माण वैज्ञानिक इस दिशा में निरंतर प्रयोग एवं निरीक्षणों का करता है? ये कैसे एक-दूसरे के साथ परस्पर जुड़े रहते है? अभ्यास करते रहे और उनके साथ मलभत कण के सन्दर्भ में वस्तुओं की भिन्नता का कारण क्या है? क्या यही मूलकण नए-नए तथ्य प्रकाशित होते रहे। वैज्ञानिकों का मूलकण इससे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वरूप का निर्धारण करता है? इत्यादि
अछूता नहीं रहा और परमाणु भी विभाजित हो गया। इसका श्रेय अनेकों प्रश्न है, जो परमाणुवाद की नींव हैं। दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ।
थामसन नामक वैज्ञानिक को मिला और उसने परमाणु को दो ने इस दिशा में पर्याप्त ऊहापोह किया और विविध प्रकार के भागों में बाँटकर इसे इलेक्ट्रॉन (Electron) और प्रोटॉन (Proton) मन्तव्य प्रकाश में आए।
नाम दिया। इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन को विद्युत आवेश से युक्त प्रायः दार्शनिकों ने जगत् को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु माना गया। विद्युत आवेश दो प्रकार का होता है-ऋणावेश तथा आकाश का एक संघात माना है। कुछ दार्शनिकों ने मात्र ४ (Negative Charge) एवं धनावेश (Postitive Charge)। इलेक्ट्रॉन तथ्यों को ही इसके लिए उत्तरदायी माना और आकाश को ऋणावेशित होता है, जबकि प्रोटॉन धनावेशित होता है। पुनः इससे अलग रखा। लेकिन इस संघात के पीछे मूलरूप से कौन इस दिशा में और अधिक अन्वेषण हुआ और परमाणु तीन भागों कार्य करता है, तथा किसे मूलतत्त्व स्वीकार किया जाए, इस में विभाजित हो गया। यह तीसरा भाग न्यूट्रॉन (Neutron) संदर्भ को लेकर दार्शनिकों के बीच एक मत नहीं रहा। किसी ने कहलाया। यह प्रोटॉन का आवेशरहित भाग है१३। मात्र भूतों को ही इसके लिए प्रभावी माना तो किसी ने अचेतन
प्रोटॉन का यह विभाजन यहीं नहीं रुका। वैज्ञानिक शोधों प्रकति को इसका श्रेय दिया। किसी ने ब्रह्म अथवा चरम सत्ता ने इस दिशा में प्रगति का क्रम निरंतर बनाए रखा। फलतः नएको इसका कारण माना तो कोई परमशक्ति को ही मूलतत्व मान
नए मूलभूत कणों की अवधारणा विकसित होती गई और मनुष्य बैठा। सचमुच मूलतत्त्व का प्रश्न भी अत्यंत गूढ़ एवं रहस्यमय न्यटीनो (Nuetrinol बीटाकण (Beta Particles) पॉजीटान (Posi. बनता गया। लेकिन इसका महत्त्व कभी कम नहीं हुआ। यह
tron) जैसे सूक्ष्म कणों से अवगत होता रहा। फोटॉन (Photon) अभी भी दार्शनिकों के समक्ष एक ज्वलंत समस्या बना हुआ है
और फोनॉन (Phonan) जैसे सूक्ष्मतम कणों की खोज ने वैज्ञानिकों जिस पर निरंतर चिंतन हो रहा है। विस्तारभय से बचने के लिए
के समक्ष मूलभूत कण के संदर्भ में एक नया मापदण्ड प्रस्तुत हम इस दार्शनिक चिंतन पर यहीं विराम लगाते हैं।
किया। लेकिन वैज्ञानिक प्रगति का क्रम यहीं अवरुद्ध नहीं हुआ। मूलकण और विज्ञान
यहाँ होने वाले प्रायोगिक अन्वेषणों के परिणामस्वरूप मेसॉन
(Meson), ग्लूकॉन (Glucon), स्टैंज (Strange) आदि के रूप में विज्ञान के समक्ष भी मूलकण का प्रश्न उपस्थित हुआ।
१०० से अधिक सूक्ष्म कण प्राप्त हो गए हैं, जिन्हें वैज्ञानिक इसके लिए यह मात्र चिंतन का ही विषय नहीं रहा, बल्कि एक
मूलकण स्वीकार करते हैं। लेकिन विज्ञान ने सूक्ष्मकण अथवा व्यवहारिक समस्या भी रही। विज्ञान अपने प्रयोग एवं निरीक्षण ,
प्रारंभिक कण के संदर्भ में अपनी खोज का क्रम गतिमान रखा तथा के लिए प्रसिद्ध रहा है और इस हेतु उसे चिंतन के धरातल के
क्वार्क (Quark) के रूप में एक ऐसे मूलभूत कण को प्राप्त कर साथ-साथ व्यवहारिक प्रयोग के क्षेत्र में भी प्रयाण करना
लिया है, जिसका प्रायः और अधिक विभाजन संभव नहीं है। पड़ता है। मूलकण के संबंध में भी वैज्ञानिकों ने इसी नीति का अनुपालन किया। सर्वप्रथम उसने मूलकण के स्वरूप का निर्धारण परमाण्विक संरचना किया और यह मत व्यक्त किया - किसी भी तत्त्व का सबसे
परमाणु चाहे कितने ही भागों में विखण्डित क्यों न हो छोटा भाग जो पुनः विभाजित नहीं हो सकता मूलकण कहलाता
जाए, इसका अस्तित्व अथवा इसकी संरचना तीन कणों पर है। प्रारंभ में इसे अणु (Molecule) कहा गया। लेकिन अणु का भी आधारित होती है। ये तीन कण हैं--इलेक्टॉन, प्रोटॉन और विभाजन हो गया और इस विभाजित कण को परमाणु (Atom)
म करना
,
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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध - जैन दर्शन न्यूटॉन। ये तीनों किस अवस्था में किस प्रकार स्थित होते हैं मानव जगत् में मूलभूत परिवर्तन का कारण बन गयी। परमाणुवाद जिससे कि वे एक परमाणु की रचना करते हैं, फिर परमाणुओं के साथ ऊर्जा संप्रत्यय अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। के मिलने से अणु और अणुओं के संयोग से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड रेडियोधर्मिता भी परमाणुवादी सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय निर्मित हो जाता है। वैज्ञानिकों ने इस दिशा में मात्र चिंतन ही नहीं है जो ऊर्जा-प्राप्ति का एक आश्चर्यजनक अक्षय भंडार है। यह किया वरन् विभिन्न प्रकार के प्रयोगों द्वारा इसे निर्धारित करने अनायास मनुष्य के हाथ लग गया और मानव इसका प्रयोग का प्रयत्न भी किया। इस कोटि में कई वैज्ञानिकों का नाम रखा उपयोगी और दुरुपयोगी दोनों प्रकार के हित साधन-हेतु कर जा सकता है। लेकिन संभवतः थामसन, जे.जे. ने परमाणु संरचना रहा है। बोर द्वारा प्रतिपादित परमाण्विक मॉडल प्रायः अधिसंख्य के संबंध में जो मॉडल प्रस्तुत किया वह परमाणु संरचना का तत्त्वों के परमाणुओं को निर्दिष्ट करता है, लेकिन इस जगत् में दिग्दर्शन कराने वाला प्रथम मॉडल माना जा सकता है। कुछ ऐसे भी तत्त्व हैं जिन्हें भारी तत्त्व (Heavy element) कहा थामसन ने परमाणु को गोल तरबूज के समान माना तथा
जाता है। इनके परमाणुओं में निरंतर परिवर्तन होता रहता है और यह मत प्रस्तुत किया कि तरबूज के बीज की भाँति इलेक्टॉन इस परिवर्तन के कारण तत्त्व की अवस्था में तो परिवर्तन होता परमाणु के अंदर चारों तरफ बिखरे रहते हैं। प्रोटॉन गदे की भाँति ही है उसके गुणधर्म भी प्रायः बदल जाते हैं। इन्हें रेडियोधर्मी बीच में स्थित रहता है।६। परमाण की इस संरचना ने वैज्ञानिकों तत्व (Redio active Element) कहा जाता है। को एक नया चिंतन दिया। वे इस दिशा में निरंतर कार्य करते रेडियोधर्मी तत्त्व के परमाण अस्थायी अवस्था में रहते हैं। रहे। रदरफोर्ड नामक वैज्ञानिक ने परमाणु-आकृति का एक परमाणु स्थायी अवस्था में आने के लिए निरंतर प्रयत्नशील दूसरा मॉडल प्रस्तुत किया। इन्होंने केन्द्रक (Nucleus) को परमाणु रहते हैं, क्योंकि इनमें समायोजन (Re-adjust) की प्रवृत्ति रहती संरचना के साथ संबंधित किया। इनके अनुसार धनावेशित है। अतएव अस्थायी परमाणु में तब तक परिवर्तन का क्रम बना प्रोटॉन परमाणु के केन्द्र में स्थित रहता है, जो केन्द्रक (Nucleus) रहता है, जब तक ये स्थायी अवस्था को प्राप्त न कर लें। कहलाता है। इसी के साथ न्यूट्रॉन भी रहता है। इलेक्ट्रॉन परमाणुओं की स्थायी एवं अस्थायी अवस्था का कारण केन्द्रक केन्द्रक के चारों तरफ समान रूप से बिखरा रहता है। में उपस्थित कणों एवं प्रतिकणों के बीच पाए जाने वाले आकर्षण परमाणु संबंधी रदरफोर्ड का यह मॉडल एक नई जिज्ञासा
बल हैं। छोटी तथा बड़ी द्रव्यमान संख्या वाले केन्द्र को की उत्पन्न करने वाला माना गया। क्योंकि इसने यह मत प्रस्तुत
प्रतिकण बंधन-ऊर्जा कम ही होती है, फलस्वरूप ये केन्द्रक किया कि इलेक्ट्रॉन केन्द्रक के चारों तरफ समान रूप से बिखरे
कम स्थायी रहते हैं। रेडियम एक रेडियोधर्मी तत्त्व है, जिसका रहते हैं, लेकिन इसने यह नहीं बताया कि इलेक्ट्रॉन का यह
परमाणुभार २२६ है। केंद्रक में परमाणु का लगभग संपूर्ण भार समान बिखराव किस रूप में होता है। बोर (Bohr) नामक वैज्ञानिक
__ और धन-आवेश निहित रहता है। अतः परमाणु भार केन्द्रक ने अपना ध्यान इस दिशा में केन्द्रित किया और उसने परमाण की का सूचक माना जाता है। आकृति का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया। इनके मॉडल की परमाणुओं का यह अवस्था परिवर्तन असीमित मात्रा में विशेषता थी--इलेक्ट्रॉन केन्द्रक के चारों तरफ समान रूप से ऊर्जा उत्पन्न करता है, अथवा ऊर्जा-क्षय का कारण बनता है। बिखरे नहीं रहते हैं, बल्कि ये केंद्रक के चारों तरफ एक नियत ऊर्जा का यह क्षय केन्द्रक से नि:सृत होता है। प्रायः इससे कक्षा में परिभ्रमण करते रहते हैं। बाद में यह परमाण्विक संरचना निकली हुई ऊर्जा-किरणों को वैज्ञानिकों ने एल्फा (३) बीटा, (b) भी विवाद का विषय बन गयी, लेकिन यह परमाणु-संरचना का एवं गामा (1) नाम दिया है। प्रत्येक किरण का अपना अलगअध्ययन करने वालों के लिए अभी भी महत्त्वपूर्ण मॉडल है। अलग तरंगदैर्घ्य (Wave length) होता है। यही इनकी विशेषता है
जो विभिन्न प्रकार से उपयोगी बन जाती है। भारी तत्त्वों के रेडियोधर्मिता, ऊर्जा एवं परमाणुवाद
नाभिकों के इस क्षय के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म परमाणुवाद अपनी नवीन संकल्पनाओं के लिए सर्वदा
कणों की उत्पत्ति होती है। इनमें से कुछ विद्युतीय आवेश से प्रसिद्ध रहा है। रेडियोधर्मिता परमाणुवाद की एक ऐसी देन है जो
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - युक्त होते हैं तो कुछ में संहति (Mass) नहीं पाई जाती है, परंतु परमाणुओं, अणुओं में विद्युत आवेश संग्रहीत रहता है। इनकी इनमें ऊर्जा की बहुत अधिक मात्रा संग्रहीत रहती है। सचमुच चक्रण गति उनके चुम्बकीय आघूर्ण (Magnetic Moment) का भारी तत्त्वों की खोज एवं उनके नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया ___ कारण बनने की क्षमता रखते हैं। क्योंकि यह माना गया है कि ने परमाण्विक अध्ययन के क्षेत्र में एक सर्वथा नवीन मार्ग का इलेक्ट्रॉन अपने आप में एक सूक्ष्म चुम्बक(Micro Magnet) है, उद्घाटन किया। यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया कि इस अत: यह मान लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि नाभिकीय पर अलग से अध्ययन एवं शोध हेतु नाभिकीय विज्ञान (Nu- क्षेत्र के आसपास विद्युत चुंबकीय क्षेत्र बन जाते होंगे और ऐसा clear Science) नामक विज्ञान की एक नई शाखा बन गई। होता भी है। परमाणु - विखण्डन एवं सूक्ष्म कण
विद्युत चुम्बकीय तरंगों की ऊर्जा का वितरण नियमित न
होकर अनियमित ढंग से होता है। मैक्स फ्लैंक नामक वैज्ञानिक मूलभूत अथवा सूक्ष्मतम कणों के संबंध में पूर्व में उल्लेख
ने इस दिशा में काफी शोध किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो चुका है। यहाँ हम परमाणु विखण्डन अथवा नाभिकीय
कि एक स्थान से दूसरे स्थान तक विद्युत चुम्बकीय तरंगों की विखण्डन के समय उत्पन्न होने वाले कुछ सूक्ष्मकणों के संबंध
ऊर्जा का स्थानान्तरण क्वाण्टम के रूप में होता है। क्वाण्टम में भी विचार प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। ये कण हैं२२
__ऊर्जा की छोटी से छोटी इकाई. है। फोटॉन विद्युत चुम्बकीय न्यूट्रानो (Neutrino), फोटॉन (Photon), फोनॉन (Phonan), मेसॉन
ऊर्जा के क्वाण्टम का संवाहक है। फोटॉन का एक निश्चित (Meson) आदि। प्राय: ये सभी कण अल्फा, बीटा, गामा के ।
• संवेग होता है, लेकिन उसमें न तो संहति होती है और न ही क्षय के समय या उसी प्रक्रिया के क्रम में उत्पन्न होते हैं।
विद्युत आवेश। परन्तु इसमें ऊर्जा पाई जाती है। इसी तरह एक न्यूटीनो बहुत ही कम द्रव्यमान वाले तथा आवेशहीन और सक्ष्म कण फोनॉन (Phonan) है जो यांत्रिकीय तरंगों की कण होते हैं। इन कणों की अभिकल्पना, रेडियोएक्टिव विकिरण ऊर्जा का वाहक माना जाता है। में इलेक्ट्रॉन तथा पाजीट्रॉन कणों के उत्सर्जन के समय होने
इसी अनुक्रम में मेसॉन (Meson) नामक एक नए सूक्ष्म वाले ऊर्जा-परिवर्तनों के कारण बताने के लिए की गई थी।
कण की खोज हुई। यह अंतरिक्षीय विकिरणों द्वारा उत्पन्न होते न्यूट्रीनो, इलेक्ट्रॉनों से संबद्ध रहते हैं तथा इलेक्ट्रॉनों को ऊर्जा
हैं। इसमें न तो इलेक्ट्रॉन पाए गए न ही पॉजीट्रॉन (Positron) या बाँटते हैं। अपने सूक्ष्म परिमाण के कारण प्रायः ये दूसरे कणों से
फोटॉन (Photon)। अंतरिक्ष में होने वाले विकिरण से उत्पन्न प्रभावित नहीं होते हैं। इसी अनुक्रम में हम एन्टीन्यूट्रीनो
होकर ये वायुमण्डल में बहुत अधिक दूर तक अंतर्पविष्ट हो (Antineutrino) नामक सूक्ष्म कण का भी उल्लेख करना आवश्यक
जाते हैं। इस कार्य हेतु इनका अत्यन्त तीव्र गति से युक्त होना समझते हैं जिसे वैज्ञानिक पॉजीदान से संबद्ध तथा इनकी ऊर्जा
आवश्यक है तथा इनका शीघ्र ही क्षय भी हो जाता है।२५ बाँटने वाला कण स्वीकार करते हैं।२३
उपर्युक्त विवेचित अधिकांश कण अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं भारी नाभिकों से निकलने वाली गामा किरणें अधिक
और प्रायः इनकी उत्पत्ति परमाण्विक विखण्डन की क्रिया के ऊर्जा-सम्पन्न विद्युत चुंबकीय तरंगें होती हैं। विद्युत, चुम्बकत्व,
कारण ही संभव होती है। अतः ऐसे सूक्ष्म कणों को मूलकण भी ताप आदि ऊर्जा के विविध रूप हैं। ऊर्जा के ये विविध रूप
माना जा सकता है अथवा मूलकण के समकक्ष भी रखा जा तरंगों के रूप में संचरित होते हैं। प्रायः ऊर्जा के ये विविध रूप
सकता है, परंतु ये मूलकण जैन दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित मूलकण एक-दूसरे के प्रतिरूपों में रूपान्तरित हो सकते हैं। जैसे ताप
की भाँति वस्तुतः मूलकण ही हैं, यह नहीं कहा जा सकता। प्रकाश-ऊर्जा में, प्रकाश ताप-ऊर्जा में, विद्युत-ताप प्रकाश,
क्योंकि दार्शनिक उन्हें ही मूलकण स्वीकार करते हैं जिनका और ध्वनि आदि विविध रूपों में। प्रायः ऊर्जा रूपान्तरण में कुछ नई
विभाजन नहीं हो सकता। संभव है यह अभी तक एक विचार स्थिति-परिस्थिति बन जाती है। विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि
मात्र प्रतीत हो रहा हो, लेकिन शायद भविष्य में विज्ञान के हाथ विद्युत आवेश की गति से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है।
भी कोई ऐसा कण लग जाए जिसका और अधिक विभाजन
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य -- जैन दर्शन - संभव न हो। ऐसा मूलकण सचमुच में विज्ञान और दर्शन दोनों कुंदकुंद लिखते हैं२८ - सर्व स्कंधों का अन्तिम भाग परमाणु है। का मौलिक कण बन जाएगा।
यह अविभागी, एक, शाश्वत, मूर्तिप्रभव है। परमाणु, संहति और ऊर्जा
वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिष्ठापित परमाण जैनों की भाँति शाश्वत
नहीं है। परमाण्विक संरचना के कारण इसमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन क्या परमाणु में कोई द्रव्यमान होता है? अगर यह प्रश्न
होता ही रहता है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों ने परमाणुकिसी वैज्ञानिक से किया जाए तो सामान्यतः वह यही कहेगा
विखण्डन के द्वारा कई तरह के सूक्ष्म कण प्राप्त कर लिए हैं और कि परमाणु द्रव्यमान-रहित होता है। लेकिन यह द्रव्यमान रहित
भविष्य में भी शायद करते रहें। इस सन्दर्भ में जैनों का यह परमाणु अपने अंदर कुछ ऊर्जा संजोए रखता है, जिसकी मात्रा
चिन्तन अवलोकनीय है२९ - अनादि काल से अबतक परमाणु प्रायः निश्चित रहती है। विज्ञान का यह कथन सामान्य जनों को
की अवस्था में ही रहने वाला कोई अणु नहीं है। तात्पर्य यह है आश्चर्य में डाल देता है। क्योंकि वह यह सोचने पर विवश हो
कि जैनों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि विज्ञान का जाता है कि द्रव्यमान - रहित परमाणु से बने तत्त्वों में द्रव्यमान
परमाणु, परमाणु न होकर अणु है। क्योंकि अणु परमाणुओं से कहाँ से आ जाता है। क्योंकि यह सामान्य जिज्ञासा है कि जो है
मिलकर बनते हैं। इसी सन्दर्भ में हम जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत इस नहीं वह कहाँ से आ सकता है। वैज्ञानिकों के समक्ष भी यह प्रश्न
कथन पर भी विचार करें ऐसे परमाणु अनन्त पड़े हुए हैं जो उठा। उन्होंने भी समाधान का मार्ग खोजा और इसके लिए उन्होंने
आज तक स्कंधरूप नहीं हुए और आगे भी नहीं होंगे। कहने का परमाणु में निहित निश्चित मात्रा की ऊर्जा को उत्तरदायी माना।
अर्थ यह है कि मूलकण अनन्त हो सकते हैं, लेकिन मूलकण तो इस सन्दर्भ में हम आइन्स्टीन द्वारा प्रतिस्थापित सिद्धान्त मूलकण ही रहेंगे। उनमें विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि का अवलोकन कर सकते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ऊर्जा जो विभाजित हो गया वह मूलकण कहाँ रहा। तथा द्रव्यमान पदार्थ के ही गुण हैं। ऊर्जा को द्रव्यमान में तथा
परमाणु मूर्तिक होते हैं अर्थात् इन्हें आकार प्रदान किया संहति को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। आइन्स्टीन जा सकता है। मर्तिक होने के लिए वस्त में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण का यह मत नि:संदेह विविध प्रकार की जिज्ञासाओं को शान्त होना चाहिए। प्रत्येक परमाण में कम से कम एक रस एक वर्ण. कर देता है। यह ठीक है कि ऊर्जा और संहति का यह परिवर्तन एक गंध तथा दो स्पर्श अवश्य पाया जाता है।३१ इन्हीं गुणों की एक सामान्य अवस्था में संभव नहीं है, लेकिन यह प्रक्रिया तीव्रता एवं मंदता के आधार पर भी परमाणु के अनन्त भेद हो गतिमान रहती है। अतः द्रव्यमान-रहित परमाणु, जिसमें एक सकते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित मूलकण अथवा सूक्ष्मकणों निश्चित मात्रा में ऊर्जा रहती है, उससे निर्मित तत्त्वों में संहति का में ऊर्जा की मात्राएँ निहित रहती हैं। ऊर्जा की ये मात्राएँ सभी पाया जाना कोई आश्चर्यजनक सत्य नहीं है।
कणों में अलग-अलग लेकिन निश्चित रहती हैं। इसी. ऊर्जा
संचयन के कारण विज्ञान के मूलकण भी विविध प्रकार के माने मूलभूत कण एवं जैनमत
गए हैं। यह तथ्य प्रयोगसिद्ध है। मूलभूत कण उसे कहा जाता है जो एक अन्तिम कण हो
परमाणु-संरचना और जैन-मत जिसका विभाग संभव नहीं हो। यद्यपि विज्ञान के समक्ष अभी तक क्वार्क के रूप में ऐसा कण उपलब्ध हुआ है, लेकिन इसके पदार्थों का निर्माण अणुओं से और अणुओं की उत्पत्ति सम्बन्ध में वह कोई निश्चित अवधारणा नहीं बना पाया है। परमाणुओं से मानी गई है। प्रत्येक परमाण में एक केन्द्र होता है. क्वार्क के सम्बन्ध में जो अवधारणा है वह संभवत: विचारों जो धनावेशित होता है। अतः केन्द्र के चारों तरफ ऋणावेशित तक ही सीमित मानी जाती है। जैनों ने मूलभूत कण के रूप में इलेक्ट्रॉन अपनी नियत कक्षा में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। परमाणु की परिकल्पना की है। परमाणु के सम्बन्ध में अपना ऋणावेशित एवं धनावेशित तत्त्व एक दूसरे को आकर्षित करते मत व्यक्त करते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं कि परमाण के हैं क्योंकि इन दोनों परस्पर विरोधी आवेशों का यही गुण माना प्रदेश नहीं होते ।२७ पंचास्तिकाय में इसे स्पष्ट करते हए आचार्य गया है। इस आकर्षण के फलस्वरूप एक बल उत्पन्न होता है,
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन जिनके कारण इलेक्ट्रॉन लगातार अपनी कक्षीय गति को बनाए अवस्थाओं में इस (जल) यौगिक का संघटक समान रहता है, रखता है। परमाणुओं के द्वारा अणु एवं अणुओं के द्वारा विभिन्न अर्थात् दो भाग हाइड्रोजन एवं एक भाग ऑक्सीजन। यही इसकी प्रकार के तत्त्वों के निर्माण में यही ऋणावेश एवं धनावेश आण्विक संरचना (Molecular Form) है। जल के अणु की यह प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं।
संरचना अपरिवर्तनशील रहती है चाहे वह बर्फ रूप में रहे जैनाचार्यों ने परमाण्विक संरचना के संबंध में विज्ञान -
अथवा जलरूप में अथवा वाष्प रूप में। यही नौव्यता की प्रतिपादित नियमों का ही उल्लेख अपने चिंतन में किया है।
स्थिति है। इस अवस्था-परिर्वतन में कई कारक सक्रिय होते हैं, आचारसार में कहा गया है कि अणु पुदगल है, अभेद्य है, निरवयव
जैसे तापक्रम आदि। परंतु यहाँ यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, बंधने की शक्ति से युक्त होने के कारण कण है।३२ बंधन की है। महत्त्वपूर्ण यहाँ यह है कि क्या जल की जो विभिन्न अवस्थाएं शक्ति परमाणुओं में पाए जाने वाले स्निग्ध एवं रूक्ष गुणों के
हैं, वे वास्तव में जल के विविध पर्याय मात्र हैं अथवा उनसे कारण संभव है।३३ ये स्निग्ध और रूक्ष गुण क्रमशः ऋण एवं
नितांत भिन्न तत्त्व। जैनों ने तो इसे एक ही तत्त्व के भिन्न-भिन्न धन आवेश के समानार्थक माने गए हैं। इलेक्ट्रॉन निरंतर गतिशील
रूप माना है, अर्थात् इनमें मात्र.पर्यायगत भिन्नता है, द्रव्यगत रहता है और इस कारण विज्ञान का परमाणु भी सदैव गतिशील ।
सवानिशील नहीं। यद्यपि विज्ञान ने भी जल के उदाहरण में इस मत को ही माना जाता है। क्योंकि इलेक्ट्रॉन परमाण का अभिन्न भाग है।
स्वीकार किया है, परंतु क्या वह प्रत्येक अवस्था में यह मानने इसी के अनुरूप जैनों का यह कथन यहाँ संदर्भ के रूप में प्रस्तुत
को विवश है? कर रहे हैं-३४ पुद्गल निष्क्रिय नहीं रहते। यद्यपि यह कथन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के पूर्व यह मान्यता प्रचलित सिद्धों के निष्क्रियता को निर्धारित करने के लिए व्यवहृत हुआ थी कि द्रव्य(Matter) और ऊर्जा (Energy) दो विभिन्न तथ्य हैं। है, परंतु एक सिद्ध निष्क्रिय क्यों होता है, अगर हम इस संदर्भ में यह सिद्धांत भी स्वीकृत था कि पदार्थ को न तो ऊर्जा में बदला चिंतन करें, तो हम पाते हैं कि वह पुद्गल-निरपेक्ष होता है। जा सकता है और न ही ऊर्जा को पदार्थ में। परंतु जैसा कि हमने पुद्गल-की प्रकृति सक्रिय मानी गई है। .
पूर्व में देखा कि यह परिवर्तन संभव है। अतः हम यहाँ यह
मानने को विवश हैं कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही द्रव्य के दो ऊर्जा : पुदगल-पर्याय अथवा स्वतंत्र तत्त्व
रूप अर्थात् पर्याय हैं। यद्याप विज्ञान- जगत् में यह चिंतन एक जैनों ने इस विश्व को षड्द्रव्यों का संघात माना है और इन्हें नवीन एवं क्रांतिकारी मत के रूप में प्रसिद्ध हुआ जो कि अपेक्षाकृत दान कहा है। सत् के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य उमास्वाति बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। लेकिन जैन दार्शनिकों ने अपने कहते हैं- जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों गुणों को धारण परमाणुवादी चिंतन के अनुक्रम में इस सत्य को बहुत पहले ही करता है, वह सत् है। अपनी मूल जाति का त्याग किए बिना नवीन उदघाटित कर दिया था। अतः हम कह सकते हैं कि ऊर्जा पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है। पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है। द्रव्य में पुद्गल-पर्याय से इतर एक स्वतंत्र तत्त्व नहीं है। इस संदर्भ में मूल तत्त्वों का स्थापन ज्यों का त्यों बना रहना ध्रौव्य है। पानी हम यहाँ यह जैन-विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे- विभिन्न प्रकार अथवा जल की तीन अवस्थाएँ हैं--ठोस (बर्फ), द्रव (जल), की ऊर्जा--गर्मी, प्रकाश, विद्युत आदि पुद्गल के पर्याय हैं।२६ वायु (जलवाष्प)। द्रव जल की प्राकृतिक अवस्था है, लेकिन यह ठोस भी बन जाता है और वाष्प का रूप भी ग्रहण कर लेता है। बर्फ क्वाण्टम गातका एव जनमत जब गल कर पानी बनता है तो जल रूपी पर्याय उत्पन्न होता है। क्वाण्टम-गतिकी परमाणवाद का एक अत्यन्त संवेदनशील इस प्रक्रिया में बर्फ रूपी पर्याय का व्यय होता है। परंतु इन दोनों विचार है। यह परमाणु के अनिवार्य भाग इलेक्ट्रॉन के तरंग अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य अविनष्ट रहता है। यही ध्रौव्यता है। स्वभाव पर आधारित है। इलेक्ट्रॉन में दो प्रकार के गुण पाए
जल हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन नामक दो गैसीय तत्त्वों जाते हैं- आंशिक तरंग एवं आंशिक द्रव्य। तरंग से हमारा के मिलने से बनता है। पानी, बर्फ तथा भाप इन तीनों की बनानी
तापय इलक्ट्रान तात्पर्य इलेक्ट्रॉन के कम्पायमान स्वरूप से है। यह कम्पायमान तरंग .. (Vibrating waves) है। द्रव्यमान रूप (Particle borm) आंशिक
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रदय - जैन दर्शन द्रव्य का बोधक है। प्रायः पदार्थ कणात्मक रूप (Particle हैं। एक अनुमान के अनुसार १ रज्जु लगभग १.५४x (१०)२१ form) में पाया जाता है, जबकि ऊर्जा कम्पायमान रूप में। द्रव्य मील के बराबर होता है।४१ को ऊर्जा रूप में एवं ऊर्जा को द्रव्य रूप में एक विशिष्ट वातावरण
" परमाण्विक व्यतीकरण एवं समाप्सीकरण में परिवर्तित किया जा सकता है। यह प्रयोगसिद्ध तथ्य है।
जैन चिंतकों ने यह स्पष्ट किया है कि परमाणु में परमाणु का ऋणात्मक अथवा तरंगात्मक स्वरूप इलेक्ट्रॉन
सूक्ष्मपरिणामावगाहन शक्ति है। इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य की गतिशीलता पर आधारित है। अगर हम किसी गतिशील कण
- पूज्यपाद कहते हैं।२ - सूक्ष्म रूप से परिणत हुए पुद्गल परमाणु की सही स्थिति का पता करना चाहें तो एक साथ गति एवं स्थिति की सही अवस्था को पता नहीं नहीं कर सकते। क्योंकि
आकाश के एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त ठहर सकते हैं। विविध कारणों से इनकी अवस्था एवं स्वरूप आदि में परिवर्तन
कहने का तात्पर्य यह है कि परमाणु में प्रचय एवं संकोच की आता रहता है। हाइजेनबर्क ने स्पष्ट रूप से यह मत प्रतिपादित
अत्यंत व्यापक क्षमता है जिनके कारण थोड़े से परमाणु एक
विस्तृत आकाश खण्ड को घेर लेते हैं, वहीं दूसरी तरफ कभी किया है।८ - इलेक्ट्रॉन के समान गतिशील कण की सही-सही स्थिति तथा संवेग (या वेग) दोनों एक साथ पता लगाना संभव
कभी वे परमाणु घनीभूत होकर बहुत छोटे आकाश देश में समा नहीं है। हाँ, उसके अधिकतम संभव (Probability) स्वरूप को
जाते हैं। परमाणुओं का यह संकोच एवं प्रचय क्रमशः समासीकरण अवश्य पता किया जा सकता है।
एवं व्यतीकरण कहलाता है। वैज्ञानिकों ने भी इस क्षेत्र में अनुसंधान
किए हैं और उन्होंने कुछ ऐसी निविड (भारी) वस्तुओं अथवा . चूँकि इलेक्ट्रॉन तरंग रूप में गतिमान रहता है और प्रत्येक
तत्त्वों का पता लगाया है जो परमाणुओं के संकोच करने की तरंग की गति एक विशेष रूप में चलती है। कभी यह महत्तम
क्षमता को प्रदर्शित करता है। वेग को प्राप्त कर महत्तम अवस्था में पहँच जाती है तो दूसरी तरफ आवर्ती क्रम में यह दूसरी दिशा में उसी तल के निम्नतम
सामान्यतया सोना, शीशा, प्लेटनिम, पारा आदि भारी पदार्थ
माने जाते हैं। समान माप के इन तत्त्वों के टकडे और लकडी के भाग तक पहुँच जाती है। कहने का अर्थ यह है कि इलेक्ट्रॉन की
टुकड़े के भार में कितना अंतर पाया जाता है इस तथ्य से हम भली गति अधिकतम एवं न्यूनतम दोनों रहती है। इस गति का मापन भी वैज्ञानिकों ने किया है जो अत्यंत जटिल एवं उत्कृष्ट संवेदनशील
भांति विदित हैं। इसका कारण परमाणुओं की सघनता, उनकी
निविडता है। जितने आकाश खण्ड को उस लकड़ी के छोटे से यंत्रों द्वारा संभव है। इसे मात्र विचार रूप में व्यक्त कर देना
परमाणुओं ने घेरा, उतने ही आकाश खण्ड में अधिकाधिक परमाणु विज्ञान की महानता को न्यून करना मात्र ही होगा। परमाणु की
एकत्रित होकर धात्विक पदार्थो-सोना, प्लेटनिम आदि के रूप में गति के संबंध में हम जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित विचारों को
रह सकते हैं। इसी तरह अन्य ठोस पदार्थों के बारे में जाना जा उद्धृत करना चाहेंगे।
सकता है जो अपनी सघनता से एक छोटे से आकाश खण्ड में जैनों के अनुसार परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा रहते हैं और अपने अंदर असीमित मात्रा में परमाणुओं को संग्रहीत में और वैभाविक गति वक्र रेखा में होती है। परमाणु कम से कम किए रहते हैं। परमाणुओं का यह असीमित संग्रह उसे इतना अधिक एक समय में एक प्रदेश का अवगाहन कर सकता है और भार प्रदान करता है जिसके संबंध में मनुष्य परिकल्पना नहीं कर अधिक से अधिक उसी समय में सम्पूर्ण लोकाकाश का।३९ सकता। आज वैज्ञानिकों ने एक ऐसे छोटे तारे की खोज की है समय काल की सबसे छोटी इकाई है जबकि प्रदेश आकाश के जिसके एक क्यूबिक इंच का वजन १६७४० मन है। छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम है। लोकाकाश आकाश जहाँ तक व्यतीकरण का प्रश्र है. इस संदर्भ में हम जैनाचार्यो का वह भाग है, जिसमें धर्म, अधर्म, पुद्गल, काल, जीव सभी के इस कथन पर विचार कर सकते हैं.३-- जीव असंख्यात पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम इसे षड्द्रव्यों का समवाय कह प्रदेशी होने पर भी संकोच विस्तारशील होने से कर्म के अनुसार सकते हैं। संपूर्ण लोकाकाश १४ रज्जु परिमाण वाला है। रज्जु प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है। लेकिन जैनों का एक माप है जिसके संबंध में कई तरह की अवधारणाएँ समुद्घात-काल में इसकी लोकपूरण अवस्था होती है। आचार्य
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नेमिचन्द्र के अनुसार" - मूल शरीर को न छोड़कर तैजस कार्मण रूप उत्तर देह के साथ-साथ जीव प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । यद्यपि यह सन्दर्भ जीव तत्त्व से जुड़ा है, जबकि हमारा विवेचन अजीव तत्त्व से संबंधित है। अतः यहाँ कुछ विरोधाभास हो सकता है, लेकिन उसे दूर करने के लिए हम इतना ही कहना चाहेंगे कि व्यतीकरण की पराकाष्ठा को समझने के लिए इससे अच्छा सन्दर्भ शायद उपलब्ध न हो, शायद यह भी एकपक्षीय मत ही हो, परंतु विवादास्पद नहीं । वैज्ञानिकों ने भी इस दिशा में प्रयोग किए। यद्यपि इनका चिंतन और प्रयोग इतना ज्यादा व्यापक नहीं है लेकिन परमाण्विक विखण्डन तथा इसी तरह के अन्यान्य प्रकल्पों के माध्यम से जो वैज्ञानिक तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं वे वस्तुतः परमाणुओं के व्यतीकरण के सिद्धांत को ही संपुष्टि प्रदान करते प्रतीत होते हैं।
इस प्रकार जैन एवं वैज्ञानिक परमाणुवादी अवधारणा को कुछ मान्यताओं के आधार पर तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास किया गया है। कहीं-कहीं यह तुलना अत्यन्त सार्थक प्रतीत होती है, तो किसी क्षण इसमें अल्प व्यतिक्रम भी आया है जो स्वाभाविक भी है। उस अंतर का मुख्य कारण परंपरा एवं प्रणालीगत व्यवस्था है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
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